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जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है..?

जप के अनेक प्रकार हैं। उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं। परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं। जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है। जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं- 1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि। 

1. नित्य जप
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प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है। यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए। आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्‍था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए। उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं। और जप संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है। 

2. नैमित्तिक जप
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किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है। देव-पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है। सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है। उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए। इससे पुण्य-संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है। यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं। 'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है। 
 
इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है। पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं। हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है। जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है। इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए। गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है। 

3. काम्य जप
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किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं। यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है। आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है। इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है। योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।

इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता। काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं। जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है। इसलिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्‍छा नहीं समझते। परंतु सभी साधक समान नहीं होते। कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं। क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है। 

4. निषिद्ध जप
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मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं। निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है। मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं। ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है।

5. प्रायश्चित जप
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अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित-नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह प्रायश्चित जप है। प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है। मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं। यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है। पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं। इसलिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।

मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। इसलिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है। नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे। अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए। नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए। प्रात:काल में पहले गो‍मूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें। यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म-चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें। अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें। केवल तुलसी दल-तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें। इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा। जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए। दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्‍या पूरी करें।

6. अचल जप
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यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए। इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है। इसमें इच्छाशक्ति के साथ-साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है। इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए। स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश-काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।

अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। जप निश्चित संख्‍या से कभी कम न हो। जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए। इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए। यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार-विहार संयमित हों। एक स्‍थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्‍या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है। इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए। इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है। भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है। 

7. चल जप
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यह जप नाम स्मरण जैसा है। प्रसिद्ध वामन प‍ंडित के कथनानुसार 'आते-जाते, उठते-बैठते, करते-धरते, देते-लेते, मुख से अन्न खाते, सोते-जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है। अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है। यह जप कोई भी कर सकता है। इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है। अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक्-शक्ति प्राप्त होती है। पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली-कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे। इससे बड़ी शक्ति संचित होती है। इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।

जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है। सुखपूर्वक संसार-यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है। उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है। मन निर्विषय हो जाता है। ईश-सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है। उसका योग-क्षेम भगवान वहन करते हैं। वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है। इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है ,पर कुछ लोग छोटी-सी 'सुमरिनी' रखते हैं इसलिए कि कहीं विस्मरण होने का-सा मौका आ जाए तो वहां यह सु‍मरिनी विस्मरण न होने देगी। सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे। सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें। सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो।
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शुभ काल /अशुभ काल से संबंधित पंचांग।।

    भारतीय वैदिक ज्योतिष में एक दिन में अलग अलग अवधि होती है और उन सभी अवधि में अलग-अलग काल का उल्लेख किया गया है। जिसमें से जहां कुछ काल को शुभ तो कुछ काल को अशुभ की श्रेणी में रखा गया है।

इसी के अनुसार जहाँ शुभ काल के दौरान किया गया कार्य फलित होता है, वहीं अशुभ काल के दौरान कोई भी शुभ या मांगलिक कार्य करना वर्जित माना जाता है।

पंचांग अनुसार शुभ काल व अशुभ काल
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प्रात:काल :
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सबसे प्रथम काल की अवधि प्रात:काल कहलाती है। ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 48 मिनट पूर्व का समय होता है।

अरुणोदय काल :
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ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 1 घंटे और 12 मिनट पूर्व की होती है, जिसे हम पंचांग अनुसार अरुणोदय काल कहते हैं।

उषा काल :
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ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 2 घंटे पूर्व का समय होता है, इसे हम सरल भाषा में उषाकाल कहते हैं।

अभिजित काल :
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भारतीय समय के अनुसार ये अवधि दोपहर में लगभग 11 बजकर 36 मिनट से लेकर 12 बजकर 24 मिनट तक रहती है। जो लगभग एक घंटे की होती है। ज्योतिष विशेषज्ञों अनुसार अभिजीत काल बुधवार को वर्जित होता है।

प्रदोष काल :
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ये अवधि सूर्यास्त होने से लेकर 48 मिनट बाद तक का समय होता है, जिसे हम प्रदोष काल कहते हैं।

गोधूलि काल :
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ये अवधि सूर्यास्त होने से 24 मिनट पूर्व से शुरू होती है और सूर्यास्त के 24 मिनट बाद तक माननीय होती है।

राहुकाल :
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राहुकाल रोजाना डेढ़ यानी 1 घंटे 30 मिनट का होता है।सूर्योदय अगर प्रात:  6 बजे है तो ऐसा काल  नियम अनुसार  होगा,राहुकाल के दौरान कोई भी शुभ व नया कार्य करने से बचना चाहिए। राहुकाल सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है।

सोमवार को  प्रातः 7 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है।

मंगलवार को दोपहर 3 बजे से 4 बजकर 30 मिनट तक होता है।

बुधवार को  दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है।

गुरुवार को दोपहर 1 बजकर 30 मिनट से 3 बजे तक होता है।

शुक्रवार को राहुकाल प्रातः 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है।

शनिवार को राहुकाल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।

रविवार को सायं 4 बजकर 30 मिनट से 6 बजे तक होता है।

गुलिक काल :
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इस काल की अवधि भी डेढ़ यानी 1 घंटे 30 मिनट की होती है। माना जाता है कि कुछ विशेष कार्य को इस समय काल के दौरान करने से बचना चाहिए। गुलिक काल सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है:

रविवार को गुलिक काल का समय दोपहर 3 बजे से 4 बजकर 30 मिनट तक होता है।
सोमवार का गुलिक काल दोपहर 1 बजकर 30 मिनट से 3 बजे तक होता है।
मंगलवार को गुलिक काल दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है।
बुधवार को गुलिक काल प्रात: 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है।
गुरुवार को गुलिक काल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।
शुक्रवार का गुलिक काल प्रातः 07 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है।
शनिवार को गुलिक काल प्रातः 6 बजे से 7 बजकर 30 मिनट तक होता है।

यमगंड काल :
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इस काल की अवधि भी प्रतिदिन डेढ़-डेढ़ घंटे की होती है। साथ ही यमगंड काल में भी शुभ कार्यों को करने से परहेज करना चाहिए। इसके काल की अवधि सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है: 

रविवार को यमगंड काल का समय दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है।
सोमवार को यमगंड काल प्रात: 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है।
मंगलवार को यमगंड काल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।
बुधवार को यमगंड काल प्रातः 07 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है।
गुरुवार को यमगंड काल प्रातः 6 बजे से 7 बजकर 30 मिनट तक होता है।
शुक्रवार को यमगंड काल दोपहर 3 बजे से 04 बजकर 30 मिनट तक होता है।
शनिवार को यमगंड
काल 1:30 से 3 pm होता है।


शुभ काल /अशुभ काल से संबंधित पंचांग ।।

    भारतीय वैदिक ज्योतिष में एक दिन में अलग अलग अवधि होती है और उन सभी अवधि में अलग-अलग काल का उल्लेख किया गया है। जिसमें से जहां कुछ काल को शुभ तो कुछ काल को अशुभ की श्रेणी में रखा गया है।

इसी के अनुसार जहाँ शुभ काल के दौरान किया गया कार्य फलित होता है, वहीं अशुभ काल के दौरान कोई भी शुभ या मांगलिक कार्य करना वर्जित माना जाता है। 

पंचांग अनुसार शुभ काल व अशुभ काल 
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प्रात:काल : 
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सबसे प्रथम काल की अवधि प्रात:काल कहलाती है। ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 48 मिनट पूर्व का समय होता है।

अरुणोदय काल : 
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ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 1 घंटे और 12 मिनट पूर्व की होती है, जिसे हम पंचांग अनुसार अरुणोदय काल कहते हैं। 

उषा काल : 
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ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 2 घंटे पूर्व का समय होता है, इसे हम सरल भाषा में उषाकाल कहते हैं। 

अभिजित काल : 
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भारतीय समय के अनुसार ये अवधि दोपहर में लगभग 11 बजकर 36 मिनट से लेकर 12 बजकर 24 मिनट तक रहती है। जो लगभग एक घंटे की होती है। ज्योतिष विशेषज्ञों अनुसार अभिजीत काल बुधवार को वर्जित होता है।

प्रदोष काल : 
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ये अवधि सूर्यास्त होने से लेकर 48 मिनट बाद तक का समय होता है, जिसे हम प्रदोष काल कहते हैं।

गोधूलि काल : 
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ये अवधि सूर्यास्त होने से 24 मिनट पूर्व से शुरू होती है और सूर्यास्त के 24 मिनट बाद तक माननीय होती है।

राहुकाल : 
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राहुकाल रोजाना डेढ़ यानी 1 घंटे 30 मिनट का होता है।सूर्योदय अगर प्रात: 6 बजे है तो ऐसा काल नियम अनुसार होगा,राहुकाल के दौरान कोई भी शुभ व नया कार्य करने से बचना चाहिए। राहुकाल सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है। 

सोमवार को प्रातः 7 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है।

मंगलवार को दोपहर 3 बजे से 4 बजकर 30 मिनट तक होता है।

बुधवार को दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है।

गुरुवार को दोपहर 1 बजकर 30 मिनट से 3 बजे तक होता है।

शुक्रवार को राहुकाल प्रातः 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है। 

शनिवार को राहुकाल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।

रविवार को सायं 4 बजकर 30 मिनट से 6 बजे तक होता है। 

गुलिक काल : 
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इस काल की अवधि भी डेढ़ यानी 1 घंटे 30 मिनट की होती है। माना जाता है कि कुछ विशेष कार्य को इस समय काल के दौरान करने से बचना चाहिए। गुलिक काल सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है:

रविवार को गुलिक काल का समय दोपहर 3 बजे से 4 बजकर 30 मिनट तक होता है। 
सोमवार का गुलिक काल दोपहर 1 बजकर 30 मिनट से 3 बजे तक होता है।
मंगलवार को गुलिक काल दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है।
बुधवार को गुलिक काल प्रात: 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है।
गुरुवार को गुलिक काल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।
शुक्रवार का गुलिक काल प्रातः 07 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है। 
शनिवार को गुलिक काल प्रातः 6 बजे से 7 बजकर 30 मिनट तक होता है।

यमगंड काल : 
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इस काल की अवधि भी प्रतिदिन डेढ़-डेढ़ घंटे की होती है। साथ ही यमगंड काल में भी शुभ कार्यों को करने से परहेज करना चाहिए। इसके काल की अवधि सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है:  

रविवार को यमगंड काल का समय दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है। 
सोमवार को यमगंड काल प्रात: 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है।
मंगलवार को यमगंड काल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।
बुधवार को यमगंड काल प्रातः 07 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है।
गुरुवार को यमगंड काल प्रातः 6 बजे से 7 बजकर 30 मिनट तक होता है।
शुक्रवार को यमगंड काल दोपहर 3 बजे से 04 बजकर 30 मिनट तक होता है। 
शनिवार को यमगंड
काल 1:30 से 3 pm होता है।

ब्रह्म विद्या ।।

           आप किसी जल से भरे पात्र में एक बूंद पानी डालिए आपको तुरंत ही कुछ बुलबुले उठते हुए दिखाई देंगे। किसी भी वस्तु को पानी में फेंकिए नीचे से एक साथ बुलबुलों का गुच्छा उठेगा। एक बुलबुले से सेकेण्ड के सौवें हिस्से में अनेकों बुलबुले उत्पन्न हो जायेंगे। बस इसी सिद्धांत को BIG-BANG सिद्धांत कहते हैं। अभी हाल में वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि की है जबकि वेदान्त कई कल्प पहले ओंकार नाद के द्वारा सृष्टि के उत्पत्तिकरण की सटीक रूप से व्याख्या कर चुका है। बुलबुला प्रारम्भिक जीवन है। यह जीवन की प्रथम अवस्था है। जीवन सर्वप्रथम बुलबुले के रूप में ही विकसित होगा, यही ओंकारनाद है। यही एक से अनेक होने की ब्रह्मा की प्रक्रिया है। इसे ही कहते हैं एको बहुष्याम। सारे बुलबुले नष्ट नहीं हो जायेंगे कुछ एक बर्तन के तल पर चिपके हुए होंगे। कालान्तर यही बुलबुले ग्रह नक्षत्र का रूप लेंगे। इन्हीं से सूर्य का निर्माण होगा। ब्रह्माण्ड में ऐसा ही होता है। यही बुलबुले स्वरूप परिवर्तन कर अणु-परमाणु और उनके भी न्यूनतम अंशों के रूप में दिखाई देंगे। बुलबुले उठते ही रहते हैं और धीरे-धार जीव में परिवर्तित हो जाते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में भी सब कुछ 'आंतरिक रूप से बुलबुलों के समान ही होता है। हृदय की धड़कन हो, मस्तिष्क की क्रियाशीलता हो इत्यादि सब जगह बस बुलबुले ही धड़कते हैं। वे ही उठते और मिटते हैं।

           मैंने बुलबुले को जीवन कहा, उसे जीवित कहा। इस सृष्टि में जो भी एक से अनेक होगा वह जीवित है। जीवन की सबसे प्रारम्भिक अवस्था बुलबुला ही है वह आपकी आँखों के सामने एक से अनेक हुआ। इससे पहले की प्रक्रिया तो शक्ति की धारा है। वह भी किसी बुलबुले से, बनी होगी। यहीं रहस्य है लिंगार्चन का अर्थात रुद्राभिषेक का। शिव के ऊपर गिरती निरंतर जलधारा का। जीवन के लिए जरूरी प्राण विद्युत की उत्पत्ति का बुलबुला बना अर्थात किसी एक क्रिया ने प्राण को सक्रिय किया। जलधारा गिरती है विद्युत का निर्माण होता है एवं सारा विश्व प्रकाशवान होता है। यह मनुष्य करता है एवं इससे कृत्रिम प्रकाश का निर्माण होता है परन्तु प्राकृतिक प्रकाश अर्थात प्राण का निर्माण भी ऐसी ही गिरती हुई जलधारा से होता है। प्राण ही प्राण को शक्ति प्रदान करेगा। प्राणतत्व- प्राणतत्व को ही ग्रहण करेगा एवं प्राणतत्व की शिथिलता को प्राणतत्व ही दूर करेगा बस इतनी सी कहानी है ब्रह्मविद्या की। प्राणों को समझने की क्रिण, प्राणों के उत्पत्तिकरण को जानने की क्रिया प्राणों को मजबूत बनाने की विद्या ही ब्रह्म विद्या है। प्राणों को निरंतर चलायमान रखना ही ब्रह्मविद्या का कार्य है। प्राणों का स्थापन ही सीखना पड़ेगा।

            प्रत्येक पिण्ड का मूल अर्क है प्राण शक्ति। हम तो अभी तक (मैं वैज्ञानिकों की बात कर रहा हूँ) सूर्य ऊर्जा को भी संचय करने में सफल नहीं हो पाये हैं। सूर्य के द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा अभी भी हम पूर्ण रूप से मानव निर्मित यंत्रों में संचित नहीं कर पा रहे हैं। जो प्राण तत्व सूर्य से उत्सर्जित हो रहे हैं उन्हें जिस दिन मानव अपने अंत्रों में संचित करने में सक्षम हो जायेगा तो सारी दुनिया एक क्षण में ही परिवर्तित हो जायेगी। एक क्षण में ही वर्तमान यंत्र प्रागैऐतिहासिक हो जायेंगे। ऊर्जा के समस्त संसाधन व्यर्थ हो जायेंगे परन्तु जीव अनंत काल से अपने अंदर सूर्य के द्वारा उत्सर्जित प्राण शक्ति को कुछ काल सीमा के लिए संचित, स्तम्भित, कीलित और परिवर्तित करने में सक्षम हो गया है। यही जैविक यंत्रों की कहानी है। कम से कम 24 घण्टे तो साधारण से साधारण जीव भी अपने अंदर प्राण शक्ति को आवृत्ति प्रदान करने में सक्षम है। संचय कैसे होगा? संचय तभी सम्भव है जब प्राण शक्ति आवृत्ति में गतिमान हो एक चक्र के रूप में गतिशील बनी हुई हो। ऐसा ही शरीर में होता है तभी जैविक शरीरों में बुलबुले के समान हृदय फूलता एवं पिचकता है और धमनियों के माध्यम से रक्त प्रवाह पूरे शरीर में प्राण शक्ति को चक्राकार स्थिति में घुमाता रहता है।

          आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शरीर के अंदर प्राण शक्ति आवृत्ति बद्ध होती है और इसी आवृत्ति में से घूमते-घूमते एक और आवृत्ति जन्म ले लेती है। यह ब्रह्म कला है। एक माध्यम जब थक जाये तो अपने अंदर स्थित प्राण शक्ति को दूसरे माध्यम में स्थानांतरित कर देना या स्वयं के अंदर से एक नया शरीर उत्पन्न कर देना जो कि पुनः प्राण शक्ति को आवृत्ति में गति प्रदान करता रहे। इस प्रकार अनंत काल से जीव संरचनायें अपने आपको प्राण शक्ति से आबद्ध रखे हुए हैं। इसलिए प्रत्येक जीव में बला की इच्छा होती है स्वयं के द्वारा संरचना करने की अर्थात सृष्टि करने की। स्वयं के शरीर से स्वयं के समान संतति उत्पन्न करने की। 

 इसी बह्य कला के कारण जीव भी अजर-अमर है। सभी प्रारम्भिक लक्षण अजर-अमर है। सभी तत्व बस इसी आदि इच्छा के कारण आज तक अजर-अमर एवं अपने अस्तित्व को बरकरार रखे हुए हैं। 

            शत्रुत्व को मालुम है कि वह एक समय तक एक माध्यम में क्रियाशील रह सकता है और जैसे ही माध्यम अक्रियाशील होने की तरफ बढ़ेगा शत्रुत्व दूसरा शरीर ग्रहण कर चुका होगा या कहीं और पर विकसित हो रहा होगा। नष्ट होने से पहले ही विकास प्रारम्भ हो चुका होता है। 16 वर्ष की उम्र में ही संतान उत्पन्न की जा सकती है। स्वयं पिता अपनी संतान को अपने अस्तित्व के साथ-साथ, अपने द्वारा प्रदान किये गये तत्वों के अस्तित्व की रक्षा हेतु अस्तित्व प्रदान करता है। पिता का शरीर नष्ट हो जायेगा पर उससे पहले ही अनेकों पुत्रों के रूप में अस्तित्व पूर्ण रूप से विकसित हो चुका होगा। यहाँ तक कि पुत्र के पुत्र भी उत्पन्न हो चुके होंगे। यही ब्रह्म विद्या है। ब्रह्म विद्या मूल में स्थित है बाहर से नहीं लगाई जाती। स्वतः ही क्रियाशील होती रहती है। स्वतः ही व्यक्ति या जीव को उत्प्रेरित करती रहती है। स्वतः ही जीव के शरीर में परिवर्तन कर देती है एवं उसे परिवर्तन की ओर अग्रसर भी करती है। ब्रह्म विद्या मुँह से बांचने की विद्या नहीं है। यह आम विद्याओं के अंतर्गत नहीं आती है। ब्रह्म विद्या हर किसी को समझाने के लिए नहीं बनी हुई है। यह ब्रह्म ज्ञानियों का विषय है। जिन्हें विराट संरचना करनी होती है वे ही ब्रह्म विद्या में निपुण हो पाते हैं।

                जीव उत्पन्न हुआ, उसने मुख खोला और भोजन को स्वतः ही ग्रहण कर लिया। किसी ने उसे भोजन ग्रहण करना नहीं सिखाया। देखने में यह बात बहुत सामान्य लगती है परन्तु यह कदापि सामान्य नहीं है अगर उसके अंदर भोजन ग्रहण करने की जानकारी नहीं होती तो फिर जीवन की कड़ी आगे नहीं बढ़ पाती। कुछ ज्ञान ऐसा होता हे जिसे सीखने और सिखाने लग जाये तब तो फिर हो चुका। जब तक भोजन ग्रहण करना सिखाओगे तब तक तो प्राण उड़ चुके होंगे। सीखने सिखाने के लिए बहुत कुछ बकवास है। ये सब ब्रह्म विद्या के अंतर्गत नहीं आता। ब्रह्म विद्या का जो आवश्यक हिस्सा है वह तो सभी को प्राप्त हो जाता है। इसके पश्चात वाला भाग पुस्तकों में नहीं मिलता। यह ब्रह्म ज्ञानियों के पास होता है। ब्रह्म ज्ञानी गिने चुने होते हैं और वह यह ज्ञान केवल उन्हीं को देते हैं जो कि ब्रह्म ज्ञानी होने वाले हैं। बाकी सब पूजन पाठ, उपासना, सामान्य व्यवहार, सामान्य दक्षता इत्यादि दे दिया जाता है। ऐसा क्यों? मैंने पहले कहा एक पिता अपने जीवनकाल में पुत्र उत्पन्न कर लेता है। ठीक्र वैसे ही ब्रह्म ज्ञानी भी अपने जीवन काल में दूसरा ब्रह्म ज्ञानी रच लेता है। ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म ज्ञानी ही रचेगा भूगोल का अध्यापक नहीं बनायेगा अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो फिर श्रृंखला टूट जायेगी।

         बगलामुखी की आराधना खण्डित हो जायेगी। बगलामुखी क्रियाशील इसलिए है कि श्रृंखला न टूटने पाये। देखिए दो मार्ग हैं प्राप्त करने के। एक मार्ग है तप का मार्ग। यह मार्ग सबके लिए खुला हुआ है। तप करके, तपस्या करके पूर्ण निष्ठा के साथ सेवा करके कोई भी कुछ भी प्राप्त कर सकता है। यह तपोनिष्ठ होने की प्रवृत्ति है। इसमें खूब बाधायें आयेंगी, खूब अवरोध आयेंगे फिर भी तपोनिष्ठ साधक लगा रहेगा। तप को अस्त्र बनाकर वह असुरों के समान ब्रह्मा और शिव से कुछ भी प्राप्त कर सकता है। उन्हें प्रसन्न कर सकता है। यह भी एक विधान है। तपोनिष्ठ के आगे उन्हें झुकना ही पड़ता है परन्तु यह जरूरी नहीं कि तपोनिष्ठ व्यक्ति अपने आपमें एक उत्कृष्ट संरचना हो। लंकेश भी तपोनिष्ठ था बहुत कुछ प्राप्त कर लिया था। तप से सिद्धि तो प्राप्त हो ही जाती है। इसमें, आदि शक्तियों की भी परीक्षा होती है। यह पूर्ण स्वतंत्रता का मार्ग है। हर जीव तप करने के लिए स्वतंत्र है परन्तु इसमें कृपा का अभाव हो जाता है। यह दुनिया तपनिष्ठों से भरी हुई है। तपानुसार, कर्मानुसार ये कुछ काल के लिए शक्तिशाली तो हो ही जाते हैं बाद में चाहे जो कुछ भी हो। दूसरा मार्ग है कृपा का मार्ग। इसमें कृपा प्राप्त होती है यह मूक मार्ग है। यह मांगने की प्रक्रिया नहीं है। कृपा मार्ग का प्रमाणीकरण भी नहीं होता है। इसमें जीव विशेष माध्यम होता है पराशक्ति की इच्छा का। वह अपने कृपाचारी को जीवित देखना चाहता है, विकसित देखना चाहता है, उसे पूर्ण रूप में देखना चाहता है। 

           अब एक वृतांत देता हूँ लंकेश तपोनिष्ठ थे उनके अंदर भी क्रियाशील थी रुद्र की शक्ति, ब्रह्म ज्ञान उनके अंदर भी था। उन्होंने इसे घोर तपस्या से प्राप्त किया था, स्व अर्जित किया था। देवाधिदेव महादेव की लंकापुरी में उन्हें गद्दी पर बिठाया गया था। प्रभु श्री राम पर कृपा हुई उनके साथ रुद्रांश हनुमंत थे। हनुमंत के रूप में बगलामुखी क्रियाशील हुई।

लांगुलास्त्र बगलामुखी की ही एक प्रक्रिया है। अंत में विजय कृपा की ही हुई। इसका क्या कारण है? कृपा क्यों हर बार विजयी होती है? तप क्यों हर बार हारता है? सीधी सी बात है तप सौदा है, इसमें मांग होती है, इसमें वरदान होता है, इसे पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्धता होती है। यह एक तरह से कीलन है परन्तु इसके विपरीत कृपा में स्वेच्छा चारिता होती है, गुरु की इच्छा होती है। केकैयी के बंधन में भरत को राजगद्दी मिल गई थी। दशरथ कीलित थे, प्रतिबंधित थे, केकैयी को वरदान देकर। इसमें उनकी इच्छा नहीं चली। कृपा का मार्ग श्रेयस्कर है लम्बे समय में विजयी होता है। बगलामुखी ब्रह्म विद्या के अंतर्गत आती है। युद्ध सभी करते हैं। जीवन में शत्रु सभी के होते हैं। यह सब जीवन का ही एक अंग है परन्तु विजय महत्वपूर्ण है। विजय की प्राप्ति ही बगलामुखी की आराधना में सफलता का द्योतक है। अतः अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं को साधनाओं के माध्यम से कभी भी सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए सिर्फ कृपा प्राप्ति का ही ध्येय रखना चाहिए। विजय कृपा के अंदर ही निहित है। तपोनिष्ठ तो हारता है, हार तपोनिष्ठों के लिए ही बनी है, हार तपोनिष्ठ को परिवर्तित करती है सद्मार्ग अपनाने के लिए। हार तपोनिष्ठ को उद्वेलित करती है यह सोचने के लिए कि कृपा प्राप्ति ही श्रेष्ठ विधान है। यही ब्रह्म वर्चस्व की कहानी है। तपोनिष्ठ विश्वामित्र से ब्रह्मऋषि में परिवर्तित होने की प्रक्रिया है। 

            18 वीं शताब्दी में एक महान सिद्ध हुए उन्हें कच्चे बाबा के नाम से जाना जाता था। वो जो कुछ भी खाते थे सिर्फ कच्चा ही खाते थे अगर कोई मुट्ठी भर गेंहूँ दे आता तो उसी को कच्चा खा लेते थे। किसी ने सब्जी दे दी तो कच्ची खा ली। अद्भुत बात है। जार्ज पंचम जो कि इंग्लैण्ड के राजा थे एक बार हिन्दुस्तान आये। काशी आकर उन्होंने किसी सिद्ध संत से मिलने की इच्छा प्रकट की, लोग उन्हें कच्चे बाबा के पास ले गये, बाबा ने अपनी कुटिया में कुर्सी लगा दी साफ सफाई भी करवा दी, आखिर कार उनसे मिलने विश्व का सम्राट आ रहा था। जार्ज पंचम उस समय युवा थे फिर भी भारतीय संस्कृति से भली- भांति परिचित थे और गरिमानुकूल व्यवहार भी करते थे। वे कुर्सी पर नहीं बैठे जमीन पर ही बैठे जब सम्राट जमीन पर बैठ गया तो भारतीय नौकर चाकर और चाटुकार भी -बाबा के सामने लोटने लगे। 

             जार्ज पंचम ने बाबा से कहा आप जो चाहे मांग लीजिए आपके सामने सम्राट बैठा हुआ है। बाबा ने कहा मैं क्या मांगू? तू चलकर मेरे पासा आया । मैं तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तू राज कर। मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि ब्रह्म विद्या के धनी भिखारी नहीं होते। आज का कोई चाटुकार साधु संत होता तो तुरंत ही आश्रम के लिए जमीन मांग बैठता। मैं रोज ऐसे घटिया साधु-संतों को देखता हूँ जो कि राजनेताओं के सामने, कुबेर पतियों के सामने सिर्फ ट्रस्ट, संस्था और मठ के लिए भिक्षा मांगते रहते हैं। जो स्वयं भिखमंगा है वह किसी को क्या देगा? जो राजदरबार में आश्रम के लिए जमीन मांगने की याचना करता है उसे कहाँ ब्रह्म विद्या सिद्ध होगी?

              हरि गोस्वामी जी एक संत हुए हैं वे काशी में निवास करते थे, प्रतिदिन भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते और फिर वहीं पास की झाड़ियों में जाकर छिप जाते । वे झाड़ी में रहते थे उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना। अचानक एक दिन काशी से गायब हो गये कहाँ गये किसी को पता ही नहीं चला। यह है ब्रह्म ज्ञानियों की पहचान। उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना न कि पण्डाल बांधना। ऐसे ही एक और महात्मा हुए विश्वेश्वरदास जी वे छतरी वाले बाबा के नाम से जाने जाते थे। उनके पास बस एक छतरी थी छतरी गाड़ी और उसी के नीचे बैठ गये उन्हें विष्णु का वामन अवतार सिद्ध था। अब जिसे स्वयं वामन अवतार सिद्ध हो जो कि ढाई कदम में ही समस्त ब्रह्माण्ड के छोर को लांग दे उसे क्या जरूरत पड़ी मठ बनाने की। छतरी ही बहुत है। अयोध्या में एक ब्रह्म ज्ञानी हुए रामकृपा जी महाराज वह सारा जीवन एक छटाक चना ही खाते थे। उसके अलावा जीवन में उन्होंने कुछ खाया ही नहीं। प्रतिदिन बस एक छटाक चना खाते थे। जो भी आता था उसे चने के कुछ दाने दे देते थे। 
         
आज भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने उनके द्वारा प्राप्त चने के दाने सुरक्षित रखे हुए हैं। अस्सी वर्ष बीत गये उन्हें शरीर त्यागे फिर भी चने के दाने ऐसे लगते हैं जैसे कि इसी वर्ष उत्पन्न हुए हों। ये अयोध्या में ही रहते थे। इनका जबर्दस्त कीलन कर रखा था प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में। ये अंत तक अवधवासी ही रहे। एक बार इन्होंने अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश की। रात्रि को चुपचाप अयोध्या छोड़कर जाने लगे। ये तंग आ चुके थे जनता की भीड़-भाड़ से। जैसे ही अयोध्या छोड़कर निकले एक लम्बे चौड़े सिपाही ने आकर इनका रास्ता रोक लिया और इन्हें पुनः अयोध्या में भगा दिया। सारी रात यह दसों दिशाओं से अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश करते रहे पर हर बार वही सिपाही इन्हें डांट डपटकर पुनः भगा देता। अंत में ये समझ गये कि प्रभु श्री राम की इच्छा ही नहीं है कि मैं अयोध्या छोहूँ। इसे कहते हैं कृपा।

             आध्यात्मिक लोगों का जबर्दस्त कीलन होता है। वे अपने गुरुओं की बगलामुखी साधना के द्वारा पूरी तरह से स्तंभित होते हैं। जब तक वे अपने कार्यों को सम्पन्न नहीं कर लेंगे गुरु उन्हें नहीं छोड़ते। वे ही सारी व्यवस्था करते हैं। चारों तरफ से कीलन करके रख देते हैं। जब आप बगलामुखी यंत्र का तांत्रोक्त पूजन करेंगे तो उसमें पायेंगे कि इस ब्रह्म विद्या के द्वारा तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों के मुखों को स्तम्भित कर दिया गया है। ब्रह्मास्त्र, शिवास्त्र, महासुदर्शन चक्र सब के सब महादेवी ने कीलित कर दिए हैं अपने भक्त के लिए। यमास्त्र,कुबेरास्त्र, वायुअस्त्र, आयास्त्र इत्यादि सभी कीलित हैं। इन सभी पराशक्तियों से वह अपने भक्त को कवचित कर रही हैं। अर्थात अब भक्त के ऊपर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी कुपित नहीं हो सकते तो फिर अन्य किसी शक्ति की क्या औकात। यह सब क्यों? क्योंकि इन्हीं क्रियाओं के द्वारा अहं ब्रह्माऽस्मि का अभ्युदय होगा अर्थात मैं ही ब्रह्मा हूँ। यही बगलामुखी महाविद्या का सारांश है। जो कुछ हूँ वह मैं ही हूँ। अब कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। यही है ब्रह्मऋषियों की पहचान। 

                देखिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कुबेर, यम इत्यादि इत्यादि मानवाकृति के रूप में अत्यधिक मात्रा में क्रियाशील मिल सकते हैं। ऐसे भी मनुष्य हैं जिनके पास अकूत धन सम्पदा है साक्षात कुबेर के विग्रह। ऐसे भी मनुष्य हैं जो साक्षात चाण्डाल हैं। ऐसे भी मनुष्य है जो सिर्फ निदर्यता के साथ प्राण हरने को तैयार रहते हैं। ब्रह्मा के समान मनुष्य भी हैं जो कि नवीन संरचना करने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं। उनमें इतना ब्रह्मत्व विकसित हो जाता है कि चालीस वर्ष में करोड़ों ऋषि पुत्र एवं ऋषि पुत्रियाँ उत्पन्न कर देते हैं। जैसे कि निखिलेश्वरानंद जी ने किया है। बस दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है सब कुछ यहीं पर दिखलाई दे जायेगा। संकट मोचन मनुष्यों के जीवन में ऐसे ही क्षण आते हैं कि अगर उसके ऊपर गुरु कृपा नहीं है तो वह पतनोन्मुख हो जायेगा। मैंने अपने जीवन में ऐसे स्त्री-पुरुषों को देखा है कि जिनके जीवन में अगर निखिलेश्वरानंद जी नहीं आते तो वे पतनोन्मुख हो गये होते, नर्क की गर्त में चले गये होते, कहीं सड़ रहे होते। ऐसे ही क्षणों में रक्षा करती है बगलामुखी। सर्वदुष्टानां, सर्वशत्रुनां का कीलन, उच्चाटन, मारण एवं मोहन ब्रह्म विद्या बगलामुखी के द्वारा ही गुरु करते हैं। ब्रह्म विद्या वह है जो लाखों करोड़ों पीड़ित शोषित और कुण्ठित जीवों का पुनः उद्धार कर सके। चाहे माध्यम कुछ भी क्यों न हो? गुरु, गणेश, शिव, रुद्र, सूर्य, चन्द्र, अग्नि देव इत्यादि सभी कल्याणकारी एवं सौम्य माहेश्वरी बगलामुखी के कारण ही बने है।

जप एवं ध्यान की महत्ता ।।

तीर्थयात्रा, देवदर्शन, स्तवन, पाठ, षोडशोपचार, परिक्रमा, अभिषेक, शोभायात्रा, श्रद्धाञ्जलि, रात्रि जागरण, कीर्तन आदि अनेकों विधियाँ विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों में अपने-अपने ढंग से विनिर्मित और प्रचलित हैं। इससे आगे का अगला स्तर वह है,जिसमें उपकरणों का प्रयोग न्यूनतम होता है और अधिकांश कृत्य मानसिक एवं भावनात्मक रूप से ही सम्पन्न करना पड़ता है। यों शारीरिक हलचलों, श्रम और प्रक्रियाओं का समन्वय उनमें भी रहता ही है।

उच्चस्तरीय साधना क्रम में मध्यवर्ती विधान के अन्तर्गत प्रधानतया दो कृत्य आते हैं- (१) जप (२) ध्यान 
न केवल भारतीय परम्परा में वरन् समस्त विश्व के विभिन्न साधना प्रचलनों में भी किसी न किसी रूप में इन्हीं दो का सहारा लिया गया है। प्रकार कई हो सकते हैं, पर उन्हें इन दो वर्गों के ही अंग-प्रत्यंग के रूप में देखा जा सकता है। साधना की अन्तिम स्थिति में शारीरिक या मानसिक कोई कृत्य करना शेष नहीं रहता। मात्र अनुभूति,संवेदना,भावना तथा संकल्प शक्ति के सहारे विचार रहित शून्यावस्था प्राप्त की जाती है। इसी को समाधि अथवा तुरीयावस्था कहते हैं। ब्रह्मानन्द का परमानन्द का अनुभव इसी स्थिति में होता है। इसे ईश्वर और जीव के मिलन की चरम अनुभूति कह सकते हैं। इस स्थान पर पहुँचने से ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो जाता है। यह स्तर समयानुसार आत्म-विकास का क्रम पूरा करते चलने से ही उपलब्ध होता है। उतावली में काम बनता नहीं बिगड़ता है। तुर्त-फुर्त ईश्वर दर्शन,समाधि स्थिति,कुण्डलिनी जागरण, शक्तिपात जैसी आतुरता से बाल बुद्धि का परिचय भर दिया जा सकता है। शरीर को सत्कर्मों में और मन को स‌द्विचारों में ही अपनाये रहने से जीव सत्ता का उतना परिष्कार हो सकता है, जिससे वह स्थूल और सूक्ष्म शरीरों को समुन्नत बनाते हुए कारण शरीर के उत्कर्ष से संबद्ध दिव्य अनुभूतियाँ और दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त कर सके ।

निष्कर्ष : जप द्वारा अध्यात्म ही उस परमेश्वर को पुकारता है, जिसे हम एक प्रकार से भूल ही चुके हैं। मणि विहीन सर्प जिस तरह अशक्त एवं हताश बना बैठा रहता है, उसी प्रकार हम परमात्मा से बिछुड़कर अनाथ बालक की तरह डरे, सहमे बैठे हैं-अपने को असुरक्षित और आपत्तिग्रस्त स्थिति में अनुभव कर रहे हैं। लगता है हमारा कुछ बहुमूल्य खो गया है। जप की पुकार उसी को खोजने के लिए है। बिल्ली अपने बच्चों के इधर- उधर छिप जाने पर उन्हें ढूँढ़ने के लिए म्याऊँ म्याऊँ करती फिरती है और उस पुकार के आधार पर उन्हें खोज निकालती है। कोई बालक खो जाने पर उसको ढूँढ़ने के लिए नाम और हुलिया की मुनादी कराई जाती है। रामनाम की रट इसी प्रयोजन के लिए है।