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।। मंत्र पुष्पांजलि ।।

ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तनि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमान: सचंत यत्र पूर्वे साध्या: संति देवा: ॥

ॐ राजाधिराजाय प्रसह्य साहिने।
नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे।
स मस कामान् काम कामाय मह्यं।
कामेश्र्वरो वैश्रवणो ददातु कुबेराय वैश्रवणाय।
महाराजाय नम: ।

ॐ स्वस्ति, साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं
वैराज्यं पारमेष्ट्यं राज्यं महाराज्यमाधिपत्यमयं ।
समन्तपर्यायीस्यात् सार्वभौमः सार्वायुषः आन्तादापरार्धात् ।
पृथीव्यै समुद्रपर्यंताया एकरा‌ळ इति ॥

ॐ तदप्येषः श्लोकोभिगीतो।
मरुतः परिवेष्टारो मरुतस्यावसन् गृहे।
आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवाः सभासद इति ॥

        ॥ मंत्रपुष्पांजली समर्पयामि ॥

अन्तःचेतना में एक से एक विभूतियाँ प्रसुप्त, अविज्ञात स्थिति में छिपी पड़ी हैं। इनके जागने पर मानवीय सत्ता देवोपम स्तर पर पहुँची हुई, जगमगाती हुई, दृष्टिगोचर होती है। आत्म सत्ता के पाँच कलेवरों के रूप में पंचकोश को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है। पंचकोश का विवरण एवं उनकी शक्ति इस प्रकार हैं-

1.अन्नमय  कोश– प्रत्यक्ष शरीर, जीवन शरीर। अन्नमयकोश ऐसे पदार्थों का बना है जो आँखों से  देखा और हाथों से छुआ जा सकता है। अन्नमयकोश के दो भाग किये जा सकते हैं। एक प्रत्यक्ष अर्थात् स्थूल, दूसरा परोक्ष अर्थात सूक्ष्म, दोनों को मिलाकर ही एक पूर्ण काया बनती है। पंचकोश की ध्यान धारणा में जिस अन्नमयकोश का उल्लेख किया गया है, वह सूक्ष्म है, उसे जीवन शरीर कहना अधिक उपयुक्त होगा। अध्यात्म शास्त्र में इसी जीवन शरीर को प्रधान माना गया है और अन्नमयकोश के नाम से इसी की चर्चा की गई है। योगी लोगों का आहार- विहार बहुत बार ऐसा देखा जाता है जिसे शरीर शास्त्र की दृष्टि से हानिकारक कहा जा सकता है फिर भी वे निरोगी और दीर्घजीवी देखे जाते हैं, इसका कारण  उनके जीवन शरीर का परिपुष्ट होना ही है। अन्नमय कोश की साधना जीवन शरीर को जाग्रत, परिपुष्ट, प्रखर एवं परिष्कृत रखने की विधि व्यवस्था है। जीवन-शरीर का मध्य केन्द्र नाभि है। जीवन शरीर को जीवित रखने वाली ऊष्मा और रक्त की गर्मी रोगों से लड़ती है, उत्साह  स्फूर्ति प्रदान करती है, यही ओजस् है।

2.प्राणमय  कोश– जीवनी शक्ति।
जीवित मनुष्य  में आँका जाने वाला विद्युत् प्रवाह, तेजोवलय एवं शरीर के अन्दर एवं बाह्य क्षेत्र में फैली हुई जैव विद्युत् की परिधि को प्राणमय कोश कहते हैं। शारीरिक स्फूर्ति और मानसिक उत्साह की विशेषता प्राण विद्युत के स्तर और अनुपात पर निर्भर रहती है। चेहरे पर चमक, आँखों में तेज, मन में उमंग, स्वभाव में साहस एवं प्रवृत्तियों में पराक्रम इसी विद्युत् प्रवाह  का उपयुक्त मात्रा में होना है। इसे ही प्रतिभा अथवा तेजस् कहते हैं। शरीर के इर्दगिर्द फैला हुआ विद्युत् प्रकाश तेजोवलय कहलाता है। यही प्राण विश्वप्राण  के रूप में समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। इसे पात्रता  के अनुरूप जितना अभीष्ट है, प्राप्त कर सकते  हैं।

3.मनोमय  कोश– विचार बुद्धि, विवेकशीलता। 
मनोमय कोश पूरी विचारसत्ता का क्षेत्र है। इसमें चेतन, अचेतन एवं उच्च चेतन की तीनों ही परतों का समावेश है। इसमें मन, बुद्धि और  चित्त तीनों का संगम है। मन कल्पना करता है। बुद्धि विवेचना करती और निर्णय पर पहुँचाती है। चित्त में अभ्यास के आधार पर वे आदतें बनती हैं, जिन्हें संस्कार भी कहा जाता है। इन तीनों का  मिला हुआ स्वरूप मनोमय कोश है। मनोमय कोश का प्रवेश द्वार आज्ञाचक्र है। आज्ञाचक्र जिसे तृतीय नेत्र अथवा  दूरदर्शिता कह सकते हैं, इसका जागरण एवं  उन्मूलन करना मनोमय कोश की ध्यान धारणा का  उद्देश्य है। आज्ञाचक्र की संगति शरीर शास्त्री पिट्यूटरी एवं पीनियल ग्रन्थियों के साथ करते  हैं।

4.विज्ञानमय  कोश – भाव प्रवाह।
विज्ञानमय कोश चेतना की तरह है जिसे अतीन्द्रिय-क्षमता एवं भाव  संवेदना के रूप में जाना जाता है। विज्ञानमय और आनन्दमय कोश का सम्बन्ध सूक्ष्म जगत् से ब्रह्मचेतना से है। सहानुभूति की संवेदना, सहृदयता और सज्जनता का सम्बन्ध हृदय से है। यही हृदय एवं भाव संस्थान अध्यात्म शास्त्र में विज्ञानमय कोश कहलाता है। परिष्कृत हृदय-चक्र में उत्पन्न चुम्बकत्व ही दैवी तत्त्वों को सूक्ष्म जगत् से आकर्षित करता और आत्मसत्ता में भर लेने की प्रक्रियाएँ सम्पन्न करता है। श्रद्धा जितनी  परिपक्व  होगी-दिव्य लोक  से अनुपम वरदान खिंचते चले आएँगे। अतीन्द्रिय क्षमता, दिव्य दृष्टि, सूक्ष्म जगत् से अपने प्रभाव-पराक्रम पुरुषार्थ द्वारा अवतरित होता है।

5.आनन्दमय  कोश– आनन्दमय कोश चेतना का  वह स्तर है, जिनमें उसे अपने वास्तविक स्वरूप की अनुभूति होती रहती है। आत्मबोध के दो पक्ष हैं- पहला अपनी ब्राह्मी चेतना, बह्म सत्ता का भान होने से आत्मसत्ता में संव्याप्त परमात्मा का दर्शन होता है। दूसरा संसार के प्राणियों और पदार्थों के साथ अपने वास्तविक सम्बन्धों का तत्त्वज्ञान भी हो जाता है। इस कोश के परिष्कृत होने पर एक आनन्द भरी मस्ती छाई रहती है। ईश्वर इच्छा मानकर प्रखर कर्त्तव्य-परायण; किन्तु नितान्त वैरागी की तरह काम करते हैं। स्थितप्रज्ञ की स्थिति आ जाती है। आनन्दमय कोश के जागरण से व्यक्तित्व में ऐसे परिवर्तन आरम्भ होते हैं, जिसके सहारे क्रमिक गति  से बढ़ते हुए धरती पर रहने वाले देवता के रूप में आदर्श जीवनयापन कर सकने का सौभाग्य मिलता है। स्थितप्रज्ञता इसी कोश से प्राप्त होती है।

वास्तव में इन पांच कोशों को दिव्य शक्तियों के खजाने कहा जाए तो गलत नहीं होगा। ध्यान धारणा के अभ्यास से इन कोषों को जाग्रत कर मानव से महामानव की श्रेणी में पहुंचा जा सकता है।

ब्रम्हचर्य औषधि समाधान ।।

🥗🥗बर्तन का महत्व🥗🥗

🥗एल्युमिनियम और स्टील के बर्तन दोनो ही जहर है।।।

🥗ऐसा भोजन कभी ना खाएं जो सूर्य के प्रकाश और वायु के सम्पर्क में ना बनाया गया हो , जैसे कुकर,माइक्रोवेव ओवन,फ्रिज आदि में पका हुआ रखा हुआ चावल , दाल, आलू आदि ।।।

🥗एल्युमिनियम के बर्तन जेल में बन्द भारत के क्रांतिकारी के लिए अंग्रेजो ने चलवाये जिससे ये कमजोर हो एव बीमार रहे और स्वत् ही मृत्यु को प्राप्त हो

🥗एल्युमिनयम बहुत भारी तत्व है, हमारा शरीर यह पदार्थ शरीर से बाहर नही निकाल पाता है, और विष के रूप में शरीर मे एकत्रित होता रहता है

🥗एल्युमिनियम के बर्तन में पका हुआ एव रखा हुआ भोजन जहर के समान ही है, कुल 48 बीमारियों का कारण है

🥗एल्युमिनियम के बर्तनों में पके भोजन से अस्थमा ,दमा, शुगर,थाइराइड, लकवा, ब्रेनहेमरेज और टीबी 100% हो जाएगा मात्र 10 वर्ष में

🥗सोलर कुकर में भी आजकल एल्युमिनियम का प्रयोग कर रहे है, वह भी बहुत हानिकारक है

🥗कुछ बदलाव घर के बर्तनों में कीजिये, सबसे अच्छे तो मिट्टी के है, सभी बर्तन मिट्टी के हो तो सबसे अच्छा।।

🥗कम से कम लोहे की एक कढ़ाई अवश्य हो,जिसमें सब्जी पकाई जाए

🥗दूध,दही आदि रखने के लिए मिट्टी के बर्तन हो

🥗दूध गर्म करने के लिए भी मिट्टी के बर्तन ही हो

🥗दाले आदि पकाने के बाद मिट्टी के बर्तन में ही रखें तो सबसे बेहतर

🥗सब्जी पकाने और पकाकर रखने के लिये कांसे के बर्तन भी अच्छे है एक दो बर्तन पतीला आदि लेकर रखें

🥗कांसे में खट्टी चीजे या खट्टी सब्जियां न पकाये न
और ना ही पकाकर रखे

🥗घर मे सभी सदस्यो के अनुसार ताँबे का लोटा रखें,जिससे समय समय पर ताँबे का पानी पीते रहे

🥗ताँबे के लोटे में दूध या इससे बना कुछ भी न पिएं

🥗सब्जी बनाने और बनाकर रखने के लिए पतीला, भगोना आदि पीतल के भी एक दो बर्तन लाये

🥗खांना खाने के लिए भी पीतल के कटोरी, चम्मच, थाली आदि लाये..... यदि घर मे 6 सदस्य है तो कम से कम....4 थाली कटोरी चम्मच गिलास आदि तो पीतल का ला ही सकते है

🥗सोना-
सोना एक गर्म धातु है। सोने से बने पात्र में भोजन बनाने, रखने और करने से शरीर के आन्तरिक और बाहरी दोनों हिस्से कठोर, बलवान, ताकतवर और मजबूत बनते है और साथ साथ सोना आँखों की रौशनी बढ़ता है।
इसका इस्तेमाल सर्दी के मौसम में करे

🥗चाँदी-
चाँदी एक ठंडी धातु है, जो शरीर को आंतरिक ठंडक पहुंचाती है। शरीर को शांत रखती है इसके पात्र में भोजन बनाने और करने से दिमाग तेज होता है, आँखों स्वस्थ रहती है, आँखों की रौशनी बढती है और इसके अलावा पित्तदोष, कफ और वायुदोष को नियंत्रित रहता है।
इसका इस्तेमाल गर्मी के मौसम में करे

🥗तांबा-
तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से व्यक्ति रोग मुक्त बनता है, रक्त शुद्ध होता है, स्मरण-शक्ति अच्छी होती है, लीवर संबंधी समस्या दूर होती है, तांबे का पानी शरीर के विषैले तत्वों को खत्म कर देता है इसलिए इस पात्र में रखा पानी स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है.

🥗तांबे के बर्तन में दूध,दही, छाछ नहीं पीना चाहिए इससे शरीर को नुकसान होता है।
इसका इस्तेमाल बारिश के मौसम में करे

🥗लोहा-
लोहे के बर्तन में बने भोजन खाने से शरीर की शक्ति बढती है, लोह्तत्व शरीर में जरूरी पोषक तत्वों को बढ़ता है। लोहा कई रोग को खत्म करता है, पांडू रोग मिटाता है, शरीर में सूजन और पीलापन नहीं आने देता, कामला रोग को खत्म करता है, और पीलिया रोग को दूर रखता है।

✔लोहे के पात्र में दूध पीना अच्छा होता है।
🥗लोहे के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए क्योंकि इसमें खाना खाने से बुद्धि कम होती है और दिमाग का नाश होता है। 
इसका इस्तेमाल किसी भी मौसम में कर सकते ह

🥗पीतल-
पीतल के बर्तन में भोजन पकाने और करने से कृमि रोग, कफ और वायुदोष की बीमारी नहीं होती। पीतल के बर्तन में खाना बनाने से केवल 7 प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट होते हैं।
इसका इस्तेमाल किसी भी मौसम में कर सकते है

🥗स्टील-
ये ना ही गर्म से क्रिया करते है और ना ही अम्ल से. इसमें खाना बनाने और खाने से शरीर को कोई फायदा भी नहीं पहुँचता
इसका इस्तेमाल न करें तो बेहतर अगर करे तो भी कोई फायदा नही।

🥗एलुमिनियम-
यह जहर है। एल्युमिनियम बॉक्साइट का बना होता है। इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुकसान होता है। यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है इसलिए इससे बने पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे हड्डियां कमजोर होती है. मानसिक बीमारियाँ होती है, लीवर और नर्वस सिस्टम को क्षति पहुंचती है। उसके साथ साथ किडनी फेल होना, टी बी, अस्थमा, दमा, बात रोग, शुगर जैसी गंभीर बीमारियाँ होती है। एलुमिनियम में खांना बनाने से 87 प्रतिशत पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं।
इसका इस्तेमाल कभी न करें

🥗काँसा-
काँसे के बर्तन में खाना खाने से बुद्धि तेज होती है, रक्त में शुद्धता आती है, रक्तपित शांत रहता है और भूख बढ़ाती है। कांसे के बर्तन में खाना बनाने से केवल 3 प्रतिशत ही पोषक तत्व नष्ट होते हैं।
🥗लेकिन काँसे के बर्तन में खट्टी चीजे नहीं परोसनी चाहिए खट्टी चीजे इस धातु से क्रिया करके विषैली हो जाती है जो नुकसान देती है।
इसका इस्तेमाल किसी भी मौसम में कर सकते है, यह मिट्टी के बाद सर्वश्रेष्ट धातु है

🥗🥗🥗मिट्टी-
मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से ऐसे पोषक तत्व मिलते हैं, जो हर बीमारी को शरीर से दूर रखते थे। इस बात को अब आधुनिक विज्ञान भी साबित कर चुका है कि मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने से शरीर के कई तरह के रोग ठीक होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, अगर भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाना है तो उसे धीरे-धीरे ही पकना चाहिए। भले ही मिट्टी के बर्तनों में खाना बनने में वक़्त थोड़ा ज्यादा लगता है, लेकिन इससे सेहत को पूरा लाभ मिलता है। दूध और दूध से बने उत्पादों के लिए सबसे उपयुक्त है मिट्टी के बर्तन। मिट्टी के बर्तन में खाना बनाने से पूरे 100 प्रतिशत पोषक तत्व मिलते हैं। और यदि मिट्टी के बर्तन में खाना खाया जाए तो उसका अलग से स्वाद भी आता है।
इसका उपयोग जीवन भर किसी भी मौसम में कर सकते है, यह एकलौता सर्वोत्तम धातु है

🥗मिट्टी के बर्तन में पके भोजन के लाभ:-

🥗गठिया ठीक
🥗शुगर ठीक
🥗दमा ठीक
🥗अर्थराइटिस ठीक
🥗आंखे कभी खराब नहीं होगी
🥗सरदर्द कभी नही
🥗फेफड़े, लीवर, किडनी कभी खराब नहीं
🥗कोई रोग कभी नही आएगा, यदि रोग है तो खुद ठीक हो जाएगा बिना किसी दवा के।

🥗कैंसर कभी नही हो सकता

🥗शरीर को सभी 18 पोषक तत्व मिलते है

🥗मिट्टी की हांडी की दाल,दूध, पानी, सब्जी, चावल, रोटी आदि के लिए बर्तन अवश्य लाये, यदि सभी बर्तन नही ला सकते तो।।।

आपके पैरों के आकार प्रकार आपके लिए शुभ है या अशुभ ??

➤ जानिए आपके आपके पैरों का संपूर्ण शास्त्रीय फलादेश !!

✧ मनुष्य के पैर - संपूर्ण लक्षण विचार ✧
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✧ पैर (चरण) --

प्राचीन शास्त्रकारों ने पैर के २० भेद बताए है, परन्तु उन सबको निम्नलिखित ४ श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है -

(१) सर्वोत्तम 
(२) उत्तम 
(३) मध्यम 
(४) अधम 
(५) निकृष्ट 

(१) सर्वोत्तम --
इस श्रेणी के पैर वे होते हैं, जिनका रंग कमल के समान लाल होता है, तलवे कोमल होते हैं, नाबूनों का रंग तांबे के समान रक्‍ताभ होता है, उंगलियां परस्पर सटी हुई होती है तथा उनका ऊपरी भाग कछुए की पीठ की भांति उन्नत होता है, जिस पर नसें दिखाई नहीं देती। ऐसे पैरों के तलवों में पसीना नहीं आता, ग्रुल्फ छिपे रहते है, एड़ियां सुन्दर होती है तथा ऊपरी भाग में उष्णता बनी रहती है। ऐसे पैर वाले व्यवित राजा-महाराजा, विपुल ऐश्वर्यवान, धनवान गुणवानरु, यशस्वी, सौभाग्यशाली, दीर्घायु तथा सुखी जीवन व्यतीत करने वाले महापुरुष होते है। इसकी सभी आकांक्षाएं पूर्ण होती रहती हैं ।

(२) उत्तम --
इस श्रेणी के पैर सर्वोत्तम कोटि से कुछ ही कम होते हैं। इनकी उंगलियां लम्बी तथा परस्पर मिली हुई, नाखून सामान्यतः लम्बे तथा त्वचा स्पर्श में कोमल होती है। शेष सभी गुण पूर्वोक्त प्रकार के ही समझने चाहिए। ऐसे पैरों वाले व्यक्ति नीतिज्ञ, कार्यकुशल, तीक्ष्ण बुद्धि, अच्छी सलाह देने वाले, साहित्य-प्रेमी, यशस्वी, धनी, यात्राप्रिय, तथा सर्वत्र सम्मान एवं सुख प्राप्त करने वाले होते हैं ।

(३) मध्यम --
इस श्रेणी के पैरों के तलवे कोमल तथा गेहूए रंग के, नाखून सर्पाकार तथा हल्के गुलावी गेरुआ अथवा पीले रंग के होते हैं । उन पर नसे सामान्य रूप से उभरी होती है तथा उगलियों पर बहुत ही सामान्य बाल होते है ।
ऐसे पैरों वाले व्यक्ति परिश्रमो, व्यवहार-कुशल, निर्भीक, दूरदर्शी, विद्वान, गणित अथवा विज्ञान में रुचि रखने वाले, साहित्यिक, पारिवारिक-चिन्ताग्रों से ग्रस्त तथा एक सीमित-क्षेत्र में यश-सम्मान प्राप्त करने वाले होते हैं । उंगलियां कुछ मिली तथा कुछ छितरी हुईं होती हैं |

(४) अधम--
इस श्रेणी के पैरों के तलवे कुछ-कुछ भूरापन लिए हुए श्वेत रंग के होते है, त्वचा स्पर्श मे कठोर, रूखी, तथा ठण्डी होती है । इनके भाग पर पसीना आता है। उंगलियां चौड़ी होती है और उनके ऊपर बाल जमे रहते है। नाखून चपटे, लम्बे अथवा अधिक चौड़े होते हैं । गुल्फ वाहर की ओर निकला रहता है । नाखूनों का रंग पीला अथवा सफेद होता है। ऐसे पैरों वाले व्यक्ति अपने कुल के अ्भिमान में डूबे रहने वाले, विद्याओं के विशेष-प्रेमी, परिश्रम द्वारा भाग्योन्नति की इच्छा रखने वाले, कामुक-प्रवृति के तथा दरिद्री होते है ।

(५) निकृष्ट --
इस श्रेणी के पैरों के तलवों का रंग मिट्टी जैसे रंग का होता है। एड़ी मोटी तथा स्थान-स्थान पर फटी हुई, त्वचा स्पर्श में कठोर, ऊपरी भाग पर नसें उभरी हुई । उंगलियां टेढ़ी-मेढ़ी तथा उनके ऊपर अधिक बाल जमे हुए, गुल्फ बाहर की ओर काफी निकले का नाखून छोटे, चपटे और कालापन अथवा नीलापन लिए हुए रहते हैं। ऐसे पैरों वाले व्यक्ति दरिद्री, बीमारियों से ग्रस्त रहने वाले, दासवृत्ति के, लम्बे समय तक अपने घर से दूर रहने वाले, मिथ्याभिमानी, क्रोधी, निश्चिन्त, गंवार, मूर्ख तथा कुसंगति मे रहने वाले होते है ।

स्कन्द पुराण में लिखा है --

“पादौ समांसलौ रक्तौ समौ सूत्मों सुशोमनौ। 
समगुल्फौ स्वेदहीनौ स्निग्ध वैश्वर्य सूचकौ।”

अर्थात मांसल, रकताभ, सुन्दर, समान ग्रुल्फ वाले, स्वेद-हीन, स्निग्ध तथा छोटे पैर ऐश्वर्य के सूचक होते है।

परन्तु अन्य ग्रन्थ में लिखा है --

“विशाल चरणों धनी”

अर्थात बड़े पैरोंवाला व्यक्ति धनी होता है। 
अधिकांश विद्वानों के मत से पैर का छोटा होना शुभ लक्षण नहीं है। अब यहां पर विचार करने की बात यह रह जाती है कि पैर छोटा या बड़ा इसका निश्चय कैसे किया जाए ? 

शरीर के अनुपात से पैर का छोटा-बड़ा आकार ज्ञात करने का तरीका शास्त्रकारों ने यह बताया है -

"आपार्ष्णि ज्येष्ठान्तं तल्लमत्र चतुर्दशांगुलायाम। 
विस्तारेण षङ्गगुल मंगुष्ठो व्यङ्गुलायामः॥
पञचांगुल परिणाहः पादोनं तन्‍न खोऽङ्गुलं दैध् र्यात । 
अङ्गुष्ठ समा ज्येष्ठा मध्या तत्षोडशांशोना ॥
अष्ठांशोनानामा कनिष्ठिका पष्ठभाग परिहीना। 
सर्वासाप्याप्तां नखा: स्वपर्व त्रिभाग मिताः ॥ 
सत्र्यंगुलि परिणाहा प्रथमाङ्गगुली विस्तृताङ्गगलौ भवति। 
अप्टाष्ट भागहीनाः शेषा: क्रमशः परिज्ञेया:॥”

भावार्थ-- पैर की एड़ी से पैर की तर्जनी उंगली तक पैर की लम्बाई चौदह उंगल होनी चाहिए। लम्बाई के अंगुल का परिमाण यह है कि जिस व्यक्ति का पैर हो, उसी के हाथ की मध्यमा उंगली के द्वितीय अर्थात्‌ बीच वाले पर्व की जितनी चौड़ाई हो, उसे एक अंगुल के बराबर मानना चाहिए। इसी अनुपात से पैर की चौड़ाई ६ अंगुल, पैर के अंगूठे की लम्बाई

२ अंगुल, पैर के अंगूठे का परिणाह ( अर्थात्‌ यदि धागे को अंगुठे के चारो ओर लपेटा जाए तो उस धागे की लम्बाई) ४ अंगुल होनी चाहिए। इससे अधिक लम्बा तथा मोटा पांव सामान्य से अधिक बड़ा समझना चाहिए और इससे छोटा तथा पतला पैर सामान्य से “कम लम्बा' समझना चाहिए।

पैर की प्रदेशिनी (तर्जनी) अंगुली की लम्बाई पैर के अंगूठे के बराबर होनी चाहिए । मध्यमा अंगुली की लम्बाई तर्जनी अंगुली से सोलहवां भाग कम, अनामिका की लम्बाई मध्यमा से आठवां भाग कम तथा कनिष्ठक़ा की लम्बाई मध्यमा से छठा भाग कम होनी चाहिए। अर्थात्‌ अंगूठे और तर्जनी की लम्बाई तो बराबर की हो उसके बाद क्रमशः सभी उंगलियां एक दूसरी से कम लम्बी रहनी चाहिए। इन सभी उंगलियों के नाखून, पैर की ऊंगली के पर्व की लम्बाई से एक तिहाई लम्बे होने चाहिए। प्रदेशिनी (तर्जनी) अंगुली की मोटाई का परिणाह तीन अंगुल का होना चाहिए। प्रदेशिनी उंगली जितनी मोटी हो, मध्यमा उंगली उससे आठवां भाग कम मोटी, मध्यमा की मोटाई से अनामिका उंगली आठवां भाग कम मोटी तथा अनामिका की मोटाई से कनिष्ठा उंगली की मोटाई का आठवां भाग कम होनी चाहिए ।

इस प्रकार पैर की न्यूनाधिक लम्बाई का आनुपातिक परिमाण ज्ञात कर लेने के वाद उसके प्रभाव के सम्बन्ध में विचार करना उचित रहता है ।

✧ पैर का अंगूठा --

पैर के अंगूठे के सम्बन्ध में 'सामुद्र तिलक' में लिखा है-

“ वृत्तो भुजग फणाकृति स्तुंगों मांसल शुभोङ्खुष्टः। सशिरो हस्वाश्चिपिटो वक्रो विपुलः स पुनर शुभ:॥” 

भावार्थ- 'पांव का अंगूठा यदि सर्प के फण के समान गोल ग्राकृति वाला, उन्नत तथा मांसल हो तो उसे शुभ समझना चाहिए। यदि अंगूठे पर नसे दिखाई देती हों, वह बहुत छोटा या बहुत बड़ा, टेढ़ा अथवा चिपटा हो तो उसे अशुभ जानना चाहिए।” 

पांव के अंगूठे के विषय में अन्यत्र इस प्रकार कहा गया है-

“वृत्तेस्ताम्रनखै रक्‍तै रंगुष्ठै राज्यभागिनः।
अङ्गुष्ठा प्रथुला ये षां ते नारा भाग्यवर्जिताः॥ 
क्लिश्यन्ते विकृताङ्गुष्ठास्ते नरा वन गामिनः । 
चिपिटैर्वित्ततैर्भग्नेरङ्गुष्ठे: रतिनिन्दिता:॥ 
वक्रै: रुत्तैस्तथा हृस्वैरङ्गुष्ठै: कलेश भागिनः॥” 

भावार्थ-- पांव का अंगूठा यदि गोल, ताम्रवर्ण नल वाला तथा लालिमा लिए हुए हो तो ऐसे व्यक्ति राज्यधिकार (ऐश्वर्य) प्राप्त करते है। जिन लोगों के पांव का अंगूठा बड़ा होता है, वे भाग्यहीन होते हैं । टेढ़े-मेढ़े अंगूठे वाले व्यक्ति जंगलों में (इधर-उधर) भटक ने वाले तथा कष्ट पाने वाले होते है। चपठे, कठे-फटे तथा टूटे हुए अंगूठे वाले व्यक्ति रति-निन्दित होते हैं तथा टेढ़े, रुखे और अधिक छोटे अंगूठे वाले व्यक्ति क्लेश उठाते है।

✧ पैरों की उंगलियां --

पुरुषों के पैरों की अंगुलियो के सम्बन्ध में शास्त्रकारो ने लिखा है-

“ प्रदेशिनी यदा दीर्घा अंगुष्ठं च व्यति क्रयेतू। 
स्‍त्री भोगंलभते नित्यं पुरुषो नात्र संशयः॥ 
मध्यमा यांतु दीर्घावां भार्याहानिर्विनिर्दिशेत्। 
अनामिकातु दीर्घायां विद्याभोगी भवेन्नरः:॥ 
सच हृस्वाभवेद्यस्य तत्वेद्या परदारगं। 
यस्‍य प्रदेशिनी स्थूला भर्तिश्चेव कनिष्ठिका॥ 
हृस्वा क्लेशाप भोगायां गुल्ठादीर्घा प्रदेशिनी:। 
समातुमध्यमा श्रेष्ठा श्रिये दीर्घा कनिष्ठिका। 
आयतयामध्यमया कार्यविनाशो हृस्वया दुखं। 
धनया समया पृत्रोत्पत्ति स्तोकं नृणामायु:।  
असंहताभिहृस्वासि रंगुलीभिस्तु मानवः। 
दासोवादासकर्मोवा समुद्र वचन यथा॥ 
अंगुल्यपि समादीर्घा संहृता श्चसमुन्नता। 
तेपां प्रदत्तिणावर्ता प्रथिव्यास्तेन संशयः॥
दीर्घा कनिष्ठिका पिस्याद्यस्य स्वर्णभाज नं सनरः।
यदि सापिपुनर्लध्वी परदारापरायण: सततम्‌॥ ”

भावार्थ-- यदि पैर की तर्जनी उंगली अंगूठे से आगे निकली हुई (लम्बी) हो तो जातक को स्त्री-भोग का सुख नित्य प्राप्त होता है। यदि यह तर्जनी उंगली छोटी हो तो क्लेशकारक होती है। यदि अंगूठे के बराबर की हो तो मध्यम फल समझना चाहिए। अंगूठे से बड़ी तर्जनी उंगली शुभ फल देने वाली समझनी चाहिए।
यदि मध्यमा उंगली अगूठे से बड़ी हो तो जातक की पत्नी की हानि (मृत्यु) होती है । यदि तर्जनी के बराबर लम्बी हो तो श्रेष्ठ फल देने वाली कही गई है। (अधिक मोटी हो तो फल अशुभ होता है)। यदि अनामिक़ा उंगली लम्बी हो तो पुरुष विद्यानुरागी होता है। यदि छोटी हो तो पर- स्त्री गामी होता है। (इसकी लम्बाई का विचार मध्यमा उंगली की लम्बाई से करना चाहिए)।यदि तर्जनी उंगली स्थल तथा कनिष्ठा उंगली लम्बी हो तो जातक सुखी और धनी होता है। यदि कनिष्ठा उंगली छोटी हो तो पर-स्त्री-गामी होता है। यदि कनिष्ठा उंगली छोटी तथा लट्टू के समान मोटी हो तो जातक को बाल्यावस्था में ही मातृ-वियोग का दुःख उठाना पड़ता है। यदि मध्यमा उंगली अत्याधिक लम्बी हो तो अपयश प्राप्त होता है। यदि अधिक छोटी हो तो जातक दु:खी रहता है । यदि अन्य उंगलियों के समान ही लम्बी हो तथा सभी उंगलियां परस्पर मिलो हुई हों तो जातक पुत्रोत्पत्ति की क्षमता से युक्त, परन्तु अल्पायु होता है।

यदि पैर की सभी उंगलियां छोटी-छोटी और फैली हुई हों तो जातक दास अथवा दास प्रवृत्ति जैसा काम करने वाला होता है। यदि सब उंगलियां समान आनुपातिक लम्बाई, पुष्ट, ऊंची उठी हुई तथा एक दूसरी से मिली हुई हों तो उन्हें शुभ फलदायक समझना चाहिए।

पैरों की उंगलियों के सम्बन्ध में अन्य विद्वानों के मत का सार संक्षेप यह है -

(१) यदि पैरों की उंगलियां समात आनुपातिक लम्बाई की हों, कुछ दाई ओर को झुकी हुई हों, कोमल, उन्नत, अग्रभाग पर गोल, चिकनी, चमकदार तथा परस्पर मिली हुई हों तो ऐसा जातक अत्यन्त ऐशर्यशाली, उच्च-पदाधिकारी तथा यशस्वी होता है ।

(२) यदि मध्यमा उंगली अनामिका उंगली से छोटी हो तो स्त्री हानि होती है।

(३) यदि अनामिका उंगली मध्यमा से बड़ी हो तो जातक को स्वर्ण का लाभ होता है ।

✧ पैरों की उंगलियों के नाखून --

(१) यदि पैरों की उंगलियों के नाखून लाल रंग के, शंख की भाँति घुमाव वाले तथा चमकदार हों तो ऐसे जातक उच्च पद प्राप्त करते हैं ।

(२) यदि पैरों के नाखून चिकने तथा श्वेत-बिन्दु-चिन्ह से युक्त हों तो जातक सौभाग्यशाली होता है | उंगलियों के नाखूनों पर श्वेतविन्दु-चिन्हों के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत है। कुछ लोग इन्हे शुभ तथा कुछ लोग अशुभ मानते हैं ।

(३) कुछ विद्वानों के मतानुसार यदि दाएं पैर के नाखूनो में सफेद, पीले, काले अथवा लाल रग के बिन्दु-चिन्ह हों तो उन्हे “उत्पात जनक' समझना चाहिए । यदि दाएं पैर के अंगुठे के नख में ऐसे चिन्ह हों तो जातक के धन का विनाश होता है तथा उसे अपयश प्राप्त होता है। यदि तर्जनी उंगली के नाखून पर ऐसे चिन्ह हों तो जातक का किसी से झगड़ा होता है। यदि मध्यमा उंगली के नाखून पर ऐसे चिन्ह हो तो वे जातक के लिए चिन्ता एवं उद्वेगजनक होते हैं। यदि अनामिका उंगली के नाखून पर ऐसे चिन्ह हों तो ये जातक के लिए शुभ होते है। यदि कनिष्ठा उंगली के नाखून पर ऐसे चिन्ह हो तो नवीन सन्तान का जन्म होता है अथवा पुत्र को धन-लाभ होता है। बाएं पैर के नाखूनों में इसका उल्टा फल समझना चाहिए ।

✧ पैर का ऊपरी भाग --

पैर का ऊपरी भाग मांसल, उन्नत तथा कोमल हो तो उसे शुभ समझना चाहिए। यदि इस भाग पर नसे दिखाई देती हों, पसीना आता हो अथवा बाल (केश) हों तो उसे अशुभ लक्षण समझना चाहिए ।

✧ गुल्फ (टखने) --

पैर के टखने मांस से ढके हुए हों तो उन्हे शुभ समझना चाहिए। टखनों का टेढ़ा होना अशुभ होता है। शुकर को गुल्फ जैसे गुल्फ वाले व्यक्ति कष्ट उठाते है। तथा भैसे के टखनों की भांति टखने वाले व्यक्ति पापो तथा दु:खी होते है| यदि गुल्फों पर रोम हों तो संन्तान का अभाव होता है अथवा पुत्र-सुख कम प्राप्त होता है।

✧ एड़ी --

यदि एड़ी बड़ी हो तो जातक दीर्घायु होता है। पैर के अनुपात के बराबर हो तो कभी दु.खी और कभी सुखी रहता है। यदि एड़ी छोटी हो तो जातक दरिद्र होता है और यदि एड़ी उठी हुई हो तो शत्रुओ पर विजय पाता है। एड़ी गुदगदी हो तो उत्तम होतो है और कड़ी हो तो सन्‍तान-सुख में कमी रहती है।

✧ पिडली, जाँघ और टांग --

(१) यदि पांव को पिंडलियां गोल, गुदगुदी तथा रोमरहित हो तो उन्हे शुभ अथवा विपरीत हो तो अशुभ समझना चाहिए ।

(२) गोल, छोटी, गुदगुदी तथा हाथी की सुड की भाँति ढलवां जांघों वाला व्यक्ति भाग्यशाली होता है। पतली जांघो वाले मनुष्य दरिद्र होते हैं।

(३) ऊपर के घड़ से अधिक लम्बी टाँगे शुभ होती है, ऐसा व्यक्ति शीघ्रगामी होता है। यदि टांगे कम लम्बी हों तो शूरवीर होता है ।

(४) टांगों का निचला आधा भाग हिरन अथवा घोडे जैसा हो तो जातक भाग्यवान होता है ।

(५) व्याघ्र अथवा सिंह जैसी पिंडलियों वाले व्यक्ति धूर्त होते हैं ।

(६) मछली जैसी जांघ वाले व्यक्ति ऐश्वर्यवान होते हैं।

(७) सियार कुत्ता, गधा अथवा रीछ जैसी जांघो वाले व्यक्ति दुर्भाग्यशाली तथा कौए जँसी टांगी वाले दुःखी होते हैं।

(८) जांघ का अधिक बड़ा तथा मोटा होना तथा पिडलियों पर अधिक रोमो का होना दरिद्रता का लक्षण समझना चाहिए ।

(६) कमर तथा मुलायम रोमों वाली जांघें शुभ तथा सौभाग्यदायक होतो हैं । 

✧ रोमें (रोएं ) --

(१) यदि रोम-कूप से ही एक ही रोम निकले तो जातक अत्यन्त उच्च-पद प्राप्त करता है। यदि एक रोम- कूप में से दो-दो रोम निकले तो जातक परम-विद्वान्‌ तथा बुद्धिमात्‌ होता हैं। यदि एक रोम-कृप में से तीन अथवा अधिक रोम निकले तो जातक दुखी तथा दरिद्र होता है।

(२) भ्रमर के समान काले, चिकने, पतले, सुन्दर तथा मुलायम रोमों वाला व्यक्ति अत्यन्त उच्च पद प्राप्त करता है। अधिक घने रोमों वाला व्यक्ति विद्वान तथा बुद्धिमान होता है। रोम-हीन अंगों वाला व्यक्ति 'सन्‍यासी होता है । पीर्तवर्ण रोमों वाला व्यक्ति पापी होता है। मोटे तथा रूखे रोमों वाला व्यक्ति अधम होता है। यदि रोम श्रपने अग्रभाग में घिरे हुए हों तो जातक धनी होता है ।

यह फलादेश शरीरस्थ किसी भी अंग पर पाए जाने वाले रोगों के सम्बन्ध में लागू होता है। पांव के रोगों पर भी यही फल समझना चाहिए ।

✧ घुटने --

(१) जिस व्यक्ति के छुटने भीतर को धंसे हुए हों, वह अपनी स्त्री अथवा अन्य स्त्रियों के वश में रहता है तथा उसकी मृत्यु परदेश में होती है ।

(२) खुब मोटे तथा मांसल छुटनों वाला व्यक्ति ऐश्वर्यशाली, भू-स्वामी तथा दीर्घजीवी होता है।

(३) हाथी के समान घुटनों वाला व्यक्ति भोगी होता है ।

(४) घोड़े के समान घुटनों वाला व्यक्ति दुर्गति को प्राप्त होता है।

(५) तालफल जैसे घुटनों वाला व्यक्ति अत्यन्त दुःख प्राप्त करता है।

(६) टेढे-मेढे, विकराल अथवा बहुत छोटे घुटनों वाला व्यक्ति दरिद्र होता है ।

(७) ऊंचे- नीचे तथा कमजोर घुटनों वाला व्यक्ति दरिद्र होता है तथा दास-वृत्ति करता है।

(८) यदि घुटनों पर मांस एक जैसा न हो, कही कम और कहीं अधिक हो तो ऐसा व्यक्ति निर्धन होता है। ऐसे घुटनो को अशुभ समझना चाहिए।

✧ अन्य बातें --

(१) यदि पुरुष के दाएं पैर के तलवे मे पसीना आता हो तो उसे अशुम तथा भयकारक समझना चाहिए । ऐसे लोगो को यात्राए करनी पड़ती हैं ।

(२) यदि पुरुप के दाए पैर के तलवे मे पसीना आता हो तो उसे अशुभ लक्षण समझना चाहिए।

(३) यदि पैर में खुजली मचे तो रोग, यात्रा अथवा धन की हानि आदि अशुभ फल होते है। पैर की खुजली का प्रभाव एक पखवाड़े (१५ दिन) के भीतर प्रकट हो जाता है । 

सनातन संस्कृति के आश्चर्यों में से एक रहस्य -

🔺अग्नि के सर्वप्रथम आविष्कारक !

🔺वैदिक संस्कृति में अग्नि यज्ञों के प्रचलन कर्ता!
🔺 समुद्रों से प्राप्त पेट्रोल, गैस, केरोसिन के वैदिक खोजी !


     विश्व के प्रथम वैज्ञानिक- अथर्वा ऋषि
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आधुनिक काल में सबसे उच्च विश्वस्त विज्ञान विधा मानी जाती है तथा उनके शोधकर्ताओं को वैज्ञानिक शब्दों से विभूषित किया जाता है, आज के अंग्रेजी भाषी वैज्ञानिकों की लंबी रेखा के बीच भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति के एक वैदिक ऋषि पुरुष को विश्व का प्रथम वैज्ञानिक होने का रहस्य उद्घाटन किया जा रहा है विश्व के प्रथमतम वैज्ञानिक होने के श्रेय अथर्वा ऋषि को है। महर्षि अथर्वा ने ऋषि अंगिरस के साथ मिलकर अथर्ववेद की रचना की। महर्षि अथर्व का विवाह भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र महर्षि कर्दम की पुत्री शांति 'चित्ति' के साथ हुआ। इस मिलाप से महानतम महर्षि दधीचि का जन्म हुआ। ऋग्वेद में अथर्वा ऋषि का उल्लेख १५ बार हुआ है। (ऋग्० १.८०.१६, १.८३.५, ९.११.२ आदि)। अथर्वा ऋषि ने अग्नि-विषयक तीन आविष्कार किए हैं। इनका साक्षात विशिष्ट प्रमाण तथा उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के श्लोकों में है।


💫 (१) अरणि वृक्ष के मंथन से अग्नि का आविष्कार (Fire with Friction) —

 संसार के सभी काम अग्नि से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा से चलते हैं। यजुर्वेद का भी कथन है कि विद्वानों ने अग्नि को उपयोगिता की दृष्टि से सर्वप्रथम स्थान दिया है। ऋग्वेद ने अग्नि को ऊर्जा का सम्राट् कहा है।

(क) अयमिह प्रथमो धायि धातृ‌भिर्होता यजिष्ठः।  
(यजु० ३.१५)
(ख) त्वामग्ने मनीषिणः सम्राजम्०।   
(ऋग्० ३.१०.१)

ऋग्वेद में अरणियों के घर्षण से अग्नि उत्पन्न करने का वर्णन है। ऋग्वेद में कहा है कि अरणि नामक वृक्ष की समिधाओं में अग्नि है। दो अरणियों के घर्षण से अग्नि उत्पन्न होती है। 

(क) अरण्योर्निहितो जातवेदाः।
(ऋग्० ३.२९.२)
(ख) नवं जनिष्टारणी।
(ऋग्०५.९.३)
(ग) अग्निं मन्थाम पूर्वथा।
(ऋग्० ३.२९.१)

अथर्वा ऋषि ने सर्वप्रथम अरणि नामक वृक्ष की लकड़ियों को रगड़ कर अग्नि का अविष्कार किया ऋग्वेद और यजुर्वेद में इसका विस्तृत उल्लेख है। यजुर्वेद का कथन है कि अथर्वा ऋषि ने मन्थन (घर्षण, Friction) के द्वारा अग्नि उत्पन्न की। यज्ञ में इस अग्नि का प्रयोग सर्वप्रथम अथर्वा के पुत्र दधीचि ऋषि ने किया ।

(क) अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्यद् अग्ने। 
(यजु० ११.३२)
(ख) तमु त्वा दध्यङ् ऋषिः पुत्र ईधे अथर्वणः।
(यजु० ११.३३)

💫 (२) जल के मन्थन से अग्नि (Hydroelectric, Hydel) —

महान दधीचि पितृ अथर्वा ऋषि का द्वितीय अविष्कार है जलीय विद्युत् । ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और तैत्तिरीय संहिता में उल्लेख है कि अथर्वा ऋषि ने तालाब के जल से मन्थन (Friction) के द्वारा जलीय विद्युत् (Hydel) का आविष्कार किया था । 

त्वामग्ने पुष्करादधि-अथर्वा निरमन्बत। 
(ऋग्० ६.१६.१३ । यजु० ११.३२ । साम० ९। तैत्ति० ३.५.११.३)

💫 (३) भूगर्भीय अग्नि (पुरीष्य अग्नि, Oil and Natural Gas) —

भूगर्भीय अग्नि (Gas) का पता चलाना और उसे उत्खनन द्वारा निकालना, अथर्वा ऋषि का तृतीय अविष्कार है। इसका विस्तृत वर्णन ऋग्वेद, यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता में मिलता है। ऋग्वेद आदि में 'पुरीष्यासो अग्नयः' शब्द का प्रयोग है। साथ ही इसे पृथ्वी एवं समुद्र से खोदकर निकालने का उल्लेख है। भूगर्भीय अग्नि का बहुवचन में उल्लेख सिद्ध करता है कि पुरीष्य अग्नि शब्द के द्वारा भूगर्भीय प्रज्वलनशील सभी पदार्थों, पेट्रोल, गैस, किरोसिन तेल (मिट्टी का तेल) आदि का ग्रहण है। यजुर्वेद में मंत्रों (यजु० ११.२८ से ३२) में इसकी उच्च प्रज्वलनशीलता का विस्तृत वर्णन है। 

(क) पुरीष्योऽसि विश्वभरा अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने। 
(यजु०११.३२)
(ख) पृथिव्याः सधस्थाद् अग्निं पुरीष्यम्.. खनामः।
(यजु०११.२८)
(ग) अपां पृष्ठमसि योनिरग्नेः समुद्रम् अभितः पिन्वमानम्। 
(यजु०११.२९)
(घ) अग्निमन्तर्भरिष्यन्ती ज्योतिष्मन्तम् अजस्रमित् ।
(यजु०११.३१)
(ङ) पुरीष्यासो अग्नयः । 
(ऋग्० ३.२२.४, यजु० १२.५०, तैति० ४.२४३)

यजुर्वेद के मंत्र में 'योनिरग्नेः' से स्पष्ट किया गया है कि ये अग्नि के कारण अत्यन्त प्रज्वलनशील पदार्थ हैं। 'समुद्रम् अभितः' के द्वारा स्पष्ट किया गया है कि ये अग्नियाँ (गैस, पेट्रोल आदि) समुद्रों के बहुत विस्तृत भाग में फैली हुई हैं।

यजुर्वेद में 'पुरीष्योऽसि विश्वभरा' के द्वारा उल्लेख है कि भूगर्भीय पेट्रोल, गैस आदि विश्व के लिए अत्यन्त उपयोगी है और ये संसार का पालन-पोषण करते हैं। 


💫जयतु सनातन💫