नमः श्रीराम-भक्ताय श्यामलाङ्गाय ते नमः ॥
नमो वानर - वीराय, सुग्रीव-सख्य-कारणे । सीतां-शोक-विनाशाय, राम- मुद्रा धराय च ॥
हे पवन पुत्र, श्री राम भक्त, साँवले हनुमान जी मैं आपको नमस्कार करता हूँ। वानर जाति के वीर सुग्रीव से मित्रता करने वाले सीताजी के शोक का नाश करने वाले श्रीराम की मुद्रिका को धारण करने वाले, हे हनुमानजी मैं आपको प्रणाम करता हूँ।
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गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीराम चरित मानस की जो रचना की उससे वे हनुमान जी के परम कृपापात्र बन गये। अष्टसिद्धि-नवनिधि के दाता हनुमान जी ने उनके लौकिक जीवन में नाना प्रकार के चमत्कार उपस्थित कर दिए। मृत बालक को जिला दिया, स्पर्श करके रोगियों के रोग दूर कर दिए, अनेक भटके हुए पथ भ्रष्ट लोगों को साधु बना दिया। वेश्या उनके संस्पर्श से भक्तिन बन गई। अनेक धर्म पिपासुओं ने प्रभु के दुर्लभ दर्शन प्राप्त कर लिए, विराट हिन्दु जनमानस पुनः प्रभु श्रीराम की यशोगाथा से निर्भयता और स्वस्थ मानस लाभ प्राप्त करने लगा। एक बार पुनः हिन्दु धर्म रामायण रूपी महाकल्प वृक्ष की छांव में पल्लवित होने लगा। बादशाह अकबर ने भी उन्हें दिल्ली बुलवा लिया एवं भरे दरबार में कहा कोई चमत्कार दिखाओ तुलसीदास जी सहज भाव से बोले मैं तो सिर्फ ईश्वर का कार्य कर रहा हूँ, मुझे चमत्कार दिखाना नहीं आता। खीजकर बादशाह ने तुलसीदास को जेल में डाल दिया।
तुलसीदास ने बजरंग बाण का पाठ शुरु किया और देखते ही देखते विशाल वानरों का झुण्ड आ पहुँचा एवं बादशाह समेत उनके चाकरों को नोंच डाला, भयंकर उत्पाद शुरु हो गया। एक-एक करके वानरों ने वृक्ष उखाड़ फेंके, बादशाह के बगीचे नष्ट भ्रष्ट होने लगे। बादशाह समझ गये तुरंत तुलसीदास को ससम्मान विदा किया। बादशाह अकबर में प्रत्यभिज्ञा शक्ति थी, वह पहचानने में माहिर था परन्तु उसका वंशज औरंगजेब सत्यानाशी प्राणी था। उसने चुन चुनकर हिन्दु धर्म का विनाश किया, चुन चुनकर ग्रंथ जलाये, मूर्ति भंजक था वह, जितना वश चला उतने देव स्थानों को अपवित्र किया साधु संतों को घोर प्रताड़ित किया। हँस हँस कर लोग कर्म करते हैं और रो-रो कर कटते हैं।
समर्थ रामदास स्वामी जी के रूप में हनुमान भक्त का महाराष्ट्र में उदय हुआ और उन्हें राह चलते शिवाजी मिल गये । शिवाजी ने उछल-उछल कर गुरिल्ला पद्धति में, हनुमद् पद्धति में मुगल साम्राज्य को भारत से उखाड़-उखाड़ कर फेंक दिया। शिवाजी उखाड़ उखाड़ कर फेंकते रहे और औरंगजेब हाथ पर हाथ धरा देखता रहा। उसकी मृत्यु बड़ी ही भीषण हुई, वह एक ऐसे अकल्पनीय रोग से पीड़ित हो गया कि जिसके प्रभाव में उसके अंतकाल में उसके शरीर का एक-एक अंग सूखता जाता और अपने आप टूट जाता, उसकी हड्डियाँ इतनी कमजोर हो गईं कि वह कभी भी कहीं से भी अचानक टूट जातीं। जितने विग्रहों को उसने खण्डित किया था उतनी ही जगह से वह टूट-फूट गया और टूटने फूटने की असहनीय पीड़ा अंत तक झेलता रहा। अंत समय में बहुत पछताया अपने कुकर्मों के लिए यही किया यही भोगा।
मैंने अपने जीवन में देखा कि बहुत से बुद्धिजीवियों ने प्रचार-प्रसार माध्यम से, ध्वनि के माध्यम से, लेखन के माध्यम से कोई कसर नहीं छोड़ी हिन्दु धर्म को विकृत करने में ऐसे लोगों के कंधे अपने कुल की लाशों को ढोते हुए थक गये। बस सारा जीवन अपनी आँखों के सामने अपनी रावण तुल्य करतूतों से लाशों को ही ढोते रहे, दाह संसकार ही करते रहे क्योंकि हनुमान को मालूम है कि इस पृथ्वी पर कुछ अंश में असुरत्व विराजमान है वह न जाने कब किस रूप में, किस वेष में श्रीराम कथा को विकृत करने लगे, कलुषित करने लगे। अतः कई सहस्त्र वर्ष बीत गये, बहुत से आये बहुत से गये, बहुतों ने बहुत कोशिश कर ली कि श्रीरामायण एवं श्रीमद् भागवत गीता, श्री महाभारत को कल्पना ठहरा दें, बेबुनियाद बता दें, मिथ्या प्रचार कर दें, उसे अपवित्र या अप्रासंगिक बता दें परन्तु सबके सब मिट गये और मिटते रहेंगे, घोरतम दण्ड हनुमान की गदा से प्राप्त करते रहेंगे परन्तु कभी भी श्री रामायण, श्री महाभारत, श्रीमद भगवतगीता, वेद, उपनिषद एवं पुराणों को कलुषित नहीं कर पायेंगे क्योंकि रक्षक के रूप में श्री हनुमान विराजित हैं।
महाराज पहले गुरु दक्षिणा तो ले लो बाद में गुरु मंत्र देना इतना कहकर श्री हनुमान ने कालनेमि की दोनों टांगे पकड़ी और ढोंगी राम भक्त बने कालनेमि को शिला पर उठाकर दे मारा। वह वहीं मुख से खून उगलता हुआ हे राम हे राम कहता हुआ प्रस्थान कर गया। कालनेमि भी श्रीरामायण को कलुषित कर रहा था, असुर होकर ढोंगी बना बैठा था। यह है श्री हनुमान की गुरु दक्षिणा तो आज के कालनेमियों को मंत्र देने से पूर्व ही मिल जाती है। पहचानने की प्रचण्ड शक्ति है श्री हनुमान में प्रभु आप ने यह कौन से स्वांग रचा है जो कि दासी को अपने वाम अंग में विराजित कर लिया है इतना श्री हनुमान के मुख से सुनते ही सीता का स्वांग करके बैठी हुईं सत्यभामा का गर्व चूर हो गया।
प्रभु श्रीकृष्ण मुस्कुरा दिए स्वर्ग से लाकर उन्होंने पारिजात वृक्ष सत्यभामा के महल में रोपित कर दिया था जिससे कि सत्यभामा को ब्रह्माण्ड सुन्दरी होने का गर्व अभिमान हो गया था। वे अपने आपको माता सीता से भी ज्यादा सौन्दर्यवान समझने लगीं थीं परन्तु एक ही क्षण में पहचानने की शक्ति रखने वाले श्री हनुमान ने उनकी वास्तविकता बता दी ।
गर्व अभिमान तो सुदर्शन चक्र को भी हो गया था, गर्व अभिमान तो गरुड़ को भी हो गया था, अम्बरीश कथा में सुदर्शन चक्र ने दुर्वासा को पीड़ित कर दिया था। अमृत मंथन के समय अमृत कलश को ले भागने का गर्व गरुड़ को भी हो गया था परन्तु श्रीकृष्ण के इशारे पर उन्होंने गरुड़ देव को पूंछ में बांधकर समुद्र में फेंक दिया था और सुदर्शन चक्र को मुख में रख लिया था । श्री हनुमान बोले इस मुख में मैंने प्रभु श्रीराम की मुद्रिका रखी थी उसके सामने सुदर्शन चक्र कहाँ । विश्व में श्री रामायण जितना प्राण- प्रतिष्ठित ग्रंथ कहाँ ? सीधे प्राणों को शक्ति देती हैं श्री रामायण युग बीत गया, काल बीत गया, बहुत कुछ बदल गया परन्तु श्री रामायण नहीं बदली, प्रभु का आनंद मुख आज भी परमानंद देता है प्राणियों को। श्री हनुमान यंत्र में सुग्रीव, अंगद, जामवंत, नल-नील से लेकर अनंत वीर स्थापित हैं एवं वीरों के महावीर हैं श्री हनुमान श्री हनुमान ने पंपा सरोवर के पास प्रभु श्री राम से मिलने से पूर्व कोई विशेष पराक्रम नहीं दिखाया और प्रभु श्रीराम एवं माता सीता के मिलन के पश्चात् भी उन्होंने कोई विशेष पराक्रम नहीं दिखाया इसी काल के मध्य में उन्होंने अपनी समस्त विलक्षणता संसार के सामने प्रस्तुत की। इसके पश्चात् तो वे एक तरह से संरक्षक बन गये और छोटे मोटे युद्ध संग्राम इत्यादि उनके अंतर्गत आने वाले शिष्य रूपी वीरों ने ही सम्पन्न किए।
माता सीता के वाल्मीकि आश्रम जाने के पश्चात् एक तरह से रामायण का परम आध्यात्मिक भाग सम्पन्न हो गया। यहीं पर श्री रामावतार की प्रासंगिकता समाप्त हो गई शक्ति जब विष्णु से अलग हो गई तब ऋषियों ने इसके आगे की कथा को विशेष महत्व नहीं दिया। सीता त्याग के पश्चात् राम के एकाकी हो जाने पर श्री हनुमान खिन्न हो गये और वे सब कुछ त्याग कर तप को चल दिए। वहीं पर उन्होंने अपने नखों से स्फटिक शिलाओं के ऊपर श्री हनुमद्कृत परम गोपनीय रामायण लिखी। जो हनुमान ने देखा, जो हनुमान ने अनुभूत किया, जिसके साक्षी स्वयं श्री हनुमान रहे, वे हनुमान जिन्होंने कि श्रीराम और श्रीलक्ष्मण को अपने कंधे पर ढोया, उनके वाहन बने, उनके संकट का मोचन किया, वे हनुमान जिन्होंने माता सीता की परम शक्ति को देखा। रावण वध के पश्चात् प्रभु श्रीराम अगत्स्य जी से बोले था तो रावण ब्राह्मण हम सबने वध तो किया ब्रह्म राक्षस का अतः ब्रह्म हत्या तो कुछ न कुछ लगी। महर्षि अगत्स्य से बोले आप साक्षात् श्रीविष्णु हैं, परब्रह्म हैं। परब्रह्म, ब्रह्म के चक्कर में नहीं उलझता परब्रह्म सबसे परे है फिर भी आप ज्योतिर्लिंग की स्थापना कर दीजिए।
तत्काल श्रीराम ने हनुमान को कैलाश भेजा दिव्य शिवलिंग विग्रह लाने हेतु। हनुमान जी उपासना करने लगे कैलाश पर शिवजी की। मुहूर्त बीतता जा रहा था तभी महर्षि अगत्स्य जी के सुझाव पर सिद्धाश्रम के स्वामी सच्चिदानंद जी महाराज के संदेश पर श्रीराम ने जनक नंदनी सीता जी द्वारा खेल-खेल में ही बनाये गये बालू के शिवलिंग में प्राण प्रतिष्ठता कर दी तभी श्री हनुमान दो विग्रह लेकर आ पहुँचे परन्तु देर हो चुकी थी हनुमान जी ने क्रोधवश दोनों पाँव जोर से पटके, श्रीराम बोले हनुमान मैं तुम्हारे शिवलिंग की मैं स्थापना कर देता हूँ अगर तुममें शक्ति हो तो जनक नंदनी सीता द्वारा इस बालू के शिवलिंग को उखाड़कर दिखा दो । हनुमान की पूंछ टूट गई परन्तु वे बालू के शिवलिंग को हिला न सके। वे समझ गये जनक नंदिनी सीता की शक्ति को। उनके दो शिवलिंग विग्रहों में से एक प्रभु श्रीराम ने स्थापित कर दिया और कहा कि आज से इसे हनुमदीश्वर शिवलिंग कहा जायेगा। श्रीरामेश्वरम दर्शन से पहले हनुमान द्वारा स्थापित इस शिवलिंग का दर्शन आवश्यक है।
जो भी श्री रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के दर्शन करता है वह समस्त पाप बंधनों से, कर्म बंधनों से, शाप बंधनों से उसी क्षण मुक्त हो जाता है और यहीं पर सिद्धाश्रम ने ऋषि मुनियों के सानिध्य में विष्णु अवतार को पुनः माता सीता एवं लक्ष्मण समेत सकुशल बैकुण्ठधाम प्रक्षेपित कर दिया। रामेश्वरम में ज्योतिर्लिंग स्थापना के पश्चात् आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समस्त विष्णु गण, देवता, महालक्ष्मी स्वरूपिणी माता सीता इत्यादि वापस चले गये। आगे की कथा तो बस इच्छवाकु वंश के क्षेत्रीयों का ताम-झाम है, कुछ विशेष करने को नहीं रह गया था। श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ कभी सफल नहीं हुआ। अनेकों जगह भरत, शत्रुघन, हनुमान, सुग्रीव पराजित हुए, समझौते हुए। देखो माँ हमने इन दोनों वानरों को पूंछ समेत बांध लिया है, इनसे हम अपना मनोरंजन करेंगे। हमने अयोध्या के घमण्डी राजा के अश्व के माथे पर बंधा हुआ वह स्वर्ण पत्र भी निकाल लिया है जिसमें उन्होंने लिखा है कि जो सच्चे क्षत्रीय हों वे ही उनके अश्व को बांधे। उस दम्भी राजा की समस्त सेना हमने पराजित कर दी, उनके भाई बंधु इत्यादि भी घायल एवं मूच्छित युद्ध क्षेत्र में पड़े हैं।
जगत जननी सीता का स्मरण कर लव ने हनुमान की पूंछ पर जोरदार प्रहार किया था और हनुमान व्यथित हो गये थे। कुश ने माता सीता का स्मरण कर अयोध्या की चतुरंगिणी सेना को ही नष्ट कर दिया था। हनुमान और सुग्रीव समझ गये थे कि माता सीता ही शक्ति स्वरूपा हैं एवं श्री रामायण में उनके अभाव में श्रीराम समेत हम सब कुछ भी नहीं हैं। महर्षि वाल्मीकि को मालूम चला कि श्री हनुमान ने श्री राम चरित लिखा है उन्हें तीव्रतम इच्छा हुई उसे देखने की। श्रीहनुमान से उन्होंने विनय किया एवं श्री हनुमान रचित रामायण को पढ़ वे लज्जित हो गये। उन्हें अपनी रचना व्यर्थ लगने लगी, श्री हनुमान मर्मज्ञ थे वे ताड़ गये। एक कंधे पर उन शिलाओं को रखा जिन पर हनुमान नाटक वर्णित था और समुद्र के बीचोबीच जाकर देखते ही देखते सभी शिलाओं को डुबो दिया।
श्री विष्णु अवतार एक निश्चित अनुसंधान एवं सिद्धाश्रम के दिव्य ऋषि-मुनियों के सानिध्य में सदैव सम्पन्न होता है श्रीविष्णु अवतार के अंतर्गत एक-एक क्षण पूर्व योजनानुसार अनुशासित एवं निर्धारित होता है अतः किस ऋषि, किस महर्षि को क्या कर्म सम्पन्न करना है, क्या नहीं इसका सदैव ध्यान रखा जाता है। ऋषि शब्द समझना पड़ेगा, ऋषि की उपाधि केवल सिद्धाश्रम वासी को मिलती है इसलिए श्रीरामचंद्र ऋषि कहा जाता है, श्री हनुमद् ऋषि कहा जाता है, श्री अगत्स्य ऋषि कहा जाता है, श्री वाल्मीकि ऋषि कहा जाता है, श्री लक्ष्मण ऋषि कहा जाता है इत्यादि-इत्यादि । साधु-संत, भक्त, भजनकर्ता, पुजारी, ब्रह्मचारी, कथावाचक, लेखक, गायक इत्यादि ऋषि नहीं कहलाते। जनमानस में प्रचलित अनेकों गुरु ऋषि नहीं कहलाते, नाना प्रकार के मांत्रिक, तांत्रिक, यांत्रिक इत्यादियों को ऋषि उपाधि नहीं मिलती। सब कुछ मिल सकता है हार, फूल, माला, धन दौलत, नाम, प्रसिद्धि, यश, ढोल मंजीरे परन्तु ऋषित्व नहीं मिलता। ऋषित्व का सिद्धियों से भी लेना देना नहीं है ऋषित्व का योग से भी लेना देना नहीं है। सिद्ध पुरुष होना, योगी होना, वैज्ञानिक होना यहाँ तक कि ईश्वर होना एक अलग बात है परन्तु ऋषित्व कुछ अलग है। ऋषित्व के माध्यम से श्रीविष्णु, श्रीशिव, श्रीविद्या स्वरूपिणी आद्या इत्यादि लीला प्रसंग करते हैं। हनुमान ऋषि हैं और कुछ नहीं वे श्रीरामचंद्र ऋषि के समतुल्य हैं। श्रीरामचंद्र अवतार के प्रमुख संरक्षक के रूप में श्री हनुमद् ऋषि आज भी सशरीर क्रियाशील हैं।
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