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श्री कपितत्वम् ।।

नमो हनुमते तुभ्यं नमो मारुतसूनवे ।
नमः श्रीराम-भक्ताय श्यामलाङ्गाय ते नमः ॥ 
नमो वानर - वीराय, सुग्रीव-सख्य-कारणे । सीतां-शोक-विनाशाय, राम- मुद्रा धराय च ॥ 

हे पवन पुत्र, श्री राम भक्त, साँवले हनुमान जी मैं आपको नमस्कार करता हूँ। वानर जाति के वीर सुग्रीव से मित्रता करने वाले सीताजी के शोक का नाश करने वाले श्रीराम की मुद्रिका को धारण करने वाले, हे हनुमानजी मैं आपको प्रणाम करता हूँ।

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           गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीराम चरित मानस की जो रचना की उससे वे हनुमान जी के परम कृपापात्र बन गये। अष्टसिद्धि-नवनिधि के दाता हनुमान जी ने उनके लौकिक जीवन में नाना प्रकार के चमत्कार उपस्थित कर दिए। मृत बालक को जिला दिया, स्पर्श करके रोगियों के रोग दूर कर दिए, अनेक भटके हुए पथ भ्रष्ट लोगों को साधु बना दिया। वेश्या उनके संस्पर्श से भक्तिन बन गई। अनेक धर्म पिपासुओं ने प्रभु के दुर्लभ दर्शन प्राप्त कर लिए, विराट हिन्दु जनमानस पुनः प्रभु श्रीराम की यशोगाथा से निर्भयता और स्वस्थ मानस लाभ प्राप्त करने लगा। एक बार पुनः हिन्दु धर्म रामायण रूपी महाकल्प वृक्ष की छांव में पल्लवित होने लगा। बादशाह अकबर ने भी उन्हें दिल्ली बुलवा लिया एवं भरे दरबार में कहा कोई चमत्कार दिखाओ तुलसीदास जी सहज भाव से बोले मैं तो सिर्फ ईश्वर का कार्य कर रहा हूँ, मुझे चमत्कार दिखाना नहीं आता। खीजकर बादशाह ने तुलसीदास को जेल में डाल दिया।
          तुलसीदास ने बजरंग बाण का पाठ शुरु किया और देखते ही देखते विशाल वानरों का झुण्ड आ पहुँचा एवं बादशाह समेत उनके चाकरों को नोंच डाला, भयंकर उत्पाद शुरु हो गया। एक-एक करके वानरों ने वृक्ष उखाड़ फेंके, बादशाह के बगीचे नष्ट भ्रष्ट होने लगे। बादशाह समझ गये तुरंत तुलसीदास को ससम्मान विदा किया। बादशाह अकबर में प्रत्यभिज्ञा शक्ति थी, वह पहचानने में माहिर था परन्तु उसका वंशज औरंगजेब सत्यानाशी प्राणी था। उसने चुन चुनकर हिन्दु धर्म का विनाश किया, चुन चुनकर ग्रंथ जलाये, मूर्ति भंजक था वह, जितना वश चला उतने देव स्थानों को अपवित्र किया साधु संतों को घोर प्रताड़ित किया। हँस हँस कर लोग कर्म करते हैं और रो-रो कर कटते हैं।
          समर्थ रामदास स्वामी जी के रूप में हनुमान भक्त का महाराष्ट्र में उदय हुआ और उन्हें राह चलते शिवाजी मिल गये । शिवाजी ने उछल-उछल कर गुरिल्ला पद्धति में, हनुमद् पद्धति में मुगल साम्राज्य को भारत से उखाड़-उखाड़ कर फेंक दिया। शिवाजी उखाड़ उखाड़ कर फेंकते रहे और औरंगजेब हाथ पर हाथ धरा देखता रहा। उसकी मृत्यु बड़ी ही भीषण हुई, वह एक ऐसे अकल्पनीय रोग से पीड़ित हो गया कि जिसके प्रभाव में उसके अंतकाल में उसके शरीर का एक-एक अंग सूखता जाता और अपने आप टूट जाता, उसकी हड्डियाँ इतनी कमजोर हो गईं कि वह कभी भी कहीं से भी अचानक टूट जातीं। जितने विग्रहों को उसने खण्डित किया था उतनी ही जगह से वह टूट-फूट गया और टूटने फूटने की असहनीय पीड़ा अंत तक झेलता रहा। अंत समय में बहुत पछताया अपने कुकर्मों के लिए यही किया यही भोगा। 
        मैंने अपने जीवन में देखा कि बहुत से बुद्धिजीवियों ने प्रचार-प्रसार माध्यम से, ध्वनि के माध्यम से, लेखन के माध्यम से कोई कसर नहीं छोड़ी हिन्दु धर्म को विकृत करने में ऐसे लोगों के कंधे अपने कुल की लाशों को ढोते हुए थक गये। बस सारा जीवन अपनी आँखों के सामने अपनी रावण तुल्य करतूतों से लाशों को ही ढोते रहे, दाह संसकार ही करते रहे क्योंकि हनुमान को मालूम है कि इस पृथ्वी पर कुछ अंश में असुरत्व विराजमान है वह न जाने कब किस रूप में, किस वेष में श्रीराम कथा को विकृत करने लगे, कलुषित करने लगे। अतः कई सहस्त्र वर्ष बीत गये, बहुत से आये बहुत से गये, बहुतों ने बहुत कोशिश कर ली कि श्रीरामायण एवं श्रीमद् भागवत गीता, श्री महाभारत को कल्पना ठहरा दें, बेबुनियाद बता दें, मिथ्या प्रचार कर दें, उसे अपवित्र या अप्रासंगिक बता दें परन्तु सबके सब मिट गये और मिटते रहेंगे, घोरतम दण्ड हनुमान की गदा से प्राप्त करते रहेंगे परन्तु कभी भी श्री रामायण, श्री महाभारत, श्रीमद भगवतगीता, वेद, उपनिषद एवं पुराणों को कलुषित नहीं कर पायेंगे क्योंकि रक्षक के रूप में श्री हनुमान विराजित हैं। 
             महाराज पहले गुरु दक्षिणा तो ले लो बाद में गुरु मंत्र देना इतना कहकर श्री हनुमान ने कालनेमि की दोनों टांगे पकड़ी और ढोंगी राम भक्त बने कालनेमि को शिला पर उठाकर दे मारा। वह वहीं मुख से खून उगलता हुआ हे राम हे राम कहता हुआ प्रस्थान कर गया। कालनेमि भी श्रीरामायण को कलुषित कर रहा था, असुर होकर ढोंगी बना बैठा था। यह है श्री हनुमान की गुरु दक्षिणा तो आज के कालनेमियों को मंत्र देने से पूर्व ही मिल जाती है। पहचानने की प्रचण्ड शक्ति है श्री हनुमान में प्रभु आप ने यह कौन से स्वांग रचा है जो कि दासी को अपने वाम अंग में विराजित कर लिया है इतना श्री हनुमान के मुख से सुनते ही सीता का स्वांग करके बैठी हुईं सत्यभामा का गर्व चूर हो गया।

प्रभु श्रीकृष्ण मुस्कुरा दिए स्वर्ग से लाकर उन्होंने पारिजात वृक्ष सत्यभामा के महल में रोपित कर दिया था जिससे कि सत्यभामा को ब्रह्माण्ड सुन्दरी होने का गर्व अभिमान हो गया था। वे अपने आपको माता सीता से भी ज्यादा सौन्दर्यवान समझने लगीं थीं परन्तु एक ही क्षण में पहचानने की शक्ति रखने वाले श्री हनुमान ने उनकी वास्तविकता बता दी । 
              गर्व अभिमान तो सुदर्शन चक्र को भी हो गया था, गर्व अभिमान तो गरुड़ को भी हो गया था, अम्बरीश कथा में सुदर्शन चक्र ने दुर्वासा को पीड़ित कर दिया था। अमृत मंथन के समय अमृत कलश को ले भागने का गर्व गरुड़ को भी हो गया था परन्तु श्रीकृष्ण के इशारे पर उन्होंने गरुड़ देव को पूंछ में बांधकर समुद्र में फेंक दिया था और सुदर्शन चक्र को मुख में रख लिया था । श्री हनुमान बोले इस मुख में मैंने प्रभु श्रीराम की मुद्रिका रखी थी उसके सामने सुदर्शन चक्र कहाँ । विश्व में श्री रामायण जितना प्राण- प्रतिष्ठित ग्रंथ कहाँ ? सीधे प्राणों को शक्ति देती हैं श्री रामायण युग बीत गया, काल बीत गया, बहुत कुछ बदल गया परन्तु श्री रामायण नहीं बदली, प्रभु का आनंद मुख आज भी परमानंद देता है प्राणियों को। श्री हनुमान यंत्र में सुग्रीव, अंगद, जामवंत, नल-नील से लेकर अनंत वीर स्थापित हैं एवं वीरों के महावीर हैं श्री हनुमान श्री हनुमान ने पंपा सरोवर के पास प्रभु श्री राम से मिलने से पूर्व कोई विशेष पराक्रम नहीं दिखाया और प्रभु श्रीराम एवं माता सीता के मिलन के पश्चात् भी उन्होंने कोई विशेष पराक्रम नहीं दिखाया इसी काल के मध्य में उन्होंने अपनी समस्त विलक्षणता संसार के सामने प्रस्तुत की। इसके पश्चात् तो वे एक तरह से संरक्षक बन गये और छोटे मोटे युद्ध संग्राम इत्यादि उनके अंतर्गत आने वाले शिष्य रूपी वीरों ने ही सम्पन्न किए।
         माता सीता के वाल्मीकि आश्रम जाने के पश्चात् एक तरह से रामायण का परम आध्यात्मिक भाग सम्पन्न हो गया। यहीं पर श्री रामावतार की प्रासंगिकता समाप्त हो गई शक्ति जब विष्णु से अलग हो गई तब ऋषियों ने इसके आगे की कथा को विशेष महत्व नहीं दिया। सीता त्याग के पश्चात् राम के एकाकी हो जाने पर श्री हनुमान खिन्न हो गये और वे सब कुछ त्याग कर तप को चल दिए। वहीं पर उन्होंने अपने नखों से स्फटिक शिलाओं के ऊपर श्री हनुमद्कृत परम गोपनीय रामायण लिखी। जो हनुमान ने देखा, जो हनुमान ने अनुभूत किया, जिसके साक्षी स्वयं श्री हनुमान रहे, वे हनुमान जिन्होंने कि श्रीराम और श्रीलक्ष्मण को अपने कंधे पर ढोया, उनके वाहन बने, उनके संकट का मोचन किया, वे हनुमान जिन्होंने माता सीता की परम शक्ति को देखा। रावण वध के पश्चात् प्रभु श्रीराम अगत्स्य जी से बोले था तो रावण ब्राह्मण हम सबने वध तो किया ब्रह्म राक्षस का अतः ब्रह्म हत्या तो कुछ न कुछ लगी। महर्षि अगत्स्य से बोले आप साक्षात् श्रीविष्णु हैं, परब्रह्म हैं। परब्रह्म, ब्रह्म के चक्कर में नहीं उलझता परब्रह्म सबसे परे है फिर भी आप ज्योतिर्लिंग की स्थापना कर दीजिए। 
           तत्काल श्रीराम ने हनुमान को कैलाश भेजा दिव्य शिवलिंग विग्रह लाने हेतु। हनुमान जी उपासना करने लगे कैलाश पर शिवजी की। मुहूर्त बीतता जा रहा था तभी महर्षि अगत्स्य जी के सुझाव पर सिद्धाश्रम के स्वामी सच्चिदानंद जी महाराज के संदेश पर श्रीराम ने जनक नंदनी सीता जी द्वारा खेल-खेल में ही बनाये गये बालू के शिवलिंग में प्राण प्रतिष्ठता कर दी तभी श्री हनुमान दो विग्रह लेकर आ पहुँचे परन्तु देर हो चुकी थी हनुमान जी ने क्रोधवश दोनों पाँव जोर से पटके, श्रीराम बोले हनुमान मैं तुम्हारे शिवलिंग की मैं स्थापना कर देता हूँ अगर तुममें शक्ति हो तो जनक नंदनी सीता द्वारा इस बालू के शिवलिंग को उखाड़कर दिखा दो । हनुमान की पूंछ टूट गई परन्तु वे बालू के शिवलिंग को हिला न सके। वे समझ गये जनक नंदिनी सीता की शक्ति को। उनके दो शिवलिंग विग्रहों में से एक प्रभु श्रीराम ने स्थापित कर दिया और कहा कि आज से इसे हनुमदीश्वर शिवलिंग कहा जायेगा। श्रीरामेश्वरम दर्शन से पहले हनुमान द्वारा स्थापित इस शिवलिंग का दर्शन आवश्यक है।

       जो भी श्री रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के दर्शन करता है वह समस्त पाप बंधनों से, कर्म बंधनों से, शाप बंधनों से उसी क्षण मुक्त हो जाता है और यहीं पर सिद्धाश्रम ने ऋषि मुनियों के सानिध्य में विष्णु अवतार को पुनः माता सीता एवं लक्ष्मण समेत सकुशल बैकुण्ठधाम प्रक्षेपित कर दिया। रामेश्वरम में ज्योतिर्लिंग स्थापना के पश्चात् आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समस्त विष्णु गण, देवता, महालक्ष्मी स्वरूपिणी माता सीता इत्यादि वापस चले गये। आगे की कथा तो बस इच्छवाकु वंश के क्षेत्रीयों का ताम-झाम है, कुछ विशेष करने को नहीं रह गया था। श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ कभी सफल नहीं हुआ। अनेकों जगह भरत, शत्रुघन, हनुमान, सुग्रीव पराजित हुए, समझौते हुए। देखो माँ हमने इन दोनों वानरों को पूंछ समेत बांध लिया है, इनसे हम अपना मनोरंजन करेंगे। हमने अयोध्या के घमण्डी राजा के अश्व के माथे पर बंधा हुआ वह स्वर्ण पत्र भी निकाल लिया है जिसमें उन्होंने लिखा है कि जो सच्चे क्षत्रीय हों वे ही उनके अश्व को बांधे। उस दम्भी राजा की समस्त सेना हमने पराजित कर दी, उनके भाई बंधु इत्यादि भी घायल एवं मूच्छित युद्ध क्षेत्र में पड़े हैं। 
            जगत जननी सीता का स्मरण कर लव ने हनुमान की पूंछ पर जोरदार प्रहार किया था और हनुमान व्यथित हो गये थे। कुश ने माता सीता का स्मरण कर अयोध्या की चतुरंगिणी सेना को ही नष्ट कर दिया था। हनुमान और सुग्रीव समझ गये थे कि माता सीता ही शक्ति स्वरूपा हैं एवं श्री रामायण में उनके अभाव में श्रीराम समेत हम सब कुछ भी नहीं हैं। महर्षि वाल्मीकि को मालूम चला कि श्री हनुमान ने श्री राम चरित लिखा है उन्हें तीव्रतम इच्छा हुई उसे देखने की। श्रीहनुमान से उन्होंने विनय किया एवं श्री हनुमान रचित रामायण को पढ़ वे लज्जित हो गये। उन्हें अपनी रचना व्यर्थ लगने लगी, श्री हनुमान मर्मज्ञ थे वे ताड़ गये। एक कंधे पर उन शिलाओं को रखा जिन पर हनुमान नाटक वर्णित था और समुद्र के बीचोबीच जाकर देखते ही देखते सभी शिलाओं को डुबो दिया। 
      श्री विष्णु अवतार एक निश्चित अनुसंधान एवं सिद्धाश्रम के दिव्य ऋषि-मुनियों के सानिध्य में सदैव सम्पन्न होता है श्रीविष्णु अवतार के अंतर्गत एक-एक क्षण पूर्व योजनानुसार अनुशासित एवं निर्धारित होता है अतः किस ऋषि, किस महर्षि को क्या कर्म सम्पन्न करना है, क्या नहीं इसका सदैव ध्यान रखा जाता है। ऋषि शब्द समझना पड़ेगा, ऋषि की उपाधि केवल सिद्धाश्रम वासी को मिलती है इसलिए श्रीरामचंद्र ऋषि कहा जाता है, श्री हनुमद् ऋषि कहा जाता है, श्री अगत्स्य ऋषि कहा जाता है, श्री वाल्मीकि ऋषि कहा जाता है, श्री लक्ष्मण ऋषि कहा जाता है इत्यादि-इत्यादि । साधु-संत, भक्त, भजनकर्ता, पुजारी, ब्रह्मचारी, कथावाचक, लेखक, गायक इत्यादि ऋषि नहीं कहलाते। जनमानस में प्रचलित अनेकों गुरु ऋषि नहीं कहलाते, नाना प्रकार के मांत्रिक, तांत्रिक, यांत्रिक इत्यादियों को ऋषि उपाधि नहीं मिलती। सब कुछ मिल सकता है हार, फूल, माला, धन दौलत, नाम, प्रसिद्धि, यश, ढोल मंजीरे परन्तु ऋषित्व नहीं मिलता। ऋषित्व का सिद्धियों से भी लेना देना नहीं है ऋषित्व का योग से भी लेना देना नहीं है। सिद्ध पुरुष होना, योगी होना, वैज्ञानिक होना यहाँ तक कि ईश्वर होना एक अलग बात है परन्तु ऋषित्व कुछ अलग है। ऋषित्व के माध्यम से श्रीविष्णु, श्रीशिव, श्रीविद्या स्वरूपिणी आद्या इत्यादि लीला प्रसंग करते हैं। हनुमान ऋषि हैं और कुछ नहीं वे श्रीरामचंद्र ऋषि के समतुल्य हैं। श्रीरामचंद्र अवतार के प्रमुख संरक्षक के रूप में श्री हनुमद् ऋषि आज भी सशरीर क्रियाशील हैं।

                  शिव शासनत: शिव शासनत:

Who is Rudra?


What has been, is Rudra; and what is, is He; and what will be, is He, the eternal and the non-eternal, the visible and the invisible, the Brahman and the non-Brahman, the east and west and north and south and above and below, the masculine and feminine and neuter, the Savitri and Gayatri, the appearance and the Reality, the water and the fire, the cow and the buffalo, the lotus flower and the soma filter, the within and the without, the inner essence of everything.
-Atharvashiras Upanishad

Bhagavan Shiva, is Vrishabharudhar, withhis consort Parvati on vahan Nandi at theKokarneswarar, Temple, at, Tirukokarnam in Pudukotai Dstrict Tamilnad the Temple is dedicated to Bhagwan Shiva ।।


अमोघ हनुमंत कवचम् ।।

        भगवान विष्णु और माता महालक्ष्मी इस अखिल ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता हैं। जो पालनकर्ता होता है उसे तो बालक की व्यथा सुनकर अवश्य ही आना पड़ता है। चाहे जैसा भी काल हो, जैसी भी स्थितियां हो पालनकर्ता को तो बालक की पुकार सुननी ही पड़ती है । यही कारण है कि भगवान विष्णु बारम्बार इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। विष्णु और माता महालक्ष्मी केवल मनुष्य रूप में ही अवतरित नहीं होते हैं। कभी वे नरसिंह अवतार के रूप में इस धरा पर आते हैं कभी मकर रूप में अवतरित होते हैं तो कभी किसी अन्य स्वरूप में विष्णु केवल मनुष्यों के देव नहीं है समस्त योनियां, जीव-जंतु, पादप सभी के पालक विष्णु ही हैं। अतः जब यह धरा मनुष्यों की बहुलता में क्रीड़ा स्थली बन जाती है तब भगवान विष्णु मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं। 
              इस धरा की सम्पूर्ण व्यवस्था में रुद्र और ब्रह्मा के साथ-साथ महादेवियों का अंश भी समान रूप से आवश्यक होता है। विष्णु के अवतरित होने की स्थिति में उनके साथ रुद्रांश भी अवतरित होते हैं साथ ही महादेवी भी स्त्री रूप में इस धरा पर दिव्य छटा बिखेरती हैं। त्रेता युग में जग को मर्यादित करने के लिये विष्णु जब राम के रूप में अवतरित हुये तभी रुद्रांश हनुमंत का भी प्राकट्य हुआ। हनुमंत अपने अंदर शिव के प्रमुख अंश वरुण और सूर्य की शक्ति समेटे हुये हैं। जिन दिव्य महापुरुषों में रुद्रांश या शिवांश होता है उन्हीं के शरीर और मस्तिष्क पर भवानी आरूढ़ होती हैं। निम्न स्तरीय जीव और मनुष्य क्रोध की आवृत्ति धारण करते हैं। क्रोध और भवानी दो अलग धारायें हैं। 
          क्रोध आसुरी प्रवृत्ति का द्योतक है, क्रोध के साथ दम्भ भी मिश्रित हता है। क्रोध मस्तिष्क का सबसे ज्यादा क्षय करता है। धीर गम्भीर और मर्यादित व्यक्तित्व क्रोध की आवृत्ति मे दूर रहते हैं परन्तु भवानी की तीव्रता वीरता का प्रतीक है । साहसी और मृत्युभय से विरक्त मस्तिष्क ही भवानी की गरिमा को धारण कर सकता है। हनुमंत को भवानी सिद्ध हैं। समस्त स्त्रियां एवं स्वयं माता सीता उन्हें आदर, श्रद्धा और वात्सल्य के भाव से देखती हैं। आखिरकार वे माता सीता और राम के पुनर्मिलन में सेतु ही तो बने हैं। जिस समय सीता जी लंका की अशोक वाटिका में राम वियोग में प्रतिक्षण व्यथित हो रही थीं उस समय हनुमान ने ही उन तक राम मुद्रिका पहुँचाकर उन्हें आनंदित किया था एवं सीताजी की निशानी पुनः राम तक पहुँचाकर उनके व्यथित हृदय को भी परम सुख प्रदान किया था। राम और सीता के बीच वास्तव में हनुमंत ही सेतुबंध हैं। यही सेतुबंध उन्हें राम के साथ अटूट प्रेम बंधन में बांधता है। जिसके मस्तक पर मां भवानी आरूढ़ होती है वही हर हर महादेव का जयघोष कर सकता है। मां भवानी की शक्ति ही महादेव को रौद्र रूप धारण करने के लिए प्रेरित करती है।
        हनुमंत कवच की विशेषता यह है कि इसमें भगवान शिव का महामृत्युंजय कवच और मां भगवती का महाकाली कवच एक साथ मिश्रित होकर हनुमंत की पवित्रता, भक्ति और श्रद्धा से समायोजित हो चमत्कारिक रूप से साधकों को फल प्रदान करता है एवं उन्हें सर्व बाधाओं, आसुरी शक्तियों, रोग, शोक और वियोग से संरक्षित करता है। पवित्रता ही परम रोग नाशक औषधि है। आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्य के मस्तक पर मां भवानी कदापि आरूढ़ नहीं होती । आसुरी शक्तियां तो सदैव मातृ शक्ति का अनादर ही करती हैं। रावण ने तो इसकी पराकाष्ठा सीता हरण करके दिखा दी थी। ठीक इसी प्रकार दुर्योधन ने द्रोपदी का चीर हरण करके अपनी मृत्यु सुनिश्चत कर ली थी। हनुमंत कवच आसुरी प्रवृत्ति वालों के लिए नहीं है। न ही इसका उपयोग कायर, कामी और विलासी व्यक्ति अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये कर सकते हैं। यह कवच तो वीरों के लिये बना है, धर्म की रक्षा और मर्यादा का पालन करने वाले ही इसे धारण कर सकते हैं।. 
           यह रक्षा करता है अवरोधों की, स्त्रियों की एवं प्रेममयी व्यक्तित्वों की । प्रत्येक व्यक्ति इस कवच को धारण तभी कर सकता है जब उसके मन में साधु संतो के प्रति आदर भाव हो, वेदान्त संस्कृति में पूर्ण विश्वास हो एवं हृदय - कमल पर विष्णु रूपी राम और लक्ष्मी रूपी सीता पूर्ण श्रद्धा के साथ विराजमान हों। हनुमंत कवच को धारण करने का अभिप्राय ही दुष्टों का दमन करना है। पूर्ण वीरता के साथ । न कि कायरों के समान दुष्टों के सामने समर्पण कर हनुमंत शक्ति की अवहेलना करना है। हनुमंत विजय का प्रतीक हैं। वे अजेय हैं। विषम से विषम परिस्थितियों को भी वे अनुकूल बना देते हैं जैसा कि उन्होंने भगवान श्रीराम के साथ किया था। हनुमंत कवच धारण करने वाले व्यक्ति के हृदय में असम्भव जैसे शब्दों का उत्पादन नहीं होना चाहिए। 

हनुमंत कवच पराआध्यात्मिक कवच है एवं इसमें समस्त आर्यावर्त के ऋषि-मुनियों और साधु-संतों के आशीर्वाद निहित हैं। 
            कवच का तात्पर्य लोहे के वस्त्रों से नहीं है। वे तो एक बार भेदे जा सकते हैं, आप उनके वजन तले बोझिलता महसूस कर सकते हैं, उनमें स्वरूप परिवर्तन होता ही नहीं है। परन्तु हनुमंत कवच तो हर परिस्थिति में परिवर्तनीय हो आपको बिना बताये अदृश्य रूप में प्रतिक्षण आपकी रक्षा करता रहेगा। हनुमंत बुद्धि के देवता हैं। उनकी बुद्धि शीशे के समान पवित्र है।रामायण जैसा महाग्रंथ इस आर्यावर्त के सभी ऋषि मुनियों एवं मंत्र दृष्टा, तंत्र दृष्टा और तत्व दृष्टा महापुरुषों ने अपने-अपने तरीके से वर्णित किया है। एक समय पार्वती जी ने भगवान शंकर से समस्त लोकों के कल्याण के लिये इस कवच के बारे में बताने को कहा जिससे कि सभी देव और मनुष्य परम सुरक्षा प्राप्त कर सकें तब भगवान शंकर बोले- हे देवि भगवान श्रीराम ने ही हनुमंत कवच का निर्माण किया है और वह भी सर्वप्रथम अपने परम भक्त विभीषण के लिये जो कि असुर नगरी में निवास करता हुआ भी राम का अनन्य उपासक था। यह कवच परम गोपनीय है अतः इसे आप विशेष रूप से श्रवण कीजीये 

विनियोग

       दाहिने हाथ में जल लेकर उसमें अक्षत, पुष्प मिला लें तथा निम्न मंत्र पढ़ें -

ॐ अस्य श्री हनुमत्कवचस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषि: अनुष्टुप्छन्दः । श्री महावीरो हनुमान् देवता / मारुतात्मज इति बीजम् । अञ्जिनीसूनुरिति शक्तिः । ॐ ह्रीं ह्रां ह्रौं इति कवचम् । ॐ स्वाहा इति कीलकम् । ॐ लक्ष्मणप्राणदाता इति बीजम् । मम सकलकार्यसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

अथ न्यास

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः । 
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । 
ॐ हूं मध्यमाभ्यां नमः । 
ॐ हैं अनामिकाभ्या नमः । 
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । 
ॐ हः करतल करपृष्टाभ्यां नमः । 
ॐ अंजनीसूनवे हृदयाय नमः । 
ॐ रुद्रमूर्तये शिरसि स्वाहा । 
ॐ वायुसुतात्मने शिखायै वषट् । 
ॐ वज्रदेहाय कवचाय हुम् । 
ॐ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् । 
ॐ ह्रीं ब्रह्मास्त्र निवारणाय अस्त्राय फट्

दिग्बन्ध

राम दूताय विद्महे, कपिराजाय धीमहि,तन्नो हनुमन्त प्रचोदयात् ।
 ॐ हुँ फट् इति दिग्बन्धन ।

अथ ध्यानम्

घ्यायेद्वालदिवाक रघुतिनिभं देवारिदर्पापाहं,
देवेन्द्रप्र वरप्र शस्तयशसं दैदीप्यमानं रुचा ।
सुग्रीवादिसमस्तवानरयुतं सुव्यक्ततत्त्वप्रियं 
संरक्तारुणलोचनं पवनजं पीताम्बरालंकृतम् ॥


उद्यन्मार्तण्ड कोटि प्रकट रुचियुतं चारु वीरासनस्थं,
मौंजीयज्ञोपवीता भरणरुचिशिरवा शोभितंकुंडलांगम्।
भक्तानामिष्टदंतं प्रणत मुनिजनं वेदाना प्रमोदं,
ध्यायेदेवं विधेयंप्लवंगकुलपतिं गोष्पदी भूतवाधिम् ॥


वज्रांगं पिंग केशादयं स्वर्ण कुण्डल मण्डितम् ।
नियुद्धं कर्म कुशलं पारावार पराक्रमम् ॥ 

वाम हस्ते महावृक्षं दशास्थकर खण्डनम् ।
उद्यदक्षिण कोदण्ड हनुमन्तं विचिन्तयेत् ॥

स्फटिकाभं स्वर्ण कान्तिं द्विभुजं च कृताञ्जलिं।
कुण्डलद्वय संशोभि मुखाम्भोजं हरिं भजेत् ॥

उद्यदादित्य संकाश मुदारभुज विक्रमम् । 
कन्दर्प कोटि लावण्यं सर्व विद्या विशारदम् ॥

श्री राम हृदयानन्दं भक्त कल्प महीरुहम् । 
अभयं वरदं दोभ्यि कलये मारुतात्मजम् ॥

अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते राम पूजित ।
 प्रस्थानंच करिष्यामि, सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥

यो वारां निधिमल्प पल्वल मिवोल्लंघ्य प्रतापान्वितो, 
वैदेही घन शोक ताप हरणो वैकुण्ठ तत्त्व प्रियः ।

अक्षार्जित राक्षसेश्वर महा दर्पापहारी रणे 
सोऽयं वानर पुंगवोऽस्तु सदा युष्मान् समीरात्मजः ॥

वजांगं पिंग केशं कनकमयलसत्कुण्डला क्रान्त गंड,
नाना विद्याधिनाथं करतल विधूतं पूर्ण कुम्भं दृढं च ।
भक्ताभीष्टाधिकारं विदधति च सदा सर्वदा सुप्रसन्नं 
त्रैलोक्य त्राणकारं सकल भुवनगं रामदूतं नमामि ॥

उपल्लांगूल केशं, प्रचय जलधरं भीम मूर्ति कपीन्द्र,
वन्दे रामांघ्रि पदम भ्रमर परिवृतं तत्त्व सारं प्रसन्नम् ।
वज्रांगं वज्ररूपं कनकमयलसत्कुण्डला क्रांत गण्डम् भोहिणविकटं भूतरक्षोऽधिनाथम् ॥ 

वामे करे वैरिभयं वहन्तं शैलं च दक्षे निजकंठलग्नं । दधानमासाद्यसुवर्ण वर्णं भजेज्ज्वलत्कुण्डल रामदूतम् ॥

पदम राग मणि कुण्डलत्विषपाटली कृत कपोल मण्डलम् ।
दिव्यदेवकदलीवनान्तरे भावयामि पवमाननन्दनम् ॥
 
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

हनुमंत साधना के कुछ नियम ।।

        जीवन में समर्पण, भक्ति, सेवा, बल, बुद्धि, साहस, कर्मठता, तेजस्विता, सिद्धि, निधि, तुरंत निर्णय लेने की क्षमता, संकटों पर विजय प्राप्त कर लेने का साहस इत्यादि का मिला जुला रूप यदि कहीं है तो उसे आप हनुमंत कह सकते हैं बजरंग कह सकते हैं। हनुमतत्व से इन्हीं योग्यताओं का निर्माण सम्भव होता है। हनुमंत साधना के द्वारा साधक अपने अंदर उन सभी क्षमताओं और विशेषताओं को विकसित कर सकता है जो कि रामभक्त हनुमान में उपस्थित हैं। साधना का यही रहस्य है । इस पृथ्वी पर जीवन पंगु, निर्बल, कायर, कामचोर और कर्महीनों के लिये नहीं है। ध्यान रहे शास्त्रों के अनुसार जिसकी इस लोक में पूछ-परख है उसी की मृत्यु के पश्चात अन्य लोकों में भी पूछ-परख होती है। घिसट-घिसटकर जीना और घिसटता हुआ जीवन अपने आप में जीवन नहीं कहलाता है। इस प्रकार का जीवन मृतप्राय जीवन कहलाता है।
              जीवन यात्रा की डगर सीधी-साधी नहीं है। मृत्युलोक में शरीर धारण करने का मतलब ही सैकड़ों परेशानी, सैकड़ों संकट, सैकड़ों अड़चने और पग-पग पर घोषित और अघोषित शत्रुओं का सामना, षड्यंत्रों के बीच से निकलना है। आर्यवंश में जब तक हनुमंत साधक बड़ी संख्या में होंगे वैदिक संस्कृति पूर्ण रूप से सुरक्षित रहेगी अन्यथा असुर संस्कृति धीरे-धीरे समस्त विश्व को अपना ग्रास बना लेगी। यदि आपके शरीर में पूर्ण रूप से हनुमान स्थापित हो जाते हैं तो फिर आपको लाचार, असहाय, वृद्ध, रोगी और कामचोर की तरह जीवन बिताने की जरूरत नहीं है फिर आपके सामने संकट नहीं आ सकते, बाधायें नहीं आ सकती और राज्य भय भी नहीं आ सकता। कलयुग में हनुमंत साधना ही सबसे त्वरित फल प्रदान करती है।हनुमंत साधना में साधक को प्राण प्रतिष्ठित और मंत्र सिद्ध हनुमान यंत्र, मूंगे की माला, हनुमान विग्रह एवं लाल हकीक की माला का उपयोग करना चाहिये। इसके अलावा जलपात्र, अबीर, गुलाल, कुंकुम, केसर, लाल चाँवल, सिन्दूर, नारियल, मौली, लाल वस्त्र, घी का दीपक और तेल के दीपक का भी उपयोग किया जाता है।
              हनुमंत साधना में पूर्ण सफलता प्राप्त करने के लिये गुरु से पूर्ण हनुमान सिद्धि दीक्षा शक्तिपात के द्वारा प्राप्त करनी चाहिये। यह दीक्षा तीन चरणों में दी जाती है।हनुमान जी भगवान राम के सेवक हैं अत: उनके चरित्रों के श्रवण से वे अति प्रसन्न होते हैं। हनुमान जी की प्रसन्नता के लिये घर में रामचरित मानस, अखण्ड रामायण, सुन्दरकाण्ड, मूल रामायण और वाल्मिकी रामायण आदि का पाठ करवाना चाहिये। जहाँ राम वहीं हनुमान इस बात को साधक मूल मंत्र समझे। रामलीला के आयोजन से भी वे अति प्रसन्न होते हैं।
                हनुमानजी की साधना करते समय साधक का मुख पूर्व की ओर होना चाहिये और यदि किसी करणवश ऐसा न किया जा सके तो ऐसी भावना करें कि हनुमान पूर्व में ही प्रतिष्ठित हैं। हनुमान जी का पूजन साधक की कामना के अनुसार पंचोपचार, दशोपचार और षोडशोपचार आदि से किया जाता है। षोडशोपचार पूजन में आह्वान, आसन, पाद्य, अर्ध्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, पुनर्वाचमन, ताम्बूल, दक्षिणा प्रदक्षिणा या नीराजन किया जाता है।
                  स्नान में कुँये का शुद्ध जल और गंधादि युक्त पवित्र जल उपयोग में लाना चाहिये। विशेष पर्वों पर दूध, दही, घी, मधु और चीनी के पञ्चामृत से स्नान कराके फिर शुद्धोधक से स्नान कराया जाय। उद्वर्तन के स्थान पर तिल के तेल में मिश्रित सिन्दूर का सर्वांग में लेपन किया जाता है इससे हनुमान जी अति प्रसन्न होते हैं। लंका विजय के बाद रामचन्द्र जी ने सुग्रीव को पारितोषिक दिया उस समय सीताजी ने हनुमान जी को बहुमूल्य मोतियों की माला दी, किन्तु उसमें राम नाम न होने से वे उदासीन रहे तब सीता जी ने अपनी सीमन्त का सिन्दूर देकर कहा कि यह मेरा मुख्य सौभाग्य चिन्ह है और इसको मैं धन धान्य और रत्न आदि से भी अधिक प्रिय मानती हूँ, अत: हे पुत्र तुम इसको सहर्ष स्वीकार करो तब हनुमान जी ने सिन्दूर को अंगीकार कर लिया। 

                   गंध में शुद्ध केसर के साथ घिसा हुआ मलयागिरी चन्दन या लाल चन्दन चढ़ाना चाहिये। पुष्पों में पुरुषवाची नाम के लाल पीले, गम्भीर और दीर्घकाय पुष्प (कमल, केवड़ा, सूर्यमुखी, हजारा) अर्पण करें। देवशयनी (आषाढ़ शुक्लैकादशी) से 'देवप्रबोधिनी' (कार्तिक शुक्लैकादशी) तक 121 दिन में प्रतिदिन 108 तुलसी पत्तों पर कदम्ब की कलम से और अष्टगंध से "राम" नाम लिखकर गन्धादि से पूजित करें, “ॐ हनुमते नमः" से एक-एक पत्र हनुमान जी को शिरोधार्य करावें । 
                  इस प्रयोग से जीवन के घोर से घोर अनिष्ठ दूर हो जाते हैं। प्रातः पूजन में गुड़, नारियल का गोला, मोदक चढ़ाना चाहिये मध्यान्ह में गुड़, घी और गेंहूँ का चूरमा, घी लगी गेंहूँ की रोटी इत्यादि अर्पित करनी चाहिये। मंगलवार को हनुमान जी को चूरमा अवश्य चढ़ाना चाहिये और उसी दिन प्रसाद का भोजन करके एक युक्त भौम व्रत करें। यदि मौन रहकर बायें हाथ से भोजन किया जाय तो यह व्रत रणमोचन में अत्यधिक उपयोगी है। 
              घी में भीगी हुई एक या पाँच शुद्ध रुई की बत्तियों से आरती करनी चाहिये । महापूजा के समय 5, 11, 51 या 108 बत्तियों से पूजन करना चाहिये। इस अवसर पर शंख, रण सिंघा, विजयघण्ट और नगाड़ा आदि की ध्वनि से हनुमान जी अत्यधिक प्रसन्न होते हैं। हनुमान जी को रुद्रावतार माना गया है इसीलिये चरणामृत का प्रचार कम है। हनुमान साधना पुरुष या स्त्री कोई भी कर सकता है। साधक शब्द में पुरुष या स्त्रो जैसा कोई भेद नहीं है। प्रत्येक हनुमान साधना पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों के लिये भी उतनी ही उपयोगी है। पूजन के पश्चात् जप किया जाता है। 

जप तीन प्रकार के हैं - 
1. वाचिक इसमें जाप का उच्चारण दूसरों को सुनाई देता है। 2. उपान्शु - जिसमें ओंठ, जीभ हिलते रहें किन्तु उच्चारण सुनाई न दें । 
3. मानसिक इसमें ओंठ बंद रहते हैं, जीभ चिपकी रहती है और जप मन में होता है। मानस जप में आराध्य देव के स्वरूप का ध्यान करना आवश्यक है। 
मानस जप करते समय अपने हृदय में हनुमान जी का इस प्रकार से ध्यान करें 

उद्यन्मार्तण्डकोटिप्रकटरुचियुतं चारुवीरासनस्र्थ मौञ्जोयज्ञोपवीतारुणरुचिरशिरवाशोभितं कुण्डलाम् । भक्तानाभिष्टदं तं प्रणतमुनिजनं वेदनादप्रमोदं ध्यायेद्देवं विधेयं प्लवगकुलपतिं गोष्दीभूतवार्द्धिम् ॥

उदय होते हुये प्रकाशमान सूर्य जैसे तेजस्वी, मनोरम वीरासन से स्थित, मूँज की मेखला तथा यज्ञोपवीत धारण करने वाले, लाल वर्ण की सुन्दर शिखावाले, कुण्डलों से शोभित, भक्तों को अभीष्ट फल देने वाले, मुनियों से वन्दित, वेदनाद से हर्षित, वानर कुल के स्वामी और समुद्र को गोपद के समान लांघ जाने वाले स्वरूप का ध्यान व्यापक या सर्वानुकूल प्रतीत होता है।
              हनुमान साधना में हनुमत विग्रह को एक टक देखते हुये भी मंत्र जप किया जा सकता है हनुमत साधना के दिनों में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नितांत आवश्यक होता है जो साधना की मुख्य धूरी है। हनुमान साधना के लिये रुद्राक्ष या मूंगे की माला का प्रयोग करना चाहिये। हनुमान साधना में लाल आसन पर बैठें, लाल धोती पहने एवं लाल चादर का प्रयोग करें। तेल का दीपक अगरबत्ती या धूप पूरे साधनाकाल में जलती रहनी चाहिये ।.
           श्री हनुमान साधना दास्यभाव से करना चाहिये इससे वे शीघ्र प्रसन्न होते हैं। हनुमत साधना में एक समय ही भोजन करें एवं सूर्यास्त के बाद पूजन आदि करके ही भोजन करें। इस भोजन में नमक का सेवन न करें तो अच्छा ही होगा। हनुमत साधकों को पूज्य (गौ, गुरु, द्विज, देव आदि) के सानिध्य में रहना चाहिये। तामसिक प्रवृत्ति के लोगों से किसी भी प्रकार का सम्पर्क नहीं करना चाहिये। हनुमान साधना मंगलवार और शनिवार को अवश्य करनी चाहिये इससे दुष्ट और नीच ग्रह शांत हो जाते हैं। हनुमान जी को शुद्धता एवं पवित्रता अतिप्रिय है अतः साधक शुद्धता एवं पवित्रता का अधिक ध्यान रखें।

अतुलितबलधामं हेमशैलाभ देहं दनुजवन कृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् । 
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥

पुराणों से मालुम हो सकता है कि हनुमान जी पवन के पुत्र और रुद्र के अवतार हैं। देव, दानव और मानव सृष्टि में इनका मान और महत्व सर्वोच्च है। जिस समय यह जन्में उस समय ब्रह्मा, विष्णु, महेश, यम, वरुण, कुबेर, अग्नि, वायु, इन्द्रादि ने इनको अजरामर किया था और इन्हें अनेक प्रकार के वर दिये थे।
                           शिव शासनत: शिव शासनत: