Follow us for Latest Update

दामोदर मास कार्तिक ।।

पढे़ समझे व करे 
﹌﹌﹌﹌﹌﹌﹌﹌

वैकुंठ चतुर्दशी हिंदू कैलेंडर में एक पवित्र दिन है जो कार्तिक पूर्णिमा से एक दिन पहले मनाया जाता है । कार्तिक माह के दौरान शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को भगवान विष्णु के साथ-साथ भगवान शिव के भक्तों के लिए भी पवित्र माना जाता है क्योंकि दोनों देवताओं की पूजा एक ही दिन की जाती है। अन्यथा, ऐसा बहुत कम होता है कि एक ही दिन भगवान शिव और भगवान विष्णु की एक साथ पूजा की जाती है।

वाराणसी के अधिकांश मंदिर वैकुंठ चतुर्दशी मनाते हैं और यह देव दिवाली के एक और महत्वपूर्ण अनुष्ठान से एक दिन पहले आता है । वाराणसी के अलावा, वैकुंठ चतुर्दशी ऋषिकेश, गया और महाराष्ट्र के कई शहरों में भी मनाई जाती है।

शिव पुराण के अनुसार कार्तिक चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु भगवान शिव की पूजा करने वाराणसी गए थे। भगवान विष्णु ने एक हजार कमल के साथ भगवान शिव की पूजा करने का संकल्प लिया। कमल के फूल चढ़ाते समय, भगवान विष्णु ने पाया कि हजारवां कमल गायब था। अपनी पूजा को पूरा करने और पूरा करने के लिए भगवान विष्णु, जिनकी आंखों की तुलना कमल से की जाती है, ने अपनी एक आंख को तोड़ दिया और लापता हजारवें कमल के फूल के स्थान पर भगवान शिव को अर्पित कर दिया। भगवान विष्णु की इस भक्ति ने भगवान शिव को इतना प्रसन्न किया कि उन्होंने न केवल भगवान विष्णु की फटी हुई आंख को बहाल किया, बल्कि उन्होंने भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र का उपहार भी दिया, जो भगवान विष्णु के सबसे शक्तिशाली और पवित्र हथियारों में से एक बन गया।

वैकुंठ चतुर्दशी पर, निशिता के दौरान भगवान विष्णु की पूजा की जाती है जो दिन के हिंदू विभाजन के अनुसार मध्यरात्रि है। भक्त भगवान विष्णु के हजार नामों, विष्णु सहस्रनाम का पाठ करते हुए भगवान विष्णु को एक हजार कमल चढ़ाते हैं।

यद्यपि वैकुंठ चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु और भगवान शिव दोनों की पूजा की जाती है, भक्त दिन के दो अलग-अलग समय पर पूजा करते हैं। भगवान विष्णु के भक्त निशिता को पसंद करते हैं जो हिंदू मध्यरात्रि है जबकि भगवान शिव के भक्त अरुणोदय को पसंद करते हैं जो पूजा के लिए हिंदू भोर है। शिव भक्तों के लिए, वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर अरुणोदय के दौरान सुबह का स्नान बहुत महत्वपूर्ण है और इस पवित्र डुबकी को कार्तिक चतुर्दशी पर मणिकर्णिका स्नान के रूप में जाना जाता है।

यह एकमात्र दिन है जब भगवान विष्णु को वाराणसी के एक प्रमुख भगवान शिव मंदिर काशी विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह में विशेष सम्मान दिया जाता है । ऐसा माना जाता है कि विश्वनाथ मंदिर उसी दिन वैकुंठ के समान पवित्र हो जाता है। दोनों देवताओं की पूजा इस तरह की जाती है जैसे वे एक-दूसरे की पूजा कर रहे हों। भगवान विष्णु शिव को तुलसी के पत्ते चढ़ाते हैं और भगवान शिव बदले में भगवान विष्णु को बेल के पत्ते चढ़ाते हैं।

अप्सरा

      श्रीविद्या साधना के अंतर्गत अप्सरा सिद्धि जातक को प्राप्त होती है। अप्सराएं दयालू प्रवृत्ति की अहिंसक शक्तिपुंज हैं। खगोल के माध्यम से ही सभी कुछ इस पृथ्वी पर आता है। समस्त संवेग खगोल अर्थात आकाश के माध्यम से ही मानव मस्तिष्क को उत्प्रेरित करते हैं, अप्सराएं वो जीवन शक्ति का प्रचण्ड माध्यम हैं जिनके द्वारा मस्तिष्क का पोषण होता है। ये मस्तिष्क के रस विज्ञान को परम संतुलित रखती हैं एवं उसे सदैव रसमयी बनाये रखती हैं। साधनाकाल में जातक खगोलीय मस्तिष्क एवं खगोलीय शरीर को प्राप्त कर लेता है, वह आकाश की अनंत ऊंचाईयों में विचरण करने लगता है। ऐसे खगोलीय मस्तिष्क अत्यधिक क्रियाशील हो जाते हैं उनमें नित नये विचार, चिंतन, सृजनात्मकता इत्यादि अपेक्षाकृत बढ़ जाती है। इन असामान्य परिस्थितियों में अप्सराएं ही जातक के खगोलीय मस्तिष्क का वास्तविक पोषण करने में सक्षम होती है। 

            हे सागर कन्याओं, हे सागर की पुत्रियों, हे लक्ष्मी की बहिनों, हे भगवान धन्वन्तरी की बहनों, हे रत्न प्रियाओं, हे अमृत-युक्ताओं तुम सबको मेरा बारम्बार नमस्कार है। अप्सराएं श्रीहरि की सालियाँ हैं, श्रीहरि की परम प्रियायें हैं क्योंकि वे सब भगवती लक्ष्मी की बहिनें हैं और सागर मंथन के समय लक्ष्मी जी से पहले उत्पन्न हुई हैं। भगवान धन्वन्तरी जो कि देवताओं को भी आरोग्य प्रदान करते हैं वे अप्सराओं के भाई हैं। समस्त रत्न अप्सराओं के साथ ही समुद्र मंथन के समय उत्पन्न हुए हैं अतः अप्सराओं में रत्नों सी चमक है। ये अप्सराएं कल्प- वृक्ष स्वरूपा हैं क्योंकि कल्पवृक्ष भी समुद्र मंथन में उत्पन्न हुआ है। कल्पवृक्ष का तात्पर्य है समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला वृक्ष। 

              समुद्र मंथन में जब कामधेनु उत्पन्न हुईं तो ऋषियों ने उन्हें ले लिया, कामधेनु के दुग्ध का पान करके ही ऋषि-मुनि अपने मस्तिष्क एवं शरीर का पोषण करते हैं अतः अप्सराएं भी दिव्य वृक्ष-स्थल की मल्लिकाएं हैं। तप से तपे हुए विश्वामित्र का मस्तिष्क मेनका रूपी अप्सरा के वक्ष स्थल पर ही स्थित होकर शीतल हुआ। जिस प्रकार इन्द्र का ऐरावत हाथी जो कि समुद्र मंथन के समय अप्सराओं के साथ उत्पन्न हुआ है द्रुत गति से ब्रह्माण्ड में कहीं भी विचरण कर सकता है ठीक उसी प्रकार अप्सरा भी द्रुत गति से समस्त लोकों में विचरण करने हेतु सक्षम हैं। अप्सराओं की उत्पत्ति के समय ही ब्रह्मा ने उन्हें समस्त लोकों में विचरण का अधिकार दिया, ब्रह्मा ने स्वयं अप्सराओं को परम स्वतंत्रता प्रदान की। समुद्र मंथन में जो-जो भी उत्पन्न हुआ उन सब पर वर्ग विशेष का अधिकार रहा परन्तु केवल अप्सराओं को वर्ग विशेष के अधिकार से मुक्त रखा गया उन्हें किसी भी प्रकार से बंधन-युक्त नहीं किया गया। 

              भगवती लक्ष्मी श्रीहरि धाम चली गईं परन्तु अप्सराएं आज भी सभी जगह विचरण करती हैं। समुद्र मंथन में अमृत भी प्रकट हुआ, समुद्र मंथन में मदिरा भी प्रकट हुई इसलिए अप्सराओं का सौन्दर्य मादक है, इसलिए अप्सराओं का सौन्दर्य अमृतमयी है। विश्व के सभी धर्मों ने एक स्वर में अप्सराओं की उपस्थिति का प्रमाणीकरण किया है। ईसाई धर्म में इन्हें ऐन्जल कहा गया, इस्लाम में इन्हें जन्नत की हूर कहा गया, बौद्ध धर्म में इन्हें देव-कन्या कहा गया, सनातन धर्म में इन्हें अप्सरा कहा गया इत्यादि-इत्यादि। कहीं पर भी इनके अस्तित्व को नकारा नहीं गया। समुद्र मंथन क्यों किया गया ? समुद्र मंथन का एकमात्र उद्देश्य था ब्रह्मा द्वारा सृजित सृष्टि की रुग्णता, शिथिलता, बोझिलता एवं लकवा-ग्रस्तता को दूर करना। सृष्टि की रचना एक बात है, सृष्टि चलाना एवं उसे क्रियाशील करना दूसरी बात है जिसमें ब्रह्मा जी सर्वथा असमर्थ सिद्ध हो रहे थे। जीवन प्राप्त करने से क्या होगा ? निराशा युक्त, लक्ष्यहीन, आनंदहीन, शक्तिहीन, बोझिल, ढला हुआ, वृद्धता की ओर अग्रसर होता हुआ जीवन किस काम का। इस स्थिति में तो जीवन की उत्पत्ति पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। ब्रह्मा जी की सृष्टि पर तो अनेकों प्रश्न चिन्ह लगे हुए हैं अतः भगवती त्रिपुर सुन्दरी एवं देवाधिदेव महादेव भगवान शिव की अंतःप्रेरणा से समुद्र मंथन का प्रयोजन किया गया जिससे कि जीवन- दायिनी शक्तियों का, जीवन के प्रवाह को सुगम बनाने वाली शक्तियों का, जीवन को आनंददायी, मधुरतम एवं क्रियाशील करने वाली शक्तियों का उत्पादन किया जा सके। 

             कर्म के ताप को नियंत्रित किया जा सके और इसके साथ-साथ जीवन जीने के प्रति लालसा, उत्साह के भाव बने रहे इस हेतु अप्सराओं की उत्पत्ति की गई। शक्ति का एक विशेष रूप में अनुसंधान किया गया। जब-जब जीवन उत्साहहीन एवं निरर्थक होने लगता है तब-तब अप्सराएं उसमें पुनः प्राण फूंकती हैं।

          भगवती महाअप्सरा हैं और अप्सराओं का निर्माण करती हैं। अप्सरा साधना पूर्णिमा या फिर चंद्रकला की उपस्थिति में करनी चाहिए। अप्सराएं चंद्र मण्डल के माध्यम से ही चंद्र रश्मियों के द्वारा ही गमन करती हैं। ध्यान रहे चंद्रमा की उत्पत्ति भी समुद्र मंथन के दौरान हुई है। ग्रह नक्षत्र मण्डलों में भगवान शनि के पास सबसे ज्यादा अप्सराएं हैं, 16 अप्सराओं का समूह शनि मण्डल में गमन करता है। ये अप्सराएं अगर शनि मण्डल में नहीं होती तो न जाने शनि महाराज कब के वृद्ध होकर परलोक सिधार गये होते। निरंतर कर्मशील भगवान सूर्य के रथ के आगे अप्सराएं चलती रहती हैं और सूर्य देव को प्रसन्नता प्रदान करती रहती हैं। अप्सरा साधना कभी भी उन्हें माता समझकर न करें, अप्सराएं संतान उत्पत्ति नहीं करती हैं, वे किसी बंधन में नहीं बंधती, वे किसी की पत्नी नहीं बनती अपितु वे एक अच्छी मित्र, अच्छी सहयोगी, अच्छी प्रेयसी के रूप में सब कुछ प्रदान करती हैं। स्त्री सौन्दर्य का विकास तभी सम्भव है जब उसके साथ किसी अप्सरा विशेष का गमन अवश्यम्भावी हो। रूप, लावण्य, ऐश्वर्य, नृत्य, मुस्कान, पवित्र हृदयता, छलकता हुआ यौवन बाजार में नहीं मिलता, औषधि की दुकान पर नहीं मिलता अपितु इसकी एकमात्र प्रदात्री हैं अप्सराएं।

यक्ष व यक्षिणी ।।

💫यक्षिणी (या यक्षी ; पालि: यक्खिनी या यक्खी ) हिंदू, बौद्ध और जैन धार्मिक पुराणों में वर्णित एक वर्ग है जो देवों (देवताओं), असुरों (राक्षसों), और गन्धर्वों या अप्सराओं से अलग हैं। यक्षिणी और यक्ष, भारत के सदियों पुराने पवित्र पेड़ों से जुड़े कई अपसामान्य प्राणियों में से एक हैं।

यक्ष-यक्षिणी का वर्णन, अनेक धर्म ग्रंथों में मिलता है। इन्हें भगवान शिव के, सेवक माना जाता है। इनके राजा यक्षराज कुबेर हैं, जो धन के स्वामी हैं। ये कुबेर रावण के भाई भी हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार, यक्ष-यक्षिणीयों के पास रहस्यमयी ताकत होती है।

मनोकांमना पूर्ति हेतु यक्ष - यक्षिणी पूजा ----

तंत्र शास्त्र के अनुसार, इस ब्रह्मांड में , कई लोक हैं। सभी लोकों के अलग-अलग देवी-देवता हैं। पृथ्वी से , इन सभी लोकों की दूरी अलग-अलग है। मान्यता है कि, नजदीक लोक में रहने वाले देवी-देवता जल्दी प्रसन्न होते हैं। क्योंकि, लगातार ठीक दिशा और समय पर, किसी मंत्र विशेष की साधना करने पर, उन तक तरंगे जल्दी पहुंचती हैं। यही कारण है कि, यक्ष-यक्षिणी की साधना जल्दी पूरी होती है । क्योंकि, इनके लोक पृथ्वी से पास माने गए हैं।

यक्ष एक दैवी प्रजाति है, इनका स्वामी शिव का भक्त कुबेर है । शिव, कुबेर की भक्ति से, इतने प्रसन्न हो गए कि, उसे देवताओं का खजांची अथवा कोषाध्यक्ष बना दिया। ये सबसे धनवान देवता हैं और अपने कैलास के बगल में , उनको रहने का स्थान ( लोक ) दिया , यक्षों के राजा कुबेर हैं , और उनके लोक का नाम ' अलकापूरी ' है । यक्ष लोग देवताओं जैसे होते है।

योगिनी, किन्नरी, अप्सरा आदि की तरह ही यक्षिणियां भी, मनुष्य की समस्त कामनाओं की पूर्ति करती हैं। साधारणतया, 36 यक्षिणियां हैं तथा उनके वर देने के प्रकार अलग-अलग हैं। माता, बहन या पत्नी के रूप में , उनका वरण किया जाता है। उनकी साधना के पहले तैयारी की जाती है, जो अधिक कठिन है, बजाय साधना के।

रहस्यमयी शक्तियों के स्वामी होते हैं यक्ष-यक्षिणी, इनकी पूजा से पूरी हो सकती है , हर मनोकामनाएं !

।। श्रीगोवर्धनाष्टकम् ।।

 
कृष्णप्रसादेन समस्तशैल
साम्राज्यमाप्नोति च वैरिणोऽपि ।
शक्रस्य यः प्राप बलिं स साक्षा-
द्गोवर्धनो मे दिशतामभीष्टम् ॥ १॥
स्वप्रेष्ठहस्ताम्बुजसौकुमार्य
सुखानुभूतेरतिभूमि वृत्तेः ।
महेन्द्रवज्राहतिमप्यजानन्
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ २॥
यत्रैव कृष्णो वृषभानुपुत्र्या
दानं गृहीतुं कलहं वितेने ।
श्रुतेः स्पृहा यत्र महत्यतः श्री
गोवर्धनो मे दिषतामभिष्टम् ॥ ३॥
स्नात्वा सरः स्वशु समीर हस्ती
यत्रैव नीपादिपराग धूलिः ।
आलोलयन् खेलति चारु स श्री
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ४॥
कस्तूरिकाभिः शयितं किमत्रे-
त्यूहं प्रभोः स्वस्य मुहुर्वितन्वन् ।
नैसर्गिकस्वीयशिलासुगन्धै-
र्गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ५॥
वंशप्रतिध्वन्यनुसारवर्त्म
दिदृक्षवो यत्र हरिं हरिण्याः ।
यान्त्यो लभन्ते न हि विस्मिताः स
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ६॥
यत्रैव गङ्गामनु नावि राधां
आरोह्य मध्ये तु निमग्ननौकः ।
कृष्णो हि राधानुगलो बभौ स
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ७॥
विना भवेत्किं हरिदासवर्य
पदाश्रयं भक्तिरतः श्रयामि ।
यमेव सप्रेम निजेशयोः श्री
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ८॥
एतत्पठेद्यो हरिदासवर्य
महानुभावाष्टकमार्द्रचेताः ।
श्रीराधिकामाधवयोः पदाब्ज
दास्यं स विन्देदचिरेण साक्षात् ॥ ९॥
इति महामहोपाध्याय श्रीविश्वनाथचक्रवर्ति विरचितं श्रीगोवर्धनाष्टकं सम्पूर्णं ।।

जानिए आपके प्राण कहाँ से निकलेंगे...

प्रत्येक व्यक्ति अलग इंद्रिय से मरता है।किसी की मौत आंख से होती है, तो आंख खुली रह जाती है—हंस आंख से उड़ा। किसी की मृत्यु कान से होती है। किसी की मृत्यु मुंह से होती है, तो मुंह खुला रह जाता है। 

अधिक लोगों की मृत्यु जननेंद्रिय से होती है, क्योंकि अधिक लोग जीवन में जननेंद्रिय के आसपास ही भटकते रहते हैं, उसके ऊपर नहीं जा पाते।

आपकी जिंदगी जिस इंद्रिय के पास जीयी गई है, उसी इंद्रिय से मौत होगी। औपचारिक रूप से हम मृतक को जब मरघट ले जाते हैं तो उसकी कपाल—क्रिया करते हैं, उसका सिर तोड़ते हैं। वह सिर्फ प्रतीक है। पर समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु उस तरह होती है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु सहस्रार से होती है।

जननेंद्रिय सबसे नीचा द्वार है। जैसे कोई अपने घर की नाली में से प्रवेश करके बाहर निकले। सहस्रार, जो तुम्हारे मस्तिष्क में है द्वार, वह श्रेष्ठतम द्वार है। 

जननेंद्रिय पृथ्वी से जोड़ती है, सहस्रार आकाश से। जननेंद्रिय देह से जोड़ती है, सहस्रार आत्मा से। जो लोग समाधिस्थ हो गए हैं, जिन्होंने ध्यान को अनुभव किया है, जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं, उनकी मृत्यु सहस्रार से होती है।

उस प्रतीक में हम अभी भी कपाल—क्रिया करते हैं। मरघट ले जाते हैं, बाप मर जाता है, तो बेटा लकड़ी मारकर सिर तोड़ देता है। मरे—मराए का सिर तोड़ रहे हो! 

प्राण तो निकल ही चुके, अब काहे के लिए दरवाजा खोल रहे हो? अब निकलने को वहां कोई है ही नहीं। मगर प्रतीक, औपचारिक, आशा कर रहा है बेटा कि बाप सहस्रार से मरे; मगर बाप तो मर ही चुका है। 

यह दरवाजा मरने के बाद नहीं खोला जाता, यह दरवाजा जिंदगी में खोलना पड़ता है। इसी दरवाजे की तलाश में सारे योग, तंत्र की विद्याओं का जन्म हुआ। इसी दरवाजे को खोलने की कुंजियां हैं योग में, तंत्र में। 

इसी दरवाजे को जिसने खोल लिया, वह परमात्मा को जानकर मरता है। उसकी मृत्यु समाधि हो जाती है।

प्रत्येक व्यक्ति उस इंद्रिय से मरता है, जिस इंद्रिय के पास जीया। जो लोग रूप के दीवाने हैं, वे आंख से मरेंगे; इसलिए चित्रकार, मूर्तिकार आंख से मरते हैं। उनकी आंख खुली रह जाती है। जिंदगी—भर उन्होंने रूप और रंग में ही अपने को तलाशा, अपनी खोज की। संगीतज्ञ कान से मरते हैं। उनका जीवन कान के पास ही था।

उनकी सारी संवेदनशीलता वहीं संगृहीत हो गई थी। मृत्यु देखकर कहा जा सकता है—आदमी का पूरा जीवन कैसा बीता। अगर तुम्हें मृत्यु को पढ़ने का ज्ञान हो, तो मृत्यु पूरी जिंदगी के बाबत खबर दे जाती है कि आदमी कैसे जीया; क्योंकि मृत्यु सूचक है, सारी जिंदगी का सार—निचोड़ है—आदमी कहां जीया।

~~~

मृत्यु के समय जीव के साथ क्या घटित हो रहा होता है उसका वहां अन्य लोगों को अंदाज़ नही हो पाता । लेकिन घटनाएं तेज़ी से घटती हैं । मृत्यु के समय व्यक्ति की सबसे पहले वाक उसके मन में विलीन हो जाती है ।उसकी बोलने की शक्ति समाप्त हो जाती है।

उस समय वह मन ही मन विचार कर सकता है लेकिन कुछ बोल नहीं सकता । उसके बाद दृष्टिऔर फिरश्रवण इन्द्रिय मन में विलीन हो जाती हैं । उस समय वह न देख पाता है, न बोल पाता है और न ही सुन पाता है ।

उसके बाद मन इन इंद्रियों के साथ प्राण में विलीन हो जाता है उस समय सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो जाती है, केवल श्वास-प्रश्वास चलती रहती है ।

इसके बाद सबके साथ प्राण सूक्ष्म शरीर मे प्रवेश करता है । फिर जीव सूक्ष्म रूप से पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश (पञ्च तन्मात्राओं) का आश्रय लेकर हृदय देश से निकलने वाली 101 नाड़ियों में से किसी एक में प्रवेश करता है ।

हृदय देश से जो 101 नाड़ियां निकली हुई है, मृत्यु के समय जीव इन्हीं में से किसी एक नाड़ी में प्रवेश कर देह-त्याग करता है । मोक्ष प्राप्त करने वाला जीव जिस नाड़ी में प्रवेश करता है, वह नाड़ी हृदय से मस्तिष्क तक फैली हुई है । जो मृत्यु के समय आवागमन से मुक्त नहीं हो रहे होते वे जीव किसी दूसरी नाड़ी में प्रवेश करते हैं ।

जीव जब तक नाड़ी में प्रवेश नही करता तब तक ज्ञानी और मूर्ख दोनों की एक गति एक ही तरह की होती है । नाड़ी में प्रवेश करने के बाद जीवन की अलग अलग गतियां होती हैं।

श्री आदि शंकराचार्य जी का कथन है कि 'जो लोग ब्रह्मविद्या की प्राप्ति करते हैं वो मृत्यु के बाद देह ग्रहण नही करते, बल्कि मृत्यु के बाद उनको मोक्ष प्राप्त हो जाता है' । श्री रामानुज स्वामी का कहना है 'ब्रह्मविद्या प्राप्त होने के बाद भी जीव जीव देवयान पथ पर गमन करने के बाद ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है, उसके बाद मुक्त हो जाता है' ।

देवयान पथ के संदर्भ में श्री आदि शंकराचार्य जी ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि 'जो सगुण ब्रह्म की उपासना करते हैं वे ही सगुण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं और जो निर्गुण ब्रह्म की उपासना कर ब्रह्मविद्या प्राप्त करते हैं वे लोग देवयान पथ से नहीं जाते'। 

अग्नि के सहयोग से जब स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, उस समय सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं हुआ करता ।

मृत्यु के बाद शरीर का जो भाग गर्म महसूस होता है, वास्तव में उसी स्थान से सूक्ष्म शरीर देह त्याग करता है । इसलिए वह स्थान थोड़ा गर्म महसूस होता है ।

 गीता के अनुसार जो लोग मृत्यु के अनंतर देवयान पथ से गति करते हैं उनको 'अग्नि' और 'ज्योति' नाम के देवता अपने अपने अधिकृत स्थानों के द्वारा ले जाते हैं । उसके बाद 'अह:' अथवा दिवस के अभिमानी देवता ले जाते हैं । उसके बाद शुक्ल-पक्ष व उत्तरायण के देवता ले जाते हैं ।

थोड़ा स्पष्ट शब्दों में कहे तो देवयान पथ में सबसे पहले अग्नि-देवता का देश आता है फिर दिवस-देवता, शुक्ल-पक्ष, उत्तरायण, वत्सर और फिर आदित्य देवता का देश आता है । देवयान मार्ग इन्हीं देवताओं के अधिकृत मार्ग से ही होकर गुजरता है ।

उसके बाद चन्द्र, विद्युत, वरुण, इन्द्र, प्रजापति तथा ब्रह्मा, क्रमशः आदि के देश पड़ते हैं । जो ईश्वर की पूजा-पाठ करते हैं, भक्ति करते हैं वो इस मार्ग से जाते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता तथा वो अपने अभीष्ट के अविनाशी धाम चले जाते हैं ।
 
पितृयान मार्ग से भी चन्द्रलोक जाना पड़ता है, लेकिन वो मार्ग थोड़ा अलग होता है । उस पथ पर धूम, रात्रि, कृष्ण-पक्ष, दक्षिणायन आदि के अधिकृत देश पड़ते हैं। अर्थात ये सब देवता उस जीव को अपने देश के अधिकृत स्थान के मध्य से ले जाते हैं। 

चन्द्रलोक कभी अधिक गर्म तो कभी अतरिक्त शीतल हो जाता है । वहां अपने स्थूल शरीर के साथ कोई नहीं रह सकता, लेकिन अपने सूक्ष्म शरीर (जो मृत्यु के बाद मिलता है) कि साथ चन्द्रलोक में रह सकता है ।

जो ईश्वर पूजा नहीं करते, परोपकार नही करते, हर समय केवल इन्द्रिय सुख-भोग में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वे लोग मृत्यु के बाद न तो देवयान पथ से और न ही पितृयान पथ से जाते है बल्कि वे पशु योनि 
(जैसी उनकी आसक्ति या वासना हो) में बार बार यही जन्म लेकर यही मरते रहते हैं ।

जो लोग अत्यधिक पाप करते है, निरीह और असहायों को सताने में जिनको आनंद आता है, ऐसे नराधमों की गति (मृत्य के बाद) निम्न लोकों में यानी कि नरक में होती है । यहां ये जिस स्तर का कष्ट दूसरों को दिए होते हैं उसका दस गुणा कष्ट पाते हैं । विभिन्न प्रकार के नरकों का वर्णन भारतीय ग्रंथों में दिया गया है ।

अतः नारायण का स्मरण सदैव करें।समय बीतता जा रहा है।जीवन क्षणभंगुर है।