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ह्र्दयाकाश रहस्य ।।

        ह्रदय शब्द से कौन सी वस्तु समझ में आती है, इसे प्रत्येक साधक को जान लेना आवश्यक है।कारण,ज्ञान,भक्ति आदि सभी मार्गों में ह्रदय के संम्बन्ध में एक स्पष्ट धारणा न रहने पर साधना-मार्ग में अग्रसर नहीं हुआ जा सकता। प्राचीन काल में वैदिक ऋषिगण देहर-विद्या नामक इस ह्रदय-विज्ञान का अनुशीलन करते थे।ह्रदय जो कि आकाश स्वरूप है, वे देहरआकाश है, इस शब्द के जरिये वे लोग इंगित कर गये हैं। यही अंतर आकाश का नामान्तर है। बाहिर जैसा विशाल अपरिच्छिन आकाश दिखाई देता है, वोही दृष्टि अंतर्मुखी होने पर भीतर भी विशाल अनन्त आकाश का स्फुरण होता रहता है। यही आकाश हृदय के नाम से परिचित है। इस ह्रदय- आकाश में ईष्ट का स्फुरण होता रहता है। जितने दिनों तक चित शुद्ध नहीं होता, उतने दिनों तक अन्तराकाश तमसछन्न रहता है। चित्तशुद्धि के साथ-साथ अंधकार दूर होजाता है एवं स्वच्छ प्रकाश रूप में अंतर्दृष्टि के सामने हृदय आकाश उदभासित होता है। इस के बाद स्वच्छ आकाश में ज्योति का आविर्भाव ही ज्ञान की सूचना देता है। भाहरी आकाश में जिस प्रकार सूर्य उदय होता है, अन्तराकाश में भी उसी प्रकार देवतरूपी सूर्य का आविर्भाव होता है। उस आलोक से तब आकाश आलोकित हो जाता है।
उपनिषदों में इस ह्र्दयकाश को ही पुण्डरीक अथवा कमल कहा गया है। जब तक यह कमल प्रस्फुटित नहीं होता तब तक अंतःकरण अंधकार से तमसाछन रहता है। जिसे ईष्ट देवता का आविर्भाव कहा जाता है, वस्तुतः वोही भावों का विकास है। भावों के विकास के साथ-साथ कमल उन्मीलन होता है, अर्थात ह्र्दयकाश आलौकित होता है। ये ह्र्दयरूपी आकाश अथवा पदम् ही इष्ट देवता का अर्थात भगवान का आसन है। गीता के अट्ठारवे अध्याय में कहा गया है---- 
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशरार्जुनतिष्ठिति । 
भ्रामयन सर्वभूतानि यंत्रारुढ़ानणी मायया"।

            - इससे समझ में आ जाता है कि सभी के ह्र्दय में अर्थात अन्तर्यामी पुरूष रूप में परमात्मा विराजमान हैं। वे उस शून्य आसन में अधिष्ठित रहते हुए अपनी अचिन्त्य मायाशक्ति द्वारा देह का निरन्तर संचालन कर रहे हैं। देह की प्रव्रत्ति एवं निवर्ती के मूल में ह्र्दयस्थित पुरुषोत्तम की प्रेरणा के बिना अन्य कोई कारण मौजूद नहीं है। अहंकार में आविष्ट जीव अपने अनेक ज्ञान ओर क्रियाओं पर अभिमान करता है। जानने एवं करने का कर्ता स्वयं को समझता है। किंतु वास्तव में यह उसका अभिमान मात्र है। वास्तविकता ये है कि वह ना जानता है ओर ना कर्ता है। 
वे दृष्टा मात्र है। यह ज्ञान और क्रिया शक्ति की लीला मात्र है। यह शक्ति माया रूपणी- जिनका आश्रय एवम अधिष्ठाता उसके ह्र्दयस्थित अन्तर्यामी पुरुष हैं। इस सिद्धांत को स्पष्ट रूप से समझ लेने पर जीव कर्म-बन्धन से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं त्रैलोक्यमोहनाय विष्णवे नमः ।।

             विष्णु पूजन सार्वभौमिक है। भारतवर्ष के कुछ विद्वान पाश्चात्य मानसिकता से ग्रसित हो विष्णु को केवल आर्यों का देवता बताते हैं एवं शिव को द्रविणों का आराध्य परन्तु वास्तविकता यह है कि दक्षिण में अयप्पा के नाम से · विष्णु सदैव से सुपूजित रहे हैं। आर्य संस्कृति किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त रही है एवं आर्य संस्कृति के मूल में वैदिक ग्रंथ हैं। वेदों में जितनी विष्णु की स्तुतियाँ हैं उतनी ही रुद्र की भी स्तुतियां हैं। रुद्र का तात्पर्य शिव ही है। महाविष्णु को अवतारों का मूल स्तोत्र माना जाता है। पृथ्वी पर जितने भी शरीर धारण किये हुए अवतारी महापुरुष हुए हैं वे सबके सब विष्णु अंश ही हैं एवं इन सब अवतारी शक्तियाँ ने अपने समय काल एवं मांग के अनुसार कोमोवेश पृथ्वी के जीवों में सभ्यता का संचार किया है, उन्हें चेतना प्रदान की है, समाज का उद्धार किया है और समाज के साथ पूर्ण चुनौति से टकरायें हैं।
              प्रारम्भ में तो इनका घोर विरोध हुआ है पर बाद में चलकर सबने इन्हें पूर्ण हृदय के साथ स्वीकारा है और इनकी परम्पराओं पर चलकर मानव जगत में आश्चर्य जनक परिवर्तन हुए हैं। आश्चर्यजनक परिवर्तनों के लिए हमेशा परम विशेष शक्ति की प्राणी समुदाय को जरूरत पड़ी है। मनुष्य का असंख्य वर्षों का इतिहास इसका गवाह है कि एक अद्भुत, चमत्कारिक एवं दैवीय क्षमता से युक्त जीव से आगे चला है और उसके पीछे-पीछे भीड़ चली है। ऐसा हमेशा से होता आया है और हमेशा होता रहेगा। जीव जगत, प्राणी जगत, वनस्पति जगत के अंदर हमेशा एक अध्याय कोरा रहता है जिसके ऊपर नवीन लिखावट की सदैव आवश्यकता होती है। वनस्पतियाँ भी चमत्कारिक गुण कभी भी ग्रहण कर सकती हैं। मनुष्य भी किसी भी हद तक सुधार कर सकता है और यहीं पर उपासना की जरूरत पड़ती है। उपासना से व्यक्तिगत गुणों का विकास प्रचूरता के साथ होता है। परिवर्तन विश्व का नियम है। जीव का सम्पूर्ण जीवन परिवर्तनीय है। 
          कब किस मार्ग से,किसके द्वारा किस विधि से परिवर्तन हो जायेगा यह कहना मुश्किल है। आदिकाल से ही शैवमत और विष्णु मतावलम्बियों में भीषण द्वंद रहा है। द्वंद का कारण अर्धविकसित आध्यात्मिक चेतना है। वास्तव में हर और हरि एक दूसरे के पूरक हैं एवं इनके सायुज्य से ही एक साधक में आध्यात्मिक चिंतन पूर्ण हो पाता है। पंच भौतिक शरीर के साथ विष्णु शक्ति सबसे आसानी के साथ क्रियाशील हो पाती है। अन्य किसी देव शक्ति की अपेक्षा विष्णु जीव के प्रति सखा भाव स्थापित करने में ज्यादा सफल रहे हैं। अन्य शक्तियाँ इतनी नजदीक नहीं पहुँच पायी हैं। विष्णु के अलावा कोई और अन्य देव शक्ति जीव का शरीर धारण कर इस पृथ्वी पर लम्बे समय तक विचर भी नहीं पायी हैं। 
            जीव से, मनुष्य से मनुष्य की शैली में, मनुष्य के रूप में मनुष्य की भाषा में केवल विष्णु ही संवाद स्थापित कर पाये हैं और ब्रह्माण्ड के एक से एक परम दुर्लभ गूढ़ रहस्य सरलता के साथ प्रदान करने में सक्षम हुए हैं। आज मनुष्य रुद्र के बारे में देवी के बारे में, ब्रह्माण्ड के बारे में, आत्मा, परमात्मा, जीवोत्पत्ति इत्यादि के सम्बन्ध में जो कुछ जान सका है वह सब केवल विष्णु के कारण ही सम्भव हो सका है अन्यथा मनुष्य भी पशु के समान मूढ़ ही रह जाता। मस्तिष्क की सीमितता, न्यूनता को एक नया आयाम सदैव से विष्णु वाणी देती आ रही है। एक नया दृष्टिकोण, कुछ विहंगम ज्ञान की प्राप्ति हेतु दिव्य चक्षुओं की जरूरत होती है। कुछ विशेष अनुभूत करने के लिए दिव्य चक्षु अत्यंत आवश्यक हैं और दिव्य चक्षु सदैव से विष्णु प्रदान करते चले आ रहे हैं अध्यात्म का सरलीकरण हमेशा विष्णु ने किया है। चाहे वे बुद्ध के रूप में हों, राम के रूप में, कृष्ण के रूप में या किसी अन्य रूप में आखिर उद्धारक, सखा वे ही बनते हैं।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

सुंदरकांड- चमत्कारिक प्रभाव देने वाला काव्य ।।


सुंदरकांड को समझ कर उसका पाठ करें तो हमें और भी आनंद आएगा। सुंदरकांड में 1 से 26 तक जो दोहे हैं, उनमें शिवजी का अवगाहन है, शिवजी का गायन है, वो शिव कांची है। क्योंकि शिव आधार हैं, अर्थात कल्याण। जहां तक आधार का सवाल है, तो पहले हमें अपने शरीर को स्वस्थ बनाना चाहिए, शरीर स्वस्थ होगा तभी हमारे सभी काम हो पाएंगे। किसी भी काम को करने के लिए अगर शरीर स्वस्थ है तभी हम कुछ कर पाएंगे, या कुछ कर सकते हैं। सुंदरकांड की एक से लेकर 26 चौपाइयों में तुलसी बाबा ने कुछ ऐसे गुप्त मंत्र हमारे लिए रखे हैं जो प्रकट में तो हनुमान जी का ही चरित्र है लेकिन अप्रकट में जो चरित्र है वह हमारे शरीर में चलता है। हमारे शरीर में 72000 नाड़ियां हैं उनमें से भी तीन सबसे महत्वपूर्ण हैं।

जैसे ही हम सुंदरकांड प्रारंभ करते हैं- ॐ श्री परमात्मने नमः, तभी से हमारी नाड़ियों का शुद्धिकरण प्रारंभ हो जाता है। सुंदरकांड में एक से लेकर 26 दोहे तक में ऐसी ताकत है, ऐसी शक्ति है... जिसका बखान करना ही इस पृथ्वी के मनुष्यों के बस की बात नहीं है। इन दोहों में किसी भी राजरोग को मिटाने की क्षमता है, यदि श्रद्धा से पाठ किया जाए तो इसमें ऐसी संजीवनी है, कि बड़े से बड़ा रोग निर्मूल हो सकता है।

सुंदरकांड की एक से लेकर 26 चौपाइयों में शरीर के शुद्धिकरण का फिल्ट्रेशन प्लांट मौजूद है। हमारे शरीर की लंका को हनुमान जी महाराज स्वच्छ बनाते हैं। जैसे-जैसे हम सुंदरकांड के पाठ का अध्ययन करते जाएंगे वैसे-वैसे हमारी एक-एक नाड़ियां शुद्ध होती जाएंगी। शरीर का जो तनाव है, टेंशन
है वह 26वें दोहे तक आते-आते समाप्त हो जाएगा। आप कभी इसका अपने घर प्रयोग करके देखना, हालांकि घर पर कुछ असर कम होगा लेकिन सामूहिक
सुंदरकांड में इसका लाभ कई गुना बढ़ जाता है। क्योंकि आज के युग में कोई शक्ति समूह में ज्यादा काम करती है,  

अगर वह साकारात्मक है तब भी और यदि नकारात्मक है तब भी ज्यादा काम करेगी। बड़ी संख्या में साकारात्मक शक्तियां एकत्र होकर जब सुंदरकांड का पाठ करती हैं तो भला किस रोग का मजाल कि वह हमारे शरीर में टिक जाए। 
आप घर पर इसका प्रयोग कर इसकी सत्यता की पुष्टि कर सकते हैं। किसी का यदि ब्लड प्रेशर बढ़ा हुआ है तो उसे संकल्प लेकर हनुमान जी के आगे बैठना चाहिए, 
संपुट अवश्य लगाएं-
मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी।।
यह संपुट बड़ा ही प्रभावकारी है, इसे बेहद प्रभावकारी परिणाम देने वाला संपुट माना गया है। आप मानसिक संकल्प लेकर सुंदरकांड का पाठ आरंभ करें और देखें 26वें दोहे तक आते-आते आपका ब्लड प्रेशर नार्मल हो जायेगा, आप स्वयं रक्तचाप नाप कर देख सकते हैं वह निश्चित सामान्य होगा नार्मल होगा। 100 में से 99 लोगों का निश्चित रूप से ठीक होगा, केवल उस व्यक्ति का जरूर गड़बड़ मिलेगा जिसके मन में परिणाम को लेकर शंका होगी। जो सोच रहा होगा कि होगा कि नहीं होगा, उस एक व्यक्ति का परिणाम गड़बड़ हो सकता है। आप पूर्ण श्रद्धा के साथ सुंदरकांड का पाठ करें परिणाम शत-प्रतिशत अनुकूल आएगा ही। सुंदरकांड की एक से लेकर 26 दोहे तक की यह फलश्रुति है कि आपका शरीर बलिष्ट बने।

शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्
जब तक हमारा शरीर स्वस्थ है, तभी तक हम धर्म-कर्म कर सकते हैं, शरीर स्वस्थ है तो हम भगवान का नाम ले सकते हैं। यदि शरीर में बुखार है, ताप है तो हमें प्रभु की माला करना अच्छा लगेगा ही नहीं। इसलिए शरीर तो हमारा रथ है इसका पहले ध्यान रखना है, स्वस्थ रखना है।

सुंदरकांड बाबा तुलसीदास जी का हनुमान जी के लिए एक वैज्ञानिक अभियान है और जैसे ही 26वां दोहा आएगा, वैसे ही

मंगल भवन अमंगल हारी।
उमा सहित जेहि जपत पुरारी।। 

कैलाश में बैठे भगवान शिव और मां पार्वती के साथ यह वार्तालाप है, सुंदरकांड में 26वें दोहे के बाद जो गंगा बहती है वह है शिव कांची है। इसमें हमारे शरीर का ऊपर का भाग है, उसे स्वस्थ रखने की संजीवनी है। जैसे-जैसे हम पाठ करते जाएंगे 26वें दोहे के बाद हमारा मन शांत होता जाएगा। 

प्रत्येक व्यक्ति की कोई ना कोई इच्छा जरूर होती है, बिना इच्छा के कोई व्यक्ति नहीं हो सकता। सुंदरकांड हमारी व्यर्थ की इच्छाओं को निर्मूल करता है, साथ ही हमारी सद्इच्छाओं को जागृत करता है। विभीषण जी ने राम जी से कहा ही है- 
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥ 

यहां विभीषण जी ने कन्फेशन किया, स्वीकार किया है- प्रभु मुझे भी वासना थी कि मुझे लंका का राज मिलेगा। लेकिन जब से श्री राम जी के दर्शन हुए हैं तभी से 'वासना' 'उपासना' में परिवर्तित हो गई है। सुंदरकांड वासना को उपासना में परिवर्तन करने का सबसे बड़ा संस्कार केंद्र है। हमारे शरीर का थर्ड फ्लोर मस्तिष्क और मन हमेशा गर्म रहता है। 10 आदमियों में 9 व्यक्तियों को टेंशन है। कोई न कोई तनाव तो है ही। और यह

तनाव जिसको नहीं है वह या तो योगी है या फिर वह पागल है। इसलिए जो गोली आप लेते हैं, उसे मत लेना, स्थगित कर देना। बस आप सब सुंदरकांड का प्रेम से पाठ करना, हनुमान बाबा के सामने बैठकर। स्वयं सुंदरकांड में दो जगह हनुमान जी का वादा है... 

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥

इसी प्रकार एक और वचन है

भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहिं जे नर अरु नारी।

तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्द्ध करहिं त्रिसिरारी।।

सुंदरकांड हमें यूं ही अच्छा नहीं लगता है, यह हमें इसलिए अच्छा लगता है क्योंकि यह हमारे अंदर का जो तत्व है उसको दस्तक देता है, कि जागो... हमारे अंदर जो दिव्यता है सुंदरकांड उसको जगाने का काम करता है। 

इसीलिए तो विभीषण जी ने कहा है- 
उर कछु प्रथम वासना रही।
 प्रभु पद प्रीति सरिस सो बही।। 

रामजी कहते हैं---
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥ 
जिसका मन निर्मल है, वही मुझे पाएगा... कबीर दास जी इसे बेहद सरल ढंग से परिभाषित किया।

 दोनों निर्मल हो गए कुछ आशा बची ही नहीं। सुंदरकांड हमें निरपेक्ष बनाता है। सुंदरकांड भौतिक सुख शांति ही नहीं देता, बल्कि हमें मिलना है वह तो हम लिखवाकर ही आए हैं, गाड़ी बंगला, सुख-वैभव, यह हमारा प्रारब्ध तय करता है, जो हम लिखावाकर नहीं आए हैं, वह हमें सुंदरकांड देता है।
बिनु सत्संग विवेक न होई।
रामकृपा बिनु सुलभ न सोई।।
सुंदरकांड में हमें सब कुछ देने की क्षमता है लेकिन प्रभु से मांग कर उन को छोटा मत कीजिए...

तुम्हहि नीक लागै रघुराई। 
सो मोहि देहु दास सुखदाई॥ 

है प्रभु आपको जो ठीक लगता है वह हमें दीजिए... 

उदाहरण के लिए यदि कोई बालक अपने पिता से 10 या 20 रुपये मांगता है और पिता उसे रुपये देकर अपना कर्तव्य पूरा मान लेगा, यानी पिता सस्ते में छूट गया, लेकिन वही बालक अपने पिता से कहता है कि जो आप को ठीक लगे वह मुझे दीजिए, ऐसा सुनते ही पिता की टेंशन बढ़ जाएगी, तनाव छा जाएगा... क्योंकि पिता पुत्र को सर्वश्रेष्ठ देना चाहता है। इसलिए परमपिता परमेश्वर को मांगकर छोटा मत कीजिए, उनसे कहिए जो बात प्रभु को ठीक लगे, वही मुझे दीजिए। फिर भगवान जब देना शुरू करेंगे तो हमारी ले लेने की क्षमता नहीं होगी... उसी क्षमता को बढ़ाने का काम यह सुंदरकांड करता है।
सुंदरकांड के द्वितीय चरण में एक महामंत्र है...
दीन दयाल बिरिदु संभारी। 
हरहु नाथ मम संकट भारी।। 

यह चौपाई रामचरितमानस का तारक मंत्र है, इसे अपने हृदय पर लिखकर रख लीजिए। रामचरित मानस का यह मंत्र हमें उस संकट से मुक्ति दिलाता है जिसके बारे में हमें भी नहीं पता है। इसी प्रकार रामचरितमानस का एक और महामृत्युंजय मंत्र है....
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥
यदि आपको मृत्यु का भय लग रहा है तो इस दोहे का रटन कीजिए, यदि आपको लगता है कि आप फंस गए हैं और निकलना असंभव जान पड़ रहा है, ऐसे में घबराने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। आप हनुमान जी का ध्यान करके इस दोहे का रटन शुरू कर दीजिए। हनुमान जी महाराज की कृपा से 15 मिनट में संकट टल जाएगा।

इस पंक्ति का, इस दोहे का कुछ विद्वान इस तरह भी अर्थ निकालते हैं कि जो आपके भाग्य में लिखा है, उसको तो आपको भोगना ही है, लेकिन उसे सहन करने की शक्ति रामजी के अनुग्रह से हनुमान जी प्रदान करते हैं और जीवन से हर परेशानियों को मुक्त कर देते हैं। हनुमान जी की असीम अनुकंपा को बखान करना किसी के भी बस में नहीं है... हम केवल उसका अनुभव साझा कर सकते हैं। सुंदरकांड दिन-प्रतिदिन अपने अर्थ को व्यापक बनाता जाता है। आज आपके लिए एक अर्थ है, तो कल दूसरा होगा। ये महिमा है प्रभु की। तो सुंदरकांड का अध्ययन करते रहिये और प्रतिदिन प्रभु के प्रसाद को ग्रहण करने की क्षमता बढ़ाते रहिये...।

जय हनुमान

🙏 जय राम जी की 🙏

परम् न्यायधीश ।।

      महर्षि डग नर्मदा के किनारे तपस्या में लीन थे, उन्होंने नर्मदांचल में आश्रम बना रखा था। महर्षि डग जैसे ही ध्यानस्थ होते, एक भीलनी आकर श्रृद्धापूर्वक उनके आश्रम को साफ सुथरा कर देती, लीप पोत देती, पुनः व्यवस्थित कर देती और धीरे से चुपचाप चली जाती। कई वर्षों तक वह भीलनी बिना महर्षि से बताये स्वेच्छा भाव से छुप-छुप कर उनकी इस प्रकार सेवा करती रही। महर्षि प्रतिदिन अपने आश्रम को सुव्यवस्थित देख आश्चर्यचकित हो जाते आखिरकार एक दिन उन्होंने पता लगाने हेतु संकल्प लिया। वे छदम ध्यान मुद्रा में बैठ गये और जैसे ही भीलनी ने दबे पाँव आकर कार्य प्रारम्भ किया उन्होंने आँखें खोल दीं, वे भीलनी की सेवा और समर्पण को देख अति प्रसन्न हो उठे एवं गदगद वाणी में बोले हे प्रिये मैं तुम्हारी सेवा से अत्यधिक प्रसन्न हूँ तुम जो चाहे वह वरदान मांग लो। भीलनी बोली हे महर्षि आपने मेरे लिए प्रिये शब्द का सम्बोधन क्यों किया? यह शब्द तो पत्नी के लिए उपयोग किया जाता है अतः प्रथम सम्बोधन अनुसार आप मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिए एवं मुझे पुत्र प्रदान कीजिए। 

           महर्षि के ऊपर शनि की महादशा प्रारम्भ हो गई थी, वे गलती कर बैठे बोले तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। भीलनी बोली महर्षि यह आपने दूसरी गलती की, प्रथम में मुझे प्रिये कहकर सम्बोधित किया द्वितीय आपने मुझे पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया परन्तु आप तो ब्रह्मचारी हैं। महर्षि सोच में पड़ गये बोले नहीं मैं तप के माध्यम से तुम्हें पुत्रोत्पत्ति दूंगा। भीलनी ने कहा यह आपने तीसरी गलती की, आप तो धर्म के मार्ग पर चल दिए हैं परन्तु आपके तप से उत्पन्न मेरा पुत्र तो आखेट भी करेगा, मछली भी पकड़ेगा क्योंकि मेरी जाति में यह सब एक सामान्य कर्म हैं परन्तु होगा तो वह ऋषि पुत्र ही अतः एक ऋषि पुत्र को इस प्रकार के सामान्य कर्म शोभा नहीं देते। महर्षि सोच में पड़ गये यह कैसी प्रभु की लीला ? यह कैसे पूर्व जन्म के सम्बन्ध है ? है तो यह भीलनी परन्तु बातें ऋषि पत्नियों के समान करती है। महर्षि के सामने पूर्व जन्म कौंध उठा क्योंकि उन्होंने शनि देव का आह्वान किया था शनि देव ने न्यायधीश के समान उनके पूर्व जन्म की परतों को एक-एक करके खोल दिया। अपने पूर्ण जन्म की पत्नी को भीलनी के रूप में देख ऋषि व्याकुल हो उठे और बोले अब इस जीवन में जो कह दिया सो कह दिया अब आने वाले जन्मों में बंधन लेकर नहीं जाऊंगा, बंधन मुक्त होना चाहता हूँ। तुझे मेरे तप से पुत्र प्राप्त होगा, हां शनि की महादशा में ऋषि पुत्र प्राप्त होगा और वह ब्राह्मण ही कहलायेगा एवं उससे चलने वाला वंश एक विशेष प्रकार के ब्राह्मणों का वंश होगा जो कि एकमात्र इस धरा पर शनि का दान लेने के लिए उत्तराधिकारी होगें। अन्य ब्राह्मण शनि के निमित्त किया गया दान स्वीकार नहीं करते। केवल डग ऋषि से उत्पन्न डाकौत ब्राह्मणों की श्रृंखला ही शनि के निमित्त किया गया दान स्वीकार करती है। 

         काले कपड़े हों, काली अक्षत हो, लौह निर्मित वस्तुएं हों, तेल का पात्र हो, काली गाय हो, काला पशु हो, काले चने हो, धन हो इत्यादि यह सब केवल डाकौत ब्राह्मण ही स्वीकार करते हैं, उन्हीं में योग्यता है इस दान को ग्रहण करने की। शनि ही उनके कुल देवता हैं, शनि ही उनके इष्ट हैं, शनि ही उनके गुरु हैं। शरीर में शनि का स्थान नाभि से दो अंगुल नीचे है, नाभि से दो अंगुल नीचे शनि देव विराजमान रहते हैं। योग मार्ग में दो क्रियायें हैं वमन और विरेचन एवं यही शनि के दो प्रमुख लक्षण हैं। शनि अपने पुत्रों का भक्षण कर रहा था परन्तु रिया देवी ने एक पुत्र छिपा लिया जिसने विरेचन औषधि देकर शनि को वमन करने पर मजबूर कर दिया और इस प्रकार शनि द्वारा भक्षित समस्त पुत्र वमन के माध्यम से बाहर निकल आये। जब शरीर रोग ग्रस्त होता है तो योग क्रिया के माध्यम से साधक को वमन एवं विरेचन करने पर मजबूर किया जाता है जिससे कि मल के माध्यम से, उल्टी के माध्यम से विष का निष्कासन हो सके। सड़ान्ध, अनाधिकृत रूप से एकत्रित करके रखी गई ऊर्जा शरीर से मुक्त हो सके और जीव पुनः हल्का एवं स्वस्थ महसूस करे। शनि की मार ऐसी ही है, जब शनि की गदा बरसती है तो बस जातक की कराह ही सुनाई देती है। न गदा दिखाई देती है, न गदा मारने वाला दिखाई देता है। वमन और विरेचन न हो तो वृक्ष फल नहीं देते, समुद्र वर्षा नहीं देगा, भूमि अन्न नहीं देगी, पशु एवं जीव संतान उत्पत्ति नहीं करेगीं इन सबके मूल में वमन और विरेचन छिपा हुआ है। 

           त्यागना तो पड़ेगा ही, जितनी जरूरत है उतना ले लो उससे ज्यादा मत लो नहीं तो गधे बन जाओगे, कब तक ढोओगे? यही शनि उवाच है। जितना ढो सकते हो उतना ढोओ उससे ज्यादा ढोने की कोशिश मत करो। जितना वजन लेकर बालक पैदा होता है उतना ही वजन मरने के बाद अस्थियों का होता है इससे एक रत्ती भी ज्यादा नहीं। शिव लोक में गणेश ने जन्म लिया महान कौतुक समस्त ब्रह्माण्ड में छा गया। शिव जैसा योगी पिता बन गये, काम को दग्ध करने वाला शिव आज पिता बन गये अतः चारों तरफ प्रसन्नता छा गई। ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, कुबेर, सरस्वती, बृहस्पति, सूर्य सबने जी भरकर दान दक्षिणा देना प्रारम्भ किया। अब दान दक्षिणा इतनी ज्यादा हो गई कि ब्राह्मणों से उठ ही नहीं रही थी, वे सबके सब दान की हुई वस्तुओं को उठाने में असमर्थ हो गये। एक-एक कर सभी देवगण आते और गणेश के मुख का दर्शन कर हर्षित हो उठते तभी शनि देव भी आ गये गणपति के दर्शनार्थ शनि देव नीचे दृष्टि किए हुए जगदम्बिका के सामने खड़े थे, जगदम्बा ने कहा हे शनि देव आप भी मेरे पुत्र का मुख क्यों नहीं देखते? शनि देव अपनी दृष्टि की विशेषता जानते थे अतः उन्होंने साफ-साफ कहा कि हे मातेश्वरी मेरी दृष्टि गणेश का अनिष्ट कर सकती है इसलिए मैं इनके मुख की तरफ नहीं देखूंगा परन्तु जगदम्बा बोली यह शिव लोक है यहाँ कर्म के सिद्धांत नहीं चलते। गणेश, शिव और शक्ति का पुत्र है तुम निर्भय होकर इसके दर्शन करो। शनि ने दुःखी मन से नेत्र के एक कोने से गणपति पर दृष्टि डाली और दूसरे ही क्षण गणपति का शीश ब्रह्माण्ड में उड़ गया एवं रक्त रंजित धड़ जगदम्बा की गोद में पड़ा रहा। 

       दूसरे ही क्षण जगदम्बा की समस्त कलायें जाग उठीं, एक साथ दस महाविद्याएं उठ खड़ी हुईं, प्रत्यंगिरा, नित्याएं, अघोरनी, चाण्डालिका, कर्कशिका, दारुणिका, विदारिका इत्यादि सबकी सब उग्र हो उठीं। काली ने सबका भक्षण शुरु कर दिया, छिन्नमस्ता ने शीर्षों को छिन्न छिन्न करना प्रारम्भ कर दिया, 64 योगिनियों ने रक्त की धारायें बहा दी, दक्षिण काली ने चारों तरफ ज्वर ही ज्वर फैला दिया, धूमावती ने समस्त ब्रह्माण्ड को धुए में ढँक दिया एवं शिवगणों का भी भक्षण करने लगीं। बगलामुखी ने सूर्य, पवन, अग्नि, इन्द्र, यम, जल, इत्यादि ब्रह्माण्ड के प्रत्येक लोक और तत्व को स्तम्भित करके रख दिया। अट्ठाहसिका अट्ठाहस करने लगीं, मातंगी ने स्वरों का भी लोप कर दिया, राज राजेश्वरी ने ब्रह्माण्ड उलटकर रख दिया, जगदम्बा के त्रिनेत्र से एक एक करके असंख्य महा विकराल रूप लिए करालिकाएं उत्पन्न होने लगीं। शिव की कुछ समझ में नहीं आया, ब्रह्मा किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गये उनकी सृष्टि तृण के समान नष्ट होने लगी बस समस्त ब्रह्माण्ड में हूंकार ही हूंकार थी। 

         श्रीहरि गरुड़ पर सवार हो सुदर्शन चक्र ले दौड़े और गज मुख लाकर गणेश के धड़ पर स्थापित कर दिया। श्री हरि आज अपनी बहिन जगदम्बा का रौद्र रूप देख समझ गये थे कि अब उनके कर्म के सिद्धांत के प्रवर्तक शनि की खैर नहीं है। कुपित जगदम्बा ने भस्माग्नि से सम्पूर्ण नेत्रों से शनि की तरफ देखा। क्रूर को महाक्रूर दृष्टि से देखा और श्राप देते हुए कहा जा अंगहीन हो जा और देखते ही देखते शनि की टांग टूट गई, वह लड़खड़ाकर चलने लगे, श्रीहरि के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये रक्षार्थ हेतु । श्रीहरि ने तुरंत अपने सुदर्शन चक्र में से एक अंश त्रैलोक्य मोहन गणेश कवच के रूप में उदित कर दिया और उसे शनि को धारण करा दिया। नीचे श्रीहरि द्वारा सुदर्शन चक्र में से प्रादुर्भावित दिव्य गणेश कवच का वर्णन है

त्रैलोक्य मोहन गणेश कवच

संसारमोहनस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः । 
ऋषिश्छन्दश्च बृहतो देवो लम्बोदरः स्वयम् ॥ 
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः । 
सर्वेषां कवचानां च सारभूतमिदं मुने।। 
ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।
द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटो मे सदाऽवतु ॥ 
ॐ ह्रीं क्लीं गमिति च संततं पातु लोचनम् । 
तालुकं पातु विघ्नेश: संततं धरणीतले ॥ 
ॐ ह्रीं श्रीं क्लींमिति च संततं पातु नासिकाम् । 
ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम।। 
दन्तानि तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षरः । 
ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदाऽवतु ।। 
ॐ क्लीं ह्रीं विघ्ननाशाय स्वाहा कर्ण सदाऽवतु ।
ॐ श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदाऽवतु ।। 
ॐ ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ।
ॐ क्लीं हीमिति कङ्कालं पातु वक्षःस्थलं च गम्।। 
करौ पादौ सदा पातु सर्वाङ्गं विघ्ननिघ्नकृत् ॥ 
प्राच्यां लम्बोदरः पातु आग्नेय्यां विघ्जनायकः ।

दक्षिणे पातु विघ्नेशो नैर्ऋत्यां तु गजाननः ॥ 
पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शंकरात्मजः । 
कृष्णस्यांशश्चोत्तरे च परिपूर्णतमस्य च ॥ 
ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्ब: पातु चोर्ध्वतः । 
अघो गणाधिपः पातु सर्वपूज्यश्च सर्वतः ॥ 
स्वप्ने जागरणे चैव पातु मां योगिनां गुरुः ॥ 
इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् । 
संसारमोहनं नाम कवचं परमाद्भुतम् ॥
श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले । 
वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मज ॥ 
मया दत्तं च तुभ्यं च यस्मै कस्मै न दास्यसि । 
परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसंकटतारणम् ॥ 
गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु यः । 
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ॥ अश्वमेघसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च । 
ग्रहेन्द्र कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ 
इदं कवचमशात्वा यो भजेच्छंकरात्मजम् । 
शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥

शनि देव ने तुरंत गणेश कवच का पाठ प्रारम्भ कर दिया और इस प्रकार महाकूरा रूप धारण की हुई जगदम्बा की दृष्टि शनि के प्रति सौम्य हो गई।

       आप शनि के आस-पास आज भी वलय देखते हैं, वे चारों तरफ से सुदर्शन चक्र नुमा वलय से आच्छादित हैं। क्रूर दृष्टि सम्पन्न शनि पर अनेकों बार महायोगियों, महाशक्तियों, महाविद्याओं, महादेवों, महर्षियों के साथ-साथ सभी जीवों की भी वक्र दृष्टि होती है। शनि को तो सूर्य भी वक्र दृष्टि से देखते हैं ऐसे में बेचारा शनि अकेला पड़ जाता है। किस किस की वक्र दृष्टि, किस-किस की क्रूर दृष्टि को वह झेले। भला किसमें ताकत है कि वह जगदम्बा की क्रूर दृष्टि झेले ? उनके आगे तो शिव भी नतमस्तक हैं। ब्रह्माण्ड एक से एक विलक्षण शक्तियों से भरा पड़ा है जो किसी को कुछ नहीं समझतीं तब से लेकर आज तक नीची आँख किए, ध्यान भाव में बैठे, एकाकी जीवन जीने वाले योगियो, साधु-संन्यासियों को सभी महाविद्याएं शंका की दृष्टि से, वक्र दृष्टि से, क्रूर दृष्टि से सर्वप्रथम देखती हैं कि कहीं पुनः शनि तो नहीं आ रहा है। 

            आदि गुरु शंकराचार्य जी जब दक्षिण में जगदम्बा के मंदिर में प्रविष्ट होने वाले थे तो उन्होंने सर्वप्रथम इसी गणेश कवच को धारण किया था। प्रत्येक समझदार संन्यासी को मातृ विग्रह के सामने जाने से पूर्व इस गणेश कवच को अवश्य धारण करना चाहिए अन्यथा उसे जगदम्बा की वक्र दृष्टि झेलनी पड़ेगी। जो कवच शनि की भी रक्षा करे वह कवच तो शनि की महादशा से ग्रसित जातक के लिए साक्षात् संजीवनी है। जैसे ही गणपति का शिरोच्छेदन हुआ नीलकमल के समान सदृश्य मां जगदम्बा की आँखों से अश्रु बूंदे पुत्र वियोग में छलक पड़ी और यही अश्रु बूंदे कालान्तर नीलमणि अर्थात नीलम के रूप में स्थापित हुईं। नीलम अर्थात माँ जगदम्बा की आँखों से गणेश वियोग में स्खलित हुई साक्षात् अश्रु बूंदें। जब जातक शनि की महादशा के अंतर्गत आता है तो वह जगदम्बा के सामने गणेश जी का ध्यान करके शनि की अंगुली में अर्थात मध्यमा में नील मणि धारण करता है और इस प्रकार जगदम्बा के समस्त रूप जातक की शनि की कुदृष्टि से रक्षा करते हैं। शनि भी नीलमणि को देख पूर्व काल में घटित जगदम्बा के परम प्रचण्ड स्वरूप को याद कर जातक को राहत प्रदान करते है। राष्ट्रपति चाहे तो क्षण भर में, राष्ट्राध्यक्ष चाहे तो क्षण भर में मृत्युदण्ड प्राप्त, आजीवन कारावास प्राप्त अभियुक्त को क्षमा कर सकता है, उसे क्षमादान करने की विशेष शक्ति प्राप्त है। न्याय ही सब कुछ नहीं है, न्याय से ऊपर क्षमा है। कभी-कभी न्याय भी गलत होता है, दोषी निर्दोष साबित हो जाते हैं एवं निर्दोषी दोषी साबित हो जाते हैं। क्षमा जीव का जन्म सिद्ध अधिकार है, क्षमा याचना पर ही अध्यात्म चलता है। 

          प्रायश्चित, दण्ड व्यवस्था से ऊपर का स्तर है। दण्ड व्यवस्था ने आज तक परिवर्तन नहीं किया अगर ऐसा होता तो हत्यायें रुक गईं होती, व्याभिचार रुक गये होते, चोरी रुक गईं होती पर ऐसा कभी नहीं हुआ क्रूर से क्रूर दण्ड प्रदान से करने वाले देशों में भी अपराध होते हैं शनि की महादशा भोगने के बाद भी जातक पुनः अपराध करते हैं। दण्ड व्यवस्था, न्यायधीश व्यवस्था एक तरह से भैरव तंत्र के अंतर्गत आती है। भय का उत्पादन, भयभीत करना प्रताड़ित करना ही शनि का कार्य है एवं इस प्रणाली से मात्र कुछ हद तक अंकुश लगता है पर यह पूर्ण उपचार नहीं है। पूर्ण उपचार तो शिवोऽहम भाव में है, वास्तविक अध्यात्म में है और कहीं नहीं। परिवर्तन सिर्फ शिव और शक्ति का विषय है। फर्जी नकली दुर्गा, फर्जी नकली काली, फर्जी नकली गणेश, फर्जी नकली विष्णु, फर्जी नकली देवता, फर्जी नकली हनुमान इत्यादि । 

हाँ नकली दुर्गा भी हैं, नकली काली भी हैं, नकली गणेश भी हैं, यह तो समुद्र मंथन के समय ही हो गया था जब राहु और केतु नकली देव बनकर अमृत पीने के लिए देव पंक्ति में बैठ गये थे। कृष्ण के जमाने में भी नकली कृष्ण उत्पन्न हो गये थे। पैशाचिक शक्तियाँ, असुर शक्तियाँ, दैत्य शक्तियाँ, नकली निर्माण करती हैं। असुरत्व से ग्रसित व्यक्ति नकली अंग बनाते हैं, नकली आँख बनाते हैं, नकली बाल लगाते हैं, नकली दूध बनाते हैं, असुरों ने तो फर्जी विश्वकर्मा, फर्जी चंद्रमा, नकली अप्सरायें भी बना ली थीं जब उनका स्वर्ग पर शासन हो गया था। आज देखो तो दरबार लगे रहते हैं, माता की बैठकें होती हैं, किसी को भैरव आते हैं तो किसी को हनुमान जी आते हैं। यह सब नाटक है फर्जी नाटक यहाँ पर सिर्फ भूत- -प्रेत, पिशाच जैसी मायावी शक्तियाँ फर्जी दुर्गा, फर्जी काली, फर्जी भैरव, फर्जी हनुमान बनकर क्रियाशील होती हैं, पूजा मांगती हैं, बलि मांगती हैं, नारियल, सुपारी मांगती हैं, पैसे भी मांगती हैं। कहीं पर भी वास्तविक शक्ति इस तरह से नहीं आती। बहुत से साधक आते हैं, ग्रसित व्यक्ति आते हैं, जीभ निकालते हैं, प्रपंच करते हैं परन्तु सबके सब प्रेतत्व से ग्रसित हैं, पिशाचत्व से ग्रसित हैं। कहीं पर भी दिव्य शक्ति नहीं है सब जगह फर्जी शक्तियाँ बैठी हुई हैं। हाँ काम तो ये थोड़ा बहुत कर देती हैं पर जो कहती हैं वह होती नहीं हैं। एक और बात इन पर शनि वक्र दृष्टि डालते हैं और इनके पिशाचत्व को खींच अपने इर्द-गिर्द घूम रहे क्षुद्र ग्रहों में प्रतिष्ठित कर देते हैं। सामान्यतः शनि की महादशा के अंतर्गत जातक फर्जी शक्तियों से ग्रसित हो जाता है। 

        दस महाविद्याओं की बात करते हैं जिस प्रकार शनि देव बिना छत्र के बिना छाया के स्वच्छंद आकाश के नीचे विराजमान होते हैं उसी प्रकार महाविद्याएं भी अपनी स्वच्छंदता और स्वतंत्रता नहीं छोड़तीं। कोई भी परम शक्ति को सर्वप्रिय उसकी स्वच्छंदता और स्वतंत्रता होती है, वह बाध्यता से बचती है महाविद्याओं के मंदिर कहाँ हैं? एक भी हो तो मुझे बताओ अतः ये सब तो अनंत ब्राह्मण्डों में आनंद के साथ विचरण करती रहती हैं। हाँ कभी कभार वामक्षेपा, स्वामी निखिलेश्वरानंद जी या पीताम्बराशक्तिपीठ के राष्ट्र गुरु श्री 1008 श्री स्वामी जी महाराज वनखण्डेश्वर इत्यादि जैसी महान विभूतियाँ अपने तपोबल पर इनके अंशांश एक विशेष स्थान पर क्रियाशील कराने में सक्षम हो जाते हैं और इस प्रकार कुछ सीमित समय के लिए तपस्वी अपने तपोबल पर महाविद्या की विशेष शक्ति पीठ निर्मित करने में सफल हो पाता है। शक्तिपीठ पर भी कभी-कभार दो चार दस वर्षों में एक दिव्य तरंग सूर्य मण्डल को भेदते हुए स्पर्शित हो जाती है। छिन्नमस्ता का मंदिर कहीं नहीं है, दक्षिण काली का मंदिर कहीं नहीं है, बगलामुखी का मंदिर कहीं नहीं है। जो कुछ हैं वे शक्तिपीठ ही हैं। मंदिर का तात्पर्य है देव शक्ति का स्थाई वास ऐसा कहीं नहीं है अपितु अंशांश, अति सूक्ष्मांश में शक्ति विशेष शक्ति पीठ पर यदा-कदा संस्पर्शित होती रहती है। शनि देव के इस लेख में परम सत्य आवरण विहीन किया गया है, न आवरण में रहते हैं न आवरण रहने देते हैं .

ॐ शं शनैश्चराय नमः ।

ज्योतिष शास्त्र में सिद्धि योग के महत्व ।।

ज्योतिष शास्त्र में पंचांग से तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण के आधार पर मुहूर्तों का निर्धारण किया जाता है। जिन मुहूर्तों में शुभ कार्य किए जाते हैं उन्हें शुभ मुहूर्त कहते हैं। इनमें सिद्धि योग, सर्वार्थ सिद्धि योग, गुरु पुष्य योग, रवि पुष्य योग, पुष्कर योग, अमृत सिद्धि योग, राज योग, द्विपुष्कर एवं त्रिपुष्कर यह कुछ शुभ योगों के नाम हैं।

 
अमृत सिद्धि योग :- अमृत सिद्धि योग अपने नामानुसार बहुत ही शुभ योग है। इस योग में सभी प्रकार के शुभ कार्य किए जा सकते हैं। यह योग वार और नक्षत्र के तालमेल से बनता है। इस योग के बीच अगर तिथियों का अशुभ मेल हो जाता है तो अमृत योग नष्ट होकर विष योग में परिवर्तित हो जाता है। सोमवार के दिन हस्त नक्षत्र होने पर जहां शुभ योग से शुभ मुहूर्त बनता है लेकिन इस दिन षष्ठी तिथि भी हो तो विष योग बनता है।
 
सिद्धि योग :- वार, नक्षत्र और तिथि के बीच आपसी तालमेल होने पर सिद्धि योग का निर्माण होता है। उदाहरण स्वरूप सोमवार के दिन अगर नवमी अथवा दशमी तिथि हो एवं रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, श्रवण और शतभिषा में से कोई नक्षत्र हो तो सिद्धि योग बनता है।
 
सर्वार्थ सिद्धि योग :- यह अत्यंत शुभ योग है। यह वार और नक्षत्र के मेल से बनने वाला योग है। गुरुवार और शुक्रवार के दिन अगर यह योग बनता है तो तिथि कोई भी यह योग नष्ट नहीं होता है अन्यथा कुछ विशेष तिथियों में यह योग निर्मित होने पर यह योग नष्ट भी हो जाता है। सोमवार के दिन रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, अनुराधा, अथवा श्रवण नक्षत्र होने पर सर्वार्थ सिद्धि योग बनता है जबकि द्वितीया और एकादशी तिथि होने पर यह शुभ योग अशुभ मुहूर्त में बदल जाता है।
 
पुष्कर योग :- इस योग का निर्माण उस स्थिति में होता है जबकि सूर्य विशाखा नक्षत्र में होता है और चन्द्रमा कृतिका नक्षत्र में होता है। सूर्य और चन्द्र की यह अवस्था एक साथ होना अत्यंत दुर्लभ होने से इसे शुभ योगों में विशेष महत्व दिया गया है। यह योग सभी शुभ कार्यों के लिए उत्तम मुहूर्त होता है।
 
गुरु पुष्य योग :- गुरुवार और पुष्य नक्षत्र के संयोग से निर्मित होने के कारण इस योग को गुरु पुष्य योग के नाम से सम्बोधित किया गया है। यह योग गृह प्रवेश, ग्रह शांति, शिक्षा सम्बन्धी मामलों के लिए अत्यंत श्रेष्ठ माना जाता है। यह योग अन्य शुभ कार्यों के लिए भी शुभ मुहूर्त के रूप में जाना जाता है।
 
रवि पुष्य योग :- इस योग का निर्माण तब होता है जब रविवार के दिन पुष्य नक्षत्र होता है। यह योग शुभ मुहूर्त का निर्माण करता है जिसमें सभी प्रकार के शुभ कार्य किए जा सकते हैं। इस योग को मुहूर्त में गुरु पुष्य योग के समान ही महत्व दिया गया है।
                                      साभार बी.डी वशिष्ठ