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16 सिद्धियाँ विवरण ।।

1. वाक् सिद्धि : - 👇

जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं.

 2. दिव्य दृष्टि सिद्धि:-👇

 दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं.

3. प्रज्ञा सिद्धि : -👇

प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता हें वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता हें.

 4. दूरश्रवण सिद्धि :-👇

 इसका तात्पर्य यह हैं की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता.

 5. जलगमन सिद्धि:-👇

 यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो.

 6. वायुगमन सिद्धि :-👇

इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं.

 7. अदृश्यकरण सिद्धि:-👇

 अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता हैं.

 8. विषोका सिद्धि :-👇

 इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं.

 9. देवक्रियानुदर्शन सिद्धि :-👇

 इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं.

10. कायाकल्प सिद्धि:-👇

 कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और यौवनवान ही बना रहता हैं.

11. सम्मोहन सिद्धि :-👇

 सम्मोहन का तात्पर्य हैं कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला को पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता हैं.

 12. गुरुत्व सिद्धि:-👇

 गुरुत्व का तात्पर्य हैं गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती हैं, ज्ञान का भंडार होता हैं, और देने की क्षमता होती हैं, उसे गुरु कहा जाता हैं! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया हैं.

 13. पूर्ण पुरुषत्व सिद्धि:-👇

 इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारन से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदनंतर कंस का संहार करते हुए पुरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की.

 14. सर्वगुण संपन्न सिद्धि:-👇

  जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता हैं.

 15. इच्छा मृत्यु सिद्धि :-👇

 इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता हैं.

16. अनुर्मि सिद्धि:-👇

 अनुर्मि का अर्थ हैं. जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो.
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गुरु वाणी ।।

      वर्तमान के समाज पर नजर डालें तो बस बड़े-बड़े मकान, एक से एक सुसज्जित बंगले, कीमती वस्त्रों से सुसज्जित स्त्री-पुरुष सर्वत्र दिखाई पड़ते हैं इसके अलावा घोर दरिद्रता, अभाव ग्रस्त जीवन, दो वक्त की रोटी के लिए जद्दोजहद करते हुए लोग भी दिखाई पड़ते हैं। इन दोनों धाराओं में जीवन जी रहे मनुष्यों को अगर जरा सी भी सुई चुभोई जाय तो सिर्फ मवाद ही मवाद निकलता हुआ दिखाई पड़ता है। पुष्प के पास जाओगे तो खुशबू मिलेगी, वृक्ष के पास जाओगे तो फल मिलेंगे। पशु भी आपको उपयोगी उत्पादन प्रदान कर देंगे परंतु मनुष्य सिर्फ मवाद ही उत्पादित कर रहा है। मवाद विष का प्रतीक है, मवाद दुर्गन्ध युक्त है। यहाँ पर मैं मवाद को घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, छल-कपट, लटका हुआ मुँह, हिंसा, प्रपंच इत्यादि के रूप में व्यक्त कर रहा हूँ। कहने को तो ये भी उत्पादन है। विष भी उत्पादन ही है। विष रूपी उत्पादन का लक्ष्य मृत्यु है, दर्द है, पीड़ा है। घर आजकल कारागृह बन गए हैं जिसमें पति-पत्नी को प्रताड़ित करता है और पत्नी पति को कारावास देती है। बुजुर्ग तानाशाही पूर्वक शासन चलाते हैं और ग्रसित नव युवक फाँसी के फंदे पर झूलते हैं इत्यादि-इत्यादि यही सब कुछ झोपड़ पट्टी से लेकर आलीशान महलों में हो रहा है। सब एक-दूसरे का गला घोट रहे हैं, हिंसक पशुओं के समान एक-दूसरे को नोंच रहे हैं और सबके सब लहूलुहान एवं दिग्भ्रमित हैं।

          समाज की प्रत्येक क्रिया मनुष्य की शक्ति को बिखेर रही है। बिखरना एक बात है और उर्ध्वगामी होना दूसरी बात है। गुरु इन्हीं सब विडम्बनाओं के बीच खड़ा रहता हुआ आपको निरंतर उर्ध्वगामी बनाने की कोशिश में लगा रहता है। उर्ध्वगामी बनने के लिए बिखरने की क्रिया रोकनी होगी या तो फैला लो लता के समान या फिर ऊँचे उठ लो वृक्ष के समान। घास बनोंगे तो पैरों तले रौंदे जाओगे, वृक्ष बनोंगे तो छाया प्रदान करोगे मनुष्यों को आश्रय प्रदान करोगे पक्षियों को । मवाद तभी बनता है जब आप घायल होते हैं और आपकी सिमटने की शक्ति क्षीण होती है। मवाद भौतिक तल पर भी है और मानस पर भी निर्मित होता है। अवचेतन में भी विषाद उत्पन्न होता है।

         गुरु गणेश का प्रतीक होता है वह सर्वप्रथम घाव की, जो कि आपको आपके तथाकथित समाज ने प्रदान किया हैं, शल्य क्रिया करता है। घाव को सुखाता है और पुनः जख्म प्राप्त न हो इस प्रकार की व्यवस्था करता है। साथ ही साथ आप भी दूसरों को जख्म न प्रदान कर सकें इसलिए वह आपके नाखून और दाँत भी तोड़ता है। गणपति एक दन्तेश्वर हैं दो दाँत वाले तो असुर प्रवृत्ति के होते हैं। जब प्रत्येक घर में अराजकता व अव्यवस्था फैली हो तो वहाँ गुरु सूक्ष्म रूप से प्रवेश कर विघ्नों का नाश करते हुए देव शक्तियों को प्रतिष्ठित करते हैं। आज का मनुष्य मात्र बाहरी दिखावों में उलझ कर रह गया है। निमंत्रण-पत्र, शुभकामना संदेश इत्यादि इत्यादि का आदान-प्रदान कर इति श्री कर लेता है परन्तु वास्तव में आशीर्वादों का उत्पादन दुर्लभ होता जा रहा है। आशीर्वाद, शुभकामना, मंगलमय वचन, दीक्षाऐं इत्यादि हृदय-पक्ष के द्वारा सृजन की जाती है। यही इस ब्रह्माण्ड की सबसे तीक्ष्ण साधना है। 

         अति शीघ्र परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं परन्तु इनके द्वारा उत्पादन के लिए योग्यता तो अवश्य चाहिए। शिव का पुत्र तो बनना ही होगा। देव गणों का अधिपति तो होना ही होगा, विष का पान करना ही होगा । बुद्धि व सिद्धि को अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार करना होगा। क्षेम व कुशल रूपी मानसपुत्र उत्पन्न करने होंगे। गणपति की एक और अर्धांगिनी हैं एवं उनका नाम पुष्टि है। कहने का तात्पर्य यह है कि गुरु मात्र अकेला कुछ नहीं करता। वह भी वास्तव में शिव परिवार का ही निर्माण करता है, जिस प्रकार शिव के परिवार में भैरव, गणेश, कार्तिकेय एवं अनेकों गण व अनुचर शिव पुत्रों के समान निवास करते हैं उसी प्रकार गुरु के सानिध्य में शिष्य शिव के मानस पुत्रों की तरह सत्कर्मों में क्रियाशील होते हैं। माता पार्वती सब के प्रति समान भाव रखती हैं। साधक का निर्माण आसान क्रिया नहीं है। 

          एक सामान्य व्यक्ति को आध्यात्मिक साधक में परिवर्तित करने के लिए गुरु को उतना ही प्रयत्न करना पड़ता है जितना कि कृष्ण ने अर्जुन के लिए किया था उसे पूर्ण योद्धा बनाने के लिए। साधक का निर्माण एक दिन की बात नहीं है और न ही एकाध संस्कार से कुछ होने वाला है। एक साधक का निर्माण लगभग 64 करोड़ संस्कारों के बाद ही सम्पन्न होता है। आप सोचिए गुरु को प्रतिक्षण के 100 वें हिस्से में भी संस्कार सम्पन्न करना पड़ता है। संस्कारों की क्रिया प्रवचनों, दीक्षाओं, साधनाओं एवं अन्य अतिसूक्ष्म; अदृश्य गूढ़ क्रियाओं के द्वारा सम्पन्न करनी पड़ती हैं। गणेश का स्थापन इतना आसान नहीं है।

कभी- कभी संस्कार पूर्ण होने से पहले ही साधक शरीर त्याग बैठता है तत्पश्चात् पुनः गुरु को जन्म लेकर एक बार फिर शिष्य को ढूंढना पड़ता है और फिर टूटी हुई कड़ी जोड़नी पड़ती है। अधिकांशत: शिष्यों को ये भी मालूम नहीं होता कि गुरु क्या क्रिया सम्पन्न कर रहे हैं और फिर गुरु को बताना भी नहीं चाहिए। इस प्रकार धीरे-धीरे साधक मण्डल का निर्माण हो जाता है। 

         मंत्र की सफलता क्या है? मंत्र वही सिद्ध है जिसका कि जाप या अनुष्ठान अखण्ड रूप से ब्रह्माण्ड या विश्व के किसी कोने में निरन्तरता के साथ जारी रहे। आप गायत्री मंत्र नहीं पढ़ रहे हैं तो इस का मतलब यह नहीं है कि कोई अन्य साधक भी इसे नहीं उच्चारित कर रहा होगा। साधक तो बस एक इकाई है। वास्तव में तो गणेश रूपी फल समग्रता के साथ ही उपस्थित होता है। सवा लाख मंत्रों से प्राप्त होने वाला फल निश्चित ही सीमित होगा परन्तु अरबों-खरबों बार मंत्र जाप से उपस्थित हुआ मंगलमय फल अत्यंत ही विस्तृत एवं विश्व के साथ-साथ ब्रह्माण्ड के लिए भी कल्याणकारी होता है। यही सनातन धर्म में प्रचलित शांति पाठ का निचोड़ है। पृथ्वी पर शांति होनी चाहिए, अंतरिक्ष में शांति होनी चाहिए, देवलोक में शांति होनी चाहिए, समुद्र में शांति होनी चाहिए, वायु में शांति होनी चाहिए इत्यादि तभी जीवों में भी शांति होगी। यही शांति की समग्रता है। 

        कल्याणकारी अनुष्ठान, मंत्र जाप, आध्यात्मिक क्रियाऐं गुरुवाणी इत्यादि सभी तलों पर शांति एवं मंगलमय स्थितियाँ उत्पन्न करते हैं। शिव और पार्वती मंदिर के गर्भ में स्थित होते हैं तो वहीं गणेश द्वार पर स्थापित होते हैं अर्थात मंदिर में जाओ और शिव-शक्ति की उपासना करो और अंत में गणेश रूपी मंगलमय फल की प्राप्ति करो । शिव के हाथ में भिक्षा पात्र है तो वहीं गणेश के हाथ में मोदक है। पिता भिक्षावृत्ति करता है और पुत्र मोदक रूपी फल प्रदान करता है अर्थात भिक्षा के रूप में शिव आपका जहर मांग रहे हैं। जहर ही शिव का भोज्य है। जहर के बदले मोदक की प्राप्ति यही महानता है शिव परिवार की, गुरु परम्परा की। 

          साधक तो बनना ही पड़ेगा नहीं तो भटक जाओगे। साधक बनना इतना आसान नहीं है। गुरु की शरण में तो जाना ही पड़ेगा। गुरु के पास जमीन पर नहीं बैठोगे तो राजनीतिज्ञों की सभाओं में जमीन पर बैठना पड़ेगा। हर जगह बिकाऊ माल के समान तुम्हारा इस समाज में दुरुपयोग होगा। चुनाव आपके हाथ में है। घर के सोफे और कुर्सियाँ भी आरामदायक महसूस नहीं होंगी। यह सब गुरु के अभाव में जगह-जगह देखने को मिलता है। आपकी अनंत शक्तियों को एक सूत्र में पिरोकर केन्द्रीयकृत करना गुरु को ही आता है। यही 'कृष्ण ने किया है अन्यथा अर्जुन तो भटक ही गया था। पाँच पाण्डवों को एकीकृत करने के लिए कृष्ण ने द्रोपदी का भी सहारा लिया। वही केन्द्र बिन्दु बनी पाँच पाण्डवों की तेजस्विता को एक सूत्र में बांधकर रखने हेतु अन्यथा महभारत का अंत कुछ और ही होता। यही उस वक्त की पुकार थी। जरूरी नहीं है कि जो युक्ति द्वापर में कारगर साबित हुई वही कलयुग में भी कारगर साबित होगी क्योंकि युक्ति के साथ युक्तिनिर्माता प्रभु श्री कृष्ण भी मौजूद थे। कृष्ण ही गणेश हैं। कृष्ण ही शिव हैं गणेश और शिव अभेद हैं। गुरु को गणेश भी बनना पड़ता है, शिव भी और कृष्ण भी।

           जिन्हें अष्टक वर्ग ज्योतिष सीखना है अध्यात्म से जुड़ना है साधनाओं के विषय में जानकारी चाहिए साधना करना है, कौन सी साधना करें ? गुरु कैसे प्राप्त हो ? गुरु से अपनी चेतना कैसे जुड़ा जाए?

सिन्धु घाटी की लिपि : क्यों अंग्रेज़ और कम्युनिस्ट इतिहासकार नहीं चाहते थे कि इसे पढ़ाया जाए ।।


▪️इतिहासकार अर्नाल्ड जे टायनबी ने कहा था - विश्व के इतिहास में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़ छाड़ की गयी है, तो वह भारत का इतिहास ही है।
भारतीय इतिहास का प्रारम्भ सिन्धु घाटी की सभ्यता से होता है, इसे हड़प्पा कालीन सभ्यता या सारस्वत सभ्यता भी कहा जाता है। बताया जाता है, कि वर्तमान सिन्धु नदी के तटों पर 3500 BC (ईसा पूर्व) में एक विशाल नगरीय सभ्यता विद्यमान थी। मोहनजोदारो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल आदि इस सभ्यता के नगर थे।

पहले इस सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, राजस्थान और गुजरात आदि बताया जाता था, किन्तु अब इसका विस्तार समूचा भारत, तमिलनाडु से वैशाली बिहार तक, आज का पूरा पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान तथा (पारस) ईरान का हिस्सा तक पाया जाता है। अब इसका समय 7000 BC से भी प्राचीन पाया गया है।

इस प्राचीन सभ्यता की सीलों, टेबलेट्स और बर्तनों पर जो लिखावट पाई जाती है उसे सिन्धु घाटी की लिपि कहा जाता है। इतिहासकारों का दावा है, कि यह लिपि अभी तक अज्ञात है, और पढ़ी नहीं जा सकी। 
जबकि सिन्धु घाटी की लिपि से समकक्ष और तथाकथित प्राचीन सभी लिपियां जैसे इजिप्ट, चीनी, फोनेशियाई, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई आदि सब पढ़ ली गयी हैं।

आजकल कम्प्यूटरों की सहायता से अक्षरों की आवृत्ति का विश्लेषण कर मार्कोव विधि से प्राचीन भाषा को पढना सरल हो गया है।

सिन्धु घाटी की लिपि को जानबूझ कर नहीं पढ़ा गया और न ही इसको पढने के सार्थक प्रयास किये गए।
भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Historical Research) जिस पर पहले अंग्रेजो और फिर कम्युनिस्टों का कब्ज़ा रहा, ने सिन्धु घाटी की लिपि को पढने की कोई भी विशेष योजना नहीं चलायी।

आखिर ऐसा क्या था सिन्धु घाटी की लिपि में? अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकार क्यों नहीं चाहते थे, कि सिन्धु घाटी की लिपि को पढ़ा जाए?

अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों की नज़रों में सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्नलिखित खतरे थे -

1. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने के बाद उसकी प्राचीनता और अधिक पुरानी सिद्ध हो जायेगी। 
इजिप्ट, चीनी, रोमन, ग्रीक, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई से भी पुरानी. जिससे पता चलेगा, कि यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है। 
भारत का महत्व बढेगा जो अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों को बर्दाश्त नहीं होगा।
2. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने से अगर वह वैदिक सभ्यता साबित हो गयी तो अंग्रेजो और कम्युनिस्टों द्वारा फैलाये गए आर्य- द्रविड़ युद्ध वाले प्रोपगंडा के ध्वस्त हो जाने का डर है।
3. अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों द्वारा दुष्प्रचारित ‘आर्य बाहर से आई हुई आक्रमणकारी जाति है और इसने यहाँ के मूल निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी के लोगों को मार डाला व भगा दिया और उनकी महान सभ्यता नष्ट कर दी। वे लोग ही जंगलों में छुप गए, दक्षिण भारतीय (द्रविड़) बन गए, शूद्र व आदिवासी बन गए’, आदि आदि गलत साबित हो जायेगा।
कुछ फर्जी इतिहासकार सिन्धु घाटी की लिपि को सुमेरियन भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे तो कुछ इजिप्शियन भाषा से, कुछ चीनी भाषा से, कुछ इनको मुंडा आदिवासियों की भाषा, और तो और, कुछ इनको ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे। ये सारे प्रयास असफल साबित हुए।

सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्लिखित समस्याए बताई जाती है - 
सभी लिपियों में अक्षर कम होते है, जैसे अंग्रेजी में 26, देवनागरी में 52 आदि, मगर सिन्धु घाटी की लिपि में लगभग 400 अक्षर चिन्ह हैं। 
सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में यह कठिनाई आती है, कि इसका काल 7000 BC से 1500 BC तक का है, जिसमे लिपि में अनेक परिवर्तन हुए साथ ही लिपि में स्टाइलिश वेरिएशन बहुत पाया जाता है। 
लेखक ने लोथल और कालीबंगा में सिन्धु घाटी व हड़प्पा कालीन अनेक पुरातात्विक साक्षों का अवलोकन किया।
भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक लिपि है जिसे ब्राह्मी लिपि कहा जाता है। 
इस लिपि से ही भारत की अन्य भाषाओँ की लिपियां बनी। यह लिपि वैदिक काल से गुप्त काल तक उत्तर पश्चिमी भारत में उपयोग की जाती थी। 
संस्कृत, पाली, प्राकृत के अनेक ग्रन्थ ब्राह्मी लिपि में प्राप्त होते है।
सम्राट अशोक ने अपने धम्म का प्रचार प्रसार करने के लिए ब्राह्मी लिपि को अपनाया। 
सम्राट अशोक के स्तम्भ और शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए और सम्पूर्ण भारत में लगाये गए।
सिन्धु घाटी की लिपि और ब्राह्मी लिपि में अनेक आश्चर्यजनक समानताएं है। 
साथ ही ब्राह्मी और तमिल लिपि का भी पारस्परिक सम्बन्ध है। 
इस आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि को पढने का सार्थक प्रयास सुभाष काक और इरावाथम महादेवन ने किया।
सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 400 अक्षर के बारे में यह माना जाता है, कि इनमे कुछ वर्णमाला (स्वर व्यंजन मात्रा संख्या), कुछ यौगिक अक्षर और शेष चित्रलिपि हैं। 
अर्थात यह भाषा अक्षर और चित्रलिपि का संकलन समूह है। विश्व में कोई भी भाषा इतनी सशक्त और समृद्ध नहीं जितनी सिन्धु घाटी की भाषा।
बाएं लिखी जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मी लिपि भी दाएं से बाएं लिखी जाती है। 
सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 3000 टेक्स्ट प्राप्त हैं।
इनमे वैसे तो 400 अक्षर चिन्ह हैं, लेकिन 39 अक्षरों का प्रयोग 80 प्रतिशत बार हुआ है। 
और ब्राह्मी लिपि में 45 अक्षर है। अब हम इन 39 अक्षरों को ब्राह्मी लिपि के 45 अक्षरों के साथ समानता के आधार पर मैपिंग कर सकते हैं और उनकी ध्वनि पता लगा सकते हैं।

ब्राह्मी लिपि के आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि पढने पर सभी संस्कृत के शब्द आते है जैसे - श्री, अगस्त्य, मृग, हस्ती, वरुण, क्षमा, कामदेव, महादेव, कामधेनु, मूषिका, पग, पंच मशक, पितृ, अग्नि, सिन्धु, पुरम, गृह, यज्ञ, इंद्र, मित्र आदि।
निष्कर्ष यह है कि -
1. सिन्धु घाटी की लिपि ब्राह्मी लिपि की पूर्वज लिपि है।
2. सिन्धु घाटी की लिपि को ब्राह्मी के आधार पर पढ़ा जा सकता है।
3. उस काल में संस्कृत भाषा थी जिसे सिन्धु घाटी की लिपि में लिखा गया था।
4. सिन्धु घाटी के लोग वैदिक धर्म और संस्कृति मानते थे।
5. वैदिक धर्म अत्यंत प्राचीन है।
हिन्दू सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन व मूल सभ्यता है, हिन्दुओं का मूल निवास सप्त सैन्धव प्रदेश (सिन्धु सरस्वती क्षेत्र) था जिसका विस्तार ईरान से सम्पूर्ण भारत देश था।वैदिक धर्म को मानने वाले कहीं बाहर से नहीं आये थे और न ही वे आक्रमणकारी थे। 
आर्य - द्रविड़ जैसी कोई भी दो पृथक जातियाँ नहीं थीं जिनमे परस्पर युद्ध हुआ हो।

आत्मा की सात अवस्थाएं ।।

वेद अनुसार जन्म और मृत्यु के बीच और फिर मृत्यु से जन्म के बीच तीन अवस्थाएं ऐसी हैं जो अनवरत और निरंतर चलती रहती हैं। वह तीन अवस्थाएं हैं : जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। उक्त तीन अवस्थाओं से बाहर निकलने की विधि का नाम ही है हिन्दू धर्म।
यह क्रम इस प्रकार चलता है- जागा हुआ व्यक्ति जब पलंग पर सोता है तो पहले स्वप्निक अवस्था में चला जाता है फिर जब नींद गहरी होती है तो वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। इसी के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जागृत हो जाता है। व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रहता है। कुछ लोग जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं अर्थात वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं।
जो व्यक्ति उक्त तीनों अवस्था से बाहर निकलकर खुद का अस्तित्व कायम कर लेता है वही मोक्ष के, मुक्ति के और ईश्वर के सच्चे मार्ग पर है। उक्त तीन अवस्था से क्रमश: बाहर निकला जाता है। इसके लिए निरंतर ध्यान करते हुए साक्षी भाव में रहना पड़ता है तब हासिल होती है : तुरीय अवस्था, तुरीयातीत अवस्था, भगवत चेतना और ‍ब्राह्मी चेतना।

1. जागृत अवस्था ----  अभी यह आलेख पढ़ रहे हो तो जागृत अवस्था में ही पढ़ रहे हो? ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है लेकिन अधिकतर लोग ठीक-ठीक वर्तमान में भी नहीं रहते। जागते हुए कल्पना और विचार में खोए रहना ही तो स्वप्न की अवस्था है।
जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो वर्तमान में नहीं रहकर कल्पना-लोक में चले जाते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं एक प्रकार का स्वप्न-लोक होता है। जब हम अतीत की किसी याद में खो जाते हैं, तो हम स्मृति-लोक में चले जाते हैं। यह भी एक-दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक ही है।
अधिकतर लोग स्वप्‍न लोक में जीकर ही मर जाते हैं, वे वर्तमान में अपने जीवन का सिर्फ 10 प्रतिशत ही जी पाते हैं, तो ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।

2. स्वप्न अवस्था ----  जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं। निद्रा में डूब जाना अर्थात सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागा और थोड़ा सोया रहता है। इसमें अस्पष्ट अनुभवों और भावों का घालमेल रहता है इसलिए व्यक्ति कब कैसे स्वप्न देख ले कोई भरोसा नहीं।
यह ऐसा है कि भीड़भरे इलाके से सारी ट्रेफिक लाइटें और पुलिस को हटाकर स्ट्रीट लाइटें बंद कर देना। ऐसे में व्यक्ति को झाड़ का ‍हिलना भी भूत के होने को दर्शाएगा या रस्सी का हिलना सांप के पीछे लगने जैसा होगा। हमारे स्वप्न दिनभर के हमारे जीवन, विचार, भाव और सुख-दुख पर आधारित होते हैं। यह किसी भी तरह का संसार रच सकते हैं।

3. सुषुप्ति अवस्था ----  गहरी नींद को सु‍षुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित चेतना (हम स्वयं) विश्राम करते हैं। पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा। पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु।
सुषुप्ति की अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। इस अवस्था में किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और गहरी अवस्था में चले जाते हैं।

4. तुरीय अवस्था ----  चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। यह अवस्था व्यक्ति के प्रयासों से प्राप्त होती है। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है, न ही कोई रूप। यह निर्गुण है, निराकार है। इसमें न जागृति है, न स्वप्न और न सुषुप्ति। यह निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे पूर्ण जागृति है।
यह उस साफ और शांत जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है। तुरीय का अर्थ होता है चौथी। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसे संख्या से संबोधित करते हैं। यह पारदर्शी कांच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं हो रहा।
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएं तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। यहीं से शुरू होती है आध्यात्मिक यात्रा, क्योंकि तुरीय के इस पार संसार के दुःख तो उस पार मोक्ष का आनंद होता है। बस, छलांग लगाने की जरूरत है।

5. तुरीयातीत अवस्था ---- तुरीय अवस्था के पार पहला कदम तुरीयातीत अनुभव का। यह अवस्था तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है।

इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए जीवन रहते जीवन-मुक्त। इस अवस्था में व्यक्ति को स्थूल शरीर या इंद्रियों की आवश्यकता नहीं रहती। वह इनके बगैर भी सबकुछ कर सकता है। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।

6. भगवत चेतना ---- तुरीयातीत की अवस्था में रहते-रहते भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है।
इस अवस्था में व्यक्ति से कुछ भी छुपा नहीं रहता और वह संपूर्ण जगत को भगवान की सत्ता मानने लगता है। यह एक महान सि‍द्ध योगी की अवस्था है ।

7. ब्राह्मी चेतना --- भगवत चेतना के बाद व्यक्ति में ब्राह्मी चेतना का उदय होता है अर्थात कमल का पूर्ण रूप से खिल जाना। भक्त और भगवान का भेद मिट जाना। अहम् ब्रह्मास्मि और तत्वमसि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं और यह संपूर्ण जगत ही मुझे ब्रह्म नजर आता है।
इस अवस्था को ही योग में समाधि की अवस्था कहा गया है। जीते-जी मोक्ष।
                                                 साभार.......

गुरुभक्तियोग कथा अमृत ।।

गुरु जब कोई भी चीज करने की आज्ञा करें तब शिष्य को हृदयपूर्वक उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। गुरु के प्रति इस प्रकार की आज्ञाकारिता आवश्यक है। यह निष्काम कर्म की भावना है। इस प्रकार का कर्म किसी भी फल की आशा के लिए नहीं किया जाता अपितु गुरु की पवित्र आज्ञा के लिए ही किया जाता है। तभी मन की अशुद्धियाँ, जैसे कि काम, क्रोध और लोभ नष्ट होते हैं। जो शिष्य चार प्रकार के साधनों से सज्जग है वही ईश्वर से अभिन्न ब्रह्मनिष्ठ गुरु के समक्ष बैठने के एवं उनसे महावाक्य सुनने के लिए लायक है।

चार प्रकार के साधन यानी साधनचतुष्टय इस प्रकार हैं-
विवेक -- आत्मा-अनात्मा, नित्य-अनित्य, कर्म-अकर्म आदि का भेद समझने की शक्ति। 
दूसरा वैराग्य -- इन्द्रियजन्य सुख और सांसारिक विषयों से विरक्ति। 
तीसरा षट्संपत्ति -- शम यानी वासनाओं एवं कामनाओं से मुक्त निर्मल मन की शान्ति , दम यानी इन्द्रियों पर काबू , उपरति यानी विषय-विकारी जीवन से उपरामता , तितिक्षा माने हरेक स्थिति में स्थिरता एवं धैर्य के साथ सहनशक्ति, श्रद्धा और समाधान बाह्य आकर्षणों से अलिप्त मन की एकाग्र स्थिति।
चौथा साधन है मुमुक्षत्व -- मोक्ष अथवा आत्म-साक्षात्कार के लिए तीव्र आकांक्षा। आपको मार्ग दर्शन देने के लिए आत्मसाक्षत्कारी गुरु होने ही चाहिएं I 

हमने कल पढ़ा कि सदगुरु जनार्दन स्वामी ने एका को पुरस्कार स्वरूप अपना एकांत स्थान वरसा डोंगर ले जाने का प्रस्ताव रखा I तब एका को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ I जबसे एका जनार्दन स्वामी की शरण में आया था तब से सैकड़ों बार उसके होठों पर यही आया था कि एक बार गुरुदेव के साथ एकांत स्थान में जायें पर वह आशा आज प्रत्यक्ष रूप से फलीभूत हुई थी I 

जब एका ने गुरुदेव का वह मनोरम स्थान देखा तब वह हर्ष से प्रफुल्लित हो गया I वन्यजीवों के प्रति गुरुदेव का प्रेम देखकर उसकी आंखें आल्हादित हो गयीं I एका स्तब्ध हुआ सब देख रहा था I सद्गुरु का ऐसा आकर्षक आभामंडल जो विवेकहीन हिंसक जीवों के ह्रदयों तक को अपनी ओर खींच लेता है I यह दृश्य एका के लिए अनिर्वचनीय था I जनार्दन स्वामी के नेत्र मूंदने लगे वे आत्मलीन होने वाले हैं उसने दौड़ कर उनके चरणों को थाम लिया और भावावेश में एका बोला गुरुदेव स्वामी !  
मला घडेल नात्यांचे दर्शन मूळ स्वरूपात I 
मुझे यहां सच में दत्तात्रेय स्वामी का दर्शन प्राप्त होगा न बताइये न गुरुवर वो आएँगे न यहां ?

अवश्य ! तेरी भावनाओं का प्रबल प्रवाह उन्हें यहां आने का आमंत्रण देगा ही देगा वे स्वयं को रोक नहीं पाएंगे वो अवश्य आएंगे I परंतु परंतु क्या गुरुदेव एका ने उत्सुकता से पूछा ? वे यहां विचित्र रूप में आएंगे यदि तूने भक्ति की आंख से पहचान पाया तब ही वे अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर तुझे दर्शन देंगे I जनार्दन स्वामी ने रहस्य उद्घाटन कियाI

इतना कहकर जनार्दन स्वामी ध्यानलीन हो गए I एका वहीं पर श्री चरणों की छाया में बैठ गया I अपने सद्गुरु की चिदानंद मूरत को एकटक निहारने लगा I महाभाग्य होते हैं वो क्षण जब सकल साधनाओं के साध्य आंखों के सामने होते हैं I निसंदेह गुरुदर्शन खुली आंखों की महा साधना है I एका इसी दर्शन साधना में लीन था I 

तभी एका एक जनार्दन स्वामी की अंतर चेतना से नाम स्मरण प्रस्फुटित हुआ गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त, श्री दत्त, श्री दत्त, श्री दत्त I

गुरु सख्या तुझ्या विना जाऊ पाहे ज्यासीं माझा प्राण काहो कठीण केले म्हणून पाहिले नेत्र उघडून I

हे गुरु राया, आत्मसखा, तुम बिन मेरे प्राण फड़फड़ाने लगे हैं I मैं जानता हूं तुम यहीं कहीं मेरे आस पास आ चुके हो I कठोर ह्रदय न रखो ममता के सरोवर में मेरे सामने आ जाओ और अपनी एक दृष्टि डालकर मुझे निहाल करो प्रभु I 

आतां यावे लवकरी । भेट द्यावी बा सत्वरी।
शीघ्र आओ शीघ्र आओ मुझे भेंट का सुख दो भगवन I उसी समय कदमों की आहट सुनाई दी I दो कदम चिमटे की ताल से ताल मिला कर आगे बढ़ रहे थे I सहसा हवाओं में सुगंध घुल गयी सामने में एक मस्त फ़क़ीर मलंग आते दिखाई दिए I उनका सर्वांग चमड़े से ढका हुआ था, नेत्र लाल थे, सफेद दाढ़ी, मूंछ लहरा रही थी I एक हाथ में चिमटा था दूसरे में कटोरा था पाँव में चप्पल नहीं थी साथ में उनके एक कुतिया चल रही थी I एकदम फक्क्ड़ फकीर स्वरुप तनिक भयावह भी उन्हें देख एका थोड़ा सिकुड़ सा गया I 

परंतु उधर जनार्दन स्वामी उस फकीर के कदमों में दंडवत लेट गए I उन्होंने चिमटा बजाया और आल्हाद प्रकट किया फिर दोनों हाथों से जनार्दन स्वामी को उठाया और अपने ह्रदय से लगा लिया I एका मंत्रमुग्ध हुआ यह विचित्र दृश्य देखकर I ज्यों ज्यों चिमटा बजता त्यों त्यों उसके अंतःकरण में नाद की भांति गूँज जाता I पता नहीं कैसे पर एक प्रकार का मानस सुमिरन उसके भीतर सतत चल रहा था I गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त I 

एका ने देखा बड़ी गूढ़ विसिमित मुस्कान मलंग के मुख पर फैली थी I मुस्कुराकर चिमटा खड़खड़ाकर वे मलंग कीर्तन करने लगे I 
खाने से भूख बढ़ी, पीने से प्यास बढ़ी, दरसन से आस बढ़ी I 
इसलिए सोते-सोते जागो अपने आप से भागो, आओ साईं छुटकारे की खीर मेरे संग खाओ I

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