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दिशाशूल (दिशाशूर) ।।

दिशाशूल जानने की ट्रिक ।।

सोम शनीचर पूर्व ना चालू।
मंगल बुध उत्तर दिशिकालू ।।
रवि शुक्र जो पश्चिम जाए ।
हानि होय पथ सुख नहीं पाए।।
गुरुवे दखिन करे पयाना।
फिर नहीं समझो ताको आना ।।

जानें क्या होता है दिशाशूल और क्या इसका भी होता है कोई उपाय ~
यात्रा पर निकलने से पहले जरूर जान लें दिशाशूल नहीं तो झेलने पड़ते हैं दुष्परिणाम। जानें कब और कैसे नहीं पड़ता दिशाशूल का आप पर असर,
इंसान के जीवन में यात्रा का बहुत महत्व होता है। फिर चाहे यात्रा छोटी दूरी की हो अथवा लंबी दूरी की हो। परिणाम उसकी शुभता और अशुभता, सफलता और असफलता पर निर्भर करता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार दिन विशेष को की जाने यात्रा से संबंधित दोष को विस्तार से बताया गया है। जिसे हम दिशाशूल (Disha Shool) के नाम से जानते हैं। दिशाशूल का अर्थ होता है — एक दिशा विशेष में जाने पर अशुभ परिणाम की प्राप्ति होना या फिर कहें कि जिस दिशा में जाने पर हानि अथवा अशुभ परिणाम मिलने की आशंका हो, वह दिशाशूल (Disha Shool) कहलाती है। यही कारण है कि सनातन परंपरा में कार्य विशेष हेतु निकलने से पहले दिशा का विचार अवश्य किया जाता है। तो आइए जानते हैं कि दिशाओं को लेकर क्या कुछ नियम हैं, जिन्हें यात्रा करते समय हमें ध्यान में रखना चाहिए —

कब ​किधर होता है दिशाशूल

दिशावार
पूर्वसोमवार, शनिवार
दक्षिणगुरुवार
पश्चिमशुक्र, रविवार
उत्तरमंगल, बुधवार
अग्निकोणसोमवार, गुरुवार
नैऋत्य कोणरविवार, शुक्रवार
वायव्य कोणमंगलवार
ईशान कोणबुधवार, शनिवार

चंद्र राशि के अनुसार दिशाशूल

पूर्वमेष, सिंह और धनु
दक्षिणवृष, कन्या, मकर
पश्चिममिथुन, तुला, कुंभ
उत्तरकर्क, वृश्चिक, मीन

इस बात का हमेशा रखें ध्यान

यदि एक दिन के भीतर ही किसी स्थान पर पहुँचना और फिर वापस आना निश्चित हो तो दिशाशूल का विचार नहीं किया जाता है। यात्रा के दौरान चंद्रमा यदि सामने अथवा दाहिने हो तो शुभ फलदायक और बाएं या पीछे हों तो विपरीत फलदायक होते हैं।

दिशाशूल का महाउपाय

जिस दिशा में दिशाशूल (Disha Shool) हो उसकी यात्रा करने पर अक्सर लोगों को तमाम तरह के कष्ट भोगने पड़ते हैं। लेकिन यदि कोई अति आवश्यक कार्य आ जाये तो उसके लिए भी हमारे यहां परिहार बताये गये हैं। जैसे रविवार को पान खाकर, सोमवार को आईने में देखकर, मंगलवार को गुड़ खाकर, बुधवार को धनियां, गुरुवार को जीरा, शुक्रवार को दही और शनिवार को अदरख खाकर निकलने से उस दिशा से संबंधित दोष दूर हो जाता है।

इस उपाय से भी दूर होगा दिशाशूल

यदि किसी दिशा में दिशाशूल हो और उस दिशा में जाना बहुत जरूरी हो तो उस दिशा से संबंधित दोष को निम्नलिखित चीजों को धारण करके दूर किया जा सकता है। रविवार का दिशाशूल दूर करने के लिए
पान, सोमवार को चंदन, मंगलवार को मिट्टी, बुधवार को पुष्प, गुरुवार को दही, शुक्रवार को घी और शनिवार को तिल धारण करके निकलने पर दिशा संबंधी दोष दूर हो जाता है।

(यहां दी गई जानकारियां धार्मिक आस्था और लोक मान्यताओं पर आधारित हैं, इसका कोई भी वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है. इसे सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर यहां प्रस्तुत किया गया है.)

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फोर्ट्रेस नेशन .. दैट वाज इंडिया ।।


ए फोर्ट्रेस नेशन .. दैट वाज इंडिया

प्राकृतिक रूप से दुनिया के सर्वाधिक सुरक्षित देशों में एक, था। स्थिति ऐसी कि मानो चारो ओर किले के दीवार, और पानी भरी खाई से सुरक्षित हो। 

खैबर और बलूचिस्तान के जरिये एक रास्ता पश्चिम में खुलता है। मगर पूरे इतिहास में उधर से सिकन्दर, और कासिम के अलावे कोई नही आया। विश्व इतिहास के रंगमंच, याने यूरोप और पश्चिम एशिया से उसकी अत्यधिक दूरी भी फायदेमंद थी। 

मध्यकाल के संघर्षों और दोनों विश्वयुद्ध की विभीषिका से भारत दूर रहा। 
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इस किले के भीतर ही पर्याप्त विशाल भूभाग, और वैविध्य था। तो 1000 साल जो भी सँघर्ष हुए, आंतरिक ही रहे। राजा और राजवंश, इस किले के भीतर ही सत्ता कायम करके संतुष्ट थे। 

खास हालात में फंसे राजेन्द्र चोल और जयपाल को छोड़, किसी ने इस किले से बाहर निकलने की जरूरत न महसूस की। पर शांति के इस दौर में हमारी रवायतें कुछ ऐसी रही, कि सत्ता और धर्म नें समाज को विभाजित रखा।

समाज का 90% हिस्सा, शूद्र या निम्न था, कृषक था। राजे आते जाते रहे, लेकिन उनका जीवन सदियों से वैसा ही रहा। ऐसे में में अधिकांश भारतवासियों में जागृत राजनीतिक चेतना, और एका का भाव कभी रहा नही। 

कोउ नृप होय, हमे का हानि.. ??
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इसका फायदा अगले हजार सालों में आये आक्रांताओं को मिला। वे मध्य एशिया से आये, रियासत दर रियासत जीतते गए। फिर यहीं टिक गए। निम्न जातियां उनसे मिल गयी, उनका धर्म अंगीकार किया, बराबरी पाई और सत्ता में हिस्सेदारी भी.. 

जब मुगल दरबार में स्थानीय रजवाड़ो को इज्जत मिली, उनका राज सुरक्षित रहने का आश्वासन मिला, तो वे भी बेखटके अधीनस्थ हो गए। 

लेकिन समाज के भीतर, रजवाड़ों के बीच आपसी रंजिश की आदत बनी रही। तो अगर अंग्रेजो ने भारत मे पैर जमाये, तो कदम कदम पर भारतीयों ने सहायता की। 

इतिहास गवाह है कि टीपू को नेस्तनाबूद करने के लिए मराठे और निजाम साथ थे। सिराज को क्लाइव ने नहीं, मीरजाफर ने हराया था। 
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अंग्रेजी राज विष भी था, अमृत भी। यूरोप के पुनर्जागरण की कुछ सौ बरस की जमापूंजी, भारत पर भी बूंद बूंद टपकी। अंग्रेजो ने इस देश को सिंगल पोलिटिकल यूनिट में ढाला। 2000 साल में मौर्य और औरंगजेब के बाद ऐसा करने वाले, वो महज तीसरी ताकत थे। 

लेकिन उन्होंने भारत को हमेशा के लिए बदल भी दिया।

लिखित विधान की परिपाटी दी। पश्चिमी पद्धति की शिक्षा, न्याय व्यवस्था, पुलिस, कानून, रेल, जेल और मेल याने डाक व्यवस्था दी। भारत मे बांध, सड़क, पुल, नहरें "सरकारी पहल" से बनने लगी। 

हां, यह सब उन्होंने अपने स्वार्थ के लिए किया, भारी कीमत लेकर किया। लेकिन उन्होंने, पहली बार यह किया। लिच्छवी गणतंत्र के बाद इस देश मे पहली बार, विधायी सरकारें आयी। 

मैं 1937 से 11 स्टेट में बनी सरकारो की बात कर रहा हूँ। 
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लेकिन अपनी सत्ता दीर्घ करने के लिए धार्मिक विभाजन की जो चाल, अंग्रेजो ने चली, उसने भारत के इस किले को दरका दिया। धर्म के आधार पर दो राष्ट्र का सिद्धांत उछला, और इस किले के परकोटे के भीतर ही 3 राष्ट्र बन गए। 

ये अप्राकृतिक राष्ट्र थे। खेतों के बीच तार लगाकर बनाई गई ये सीमाएं कृत्रिम थी। ये विभाजन कृत्रिम था, और इस तारबंदी के दोनो ओर का विरोधाभास भी कृत्रिम था।

विरोधाभास दो समुदायों के बीच पूजा पद्धति का था। इसे धर्म नही कहते। कीर्तन और नमाज यहाँ कई सौ सालों तक बिना सँघर्ष, कोएग्जिस्ट करती रहीं। आगे भी 
करती। मगर यह कबीलेबन्दी का बहाना बना।

और फिर भारत ने अपने ही बदन से, अपना ही जानी दुश्मन पैदा कर लिया। अनंत काल तक के लिए बगल मे जगह दी, उससे लड़ने लगा। 

भला कितने देश, कितने समाज ऐसा करते है ? 
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फिर एक और गलती की। हिमालय की ओर, जिन सीमाओं पर कुछ भी ऐतिहासिक क्लेम नही था, वहां बढ़ चढ़कर दावे किए। इसका नतीजा, उस तरफ एक औऱ दुश्मन पैदा होना था। 

तो आज पूरब में निगाह डालो, तो दुश्मन है। पश्चिम में निगाह डालो तो दुश्मन है। दुश्मन पूरब और दुश्मन पश्चिम जहां मिलते हैं, वो कश्मीर भी दुश्मन है। 

अगर इससे जी शांत न हुआ हो, तो उत्तर पूर्व सीमा पर चलें। वहां मणिपुर जल रहा है। बाकी के सीमावर्ती राज्यो में असहज शांति है। केवल दक्षिण बच गया था, शांत था। 

पर अब नई संसद बन गयी है। 
शांति वहां कुछ बरस की ही मेहमान है। 
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ईश्वर आपको जब प्रेम करता है, वह एक सुरक्षित स्वर्गिक किला बनाकर देता है। उसमें धन-धान्य, जल, खनिज, और सुंदर संस्कृति देकर सुखी रहने का वरदान देता है। 

मगर बहकाये जाने पर, स्वर्ग में रहने वाले भी जहरीला फल खाने का लोभ संवरण नही कर पाते। अंततोगत्वा स्वर्ग से निकाले जाते है। अनंत तकलीफों के बीच फेंक दिये जाते हैं। 

हमे बहकाया गया। हम बहक गये। अपने किले के हिस्से लगाए, अंदर ही दुश्मन पैदा किया, उनसे लड़े, अपने बच्चे कुर्बान किये, मगर सबक न सीखा। 

अब फिर नए सिरे से लड़ रहे हैं, घर घर मे, आस पड़ोस में गद्दार खोज रहे हैं। असुरक्षित भी महसूस कर रहे हैं। हथियारों पर धार कर रहे हैं। 
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 शायद इस भग्न ईश्वरीय किले के भाग्य में और भी हिस्से होना लिखा है। इसलिए कहा.. 


सोलह वैदिक संस्कार ।।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने संस्कारविधि ग्रन्थ में सोलह संस्कारों का विधान किया है। जिनमें तीन गर्भावस्था सम्बन्धित, आठ ब्रह्मचर्यावस्था सम्बन्धित, दो गृहस्थावस्था सम्बन्धित, एक वानप्रस्थ तथा एक संन्यास सम्बन्धित है एवं अन्तिम संस्कार मरणोपरान्त किया जाता है।

वे सोलह संस्कार निम्न हैं-
(1) गर्भाधान संस्कार, (2) पुंसवन संस्कार, 
(3) सीमन्तोन्नयन संस्कार, (4) जातकर्म संस्कार, 
(5) नामकरण संस्कार, (6) निष्क्रमण संस्कार, 
(7) अन्नप्राषन संस्कार, (8) चूडाकर्म संस्कार, 
(9) कर्णवेध संस्कार, (10) उपनयन संस्कार, 
(11) वेदारम्भ संस्कार, (12) समावर्त्तन संस्कार, 
(13) विवाह संस्कार, (14) वानप्रस्थ संस्कार, 
(15) संन्यास संस्कार, (16) अन्त्येष्टि संस्कार।

1. गर्भाधान संस्कारः उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये प्रथम संस्कार।

2. पुंसवन संस्कारः गर्भस्थ शिशु के बौद्धि एवं मानसिक विकास हेतु गर्भाधान के पश्चात्् दूसरे या तीसरे महीने किया जाने वाला द्वितीय संस्कार।

3. सीमन्तोन्नयन संस्कारः माता को प्रसन्नचित्त रखने के लिये, ताकि गर्भस्थ शिशु सौभाग्य सम्पन्न हो पाये, गर्भाधान के पश्चात् आठवें माह में किया जाने वाला तृतीय संस्कार।

4. जातकर्म संस्कारः नवजात शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना हेतु किया जाने वाला चतुर्थ संस्कार।

5. नामकरण संस्कारः नवजात शिशु को उचित नाम प्रदान करने हेतु जन्म के ग्यारह दिन पश्चात् किया जाने वाला पंचम संस्कार।

6. निष्क्रमण संस्कारः शिशु के दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करने की कामना के लिये जन्म के तीन माह पश्चात् चौथे माह में किया जाने वला षष्ठम संस्कार।

7. अन्नप्राशन संस्कारः शिशु को माता के दूध के साथ अन्न को भोजन के रूप में प्रदान किया जाने वाला जन्म के पश्चात् छठवें माह में किया जाने वाला सप्तम संस्कार।

8. चूड़ाकर्म (मुण्डन) संस्कारः शिशु के बौद्धिक, मानसिक एवं शारीरिक विकास की कामना से जन्म के पश्चात् पहले, तीसरे अथवा पाँचवे वर्ष में किया जाने वाला अष्टम संस्कार।

9. विद्यारम्भ संस्कारः जातक को उत्तमोत्तम विद्या प्रदान के की कामना से किया जाने वाला नवम संस्कार।

10. कर्णवेध संस्कारः जातक की शारीरिक व्याधियों से रक्षा की कामना से किया जाने वाला दशम संस्कार।

11. यज्ञोपवीत (उपनयन) संस्कारः जातक की दीर्घायु की कामना से किया जाने वाला एकादश संस्कार।

12. वेदारम्भ संस्कारः जातक के ज्ञानवर्धन की कामना से किया जाने वाला द्वादश संस्कार।

13. केशान्त संस्कार: गुरुकुल से विदा लेने के पूर्व किया जाने वाला त्रयोदश संस्कार।

14. समावर्तन संस्कारः गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने की कामना से किया जाने वाला चतुर्दश संस्कार।

15. पाणिग्रहण संस्कारः पति-पत्नी को परिणय-सूत्र में बाँधने वाला पंचदश संस्कार।

16. अन्त्येष्टि संस्कारः मृत्योपरान्त किया जाने वाला षष्ठदश संस्कार।

16 सिद्धियाँ विवरण ।।

1. वाक् सिद्धि : - 👇

जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं.

 2. दिव्य दृष्टि सिद्धि:-👇

 दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं.

3. प्रज्ञा सिद्धि : -👇

प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें.

 4. दूरश्रवण सिद्धि :-👇

 इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता.

 5. जलगमन सिद्धि:-👇

 यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो.

 6. वायुगमन सिद्धि :-👇

इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं.

 7. अदृश्यकरण सिद्धि:-👇

 अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं.

 8. विषोका सिद्धि :-👇

 इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं.

 9. देवक्रियानुदर्शन सिद्धि :-👇

 इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं.

10. कायाकल्प सिद्धि:-👇

 कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं.

11. सम्मोहन सिद्धि :-👇

 सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं.

 12. गुरुत्व सिद्धि:-👇

 गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं.

 13. पूर्ण पुरुषत्व सिद्धि:-👇

 इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की.

 14. सर्वगुण संपन्न सिद्धि:-👇

  जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं.

 15. इच्छा मृत्यु सिद्धि :-👇

 इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं.

16. अनुर्मि सिद्धि:-👇

 अनुर्मि का अर्थ हैं. जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो.
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गुरु वाणी ।।

      वर्तमान के समाज पर नजर डालें तो बस बड़े-बड़े मकान, एक से एक सुसज्जित बंगले, कीमती वस्त्रों से सुसज्जित स्त्री-पुरुष सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं इसके अलावा घोर दरिद्रता, अभाव ग्रस्त जीवन, दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद करते हुए लोग भी दिखाई पड़ते हैं। इन दोनों धाराओं में जीवन जी रहे मनुष्यों को अगर जरा सी भी सुई चुभोई जाय तो सिर्फ मवाद ही मवाद निकलता हुआ दिखाई पड़ता है। पुष्प के पास जाओगे तो खुशबू मिलेगी, वृक्ष के पास जाओगे तो फल मिलेंगे। पशु भी आपको उपयोगी उत्पादन प्रदान कर देंगे परंतु मनुष्य सिर्फ मवाद ही उत्पादित कर रहा है। मवाद विष का प्रतीक है, मवाद दुर्गन्ध युक्त है। यहाँ पर मैं मवाद को घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, छल-कपट, लटका हुआ मुँह, हिंसा, प्रपंच इत्यादि के रूप में व्यक्त कर रहा हूँ। कहने को तो ये भी उत्पादन है। विष भी उत्पादन ही है। विष रूपी उत्पादन का लक्ष्य मृत्यु है, दर्द है, पीड़ा है। घर आजकल कारागृह बन गए हैं जिसमें पति-पत्नी को प्रताड़ित करता है और पत्नी पति को कारावास देती है। बुजुर्ग तानाशाही पूर्वक शासन चलाते हैं और ग्रसित नव युवक फाँसी के फंदे पर झूलते हैं इत्यादि-इत्यादि यही सब कुछ झोपड़ पट्टी से लेकर आलीशान महलों में हो रहा है। सब एक-दूसरे का गला घोट रहे हैं, हिंसक पशुओं के समान एक-दूसरे को नोंच रहे हैं और सबके सब लहूलुहान एवं दिग्भ्रमित हैं।

          समाज की प्रत्येक क्रिया मनुष्य की शक्ति को बिखेर रही है। बिखरना एक बात है और उर्ध्वगामी होना दूसरी बात है। गुरु इन्हीं सब विडम्बनाओं के बीच खड़ा रहता हुआ आपको निरंतर उर्ध्वगामी बनाने की कोशिश में लगा रहता है। उर्ध्वगामी बनने के लिए बिखरने की क्रिया रोकनी होगी या तो फैला लो लता के समान या फिर ऊँचे उठ लो वृक्ष के समान। घास बनोंगे तो पैरों तले रौंदे जाओगे, वृक्ष बनोंगे तो छाया प्रदान करोगे मनुष्यों को आश्रय प्रदान करोगे पक्षियों को । मवाद तभी बनता है जब आप घायल होते हैं और आपकी सिमटने की शक्ति क्षीण होती है। मवाद भौतिक तल पर भी है और मानस पर भी निर्मित होता है। अवचेतन में भी विषाद उत्पन्न होता है।

         गुरु गणेश का प्रतीक होता है वह सर्वप्रथम घाव की, जो कि आपको आपके तथाकथित समाज ने प्रदान किया हैं, शल्य क्रिया करता है। घाव को सुखाता है और पुनः जख्म प्राप्त न हो इस प्रकार की व्यवस्था करता है। साथ ही साथ आप भी दूसरों को जख्म न प्रदान कर सकें इसलिए वह आपके नाखून और दाँत भी तोड़ता है। गणपति एक दन्तेश्वर हैं दो दाँत वाले तो असुर प्रवृत्ति के होते हैं। जब प्रत्येक घर में अराजकता व अव्यवस्था फैली हो तो वहाँ गुरु सूक्ष्म रूप से प्रवेश कर विघ्नों का नाश करते हुए देव शक्तियों को प्रतिष्ठित करते हैं। आज का मनुष्य मात्र बाहरी दिखावों में उलझ कर रह गया है। निमंत्रण-पत्र, शुभकामना संदेश इत्यादि इत्यादि का आदान-प्रदान कर इति श्री कर लेता है परन्तु वास्तव में आशीर्वादों का उत्पादन दुर्लभ होता जा रहा है। आशीर्वाद, शुभकामना, मंगलमय वचन, दीक्षाऐं इत्यादि हृदय-पक्ष के द्वारा सृजन की जाती है। यही इस ब्रह्माण्ड की सबसे तीक्ष्ण साधना है। 

         अति शीघ्र परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं परन्तु इनके द्वारा उत्पादन के लिए योग्यता तो अवश्य चाहिए। शिव का पुत्र तो बनना ही होगा। देव गणों का अधिपति तो होना ही होगा, विष का पान करना ही होगा । बुद्धि व सिद्धि को अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार करना होगा। क्षेम व कुशल रूपी मानसपुत्र उत्पन्न करने होंगे। गणपति की एक और अर्धांगिनी हैं एवं उनका नाम पुष्टि है। कहने का तात्पर्य यह है कि गुरु मात्र अकेला कुछ नहीं करता। वह भी वास्तव में शिव परिवार का ही निर्माण करता है, जिस प्रकार शिव के परिवार में भैरव, गणेश, कार्तिकेय एवं अनेकों गण व अनुचर शिव पुत्रों के समान निवास करते हैं उसी प्रकार गुरु के सानिध्य में शिष्य शिव के मानस पुत्रों की तरह सत्कर्मों में क्रियाशील होते हैं। माता पार्वती सब के प्रति समान भाव रखती हैं। साधक का निर्माण आसान क्रिया नहीं है। 

          एक सामान्य व्यक्ति को आध्यात्मिक साधक में परिवर्तित करने के लिए गुरु को उतना ही प्रयत्न करना पड़ता है जितना कि कृष्ण ने अर्जुन के लिए किया था उसे पूर्ण योद्धा बनाने के लिए। साधक का निर्माण एक दिन की बात नहीं है और न ही एकाध संस्कार से कुछ होने वाला है। एक साधक का निर्माण लगभग 64 करोड़ संस्कारों के बाद ही सम्पन्न होता है। आप सोचिए गुरु को प्रतिक्षण के 100 वें हिस्से में भी संस्कार सम्पन्न करना पड़ता है। संस्कारों की क्रिया प्रवचनों, दीक्षाओं, साधनाओं एवं अन्य अतिसूक्ष्म; अदृश्य गूढ़ क्रियाओं के द्वारा सम्पन्न करनी पड़ती हैं। गणेश का स्थापन इतना आसान नहीं है।

कभी- कभी संस्कार पूर्ण होने से पहले ही साधक शरीर त्याग बैठता है तत्पश्चात् पुनः गुरु को जन्म लेकर एक बार फिर शिष्य को ढूंढना पड़ता है और फिर टूटी हुई कड़ी जोड़नी पड़ती है। अधिकांशत: शिष्यों को ये भी मालूम नहीं होता कि गुरु क्या क्रिया सम्पन्न कर रहे हैं और फिर गुरु को बताना भी नहीं चाहिए। इस प्रकार धीरे-धीरे साधक मण्डल का निर्माण हो जाता है। 

         मंत्र की सफलता क्या है? मंत्र वही सिद्ध है जिसका कि जाप या अनुष्ठान अखण्ड रूप से ब्रह्माण्ड या विश्व के किसी कोने में निरन्तरता के साथ जारी रहे। आप गायत्री मंत्र नहीं पढ़ रहे हैं तो इस का मतलब यह नहीं है कि कोई अन्य साधक भी इसे नहीं उच्चारित कर रहा होगा। साधक तो बस एक इकाई है। वास्तव में तो गणेश रूपी फल समग्रता के साथ ही उपस्थित होता है। सवा लाख मंत्रों से प्राप्त होने वाला फल निश्चित ही सीमित होगा परन्तु अरबों-खरबों बार मंत्र जाप से उपस्थित हुआ मंगलमय फल अत्यंत ही विस्तृत एवं विश्व के साथ-साथ ब्रह्माण्ड के लिए भी कल्याणकारी होता है। यही सनातन धर्म में प्रचलित शांति पाठ का निचोड़ है। पृथ्वी पर शांति होनी चाहिए, अंतरिक्ष में शांति होनी चाहिए, देवलोक में शांति होनी चाहिए, समुद्र में शांति होनी चाहिए, वायु में शांति होनी चाहिए इत्यादि तभी जीवों में भी शांति होगी। यही शांति की समग्रता है। 

        कल्याणकारी अनुष्ठान, मंत्र जाप, आध्यात्मिक क्रियाऐं गुरुवाणी इत्यादि सभी तलों पर शांति एवं मंगलमय स्थितियाँ उत्पन्न करते हैं। शिव और पार्वती मंदिर के गर्भ में स्थित होते हैं तो वहीं गणेश द्वार पर स्थापित होते हैं अर्थात मंदिर में जाओ और शिव-शक्ति की उपासना करो और अंत में गणेश रूपी मंगलमय फल की प्राप्ति करो । शिव के हाथ में भिक्षा पात्र है तो वहीं गणेश के हाथ में मोदक है। पिता भिक्षावृत्ति करता है और पुत्र मोदक रूपी फल प्रदान करता है अर्थात भिक्षा के रूप में शिव आपका जहर मांग रहे हैं। जहर ही शिव का भोज्य है। जहर के बदले मोदक की प्राप्ति यही महानता है शिव परिवार की, गुरु परम्परा की। 

          साधक तो बनना ही पड़ेगा नहीं तो भटक जाओगे। साधक बनना इतना आसान नहीं है। गुरु की शरण में तो जाना ही पड़ेगा। गुरु के पास जमीन पर नहीं बैठोगे तो राजनीतिज्ञों की सभाओं में जमीन पर बैठना पड़ेगा। हर जगह बिकाऊ माल के समान तुम्हारा इस समाज में दुरुपयोग होगा। चुनाव आपके हाथ में है। घर के सोफे और कुर्सियाँ भी आरामदायक महसूस नहीं होंगी। यह सब गुरु के अभाव में जगह-जगह देखने को मिलता है। आपकी अनंत शक्तियों को एक सूत्र में पिरोकर केन्द्रीयकृत करना गुरु को ही आता है। यही 'कृष्ण ने किया है अन्यथा अर्जुन तो भटक ही गया था। पाँच पाण्डवों को एकीकृत करने के लिए कृष्ण ने द्रोपदी का भी सहारा लिया। वही केन्द्र बिन्दु बनी पाँच पाण्डवों की तेजस्विता को एक सूत्र में बांधकर रखने हेतु अन्यथा महभारत का अंत कुछ और ही होता। यही उस वक्त की पुकार थी। जरूरी नहीं है कि जो युक्ति द्वापर में कारगर साबित हुई वही कलयुग में भी कारगर साबित होगी क्योंकि युक्ति के साथ युक्तिनिर्माता प्रभु श्री कृष्ण भी मौजूद थे। कृष्ण ही गणेश हैं। कृष्ण ही शिव हैं गणेश और शिव अभेद हैं। गुरु को गणेश भी बनना पड़ता है, शिव भी और कृष्ण भी।

           जिन्हें अष्टक वर्ग ज्योतिष सीखना है अध्यात्म से जुड़ना है साधनाओं के विषय में जानकारी चाहिए साधना करना है, कौन सी साधना करें ? गुरु कैसे प्राप्त हो ? गुरु से अपनी चेतना कैसे जुड़ा जाए?