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आत्मचिंतन के क्षण ।।

आत्म-निर्माण के कार्य में सत्संग निःसन्देह सहायक होता है किन्तु आज की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में जो विडंबना फैली है, उससे लाभ के स्थान पर हानि अधिक है। सड़े-गले, औंधे-सीधे, रूढ़िवादी, भाग्यवादी, पलायनवादी विचार इन सत्संगों में मिलते हैं। फालतू लोग अपना समुदाय बढ़ाने के लिए सस्ते नुस्खे बताते रहते हैं या किसी देवी देवता के कौतूहल भरे चरित्र सुनाकर उनके सुनने मात्र से स्वर्ग, मुक्ति आदि मिलने की आशा बँधाते रहते हैं। ऐसा विडम्बनापूर्ण सत्संग किसी का क्या हित साधेगा?

आज सत्संग की आवश्यकता स्वाध्याय से ही पूरी करनी पड़ती है। जहाँ जीवन को प्रेरणाप्रद मार्गदर्शन कर सकने की दृष्टि से उपयुक्त सत्संग मिल सके, वहाँ जाने और लाभ उठाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। पर जहाँ व्यर्थ की विडम्बनाओं में समय बर्बाद किया जाता हो, वहाँ जाने में कुछ लाभ नहीं। आज की स्थिति में सरल सत्संग स्वाध्याय ही हो सकता है। आत्मबल बढ़ाने वाला, चरित्र को उज्ज्वल करने वाला, गुणकर्म, स्वभाव में प्रौढ़ता उत्पन्न करने वाला साहित्य उपलब्ध करके नियमित रूप से उसे पढ़ते रहने से भी घर बैठे सत्पुरुषों के साथ सत्संग का लाभ लेने की सुविधा मिल सकती है।

प्रत्येक मनुष्य को हर घड़ी अपने स्वयं के चरित्र का निरीक्षण करते रहना चाहिए कि उसका चरित्र पशु तुल्य है या सत्पुरुषों जैसा। आत्म-निरीक्षण की प्रणाली का नाम ही स्वाध्याय है। पूर्ण मानव बनने के सद् उद्देश्य से जिनने भी स्वाध्याय का अनुसरण किया है उनकी आत्मा अवश्यमेव परिष्कृत हुई है, उनकी महानता जागृत हुये बिना नहीं रही।


गुरुमंत्र की शक्तियाँ ।।

रक्षण शक्तिः -

ॐ सहित मंत्र का जप करते हैं तो वह हमारे जप तथा पुण्य की रक्षा करता है।
किसी नामदान के लिए हुए साधक पर यदि कोई आपदा आनेवाली है,कोई दुर्घटना घटने वाली है तो मंत्र भगवान उस आपदा को शूली में से काँटा कर देते हैं। साधक का बचाव कर देते हैं। ऐसा बचाव तो एक नहीं,मेरे हजारों साधकों के जीवन में चमत्कारिक ढंग से महसूस होता है। गाड़ी उलट गयी,तीन गुलाटी खा गयी किंतु .....हमको खरोंच तक नहीं आयी.... ! हमारी नौकरी छूट गयी थी,ऐसा हो गया था, वैसा हो गया था किंतु बाद में उसी साहब ने हमको बुलाकर हमसे माफी माँगी और हमारी पुनर्नियुक्ति कर दी। पदोन्नति भी कर दी... इस प्रकार की न जाने कैसी-कैसी अनुभूतियाँ लोगों को होती हैं। ये अनुभूतियाँ समर्थ भगवान की सामर्थ्यता प्रकट करती हैं।

गति शक्तिः -

जिस योग में,ज्ञान में,ध्यान में आप फिसल गये थे, उदासीन हो गये ,किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे उसमें मंत्र दीक्षा लेने के बाद गति आने लगती है। मंत्र दीक्षा के बाद आपके अंदर गति शक्ति कार्य में आपको मदद करने लगती है।

कांति शक्तिः-

मंत्रजाप से जापक के कुकर्मों के संस्कार नष्ट होने लगते हैं और उसका चित्त उज्जवल होने लगता है। उसकी आभा उज्जवल होने लगती है, उसकी मति-गति उज्जवल होने लगती है और उसके व्यवहार में उज्जवलता आने लगती है।इसका मतलब ऐसा नहीं है कि आज मंत्र लिया और कल सब छूमंतर हो जायेगा... धीरे-धीरे होगा। एक दिन में कोई स्नातक नहीं होता, एक दिन में कोई एम.ए. नहीं पढ़ लेता, ऐसे ही एक दिन में सब छूमंतर नहीं हो जाता। मंत्र लेकर ज्यों-ज्यों आप श्रद्धा से, एकाग्रता से और पवित्रता से जप करते जायेंगे त्यों-त्यों विशेष लाभ होता जायेगा।

प्रीति शक्तिः-

ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों मंत्र के देवता के प्रति,मंत्र के ऋषि,मंत्र के सामर्थ्य के प्रति आपकी प्रीति बढ़ती जायेगी।

तृप्ति शक्तिः-

ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों आपकी अंतरात्मा में तृप्ति बढ़ती जायेगी, संतोष बढ़ता जायेगा। जिन्होंने नियम लिया है और जिस दिन वे मंत्र नहीं जपते,उनका वह दिन कुछ ऐसा ही जाता है। जिस दिन वे मंत्र जपते हैं,
उस दिन उन्हें अच्छी तृप्ति और संतोष होता है।जिनको गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है उनकी वाणी में सामर्थ्य आ जाता है। नेता भाषण करता है तो लोग इतने तृप्त नहीं होते, किंतु जिनका गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है ऐसे महापुरुष बोलते हैं तो लोग बड़े तृप्त हो जाते हैं ।

अवगम शक्तिः-

मंत्रजाप से दूसरों के मनोभावों को जानने की शक्ति विकसित हो जाती है।
दूसरे के मनोभावों को आप अंतर्यामी बनकर जान सकते हो। कोई व्यक्ति कौन सा भाव लेकर आया है ? दो साल पहले उसका क्या हुआ था या अभी उसका क्या हुआ है ?उसकी तबीयत कैसी है? लोगों को आश्चर्य होगा किंतु आप तुरंत बोल दोगे कि 'आपको छाती में जरा दर्द है... आपको रात्रि में ऐसा स्वप्न आता है....कोई कहे कि 'महाराज ! आप तो अंतर्यामी हैं।' वास्तव में यह भगवत्शक्ति के विकास की बात है।

प्रवेश अवति शक्तिः-

अर्थात् सबके अंतरतम की चेतना के साथ एकाकार होने की शक्ति। अंतःकरण के सर्व भावों को तथा पूर्वजीवन के भावों को और भविष्य की यात्रा के भावों को जानने की शक्ति कई योगियों में होती है। वे कभी-कभार मौज में आ जायें तो बता सकते हैं कि आपकी यह गति थी,आप यहाँ थे,फलाने जन्म में ऐसे थे,अभी ऐसे हैं। जैसे दीर्घतपा के पुत्र पावन को माता-पिता की मृत्यु पर उनके लिए शोक करते देखकर उसके बड़े भाई पुण्यक ने उसे उसके पूर्वजन्मों के बारे में बताया था। यह कथा योगवाशिष्ठ महारामायण में आती है।

श्रवण शक्तिः-

मंत्रजाप के प्रभाव से जापक सूक्ष्मतम,गुप्ततम शब्दों का श्रोता बन जाता है। जैसे, शुकदेवजी महाराज ने जब परीक्षित के लिए सत्संग शुरु किया तो देवता आये। शुकदेवजी ने उन देवताओं से बात की। माँ आनंदमयी का भी देवलोक के साथ सीधा सम्बन्ध था। और भी कई संतो का होता है। दूर देश से भक्त पुकारता है कि गुरुजी !
मेरी रक्षा करो... तो गुरुदेव तक उसकी पुकार पहुँच जाती है !

स्वाम्यर्थ शक्तिः-

अर्थात् नियामक और शासन का सामर्थ्य। नियामक और शासक शक्ति का सामर्थ्य विकसित करता है प्रणव का जाप।

याचन शक्तिः-

अर्थात् याचना की लक्ष्यपूर्ति का सामर्थ्य देने वाला मंत्र।

क्रिया शक्तिः-

अर्थात् निरन्तर क्रियारत रहने की क्षमता, क्रियारत रहनेवाली चेतना का विकास।

इच्छित अवति शक्तिः-

अर्थात् वह ॐ स्वरूप परब्रह्म परमात्मा स्वयं तो निष्काम है किंतु उसका जप करने वाले में सामने वाले व्यक्ति का मनोरथ पूरा करने का सामर्थ्य आ जाता है। इसीलिए संतों के चरणों में लोग मत्था टेकते हैं, कतार लगाते हैं,प्रसाद धरते हैं,आशीर्वाद माँगते हैं आदि आदि।

इच्छित अवन्ति शक्ति:-

अर्थात् निष्काम परमात्मा स्वयं शुभेच्छा का
प्रकाशक बन जाता है।

दीप्ति शक्तिः-

अर्थात् ओंकार जपने वाले के हृदय में ज्ञान का प्रकाश बढ़ जायेगा। उसकी दीप्ति शक्ति विकसित हो जायेगी।

वाप्ति शक्तिः-

अणु-अणु में जो चेतना व्याप रही है उस चैतन्यस्वरूप ब्रह्म के साथ आपकी
एकाकारता हो जायेगी।

आलिंगन शक्तिः-

अर्थात् अपनापन विकसित करने की शक्ति। ओंकार के जप से पराये भी अपने होने लगेंगे तो अपनों की तो बात ही क्या ?जिनके पास जप-तप की कमाई नहीं है उनको तो घरवाले भी अपना नहीं मानते,किंतु जिनके पास ओंकार के जप की कमाई है उनको घरवाले, समाजवाले,गाँववाले,नगरवाले,राज्य वाले,राष्ट्रवाले तो क्या विश्ववाले भी अपना मानकर आनंद लेने से इनकार नहीं करते।

हिंसा शक्तिः-

ओंकार का जप करने वाला हिंसक बन जायेगा ?हाँ,हिँसक बन जायेगा किंतु कैसा हिंसक बनेगा ?दुष्ट विचारों का दमन करने वाला बन जायेगा और दुष्टवृत्ति के लोगों के दबाव में नहीं आयेगा। अर्थात् उसके अन्दर अज्ञान को और दुष्ट सरकारों को मार भगाने का प्रभाव विकसित हो जायेगा।

दान शक्तिः-

अर्थात् वह पुष्टि और वृद्धि का दाता बन जायेगा। फिर वह माँगनेवाला नहीं रहेगा,देने की शक्तिवाला बन जायेगा। वह देवी-देवता से,भगवान से माँगेगा नहीं,
स्वयं देने लगेगा।

भोग शक्तिः-

प्रलयकाल स्थूल जगत को अपने में लीन करता है, ऐसे ही तमाम दुःखों को, चिंताओं को,भयों को अपने में लीन करने का सामर्थ्य होता है प्रणव का जप करने वालों में। जैसे दरिया में सब लीन हो जाता है, ऐसे ही उसके चित्त में सब लीन हो जायेगा और वह अपनी ही लहरों में फहराता रहेगा,मस्त रहेगा... नहीं तो एक-दो दुकान,एक-दो कारखाने वाले को भी कभी-कभी चिंता में चूर होना पड़ता है। किंतु इस प्रकार की साधना जिसने की है उसकी एक दुकान या कारखाना तो क्या,एक आश्रम या समिति तो क्या,1100,1200 या 1500 ही क्यों न हों,सब उत्तम प्रकार से चलती हैं !उसके लिए तो नित्य नवीन रस, नित्य नवीन नंद,नित्य नवीन मौज रहती है।शादी अर्थात् खुशी ! वह ऐसा मस्त फकीर बन जायेगा।

वृद्धि शक्तिः-

अर्थात् प्रकृतिवर्धक, संरक्षक शक्ति। गुरुदेव का जप करने वाले में प्रकृतिवर्धक और
सरंक्षक सामर्थ्य आ जाता है।

मंत्र संसार ।।

आर्थिक परेशानी और कर्ज से मुक्ति दिलाता है शिवजी का दारिद्रय दहन स्तोत्र. कारगर मंत्र है आजमाकर देखे


जो व्यक्ति घोर आर्थिक संकट से जूझ रहे हों, कर्ज में डूबे हों, व्यापार व्यवसाय की पूंजी बार-बार फंस जाती हो उन्हें दारिद्रय दहन स्तोत्र से शिवजी की आराधना करनी चाहिए.

महर्षि वशिष्ठ द्वारा रचित यह स्तोत्र बहुत असरदायक है. यदि संकट बहुत ज्यादा है तो शिवमंदिर में या शिव की प्रतिमा के सामने प्रतिदिन तीन बार इसका पाठ करें तो विशेष लाभ होगा.

जो व्यक्ति कष्ट में हैं अगर वह स्वयं पाठ करें तो सर्वोत्तम फलदायी होता है लेकिन परिजन जैसे पत्नी या माता-पिता भी उसके बदले पाठ करें तो लाभ होता है.

शिवजी का ध्यान कर मन में संकल्प करें. जो मनोकामना हो उसका ध्यान करें फिर पाठ आरंभ करें.

श्लोकों को गाकर पढ़े तो बहुत अच्छा, अन्यथा मन में भी पाठ कर सकते हैं. आर्थिक संकटों के साथ-साथ परिवार में सुख शांति के लिए भी इस मंत्र का जप बताया गया है.

।।दारिद्रय दहन स्तोत्रम्।।
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विश्वेशराय नरकार्ण अवतारणाय
कर्णामृताय शशिशेखर धारणाय।

कर्पूर कान्ति धवलाय, जटाधराय,
दारिद्रय दुख दहनाय नमः शिवाय।।१

गौरी प्रियाय रजनीश कलाधराय,
कलांतकाय भुजगाधिप कंकणाय।

गंगाधराय गजराज विमर्दनाय
द्रारिद्रय दुख दहनाय नमः शिवाय।।२

भक्तिप्रियाय भवरोग भयापहाय
उग्राय दुर्ग भवसागर तारणाय।

ज्योतिर्मयाय गुणनाम सुनृत्यकाय,
दारिद्रय दुख दहनाय नमः शिवाय।।३

चर्माम्बराय शवभस्म विलेपनाय,
भालेक्षणाय मणिकुंडल-मण्डिताय।

मँजीर पादयुगलाय जटाधराय
दारिद्रय दुख दहनाय नमः शिवाय।।४

पंचाननाय फणिराज विभूषणाय
हेमांशुकाय भुवनत्रय मंडिताय।

आनंद भूमि वरदाय तमोमयाय,
दारिद्रय दुख दहनाय नमः शिवाय।।५

भानुप्रियाय भवसागर तारणाय,
कालान्तकाय कमलासन पूजिताय।

नेत्रत्रयाय शुभलक्षण लक्षिताय
दारिद्रय दुख दहनाय नमः शिवाय।।६

रामप्रियाय रधुनाथ वरप्रदाय
नाग प्रियाय नरकार्ण अवताराणाय।

पुण्येषु पुण्य भरिताय सुरार्चिताय,
दारिद्रय दुख दहनाय नमः शिवाय।।७

मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय
गीतप्रियाय वृषभेश्वर वाहनाय।

मातंग चर्म वसनाय महेश्वराय,
दारिद्रय दुख दहनाय नमः शिवाय।।८

वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्व रोग निवारणम्
सर्व संपत् करं शीघ्रं पुत्र पौत्रादि वर्धनम्।।

शुभदं कामदं ह्दयं धनधान्य प्रवर्धनम्
त्रिसंध्यं यः पठेन् नित्यम् स हि स्वर्गम् वाप्युन्यात्।।९

🚩🕉️🚩 आदेश अलख निरंजन 🚩🕉️🚩
।।इति श्रीवशिष्ठरचितं दारिद्रयुदुखदहन शिवस्तोत्रम संपूर्णम।।

अध्यात्मिक उर्जा का क्षय कैसे हो जाता है ।

मनुष्य के साथ सबसे बड़ी समस्या ही यह है की वह उर्जा के नियमो से अवगत नहीं है. अध्यात्मिक शक्ति अर्थात उर्जा का, मंत्र इत्यादि क्रियाओं से आहवाहन तो हो सकता है किन्तु दिव्य उर्जा को संचित कर उसका उचित समय पर उचित प्रयोग करना नही आता है.
इसके अलावा मनुष्य को इस बात का भी ज्ञान नहीं होता है कि किस प्रकार छोटे छोटे नकारात्मक कर्मों द्वारा अपनी कठिनता से प्राप्त दिव्य उर्जा का नुकसान कर देता है.

उर्जा के क्षय का सबसे प्रमुख कारण मन के सभी छोटे और बड़े नकारात्मक विचार होते है. मन की किसी भी वस्तु , व्यक्ति अथवा परिस्थिति को लेकर सबसे पहली जो प्रतिक्रिया होती है वह है – विचार. विचारो की प्रवृत्ति या तो भूतकाल की ओर रहती है या भविष्य की ओर रहती है. अधिकंशतः विचार भूतकाल मे हो चुकी घटना मे संलग्न व्यक्ति अथवा वस्तुओं से हमारा भावनात्मक लगाव होने के कारण चलते रहते है. ऐसे विचारो मे अधिकांशतः विचार तुलनात्मक , निषेधात्मक और अपेक्षात्मक होते है जो कि मानव मन को असहज बना देते है. भविष्य की आवश्यकता से अधिक चिन्ता भी मन को असंतुलित कर देती है.
ऊर्जा का निरंतर प्रवाह
भूतकाल और भविष्य काल में रहने से हो रहे शारीरिक और मानसिक असंतुलन का कारण यह है कि वह शक्ति जो भविष्य का उचित निर्माण कर सकती है और भूतकाल की असहज परिस्थितियों को पुनः उत्पन्न नहीं होने देती वर्तमान काल मे विद्यमान होती है . किन्तु मनुष्य कभी भी वर्तमान मे सहज हो कर नहीं रहता. वर्तमान का सही उपयोग ना कर पाने के कारण भविष्य की नयी शुभ सम्भावनाये स्वरूप नहीं ले पाती है. भूतकाल का कोई अस्तित्व नहीं होता है, किन्तु नकारात्मक विचारों द्वारा बार बार पोषित होने के कारण वह भविष्य में उसी प्रकार के व्यक्तियों से सम्बन्ध अथवा परिस्थित्यों के निर्माण की सम्भावना को सबल बनाते है.

विचार अध्यात्मिक उर्जा को गति प्रदान करते है.           
सकारात्मक उर्जा समय रहते सही दिशा देने पर उत्तम आतंरिक और वाह्य परिस्थितियों का निर्माण कर सकती है. किन्तु यदि अवांछनीय विचारो पर नियन्त्रण नहीं रखा जाये तो उर्जा का अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के लिये उपयुक्त मात्रा मे संचयन नहीं हो पाता है और सब कुछ यथावत नकारात्मक रूप मे चलता रहता है.

जैसे कि हम सभी जानते है कि उर्जा का हस्तान्तरण पाँच विधियों के द्वारा होता है – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध उर्जा को एक स्थान से दूसरे स्थान अथवा व्यक्ति तक पहुचाने के वाहक होते है. कटु , तीखे, क्रोधी, निन्दक और व्यंगात्मक शब्दों का यदि प्रयोग किया जाये तो उर्जा की हानि होती है. यही कारण है कि साधनकाल मे तथा अन्य समय मे भी किसी भी प्रकार से प्रेरित होकर अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये. किसी को अशीर्वाद दिया जाये अथवा श्राप ; दोनों ही स्थिति मे स्वयम की तपस्या से अर्जित की गयी उर्जा शब्दों के माध्यम से दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित हो जाती है और उस समय की गयी इच्छा के अनुरूप दुसरे व्यक्ति को फल देती है .

तामसिक भोजन, मांस, मदिरा, धूम्रपान इत्यादी का उपयोग भी अध्यात्मिक शक्ति के ह्रास का प्रमुख कारण है.ऐसा भोजन जब तक सम्पूर्णतः शरीर को अपने प्रभाव से मुक्त नहीं कर देता उर्जा स्तर को प्रभवित करता रहता है. तामसिक भोजन के उपरान्त उर्जा को व्यवस्थित होने मे 2-4 दिन सााधरणतयः लग जाते है.

इसी प्रकार जब नकारात्मक विचारधारा के साथ जब भोजन बनाया जाता है तो स्पर्श के साथ विचारों की उर्जा पदार्थों मे प्रवेश कर उसकी सात्विक शक्ति को कम कर देते है. नकारात्मक व्यक्तियों के साथ हाथ मिलाने , उनके द्वारा दिए हुए वस्त्र पहनना अथवा उनके वस्त्र पहनने से भी उनकी ऊर्जा दूसरे व्यक्ति के अंदर प्रवेश कर अस्थिरता , बेचैनी और क्रोध जैसे अन्य विकार उत्पन्न करते है। सड़न इत्यादि से पैदा हुई और अन्य अप्रिय लग्ने वाली गंध वायु के माध्यम से नासिका से होती हुई सीधे सूक्ष्म शरीर को प्रभवित करती है और उर्जा भौतिक एवम सूक्ष्म शरीर के मध्य उर्जा मे असंतुलन पैदा करती है.

इन्ही सब कारणों से अध्यात्म मे मन की शुद्धता , भोजन , वाणी और स्पर्श इत्यादि की सावधानी पर बहुत अधिक बल दिया गया है. यदि इन माध्यमो का सही उपयोग किया जाता है तो सकारात्मक उर्जा की गति अंदर की ओर होती है जिससे उसका संचय होकर मात्रा मे वृद्धी होती है. इन माध्यमों का दुरूपयोग करने पर उर्जा की प्रवृत्ति वाह्य और अधोमुखी हो जाती है जिससे संचित उर्जा का भी क्षय हो जाता है. यह वाह्य प्रवृत्ति और अधोगामी गति तब तक रहती है जब तक सही प्रयासो और संकल्प के द्वारा उर्जा का मार्ग परिवर्तित ना किया जाये।

बंधन खोलना अपने आप में एक कला है ।।

प्रतिबंधात्मक जीवन में श्री की स्थापना सम्भव नहीं है। आदि शक्ति माँ बगलामुखी के मंत्र में बीज मंत्र के रूप में श्री भी स्थापित है। मंत्र गूंगे, बहरे और अंधे भी होते हैं। भारत वर्ष तीर्थ प्रधान देश है। जगह-जगह आपको प्राण प्रतिष्ठित तीर्थ स्थान मिल जायेंगे प्रत्येक व्यक्ति जीवन में भटकता हुआ कभी न कभी तीर्थ स्थानों, पर नदियों के तट पर, मंदिरों में या फिर गुरुओं के सानिध्य में पहुँच ही जाता है। एक अज्ञात शक्ति उसे बार- बार बाध्य करती है इन सब जगहों पर पहुँचने के लिए। यहीं पर बंधन खुलते हैं और व्यक्ति का उच्चाटन समाप्त होता है एवं उसे जीवन में एक निश्चित दिशा प्राप्त होती है। 


           शक्ति संचय की यह अद्भुत व्यवस्था है। प्रत्येक व्यक्ति के बंधन अलग- अलग स्थानों पर खुलते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का भाग्योदय के पूजन में रक्षा कवच का विधान है। मुख्य रूप से सभी रक्षा कवचों में बगलामुखी की शक्ति ही निहित होती है। महाविद्याओं की शक्तियाँ मूल स्तोत्र हैं जिनके द्वारा सभी आदि शक्तियाँ अस्त्र शस्त्र एवं कवचों से युक्त होती हैं और फिर यहीं अस्त्र शस्त्र और कवच भक्तजनों को उनके इष्टों के द्वारा प्राप्त होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग संरचना है इसीलिए उसका एक विशेष इष्ट देव होता ही है। उस इष्ट के माध्यम से वह आसानी से महाविद्याओं की शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। योग विद्या के माध्यम से या फिर अन्य क्रियाओं के माध्यम से साधक अपनी क्रियाशीलता बढ़ा सकता है। शरीर की क्रियाशीलता और मानस की क्रियाशीलता में जमीन आसमान का फर्क है। मनुष्य भाव प्रधान जीव है उसके अंदर अनेकों भाव होते हैं इसीलिए वह वमन की प्रक्रिया से ग्रसित होता है। जो उसके मानस में बनता है अगर उसका वह वमन नहीं करेगा तो जीवन मुश्किल हो जायेगा।

           अगर दुःख का निर्माण हो रहा है तो आंसू के माध्यम से वह उसे प्रकट करेगा। कभी-कभी कुछ लोगों में विचार ज्यादा बनने लगते है‌‌। जिनमें विचार ज्यादा बनते हैं वे उन्हें प्रकट किए बिना नहीं रह सकते। भाव की प्रधानता से मस्तिष्क का बहुत ज्यादा विकास नहीं हो सकता। अतः मस्तिष्क की क्रियाशीलता धीरे-धीरे भाव के कारण कम होने लगती है। भाव एक ऐसा द्वार जो अगर खुल गया तो आपके मस्तिष्क में परमंत्र,तंत्र एवं शत्रु द्वारा किया गया अभिचार कर्म शीघ्रता के साथ आपको उद्वेलित करके रख देगा। भाव के नियंत्रण के लिए ही मस्तिष्क का शून्यीकरण किया जाता है। अर्थात मस्तिष्क को शून्य कर देना। कुछ समय के लिए मस्तिष्क के अंदर उठ रही सारी क्रियाओं को समाप्त करना। यह इतना आसान नहीं हैं। इसे ही स्तम्भन की प्रक्रिया कहते हैं। यही ध्यान है। यही बगलामुखी अनुष्ठान का रहस्य है। 

           यह तभी सम्भव होगा जब मस्तिष्क का सम्प्रेषण केवल मनुष्यों के द्वारा ही नहीं अपितु अन्य इतर योनियों, ग्रह नक्षत्रों इत्यादियों से भी बाधित या स्तम्भित कर दिया जाय। तभी मस्तिष्क को क्रियाशीलता बढ़ाई जा सकती है। यह समाधि की अवस्था है। इसे ब्रह्म अवस्था भी कहते हैं। इस ब्रह्म अवस्था में ही मस्तिष्क वास्तविक सृजन कर सकेगा। एक ऐसा सृजन जो कि परिवर्तनकारी होगा। कुछ अलग हटकर होगा। मस्तिष्क को रोकना होगा व्यर्थ बर्बाद होने से। मस्तिष्क की गुणवत्ता सुधारनी होगी। मस्तिष्क को केवल संवेगों की क्रीड़ा स्थली बनकर नही रहने देना होगा। संवेगों और इन्द्रियों के ऊपर बहुत कुछ है। भाव प्रधान मस्तिष्क बहुत मिल जाएंगे क्रूर और निर्दयी मस्तिष्क बहुत मिल जायेंगे। आलोचक मस्तिष्कों की भरमार है। भिखमंगे मस्तिष्क जगह-जगह पर लगे हुए हैं। इन सब मस्तिष्कों से बगलामुखी को आराधना कदापि नहीं होगी। कुछ एक विरले सृजनशील मस्तिष्क होते हैं। इन सृजनशील मस्तिष्कों के द्वारा ही ब्रह्म विद्या को समझा जा सकता है सृजनशील मस्तिष्क वो देख सकता है, वो महसूस कर सकता है जो कि आम मस्तिष्क सोच भी नहीं सकता। यह बंधन मुक्त मस्तिष्क होता है और बंधन से मुक्तता ही बगलामुखी या अन्य दस महाविद्याओं आराधना का ध्येय है ।