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सिन्धु घाटी की लिपि : क्यों अंग्रेज़ और कम्युनिस्ट इतिहासकार नहीं चाहते थे कि इसे पढ़ाया जाए ।।


▪️इतिहासकार अर्नाल्ड जे टायनबी ने कहा था - विश्व के इतिहास में अगर किसी देश के इतिहास के साथ सर्वाधिक छेड़ छाड़ की गयी है, तो वह भारत का इतिहास ही है।
भारतीय इतिहास का प्रारम्भ सिन्धु घाटी की सभ्यता से होता है, इसे हड़प्पा कालीन सभ्यता या सारस्वत सभ्यता भी कहा जाता है। बताया जाता है, कि वर्तमान सिन्धु नदी के तटों पर 3500 BC (ईसा पूर्व) में एक विशाल नगरीय सभ्यता विद्यमान थी। मोहनजोदारो, हड़प्पा, कालीबंगा, लोथल आदि इस सभ्यता के नगर थे।

पहले इस सभ्यता का विस्तार सिंध, पंजाब, राजस्थान और गुजरात आदि बताया जाता था, किन्तु अब इसका विस्तार समूचा भारत, तमिलनाडु से वैशाली बिहार तक, आज का पूरा पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान तथा (पारस) ईरान का हिस्सा तक पाया जाता है। अब इसका समय 7000 BC से भी प्राचीन पाया गया है।

इस प्राचीन सभ्यता की सीलों, टेबलेट्स और बर्तनों पर जो लिखावट पाई जाती है उसे सिन्धु घाटी की लिपि कहा जाता है। इतिहासकारों का दावा है, कि यह लिपि अभी तक अज्ञात है, और पढ़ी नहीं जा सकी। 
जबकि सिन्धु घाटी की लिपि से समकक्ष और तथाकथित प्राचीन सभी लिपियां जैसे इजिप्ट, चीनी, फोनेशियाई, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई आदि सब पढ़ ली गयी हैं।

आजकल कम्प्यूटरों की सहायता से अक्षरों की आवृत्ति का विश्लेषण कर मार्कोव विधि से प्राचीन भाषा को पढना सरल हो गया है।

सिन्धु घाटी की लिपि को जानबूझ कर नहीं पढ़ा गया और न ही इसको पढने के सार्थक प्रयास किये गए।
भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद (Indian Council of Historical Research) जिस पर पहले अंग्रेजो और फिर कम्युनिस्टों का कब्ज़ा रहा, ने सिन्धु घाटी की लिपि को पढने की कोई भी विशेष योजना नहीं चलायी।

आखिर ऐसा क्या था सिन्धु घाटी की लिपि में? अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकार क्यों नहीं चाहते थे, कि सिन्धु घाटी की लिपि को पढ़ा जाए?

अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों की नज़रों में सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्नलिखित खतरे थे -

1. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने के बाद उसकी प्राचीनता और अधिक पुरानी सिद्ध हो जायेगी। 
इजिप्ट, चीनी, रोमन, ग्रीक, आर्मेनिक, सुमेरियाई, मेसोपोटामियाई से भी पुरानी. जिससे पता चलेगा, कि यह विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता है। 
भारत का महत्व बढेगा जो अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों को बर्दाश्त नहीं होगा।
2. सिन्धु घाटी की लिपि को पढने से अगर वह वैदिक सभ्यता साबित हो गयी तो अंग्रेजो और कम्युनिस्टों द्वारा फैलाये गए आर्य- द्रविड़ युद्ध वाले प्रोपगंडा के ध्वस्त हो जाने का डर है।
3. अंग्रेज और कम्युनिस्ट इतिहासकारों द्वारा दुष्प्रचारित ‘आर्य बाहर से आई हुई आक्रमणकारी जाति है और इसने यहाँ के मूल निवासियों अर्थात सिन्धु घाटी के लोगों को मार डाला व भगा दिया और उनकी महान सभ्यता नष्ट कर दी। वे लोग ही जंगलों में छुप गए, दक्षिण भारतीय (द्रविड़) बन गए, शूद्र व आदिवासी बन गए’, आदि आदि गलत साबित हो जायेगा।
कुछ फर्जी इतिहासकार सिन्धु घाटी की लिपि को सुमेरियन भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे तो कुछ इजिप्शियन भाषा से, कुछ चीनी भाषा से, कुछ इनको मुंडा आदिवासियों की भाषा, और तो और, कुछ इनको ईस्टर द्वीप के आदिवासियों की भाषा से जोड़ कर पढने का प्रयास करते रहे। ये सारे प्रयास असफल साबित हुए।

सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में निम्लिखित समस्याए बताई जाती है - 
सभी लिपियों में अक्षर कम होते है, जैसे अंग्रेजी में 26, देवनागरी में 52 आदि, मगर सिन्धु घाटी की लिपि में लगभग 400 अक्षर चिन्ह हैं। 
सिन्धु घाटी की लिपि को पढने में यह कठिनाई आती है, कि इसका काल 7000 BC से 1500 BC तक का है, जिसमे लिपि में अनेक परिवर्तन हुए साथ ही लिपि में स्टाइलिश वेरिएशन बहुत पाया जाता है। 
लेखक ने लोथल और कालीबंगा में सिन्धु घाटी व हड़प्पा कालीन अनेक पुरातात्विक साक्षों का अवलोकन किया।
भारत की प्राचीनतम लिपियों में से एक लिपि है जिसे ब्राह्मी लिपि कहा जाता है। 
इस लिपि से ही भारत की अन्य भाषाओँ की लिपियां बनी। यह लिपि वैदिक काल से गुप्त काल तक उत्तर पश्चिमी भारत में उपयोग की जाती थी। 
संस्कृत, पाली, प्राकृत के अनेक ग्रन्थ ब्राह्मी लिपि में प्राप्त होते है।
सम्राट अशोक ने अपने धम्म का प्रचार प्रसार करने के लिए ब्राह्मी लिपि को अपनाया। 
सम्राट अशोक के स्तम्भ और शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिखे गए और सम्पूर्ण भारत में लगाये गए।
सिन्धु घाटी की लिपि और ब्राह्मी लिपि में अनेक आश्चर्यजनक समानताएं है। 
साथ ही ब्राह्मी और तमिल लिपि का भी पारस्परिक सम्बन्ध है। 
इस आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि को पढने का सार्थक प्रयास सुभाष काक और इरावाथम महादेवन ने किया।
सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 400 अक्षर के बारे में यह माना जाता है, कि इनमे कुछ वर्णमाला (स्वर व्यंजन मात्रा संख्या), कुछ यौगिक अक्षर और शेष चित्रलिपि हैं। 
अर्थात यह भाषा अक्षर और चित्रलिपि का संकलन समूह है। विश्व में कोई भी भाषा इतनी सशक्त और समृद्ध नहीं जितनी सिन्धु घाटी की भाषा।
बाएं लिखी जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मी लिपि भी दाएं से बाएं लिखी जाती है। 
सिन्धु घाटी की लिपि के लगभग 3000 टेक्स्ट प्राप्त हैं।
इनमे वैसे तो 400 अक्षर चिन्ह हैं, लेकिन 39 अक्षरों का प्रयोग 80 प्रतिशत बार हुआ है। 
और ब्राह्मी लिपि में 45 अक्षर है। अब हम इन 39 अक्षरों को ब्राह्मी लिपि के 45 अक्षरों के साथ समानता के आधार पर मैपिंग कर सकते हैं और उनकी ध्वनि पता लगा सकते हैं।

ब्राह्मी लिपि के आधार पर सिन्धु घाटी की लिपि पढने पर सभी संस्कृत के शब्द आते है जैसे - श्री, अगस्त्य, मृग, हस्ती, वरुण, क्षमा, कामदेव, महादेव, कामधेनु, मूषिका, पग, पंच मशक, पितृ, अग्नि, सिन्धु, पुरम, गृह, यज्ञ, इंद्र, मित्र आदि।
निष्कर्ष यह है कि -
1. सिन्धु घाटी की लिपि ब्राह्मी लिपि की पूर्वज लिपि है।
2. सिन्धु घाटी की लिपि को ब्राह्मी के आधार पर पढ़ा जा सकता है।
3. उस काल में संस्कृत भाषा थी जिसे सिन्धु घाटी की लिपि में लिखा गया था।
4. सिन्धु घाटी के लोग वैदिक धर्म और संस्कृति मानते थे।
5. वैदिक धर्म अत्यंत प्राचीन है।
हिन्दू सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन व मूल सभ्यता है, हिन्दुओं का मूल निवास सप्त सैन्धव प्रदेश (सिन्धु सरस्वती क्षेत्र) था जिसका विस्तार ईरान से सम्पूर्ण भारत देश था।वैदिक धर्म को मानने वाले कहीं बाहर से नहीं आये थे और न ही वे आक्रमणकारी थे। 
आर्य - द्रविड़ जैसी कोई भी दो पृथक जातियाँ नहीं थीं जिनमे परस्पर युद्ध हुआ हो।

आत्मा की सात अवस्थाएं ।।

वेद अनुसार जन्म और मृत्यु के बीच और फिर मृत्यु से जन्म के बीच तीन अवस्थाएं ऐसी हैं जो अनवरत और निरंतर चलती रहती हैं। वह तीन अवस्थाएं हैं : जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। उक्त तीन अवस्थाओं से बाहर निकलने की विधि का नाम ही है हिन्दू धर्म।
यह क्रम इस प्रकार चलता है- जागा हुआ व्यक्ति जब पलंग पर सोता है तो पहले स्वप्निक अवस्था में चला जाता है फिर जब नींद गहरी होती है तो वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। इसी के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जागृत हो जाता है। व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रहता है। कुछ लोग जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं अर्थात वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं।
जो व्यक्ति उक्त तीनों अवस्था से बाहर निकलकर खुद का अस्तित्व कायम कर लेता है वही मोक्ष के, मुक्ति के और ईश्वर के सच्चे मार्ग पर है। उक्त तीन अवस्था से क्रमश: बाहर निकला जाता है। इसके लिए निरंतर ध्यान करते हुए साक्षी भाव में रहना पड़ता है तब हासिल होती है : तुरीय अवस्था, तुरीयातीत अवस्था, भगवत चेतना और ‍ब्राह्मी चेतना।

1. जागृत अवस्था ----  अभी यह आलेख पढ़ रहे हो तो जागृत अवस्था में ही पढ़ रहे हो? ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है लेकिन अधिकतर लोग ठीक-ठीक वर्तमान में भी नहीं रहते। जागते हुए कल्पना और विचार में खोए रहना ही तो स्वप्न की अवस्था है।
जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो वर्तमान में नहीं रहकर कल्पना-लोक में चले जाते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं एक प्रकार का स्वप्न-लोक होता है। जब हम अतीत की किसी याद में खो जाते हैं, तो हम स्मृति-लोक में चले जाते हैं। यह भी एक-दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक ही है।
अधिकतर लोग स्वप्‍न लोक में जीकर ही मर जाते हैं, वे वर्तमान में अपने जीवन का सिर्फ 10 प्रतिशत ही जी पाते हैं, तो ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।

2. स्वप्न अवस्था ----  जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं। निद्रा में डूब जाना अर्थात सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागा और थोड़ा सोया रहता है। इसमें अस्पष्ट अनुभवों और भावों का घालमेल रहता है इसलिए व्यक्ति कब कैसे स्वप्न देख ले कोई भरोसा नहीं।
यह ऐसा है कि भीड़भरे इलाके से सारी ट्रेफिक लाइटें और पुलिस को हटाकर स्ट्रीट लाइटें बंद कर देना। ऐसे में व्यक्ति को झाड़ का ‍हिलना भी भूत के होने को दर्शाएगा या रस्सी का हिलना सांप के पीछे लगने जैसा होगा। हमारे स्वप्न दिनभर के हमारे जीवन, विचार, भाव और सुख-दुख पर आधारित होते हैं। यह किसी भी तरह का संसार रच सकते हैं।

3. सुषुप्ति अवस्था ----  गहरी नींद को सु‍षुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित चेतना (हम स्वयं) विश्राम करते हैं। पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा। पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु।
सुषुप्ति की अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। इस अवस्था में किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और गहरी अवस्था में चले जाते हैं।

4. तुरीय अवस्था ----  चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। यह अवस्था व्यक्ति के प्रयासों से प्राप्त होती है। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है, न ही कोई रूप। यह निर्गुण है, निराकार है। इसमें न जागृति है, न स्वप्न और न सुषुप्ति। यह निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे पूर्ण जागृति है।
यह उस साफ और शांत जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है। तुरीय का अर्थ होता है चौथी। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसे संख्या से संबोधित करते हैं। यह पारदर्शी कांच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं हो रहा।
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएं तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। यहीं से शुरू होती है आध्यात्मिक यात्रा, क्योंकि तुरीय के इस पार संसार के दुःख तो उस पार मोक्ष का आनंद होता है। बस, छलांग लगाने की जरूरत है।

5. तुरीयातीत अवस्था ---- तुरीय अवस्था के पार पहला कदम तुरीयातीत अनुभव का। यह अवस्था तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है।

इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए जीवन रहते जीवन-मुक्त। इस अवस्था में व्यक्ति को स्थूल शरीर या इंद्रियों की आवश्यकता नहीं रहती। वह इनके बगैर भी सबकुछ कर सकता है। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।

6. भगवत चेतना ---- तुरीयातीत की अवस्था में रहते-रहते भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है।
इस अवस्था में व्यक्ति से कुछ भी छुपा नहीं रहता और वह संपूर्ण जगत को भगवान की सत्ता मानने लगता है। यह एक महान सि‍द्ध योगी की अवस्था है ।

7. ब्राह्मी चेतना --- भगवत चेतना के बाद व्यक्ति में ब्राह्मी चेतना का उदय होता है अर्थात कमल का पूर्ण रूप से खिल जाना। भक्त और भगवान का भेद मिट जाना। अहम् ब्रह्मास्मि और तत्वमसि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं और यह संपूर्ण जगत ही मुझे ब्रह्म नजर आता है।
इस अवस्था को ही योग में समाधि की अवस्था कहा गया है। जीते-जी मोक्ष।
                                                 साभार.......

गुरुभक्तियोग कथा अमृत ।।

गुरु जब कोई भी चीज करने की आज्ञा करें तब शिष्य को हृदयपूर्वक उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। गुरु के प्रति इस प्रकार की आज्ञाकारिता आवश्यक है। यह निष्काम कर्म की भावना है। इस प्रकार का कर्म किसी भी फल की आशा के लिए नहीं किया जाता अपितु गुरु की पवित्र आज्ञा के लिए ही किया जाता है। तभी मन की अशुद्धियाँ, जैसे कि काम, क्रोध और लोभ नष्ट होते हैं। जो शिष्य चार प्रकार के साधनों से सज्जग है वही ईश्वर से अभिन्न ब्रह्मनिष्ठ गुरु के समक्ष बैठने के एवं उनसे महावाक्य सुनने के लिए लायक है।

चार प्रकार के साधन यानी साधनचतुष्टय इस प्रकार हैं-
विवेक -- आत्मा-अनात्मा, नित्य-अनित्य, कर्म-अकर्म आदि का भेद समझने की शक्ति। 
दूसरा वैराग्य -- इन्द्रियजन्य सुख और सांसारिक विषयों से विरक्ति। 
तीसरा षट्संपत्ति -- शम यानी वासनाओं एवं कामनाओं से मुक्त निर्मल मन की शान्ति , दम यानी इन्द्रियों पर काबू , उपरति यानी विषय-विकारी जीवन से उपरामता , तितिक्षा माने हरेक स्थिति में स्थिरता एवं धैर्य के साथ सहनशक्ति, श्रद्धा और समाधान बाह्य आकर्षणों से अलिप्त मन की एकाग्र स्थिति।
चौथा साधन है मुमुक्षत्व -- मोक्ष अथवा आत्म-साक्षात्कार के लिए तीव्र आकांक्षा। आपको मार्ग दर्शन देने के लिए आत्मसाक्षत्कारी गुरु होने ही चाहिएं I 

हमने कल पढ़ा कि सदगुरु जनार्दन स्वामी ने एका को पुरस्कार स्वरूप अपना एकांत स्थान वरसा डोंगर ले जाने का प्रस्ताव रखा I तब एका को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ I जबसे एका जनार्दन स्वामी की शरण में आया था तब से सैकड़ों बार उसके होठों पर यही आया था कि एक बार गुरुदेव के साथ एकांत स्थान में जायें पर वह आशा आज प्रत्यक्ष रूप से फलीभूत हुई थी I 

जब एका ने गुरुदेव का वह मनोरम स्थान देखा तब वह हर्ष से प्रफुल्लित हो गया I वन्यजीवों के प्रति गुरुदेव का प्रेम देखकर उसकी आंखें आल्हादित हो गयीं I एका स्तब्ध हुआ सब देख रहा था I सद्गुरु का ऐसा आकर्षक आभामंडल जो विवेकहीन हिंसक जीवों के ह्रदयों तक को अपनी ओर खींच लेता है I यह दृश्य एका के लिए अनिर्वचनीय था I जनार्दन स्वामी के नेत्र मूंदने लगे वे आत्मलीन होने वाले हैं उसने दौड़ कर उनके चरणों को थाम लिया और भावावेश में एका बोला गुरुदेव स्वामी !  
मला घडेल नात्यांचे दर्शन मूळ स्वरूपात I 
मुझे यहां सच में दत्तात्रेय स्वामी का दर्शन प्राप्त होगा न बताइये न गुरुवर वो आएँगे न यहां ?

अवश्य ! तेरी भावनाओं का प्रबल प्रवाह उन्हें यहां आने का आमंत्रण देगा ही देगा वे स्वयं को रोक नहीं पाएंगे वो अवश्य आएंगे I परंतु परंतु क्या गुरुदेव एका ने उत्सुकता से पूछा ? वे यहां विचित्र रूप में आएंगे यदि तूने भक्ति की आंख से पहचान पाया तब ही वे अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर तुझे दर्शन देंगे I जनार्दन स्वामी ने रहस्य उद्घाटन कियाI

इतना कहकर जनार्दन स्वामी ध्यानलीन हो गए I एका वहीं पर श्री चरणों की छाया में बैठ गया I अपने सद्गुरु की चिदानंद मूरत को एकटक निहारने लगा I महाभाग्य होते हैं वो क्षण जब सकल साधनाओं के साध्य आंखों के सामने होते हैं I निसंदेह गुरुदर्शन खुली आंखों की महा साधना है I एका इसी दर्शन साधना में लीन था I 

तभी एका एक जनार्दन स्वामी की अंतर चेतना से नाम स्मरण प्रस्फुटित हुआ गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त, श्री दत्त, श्री दत्त, श्री दत्त I

गुरु सख्या तुझ्या विना जाऊ पाहे ज्यासीं माझा प्राण काहो कठीण केले म्हणून पाहिले नेत्र उघडून I

हे गुरु राया, आत्मसखा, तुम बिन मेरे प्राण फड़फड़ाने लगे हैं I मैं जानता हूं तुम यहीं कहीं मेरे आस पास आ चुके हो I कठोर ह्रदय न रखो ममता के सरोवर में मेरे सामने आ जाओ और अपनी एक दृष्टि डालकर मुझे निहाल करो प्रभु I 

आतां यावे लवकरी । भेट द्यावी बा सत्वरी।
शीघ्र आओ शीघ्र आओ मुझे भेंट का सुख दो भगवन I उसी समय कदमों की आहट सुनाई दी I दो कदम चिमटे की ताल से ताल मिला कर आगे बढ़ रहे थे I सहसा हवाओं में सुगंध घुल गयी सामने में एक मस्त फ़क़ीर मलंग आते दिखाई दिए I उनका सर्वांग चमड़े से ढका हुआ था, नेत्र लाल थे, सफेद दाढ़ी, मूंछ लहरा रही थी I एक हाथ में चिमटा था दूसरे में कटोरा था पाँव में चप्पल नहीं थी साथ में उनके एक कुतिया चल रही थी I एकदम फक्क्ड़ फकीर स्वरुप तनिक भयावह भी उन्हें देख एका थोड़ा सिकुड़ सा गया I 

परंतु उधर जनार्दन स्वामी उस फकीर के कदमों में दंडवत लेट गए I उन्होंने चिमटा बजाया और आल्हाद प्रकट किया फिर दोनों हाथों से जनार्दन स्वामी को उठाया और अपने ह्रदय से लगा लिया I एका मंत्रमुग्ध हुआ यह विचित्र दृश्य देखकर I ज्यों ज्यों चिमटा बजता त्यों त्यों उसके अंतःकरण में नाद की भांति गूँज जाता I पता नहीं कैसे पर एक प्रकार का मानस सुमिरन उसके भीतर सतत चल रहा था I गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त I 

एका ने देखा बड़ी गूढ़ विसिमित मुस्कान मलंग के मुख पर फैली थी I मुस्कुराकर चिमटा खड़खड़ाकर वे मलंग कीर्तन करने लगे I 
खाने से भूख बढ़ी, पीने से प्यास बढ़ी, दरसन से आस बढ़ी I 
इसलिए सोते-सोते जागो अपने आप से भागो, आओ साईं छुटकारे की खीर मेरे संग खाओ I

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कृष्ण गोपी कथा ।।


कृष्ण का नाम लेते हुए एक गोपी की आँखें बन्द हो गयीं, अश्रुधाराऐं बहने लगीं। कृष्ण ! कृष्ण ! कहते-कहते बेसुध होकर वो कब जमीन पर गिर गयी, उसे मालूम भी न हुआ। इस बेसुधी में कृष्ण कब उसके पास आकर बैठ गये, उसे यह भी पता न चला।

      थोड़ी देर बाद जब उसकी आँख खुली तो सामने प्रियतम को देखकर हैरान हो गयी। पूछा - "रे कान्हा ! कब आया ?" कृष्ण ने कहा - "यह तो पता नहीं कब आया, पर जब से आया, तुझ ही को एक टक देख रहा हूँ।" गोपी कहती - "हद हो गयी ! हम तेरा दर्शन करें तो समझ लगती है, तू हमें क्यों देखेगा ?"

       कृष्ण ने कहा - "मैं तुझे नहीं, तेरे इस प्रेम को रोमांच को देख रहा हूँ। तेरी आँखों से बहती हुई प्रेम की अश्रुधाराओं को देख रहा हूँ। मैं तुझे नहीं, तेरे हृदय में प्रकट हुए इस प्रेम रूपी परमात्मा के दर्शन कर रहा हूँ। अरे गोपी ! ऐसा दर्शन तो मुझे भी दुर्लभ होता है।"

अंतिम ऋण चिता की लकड़ी...

क्या आप जानते हैं मृत्यु के बाद भी कुछ ऋण होते हैं जो मनुष्य का पीछा करते रहते हैं।

हिंदू धर्म शास्त्रों में पांच प्रकार के ऋण बताए गए हैं देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण, भूत ऋण और लोक ऋण।
इनमें से प्रथम चार ऋण तो मनुष्य के इस जन्म के कर्म के आधार पर अगले जन्म में पीछा करते हैं। इनमें से पांचवां ऋण यानी लोक ऋण अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।
प्रथम चारों ऋण तो मनुष्य पर जीवित अवस्था में चढ़ते हैं, जबकि लोक ऋण मृत्यु के पश्चात चढ़ता है।

जब मनुष्य की मृत्यु होती है तो उसके दाह संस्कार में जो लकड़ियां उपयोग की जाती हैं दरअसल वही उस पर सबसे अंतिम ऋण होता है।
यह ऋण लेकर जब मनुष्य नए जन्म में पहुंचता है तो उसे प्रकृति से जुड़े अनेक प्रकार के कष्टों का भोग करना पड़ता है। उसे प्रकृति से पर्याप्त पोषण और संरक्षण नहीं मिलने से वह गंभीर रोगों का शिकार होता है।

मनुष्य की मृत्यु के बाद सुनाए जाने वाले गरूड़ पुराण में भी स्पष्ट कहा गया है कि जिस मनुष्य पर लोक ऋण बाकी रहता है उसकी अगले जन्म में मृत्यु भी प्रकृति जनित रोगों और प्राकृतिक आपदाओं, वाहन दुर्घटना में होती है। ऐसा मनुष्य जहरीले जीव-जंतुओं के काटे जाने से मारा जाता है।

कैसे उतारें 'लोक-ऋण'

शास्त्रों में कहा गया है कि लोक ऋण उतारने का एकमात्र साधन है प्रकृति का संरक्षण। चूंकि मनुष्य पर अंतिम ऋण चिता की लकड़ी का होता है,
इसलिए अपने जीवनकाल में प्रत्येक मनुष्य को अपनी आयु की दशांश मात्रा में वृक्ष अनिवार्य रूप से लगाना चाहिए। कलयुग में मनुष्य की आयु सौ वर्ष मानी गई है।

इसका दशांश यानी 10 छायादार, फलदार पेड़ प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवनकाल में लगाना ही चाहिए।

हर हर महादेव।