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जानें :-जिनसे आपको हो सकती है परेशानी।

    बहुत से लोग दरवाजे, खिड़कियों में लगे कांच के टूट जाने पर भी उसे बदलवाते नहीं है और टूटे हुए कांच को लगे रहने देते हैं। ऐसे में वास्तुदोष उत्पन्न होता है जो आर्थिक नुकसान का कारण बनता है।

     टूटे हुए आइने को भी कभी घर में नहीं रखना चाहिए। इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि टूटे हुए आइने में चेहरा नहीं देखें।

     उन्नति और धन संबंधी परेशानियों से बचाव के लिए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बंद हुई घड़ी को चालू करलें।
अगर घड़ी खराब हो चुकी है और चलने लायक नहीं है तो उसे घर में यादगार बनाकर न रखें।

    वास्तुविज्ञान के अनुसार घर में भगवान की टूटी हुई मूर्ति भूलकर भी नहीं रखें। भगवान की टूटी हुई मूर्तियों को घर में रखने से घर में नकारात्मक उर्जा का प्रवाह होने लगता है जिससे घर में कई तरह की परेशानियां आने लगती हैं।

      फटी हुई और पुरानी हो चुकी भगवान की तस्वीरों को भी घर में नहीं रखना चाहिए। ऐसी तस्वीरें और मूर्तियों को जल में प्रवाहित कर देना चाहिए।

     वास्तुविज्ञान के अनुसार घर में लोगों के बीच आपसी प्रेम और सद्भाव बनाए रखने के लिए कभी भी कांटे वाले पौधों को जिनमे फूल न निकलते हो घर में नहीं रखना चाहिए। इससे उर्जा का प्रवाह प्रभावित होता है, उन्नति और लाभ में भी बाधा आती है।

     इस बात का भी ध्यान रखें कि जिन पौधों के पत्ते सूख या गल चुके हों उनके गले सूखे पत्तों को तोड़कर घर के बाहर फेंक दें। शयन कक्ष के अंदर कभी भी पौधा नहीं रखना चाहिए।

     वास्तु विज्ञान के अनुसार कूड़ा कबाड़ घर में बिल्कुल भी नहीं रखें। अगर कोई चीज आपके लिए उपयोगी नहीं है, टूट-फूट गई है तो उसे तुरंत ही घर से बाहर कर दें।

     खराब और बेकार की चीजों को घर में सहेज कर रखने से नकरात्मक उर्जा का प्रभाव बढ़ जाता है। इससे स्वास्थ्य और धन संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

  खराब विद्युत उपकरण जैसे टीवी, कंप्यूटर, फ्रीज और दूसरे जो भी सामान हों उसे खराब होने पर जल्दी ठीक करवा लें। खराब सामान को घर में रखना अपने लिए नुकसान को बुलावा देना है।

    वास्तुविज्ञान के अनुसार कभी भी किसी एक देवी देवता की मूर्ति आमने-सामने नहीं रखनी चाहिए। यानी आपके घर में दो लक्ष्मी माता की मूर्ति या तस्वीर है तो दोनों को एक दूसरे के आमने सामने नहीं रखें।
ऐसा होने से धन आगमन का मार्ग बाधित होता है और खर्च बढ़ जाते हैं। देवी लक्ष्मी ही नहीं इस बात का ख्याल हर देवी देवता के मामले में रखें।

अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान ।।

      यदि जान सकें जप की माला नहीं जप की कला

अन्तर्यात्रा विज्ञान साधकों के लिए पुकार है। पुकार के ये स्वर बड़े आश्चर्यों से भरे हैं। इन्हें सब नहीं सुन सकते। इन्हें सुन पाने के लिए साधक का अन्तःकरण चाहिए। जिनमें साधक की अन्तर्चेतना, साधक की अन्तर्भावना है- वही इन्हें सुन पाएँगे। उन्हीं को अपने अस्तित्व के मर्म में महर्षि पतंजलि एवं ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव की छुअन महसूस होगी। वही अपने आपको इन महायोगियों की वरद छाया में अनुभव कर पाएँगे। उन्हीं को इन महान् विभूतियों का नेह-निमंत्रण सुनायी देगा। योग न तो लौकिक ज्ञान है और न ही कोई सामान्य सांसारिक विद्या है। यह महान् आध्यात्मिक ज्ञान है और अतिविशिष्ट परा विद्या है। वाणी से इसका उच्चारण भले ही किया जा सकता हो, पर इसके अर्थ बौद्धिक चेतना में नहीं खुलते। इसके रहस्यार्थों का प्रस्फुटन, तो गहन भाव चेतना में होता है।

अन्तर्यात्रा के पथ पर उन्हीं को प्रवेश मिलता है, जो साधक होने की परीक्षा पास करते हैं। अपनी पात्रता सिद्ध करते हैं। हालाँकि इस सम्बन्ध में महर्षि पतंजलि परम उदार हैं। उन्होंने अन्तर्यात्रा के पथ के पथिकों के लिए अनेकों वैज्ञानिक अनुसन्धान किए हैं। अनगिनत तकनीकें खोजी हैं। इन तकनीकों में से किसी एक का इस्तेमाल करके कोई भी व्यक्ति इस पात्रता की परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकता है। इन्हीं तकनीकों में से एक है- ॐ कार का जप। ॐ कार में अनगिनत गुह्य निधियाँ, गुह्य शक्तियाँ समायी हैं। यदि इसका विधिपूर्वक जप हो, तो योग की सभी बाधाओं का बड़ी आसानी से निराकरण किया जा सकता है। प्रभु की महिमा, गरिमा सभी कुछ बीज रूप में इसमें निहित है। यह बीज विकसित कैसे हो, प्रस्फुटित किस भाँति हो? इसका विधान महर्षि अपने अगले सूत्र में बताते हैं-

तज्जपस्तदर्थभावनम्॥ १/२८॥
शब्दार्थ- तज्जपः= उस (ॐकार का) जप (और), तदर्थभावनम्= उसके अर्थ स्वरूप परमेश्वर की भावना के साथ करना चाहिए।
अर्थात् ॐ कार का जप इसके अर्थ का चिन्तन करते हुए परमेश्वर के प्रति प्रगाढ़ भावना के साथ करना चाहिए।
 
महर्षि ने इस सूत्र में जप की विधि, जप के विज्ञान का खुलासा किया है। मंत्र को दोहराने भर का नाम जप नहीं है। केवल दोहराते रहना एक अचेतन क्रिया भर है। यह साधक को चैतन्यता देने की बजाय सम्मोहन जैसी दशा में ले जाती है। जो केवल मंत्र को दुहराते रहते हैं, उन्हें परिणाम में सम्मोहन, निद्रा मिलती है। हाँ यह सच है कि इससे थकान मिटती है। जगने पर थोड़ी स्फूर्ति भी लगती है। किन्तु यह जप का सार्थक परिणाम नहीं है। इसका सार्थक परिणाम तो जागरण है। चेतना की परम जागृति है।

वैदिक संस्कार क्यों किये जाते हैं ?

 

गर्भाधान संस्कार -
 युवा स्त्री-पुरुष उत्तम सन्तान की प्राप्ति के लिये विशेष तत्परता से प्रसन्नतापूर्वक गर्भाधान करे।

 पुंसवन संस्कार -
 जब गर्भ की स्थिति का ज्ञान हो जाए, तब दुसरे या तीसरे महिने में गर्भ की रक्षा के लिए स्त्री व पुरुष प्रतिज्ञा लेते है कि हम आज ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जिससे गर्भ गिरने का भय हो।

 सीमन्तोन्नयन संस्कार -
 यह संस्कार गर्भ के चौथे मास में शिशु की मानसिक शक्तियों की वृद्धि के लिए किया जाता है इसमें ऐसे साधन प्रस्तुत किये जाते है जिससे स्त्री प्रसन्न रहें।

जातकर्म संस्कार -
 यह संस्कार शिशु के जन्म लेने पर होता है। इसमें पिता सलाई द्वारा घी या शहद से जिह्वा पर ओ३म् लिखते हैं और कान में 'वेदोऽसि' कहते है।

 नामकरण संस्कार-
 जन्म से ग्यारहवें या एक सौ एक या दुसरे वर्ष के आरम्भ में शिशु का नाम प्रिय व सार्थक रखा जाता है। 

 निष्क्रमण संस्कार -
 यह संस्कार जन्म के चौथे माह में उसी तिथि पर जिसमें बालक का जन्म हुआ हो किया जाता है। इसका उद्देश्य शिशु को उद्यान की शुद्ध वायु का सेवन और सृष्टि के अवलोकन का प्रथम शिक्षण है।

 अन्नप्राशन संस्कार -
 छठे व आठवें माह में जब शिशु की शक्ति अन्न पचाने की हो जाए तो यह संस्कार होता है। 

 चूडाकर्म (मुंडन) संस्कार -
 पहले या तीसरे वर्ष में शिशु के बाल कटाने के लिये किया जाता है।

 कर्णवेध संस्कार -
 कई रोगों को दूर करने के लिए शिशु के कान बींधे जाते है। 

 उपनयन संस्कार -
 जन्म से आठवें वर्ष में इस संस्कार द्वारा लड़के व लड़की को यज्ञोपवीत (जनेऊ) पहनाया जाता है। 

 वेदारम्भ संस्कार -
 उपनयन संस्कार के दिन या एक वर्ष के अन्दर ही गुरूकुल में वेदों के अध्ययन का आरम्भ किया जाता है। 

 समावर्तन संस्कार -
 जब ब्रह्मचारी व्रत की समाप्ति कर वेद-शास्त्रों के पढ़ने के पश्चात गुरूकुल से घर आता है तब यह संस्कार होता है। 

विवाह संस्कार -
 विद्या प्राप्ति के पश्चात् जब लड़का-लड़की भली भांति पूर्ण योग्य बनकर घर जाते है तब दोनों का विवाह गुण-कर्म-स्वभाव देखकर किया जाता है। 

वानप्रस्थ संस्कार -
 जब घर में पुत्र का पुत्र हो जाए, तब गृहस्थ के धन्धे को छोड़ कर वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश किया जाता है। 

 सन्यास संस्कार -
 वानप्रस्थी वन में रह कर जब सब इन्द्रियों को जीत ले, किसी में मोह व शोक न रहे तब संन्यास आश्रम में प्रवेश किया जाता है। 

अन्त्येष्टि संस्कार -
 मनुष्य शरीर का यह अन्तिम संस्कार है जो मृत्यु के पश्चात् शरीर को जलाकर किया जाता है।

यह संक्षेप में 16 वैदिक संस्कारों का प्रयोजन संक्षेप में बताया है।

गुरु या ईष्ट देव की प्रबलता :-

जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं. अन्तःकरण में किसी मंत्र का स्वतः उत्पन्न होना व इस मंत्र का स्वतः मन में जप आरम्भ हो जाना, किसी स्थान विशेष की और मन का खींचना और उस स्थान पर स्वतः पहुँच जाना और मन का शांत हो जाना, अपने मन के प्रश्नों के समाधान पाने के लिए प्रयत्न करते समय अचानक साधू पुरुषों का मिलना या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना, कोई व्रत या उपवास (भूखे मरना नहीं ) स्वतः हो जाना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना, यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है. वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है, परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाटा. किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा.

गुरु के पास बैठो, आँसू आ जाएँ, बस इतना ही काफी है। 
चरण छूना गुरु के बस, याद रहे भविष्य की कोई आकांक्षा ना हो। 
मौन प्रार्थना जल्दी पहुँचती हैं गुरु तक; क्योंकि मुक्त होतीं हैं, शब्दों के बोझ से। गुरु का होना आशीर्वाद है, मांगना नहीं पड़ता, गुरु के पास होने से ही सब मिल जाता है। जैसे फूल के पास जाओ खुशबू अपने आप ही मिलने लगती है उजाले के पास प्रकाश किरण नजर आ जाती है मांगनी नही पड़ती। परमात्मा ने सारी व्यवस्था पहले ही कर के आप को गुरु शरण में भेजा है , मांगने की जरूरत ही नही है बस गुरु के पास जाना, उनकी शरणागति स्वीकार कर लेना, उनके बताये मार्ग पर चलना, हमारा कर्तव्य इतना ही है बाकी सब गुरु और परमात्मा पर छोड़ देना ही उचित है। सब स्वयं ही मिल जायेगा। वो स्वयम ही दाता हैं l


शमी (खेजड़ी) वृक्ष का महत्त्व एवं पूजन विधि ।।

दशहरे के दिन शमी की पूजा करने के नियम

स्नानोपरांत साफ कपड़े धारण करें। फिर प्रदोषकाल में शमी के पेड़ के पास जाकर सच्चे मन से प्रमाण कर उसकी जड़ को गंगा जल, नर्मदा का जल या शुद्ध जल चढ़ाएं। उसके बाद तेल या घी का दीपक जलाकर उसके नीचे अपने शस्त्र रख दें। 
फिर पेड़ के साथ शस्त्रों को धूप, दीप, मिठाई चढ़ाकर आरती कर पंचोपचार अथवा षोडषोपचार पूजन करें। साथ ही हाथ जोड़ कर सच्चे मन से यह प्रार्थना करें। 

'शमी शम्यते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी।।
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया।
तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता।।'

इसका अर्थ है -- हे शमी वृक्ष आप पापों को नाश और दुश्मनों को हराने वाले है। आपने ही शक्तिशाली अर्जुन का धनुश धारण किया था। साथ ही आप प्रभु श्रीराम के अतिप्रिय है। ऐसे में आज हम भी आपकी पूजा कर रहे हैं। हम पर कृपा कर हमें सच्च व जीत के रास्ते पर चलने की प्रेरणा दें। साथ ही हमारी जीत के रास्ते पर आने वाली सभी बांधाओं को दूर कर हमें जीत दिलाए। 

यह प्रार्थना करने के बाद अगर आपको पेड़ के पास कुछ पत्तियां गिरी मिलें तो उसे प्रसाद के तौर पर ग्रहण करें। साथ ही बाकी की पत्तियों को लाल रंग के कपड़े में बांधकर हमेशा के लिए अपने पास रखें। इससे आपके जीवन की परेशानियां दूर होने के साथ दुश्मनों से छुटकारा मिलेगा। इस बात का खास ध्यान रखें कि आपकी पेड़ से अपने आप गिरी पत्तियां उठानी है। खुद पेड़ से पत्तों को तोड़ने की गलती न करें। 

शमी वृक्ष के गुण एवं महत्त्व

शमी को गणेश जी का प्रिय वृक्ष माना जाता है और इसकी पत्तियाँ गणेश जी की पूजा में भी चढ़ाई जाती हैं। जिसमें शिव का वास भी माना गया है, जो श्री गणेश के पिता हैं और मानसिक क्लेशों से मुक्ति देने वाले देव हैं। यही कारण है कि शमी पत्र का चढ़ावा श्री गणेश की प्रसन्नता से बुद्धि को पवित्र कर मानसिक बल देने वाला माना गया है। अगर आप भी मन और परिवार को शांत और सुखी रखना चाहते हैं तो नीचे बताए विशेष मंत्र से श्री गणेश को शमी पत्र अर्पित करें -

त्वत्प्रियाणि सुपुष्पाणि कोमलानि शुभानि वै।
शमी दलानि हेरम्ब गृहाण गणनायक।।

शमी भगवान श्री राम का प्रिय वृक्ष था और लंका पर आक्रमण से पहले उन्होंने शमी वृक्ष की पूजा कर के उससे विजयी होने का आशीर्वाद प्राप्त किया था। आज भी कई स्थानों पर 'रावण दहन' के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते स्वर्ण के प्रतीक के रूप में एक दूसरे को बाँटने की प्रथा हैं, इसके साथ ही कार्यों में सफलता मिलने कि कामना की जाती है।

शमी शमयते पापं शमी शत्रु विनाशिनी।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी।।
करिष्यमाणयात्राया यथाकालं सुखं मया।
तत्र निर्विघ्न कर्तृत्वं भवश्रीरामपूजिता।।

शमी पापों का नाश करने वाले और दुश्मनों को पराजित करने वाले है.अर्जुन का धनुष धारण करने वाले ; श्रीराम को प्रिय है.जिस तरह श्रीराम ने आपकी पूजा करी , हम भी करते है. अच्छाई की जीत में आने वाली सभी बाधाओं को दूर कर उसे सुखमय बना देते है।

-- यह वृक्ष जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है। जब खाने को कुछ नहीं होता है तब यह चारा देता है, जो लूंग कहलाता है।

-- इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है।

-- इसकी लकडी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसकी जड़ से हल बनता है।

-- वराहमिहिर के अनुसार जिस साल शमीवृक्ष ज्यादा फूलता-फलता है उस साल सूखे की स्थिति का निर्माण होता है। विजयादशमी के दिन इसकी पूजा करने का एक तात्पर्य यह भी है कि यह वृक्ष आने वाली कृषि विपत्ती का पहले से संकेत दे देता है जिससे किसान पहले से भी ज्यादा पुरुषार्थ करके आनेवाली विपत्ती से निजात पा सकता है।

-- अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। सन १८९९ में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे।

-- इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है।

-- पांडवों द्वारा अज्ञातवास के अंतिम वर्ष में गांडीव धनुष इसी पेड़ में छुपाए जाने के उल्लेख मिलते हैं।

-- शमी या खेजड़ी के वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। वसन्त ऋतु में समिधा के लिए शमी की लकड़ी का प्रावधान किया गया है। इसी प्रकार वारों में शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है।

-- शमी शनि ग्रह का पेड़ है. राजस्थान में सबसे अधिक होता है . छोटे तथा मोटे काँटों वाला भारी पेड़ होता है।

-- कृष्ण जन्मअष्टमी को इसकी पूजा की जाती है . बिस्नोई समाज ने इस पेड़ के काटे जाने पर कई लोगों ने अपनी जान दे दी थी।

-- कहा जाता है कि इसके लकड़ी के भीतर विशेष आग होती है जो रगड़ने पर निकलती है. इसे शिंबा; सफेद कीकर भी कहते हैं।

-- घर के ईशान में आंवला वृक्ष, उत्तर में शमी (खेजड़ी), वायव्य में बेल (बिल्व वृक्ष) तथा दक्षिण में गूलर वृक्ष लगाने को शुभ माना गया है।

-- कवि कालिदास ने शमी के वृक्ष के नीचे बैठ कर तपस्या कर के ही ज्ञान की प्राप्ति की थी।

-- ऋग्वेद के अनुसार आदिम काल में सबसे पहली बार पुरुओं ने शमी और पीपल की टहनियों को रगड़ कर ही आग पैदा की थी।

-- कवियों और लेखकों के लिये शमी बड़ा महत्व रखता है। भगवान चित्रगुप्त को शब्दों और लेखनी का देवता माना जाता है और शब्द-साधक यम-द्वितीया को यथा-संभव शमी के पेड़ के नीचे उसकी पत्तियों से उनकी पूजा करते हैं।
-- नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा भी शमी वृक्ष के पत्तों से करने का शास्त्र में विधान है। इस दिन शाम को वृक्ष का पूजन करने से आरोग्य व धन की प्राप्ति होती है।

--कहते है एक आक के फूल को शिवजी पर चढ़ाना से सोने के दान के बराबर फल देता है , हज़ार आक के फूलों कि अपेक्षा एक कनेर का फूल, हज़ार कनेर के फूलों के चढाने कि अपेक्षा एक बिल्व-पत्र से मिल जाता है। हजार बिल्वपत्रों के बराबर एक द्रोण या गूमा फूल फलदायी। हजार गूमा के बराबर एक चिचिड़ा, हजार चिचिड़ा के बराबर एक कुश का फूल, हजार कुश फूलों के बराबर एक शमी का पत्ता, हजार शमी के पत्तो के बराबर एक नीलकमल, हजार नीलकमल से ज्यादा एक धतूरा और हजार धतूरों से भी ज्यादा एक शमी का फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है। इसलिए भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए एक शमी का पुष्प चढ़ाएं क्योंकि यह फूल शुभ और पुण्य देने वाला होता है।

-- इसमें औषधीय गुण भी है. यह कफनाशक ,मासिक धर्म की समस्याओं को दूर करने वाला और प्रसव पीड़ा का निवारण करने वाला पौधा है. शन्नोदेवीरभीष्टय आपो भवन्तु पीतये
 
शमी पोधे की पूजा करने से आपको क्या क्या लाभ मिलता है।

शमी शनिदेव को प्रिय है इसलिए शमी की पूजा सेवा करने से शनि की कृपा प्राप्त होती है और समस्त संकटों का नाश होता है। 

आइये जानते हैं शमी के पौधे के क्या-क्या उपाय किए जा सकते हैं

-- इसके जड़ को शनि रत्न के स्थान पर धारण कर सकते हैं। पुष्प का अनन्त महात्म्य है।

-- यदि परिवार में धन का अभाव बना हुआ है। खूब मेहनत करने के बाद भी धन की कमी है और खर्च अधिक है तो किसी शुभ दिन शमी का पौधा खरीदकर घर ले आएं। शनिवार के दिन प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर नए गमले में शुद्ध मिट्टी भरकर शमी का पौधा लगा दें। इसके बाद शमी पौधे की जड़ में एक पूजा की सुपारी. अक्षत पौधे पर गंगाजल अर्पित करें और पूजन करें। पौधे में रोज पानी डालें और शाम के समय उसके समीप एक दीपक लगाएं। आप स्वयं देखेंगे धीरे-धीरे आपके खर्च में कमी आने लगेगी और धन संचय होने लगेगा।

-- शनिवार को शाम के समय शमी के पौधे के गमले में पत्थर या किसी भी धातु का एक छोटा सा शिवलिंग स्थापित करें। शिवलिंग पर दूध अर्पित करें और विधि-विधान से पूजन करने के बाद महामृत्युंजय मंत्र की एक माला जाप करें। इससे स्वयं या परिवार में किसी को भी कोई रोग होगा तो वह जल्दी ही दूर हो जाएगा।

-- कई सारे युवक-युवतियों के विवाह में बाधा आती है। विवाह में बाधा आने का एक कारण जन्मकुंडली में शनि का दूषित होना भी है। किसी भी शनिवार से प्रारंभ करते हुए लगातार 45 दिनों तक शाम के समय शमी के पौधे में घी का दीपक लगाएं और सिंदूर से पूजन करें। इस दौरान अपने शीघ्र विवाह की कामना व्यक्त करें। इससे शनि दोष समाप्त होगा और विवाह में आ रही बाधाएं समाप्त होंगी।

-- जन्मकुंडली में यदि शनि से संबंधित कोई भी दोष है तो शमी के पौधे को घर में लगाना और प्रतिदिन उसकी सेवा-पूजा करने से शनि की पीड़ा समाप्त होती है।

-- जिन लोगों को शनि की साढ़े साती या ढैया चल रहा हो उन्हें नियमित रूप से शमी के पौधे की देखभाल करना चाहिए। उसमें रोज पानी डालें, उसके समीप शाम के समय दीपक लगाएं। शनिवार को पौधे में थोड़े से काले तिल और काले उड़द अर्पित करें। इससे शनि की साढ़ेसाती का दुष्प्रभाव कम होता। 

-- यदि आप बार-बार दुर्घटनाग्रस्त हो रहे हों तो शमी के पौधे के नियमित दर्शन से दुर्घटनाएं रुकती हैं।