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रुद्र चण्डी ।।

घोरचण्डी महाचण्डी चण्डमुण्डविखण्डिनी। 
चतुर्वक्त्रा महावीर्यां महादेविभूषिता ॥ 

रक्तदन्ता वरारोहा महिषासुरमर्दिनी । 
तारिणी जननी दुर्गा चण्डिका चण्डविक्रमा ॥ 

गुह्यकाली जगद्धात्री चण्डी च यामलोद्भवा। 
श्मशानवासिनी देवी घोरचण्डी भयानका ॥ 

शिवा घोरा रुद्रचण्डी महेशा गणभूषिता । 
जाह्नवी परमा कृष्णा महात्रिपुरसुन्दरी ॥ 

श्रीविद्या परमाविद्या चण्डिका वैरिमर्दिनी। 
दुर्गा दुर्गशिवाघोरा चण्डहस्ता प्रचण्डिका ॥ 

माहेशी बगलादेवी भैरवी चण्डविक्रमा। 
प्रमथैर्भूषिता कृष्ण चामुण्डामुण्डमर्दिनी ॥ 

रणखण्डा चन्द्रघण्टा रणेरामवरप्रदा । 
मारणी भद्रकाली च शिवा घोराभयानका ॥ 

विष्णुप्रिया महामाया नन्दगोपगृहोद्भवा । 
मंगला जननीचण्डी महाकुद्धा भयंकरी ॥ 

विमला भैरवी निद्रा जातिरूपा मनोहरा । 
तृष्णा निद्रा क्षुधा माया शक्तिर्मायामनोहरा ॥ 

तस्यै देव्यै नमस्तस्यै सर्वरूपेण संस्थिता । 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 

भवानी च भवानी च भवानी चोच्यते बुधैः । 
भकारस्तु भकारस्तु भकार: केवलः शिवः ॥ 

महाचण्डी शिवा घोरा महाभीमा भयानका । 
कांचनी कमला विद्या महारोगविमर्दिनी ॥ 

गुह्यचण्डी घोरचण्डी चण्डी त्रैलोक्यदुर्लभा ।
देवानां दुर्लभा चण्डी रुद्रयामलसंमता ॥ 

अप्रकाश्या महादेवी प्रिया रावणमर्दिनी । 
मत्स्यप्रिया मांसरता मत्स्यमांसबलिप्रिया ॥ 

मदमत्ता महानित्या भूतप्रमथसंगता । 
महाभागा महारामा धान्यदा धनरत्नदा ॥ 

वस्त्रदा मणिराज्यादि सदाविषयवर्धिनी । 
मुक्तिदा सर्वदा चण्डी महाविपद्नाशिनी ॥ 

रुद्रध्येया रुद्ररूपा रुद्राणी रुद्रवल्लभा । 
रुद्रशक्ति रुद्ररूपा रुद्रमुखसमन्विता ॥ 

शिवचण्डी महाचण्डी शिवप्रेतगणान्विता । 
भैरवी परमाविद्या महाविद्या च षोडशी ॥ 

सुन्दरी परमापूज्या महात्रिपुरसुन्दरी । 
गुह्यकाली भद्रकाली महाकालविमर्दिनी ॥ 

कृष्णा तृष्णास्वरूपां सा जगन्मोहनकारिणी । 
अतिमंत्रा महालज्जा सर्वमंगलदायिनी ॥ 

घोरतंत्री भीमरूपा भीमा देवी मनोहरा । 
मंगला बगला सिद्धिदायिनी सर्वदा शिवा ।। 

स्मृतिरूपा कीर्तिरूपा योगींद्रैरपि सेविता । 
भयानका महादेवी भयदुःख विनाशिनी ॥ 

चण्डिका शक्तिहस्ता च कौमारी सर्वकामदा। 
वाराही च वराहास्या इन्द्राणी शक्रपूजिता ।। 

माहेश्वरी महेशस्य महेशगणभूषिता । 
चामुण्डा नारसिंही च नृसिंहशत्रुविमर्दिनी ॥ 

सर्वशत्रुप्रशमनी सर्वारोग्यप्रदायिनी । 
इति सत्यं महादेवि सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥

      यह 25 श्लोकों की स्तुति रुद्रचण्डी कहलाती है। इसके प्रथम दस श्लोकों का पाठ कामापराधों के शमन करने के लिये होता है। बाद के पंद्रह श्लोक भी अघमर्षण के लिये किये जाते हैं। व्यक्ति निर्मल होने पर ही आध्यात्मिक शांति का अधिकारी होता है। चण्डी का अर्थ घोर होता है इसका घोरस्वरूप एक सहज एवं आवश्यक अवस्था है। महिष, शुंभ, निशुंभ, चण्ड, मुण्ड जैसे क्रूरकर्मा और प्रचण्ड पराक्रमी असुरों का विनाश सौम्य रूप से संभव नहीं होता इसलिए परमवात्सल्यरूपिणी माँ को चण्डी, चामुण्डा जैसे रूप धारण करने पड़ते हैं। इन श्लोकों में वह रुद्र और विकट हो जाती है इसलिए उसकी उग्रता और बढ़ जाती है। परमा का भक्तों को भयभीत करने के लिए नहीं होता अपितु उसके दुष्कर्मों का नाश करने के लिये होता है। चण्ड और मुण्ड नाम दैत्य एक दुष्प्रेरणा है जो शुंभ और निशुंभ के काम को अहंकार के माध्यम से उद्दीप्त करते हैं। शुंभ-निशुंभ के स्तुतिगान में वे उसकी, उसके सुन्दर वस्तुओं के प्रति मोह अपहरण और बल की महिमा बखानते हैं और एक दुष्कर्म के लिये प्रेरित करते हैं। इस प्रेरक शक्ति के शुद्ध रूप को चामुण्डा कहा जाता है, चामुण्डा का प्रखर तेजस्वी रूप चण्डी कहलाता है। माँ के दुर्गा, चामुण्डा अथवा चण्डी स्वरूप के समक्ष बैठकर इसका नित्यपाठ करने से पापक्षय होता है और साधक निर्मल व निर्भय होता है।

नवरात्रि को देवत्व के स्वर्ग से धरती पर उतरने का विशेष पर्व माना जाता है। उस अवसर पर सुसंस्कारी आत्माएँ अपने भीतर समुद्र मंथन जैसी हलचलें उभरती देखते हैं। जो उन्हें सुनियोजित कर सकें वे वैसी ही रत्न राशि उपलब्ध करते हैं जैसी कि पौराणिक काल में उपलब्ध हुई मानी जाती हैं। इन दिनों परिष्कृत अन्तराल में ऐसी उमंगें भी उठती हैं जिनका अनुसरण सम्भव हो सके तो दैवी अनुग्रह पाने का ही नहीं देवोपम बनने का अवसर भी मिलता है यों ईश्वरीय अनुग्रह सत्पात्रों पर सदा ही बरसता है, पर ऐसे कुछ विशेष अवसर मिल सके। इन अवसरों को पावन पर्व कहते हैं। नवरात्रियों का पर्व मुहूर्तों में विशेष स्थान है। उस अवसर पर देव प्रकृति की आत्माएँ किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित होकर आत्म कल्याण एवं लोक मंगल क्रिया कलापों में अनायास ही रस लेने लगती हैं। 

बसन्त आते ही कोयल कूकती और तितलियाँ फुदकती दृष्टिगोचर होती हैं। भोंरे गूँजते हैं जबकि अन्य ऋतुओं में उनके दर्शन भी दुर्लभ रहते हैं। वर्षा आते ही मेंढक बोलते और मोर नाचने लगते हैं जबकि साल के अन्य महीनों में उनकी गतिविधियाँ कदाचित ही दृष्टिगोचर होती हैं। आँधी तूफान और चक्रवातों का दौर गर्मी के दिनों में रहता है। ग्रीष्म का तापमान बदलते ही उनमें से किसी का पता नहीं चलता। ठीक यही बात नवरात्रियों के समय पर भी लागू होती है।

 प्रातःकाल और सायंकाल की तरह इन दिनों की भी विशेष परिस्थितियाँ होती हैं उनमें सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह उभरते और मानवी चेतना को प्रभावित करते हैं। न केवल प्रभावित करने वाली वरन् अनुमूलन उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ भी अनायास ही बनती हैं। इसे समय की विशेषता कह सकते हैं। जीवधारियों में से अधिकांश को इन्हीं दिनों प्रजनन की उत्तेजना सताती है और वे गर्भाधान सम्पन्न कर लेते हैं। इसमें प्राणी तो कठपुतली की तरह अपना रौल पूरा करते हैं- सूत्र संचालन तो किसी ऐसे अविज्ञान मर्मस्थल से होता है जिसे सूक्ष्म जगत याa अन्तर्जगत के नाम से मनीषी व्याख्या- विवेचना करते रहते हैं। नवरात्रियों में कुछ ऐसा वातावरण रहता है जिसमें आत्मिक प्रगति के लिए प्रेरणा और अनुकूलता की सहज शुभेच्छा बनते देखी जाती है। 


सूर्य के उदय और अस्त होते समय आकाश में लालिमा छाई रहती है और उस अवधि के समाप्त होते ही वह दृश्य भी तिरोहित होते दीखता है। इसे काल प्रवाह का उत्पादन कह सकते हैं। ज्वार भाटे हर रोज नहीं अमावस्या पूर्णमासी को ही आते हैं। उमंगों के सम्बन्ध में भी ऐसी ही बात है कि वे मनुष्य की स्व उपार्जित ही नहीं होतीं वरन् कभी- कभी उनके पीछे किसी अविज्ञात उभार का ऐसा दौर काम करता पाया गया है कि चिन्तन ही नहीं कर्म भी किसी ऐसी दशा में बहने लगता है जिसकी इससे पूर्व वैसी आशा या तैयारी जैसी कोई बात नहीं थी। ऐसे अप्रत्याशित अवसर तो यदा- कदा ही आते हैं पर नवरात्रि के दिनों अनायास ही अन्तराल में ऐसी हलचलें उठती हैं जिनका अनुसरण करने पर आत्मिक प्रगति की व्यवस्था बनने में ही नहीं सफलता मिलने में भी ऐसा कुछ बन पड़ता है मानो अदृश्य से अप्रत्याशित अनुदान बरसा हो। 

ऐसे ही अनेक तथ्यों को ध्यान में रखते हुए तत्वदर्शी ऋषियों, मनीषियों ने नवरात्रि में साधना का अधिक माहात्म्य बताया है इस बात पर जोर दिया है कि अन्य अवसरों पर न बन पड़े सही पर नवरात्रि में आध्यात्मिक तप साधना का सुयोग बिठाने का प्रयत्न तो करना ही चाहिए। तंत्र विज्ञान के अधिकांश कोलकर्म इन्हीं दिनों सम्पन्न होते हैं। वाम मार्गी साधक अभीष्ट मन्त्र सिद्ध करने के लिए इस अवसर की ही प्रतीक्षा करते रहते हैं। 

नवरात्रि देव पर्व है। उसमें देवत्त्व की प्रेरणा और उवी अनुकम्पा बरसती है। जो उस अवसर पर सतर्कता बरतते और प्रयत्नरत होते हैं, वे अन्य अवसरों की उपेक्षा इस शुभ मुहूर्त का लाभ ही अधिक उठाते हैं। भौतिक लाभों को सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। संकटों के निवारण और प्रगति के अनुकूलन में सिद्धियों की आवश्यकता पड़ती है। उस आधार पर जो मिलता है उसे वरदान कहा जाता है। नवरात्रियाँ वरदानों की अधिष्ठात्री कही जाती हैं, पर इस शुभ अवसर पर वास्तविक लाभ है देवत्त्व की विभूतियों का जीवनचर्या में समावेश। वह जिसे जितनी मात्रा में मिलता है वह उतनी ही कला क्षमता का नर देव कहलाता है। देवता स्वर्ग में ही नहीं रहते अपितु महामानवों के रूप में इस धरती पर विचरते हैं। 

नवयुग देवत्व प्रधान होगा। उसमें वे प्रयत्न चलेंगे जो मनुष्य में देवत्व का उदय कर सकेंगे। जहाँ देवता बसते हैं वहाँ स्वर्ग होता है। जहाँ स्वर्ग होगा वहाँ देवता ही बसते होंगे। इसी तथ्य के आधार पर यह अपेक्षा की गई कि उत्कृष्ट व्यक्तित्वों द्वारा जो सुखद वातावरण बनेगा उसे धरती पर स्वर्ग के अवतरण की उपमा दी जा सकेगी।


युग सन्धि की नवरात्रियों में विशेष सम्भावना इस बात की है कि उनमें अदृश्य लोकों में देवत्व की अतिरिक्त वर्षा हो और उस अनुदान को पाकर देव मानवों का समुदाय अधिक प्रखरता सम्पन्न होता हुआ दृष्टिगोचर होने लगे। युग परिवर्तन की अवसर प्रक्रिया को गतिशील बनाने में इन देव मानवों का ही योगदान प्रमुख रहा है। तत्वदर्शी कहते हैं कि अवतार अकेले ही अपना प्रयोजन पूरा नहीं कर लेते उनके साथ- साथ अनेक सहयोगी भी होते हैं और वे भी देवलोक से उसी प्रयोजन के लिए शरीर धारण करते हैं। पाँचों पाण्डव पाँच देवताओं के अवतार थे। हनुमान- अंगद आदि के बारे में भी ऐसी ही मान्यता है। इन दिनों सूजन योजनाओं में देव मानवों का यह साहस एवं प्रयास ही अग्रिम मोर्चा सँभालते दिखाई देगा।

नवयुग सृजन की प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने तथा उस दिशा में कदम बढ़ाने का यही शुभ मुहूर्त है। प्रज्ञा युग की प्रेरणा को अपनाने और विधि व्यवस्था को चरित्र करने के लिए यों हर घड़ी पवित्र और महत्त्वपूर्ण है, पर इस प्रयोजन के लिए नवरात्रि पर्व की अत्यधिक गरिमा मानी गई है। यों उपासना की चिन्ह पूजा भी बीजारोपण की दृष्टि से उपयोगी मानी गई है और उसे किसी भी रूप में किसी भी मनःस्थिति में अपनाये रहने पर जोर दिया गया है। फिर भी उसे निष्ठापूर्वक अपनाने की प्रौढ़ता का स्तर ऊँचा ही रहता है। उच्चस्तरीय सत्परिणामों की आशा- अपेक्षा योजनाबद्ध तपश्चर्या अपना कर की जाने वाली साधना के साथ अविच्छन्न रूप से सम्बन्धित है। 

नवरात्रि पर्व का ऋतु संध्या मुहूर्त विज्ञान की दृष्टि से ही नहीं विशिष्ट साधना पद्धति के कारण भी महत्त्वपूर्ण माना गया है। नैष्ठिक साधकों के लिए आश्विन और चैत्र की नवरात्रियों में अनुष्ठान साधना एक अत्यावश्यक पुण्य परम्परा के रूप में सदा सर्वदा से अपनाई जाती रही है। 

सर्दी और गर्मी दो ही प्रधान ऋतुएं हैं उनका मिलन एक प्रकार से वैसा ही सन्धि काल है जैसा कि रात्रि के अन्त और दिन के प्रारम्भ में प्रभातकाल के रूप में उपस्थित होता है। सन्धियाँ सदा मार्मिक होती हैं। शरीर में अस्थिपञ्जर से बने हुए जोड़ों को भी सन्धियाँ कहते हैं। इन्हीं के यथावत् रहने पर काया की विभिन्न क्रिया- प्रक्रियायें गतिशील रहती हैं। यह जोड़ यदि जकड़ने लगें तो फिर चलना- फिरना तो दूर मुड़ना भी सम्भव न रहेगा। मशीनों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उनकी क्षमता एवं गतिशीलता उनकी सन्धियों के सही गलत होने पर ही निर्भर रहती है। इन दिनों युग सन्धि चल रही है अतएव जाग्रत आत्माओं को आपत्ति- कालीन व्यवस्था की तरह युग धर्म के निर्वाह में जुटना पड़ रहा है। ऋतु संध्या आश्विन और चैत्र में जिन दिनों आती है उन नौ- नौ दिनों की अवधि को नवरात्रि कहते हैं। ऋतुओं में ऋतुमती होने और वातावरण में नये- नये अनुदान देने का दृश्य सूक्ष्म जगत में इन्हीं दिनों दृष्टिगोचर होता है। 

ऐसे- ऐसे अनेकों कारण हैं जिनके कारण अध्यात्म क्षेत्र में साधना प्रयोजनों के लिए यह समय विशेष रूप से उपयुक्त माना गया है। जिस प्रकार प्रभात काल की उपासना अधिक फलवती होती और संध्या के नाम से पुकारी जाती है। उसी प्रकार नवरात्रियों का समय भी दोनों सन्ध्याओं के समतुल्य माना गया है।

सर्वविदित है कि युग सन्धि की इस परिवर्तन बेला में अनिष्ट के परिमार्जन तथा सृजन के सम्वर्धन को लक्ष्य रखकर जो बीस वर्षीय योजना बनी है उसमें नैष्ठिक महापुरश्चरण को विशेष महत्त्व दिया गया है। एक लाख नैष्ठिक उपासकों द्वारा बीस वर्षीय संकल्प लेकर इतिहास काल के इस अभूतपूर्व धर्मानुष्ठान का नियोजन हुआ है। उसकी भागीदारी लेने वाले साधकों को आधा घन्टे में सम्पन्न हो सकने वाली पाँच मालाओं का नित्य जप करना होता है। साथ ही गुरूवार के दिन अस्वाद ब्रह्मचर्य एवं मौन व्रत साधना का भी अनुशासन जुड़ा है। इसके अतिरिक्त सामूहिक रूप में मासिक यज्ञ करने की व्यवस्था उन्हें बनाये रखनी होती है। सामान्यतया चलने वाले यही अनुबन्ध है जिनका परिचालन करते हुए युग सन्धि महापुरश्चरण की भागीदारी को गतिशील रख जाता है। 

इन सामान्य नियमों के अतिरिक्त असामान्य तप साधना के रूप में वर्ष की दोनों नवरात्रियों में उन्हें २४ हजार के गायत्री अनुष्ठान भी करने होते हैं। उस समय वे नहीं कर सकते तो आगे पीछे हटकर भी उसकी पूर्ति करनी होती है। यह अनिवार्यता इसलिए रखी गई है कि इन नौ दिनों के साधना सत्रों में वे सभी प्रयोजन पूरे होते हैं जो जन मानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन की उभयपक्षीय युग चेतना के अग्रगणी बनाने के लिए नितान्त आवश्यक है। 

गायत्री अनुष्ठानों के नवरात्रि परम्परा के पीछे ऐसे- ऐसे अनेकों कारण सन्निहित हैं इसलिए उपासना में अभिरूचि रखने वाले इन दिनों की प्रतीक्षा करते रहते हैं और वर अवसर पर कुछ न कुछ व्रत पालन निश्चित रूप से करते हैं।


जो साधारणतया दैनिक उपासना के अभ्यस्त नहीं हैं और यदा- कदा ही कभी कुछ पूजा पाठ करते हैं ऐसे लोगों पर भी जोर दिया जाता है कि वे कम से कम उन दिनों तो कुछ नियम निबाहें और निश्चित साधना की बात सोचें। इन अभ्यासों के लिए भी कई प्रकार की सरल साधनाओं की विशेष व्यवस्था की जाती है ताकि उन्हें बोझ लगने और मन उचटने की कठिनाई का सामना न करना पड़े। मन्त्र लेखन गायत्री चालीसा पाठ, पंचाक्षरी जप आदि की सरल व्यवस्थाएँ उसी आधार पर बनी हैं और २४ हजार वाली संख्या को घटा कर १० हजार तक हलका कर दिया गया है। नौ दिन में दस हजार जप करने का तात्पर्य मात्र हर रोज एक घण्टा समय लगाना भर होता है। यह किसी के लिए भी भारी नहीं पड़ना चाहिए। मन्त्र लेखन हर रोज ११२ करने में नौ दिन में एक हजार लिख जाते हैं यह भी एक अनुष्ठान है। गायत्री चालीसा के हर दिन बारह पाठ करने से नवरात्रि में १०८ हो जाते हैं। ‘ॐ भूर्भुवः स्वः’ यह पंचाक्षरी गायत्री है। इतना तो अशिक्षित एवं बालक भी याद कर सकते हैं और सुविधानुसार संख्या निर्धारित करके उसकी पूर्ति करते रह सकते हैं। प्रमुख तथ्य नियमितता है, न्यूनाधिकता नहीं। नियमित साधना को अनुष्ठान कहते हैं। उसके साथ तपश्चर्याओं का अनुशासन जुड़ जाने से उसकी संज्ञा पुरश्चरण की जाती है। अनुष्ठान पुरश्चरण हलके भारी स्तर के भी होते हैं। 

अनभ्यस्त लोगों के लिए उपासना क्रम में सरलता उत्पन्न करने की तरह व्रत अनुशासनों में भी ढील देकर उन्हें मनीषियों ने बाल सुलभ बना दिया है। भूमिशयन, स्वयं सेवा, उनके लिए अनिवार्य नहीं। ब्रह्मचर्य तो आवश्यक है। पर उपवास में भी ढील की काफी गुंजायश बना दी गई है। रोटी- शाक, दाल- चावल जैसे दो वस्तुओं के युग्म अपना कर नौ दिन काट लेने में मात्र पदार्थों का सीमा बन्धन ही है भूखा रहने जैसी कोई कठिनाई नहीं है। जो इससे आगे बढ़ सकते हैं वे बिना नमक शक्कर का अस्वाद व्रत पालने की हिम्मत भी दिखा लेते हैं। एक समय पूरा भोजन एक समय फल दूध जैसी सरलता उन्हीं लोगों के लिए बनाई गई है जो उपवास करना चाहते हैं पर ऐसी सरलता ढूँढ़ते हैं जिसमें भूखा न रहना पड़े। ऐसे लोगों को निराश न होने देने और न कुछ से कुछ। अच्छा की सरलता की गई है। इस आधार पर बाल- वृद्ध, और व्यस्त लोग भी नवरात्रि में कुछ न कुछ नियमित साधना का सुयोग बना सकते हैं।

गायत्री परिवार का जहाँ भी छोटा बड़ा संगठन है वहाँ नवरात्रि पर्व मनाने का प्रयत्न निश्चित रूप से किया जाता है। यों व्यक्तिगत एकाकी साधना करने पर भी रोक नहीं है, पर प्रयत्न यही किया जाता है कि सामूहिक उपासना का उपक्रम बने और उसे एक उत्साह आयोजन का स्वरूप मिले। ऐसी व्यवस्था बनाने में उत्साही लोगों को स्वयं आगे रहने, थोड़ी दौड़ धूप करने साधन जुटाने एवं जन- सम्पर्क साधकर उत्साह दिलाने जैसे प्रयत्न करने होते हैं। ऐसा कुछ कर पाने वाले उत्साही जहाँ एक दो भी हों वहाँ नवरात्रि आयोजन की व्यवस्था सहज ही बन जाती है। वह न तो महँगी है और न कठिन कष्ट साध्य। जो इसके लिए आगे बढ़कर साहस दिखाते हैं उन्हें अनुभव से इस निष्कर्ष पर पहुँचना होता है कि भारत जैसे धर्म प्रकृति वाले देश में नवरात्रि आयोजनों को साधना सत्रों के रूप में विकसित और व्यापक बना सकने में अनुत्साह के अतिरिक्त और कोई भी कठिनाई नहीं है जो हँसते- हँसाते हल न की जा सके।

युग सृजन अभियान में नवरात्रि पर्व को साधना सत्र आयोजन के रूप में नियोजित करने और सफल बनाने पर आरम्भ से ही बहुत जोर दिया जाता रहा है। इसमें उपासना और साधना के उभयपक्षीय प्रयोजन पूरे होते हैं। प्रातःकाल सामूहिक जप, हवन- पूजन का और सायं- काल संगीत प्रवचन के ज्ञान यज्ञ की व्यवस्था रहती है। उपासना से आत्म कल्याण की और जीवन साधना की प्रगति भी सदा उसी के सहारे सम्पन्न होती रही है। भविष्य निर्माण में सज्जनों की संगठित सृजन चेतना की ही प्रमुख भूमिका होगी। राम काल के रीछ बानर, कृष्ण काल के ग्वाल- बाल, बुद्ध के भिक्षु सहयोगी, गांधी के सत्याग्रही इसी तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि महान प्रयोजनों की पूर्ति के लिए सज्जनों की सहकारिता सम्पादित किये बिना कोई चारा नहीं। देवताओं की संयुक्त शक्ति, दुर्गा ने ही उन्हें असुरों के त्रास से छुड़ाया था। ऋषियों का संचित रक्त घट ही सीता को जन्म देने और दानवी विभीषिकाओं को निरस्त करने में आधारभूत कारण बना था। इन पुराण गाथाओं से सृजन शिल्पियों को भी यही प्रेरणा मिलती है कि वे जागरूकों को तलाश करें और उनकी आन्तरिक प्रखरता जगाने के भाव भरे प्रयास करें। इस प्रयोजन के लिए नवरात्रि के नौ दिन चलने वाले साधना सत्रों से बढ़कर अधिक उपयोगी एवं अधिक सरल व्यवस्था अन्य कदाचित ही कोई बन पड़े। महान सांस्कृतिक परम्पराओं का पुनर्जीवन नव सृजन के अभीष्ट आत्म- ऊर्जा का अभिवर्धन तथा जन जीवन में उत्कृष्टता के समावेश का जैसा स्वर्ण सुयोग इन साधना सत्रों में मिल सकता है। उसकी तुलना का उपाय उपचार कदाचित ही कोई खोजा जा सके। रात्रि के ज्ञान यज्ञ में वह सब कुछ कहा जा सकता है जो प्रज्ञावतार की युगान्तरीय चेतना को जन- मानस में प्रतिष्ठापित करने के लिए आवश्यक है। इस अवसर पर ऐसे संगठित प्रयासों के लिए उपयुक्त वातावरण भी रहता है जिससे साधकों को भी व्रतशील जीवन जीने के अतिरिक्त सृजन प्रयोजनों में सहयोग देने के लिए तत्पर किया जा सके। 

इन तथ्यों की जानकारी तो प्रज्ञा पुत्रों को पहले से भी रही है और वे नवरात्रि आयोजनों को इसी उद्देश्य को लेकर पूरा करने एवं अधिकाधिक उत्साहवर्धक बनाने का प्रयत्न करते रहे हैं। इस बार उसमें युग सन्धि के बीजारोपण वर्ष के अभिनव उत्तरदायित्व भी जुड़ गये हैं महापुरश्चरण में भागीदार नैष्ठिक साधकों का सुविस्तृत समुदाय इन्हीं दिनों साधना क्षेत्र में नये सङ्कल्प लेकर अग्रसर हुआ है। उसमें से प्रत्येक को न केवल प्रत्येक नवरात्रि की अनुष्ठान साधना स्वयं करनी है वरन् जन सम्पन्न साधनों में अभी से लगना है तथा पुरानों को प्रोत्साहित और नये भावनाशीलों को तथ्यों से परिचित कराने के प्रयास भी करना है। नवरात्रि आयोजन पिछले दिनों की तुलना में अत्यधिक प्रभावी एवं प्रेरणाप्रद बन सके इसके लिए समग्र तत्परता उत्पन्न कर सकने वाली भाव श्रद्धा को उभारने, उछालने की आवश्यकता है |

चामुण्डायै

     धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं एवं इसके अलावा अति गोपनीय पंचम पुरुषार्थ है प्रेम । पुरुषार्थ का क्या तात्पर्य है? पुरुषार्थ का तात्पर्य है कर्म। ये चारों पुरुषार्थ भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने सृष्टि को गतिमान बनाने के लिए लक्ष्य के रूप में निर्धारित किए हैं। पुरुष का तात्पर्य है साहचर्य, एक से अनेक और अनेक से अनेक होने की क्रिया ब्रह्माण्ड दो भागों में विभाजित है प्रथम दुर्गा कुल द्वितीय महाविद्या कुल महाविद्या कुल युद्ध से परे है, गति से परे है एवं यहाँ पर परा शक्तियाँ निवास करती हैं। परा शक्तियों का तात्पर्य है चिंतन से भी परे विशुद्ध परमवस्थाएं। दसों महाविद्याएं परा सूक्ष्म है और जब जातक पराब्रह्माण्डीय हो जाता है तो उसे महाविद्याओं में वर्णित महाशक्तियों की उपासना प्राप्त होती है। दसों महाविद्याएं केवल शिव एवं भगवती त्रिपुर सुन्दरी के बीच सम्पन्न हुए लीला विलास एवं परा ब्रह्माण्डीय नर्तन का प्रतीक हैं। 

           इसके विपरीत ब्रह्माण्ड के अन्य उच्छिष्ट तत्वों के साथ जब त्रिपुर सुन्दरी विलास करती हैं या फिर क्रियाशील होती हैं तब दुर्गा कुल की स्थापना होती है। दुर्गा सप्तशती में वर्णित देवासुर संग्राम स्पष्ट रूप से यह कहता है कि इसमें भगवती कृपा करके देवताओं एवं त्रिदेवों की प्रार्थना पर क्रियाशील हुईं अतः दोनों साधनाओं के भेद को समझना होगा। चूंकि ब्रह्माण्ड को भगवती त्रिपुर सुन्दरी का उच्छिष्ट अंग माना गया है अर्थात उनके द्वारा त्याज्य माना गया है इसलिए ब्रह्माण्ड में शिथिलता, विकारग्रस्तता, अशुद्धता, आधा-अधूरापन विद्यमान है। दुर्गा सप्तशती में ब्रह्माण्ड का प्रत्येक तत्व क्या कह रहा है? वह पूर्णता मांग रहा है। वह कह रहा है मुझे दो, रूप दो, यश दो, ज्ञान दो, विज्ञान दो, दया दो, क्षमा दो, दया दो, राज्य दो अर्थात दो कुछ न कुछ दो, वह भीख मांग रहा है, वह हाथ फैलाकर मांग रहा है। हमें दो की प्रक्रिया, दो की प्रवृत्ति समझनी होगी।

         जैसे ही हम जन्म लेते हैं मां से दूध मांगते हैं। हमारा जन्म ही मांगने से प्रारम्भ होता है, हम सारी जिंदगी क्या करते हैं? पत्नी से, पति से, मित्र से, संसार से, गुरुओं से, बच्चों से, प्रकृति से सिर्फ दो की ही याचना करते रहते हैं। अपेक्षा, याचना, भिक्षा, प्राप्ति, संतुष्टि इत्यादि इत्यादि । प्रथम श्वास से लेकर अंतिम श्वास तक हम मुझे दो-दो की ही रट लगाये रहते हैं यह हमारे उच्छिष्ट अर्थात त्यागे हुए होने का सबसे बड़ा सबूत है एवं हमें इस प्रवृत्ति को समझना होगा। ब्रह्मा निर्मित इस सृष्टि के प्रत्येक तत्व की यही विडम्बना है कि वह मुझे कुछ दो से ग्रसित है। जितना उसे मिलता जाता है उतना ही उसके अंदर मुझे कुछ और चाहिए की भूख बढ़ती जाती है। उसकी यही भूख कि मुझे कुछ चाहिए उसे गतिमान रखती है परन्तु अंत तक वह यह नहीं समझ पाता कि वास्तव में उसे चाहिए क्या? क्या चाहिए तुम्हें ? बस यही प्रश्न वह अपने आप से स्वयं पूछता रहता है, यही प्रवृत्ति उसे स्व की खोज की तरफ ले जाती है। 

          धन आ गया तो काम खोजता है, काम मिल गया तो धर्म खोजता है, धर्म मिल गया तो प्रेम खोजता है, प्रेम मिल गया तो मोक्ष खोजता है, मोक्ष मिल गया तो कुछ और खोजता है। जिस दिन मुझे कुछ दो, मुझे किसी की खोज है, मुझे कुछ प्राप्त करना है की प्रवृत्ति शांत हो जायेगी वह महाविद्याओं का साधक बन जायेगा परन्तु इससे पूर्व वह दुर्गा कुल का ही साधक रहेगा। अतः भगवती दुर्गा शीघ्र फलदायिनी हैं, शीघ्र क्रियाशील होती हैं, क्योंकि समस्त ब्रह्माण्ड मुझे कुछ दो में उलझा हुआ है। जब मुझे कुछ दो के भाव समाप्त हो जाते हैं तब जाकर महाविद्याओं की साधना के लिए जीव तैयार होता है। परा को प्राप्त करने के लिए मुझे कुछ दो से परे होना पड़ेगा, आँखों में निर्मलता लानी होगी।

         दुर्गा के जो भक्त होते हैं उन्हें वे विपुल मात्रा में प्रदान करती है, उनकी दो की प्रवृत्ति वे संतुष्ट करती हैं यही श्री श्री शक्ति रहस्यम् है। जब तक दो की प्रवृत्ति अंदर से शांत नहीं होगी तब तक जीव सम्पूर्णता को प्राप्त नहीं करेगा इसलिए श्री दुर्गोपासना धर्म, अर्थ, काम, प्रेम निश्चित तौर पर प्रदान करती हैं। हाँ मोक्ष के दरवाजे तक भी दुर्गा जी ले जाती है परन्तु इसके बाद शक्ति का कुछ दूसरा ही स्वरूप होता है । इसलिए दुर्गा के उपासक आपको सबसे ज्यादा मिलेंगे। मार्कण्डेय रचित श्री दुर्गा सप्तशती शक्ति विलास का अद्भुत ग्रंथ है, मैंने अपने जीवन में अनेकों ग्रंथ पढ़े परन्तु इतना तांत्रोक्त ग्रंथ कोई भी नहीं है। इसमें परम गूढ़ रहस्य हैं, दुर्गा सप्तशती लगभग 700 स्तोत्रों का ग्रंथ है और मुख्य रूप से यह 4 पुरुषार्थों में से अर्थ प्रदान करने वाला ग्रंथ है, 


वात्सायन लिखित कामसूत्र में भी 700 श्लोक हैं यह ग्रंथ कामरूपी पुरुषार्थ पर आधारित है, गीता में 700 श्लोक है यह ग्रंथ धर्म रूपी पुरुषार्थ का मुख्य ग्रंथ है, शिव पुराण भी 700 पन्नो का है यह मोक्ष रूपी पुरुषार्थ का प्रमुख ग्रंथ है, श्रीमद भागवत में लगभग 700 श्लोकों में कृष्ण की रासलीला वर्णित है यह प्रेम रूपी अति गोपनीय पंचम पुरुषार्थ का प्रेरक है। अंत में मैं कहूंगा लगभग 70 श्लोकों की सौन्दर्य लहरी भगवान शंकराचार्य जी ने मूल रूप से लिखी है जिसमें कि श्री त्रिपुर सुन्दरी की स्तुति की गई है। यह जातक को श्रीविद्या के मार्ग पर ले जाती है।

           जब भगवान शंकराचार्य समस्त वाद-विवाद, युद्ध, ज्ञान विज्ञान, धर्म-अधर्म इत्यादि भगवती दुर्गा के गतिमान बनाये रखने के प्रपंचों को समझ गये और निर्वाण षट्कम तक आ गये। षट्कम का तात्पर्य 6 चक्रों को भेद गये तब सौन्दर्य लहरी प्रस्फुटित हुई और वे परम बिन्दु तक पहुँच गये, श्रीयुक्त हो गये। युद्ध से परे होना आसान नहीं है, युद्ध का तात्पर्य केवल भौतिक युद्ध से मैं नहीं कह रहा अपितु इसमें आंतरिक, वैचारिक, मानसिक तलों के भी युद्ध आते हैं। युद्ध का तात्पर्य है द्वंद। कहीं न कहीं द्वंद का होना अर्थात शक्तियों का आपस में टकराना, शक्ति संचय की प्रवृत्ति, शक्ति के प्रयोग की प्रवृत्ति । मारण, मोहन, सम्मोहन, स्तम्भन, विद्ववेषण, उच्चाटन इत्यादि शाक्तोपासक ही करते हैं वे शक्ति का उपयोग करते हैं। शक्ति अर्जित करना, शक्ति का उपयोग करना, शक्ति को नियंत्रित करना, शक्ति के बल पर इतराना, शक्ति का अनुसंधान करना ही जीव का कार्य है।

         यह कार्य कोई नेता बनकर करता है, कोई अभिनेता, कोई वैज्ञानिक, कोई दार्शनिक, कोई चिंतक, कोई साधक, कोई व्यापारी इत्यादि इत्यादि बनकर करता है। कुछ बनना, कुछ बिगाड़ना, कुछ खोजना, कुछ अविष्कृत करना, ध्यान करना, जप करना, तप करना, वरदान मांगना, आशीर्वाद मांगना इत्यादि इत्यादि शाक्तोपासना का विषय है अतः प्रथम श्वास से अंतिम श्वास तक किसी न किसी माध्यम से शाक्तोपासना तो हो ही जाती है। इस स्थूल, सूक्ष्म, दैवीय, अधिदैवीय, भौतिक, अधिभौतिक शाक्तोपासना में दुर्गा ही क्रियाशील होती हैं परन्तु इसके ऊपर भी कुछ है, इसके परे भी कुछ है। वह क्या है? वहाँ तक कैसे पहुँचा जाये? इसका विषय भगवती दुर्गा के पास आरक्षित है। 

        ऊपर वर्णित सभी स्थितियाँ को भय हैं, कोश ही दुर्ग कहलाता है। हम कोश में रहने के आदी हो गये हैं, कोश में रहने की प्रवृत्ति ही शरीर का निर्माण करती है। हमारा शरीर नाना प्रकार के कोशो से बना हुआ है, प्रत्येक कोश एक दुर्ग है और दुर्ग की रक्षिका दुर्गा हैं। पृथ्वी भी एक कोश हैं, नौ ग्रह भी कोश हैं, वन भी कोश है, जल भी है अर्थात चारों तरफ कोशमयता है अतः कोशिका रूपी जीवन ही हमारी पहचान है। अब कब तक किस कोश में किसको रहना है भगवती दुर्गा ही जाने। वे कब किसे किस कोश से निकाल दें, किस कोश में फेंक दें, किस कोश के अधीन कर दें यह उनका विषय है। लोक भी कोश हैं अर्थात दुर्ग है। देवासुर संग्राम में उन्होंने स्पष्ट कहा हे असुरों स्वर्ग लोक छोड़ों और पाताल लोक रूपी कोश में चले जाओ वे नहीं गये तो उन्होंने उन्हें उठाकर फेंक दिया एवं देवताओं को पुनः देव कोश में प्रतिष्ठित कर दिया। 

            द्वैत और अद्वैत को समझिये द्वैत का तात्पर्य है कोशमय। द्वैतमयी देवता भी शिथिल पड़ते हैं, रुद्र भी वृद्ध होते हैं, विष्णु एवं ब्रह्मा भी वृद्ध होते हैं अर्थात सभी वृद्ध हो गये इसलिए प्रलय को प्राप्त होते हैं। जैसे ही दुर्गा प्रस्थान करती हैं वृद्धता आ जाती है क्षयता आ जाती है, अतः वृद्धता एवं क्षयता को रोकने के लिए दुर्गा उपासना अत्यधिक आवश्यक है। अगर भगवती दुर्गा चाहें तो जातक को ऊपर वर्णित स्थितियों से मुक्त करके दसों महाविद्या में से किसी एक के द्वार खोलकर उसे वहाँ तक पहुँचा सकती हैं। किसे पहुँचायेंगी, क्यों पहुँचायेंगी, यह उनकी कृपा पर निर्भर करता है। पीताम्बरा शक्तिपीठ के महाराज जी शुरु शुरु में दुर्गा सप्तशती का पाठ करते थे, प्रचण्ड दुर्गोपासक थे बाद में जाकर वे माँ बगलामुखी के उपासक हुए श्रीविद्या की तरफ अग्रसर हुए, भगवती दुर्गा ने पराद्वार खोल दिए।

            मार्कण्डेय मुनि ने नासिक के पास सप्तश्रृंगी की पहाड़ी पर बैठकर श्री दुर्गा सप्तशती की रचना की उनका जीवन भी बड़ा विचित्र है। उनकी आयु मात्र 16 वर्ष की थी यमराज उन्हें लेने आये तब शिव ने त्रिशूल से मारकर यमराज को भगा दिया और उन्हें कल्पांत जीवी बना दिया अर्थात एक कल्प के पश्चात् भी वे शरीर रूपी कोश में विद्यमान रहेंगे। धर्म, अर्थ, काम, प्रेम सब कुछ मार्कण्डेय मुनि ने अपने कल्पांत रूपी जीवन में भोग लिया। सृष्टि में भी शक्ति विलास को अपनी सभी बाह्य एवं आंतरिक इन्द्रिय से अनुभव कर लिया।

घोर जल प्रलय हो रहा था मार्कण्डेय मुनि जल में खड़े थर-थर कांप रहे थे, वे दुर्गा के परम गोपनीय प्रलय चण्डा के स्वरूप का भी अनुभव कर रहे थे। भगवान शरभ के एक पंख में दुर्गा विराजमान हैं तो दूसरे पंख में भद्रकाली भद्रकाली प्रलय की देवी हैं अतः आज उन्हें शरभेश्वर के दोनों पंखों के दर्शन हो गये। तभी वे देखते हैं कि एक वटवृक्ष के पत्ते पर बाल मुकुन्दम अपने पाँव का अंगूठा चूसते हुए शांति के साथ विराजमान हैं। हाँ विष्णु ही बाल मुकुन्दम हैं, विष्णु ही श्री पाण्डुनाथ भैरव हैं। उनका लघु कोशमय शरीर प्रलयकाल में भी भगवती दुर्गा सुरक्षित रखती है।

            मार्कण्डेय मुनि ने वह सब कुछ देख लिया जो कि सबके लिए सर्वथा दुर्लभ था तभी जाकर वे दुर्गा सप्तशती की रचना कर पाये, शक्ति के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन कर पाये। शक्ति की विहंगमता क्या है ? शक्ति शक्ति का भक्षण कर जाती है, शक्ति शक्ति में घुल मिल जाती है, शक्ति शक्ति का सृजन कर देती है, शक्ति असंख्य रूपों में विभक्त हो जाती है, शक्ति के असंख्य रूप पुनः एक जुट हो जाते हैं। शक्ति सौम्य भी हो जाती है, इतनी सौम्य कि ऐसा लगता है मानो इससे सौम्य तो कुछ और है ही नहीं परन्तु दूसरे ही क्षण शक्ति उग्र भी हो जाती है, इतनी उग्र कि वह रुद्रचण्डी बन जाती है। शक्ति हँसती है, शक्ति खिलखिलाती है, शक्ति चिल्लाती है, शक्ति क्रोधित होती है, शक्ति मारने दौड़ती है, शक्ति दुलारती है, शक्ति रोती है, शक्ति पगला जाती है, शक्ति बुद्धिमान बन जाती है इत्यादि इत्यादि । यही सब कुछ तो दुर्गा सप्तशती में वर्णित है। शक्ति की अधीनता जीव को स्वीकार करनी ही पड़ती है। 

        शक्ति सुलाती है और शक्ति उठा देती है यही है रात्रि रहस्यम् । शक्ति नाना रूप धरती है, शक्ति कुछ भी बन सकती है दो हाथ, चार हाथ, दो सिर, तीन सिर, एक आँख, तीन आँख, उड़ सकती है, रेंग सकती है, तैर सकती है, जला सकती है फिर भी सबसे परे रहती है। शक्ति के प्रपंच शक्ति ही जाने। सुर भी उसी में से निकलते हैं, सब जगह शक्ति मौजूद है। कितनी विहंगम है शक्ति दो अणुओं के बीच वह कितनी सौम्य लगती है परन्तु दो न दिखने वाले अणुओं के बीच से जब शक्ति विसर्जित होती है तो वह अणु बम बन जाती है। किसके मस्तिष्क में कौन सी शक्ति जागृत हो उठे माँ भगवती ही जाने। मैं किताब पढ़ रहा था श्री गुप्तावतार बाबा की वे प्रचण्ड दुर्गोपासक थे एवं उन्होंने सन 1904 में कुछ तांत्रोक्त संकल्प लिए। उनके संकल्प इस प्रकार के थे ब्रिटिशस्य पलायनम् कुरु, स्वराज्य प्राप्तार्थ श्री चण्डिका अनुष्ठानम्, राष्ट्र एकाकार्थे त्रिशक्ति चामुण्डा अनुष्ठानम् इत्यादि इत्यादि और यही सब हुआ। अचानक चंद्रशेखर आजाद सुभाष चंद्र बोस इत्यादि आ गये, टुकड़ों-टुकड़ों में बंटा भारत वर्ष एक हो गया, स्वतंत्रता की प्राप्ति हुई।

           परन्तु उनसे एक गलती हो गई, उनके एक अनुष्ठान का संकल्प था मलेच्छ शक्ति पलायनम् कुरु और भारत का विभाजन हो गया। यह प्रमाण सहित मंत्रमयी दुर्गा सप्तशती जो कि उनके द्वारा 1903 में लिखी गई थी में वर्णित है। मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि अनुष्ठानों के परिणाम शत प्रतिशत आते हैं। चाहे 1903 में करो या 2021 में शक्ति अनुष्ठानों के माध्यम से क्रियाशील होती ही है। उद्देश्य कुछ भी हो, समय सीमा का कोई महत्व नहीं है। समय तो कम ज्यादा होता ही रहता है। शंकराचार्य जी ने भी श्रीविद्या अनुष्ठान किए उसके परिणाम आज देखने को मिलते हैं। शक्ति केवल तात्कालिक विषय नहीं है, इसके अति दूरगामी परिणाम होते हैं। शाक्तोपासना चलती ही रहती है आपको आना चाहिए। 

       गुरु गोविन्द सिंह जी का उदय, क्षत्रपति शिवाजी का उदय, महाराणा प्रताप का उदय, भगत सिंह का उदय, नेता जी सुभाषचंद बोस का उदय इत्यादि शाक्तोपासना के द्वारा ही सम्पन्न हुआ। शक्ति गर्भ धारण करती ही है, शक्ति पुत्र उत्पन्न करती ही है। सम्भोग करना आना चाहिए यही पुरुषार्थ है। पुरुष को बीज रोपित करना आना ही चाहिए शक्ति तो गर्भिणी होगी ही। अनुष्ठान अपने आप में पुरुषार्थ है। हां नपुंसक, हिजड़े भी होते हैं उनमें पुरुषार्थ नहीं होता अतः वे बस आलोचना करते हैं, वे बीज विहीन होते हैं। बीज विहीन ही नास्तिक होते हैं। नास्तिक कुछ नहीं कुछ नहीं की मानसिकता से ग्रसित होते हैं। पुरुषार्थ शक्ति के साथ प्रणय करने का विधान है। कुछ नवीन, कुछ अद्भुत रचने का प्रयोग है।

भज गोविंदम् ।।

    रावण जैसा ज्ञानी, प्रकाण्ड शिव भक्त अपने जमाने का महान वेदन्ती ब्राह्मण पुरुष इतना नीचे गिर गया कि सीता जी का अपहरण करके ले आया। अपहरण और रावण, लंका में यह स्थिति किसी के गले नहीं उतर रही थी। भला रावण को क्या जरूरत पड़ी अपहरण की ? वह तो महान यौद्धा है, प्रचण्ड शक्तिशाली है, फिर वह इतना तुच्छ कर्म कैसे कर बैठा ? इसके पीछे रावण का एक ही उद्घोष था कि मार विष्णु-मार, उसने सीता हरण जैसा नीच कर्म सम्पन्न कर दिया कि अब तो विष्णु को लोक लज्जा निवारणार्थ मेरा वध करना ही होगा,मुझे मुक्ति देनी ही होगी, यही रावण तंत्र की विशेषता है कि आखिरकार विष्णु जिस स्थिति को टाल रहे थे उसे उसने प्राप्त कर ही लिया।

            राम ने हनुमान को भेजा,अंगद को भेजा उनकी प्रवृत्तियों के विरुद्ध संधि प्रस्ताव हेतु, युद्ध टालने हेतु । हनुमान रुद्रांश हैं फिर भी अपनी प्रवृत्ति के विरुद्ध संधि का प्रस्ताव लेकर गये। लक्ष्मण शेषनाग का अंश हैं वे भी संधि, प्रस्ताव के विरुद्ध थे। वास्तव में राम के साथ सभी युद्ध प्रिय शक्तियां ही थीं। संधि का प्रस्ताव किसी के गले से नीचे नहीं उतर रहा था।इसके विपरीत रावण के आसपास शांतिप्रिय शक्तियां थीं विभीषण समझा रहा था, मंदोदरि समझा रही थी, माल्यवान समझा रहे थे,मेघनाथ भी समझा रहा था परन्तु रावण युद्ध चाह रहा था। 

        एक युग में जय-विजय नाम के विष्णु के दो पार्षद थे, अचानक एक दिन दुर्वासा स्वरूप एक मुनि विष्णु लोक में आये किन्तु विष्णु के दोनों गणों ने उन्हें अंदर प्रविष्ट होने से रोक दिया, उन्होंने श्राप दे दिया कि जाओ विष्णु से तुम्हारा वियोग हो जाये। कालान्तर विष्णु ने श्राप की गरिमा रखते हुए अपने गणों से कहा कि क्या चाहते हो?मुझसे सात जन्मों की दूरी जो कि विष्णु भक्तिपूर्ण होगी या फिर तीन जन्मों की दूरी जिसमें कि तुम विष्णु द्रोही होंगे। दोनों गण बोले हमें तीन जन्मों की ही दूरी मंजूर है चाहे वह विष्णु द्रोह की ही क्यों न हो। विष्णु ने तथास्तु कहा और दोनों गण हिरणयाक्ष और हिरणकश्यप के रूप में उत्पन्न हो गये। विष्णु द्रोह इनके मन में भरा हुआ था,यहाँ पर विष्णु ने फिर माया रची और प्रहलाद को इनके कुल में उत्पन्न कर दिया। विष्णु द्रोहियों के अंश से परम विष्णु भक्त उत्पन्न हो गया अब तो न चाहकर भी प्रतिक्षण विष्णु का नाम ही हिरणकश्यप के मुख पर था। 

         यह भी एक विधान है,शत्रु का नाम तो मुख पर होता ही है, शत्रु का नाम लेने में भीषण कष्ट होता है,तप तो इसमें भी हो जाता है। नास्तिक भूल क्यों नहीं जाते ? विरोधी भूल क्यों नहीं जाते ? बहुत से लोग किसी विशेष गुरु या देव शक्ति को गाली देते रहते हैं,अपशब्द बोलते रहते हैं, बेमतलब में चिंतन करते रहते हैं। यह उन बेचारों की शाप ग्रस्तता होती है। एक व्यक्ति मुझे मिला वह बस मेरे गुरु के नाम से रोता रहता है, मैंने उससे कहा चार वर्ष हो गये उन्हें शरीर त्यागे और तू बीस वर्ष से उनके नाम से क्यों रोता रहता है? भूल क्यों नहीं जाता, जाकर कहीं और अपना मुँह काला क्यों नहीं करता?जब देखो तब रो-रोकर उनका नाम रटता रहता है। तू उन्हें नहीं मानता, उनके प्रति श्रद्धा नहीं है, उनके कारण कष्ट है तो अब भूल जा क्यों नहीं वे तेरे दिमाग से निकलते?चौबीसों घण्टे उलट क्रिया के माध्यम से तू क्यों उन्हें रटता रहता है? उसके तू पास कोई जबाव नहीं था। 

        ऐसा ही होता है, राम को प्रस्थान किये पता नहीं कितने हजार वर्ष हो गये, कृष्ण को प्रस्थान किये युगो बीत गये, अनंत जनमानस उनकी भक्ति में लीन रहता है फिर भी कुछ शापित, अभिशप्त नास्तिक जगत में बैठकर उन्हें उलट माध्यम से भजते रहते हैं। यह उनका श्राप है। ईश्वर का सबसे बड़ा दण्ड मनुष्यों को क्या है ? एक दिन रात्रि में दो बजे चिंतन कर रहा था, जब दुनिया सोती है तभी वास्तविक चिंतन होता है। ईश्वर है सबको मालुम है, भगवान है सबको मालुम है, उन्हें प्रमाणित करना,अप्रमाणित करना यही दर्शाता है। कि ईश्वर सर्वत्र हैं परन्तु मनुष्य को दण्ड यह है कि जिससे वह परम प्रेम करता है, जिसे देखने के लिए उसकी आँखें तरसती हैं, जिसका स्पर्श करने के लिए वह आतुर रहता है, जिसकी शरण में वह जाना चाहता है वही उसे चर्म चक्षु से दिखाई नहीं देता, उसी से वह बातचीत नहीं कर पाता, उसी के सानिध्य में वह नहीं रह पाता, यह न्यूनता है शरीर की, यह न्यूनता है पंचेन्द्रियों की। 

           मानव जगत का सारा गुस्सा, सारा क्षोभ ईश्वर पर सिर्फ इसी कारणवश है। नास्तिकता सिर्फ इसी कारणवश है।नास्तिक अंदर से बड़े वेदनामयी होते हैं,भक्ति का यह रूप अत्यंत ही कष्ट एवं पीड़ादायक है, नास्तिकता इसीलिए बनाई गई है।सामान्य मनुष्यों को नास्तिकता प्राप्त नहीं होती,यह तो असामान्य मनुष्यों को प्राप्त होती है। असमान्य को असमान्य स्थिति ही विष्णु देते हैं। 

हिरणकश्यप ने भी वही घिसी-पिटी बात कही कि कहाँ है विष्णु, प्रत्यक्ष दिखा प्रहलाद प्रहलाद के गुरु को हिरणकश्यप पकड़ लाया था वह कहने लगा कि इसी गुरु ने मेरे पुत्र को विष्णु भक्ति सिखाई है अतः इसे मृत्युदण्ड मिलना चाहिए परन्तु प्रहलाद ने कहा नहीं मेरे गुरु ने विष्णु भक्ति नहीं सिखाई है मैं स्वयं इसे करता हूँ। हिरणकश्यप विष्णु का अनुसंधान कर रहा था परन्तु आज पराकाष्ठा का समय आ पहुँचा वह बोला कहाँ है विष्णु ।

         हिरणकश्यप ने ॐ नमः शिवाय का जप कर शिव से अनेकों माध्यमों से अपनी मृत्यु को कवचित कर लिया था परन्तु अचानक भक्त की रक्षा हेतु खम्भा फाड़कर नरसिंह अवतार के रूप में विष्णु प्रकट हो गये। हिरणकश्यप को जाँघों पर लिटा उसका पेट फाड़ डाला एवं उसकी आँतें अपने गले में माला के समान लपेटं लीं, प्रत्यक्षीकरण हो गया। यह बात इसलिए लिखी कि नरसिंह स्तोत्र केवल शिष्यों के लिए बना है। नरसिंह स्तोत्र का उत्कीलन केवल गुरु की रक्षा, धर्म की रक्षा और नास्तिकों के विनाश के लिए ही किया जाता है। विष्णु तंत्र का अतिमहत्वपूर्ण भाग है नरसिंह स्तोत्र, नरसिंह के रूप में भगवान विष्णु की शक्ति धर्म रक्षार्थ, गुरु रक्षार्थ प्रकट होती है। 

         पद्मपाद ने नरसिंह स्तोत्र के माध्यम से ही अपने गुरु आदि शंकराचार्य जी के ऊपर किये गये तांत्रिक प्रयोगों को नष्ट किया था। कामाख्या में एक दुष्ट तांत्रिक ने आदि गुरु शंकराचार्य जी से दीक्षा लेकर उन्हीं पर मारण प्रयोग किया, आदि शंकर का शरीर सूख गया, वे भगन्दर की गम्भीर बीमारी से ग्रसित हो गये। वे लाचार थे, जानते हुए भी तांत्रिक का अनिष्ट नहीं कर पा रहे थे क्योंकि उसने शिष्यता जो ग्रहण कर ली थी तब पद्मपाद ने नरसिंह साधना के द्वारा उस तांत्रिक को मृत्यु प्रदान की थी। दक्षिण में जब एक कापालिक वरदान के माध्यम से शंकराचार्य जी का शीश काटने वाला था तब भी नरसिंह साधना के माध्यम से पद्मपाद ने उसका मर्दन किया था। नरसिंह साधना प्रचण्ड आवेशात्मक है एवं साधारणतया इसका उपयोग नहीं किया जाता। ठीक इसी प्रकार परशुराम साधना भी नहीं की जाती क्योंकि इसमें क्रोध का अद्भुत सम्मिश्रण है। 

        कलियुग में विष्णु अवतार के रूप में राम, कृष्ण, बुद्ध की ही साधना ज्यादा श्रेयष्कर और हितकर है। हिरणकश्यप और हिरणयाक्ष पुनः रावण एवं कुम्भकरण के रूप में त्रेता युग में एक बार पुनः उपस्थित हुए और राम के हाथों मृत्युप्राप्त कर पुनः बैकुण्ठ धाम में परम वैष्णव पद पर आरूढ़ हुए। . सृष्टि का एक विधान है इसमें जन्म मृत्यु का एक चक्र चलता रहता है इस चक्र में जीव अपने कर्मानुसार फल को प्राप्त करते हुए विभिन्न योनियों में जन्म लेता रहता है। कर्म की व्यवस्था विष्णु के द्वारा रचित है। अधिकांशतः वे इस व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करते, यह कार्य धर्मराज एवं चित्रगुप्त सम्हालते हैं। ॥ श्री चित्रगुप्ताय नमः ॥ अनेकों देवी देवता हैं एवं उनमें लोलुपता है, कर्म भ्रष्टता है, शाप ग्रस्तता भी है। विष्णु भी शापित हो जाते हैं, दुर्वासा भी शापित हो जाते हैं, इन्द्र तो शापित होते रहते हैं, यमराज भी शापित हुए हैं परन्तु चित्रगुप्त आज तक शापित नहीं हुए, चित्रगुप्त आज तक भ्रष्ट नहीं हुए, . चित्रगुप्त आज तक लोलुप नहीं हुए। 

       हमारी पृथ्वी पर तो हत्या करो अदालत से छूट जाओ, चोरी करो और नेता बन जाओ, भ्रष्ट आचरण करो और सत्ता सुख भोगो इत्यादि सब कुछ चलता रहता है परन्तु चित्रगुप्त के यहाँ जब खाता खुलता है तो कर्मों का एक-एक चित्र चाहे वह सात तालों के पीछे छिपकर सम्पन्न क्यों न किया गया हो चित्रगुप्त के खाते में दर्ज होता है। यहाँ पर उलटफेर सम्भव नहीं है, यहाँ पर झूठ को सच दिखाना असम्भव है। उनका नाम ही है चित्रगुप्त अर्थात जीव के गुप्त से गुप्त चित्र भी उनके खाते में दर्ज होते ही हैं। नर्क मिलना हैं या स्वर्ग, विष्णु लोक मिलना है या शिव लोक, साधु के वेश में चोर तो नहीं है इत्यादि का फैसला चित्रगुप्त के यहाँ हो ही जाता है, कोई इससे नहीं बच पाता और कर्मानुसार चित्रगुप्त हिसाब किताब बता देते हैं एवं जीवात्मा को आगे की यात्रा तय करनी पड़ती है।

           सबसे गोपनीय, सबसे विश्वसनीय, सबसे महत्वपूर्ण विष्णु तंत्र में चित्रगुप्त का पद है। कर्म की व्याख्या जो प्रभु श्रीकृष्ण ने गीता में की है वह पूरी की पूरी चित्रगुप्त की ईमानदारी पर टिकी हुई है अगर सोचें कि चित्रगुप्त के पद पर इस पृथ्वी के समान भ्रष्ट, घूसखोर, लोलुप, आधे अधूरे स्वार्थी तत्व विद्यमान हो जायें तो असुर प्रवृत्ति के जीव स्वर्ग पहुँच जायेंगे, नर्क के कीड़े बैकुण्ठधाम में घूमेंगे और सृष्टि समाप्त हो जायेगी। अतः विष्णु सदैव चित्रगुप्त की मर्यादा की रक्षार्थ सक्रिय रहते हैं परन्तु इसके अलावा इस भूमण्डल पर विशेष कारणों से, विशेष परिस्थितियों में कुछ समय के लिए अनेक दिव्य ग्रहों एवं लोकों से विभिन्न आत्म्मएं शाप ग्रस्ततावश आज्ञावश, तपवश विशेष कार्य हेतु अंशात्मक रूप से उदित होती है। यह एक विशेष दर्जा है, एक विशेष श्रेणी है अतः इनकी मुक्ति हेतु, इनकी कर्म बाद्धयता समाप्ति हेतु, पुनः शुद्धता हेतु विष्णु तंत्र में अनेकों व्यवस्थायें हैं, अनेकों उद्धारक स्थितियां अनुष्ठान, व्रत इत्यादि हैं।

        एकादशी व्रत का महत्व अपने आपमें अद्भुत है। पाप और पुण्य की व्यवस्था से जीव जगत बाधित है, सामान्य कार्यों से सामान्य पाप और पुण्य फल के रूप में उदित होते हैं। विष्णु भक्ति का इतना महत्व है कि कई बार तो चित्रगुप्त भी वैष्णव जनों की भक्ति से उत्पन्न हुए पुण्यों का हिसाब' रखने में अक्षम साबित होते हैं अतः ऐसी स्थिति में उच्चता का निर्माण होता है और तब जीवात्मा के शरीर त्यागते समय दिव्य विमान विष्णु लोक से आते हैं, ब्रह्मलोक से आते हैं, देवी लोक से आते हैं, शिव लोक से आते हैं एवं दिव्य आत्माएं उन पर आरूढ़ हो अपने अपने मूल लोकों को गमन करती हैं। 

 कुबेर प्रतिदिन भगवान शिव की ब्रह्मकमलों से पूजा करते थे, उन्हें ब्रह्म मुहूर्त में हेममाली नाम का यक्ष पुष्प लाकर देता था। हेम माली की पत्नी अत्यंत सुन्दर थी, वह उसमें बुरी तरह आसक्त था। कुबेर एक दिन बैठे रह गये, वह पुष्प लेकर ही नहीं आया। कुबेर ने यक्षों को भेजा तो पता चला हेममाली पत्नी के साथ सो रहा है। कुबेर को क्रोध आ गया वे बोले मूर्ख मैं यहाँ शिव पूजन के लिए बैठा हूँ और तू रूप में उलझा हुआ है जा रूप विहीन हो जा। गलती तो हेममाली से हो गई थी अतः वह विकृत हो, सम्पूर्ण शरीर में कोढ़ ग्रस्तता से ग्रसित हो वन में छिपकर दण्ड भोगता हुआ घूमने लगा। अचानक लोमश ऋषि की शरण में पहुँच गया, गिड़गिड़ाने लगा, लोमश द्रवित हो गये। 

        लोमश ऋषि का सम्पूर्ण शरीर बालों से आच्छादित है उनका एक रोम एक कल्प में गिरता है, कितनी नित्यता है उनमें आपके बाल तो दिन भर गिरते रहते हैं। विष्णु नित्यता का प्रतीक हैं, वे वृद्धता को भगाते हैं। लोमश बोले जा एक वर्ष एकादशी का पूर्ण श्रद्धा के साथ व्रत कर एवं पीपल के वृक्ष में प्रतिदिन जल चढ़ा, श्राप ग्रस्तता से मुक्त हो जायेगा। हेममाली ने ऐसा ही किया एवं एक वर्ष बाद पुनः वह कुबेर की सेवा में उपस्थित हुआ। कुबेर आश्चर्य चकित हो गये कि यह क्या ? यह तो शाप बंधन से मुक्त हो गया। 

         इन्द्र की सभा में दो अप्सरायें नृत्य कर रही थीं नृत्य करते-करते कुछ सोचने लगीं, इन्द्र ने श्राप दे दिया जाओ वनस्पति जाओ। दोनों बेचारी बबूल का पेड़ बन पृथ्वी लोक में आ गईं अचानक एक दिन एक वैष्णव संत दोनों पेड़ों के बीच सो गये, उनके स्पर्श से उनकी शाप मुक्तता हो गई और पुनः इन्द्रलोक को प्राप्त हुई। कर्म के बंधन बनाते हैं विष्णु कर्म की व्याख्या करते हैं विष्णु कर्म के आधार पर चलाते हैं विष्णु और कर्म बंधनों से मुक्ति भी दिलाते हैं विष्णु, कर्म के पाशों को काटते हैं विष्णु क्या पृथ्वी कारागृह है ? क्या पृथ्वी शापित मनुष्यों का प्लेटफार्म है? क्या है यह ? आखिरकार पृथ्वी पर जीव क्यों आता है ? मैं क्या जानूं ? मैं खुद पृथ्वी पर भटक रहा हूँ। हाँ बस इतना कह सकता हूँ कि गीता पढ़ो शायद तुम्हें तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाये। निश्चित ही मिलेगा, नहीं तो विष्णु से पूछो।

माँ दुर्गा ।।

       मनुष्य का शरीर असंख्य दुर्गरूपी लघु कोशिकाओं से निर्मित है, मनुष्य के मस्तिष्क में असंख्य अत्यंत गूढ़ लघु कोशिकाएं हैं। जितनी कोशिकाएं उतने बिजलीघर एवं प्रत्येक कोशिका किसी न किसी प्रकार की शक्ति का
उत्पादन कर रही है परन्तु इन सबमें एक अद्भुत संयोजन है। यह संयोजन कौन कर रहा है? इन सबको एक सूत्र में कौन बांधे हुए हैं? इन सबको कौन समय-समय पर क्रियाशील कर रहा है, स्व चलित कर रहा है, बंद और चालू कर रहा है, आदेशित कर रहा है, किसके भय से ये सब एकसूत्र में बंधी हुई हैं यह सोचने का विषय है एवं यही श्री दुर्गा सप्तशती रहस्यम है। 

        श्री दुर्गा सप्तशती में भगवती दुर्गा देवासुर संग्राम में ब्रह्माण्ड की सभी शक्तियों की नायिका बनी हुई हैं और उन्हीं के नेतृत्व में प्रत्येक शक्ति अपनी क्षमता एवं योग्यतानुसार युद्ध को तत्पर है। जब हम इस सिद्धांत को समझ जाते हैं तब हमें पराम्बा के परम प्रज्ञावान होने का भाव होता है, उनकी दैवीय विलक्षणता का हमें आभास होता है और हम शाक्तोपासक बनते हैं। दैवीय बल के अभाव में शारीरिक बल, भौतिक बल, स्थूल बल इत्यादि पशुतुल्य हो जाते हैं, पशु प्रवृत्ति से ग्रसित हो जाते हैं और कालान्तर आसुरी बल में परिवर्तित हो जाते हैं। आसुरी बल का अंत आत्मघात है। आसुरी बल का विसर्जन स्वघात के माध्यम से ही सम्पन्न होता है अतः जिस मानव समुदाय ने दैवीय बल के महत्व को समझा, उसका अनुसंधान किया, उसकी स्तुति की, उसके द्वारा स्वयं को संचालित किया वही भविष्य में अति विकसित मानव के रूप में उदित हुआ है। 

        भगवती दुर्गा त्रिनेत्रा हैं अतः वे शैव कुल की परम शक्ति हैं। आपका दाहिना नेत्र सूर्य, बांया नेत्र चंद्रमा एवं तीसरा नेत्र अग्नि का प्रतीक है। तीनों नेत्रों का तात्पर्य यह है कि आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रतिक्षण किसी भी अवस्था में निहार सकती हैं। आपकी दृष्टि ब्रह्माण्ड के कण-कण पर है। प्रत्येक लोक में प्रत्येक प्रकार के कोशमय जीवन की आप रक्षिका हैं। जीवात्मा कोशमय जीवन की आदि है एवं प्राण और कोश का चोली दामन का साथ है। 36 भुवनों का निर्माण जब पराम्बा ने अपने लीला प्रपंच को विस्तारित करने के लिए किया तब इन 36 कोश रूपी दुर्गों की व्यवस्था बनाने के लिए, उन्हें सुदृढ़ करने के लिए वे दुर्गा के रूप में अवतरित हुईं। 36 भुवनों में से प्रत्येक भुवन रूपी दुर्ग की संरक्षिका, द्वारपालिका दुर्गा ही हैं। जीवन चूंकि कोश आधारित हो गया है अतः कोश में उसकी दुर्गति न हो, कोश के साथ उसका समन्वय बना रहे, कोश स्वयं समय परिस्थिति अनुसार जीवात्मा के लिए विकसित, प्रसारित होता रहे इसकी जिम्मेदारी भी दुर्गा पर आती है ।

           एक कोश से या एक भुवन से दूसरे भुवन तक की दुर्गम यात्रा सुगम हो सके इसके लिए भी भगवती के दुर्गा स्वरूप की स्तुति की जाती है। मनुष्य स्वयं एक लघु ब्रह्माण्ड है और इसकी क्रियाशीलता शक्ति अनुसंधान पर टिकी हुई है। शक्ति अनुसंधान की प्रवृत्ति निरंतर बनी रहे इसलिए भगवती दुर्गा चुनौतियाँ, युद्ध, विषम परिस्थितियाँ, मुसीबतें, दुर्गमताए रचती रहती हैं एवं इन्हीं को ध्यान में रखकर मनुष्य शिथिलता छोड़कर क्रियाशील बना रहता है और नित नये शक्ति संबंधित अनुसंधान प्रत्येक तल पर सम्पन्न करता रहता है ।समस्त ब्रह्माण्ड शक्ति की ही स्तुति कर रहा है एवं आज तक कोई शक्ति का वास्तविक उत्पादन नहीं कर पाया है, कोई भी शक्ति का सृजन नहीं कर पाया है, कोई शक्ति का अविष्कार नहीं कर पाया है अपितु उसने शक्ति का अर्जन करने की चेष्टा की है, स्वयं को शक्ति के अनुरूप ढाला है। 

        शक्ति कहाँ से आती है? शक्ति कहाँ उत्पन्न हो रही है ? यह कोई नहीं जानता। डॉ. जगदीश चंद्र बसु ने एक अद्भुत यंत्र बनाया एवं उसमें उन्होंने चाँदी के तार की शक्ति नापने की कोशिश की। उन्होंने देखा कि कुछ घण्टों पश्चात अचानक यंत्र रुक गया क्योंकि चाँदी थक गई और उसे कुछ समय लगा पुनः शक्तिकृत होने में तब जाकर वह पुन: क्रियाशील हुई। उन्होंने रत्नों पर भी प्रयोग किए और पाया कि रत्न भी मर जाते हैं। उन्होंने कुछ रत्नों को विष में डुबो दिया और पाया कि रत्न मर गये, बुझ गये, उनमें शक्ति संचार बंद हो गया। उन्होंने पेड़ों पर प्रयोग किया और देखा कि पेड़ हँस रहे हैं, पेड़ रो रहे हैं, पेड़ भी मनुष्यों के समान डर रहे हैं। एक विशेष प्रकार की चैतन्यता उन्होंने रत्नों में, जल में, वायु में, पेड़-पौधों में, धातुओं इत्यादि में पायी । उन्होंने देखा कि धातु भी रोती है, धातु भी डरती है, धातु भी सोती है, धातु भी थकती है अर्थात जो कुछ मनुष्यों में हो रहा है, जो संवेग मनुष्यों में हैं वो ही संवेग रत्नों, धातुओं, पेड़ पौधों में भी हैं बस फर्क इतना है कि कुछ हद तक मनुष्य अन्यों की अपेक्षा कुछ ज्यादा प्रखरता से अपने इन्द्रिय विकास के द्वारा संवेगा का प्रकट करने में सक्षम है।

       डॉ. जगदीश चंद्र बसु ने 2 घड़ियाँ बनाई। एक घड़ी उन्होंने मंदिर में लगाई और एक घड़ी उन्होंने कारखाने में लगाई। कारखाने में लगी घड़ी जहाँ प्रदूषण, शोर-शराबा इत्याद था वहाँ पर कुछ ही दिनों में गलत समय बताने लगी अर्थात पीछे चलने लगी एवं दूसरी ओर जहाँ वेद-मंत्रों, पवित्र आवृत्तियों इत्यादि का गुंजन हो रहा था वहाँ पर लगी हुई घड़ी वर्षों तक सही समय बताती रही, कभी खराब नहीं हुई । डॉ. जगदीश चंद्र बसु ने दो वृक्ष लिए एक वृक्ष उन्होंने सड़क के किनारे लगा दिया और दूसरा वृक्ष घर में लगाया। घर में लगे हुए वृक्ष को उन्होंने पवित्र जल से सींचा, उसके सामने शक्ति संबंधित दिव्य कवचों एवं स्तोत्रों का पठन किया । ऐसा वृक्ष अति अल्प समय में पूर्ण रूप से विकसित होकर फल देने लगा, उसमें पुष्टि हो गई एवं दुर्गा तत्व का उसमें विकास हो गया । विज्ञान भी आज वैज्ञानिक दृष्टि से परा शक्तियों की महिमा का यशोगान कर रहा है।

ऐं ऐं ऐं

         परम मातृ उपासक भगवान शंकराचार्य बद्रीनाथ, केदारनाथ, काशी, मथुरा, उड़ीसा, मध्यभारत, महाराष्ट्र, कन्याकुमारी इत्यादि से लेकर देश के अनेक भागों में देशाटन करते रहे एवं अधर्म के एक-एक दुर्ग को ध्वस्त करते रहे परन्तु सनातन धर्म के दुर्ग की स्थापना हेतु उन्हें आध्यात्मिक रूप से परम पवित्र एवं अभेद स्थान प्राप्त नहीं हो रहा था जहाँ कि वे भगवती त्रिपुर सुन्दरी के अभेद दुर्ग की स्थापना कर सकें, अपना प्रथम मठ स्थापित कर सकें। इसी उहापोह में वे आसाम गये, नेपाल गये परन्तु वहाँ पर भी उन्होंने अपने मठ की स्थापना नहीं की आखिरकार घूमते-घूमते दक्षिण भारत में एक दिव्य स्थान पर पहुँचे। 

         रात्रि को वे विश्राम कर रहे थे कि अचानक भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने उन्हें अष्टभुजी दुर्गा के रूप में दर्शन दे दिए कुछ समय पश्चात् वे महाकाली बन गईं, कुछ ही क्षणों पश्चात् वे महालक्ष्मी के रूप में प्रकट हो गईं और देखते ही देखते भगवती त्रिपुराम्बा ने अपने महासरस्वती रूप का भी प्राकट्य कर दिया अर्थात रात्रि की स्वप्नावस्था में भगवान शंकराचार्य को एक साथ त्रिशक्ति के दर्शन हो गये और उनके कानों में शंख, घण्टे, मृदंग इत्यादि की दिव्य ध्वनियाँ स्वतः ही सुनाई पड़ने लगीं। उनके मुख से स्वतः ही नवार्ण मंत्र अर्थात ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै प्रस्फुटित होने लगा। वे उठकर बैठ गये और इसी नवार्ण मंत्र को पढ़ते हुए रात्रि के लगभग 4 बजे वे नदी तट की तरफ चल पड़े, उन्हें ऐसा लगा मानो कोई दिव्य शक्ति स्वतः ही उन्हें किसी दैवीय कार्य हेतु स्थान विशेष पर ले जा रही हैं तभी सामने वे एक अद्भुत दृश्य देखते हैं। एक गर्भिणी मेंढकी बड़े आराम से बैठी हुई है और उसके ऊपर एक विशाल सर्प फण ऊपर करके उसे छाया प्रदान कर रहा है, उसकी रक्षा कर रहा है। 

         भगवान शंकराचार्य यह दृश्य देखकर रोमांचित हो उठे, सामान्यत: मेंढक सर्प का प्रिय भोजन है और मेंढक को देखते ही सर्प उसका भक्षण कर अपनी भूख को शांत करता है परन्तु यहाँ पर तो ब्रह्माण्ड के सबसे विषैले प्राणी सर्प में भी उन्हें मातृकोपासना स्पष्ट दिखाई दी अर्थात वह अपनी क्षुधा को भूल अपनी प्रकृति के ठीक विपरीत गर्भिणी मेंढकी की रक्षा कर रहा था, उसे आश्रय प्रदान कर रहा था। भाव विभोर शंकराचार्य कह उठे “भजं भवानी जपं भवानी नमः भवानी नमः भवानी" और दूसरे ही क्षण उन्होंने वहाँ पर अपना दण्ड गाड़ दिया बस हो गई दुर्ग की स्थापना हाँ यह दैवीय दुर्गा तत्व से युक्त प्रत्यक्ष क्षण सनातन धर्म के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण क्षण था और इस प्रकार अंगेरी में शंकराचार्य जी ने अपने प्रथम मठ की स्थापना की। भगवान शंकराचार्य जी को अपना दुर्ग मिल गया, उसकी रक्षिका दुर्गा मिल गईं तब से लेकर आज तक शंकराचार्य जी द्वारा स्थापित इस अभेद दुर्ग से सनातन धर्म की अविरल गंगा प्रवाहित हो रही है और एक बार पुनः सम्पूर्ण भारतवर्ष अपनी आध्यात्मिक क्षुधा को मिटाकर पूर्ण तृप्त हो गया। यहीं पर भगवान शंकराचार्य जी ने श्रीयंत्र की स्थापना की, ललिताम्बा की स्थापना की।

         हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी आप इस ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी प्रायोजिका हैं। आप ही आयोजन करती हैं, आप ही प्रायोजन करती हैं ब्रह्माण्ड विलास का सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में आपके इशारे पर ही नृत्यगान होता है, जब जैसा चाहती हैं वैसा प्रायोजन आप सृष्टि में करती रहती हैं। मणिद्वीप के भव्य रत्न मंडप में भगवती त्रिपुर सुन्दरी विद्यमान हैं अचानक उन्हें तेज-तत्व के प्रायोजन का विचार आ गया और वे तेजोमय हो उठीं। आपके नेत्र ऊर्ध्व की तरफ उठ गये, आप अपने कोमल मेरुदण्ड को सीधा करके तेजोमय मुद्रा में बैठ गईं। दूसरे ही क्षण आपके प्रत्येक अंग से तेज तत्व का प्रवाह होने लगा। आपके रोम-रोम, अंग-अंग से निकले विभिन्न तेज पुंजों ने मिलकर एक दिव्य तेज पुंज का निर्माण किया और दूसरे ही क्षण आप अष्ट भुजी दुर्गा के रूप में मणिद्वीप में प्रतिष्ठित हो गईं। 

            हे भगवती आपके 6 हाथ दिव्य शस्त्रों को धारण किए हुए थे और एक हाथ वर मुद्रा में था तो दूसरा हाथ अभय मुद्रा में था। आपका तेजोमय मुख मण्डल मंद-मंद मुस्कुरा रहा था तभी आपने तेज तत्व से कुछ अलौकिक पुरुषों के प्रायोजन का विचार किया और देखते ही देखते आपके दाहिने हाथ के अंगूठे से प्रथम अवतार अर्थात मत्स्य अवतार सृष्टि में उत्पन्न हो गया जिसने शंखासुर को मारकर वेदों की रक्षा की, उसी हाथ की तर्जनी अंगुली के नख से दूसरा कूर्म अवतार हुआ जिसने मंदराचल को पीठ में धारण कर अमृत मंथन सम्पन्न किया, उसी हाथ की मध्यमा के नख से तीसरा वाराह अवतार हुआ जो इस पृथ्वी को मुख पर धारण कर पाताल से ले आये और हिरण्याक्ष का वध किया। उसी हाथ की अनामिका के नख से चौथा नरसिंह अवतार हुआ जिसने प्रहलाद की रक्षा की और हिरण्यकशिपु का वध किया, उसी हाथ की कनिष्ठा के नख से वामन अवतार हुआ उसने बलि से तीन पग भूमि मांगी तथा दैत्यों को पाताल भेजा।

         ठीक इसी प्रकार आपके बायें हाथ के अंगूठे के नख से छठा परशुराम अवतार हुआ जिन्होंने 21 बार भूमि को क्षत्रीय रहित किया, हे दुर्गे आपके वाम हाथ की तर्जनी के नख से सातवा रामावतार हुआ जिन्होंने युद्ध में रावण को मारा और सीता की रक्षा की, मध्यमा के नख से आठवां कृष्णावतार हुआ जिन्होंने गोपागंनाओं के साथ अनेक क्रीड़ाएं की और कंसादि दैत्यों का विनाश किया। हे दुर्गे आपकी इसी हाथ की अनामिका के नख से नवाँ बौद्धावतार हुआ जिन्होंने मनुष्यों को स्वाश्रमगामी बनाया, हे दुर्गे आपके बायें हाथ की कनिष्ठा के नख से घोर कलयुग में दसवां अश्वावतार होगा जो अपने खुराघात से संहार करके पृथ्वी को बराबर कर देगा। हे दुर्गे इस प्रकार आप विष्णु के दसों अवतारों की प्रयोजिका हैं और जब-जब अधर्म बढ़ता है तब- तब आपके विभिन्न चरण कमलों, हस्तकमलों के नखों से अनेकों रुद्रावतार, विष्णु अवतार, भैरव अवतार इत्यादि प्रादुर्भावित होते हैं और अपने जीवनकाल में आपकी उपासना कर आपके द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को पूर्ण करते हैं अर्थात असुरों का विनाश करते हैं, धर्म की स्थापना करते हैं, युद्ध का महाआयोजन सम्पन्न करते हैं। 

        सर्व विदित है कि रावण से युद्ध करने से पूर्व भगवान श्रीराम ने रुद्र चण्डी की उपासना की, महाभारत के युद्ध से पूर्व वायव्य कोण में मुख करके अर्जुन ने कृष्ण के आदेश पर दुर्गा स्तुति सम्पन्न की। परशुराम, वामन इत्यादि सभी ने युद्ध से पूर्व हे भगवती दुर्गे आप ही की उपासना की, नरसिंह अवतार ने तो साक्षात् सिंह रूप धारण किया जो कि हे भगवती दुर्गा आपका वाहन है। हे भगवती दुर्गे जब भगवान शंकराचार्य इस पृथ्वी पर उदित हुए तो उनकी दाहिने हाथ की भुजा पर त्रिशूल का निशान स्पष्ट अंकित था, हे शूलिनी दुर्गे इसलिए वे सर्वत्र विजयी हुए। हे शूलिनी दुर्गे तू तो अपने अवतारों को त्रिशूल देती है जिसके द्वारा वे असुरों को शूल प्रदान करते ही हैं। हे शूलिनी दुर्गे जब भगवान शिव दिव्य महाकैलाश में आनंद क्रीड़ा करते हैं तब आप दिव्य महाकैलाश के वायव्य कोण में स्थित द्वार की प्रमुख द्वार पालिका बनती हैं। 

         दिव्य महाकैलाश के वायव्य कोण का द्वार अत्यंत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि जितने भी ऋषि-मुनि, सात्विक प्रवृत्ति के साधक, संत इत्यादि होते हैं वे इसी कोण में मुख करके अपने इष्ट की आराधना करते हैं। ब्रह्मा की आराधना, विष्णु की आराधना, विष्णु के प्रत्येक अवतार की आराधना, इन्द्र की आराधना, कुबेर की आराधना इत्यादि वायव्य कोण में मुख करके ही की जाती है। अनेकों ब्रह्माण्डों के महाविष्णु, महाब्रह्मा, महाइन्द्र, महाकुबेर इत्यादि हे दुर्गे आपके इसी द्वार पर आकर हाथ जोड़कर विनम्र शब्दों में आपकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे माँ मेरा ये भक्त बड़ी ही निष्ठा से, अनेक वर्षों से मेरी उपासना कर रहा है और मैं इसे संसार समस्त सुख, ऐश्वर्य, स्वलोक, धन, सिद्धियाँ इत्यादि देने को तैयार हूँ परन्तु यह मानता ही नहीं है। मेरा यह भक्त मोक्ष मांग रहा है, कामेश्वर शिव एवं कामेश्वरी त्रिपुर सुन्दरी के सायुज्य के दर्शन मांग रहा है। यह मैं इसे कैसे दूं? यह मेरे अधिकार क्षेत्र से बाहर की मांग है अतः अपने भक्त की याचना लेकर हे दुर्गे मैं आपसे याचना कर सकता हूँ कि आप मेरे भक्त की याचिका पर मेरी याचना के साथ स्वीकृति प्रदान करें, मेरी लाज रखें अन्यथा भक्त का मुझ पर से विश्वास उठ जायेगा तब जाकर हे दुर्गे आप महाविष्णुओं, महाब्रह्माओं, महाइन्द्रों, महाकुबेरों इत्यादि पर कृपा करती हैं एवं उनके भक्तों के साथ-साथ उन्हें भी दिव्य महाकैलाश एवं मणिद्वीप के वायव्य कोण से उन्हें दिव्य शिवलोक और मणिद्वीप में प्रवेश प्रदान करती हैं।

           हे अष्टभुजी दुर्गे आपका दिव्य स्वरूप श्रीयंत्र नुमा मणिद्वीप के वायव्य कोण का रक्षक है जब-जब सृष्टि के किसी भी ब्रह्माण्ड में विपत्ति आती है, असुरों का आतंक फैलता है, देव निधियों का हरण होता है, देव शक्तियाँ पदविहीन होती हैं तब-तब हे अष्टभुजी दुर्गे, आप ही के अंशांश से अनेकों दुर्गा सिद्धियों का प्राकट्य होता है और वे उस ब्रह्माण्ड विशेष में पुन: देव शक्तियों की सहायता करती है। हे दुर्गे मणिद्वीप में आप 10 भुजी दुर्गा हैं एवं अपनी दसों भुजाओं से भगवती त्रिपुर सुन्दरी के मणिद्वीप की दसों दिशाओं की रक्षा करती हैं तो दूसरी तरफ आप दिव्य शिवलोक महाकैलाश पर अष्टभुजी दुर्गा के रूप में प्रतिष्ठित हैं और दिव्य कैलाश की रक्षा अपनी आठों भुजाओं से करती हैं। चतुभुर्जी विष्णु के बैकुण्ठलोक में आप चार भुजाओं से युक्त हैं और बैकुण्ठ लोक की चारों दिशाओं की रक्षा आप अपनी चारों भुजाओं से करती हैं। 

        हे दुर्गे आप दसों महाविद्याओं के साथ चलती हैं, दसों महाविद्याओं के प्रत्येक यंत्र में भगवती दुर्गा की स्थापना है एवं इसका भी बड़ा विचित्र महत्व है। दसों महाविद्याओं के पूजन से पूर्व जैसे ही साधक द्वार पूंजन प्रारम्भ करता है उसे क्षेत्रपाल के साथ भगवती के दुर्गा स्वरूप की भी पूजा करनी पड़ती है तब जाकर उसकी पूजा दसों महाविद्याएं स्वीकार करती हैं एवं साधक के दिव्य मंत्रोच्चार दसों महाविद्याओं के बिन्दु तक पहुँचते हैं अन्यथा भगवती दुर्गा मंत्रोच्चारों को बिन्दु तक पहुँचने ही नहीं देगीं बीच में ही नष्ट कर देगीं। देवासुर संग्राम के समय हे भगवती दुर्गे आपने सिर्फ ‘‘हुं" शब्द का उच्चारण करके असंख्य दैत्यों को मार दिया था, आपके घण्टे के नाद से ही असंख्य असुरों के कर्ण फट् गये थे और वे रक्त वमन करने लगे थे, आपके धनुष की टंकार से ही असंख्य दैत्यों के हृदय की धमनियाँ फट् गईं थीं और वे रक्त वमन करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए थे। हे दुर्गे तेरे तांत्रिक महत्व के बारे में क्या कहूं? जो साधक “ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे" मंत्र का जप मात्र दिन में 21 बार करता है उसके मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक आप स्वच्छंद रूप से प्रतिश्वास विचरण करती हैं और उसके षटचक्रों में विराजमान एक-एक नकारात्मक शक्ति को दुर्गति प्रदान करती हैं।

           मैं आपका एक तुच्छ साधक हूँ फिर भी आपके मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक के स्वच्छंद गमन पर कुछ कहने की धृष्टता कर रहा हूँ कृपया क्षमा करें। एक मनुष्य 24 घण्टों में केवल 21 हजार 600 बार श्वास लेने का अधिकारी है। हे दुर्गे यह अधिकार आपने ही उसे प्रदान किया है न तो वह इससे एक श्वास कम ले सकता है और न ही एक श्वास ज्यादा, यही मनुष्य होने का प्रमाण है। हाथी 24 घण्टे में 18 हजार बार श्वास लेता है, कछुआ 2 हजार बार श्वास लेता है, मछली 24 घण्टे में एक हजार बार श्वास लेती है, सिंह 24 घण्टे में केवल 4 हजार बार श्वास लेता है, सबसे ज्यादा श्वास केवल मनुष्य ही लेता है एवं 21 हजार 600 श्वासों का आंकड़ा ही उसे जीवों में सर्वश्रेष्ठ बनाता है अतः मात्र 21 बार ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे का जाप करने से आप 21 हजार 600 बार मूलाधार से लेकर सहस्त्रार तक मनुष्य के षट्चक्रों में गमन करती हैं, विलास करती है, निवास करती हैं। 

         मनुष्यों के मूलाधार में गणपति का वास है एवं यहाँ आप 600 श्वास तक गणपति के साथ निवास करती हैं, मनुष्य का दूसरा चक्र स्वाधिष्ठान लिंग स्थान में है यहाँ पर सरस्वती के साथ ब्रह्मा रहते हैं एवं आप 6000 श्वास तक मनुष्य के आंतरिक ब्रह्मलोक में निवास कर वहाँ के दुर्ग की रक्षा करती हैं। मनुष्य का तीसरा चक्र मणिपुर नाभि में है यहाँ भगवान रमापति अर्थात विष्णु रमा सहित निवास करते हैं यहाँ भी आप 6000 श्वासों के लिए विचरण करती हैं और इस प्रकार मणिपुर चक्र अर्थात विष्णुलोक को भी दैत्य विहीन करती हैं, मनुष्य के शरीर में चौथा चक्र अनाहत चक्र कहलाता है यहाँ पर उमा समेत उमेश निवास करते हैं साधक के इस चक्र में 6000 श्वासों तक निवास कर आप इसे असुर विहीन करती हैं। मनुष्य के शरीर में पाँचवा चक्र विशुद्धि चक्र कहलाता है एवं इसमें जीवात्मा निवास करती है। जीवात्मा के इस जीव मय कोष में भी हे भगवती दुर्गे आप मात्र 1000 श्वास के लिए भ्रमण करती हैं और इस प्रकार जीवात्मा कोष दुष्टात्माओं से मुक्त हो जाता है एवं अशुद्धि को त्याग विशुद्धि को प्राप्त होता है।

         मनुष्य के शरीर का छठवाँ चक्र आज्ञा चक्र कहलाता है एवं यहाँ पर भगवान शिव का परमात्मा स्वरूप वास करता है। हे दुर्गे जो जातक दिन में मात्र 21 बार " ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे" मंत्र का जाप करता है उसकी 1000 श्वासों के लिए आप आज्ञा चक्र में गमन करती हैं और इस प्रकार उसे परमात्मा के दर्शन प्राप्त होते हैं। मनुष्य के शरीर में सबसे ऊपर सहस्त्र दल कमल से युक्त सहस्त्रार विराजमान हैं जिसमें गुरु तत्व धारण किए हुए भगवान शिव विराजमान है अर्थात गुरुदेव के रूप में शिव की स्थिति है। यहाँ पर भी आप 1000 श्वासों के लिए विचरण करती हैं कहने का तात्पर्य यह है कि इन 6 चक्रों में द्वारपाल के रूप में, रक्षिका के रूप में आप ही विराजमान हैं। जब आप जातक पर अति कृपावान होती हैं तब आप ऊपर वर्णित श्वासों में से कुछ श्वासों के लिए जातक की आत्मा को इन षटचक्रों के द्वार खोलकर इनमें विराजमान देवताओं से उसका सायुज्य करा देती हैं अर्थात उस आत्मा विशेष को देव विशेष के दर्शन करा देती हैं, प्रत्यक्षीकरण करा देती हैं अन्यथा दरवाजे बंद रहते हैं और आपकी कृपा के अभाव में हे दुर्गे मनुष्य की आत्मा, मनुष्य के प्राण दरवाजे खटखटा खटखटा कर निराश होकर वापस लौट जाते हैं। 

        षट्चक्रों के दरवाजे खोलने का एक ही मंत्र है ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। यही कुण्डलिनी जागरण का विधान है, यही शाक्तोपासकों का मूल मंत्र है यही उनकी पहचान है। इसी मंत्र को सुनकर त्रिशक्ति चामुण्डा रूपी दुर्गा जातक को महाकाली तत्व, महासरस्वती तत्व, महालक्ष्मी तत्व एक साथ प्रदान करती हैं। एक रहस्य की बात तो कहना भूल ही गया सहस्त्र दल कमल के ऊपर अर्थात सहस्त्रार के ऊपर ऊर्ध्व आमान्य में अति गोपनीय विशंति सहस्त्र दल कमल है जिसमें सर्वोपरि शक्ति भगवती त्रिपुर सुन्दरी पंचप्रेतासन पर विराजमान हैं। सहस्त्र दल कमल अर्थात सहस्त्रार एवं विशंति सहस्त्र दल कमल के मध्य में हे दुर्गे आप सहस्त्र भुज धारिणी, त्रिनेत्र स्वरूपिणी, स्वर्ण वस्त्र धारिणी, स्वर्ण आभामयी महालक्ष्मी के रूप में विद्यमान हैं। यहाँ पर जातक को कहना पड़ता है ॐ ऐं ह्रीं क्लीं विशंति सहस्त्रेभ्यो परेभ्यो दुर्गेभ्यो नमः तब जाकर षट्चक्रों का भेदन करते हुए जातक की आत्मा त्रिपुर सुन्दरी के अलौकिक सौन्दर्य को निहार पाती है अर्थात आप दरवाजे से हट जाती हैं और सामने पंच प्रेतासन पर श्री श्री त्रिपुर सुन्दरी विद्यमान होती हैं।

तांत्रोक्त दुर्गा सप्तशती
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         मार्कण्डेय ऋषि ने दुर्गा सप्तशती की रचना नासिक के पास सात पहाड़ों के बीच स्थित सप्तश्रृंग देवी के सानिध्य में की है। यह पूरा क्षेत्र तंत्रमय है। यहीं पर अनेक नाथ सम्प्रदाय के योगियों ने तप किया है। यह अत्यंत ही तीक्ष्ण है एवं त्वरित परिणाम उत्पन्न करती है। देवी भक्तों के लिए यह एक विशेष उपहार है।

 वीं वीं वीं वेणुहस्ते स्तुतिविध बटुके हां तथा तानमाता स्वानन्दे नन्दरूपे अविहत निरुते भुक्तिदे मुक्तिदे त्वम्।
हंसः सोहम् विशाले वलयगतिहसे सिद्धिदे वाममार्गे ह्रीं ह्रीं ह्रीं सिद्धलोके कषकषविपुले वीरभद्रे नमस्ते ॥

 ह्रींकारं चोच्चारन्ती मम हरतु नयं चर्ममुण्ड प्रचण्डे खां खां खां खड्गपाणे ध्रक ध्रक ध्रकिते उग्ररूपे स्वरूपे । 
हुं हुं हुंकार नादे गगन भुवितथा व्यापिनी व्योमरूपे हं हं हंकारनादे सुरगण नमिते राक्षसान् निहन्त्रि ॥ 

ऐं लोके कीर्तयन्ती मम हरतु भयं चण्डरूपे नमस्ते घ्रां घ्रां घ्रां घोररूपे घघघघवटिते घर्घरे घोररावे । 
निर्मासे काकजंघे घसित नख नखा धूम्रनेत्रे त्रिनेत्रे हस्ताब्जे शूलमुण्डें कुलकुलकुकुले श्री महेशी नमस्ते ॥ 

क्रीं क्रीं क्रीं ऐं कुमारी कुह कुह मखिले कोकिले मानुरागे मुद्रा संज्ञ त्रिरेखो कुरु कुरु सततं श्री महामारि गुह्ये ।
तेजोगे सिद्धिनाथे मन पवन चले नैव आज्ञानिधाने ऐंकारे रात्रिमध्ये शयितपशुजने तत्रकान्ते नमस्ते ॥ 

ॐ व्रां व्रीं वूं कवित्ये दहनपुरगते रुक्मरूपेण चक्रे त्रिः शक्तया युक्तवर्णादिककरनमिते दादिवं पूर्व वर्णे ।
 ह्रीं स्थाने कामराजे ज्वल ज्वल ज्वलिते कोशि तै स्तास्तु पत्रे स्वच्छन्दं कष्टनाशे सुरवरवपुषे गुह्यमुण्डे नमस्ते ॥ 

ॐ घ्रां घ्रीं घूं घोरतुण्डे घ घ घ घ घ घ घे घर्घरान्यांघ्रिघो ह्रीं क्रीं द्रं द्रौं चचक्रे रररर रमिते सर्वबोध प्रधाने । 
द्रीं तीर्थे द्रींत ज्येष्ठे जुगजुगजजुगे म्लेच्छ कालमुण्डे सर्वांगे रक्तघोरा मथन करवरे वज्रदण्डे नमस्ते ॥ 

ॐ क्रीं क्रीं क्रू वामभित्ते गगन गड़गड़े गुह्य योन्याहिमुण्डे वज्रांगे वज्रहस्ते सुरपतिवरदे मत्तमातंग रूढे । 
सूतेजे शुद्धदेहे लललल ललिते छेदिते पाशजाले कुण्डल्याकार रूपे वृष वृषभहरे ऐन्द्रि मातर्नमस्ते ॥

 हुं हुं हुंकार नादे कष कष वसिनी मांसि वेताल हस्ते सुं सिद्धर्षैः सुसिद्धि ढ ढ ढ ढ ढ ढ ढः सर्वभक्षी प्रचण्डी ।
 जूं सः मौ शान्तिकर्मे मृत मृत निगडे निः समेसी समुद्रे देवि त्वं साधकानां भवभयहरणे भद्रकाली नमस्ते ॥ 

ॐ देवि त्वं तूयहस्ते करघृतपरिधे त्वं वराहस्वरूपे त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी त्वमसि च जननि त्वं पुराणी महेन्द्री ।
 ऐं ह्रीं ह्रींकार भूते अतल तलतले भूतले स्वर्ग मार्गे पाताले शैलभृंगे हरिहर भुवने सिद्धिचण्डी नमस्ते ॥

हंसि त्वं शौंडदुःखं शमितभवभये सर्वविघ्नान्तकार्ये गां गीं गूं गैं षडंगे गगन गटितटे सिद्धिदे सिद्धिसाध्ये ।
कूं कूं मुद्रा गजांशो गसपवनगते त्र्यक्षरे वै कराले ॐ हीं हूं गां गणेशी गजमुख जननी त्वं गणेशी नमस्ते ॥

            इस दस श्लोक की लघु दुर्गासप्तशती में परमेश्वरी के वीरभद्रा, व्यापिनी, महेशी, कान्ता, गुह्यमुण्डा, वज्रदण्डा, ऐन्द्री, भद्रकाली, सिद्धचण्डी, गणेशी रूपों का वर्णन और प्रणति निवेदन किया गया है। कान्ता, गुह्यमुण्डा, वज्रदण्डा, ऐन्द्री ये चार रूप अत्यंत उग्र हैं। इनका रहस्य किवा स्वरूपज्ञान वाममार्ग में होता है, ज्ञानमार्ग में व्यापिनी की परिधि (व्यवहार) में इन रूपों का विराट दर्शन होता है। सप्तशती में भी ये रूप हैं परन्तु कथा विस्तार में वे अन्तर्हित से हो गये हैं। यहाँ कथा नहीं है। वस्तुतः यह स्वरूप ही दुर्गति का कारण बनते हैं और परमेश्वरी के शरणागत होने पर ये दुर्गतिनाशिनी दुर्गा के कृपाकटाक्ष हो जाते हैं। जब वह निग्रहकारिणी होती है तो ये स्वरूप व्यक्ति को मोहग्रस्त करके अज्ञान के तामसिक लोकों में ढकेल देते हैं। मोहग्रस्त व्यक्ति त्रिपुरा को भूलकर इनमें रम जाता है जैसे बालक खेल से मुग्ध होकर माँ को भूल जाता है पर क्रीड़ा के टूटने पर अथवा परमा की आकण्ड करुणा से जब उसको मातृस्मरण हो आता है और वह आर्तभाव से उसे पुकारता है तो वही निग्रहिणी करुणार्द्र होकर अनुग्रहकारिणी के रूप में आती है। उसके बन्धन पाश भी बनते हैं तो ग्रंथि भी, मोह के मोहक सम्बन्ध भी बाँधते हैं तो मद के घर्षक दोषरज्जु भी व्यक्ति को निर्मल करने के लिये वह नानाविध कर्दम कालुष्य का विस्तार करती हैं, उसमें व्यक्ति को लपेटती-लतेड़ती है। वह चाहती हैं कि ये कल्मय उसे छू भी न सकें, वह इतना शुभ्र हो जाय कि ये उसे कलुषित कर ही न सकें। उसकी कृपा का आनंद लेने के लिये (उसके) साधक के सम्पूर्ण में उसका श्रद्धारूप ही चमकने लगे। 

      लघु सप्तशती में ज्ञान की तटस्थ वृत्ति भक्ति की अरूणिमा से रंजित हो कर प्रकट हुई है। परमा को उसके चरित्रों के माध्यम से नहीं, शुद्ध मूल रूप में भजा गया है। इसके गान की अवस्था में, ज्ञान के निर्बन्ध अवतरण में भाषा और भाषा का व्याकरण गौण हो गया है। सप्तशती का जो फल है वही इसका है पर इसमें बीजों की प्रधानता है इसलिए जिस साधक में इतनी योग्यता आ गई है उसके लिये यह भी उतनी ही फलप्रद है और जो अभी इतना योग्य नहीं हुआ उसे इसके अधिक पाठ करने पर वह योग्यता प्राप्त होगी। 
              
             इसकी फलश्रुति नहीं दी गई है। न ही कोई विस्तृत अनुष्ठान विधि समझने की बात यह है कि इसमें जिन दस रूपों की स्तुति की गई है, उन रूपों में जो गुण प्रभाव निहित है वही इस पाठ के फलस्वरूप प्राप्त होता है। इन सब का संघनित रूप दुर्गा है अतः इसकी अधिष्ठात्री दुर्गा व चण्डी ही होगी।

ह्रीं ह्रीं ह्रीं
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        हे मुक्ति दायिनी दुर्गे मनुष्य का शरीर तो लघु ब्रह्माण्ड है। इस लघु ब्रह्माण्ड में उसकी आत्मा, उसका मन, उसका चिंतन इत्यादि न जाने कब किस षट्चक्र में उलझकर रह जायें। हे दुर्गे मनुष्य के शरीर में स्थित 6 चक्र रूपी दुर्गों में उसकी आत्मा कभी-कभी किसी चक्र विशेष में बंदी बनकर कैद हो जाती है, वहीं सिमटकर रह जाती है, वहीं की होकर रह जाती है अर्थात वह उस चक्र के आगे का नहीं सोच पाता है। जिस प्रकार बंदी दुर्ग में कैद होकर दुर्गति को प्राप्त होता है तब वह दुर्गति से मुक्ति प्राप्ति हेतु गुरु की शरण में जाता है और जो गुरु परम शाक्तोपासक होते हैं, भगवती त्रिपुर सुन्दरी के उपासक होते हैं वे अपने शिष्य की दुर्गति को देख उसे दुर्गति नाशक ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे महामंत्र का परम गोपनीय तांत्रोक्त रहस्य समझाते हैं, उसे मूलाधार से सहस्त्रार तक उठने का श्रीदुर्गा विधान प्रदान करते हैं। जिस पर चलकर षट्चक्रों की दुर्गम यात्रा को जातक आसानी से पार कर लेता है और इस दुर्गम यात्रा में उसके साथ चलती हैं भगवती दुर्गा।

         सर्वप्रथम आता है मूलाधार चक्र जो कि रीढ़ की हड्डी के सबसे नीचे के भाग में स्थित है, इसे कंद प्रदेश भी कहते हैं और यहाँ पर भगवती दुर्गा चतुर्भुजी रूप में विराजमान हैं एवं हाथी पर बैठी हुई हैं। जैसे ही जातक ॐ ऐं ह्रीं क्लीं लं लं लं लं चतुर्भुजी चामुण्डायै नमः का जाप करता है उसके मूलाधार के द्वार भगवती दुर्गा खोल देती हैं, उसकी कुण्डलिनी शक्ति को भगवती दुर्गा बंधन मुक्त कर देती हैं। यहाँ पर भगवती दुर्गा ने रक्त वर्ण के वस्त्र धारण कर रखे हैं। कुण्डलिनी शक्ति यहाँ से उठती हुई सीधे स्वाधिष्ठान चक्र में पहुँचती है, स्वाधिष्ठान चक्र के द्वार पर पुनः जातक को श्री दुर्गा के एक विचित्र रूप के दर्शन होते हैं जो कि सिन्दूर वर्ण का है एवं 6 हाथों से युक्त हैं। यहाँ पर भगवती दुर्गा उसे मकर पर बैठी हुई दिखाई पड़ती हैं तब जातक ॐ ऐं ह्रीं क्लीं वं वं वं वं वं वं षष्ठभुजी चामुण्डायै नमः मंत्र का जाप करता है। इस जाप से प्रसन्न हो षष्ठ भुजी मकर वाहन पर विराजमान भगवती दुर्गा उसे प्रसन्न हो स्वाधिष्ठान चक्र में प्रवेश दे देती हैं। 

        स्वाधिष्ठान चक्र से जब जातक की कुण्डलिनी शक्ति मणिपुर चक्र की तरफ प्रस्थान करती है तब जातक को भगवती दुर्गा नील वर्ण की दिखलाई पड़ती है एवं यहाँ पर उनके दस हाथ होते हैं और वे मेष के ऊपर सवारी कर रही होती है तब जातक स्तुति करते हुए ॐ ऐं ह्रीं क्लीं रं रं रं रं रं रं रं रं रं रं दस भुजी चामुण्डायै नमः मंत्र का जप करता है। इस मंत्र के जप से उसकी कुण्डलिनी शक्ति निर्विघ्न हो मणिपुर चक्र में भ्रमण करती हुई अनाहत की तरफ प्रस्थान करती है। अनाहत चक्र में प्रवेश से पूर्व उसे धूम्र वर्ण की द्वादश भुजी श्री दुर्गा के दर्शन होते हैं जो कि मृग के ऊपर विराजमान दिखाई पड़ती है। यहाँ पर जातक ॐ ऐं ह्रीं क्लीं यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं यं द्वादश भुजी चामुण्डायै नमः का तांत्रिक जप प्रारम्भ कर देता है। भगवती दुर्गा समझ जाती हैं कि जातक के ऊपर किसी परम शाक्तोपासक सद्गुरु की कृपा है और वे मुस्कुराती हुई उसे द्वार प्रदान कर देती है। 

       अनाहत चक्र के दर्शन कर जब जातक की कुण्डलिनी शक्ति विशुद्धि चक्र की तरफ बढ़ती है तो पुनः उसे धूम्र वर्ण वाली 16 भुजाओं से युक्त हस्ती पर विराजमान श्रीदुर्गा के एक अद्भुत स्वरूप के दर्शन होते हैं तब जातक अपने सद्गुरु से प्राप्त ॐ ऐं ह्रीं क्लीं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं हं षोडशभुजी चामुण्डायै नमः मंत्र से उनकी स्तुति करता है। इस स्तुति से प्रसन्न हो श्रीदुर्गा उसे अपने वाहन हस्ती पर बिठा लेती हैं और उसे विशुद्धि चक्र से ऊपर की तरफ प्रस्थान करा देती हैं। अब जातक आज्ञा चक्र को स्पष्ट देखने लगता है परन्तु आज्ञा चक्र में प्रवेश से पूर्व उसे श्वेत वर्ण की द्विभुजी श्रीदुर्गा दिखाई पड़ती हैं जो कि ओंकार के नाद पर विराजमान होती हैं। यहाँ पर जातक उन्हें देख ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र का जाप करने लगता है। जातक की योग्यता देख पुनः प्रणव पर विराजमान श्री दुर्गा उसे सहस्त्रार चक्र तक पहुँचा देती हैं एवं यहाँ पर उसे सहस्त्र भुजी दुर्गा के दर्शन होते हैं अर्थात भगवती दुर्गा का विराट स्वरूप उसके सामने होता है तब वह उनकी स्तुति करते हुए ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः मंत्र से स्तुति करता है अर्थात वह समझ जाता है कि भगवती त्रिपुर सुन्दरी और दुर्गा अभेद हैं एवं उसे अद्वैत ज्ञान प्राप्त होता है, वह भेद करना छोड़ देता है और इस प्रकार उसकी कुण्डलिनी शक्ति सहस्त्रार में परम शिव के दर्शन करती हैं।

         इसके आगे की यात्रा के लिए भगवान शिव के शरभेश्वर स्वरूप की जरुरत पड़ती है। हाँ भगवान शिव का जो शरभ स्वरूप है उसमें उनकी शक्ति के रूप में शूलिनी दुर्गा उनके पंख में विराजमान हैं तब जातक को स्तुति करते हुए कहना पड़ता है ॐ नमो भगवते महाशिवाय पक्षीराजाय ******* शरभेश्वराय नमः इस स्तुति से प्रसन्न हो शूलिनी दुर्गा जातक के सूक्ष्म प्राणों को भगवान शरभ में वेष्ठित कर देती हैं और भगवान शरभ उड़ते हुए सहस्त्रार एवं विशंति सहस्त्र दल के मध्य के परम गोपनीय ऊर्ध्व मंडल को पार करते हुए मणिद्वीप निवासिनी भगवती त्रिपुर सुन्दरी के लोक में प्रविष्ट हो जाते हैं। जहाँ कोई नहीं उड़ सका, जहाँ सभी गतहीन हो जाते हैं वहाँ शूलिनी दुर्गा युक्त भगवान शरभ उड़कर जा सकते हैं। मैंने पहले कहा यह शरीर लघु ब्रह्माण्ड है जिस प्रकार ब्रह्माण्ड में हम पृथ्वी से उड़कर अन्य ग्रहों तक तो जा सकते हैं परन्तु ब्रह्माण्ड मण्डल को भेदकर परम शिव तक नहीं पहुँच सकते। उसके लिए तो हमें शूलिनी दुर्गा की शक्ति से युक्त भगवान शरभ की अति गोपनीय गतिविधान को ही प्राप्त करना होगा। 

      अब मैं आपको शरीर रूपी लघु ब्रह्माण्ड के षट्चक्रों में स्थित ग्रह मण्डलों के बारे में बताता हूँ। मूलाधार में चंद्रमा विराजमान हैं, स्वाधिष्ठान चक्र में बुद्ध ग्रह विद्यमान हैं, अनाहत चक्र में सूर्य विराजमान हैं, विशुद्धि चक्र में मंगल विराजमान हैं, आज्ञा चक्र में बृहस्पति विराजमान हैं और सहस्त्रार में शनि विराजमान हैं। अपनी जन्मकुण्डली को ध्यान से देखिए इसमें कौन सा ग्रह वृद्ध हो रहा है चंद्रमा वृद्ध हो गया तो बाल सफेद हो जायेंगे, चेहरा मुरझा जायेगा आँखों के नीचे कालापन आ जायेगा। जिस जातक की जन्म कुण्डली में चंद्रमा वृद्ध हो जाते हैं उसके लिए अमावस की रात बड़ी कठिन होती है। अमावस्या से पूर्णिमा तक जब चंद्रमा तेज विहीन होता है तब जातक भी अपना तेज खो बैठता है। ऐसा जातक १५ दिन स्वस्थ रहता है और १५ दिन बीमार क्योंकि उसका चंद्रमा वृद्ध हो गया है। इस प्रकार के जातक को लं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र का जाप करना चाहिए। 

         अगर जातक की जन्मकुण्डली में बुध नीच का है या बुध वृद्धावस्था को प्राप्त हो रहा है या उसे बुध की महादशा चल रही है तो उसे अपने बुध को पुष्ट बनाने के लिए अपने बुध को शक्तिशाली बनाने के लिए वं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र का जाप करना चाहिए। जिस जातक का बुध वृद्ध होता है, नीच का होता है वह उदर रोगों से ग्रसित होता है, उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, उसका पाचन संस्थान हमेशा खराब रहता है एवं इसका उपाय है वं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे मंत्र अगर शुक्र वृद्ध हैं, हाथ की हथैली में शुक्र के ऊपर काले धब्बे आ गये हैं, आड़ी तिरछी लाइनें आ गईं हैं तो जातक नपुंसक हो जायेगा, काम विहीन हो जायेगा। शुक्र की वृद्धता दूर करने के लिए जातक को रं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे तांत्रिक मंत्र का जाप करना चाहिए तभी जातक का शुक्र तेजोमय होगा। 

       सूर्य अगर नीच का है, ढल रहा है, वृद्धावस्था को प्राप्त हो रहा है तो अपयश मिलेगा, जीवन में हार ही हार, नेतृत्व की क्षमता पर ग्रहण लग जायेगा। नौकर मालिक को आँख दिखायेगा, शिष्य वृद्ध सूर्य से प्रभावित गुरु को ज्ञानोपदेश देगा, बच्चे बाप को शिक्षा देंगे, चपरासी वृद्ध एवं निस्तेज सूर्य से नित्य अफसर को आँख दिखायेगें कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में सफलता हेतु जन्मकुण्डली एवं हाथ में सूर्य ग्रह का प्रभावी, तेजोमय एवं युवा होना अत्यधिक आवश्यक है। शंकराचार्य, श्रीराम, श्रीकृष्ण, निखिलेश्वरानंद जी इत्यादि सबकी जन्म कुण्डली में सूर्य उच्च का है, तेजोमय है तभी इन्होंने जीवन में उच्चता हासिल की। शाहजहाँ का सूर्य वृद्ध हो गया, संध्याकालीन हो गया तो उसके जीवनकाल में ही औरंगजेब ने जो कि उसका बेटा था उसे कैद कर लिया। सूर्य का सीधा संबंध हृदय से है एवं हृदय के रोग यहाँ तक कि हृदयाघात सूर्य के वृद्ध होने से ही होता है, रक्त संबंधी समस्त समस्याओं की जड़ सूर्य की वृद्धता है। इसका तांत्रिक मंत्र यं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।


         जिस जातक का मंगल कमजोर है या नीच स्थान पर बैठा हुआ है उसे ग्रहण लगा हुआ है तो वह जातक कुमार्गी हो जाता है, अपराधी प्रवृत्ति का हो जाता है, उसका जेल जाना निश्चित है। मंगल की क्षीणता वाक् सिद्धि छीन लेती है, जातक की बात में दम नहीं रह जाता, कोई उसकी बात सुनने को तैयार नहीं रहता। वृद्ध मंगल के जातक की हत्या भी हो जाती है कहने का तात्पर्य है कि मांगलिक कुण्डली अमांगलिक कार्य ही करवाती है। इससे बचने का उपाय है हं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे रूपी तांत्रिक मंत्र। कण्ठ का हमेशा खराब रहना, कंठ की बीमारी से ग्रसित होना, फटी हुई आवाज, खांसी इत्यादि मंगल की वृद्धता का परिणाम जन्मकुण्डली मे बृहस्पति सबसे महत्वपूर्ण ग्रह है। 

         एक तरफ बृहस्पति अर्थात गुरु एवं दूसरी तरफ अन्य ग्रह जिसका गुरु बलवान हो उसकी नैया पार लग जाती है, वह हमेशा धर्म बुद्धि से युक्त होता है। मैंने अपने जीवन में देखा है कि लोग कुछ समय के लिए आध्यात्मिक हो जाते हैं, कुछ समय के लिए तो ऐसा प्रदर्शित करते हैं कि न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं अर्थात गुरु से बढ़कर कोई नहीं है और थोड़े दिनों बाद गुरु पर संशय करते हैं, धर्म एवं अध्यात्म पर संशय करते हैं, गुरु की आलोचना करते हैं। यह असुर भाव का द्योतका लक्षण है जैसे ही धर्म बुद्धि का लोप होता है वैसे ही आसुरी बुद्धि का उद्भव होता है एवं इस तरह के लोगों का घोर पतन होता है। 18 साल की उम्र में स्त्री परम रूपवान होती है और 20 वर्ष की उम्र आते-आते रूपता कुरुपता में बदल जाती है। जो स्त्रियाँ मन पसंद वर चाहती हैं उन्हें अपना गुरु सबल करना चाहिए और इसका तांत्रिक मंत्र है ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे 

         अब आते हैं मुख्य बात पर अर्थात शनि महाराज पर शनि मंडल जहाँ प्रारम्भ होता है वहाँ तक ही भगवान सूर्य की किरणों की हद है अर्थात शनि हमारे ब्रह्माण्ड के कोने पर विराजमान हैं। शनि मंडल के पश्चात् दूसरा ब्रह्माण्ड शुरु हो जाता है, शनि मंडल में दुर्गा सबसे प्रचण्ड रूप में विराजमान हैं। शनि की ढैय्या चल रही है, शनि की महादशा चल रही है, शनि की अंतर्दशा चल रही है तब आप समझ लीजिए मार्ग दुर्गम है, दुर्गति होने की पूर्ण सम्भावना है। दुः का प्रवेश आपके जीवन के हर क्षेत्र में हो सकता है। दुः का तात्पर्य है दुर्गति, दुःस्वप्न, दुःख, दारिद्र, दुर्भाग्य, दूरी, दुर्लभता, दुखद घटनाएं इत्यादि इत्यादि। ऐसी स्थिति में आप दुर्भाग्य, दुराचार, दुर्बलता, दुर्दिनता, दुस्वास्थ्य इत्यादि से बचने के लिए एवं शनि देव की कृपा प्राप्त करने के लिए ऐं ह्रीं क्लीं श्री त्रिशक्ति चामुण्डायै नमः मंत्र का जाप करें, त्रिशक्ति चामुण्डा दीक्षा अपने गुरु से प्राप्त करें। 

नवरात्री के अवसर पर विशेष साधना 
                 महासिद्ध कुंजिका स्तोत्र

         दुर्गा सप्तशती में कवच, अर्गला, कीलक, रहस्य, सूक्त, ध्यान इत्यादि वर्णित हैं। यह सब एक लम्बी प्रक्रिया है। दुर्गा जी की सटीक एवं लघु उपासना हेतु भगवान शिव ने सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का निर्माण किया है। अधिकांशतः सिद्ध कुंजिका स्तोत्र या तो आधे-अधूरे हैं या फिर उनमें जान बूझकर कुछ मंत्रों का विलोप कर दिया गया है। वैसे तो साधारणतः न्यास, अर्चन, ध्यान इत्यादि का सिद्ध कुंजिका स्तोत्र में अधिक महत्व नहीं दिया गया है। सिद्ध कुंजिका स्तोत्र जो कि पुस्तकों में छपा हुआ होता है वह आम जनता के लिए है। जब भगवती दुर्गा की कृपा होती है तब वृहद एवं वास्तविक महासिद्ध कुंजिका स्तोत्र सम्पूर्णता के साथ गुरुमार्ग से प्राप्त होता है। नीचे वर्णित महासिद्ध, सम्पूर्ण सिद्ध कुंजिका स्तोत्र अति गोपनीय है एवं यह केवल उच्च साधक वर्गों में ही प्रचलित है और इसका परिणाम पुस्तकों में वर्णित सिद्ध कुंजिका स्तोत्र से कई गुना ज्यादा है। 

       नवरात्रि के अवसर पर आप सभी को यह विशेष उपहार है। इसका जाप प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में 1008 बार अवश्य करना चाहिए। नवरात्रि के अवसर पर आप किसी भी मनोकामना पूर्ति हेतु संकल्प लेकर सर्वप्रथम जल, अक्षत, लालरंग का पुष्प इत्यादि भगवती दुर्गा के चित्र के समाने समर्पित करें। इसके पश्चात् नवरात्रि में नौ दिनों के अंदर इसका 1008 बार जप/पाठ करें। जप/पाठ के पश्चात् एक पाँच वर्ष से कम उम्र की कन्या को यथाशक्ति भोजन, वस्त्र इत्यादि प्रदान करें एवं क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् स्वाहा की 1008 आहुतियों से जप के पश्चात् हवन करें हवन सामान्य हवन सामग्री से सम्पन्न किया जा सकता है।

महासिद्ध कुंजिका स्तोत्र

विनियोग
ॐ अस्य श्री सिद्ध कुंजिका स्तोत्र मंत्रस्य ब्रह्मा विष्णु महेश्वरा ऋषयः । गायत्र्युष्णिगनुष्टुपभश्छन्दांसि । महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो नन्दजाशाकम्भरी भीमाः देवताः । शक्तय: रक्तदन्तिकादुर्गाभ्रामर्यो बीजानि । ह्रीं कीलकम् अग्निर्वायुस्सूर्यास्तत्त्वानि । कार्यनिर्देशे जपे विनियोगः ।

करन्यास
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् हृदयाय नमः । 
 क्रीं हुं स्त्रीं फट् तर्जनीभ्यां नमः ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् मध्यमाभ्यां नमः।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् अनामिकाभ्यां नमः ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् कनिष्ठिकाभ्यां नमः । 
क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः ।
 इति करन्यासः

हृदयादिन्यास
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् हृदयाय नमः।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् शिरसे स्वाहा ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् शिखायै वषट् ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् कवचाय ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् नेत्रत्रयाय वौषट् ।
 क्रीं हुं स्त्रीं ह्रीं फट् अस्त्राय फट् ।
 इति हृदयादिन्यासः ।

ध्यान
 नमो देव्यै महा देव्यै शिवायै सततं नमः ।
 नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥
 ॐ विद्युद् दाम सम प्रभां मृगपति स्कन्ध स्थितां भीषणाम्।
 कन्याभिः करवाल खेट विलसद् हस्ताभिरासेविताम् ॥ हस्तैश्चक्र गदाऽसि खेट विशिखांश्चापं गुणं तर्जनीम् । विभ्राणामनलात्मिकां शशि धरां दुर्गां त्रिनेत्रां भजे ॥

मानसोपचार पूजन

लं पृथिव्यात्मकं गन्धं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (अधोमुख कनिष्ठांगुष्ठ मुद्रा ) 

हं आकाशात्मकं पुष्पं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (अधोमुख तर्जनी अंगुष्ठ मुद्रा ) 

यं वाय्वात्मकं धूपं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि। (ऊर्ध्वमुख तर्जनी अंगुष्ठ मुद्रा )

रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्वमुख मध्यमा अंगुष्ठ मुद्रा ) ।

वं अमृतात्मकं नैवेद्यं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्वमुख अनामिकाअंगुष्ठ मुद्रा ) ।

शं शक्त्यात्मकं ताम्बूलं श्रीमहादेव्यै श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्वमुख सर्वांगुलि मुद्रा ) ।

सिंद्ध कुंजिका स्तोत्र
 शिव उवाच शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुञ्जिका स्तोत्रमुत्तमम् ।    
येन मंत्र प्रभावेण चण्डी जापः शुभो भवेत् ॥

 न कवचं नार्गला तु, कीलकं न रहस्यकम् । 
न सूक्तं नापि ध्यानं च, न न्यासं न च वार्चनम् ॥
 
कुञ्जिका पाठ मात्रेण दुर्गा पाठ फलं लभेत्। 
अति गुह्यं तरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥

गोपनीयं प्रयत्नेन स्व योनिरिव पार्वति ।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम् ॥
 पाठ मात्रेण संसिद्धयेत् कुजिञ्जका स्तोत्रमुत्तमम् ।

ॐ श्रूं श्रूं श्रूं श्रं फट् ऐं ह्रीं क्लीं ज्वलोज्जवल, प्रज्वल ह्रीं ह्रीं क्लीं स्त्रावय स्त्रावय वशिष्ठ गौतम विश्वामित्र दक्ष प्रजापति ब्रह्मा ऋषयः । सर्वैश्वर्य कारिणी श्रीदुर्गा देवता गायत्र्या शापानुग्रह कुरु कुरु हूं फट् ।

ॐ ह्रीं श्रीं हुं दुर्गायै सर्वैश्वर्य कारिण्यै ब्रह्मशाप विमुक्ता भव। 
ॐ क्लीं ह्रीं ॐ नमः शिवायै आनंद कवच रूपिण्यै ब्रह्म शाप विमुक्ता भव ॥

ॐ काल्यै काली ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेद रूपिण्यै ब्रह्म शाप विमुक्ता भव ।
शापं नाशय नाशय हूं फट् श्रीं श्रीं श्रीं जूं सःआदाय स्वाहा।।

ॐ श्लों हुं क्लीं ग्लौं जूं सः ज्वलोज्जवल मंत्र प्रबल हं सं लं क्षं स्वाहा ।
नमस्ते रुद्र रूपायै नमस्ते मधु मर्दनी नमस्ते कैटमारी च नमस्ते महिषार्दिनी । नमस्ते शुम्भ हन्त्री च निशुम्भासुर घातिनी नमस्ते जाग्रते देवि जप सिद्धिं कुरुष्व मे । ॐ ऐंकारी सृष्टि रूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका क्लींकारी काल रूपिण्यै बीज रूपे नमोऽस्तु ते चामुण्डा चण्डघाती च यैकांरी वर दायिनी विच्चे त्व भयदा नित्यं नमस्ते मंत्र रूपिणी । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हंसः सोऽहं अं आं ब्रह्म ग्रंथि भेदय भेदय इं ईं विष्णु ग्रन्थि भेदय भेदय उं ऊं रुद्र ग्रंथि भेदय भेदय अं क्रीं, आं क्रीं, इं क्रीं, ईं हूं, उं हूं, ऊं ह्रीं, ऋ ह्रीं, ॠ दं, लृं क्षिं, लृं णें, एं कां,ऐं लिं, ओं कें, औं क्रीं, अं क्रीं, अः क्रीं, अं हूं, आं हूं, इं ह्रीं, ईं ह्रीं, उं स्वां, ऊं हां, यं हूं, रं हूं, लं मं, वं हां, शं कां, षं लं, सं प्रं, हं सीं, ळं दं, क्षं प्रं, यं सीं, रं दं, लं ह्रीं, वं ह्रीं, शं स्वां, षं हां, सं हं लं क्षं ॥

महाकाल भैरवी महाकाल रूपिणी क्रीं अनिरुद्ध सरस्वति । हूं हूं, ब्रह्म गृह बन्धिनी,विष्णु ग्रह बन्धिनी, रुद्र ग्रह बन्धिनी, गोचर ग्रह बन्धिनी, आधि व्याधि ग्रह बन्धनी, सर्व दुष्ट ग्रह बन्धिनी, सर्व दानव ग्रह बन्धिनी, सर्व देवता ग्रह बन्धिनी, सर्वगोत्र देवता ग्रह बन्धिनी, सर्व ग्रहोपग्रह बन्धिनी, ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ॐ क्रीं हूं ह्रीं मम पुत्रान् रक्ष रक्ष, ममोपरि दुष्ट बुद्धिं दुष्ट प्रयोगान् कुर्वन्ति कारयन्ति करिष्यन्ति, तान् हन । मम मंत्र सिद्धिं कुरु कुरु । मम दुष्टं विदारय विदारय दारिद्रयं हन हन पापं मथ मथ आरोग्यं कुरु कुरु आत्म तत्त्वं देहि देहि हंसः सोहम् । क्रीं क्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं स्वाहा ।

नव कोटि स्वरूपे आद्ये आदि आद्ये अनिरुद्ध सरस्वति स्वात्म चैतन्यं देहि देहि मम हृदये तिष्ठ तिष्ठ मम मनोरथं कुरु कुरु स्वाहा । धां धीं धूं धूर्जटे पत्नी वां वीं वागीश्वरि तथा क्रां क्रीं कूं कुञ्जिका देवि शांशीं शृं मे शुभं कुरु ।

हूं हूं हुङ्कार रूपायै जां जीं जूं भाल नादिनीं भ्रा भ्रीं धूं भैरवीं भद्रे भवात्यै ते नमो नमः । ॐ अं कं चं टं तं पं सां विदुरां विदुरां, विर्मदय विमर्दय ह्रीं क्षां क्षीं क्षीं जीवय जीवय त्रोटय त्रोटय जम्भय जम्भय दीपय दीपय मोचय मोचय हूं फट् जां वौषट् ऐं ह्रीं क्लीं रञ्जय रञ्जय सञ्जय सञ्जय गुञ्जय गुञ्जय बन्धय बन्धय भ्रां भ्रीं धूं भैरवी भद्रे । संकुच संकुच, सञ्चल सञ्चल त्रोटय त्रोटय, म्लीं स्वाहा । पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा म्लां म्लीं म्लूं मूल विस्तीर्णां कुञ्जिकायै नमो नमः । सां सीं सूं सप्तसती देव्या मंत्र सिद्धिं कुरुष्व मे । 

इदं तु कुञ्जिका स्तोत्रं, मन्त्र जागृति हेतवे। अभक्ते न च दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति विहीना कुञ्जिका देव्या यस्तु सप्तशतीं पठेत्।न तस्य जायते सिद्धिः ह्यरण्ये रुदतिं यथा।।

॥ इति श्रीरुद्र यामले गौरी तन्त्रे काली तंत्रे शिव पार्वती सम्वादे कुञ्जिका स्तोत्रम् ॐ ॐ तत्सत् श्री जगज्जननी चरण कमलार्पणमस्तु ॥

मातृका प्रयोग
    यह ब्रह्माण्ड का श्रेष्ठतम् प्रयोग है, इसके अभाव में गुरु गुड़-गोबर है और शिष्य निकृष्ट जीव। ५० मातृकाएं होती हैं एवं प्रत्येक मातृका एक देवता का बीज है और प्रत्येक देव बीज में से देवता विशेष का कल्प वृक्ष विकसित होता है। एक मातृका में इतनी शक्ति है कि वह अनंत ब्रह्माण्ड बना और मिटा सकती है। तंत्र-मंत्र, अध्यात्म, योग, प्राणायाम मातृका प्रयोग के अभाव में बेकार हैं, समय की बर्बादी हैं। शिवलिंग को सर्वप्रथम किसी भी दिन स्थापित करें फिर इसके पश्चात् एक जलपात्र में कच्चा दूध, इत्र, किसी पवित्र नदी का जल, शहद, गौ मूत्र, अष्टगंध, पुष्प इत्यादि मिला लें एवं विनियोग करें।

विनियोग
अस्य श्री मातृका प्रयोगस्य ब्रह्मा ऋषि गायत्री छंदः श्रीमातृका सरस्वती देवता हलो बीजानि स्वराः शक्तयः अव्यक्तं कीलकं श्री मातृका प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।

ध्यान
उद्यद्भानु सहस्रकांतिंरुणक्षौमां शिरोमालिकां । रक्तालिप्त पयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम् ॥ हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद् वक्त्रारविंदश्रियं । देवीं बद्धहिमांशु रत्नमुकुटां वंदे सुमंदस्मिताम् ॥

इसके पश्चात् निम्नलिखित श्लोक पढ़ते हुए एक आचमनी जल यंत्र के ऊपर अर्पित करते जायें।

अकारं ब्रह्म दैवत्यं श्वेतं सर्ववशंकरम् । 
सर्वज्ञत्वं मनोज्ञत्वं कामरूपत्वमंबिके ॥ 
अकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

आकारं तु पराशक्ति-श्वेतमाकर्षसिद्धिदम् ।
इच्छासिद्धिर्ज्ञानसिद्धिः स्वातासिद्धिर्वरानने ॥
आकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

इकारं विष्णु - दैवत्यं श्यामं रक्षाकरं भवेत्।
रूप कांतिप्रदं श्रेष्ठं वरेण्यं मोक्ष सिद्धिदम् ।।
इकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

मायादैवतमीकारं श्यामं मोहकरं परम् ।
वीराणां वनितानां च वशीकारं वरानने ॥
ईकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

उकार कोल दैवत्यं श्यामं लोकवशंकरम् ।
मृत्तकोत्थापनं पुण्यं क्रूरं रोगविनाशनम् ॥
उकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

ऊंकारं पृथिवी बीजं श्यामं रक्षाकरं परम् । भूत-प्रेत-पिशाचानां नाशनं रिपु-नाशनम् ॥ 
ऊकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । 

ऋकारं विधि दैवत्यं पीतं सर्वार्थ सिद्धिदम् । 
चिरायुष्यं तपः सिद्धं पराभोगं वरानने ॥ 
ऋकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

ऋकारं शिव दैवत्यं रक्तं सर्व वशंकरम् ।
 जन्म मृत्यु जरा व्याधि वर्जितं श्रीजयप्रदम् ॥
 ऋकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

अश्विभ्यां लृ लृ रक्तं रोगलोक वशंकरम् ।
 तीव्रसिद्धिं भिषक् सिद्धिं मोक्ष धी सिद्धिदं भवेत् ॥
 लृकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 एकारं वीरभद्रं स्यात्पीतं सर्वार्थ सिद्धिदम् ।
 निग्रहानुग्रहकरं भीषणं जयवर्धनम् ॥ 
एकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

ऐंकारं भारती विद्यात्स्फटिकं ज्ञानसिद्धिदम् ।
चतुःषष्टि कला सिद्धिदायकं परमं शिवे ॥
 ऐंकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

ओंकारं शिवदैवत्यं ज्योतिर्मयमनुग्रहम् । 
मनोवेग भवं श्रेष्ठं शांतं सर्वफलप्रदम् ॥
ओंकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

औंकारं शांकरीविद्या स्फाटिकं सर्वसिद्धिदम् । 
सारस्वतं विशेषेण शत्रूणां कोप-नाशनम् ॥ 
औंकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । 

अंकारं रुद्रबीजं स्याद्रक्तं देववशंकरम् । 
सर्वलोक जयं कार्यसिद्धिदं चित्तशुद्धिदम् ॥ 
अंकार श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि। 

अःकारं कालरुद्रं स्याद्रक्तं पाशनिकृन्तनम् । स्वप्रपंचोपसंहारं परमात्म-प्रयोजकम् ॥ 
अ:कारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । 

ककारं ब्रह्मणो बीजं पीतं वृष्टिंकरं परम् । 
संजीवनमशेषाणां लोकानां वृद्धिदायकम् ॥ 
ककारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । 

खकारं जाह्नवी बीजं स्फटिकं पाप नाशनम् । 
भोग मोक्षप्रदं पुण्यं भुक्ति मुक्ति प्रदायकम् ।।
खकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि । 

गकारं तु गणेशं स्यात्पीताभं विघ्ननाशनम् । 
पूर्वापरस्थितं ज्ञानं भूलोक विजयं शुभम् ॥ 
गकार श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 घकारं भैरवं विद्याद्रक्ताभं शत्रुनाशनम् । 
महाघोर ग्रहहरं सारूप्यं जयवर्धनम् ॥ 
घकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि। 

डकारं कालबीजं स्यात्कृष्णं जीवजयं परम् । 
महाभीमं जगत्क्षोभ्यं मरणापत्तिभंजनम् ॥ 
डकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि। 

चकारं भद्रकालीयं रक्तांगं स्तोभनं भवेत् । 
स्वेच्छाकर्षण सिद्धिस्तत्स्वस्थावेशमयत्नतः ॥
 चकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

छकारं भीमकालीयं रक्ताभं वैरिनाशनम् ।
संक्रामणं त्रिलोकेऽस्मिन्समरे विजय-प्रदम् ॥ 
छकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 जकारं जातवेदाख्यं तुर्यं सौदामिनी प्रभम् ।
 अभिचारं महाघोरमपमृत्यु भयापहम् ॥
 जकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

झकारं मर्धनारीशं श्यामं रक्तसमाकुलम् ।
सर्वसौख्यकरं श्रेष्ठं भोगमोक्ष फल प्रदम् ॥
झकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 ञकारं परमात्मीयमवाङ्मनसगोचरं ।
 सर्वज्ञानप्रदं ब्रह्मज्ञानदं श्रीजयप्रदम् ॥
 ञकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 टकारं पृथिवी बीजं श्वेतं संहार कारणम् ।
 कृत्यादावौषधी वृद्धिः पाताल निधि दर्शनम् ॥
 टकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 ठकारं चंद्रबीजं स्यात्स्फटिकं शत्रुनाशनम् ।
 रोगक्ष्वेडहरं दिव्यं महाज्वर हरं परम् ॥
 ठकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 डकारं शुक्रबीजं स्यात्पीताभं विजयं भवेत् ।
 मृतसंजीवनं तत्स्यान्महामाया वशं शिवे ॥
 डकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 ढकारं वैष्णवं विद्यात्पीतं सर्वार्थ सिद्धिदम् ।
 बलप्रदं जल स्तंभं पातालस्यापि दर्शनम् ॥
 ढकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

 णकारं बलभद्रीयं श्वेतं बल विवर्धनम् ।
 नित्यत्वं बुद्धिवीर्यत्वं रिपु दर्प विनाशनम् ॥
 णकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 तकारं धनदं विद्यात्पीतमैश्वर्य वर्धनम् ।
 यक्ष- किन्नर-सिद्धानां वशीकारं जगद्वशम् ।।
 तकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

थकारं तु पराशक्ति रक्तं काल जयं भवेत् ।
शांतिकं पौष्टिकं चैव भोग्यमायुष्य वर्धनम्।।
थकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

दकारं दौर्ग-बीजं स्याच्छ्यामं सर्वार्थ साधनम्।
निग्रहानुग्रह करं भोग मोक्षैकसाधनम्।
दकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

धकारं धर्मबीजं स्याच्छ्वेतं पुण्यविवर्धनम् ।
सदादेवमयं दिव्यं सर्वदर्शनदर्शकम् ॥
धकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

नकारं निर्विकल्पं स्यादप्रमेयाभमक्षरम् ।
वायुवेगमनोवेगमिच्छा-रूपं भवेद् ध्रुवम् ॥
नकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

पकारंमग्निबीजं स्याद्रक्तं सर्पहरं क्षणात् ।
स्त्री-पुं- नपुंसकादीनां भवेदाकर्षणं शिवे ॥
पकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

फकारं भैरवं विद्याद्रक्ताभं विजयं ततः।
महाग्रह-हरं सर्व-ज्वर-रोग-विनाशनम् ॥
फकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

बकारमश्विनी-बीजं पीतं रोगहरं परम् ।
औषधस्य महावीर्यवृद्धिदं जयवर्धनम् ॥
बकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

भकारं भार्गवं ज्ञेयं ज्योतिष्प्रभमनामयम् ।
आयुरारोग्यदं श्रेष्ठंमशेष स्त्री विवर्धनम् ॥
भकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

मकारमीश्वरं विद्याज्ज्योती रक्तं सुखावहम् । 
वश्याकर्षण-संतान- सिद्धिदानैक-तत्परम् ॥
मकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

यकारं वायु बीजं स्यात्कृष्णं बलविवर्धनम् ।
सर्वोच्चाटकरं करं संग्रामे जयवर्धनम् ॥
यकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

रेफं कृशानुबीजं स्याद्रक्ताभं सर्वनाशनम् ।
 जंगमाकर्षणं युद्धे द्विषां सेनाबलं तथा ॥
रेफं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

लंकारं शक्रबीजं स्यात्पीतं सर्वफलप्रदम् ।
अग्निस्तंभं जलस्तंभं स्वेच्छास्तंभं विशेषतः ॥
लकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

वकारं वारुणं विद्याच्छ्वेतं स्वेच्छाभिवृष्टिदम् ।
आकर्षणं जलस्थानामशेष ज्वरनाशनम् ॥
वकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि ।

शकारं शंकरं विद्यात्तेजः सौभाग्य सिद्धिदम् ।
अन्योऽन्यकलहादेव वैरिणां नाशनं भवेत्॥
शकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

षकारं द्वादशादित्यं ज्योतिरारोग्यवर्धनम्।
शमनं सर्वरोगाणामायुर्विद्याभिवर्धितम् ॥
षकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 सकार भारतीबीजं श्वेतं सारस्वतप्रदम् ।
प्रतिविद्वज्जनजयं वराणां योषितावशम् ॥
सकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

सदाशिवं हकारं स्याद्धूम्रं ज्ञानार्थसिद्धिदम् । अणिमाद्यष्टसिद्धिः स्याच्चतुःषष्टिः कला अपि ॥
 हकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

 लकारं पृथिवीबीजं श्यामं सिद्धिकरं परम् ।
 स भवेदोषधीवृद्धिः रिपु-भू-द्रव्यदर्शनम् ॥
लंकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

क्षकारं श्रीनृसिंहं स्यात्स्फाटिकं मोक्षसिद्धिदम् ।
 रिपुवर्गहरं सर्वलोकक्षोभहरं परम् ॥
क्षकारं श्री पादुकां पूजयामि नमः तर्पयामि।

इस प्रयोग से कोई भी यंत्र दस मिनिट में पूर्ण रूप से चैतन्य एवं प्राण-प्रतिष्ठित हो जायेगा एवं मंत्र सिद्धि इसी प्रयोग से मिलती है।

क्लीं क्लीं क्लीं

      शाक्तोपासना में दो कुल हैं प्रथम दुर्गा कुल एवं द्वितीय महाविद्या कुल । दुर्गा कुल में अनेकों शक्तियाँ हैं जैसे कि शैवमत नौ दुर्गाओं के नाम नीलकण्ठेश्वरी दुर्गा, क्षयंकरी दुर्गा, हरसिद्धि दुर्गा, रुद्रांश दुर्गा, वन दुर्गा, अग्नि दुर्गा, जप दुर्गा, विन्ध्यवासिनी दुर्गा, रूपमारी दुर्गा । सामान्य दुर्गा पूजन में नौ दुर्गाओं के नाम हैं शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघण्टा, कूष्माण्डा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री । अब दिक्कत यह है कि इनके तांत्रिक मंत्र अति गोपनीय हैं।

      शैव तंत्रम् में भगवती दुर्गा के जो 9 स्वरूप हैं उनके तांत्रिक मंत्र इस प्रकार हैं।
ॐ ह्रीं दुं नीलकण्ठेश्वरी दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं क्षयंकरी दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं हरसिद्धि दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं रुद्रांश दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं वन दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं अग्नि दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं जप दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं विन्ध्यवासिनी दुर्गायै नमः ।
ॐ ह्रीं दुं रूपमारी दुर्गायै नमः ।
         इसके अलावा जब देवी को देवासुर संग्राम में परम क्रोध आया था तब उनके शरीर से जीन शक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ था वह है - रुद्र चण्डा, प्रचण्डा, चण्डी (चण्डोगा), चण्डनायिका, चण्डा, चण्डवती, चण्डरूपा, अतिचण्डिका, उग्रचण्डा।
       इस प्रकार भगवती चामुण्डा के तेजोमय पुंज से ग्यारह अति कोपवान, प्रलयंकारी, असुर विमर्दिनी शक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ। इन 11 रुद्र शक्तियों ने मिलकर चंड-मुंड नामक दो असुरों का सर्वनाश किया। नवग्रह कभी कभी जन्मकुण्डली में वृद्ध हो जाते हैं, उन्हें छाया भी ग्रसित कर देती है, वे मलीन हो जाते हैं। वास्तव में चंड नामक असुर केतु का प्रतीक है एवं मुंड नामक असुर राहु ग्रह का प्रतीक है। इसके गोपनीय महत्व को समझिए चामुण्डा ही वह शक्ति है जिसके द्वारा दुष्ट, क्रूर, देव द्रोही राहु एवं केतु ग्रहों का विनाश होता है। भगवती दुर्गा की साधना मुख्य रूप से राहु काल में ही की जाती है। प्रतिदिन राहुकाल होता है, आप पंचांग देखिए और जैसे ही राहुकाल प्रारम्भ हो वैसे ही भगवती दुर्गा की उपासना करनीचाहिए। राहुकाल की विशेषता यह है कि इसमें बिना किसी प्रयोजन के मनुष्य के अंदर मौजूद कुण्डलिनी शक्ति का कुछ अंश स्वतः ही सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर सहस्त्रार तक जाता है। राहुकाल में कुण्डलिनी शक्ति स्वतः ही जागृत होती है। प्रतिदिन डेढ़ से दो घण्टे का राहुकाल होता है।

       उपरोक्त काल में भगवती दुर्गा अपने सम्पूर्ण स्वरूपों के साथ बाह्य ब्रह्माण्ड एवं शरीर रूपी आंतरिक लघु ब्रह्माण्ड में स्वतः क्रियाशील हो असुर प्रवत्तियों के नाश में तत्पर रहती हैं अतः ऐसी स्थिति में उनकी उपासना अनन्य पुण्य प्रदान करती है। ग्रहणकाल में तो ग्रहण का सूतक प्रारम्भ होने से ग्रहण काल के अंत तक का सम्पूर्ण काल राहुकाल कहलाता है और इस समय भगवती चण्डी अपनी 9 अति कुपित गणिकाओं के साथ असुर शक्तियों के भक्षण हेतु तत्पर रहती हैं। इन नौ दुर्गाओं की मूल स्वरूपिणी श्री चामुण्डा के तांत्रिक मंत्र ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे की जप करें एवं ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे स्वाहा से दशांश आहुति दें। अगर आप प्रतिदिन राहुकाल में मात्र 21-21 बार भी मंत्र को पढ़ते हैं तो जीवन में आप अपराजित रहेंगे। किसी भी काम पर आप जायें आपकी विजय निश्चित है। 

         जो मुझे युद्ध में हरा देगा, जो मेरे जितना या मुझसे ज्यादा शक्तिशाली होगा उसी से मैं विवाह करुंगी। भगवती दुर्गा ने देवासुर संग्राम में स्पष्ट रूप से असुरों के सामने यह प्रस्ताव रखा । इसे कहते हैं अभिमान, हे भगवती दुर्गे आप महाअभिमानी हैं, आपका अभिमान सर्वोपरि है एवं जो जातक आपकी साधना करता है उसके अभिमान की भी आप सर्वदा रक्षा करती हैं। आपको कौन पराजित कर पाया? हे दुर्गे आप ही एकमात्र वह दिव्य शक्ति पुंज हैं जिससे कि सभी भय खाते हैं। जो अपराजित होता है वही भय का उत्पादन कर सकता है, वही वास्तव में कोप करने का अधिकारी होता है। हे दुर्गे कुपित होना कोई आपसे सीखे। जिस पर आप कुपित हो गईं उसका सर्वनाश निश्चित है। कहीं आप कोप न कर दें इसी भय से यह समस्त ब्रह्माण्ड चल रहा है। 

           आपके कोप से डरकर ही सूर्य प्रतिदिन उगता है, चंद्रमा अमृत वर्षा करता है, ग्रह नक्षत्र एक लय में घूमते हैं, वायुदेव प्रतिदिन गमन करते हैं, वरुण देव वर्षा करते हैं, अग्नि प्रज्जवलित होती है, नदियाँ प्रवाहमान होती हैं, समय पर वृक्ष फल देते हैं, खेत अन्न देते हैं, समय अनुसार ही रात्रि एवं दिन होते हैं क्योंकि सब आपके कोप से डरते हैं।

 समस्त देवताओं ने आपके कोप को देखा है, किसी और की क्या कहें स्वयं भगवान शिव आपके दूत बने हैं एवं आपका आदेश ले वे असुरों के पास गये और उनसे स्पष्ट कहा कि युद्ध करो या फिर पाताल की तरफ गमन करो। हे आदेशात्मिका आप युद्ध महोत्सवों की अधिष्ठात्री हैं। परम परमेश्वर भगवान शिव के साथ-साथ समस्त देव गण एवं ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र इत्यादि आपके युद्ध महोत्सवों में दर्शक बनकर आनंद लेते हैं। हे दुर्गे प्रत्येक युद्ध के पीछे आप ही हैं, आप ही ब्रह्माण्ड के समस्त युद्धों का आदि एवं अंत है। जब तक आप न चाहें तब तक न तो युद्ध का प्रारम्भ होता है और न ही युद्ध का अंत या निर्णय। युद्ध के निर्णय का अधिकार भी आप ही के पास हैं। हे दुर्गे आप समस्त युद्धों का मूल हैं। 

      विष्णु के परम यौद्धावतार, भैरवों के परम यौद्धावतार, समस्त शक्तियों के परम यौद्धावतार आप ही के गर्भ से उदित होते हैं, आप युद्ध प्रिया हैं। कब युद्ध होना है, कैसे युद्ध होना, किन्हें युद्ध में भाग लेना है, कब किसकी बारी है यह सब युद्ध लीला प्रपंच आप ही प्रायोजित करती हैं। आप ही शक्तिदात्री हैं, आप ही वास्तविक अद्वैतिका हैं जब जब आपके द्वारा विसर्जित शक्ति पंचभूत से निर्मित स्थूल शरीर में कहीं फँस जाती है, कहीं उलझ जाती है, कहीं दुर्गति को प्राप्त होने लगती है, कहीं अवरोधित हो जाती है तब वह असुरत्व को धारण कर लेती है, अशुद्ध हो जाती है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक बंद कमरे में वायु प्रदूषित हो जाती है, एक गड्ढे में जल सड़ने लगता है, शीत में अग्नि शिथिल पड़ जाती है इत्यादि इत्यादि तब तब आप युद्धोत्सव का प्रायोजन करती हैं और अपने दैवीय शस्त्रों से शक्ति को पुनः मुक्ति प्रदान करती हैं। 

       देखो वो महिषासुर आपको निहारते-निहारते ही प्राण त्याग रहा है। देखो वो चंड-मुंड, धूम्रलोचन, रक्तबीज, शुम्भ-निशुम्भ इत्यादि आपके मुख की तरफ देखते हुए ही युद्ध महोत्सवों में प्राणोत्सर्ग कर रहे हैं और पुनः शुद्ध हो आपके भैरव बन रहे हैं। आप उन्हें कृतार्थ कर रही हैं, आप उन पर दया कर रहीं हैं, आप उन्हें सायुज्य प्रदान कर रही हैं, आप उन्हें निर्विकल्प मोक्ष दे रही हैं। यही है युद्ध महोत्सवों का गूढ़ रहस्य बहुत कम लोग जानते हैं कि हे भगवती तेरे पूजन में कौन से भैरव चलते हैं, यह तो गुरु मुख से प्राप्त ज्ञान का ही विषय है। हे भगवती दुर्गे तेरे साथ चलते हैं श्री पाण्डुनाथ भैरव जिनका ध्यान एवं मंत्र इस प्रकार है ध्यान
भैरवः पाण्डुनश्थ च रक्त गौरश्चतुर्भुजः । 
गदां पद्मं च शङ्खं च चक्रं चापि करेषु च ॥
 मंत्र ॐ ऐं ह्रीं क्लीं पाण्डुनाथ भैरवाय नमः ।
जब तक जातक तेरे पूजन में इन चतुर्भुजी भैरव जिन्होंने कि हाथ में गदा, पद्म, शंख, चक्र धारण कर रखा है और जो कि रक्त मिश्रित गौर वर्ण के हैं का पूजन नहीं करता उसकी दुर्गोपासना सफल ही नहीं हो सकती। हे दुर्गे तेरे शिव कौन है ? तेरे शिव हैं श्री शरभ एवं हे आखेटिका तुझे आखेट अति प्रिय है, तू चाहे तो मात्र हुंकार से ही सभी असुरों का नाश कर सकती है परन्तु तू युद्ध महोत्सवों को बड़ी विहंगमता से रचती है, खेल करती है। वास्तव में तुझे खेल अत्यंत प्रिय है तू अपनी शक्तियों के साथ खेलती है। तेरा यही खेल तेरे साधक दुर्गोत्सव में गरबा नृत्य के साथ खेलते हैं। देवासुर संग्राम कुछ भी नहीं मात्र हे भगवती दुर्गा तेरा ब्रह्माण्डीय गरबा नृत्य है जिसमें तू अपनी समस्त गणिकाओं के साथ, 64 योगिनियों के साथ, 9 शक्तियों के साथ नर्तन करती है, गर्जन करती है, इठलाती है, बिजली के समान कौंधती है और समस्त ब्रह्माण्ड को प्रकाश युक्त कर देती है। 

         देवासुर संग्राम रूपी तेरे गरबा नर्तन को देख, तेरी नृत्य कला को देख शिव समेत समस्त देवगण अभिभूत हो जाते हैं और जब-जब इन देव शक्तियों का हृदय भी तेरे महानृत्य में शामिल होने को लालायित होने लगता है तब-तब तू इन्हें अवतार प्रदान करती है जिससे कि ये भी तेरे इशारों पर नृत्यमय हो उठे। हे भगवती दुर्गे तूने विष्णु को 21 बार अवतरित किया, शिव को भैरव के रूप में 108 बार अवतरित किया परन्तु तेरे स्वयं के अवतार तो अनंत हैं। तू प्रतिक्षण नये-नये अवतारों में ब्रह्माण्ड रूपी सृष्टि में निर्द्वन्दता के साथ नृत्य करती रहती है। जीवन क्या है ? केवल शक्ति का नर्तन, शक्ति की स्वतंत्रता एवं स्वच्छंदता । हे भगवती त्रिपुर सुन्दरी तेरी निरंकुशता के सामने तो शिव को ठहरना ही पड़ता है। आओ मेरे साथ नृत्य करो हे शिव तू कह उठी और शिव को तेरे दस महाविद्या रूपी स्वरूपों के साथ नृत्य करना ही पड़ा। तू कहे और शिव नृत्य न करें ऐसा कैसे हो सकता है। महाविद्या के साधक तेरे और शिव के दस स्वरूपों के नर्तन की ही तो उपासना करते हैं। तेरे नर्तन में सबको सम्मिलित होना आवश्यक है, तू नचाना जानती है, नाचने पर मजबूर कर देती है। 

       इस सृष्टि का सूक्ष्म से सूक्ष्म कण, सूक्ष्य से सूक्ष्म अणु, परमाणु सर्गाणु, प्रकाशाणु, भर्गाणु इत्यादि तेरे इशारे पर नृत्य करने को मजबूर हैं। जो नृत्य नहीं करता उसे नृत्य कैसे करवाना है यह तू अच्छी तरह जानती है। जब देवाधिदेव शिव से तू नृत्य करवा सकती है तब किसी और की क्या बिसात ? यही है श्री श्री गति रहस्यम् । नृत्य में ही गति है, नृत्य में ही लय है, नृत्य में ही ऊर्जा एवं शक्ति का विसर्जन है। नृत्य ही अशुद्धता से शुद्धता, दुर्गति से सुगति को प्राप्त होने का विधान है। जब तक नृत्य चलता रहेगा शक्ति की शुद्धता बनी रहेगी जो इस महाविज्ञान को समझ गया वह गतिमय हो उठा, उसे पंख प्राप्त हो गये, उसकी जड़ता जाती रही । जड़ता से चैतन्यता की तरफ बढ़ने का विधान ही दुर्गोत्सव है, श्री दुर्गा उपासना है। जो जितना ज्यादा चैतन्य उसकी गति उतनी ही प्रचण्ड, उसका वेग उतना ही प्रचण्ड वही श्री शरभम् को समझ सकता है। देखो कितनी विलक्षणता है गति में पृथ्वी अपनी धूरी पर घूम रही है प्रथम गति, 26 वर्षों में वह एक बार उगमगाती भी है द्वितीय गति, पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द घूम रही है अर्थात तृतीय गति, पृथ्वी सूर्य के साथ अदिति मण्डल की तरफ गतिमान हो रही है चोधी गति और अदिति मण्डल किसी अन्य मण्डल की तरफ सूर्य एवं पृथ्वी को लिए जा रहा है पाँचवी गति। न जाने कितनी अनंत गतियों इस क्रम में चल रही हैं। तू ही सबकी गति है और जो तेरे इस गति के सिद्धांत का पालन करता है वह दुर्गति से बच जाता है। हे दुर्गे सदा गतिमान रखना ही तेरा ध्येय है।

शास्त्रोक्त दुर्गा पूजन
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       वैदिक धर्म में शक्ति उपासना का विशेष महत्व है। पौराणिक ग्रंथों ने भी माँ जगतजननी के शक्ति स्वरूप की उपासना पर बल दिया है। अन्य किसी धर्म में नारी स्वरूप की उपासना का इतिहास नहीं मिलता किन्तु सनातन धर्म नारी को शक्ति का रूप मानकर हमेशा से उनकी पूजा को महत्व देता आ रहा है। शास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि "यत्र नरियेषु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है वहीं देवता निवास करते हैं। माँ शब्द ही अपने आप में इतना विस्तृत है कि सम्पूर्ण सृष्टि इसी में समाहित है। माँ का उच्चारण करते ही हृदय में एक निश्छलता व पवित्रतता का भाव जागृत होता है, वासना नष्ट होती है और मन शिशुवत हो जाता है । माँ ही अपने गर्भ द्वारा जीव को इस धरा पर अवतरित करती है और प्रारम्भिक ज्ञान देती है तथा स्तनपान कराकर उसका पालन पोषण करती है, उसकी सभी प्रकार से रक्षा करने के लिये हर क्षण सचेष्ट रहती है। 

       यदि बालक जरा सा भी रुदन कर दे तो माँ सब कुछ भूलकर उसे अपने आँचल में छिपा लेती है तथा खुद प्रचण्ड रूप धारण कर हर विपत्ति का नाश करने को उद्यत हो उठती है। जरा सोचिये कि एक शिशु की माँ जब अपने बच्चे के लिये इतना कुछ कर सकती है तो फिर सम्पूर्ण जगत की माँ जिसे हम जगतजननी कहते हैं उसके लिये कोई भी कार्य असम्भव नहीं है। वह तो इतनी करुणामयी है कि अपने पुत्रों (भक्तो) की पुकार अनसुनी कर ही नहीं सकती। बस जरूरत है तो सिर्फ उसे एक बार हृदय से पुकारने की। बस उसे एक बार बाल सुलभ निश्छलता से पुकारने की देर है फिर जीवन में बाधा, परेशानी, समस्या, पीड़ा, कष्ट, दुःख, रोग, शत्रु आदि रह ही नहीं सकते।

        माँ भगवती हमारे रोम-रोम में विद्यमान है वह कवच के रूप में हमारे शरीर की बाहरी शत्रुओं से रक्षा करती है। वह राक्षसों का नाश करने के लिये कभी चण्डी का रूप धारण कर लेती है तो कभी महाकाली का शास्त्र साक्षी है कि जब भी धरा पर अत्याचार व अन्याय बढ़ा है माँ दुर्गा अपने किसी न किसी रूप में प्रकट होकर असुरों के संहार का कारण बनी। माँ भगवती की आराधना तो स्वयं त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) ने भी की थी। सरस्वती स्वरूप में उन्होंने ऋषि-मुनियो का उद्धार किया। समस्त पापों का विनाश करने वाली तथा ऋद्धि-सिद्धि, धन-धान्य, पुत्र आदि प्रदान करने वाली तथा सभी प्रकार की विपत्तियों का नाश करने वाली माँ भगवती की श्रद्धा भक्ति पूर्वक आराधना करने से मनुष्य इस लोक में नाना प्रकार के सुख 
भोगकर अन्त में मोक्ष को प्राप्त होता है इसमें किसी प्रकार का संदेह नहीं है। 

पूजन कैसे करें ?
        साधक को चाहिये कि वह नवरात्रि के शुभ अवसर पर अथवा किसी भी शुभ तिथि व शुभ मुहूर्त में स्नानादि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण कर आसन पर बैठें। पूजा स्थल को स्वच्छ कर के एक चौकी में लाल वस्त्र बिछाकर उस पर माँ भगवती दुर्गा का चित्र स्थापित करें।

पवित्रीकरण

         सर्वप्रथम बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से पुष्प द्वारा अपने उपर जल छिड़कें तथा निम्न मंत्र का उच्चारण करें -
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
 यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभयन्तरः शुचिः॥

आचमन

     अब क्रमश: निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये आचमनी में जल लेकर तीन बार आचमन करें।
ॐ ऐं आत्मतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा । 
ॐ ह्रीं विद्यातत्वं शोधयामि नमः स्वाहा ।
 ॐ क्लीं शिवतत्वं शोधयामि नमः स्वाहा ।
ॐ सर्वतत्वं शोधयामि नमः (बोल कर हाथ धो लें)

दिगबंध

        आचमन के उपरान्त बायें हाथ में चावल लेकर दायें हाथ से उसे ढँककर निम्न मंत्र का उच्चारण करें

ॐ अपसर्पस्तु ये भूता ये भूता भूमि संस्थिता । 
ये भूता विघ्न कर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया।। 
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचा: सर्वतो दिशम् । सर्वोषामविरोधेन पूजा कर्म समारभे ॥ 

उपरोक्त मंत्र का उच्चारण करने के बाद हाथ के चावलों को चारों दिशाओं में उछाल दें

गणपति आह्वान

        अपने समक्ष विघ्नहर्ता भगवान् गणपति का चित्र अथवा सुपारी को गणपति का रूप मानकर स्थापित कर दें तथा हाथ में अक्षत व पुष्प लेकर दोनों हाथ जोड़कर गणपति का ध्यान करें। निम्न मंत्र का उच्चारण करें

ॐ सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः।
लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ॥ धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः । 
द्वादशैतानि नामानि यः पठेत श्रृणुयादपिः॥ 

उक्त मंत्रोच्चार के साथ भगवान गणपति को अक्षत व पुष्प अर्पित करें।

कलश स्थापन

          कलश स्थापित करने से पूर्व जहाँ कलश स्थापित करना है उस स्थान को दाहिने हाथ से स्पर्श करें। निम्न मंत्र का उच्चारण करें 
ॐ भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधावा विश्वस्य भुवनस्थ धर्त्री पृथ्वी यक्ष पृथ्वीम् दृग्वहं पृथिवी माहि ग्वं सीः।

 अब उसी स्थान पर अक्षत रखकर उस पर कलश स्थापित करें। अब कलश पर कुंकुंम, अक्षत व पुष्प चढ़ाकर दोनों हाथ जोड़कर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये सभी देवी देवताओं का ध्यान करें 

कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्र समाश्रितः । 
मूल तस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृता । 
कुक्षौ तु सागराः सप्त सप्त द्वीपा वसुन्धराः । 
ऋग्वेदोऽय यजुर्वेदः सामवेदो ह्रथर्णवः ।। 
अंगेश्च सहिताः सर्वे कलशं तु समाश्रिताः । 
अत्र गायत्री सावित्री शांतिः पुष्टिकरी तथा ॥ 
आयान्तु देव पूजार्थं दुरितक्षयकारकाः।

ध्यान
      अब निम्न मंत्र का उच्चारण करत हुये माँ भगवती का ध्यान करें

रक्ताम्भोधिस्थं पोतोब्लसदरूण सरोजाधिरूढ़: कराब्ज:
पाशं को दण्डं भिक्षद भवगुण मणिमत्यंकुशं पञ्चवाणान्।। विभ्राणास्त्रक्कपालं त्रिनयनलसिता पीन वक्षोरुहादया । देवी वालार्कवर्णा भवतु सुखकरी प्राण शक्तिः परात्रः ।।

अब हाथ में अक्षत व पुष्प लेकर माँ जगदम्बा का आह्वान करें। निम्न मंत्र का उच्चारण करें।

आवाहन

आगच्छ त्वं महादेवि! स्थाने चात्र स्थिरा भव । 
यावत् पूजां करिष्यामि तावत् त्वं संनिधौ भव ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
दुर्गादेवीमावाहयामि । आवाहनार्थे पुष्पाञ्जलिं समर्पयामि।(पुष्पाञ्जलि समर्पण करें।)

आसन

अनेकरत्नसंयुक्तं नानामणिगणान्वितम् । 
इदं हेममयं दिव्यमासनं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि। (रत्नमय आसन या फूल समर्पित करें।)

पाद्य

 गङ्गादिसर्वतीर्थेभ्य आतं तोयमुत्तमम् । 
पाद्यार्थं ते प्रदास्यामि गृहाण परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
पादयोः पाद्यं संमर्पयामि। (जल चढ़ायें।)

अर्ध्य

गन्धपुष्पाक्षतैर्युक्तमध् र्यं सम्पादितं मया। 
गृहाण त्वं महादेवि प्रसन्ना भव सर्वदा ॥
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
हस्तयोः अर्घ्यं समर्पयामि । ( चन्दन, पुष्प, अक्षत से युक्त अर्घ्य दें।)

आचमन

कर्पूरेण सुगन्धेन वासितं स्वादु शीतलम् । तोयमाचमनीयार्थं गृहाण परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
आचमनं समर्पयामि । (कर्पूर से सुवासित शीतल जल चढ़ाये ।)

स्नान

मन्दाकिन्यास्तु यद्वारि सर्वपापहरं शुभम् । 
तदिदं कल्पितं देवि! स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
स्नानार्थं जलं समर्पयामि । (गङ्ग-जल लिये जल दें।)

दुग्ध स्नान

कामधेनुसमुत्पन्नं सर्वेषां जीवनं परम् । 
पावनं यज्ञहेतुश्च पयः स्नानार्थमर्पितम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
दुग्धस्नानं समर्पयामि। (गोदुग्ध से स्नान करायें।)

दधिस्नान

पयसस्तु समुद्भुतं मधुराम्लं शशिप्रभम् । 
दध्यानीतं मया देवि! स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः ।
दधिस्नानं समर्पयामि। (गोदधि से स्नान करायें।)

घृतस्नान
 
नवनीतसमुत्पन्नं . सर्वसंतोषकारकम् । 
घृतं तुभ्यं प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः। 
घृतस्त्रानं समर्पयामि ! (गोघृत से स्नान करायें ।)

मधुस्नान

पुष्परेणुसमुत्पन्नं सुस्वादु मधुरं मधु । 
तेजः पुष्टिसमायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः। 
मधुस्नानं समर्पयामि। (मधु से स्नान करायें।)

शर्करास्नान

इक्षुसारसमुद्भूतां शर्करां पुष्टिदां शुभाम् । 
मलापहारिकां दिव्यां स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् । 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
शर्करास्नानं समर्पयामि। (शक्कर से स्नान करायें।)

पञ्चामृत स्नान 

पयो दधि घृतं चैव मधु च शर्करान्वितम् । 
पञ्चामृतं मयाऽऽनीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
पञ्चामृत स्नानं समर्पयामि। ( अन्य पात्र में पृथक् निर्मित पञ्चामृत से स्नान कराये।)

गन्धोदकस्नान 

मलयाचलसम्भूतं चन्दनागरुमिश्रितम् । 
सलिलं देवदेवेशि शुद्धस्त्रानाय गृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै न॑मः । 
गन्धोदकस्नानं समर्पयामि। (शुद्ध जल से स्नान कराये।)

आचमन

शुद्धोदकस्नानान्ते 'आचमनीयं जलं समर्पयामि।(आचमन के लिये जल दे।) 

वस्त्र

पट्टयुग्मं मया दत्तं कञ्चकेन समन्वितम् । 
परिधेहि कृपां कृत्वा मातर्दुर्गार्तिनाशिनि । 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
वस्त्रोपवस्त्रं कञ्चुकीयं च समर्पयामि। (धौतवस्त्र, उपवस्त्र और कशुकी निवेदित करें।) 
वस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।(आचमन के लिये जल दें)

सौभाग्यसूत्र

सौभाग्यसूत्रं वरदे सुवर्णमणिसंयुतम् । 
कण्ठे बहनामि देवेशि सौभाग्यं देहि मे सदा श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
सौभाग्यसूत्रं समर्पयामि। (सौभाग्यसूत्र चढ़ाये ।)

चन्दन

चन्दन श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं गन्धाढ्यं सुमनोहरम् । विलेपनं सुरश्रेष्ठ चन्दनं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
चन्दनं समर्पयामि। (मलयचन्दन लगायें।)

हरिद्राचूर्ण

हरिद्रारञ्जिते देवि! सुखसौभाग्यदायिनि । 
तस्मात् त्वां पूजयाम्यत्र सुखं शान्तिं प्रयच्छ मे ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः। 
हरिद्रां समर्पयामि। (हल्दी का चूर्ण चढ़ायें।)

कुंकुम

कुङ्कुमं कामदं दिव्यं कामिनीकामसम्भवम् । कुङ्कुमेनार्चिता देवी कुङ्कुमं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः। 
कुङ्कुमं समर्पयामि। (कुंकुम चढ़ायें ।)

सिन्दूर

सिन्दूरमरुणाभासं जपाकुसुमसंनिभम् ।
अर्पितं ते मया भक्त्या प्रसीद परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः। 
सिन्दूरं समर्पयामि। (सिन्दूर चढ़ायें।)

कज्जल (काजल)

चक्षुर्भ्यां कज्जलं रम्यं सुधगे शान्तिकारकम् । कर्पूरज्योतिसमुत्पन्नं गृहाण परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः | कज्जलं समर्पयामि। (काजल चढ़ायें।

दुर्वांड्कुर

तृणकान्तमणिप्रख्यहरिताभिः सुजातिभिः । दूर्वाभिराभिर्भवतीं पूजयामि महेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
दूर्वाङ्कुरान् समर्पयामि । (दूब चढ़ाये ।)

बिल्वपत्र

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम् । 
त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ॥
श्री जगदम्बांयै दुर्गादेव्यै नमः । 
बिल्वपत्रं समर्पयामि। (बिल्वपत्र चढ़ायें।)

आभूषण

आभूषण हारकङ्कणके यूरमेखलाकुण्डलादिभिः । रत्नाढ्यं हीरकोपेतं भूषणं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
आभूषणानि समर्पयामि। (आभूषण चढ़ायें।)

पुष्पमाला

माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि भक्तितः । मयाऽऽहृतानि पुष्पाणि पूजार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
पुष्पमालां समर्पयामि। (पुष्प एवं पुष्पमाला चढ़ायें।)

नानापरिमलद्रव्य
 
अबीरं च गुलालं च हरिद्रादिसमन्वितम् नानापरिमलद्रव्यं गृहाण परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
नानापरिमलद्रव्याणि समर्पयामि। (अबीर गुलाल, हल्दी का चूर्ण चढ़ायें।)

सौभाग्यपेटिका

हरिद्रां कुङ्कुमं चैव सिन्दूरादिसमन्विताम् ।
सौभाग्यपेटिकामेतां गृहाणं परमेश्वरि ॥
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः।
सौभाग्यपेटिकां समर्पयामि। (सौभाग्यपेटिका समर्पण करें।)

धूप

वनस्पतिरसोद्धृतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः । 
आघ्रेयः सर्वदेवानां प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
धूपमाघ्रापयामि । (धूप दिखायें।)

दीप

साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वह्निना योजितं मया । 
दीपं गृहाण देवेशि त्रैलोक्यतिमिरापहम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
दीपं दर्शयामि । (घी की बत्ती दिखायें, हाथ धो लें।)

नैवेद्य

शर्कराखण्डखाद्यानि दधिक्षीरघृतानि च। 
आहारर्थं भक्ष्यभोज्यं नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
नैवेद्यं निवेदयामि । (नैवेद्य निवेदित करे।)

आचमनीय आदि

नैवेद्यान्ते ध्यानमाचमनीयं जलमुत्तरापोऽशनं। हस्तप्रक्षालनार्थं मुखप्रक्षालनार्थं च जलं समर्पयामि ॥ (आचमनी से जल दें।)

ऋतुफल

इदं फलं मया देवि स्थापितं पुरतस्तव ।
तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनि जन्मनि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
ऋतुफलानि समर्पयामि। (ऋतुफल समर्पण करें।)

ताम्बूल

पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम् । 
एलालवङ्गसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । ताम्बूलं समर्पयामि । (इलायची, लौंग, पूंगीफल के साथ पान निवेदित करें।)

दक्षिणा

दक्षिणां हेमसहितां यथाशक्तिसमर्पिताम् । अनन्तफलदामेनां गृहाण परमेश्वरि ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
दक्षिणां समर्पयामि। (दक्षिणा चढ़ायें।) 

आरती 

कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं तु प्रदीपितम् । 
आरार्तिकमहं कुर्वे पश्य मां वरदा भव ॥ 
श्री जगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
कर्पूरार्तिक्यं समर्पयामि।( कर्पूर की आरती करें।)


श्री अम्बाजी की आरती

जय अम्बे गौरी मैया जय श्यामा गौरी । 
तुमको निशिदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिव जी ॥ जय अम्बे ॥

 माँग सिंदूर विराजत टीको मृगमदको । 
उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥ जय अम्बे ॥

 कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजै । 
रक्त पुष्प गल माला कण्ठन पर साजै ॥ जय अम्बे ॥ 

केहरि वाहन राजत, खड्ग खपर धारी सुर नर मुनि जन सेवत, तिनके दुखहारी ॥ जय अम्बे ॥ 

कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती। 
कोटिक चंद्र दिवाकर सम राजत ज्योती ॥ जय अम्बे ॥

 शुम्भ निशुम्भ विदारे, महिषासुर-घाती । 
धूम्रविलोचन नैना निशिदिन मदमाती ॥ जय अम्बे ॥ 

चण्ड मुण्ड संहारे, शोणितबीज हरे। 
मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे ॥ जय अम्बे ॥ 

 ब्रह्माणी, रुद्राणी तुम कमला रानी । 
आगम-निगम वखानी, तुम शिव-पटरानी ॥ जय अम्बे ॥

 चौंसठ योगिनि गावत, नृत्य करत भैरूँ । 
बाजत ताल मृदंगा औ बाजत डमरू ॥ जय अम्बे ॥ 

तुम ही जगकी माता, तुम ही हो भरता। 
भक्तन की दुख हरता सुख सम्पति करता ॥ जय अम्बे ॥

 भुजा चार अति शोभित, वर- मुद्रा धारी। । 
मनवाञ्छित फल पावत सेवत नर-नारी ॥ जय अम्बे ॥

 कंचन थाल विराजत अगर कपुर बाती । 
(श्री) मालकेतु में राजत कोटिरतन ज्योती ॥ जय अम्बे ॥

 (श्री) अम्बेजी की आरति जो कोई नर गावै । 
कहत शिवानंद स्वामी, सुख सम्पति पावै ॥ जय अम्बे ॥

प्रदक्षिणा

यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृतानि च । 
तानि सर्वाणि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे ॥ 
श्रीजिगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । प्रदक्षिणां समर्पयामि। (प्रदक्षिणा करे।)

मंत्र पुष्पाञ्जलिं

श्रद्धया सिक्तया भक्त्या हार्दप्रेम्णा समर्पितः । मंत्रपुष्पाञ्जलिश्चायं कृपया प्रतिगृह्यताम् ॥ 
श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
मंत्रपुष्पाञ्जलिं समर्पयामि। (पुष्पाञ्जलि समर्पित करे।)

नमस्कार

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता । 
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥ 
श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
नमस्कारान् समर्पयामि। (नमस्कार करे, इसके बाद चरणोदक सिर पर चढ़ाये।)

क्षमा याचना

मंत्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि । 
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे ॥ 
श्रीजगदम्बायै दुर्गादेव्यै नमः । 
क्षमायाचनां समर्पयामि । (क्षमा याचना करे।) 

अर्पण 
ॐ तत्सद् ब्रह्मार्पणमस्तु । विष्णवे नमः, विष्णवे नमः, विष्णवे नमः ।