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श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम ।।


          जब त्रिपुर सुंदरी अति प्रसन्न थी तब भगवती त्रिपुर सुंदरी ने मुस्कुराते हुए कहा कि आज मैं अति प्रसन्न हूं अतः वाग्देवी आप जो सबके कंठ में विराजमान रहती हैं आज आप कुछ दिव्य स्तुति की रचना कीजिए। वाग्देवी सभी के कर्णों से निकलकर प्रकट हो गई और ब्रह्मांड में मौजूद अनेकों मातृकाओं, व्यंजनों, स्वरों, अक्षरों इत्यादि के माध्यम से श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम के द्वारा भगवती त्रिपुर सुंदरी की उपासना करने लगी श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम का जैसे जैसे वाग्देवी पाठ करती जाती वैसे वैसे श्री ललितेश्वरी आनंद में डुबति जाति अंत में परम प्रसन्न हो भगवती त्रिपुर सुंदरी ने कहा कि जो कोई श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ करेगा उस पर मैं अति प्रसन्न होंउगी। यह मेरी सबसे सर्वश्रेष्ठ उपासना है, जो जातक अपने जीवन में एक हजार बार ललितासहस्रनाम का पूर्ण आस्था एवं हृदय से पाठ करता है उसे क़्रुर काल भी स्पर्श नहीं करता। भगवान शरभ के विग्रह के सामने जो जातक मात्र एक बार पूर्ण श्रद्धा के साथ श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ करता है उसके समस्त शत्रुओं का भक्षण शरभ तत्काल कर लेते हैं। भगवान शरभ की भूख है श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम। जो जातक अपने जीवन में प्रत्येक पूर्णिमा के दिन श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ करता है उसे परम सौंदर्यवान स्त्री की प्राप्ति होती है जिसने अपने जीवन में 21 हजार बार श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ कर लिया उसका राज्याभिषेक निश्चित है। श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शरभ, इंद्र, यम, गणेश, कार्तिकेय इत्यादि सभी देवाधिदेव एवं इनके साथ साथ महादेव भगवान सदाशिव की भूख है। आप भगवती त्रिपुर सुंदरी के श्री विग्रह को देखिए उनके चार पायों के रूप में ब्रह्मा विष्णु रुद्र एवं ईश्वर हाथ जोड़े हुए आंख बंद कर परम समाधि अवस्था में लीन हैं एवं इन सब के कर्ण श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम की आवृत्ति को ग्रहण कर इन्हें पुनः शक्ति युक्त कर रहे हैं। धन्य है वह कर्ण धन्य है वह मुख धन्य है वह शरीर धन्य है वह शिष्य धन्य है वह गुरु जो कि अपने जीवन में श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम की आवृत्ति यों को ग्रहण करते हैं।

          हे त्रिपुरे तू ही गुरु कुंडलिनी है, तू ही सूर्य कुंडलिनी है, तू ही चंद्र कुंडलिनी है, तू ही गणेश रूपी कुंडलिनी है, तू ही देवकुंडलीनी है, तू ही धर्म संप्रदाय एवं ज्ञान कुंडलिनी है, तू ही विज्ञान है। तू ही तू है, तू ही सर्वस्व है। सुप्त मूर्छित निमृत चैतन्य जागृत ये अवस्थाएं कहीं पर भी लागू हो सकती है। यह अवस्थाएं मनुष्यों में जिवों में भूमि में आकाश में जल में वायु में अग्नि में गुरु तत्व में भी देखने को मिलती है। यह अवस्थाएं इस बात पर निर्भर करती है कि उस तत्व विशेष में कितनी मात्रा में श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम की आहुतियां ग्रहण की कितना उसमें श्री तत्व है। गुरु सुप्त भी होते हैं गुरु अर्ध-चेतन भी होते हैं बहुत से गुरु मूर्छित भी होते हैं बहुत से गुरु नींद्रित भी होते हैं परंतु कुछ एक परम चैतन्य परम जागृत भी होते हैं। अब यह आपका सौभाग्य यह आपकी क्षमता कि आपको परम चैतन्य परम जागृत गुरु मिले या फिर ऊधते हुए।

           जो जैसा होते हैं उन्हें वैसे गुरु मिल जाते हैं। निद्रित शिष्य को निद्रत गुरु मिल जाते हैं मूर्छित लोगों को मूर्छित गुरु मिल जाता है सुसुप्त लोगों को सुसुप्त गुरुओं की आवश्यकता होती है कौन रत-जगा करना चाहते हैं? अर्थात सारी रात जागना चाहते हैं रात रूपी शब्द को मिटा देना चाहता है रात और दिन का फर्क समाप्त कर देना चाहता है? क्या जरूरत है इनकी मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे परम जागृत एवं चेतन सदगुरु मिले जो रत-जगा करते हैं। जब आप श्रीविद्योपासक बन जाओगे तब आप रात में आंख बंद करके सो गए तब भी मस्तिष्क दिव्य प्रकाश से भरा दिखाई देगा ऐसा लगेगा कि असंख्य मणियाँ मस्तिष्क में चमक रही हैं तब अंधेरा नहीं होगा शुन्य नहीं होगा अपितु भगवती त्रिपुर सुंदरी का मणिमय प्रकाश होगा कुछ अनूठी जिंदगी होगी। तब आप जहां से निकलोगे वहां पर मौजूद श्री आवृत्तिया आप ग्रहण कर सकते हो फिर आप मथुरा में खड़े होकर 5000 वर्ष बाद ही कृष्ण को सुंध सकते हो फिर आप सामने बैठे साधक की तरफ देख कर उसके कुल में की गई दत्तात्रेय की उपासना के प्रकाश को या फिर दत्त चित्र को उसके अंदर से उदित होते हुए देख सकते हो फिर आप नर्मदा के किनारे खड़े होकर उसके ऊपर नृत्य कर रही अप्सराओं को देख सकते हो उनके दिव्य मन्त्रों से सृजित ध्वनियों को आपके कर्ण ग्रहण कर सकते हैं उनके शरीर से आ रही दूध चंदन इत्यादि की खुशबुओं को आपकी नासिका ग्रहण कर सकती है। आप वह सुन देख सकते हो वह स्पर्श कर सकते हो वह महसूस अनुभव कर सकते हो 

जिसे की सुषुप्त, मूढ़, निद्रत, मूर्छित गुरुओं के द्वारा दीक्षित साधक जन्म जन्मांतर तक नहीं कर सकता। तब दुनिया बदल जाती है तबकुछ कहने को कुछ सिखाने को कुछ प्रवचन देने को कुछ बड़बड़ने को नहीं रह जाता बस एक हल्की सी मुस्कुराहट एक अद्भुत सा आनंद एक अद्भुत सी मस्ती साधक आत्मसात कर लेता है और वह श्री युक्त हो जाता है इसे कहते हैं कुंडलिनी जागरण की अवस्था ऐसे त्रिपुरामय साधकों को सूर्य देव नमस्कार करते हैं, चंद्रमा भी नमस्कार करता है, ग्रह नक्षत्र योगिनीयाँ भी आदर प्रदान करती है। यही जन्म लेने का वास्तविक ध्येय है यही वास्तविक आध्यात्म है बाकी सब पाखंड।
           
             शिव शासनत: शिव शासनत:

When an innocent speechless animal is about to be killed, it witnesses Agony.

1. It becomes aware the death is approaching. Tears start Rolling down eyes.

2. It keeps a continuous gaze of deep shock.

3. The Heart beat increases out of fear.

4. The Animal trembles & passes urine. 

5. Then when the blade is kept on its neck, with legs held by the kasai, it experiences the fear of choking.

6. Slowly the blade is plunged into the neck and a surge of unbearable pain crushes the soul.

7. With Each breath , it suffocates more and the Jet of Blood oozes out.

8. While it is in senses, the pain is like operating without an Anesthesia.

9. Poor Animal witnesses itself Die slowly as the Heartbeat starts Sinking. 

10. The sinking feeling of death & the crushing pain of being Cut Alive cannot Please any one.

11. How can this please a God?

Stop Violence for So called Festival and Taste.

गुरु - सिखाने वाला, ज्ञान देने वाला, शिक्षक, मार्ग दर्शक ।।

मूलतः गुरु वह है जो ज्ञान दे। संस्कृत भाषा के इस शब्द का अर्थ शिक्षक और उस्ताद से लगाया जाता है। इस आधार पर व्यक्ति का पहला गुरु माता-पिता को माना जाता है। दूसरा गुरु शिक्षक होता है जो अक्षर ज्ञान करवाता है। उसके बाद कई प्रकार के गुरु जीवन में आते हैं जो बुनियादी शिक्षाएं देते हैं। कुछ ज्ञान या क्षेत्र के "संरक्षक, मार्गदर्शक, विशेषज्ञ, या गुरु" के लिए एक संस्कृत शब्द है। 

अखिल भारतीय परंपराओं में, गुरु एक शिक्षक से अधिक होता है। संस्कृत में, गुरु का शाब्दिक अर्थ है अंधकार को दूर करने वाला। परंपरागत रूप से, गुरु शिष्य (या संस्कृत में चेला) या छात्र के लिए एक श्रद्धेय व्यक्ति है, 

गुरु एक "परामर्शदाता के रूप में सेवा करता है जो एक छात्र के आध्यात्मिक विकास में मदद करता है"। हिन्दू तथा सिक्ख धर्म में गुरु का अर्थ धार्मिक नेताओं से भी लगाया जाता है।

 सिक्खों के दस गुरु थे। आध्यात्मिक ज्ञान कराने वाले गुरु का स्थान इन सबमें ऊपर माना गया है। 

अब सवाल उठता है असली अर्थात सच्चे गुरु की पहचान कैसे हो!पवित्र धर्मग्रंथों में सच्चे आध्यात्मिक गुरु की गुरु की पहचान हमारे सद्ग्रंथ में।
श्रीमद्भागवत गीता में सच्चे गुरु को तत्वदर्शी संत कहकर व्याख्या की गई है। गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में स्पष्ट हैः-

ऊर्धव मूलम् अधः शाखम् अश्वत्थम् प्राहुः अव्ययम्।
छन्दासि यस्य प्रणानि, यः तम् वेद सः वेदवित् ।।

अनुवाद: ऊपर को मूल (जड़) वाला, नीचे को तीनों गुण रुपी शाखा वाला उल्टा लटका हुआ संसार रुपी पीपल का वृक्ष जानो, इसे अविनाशी कहते हैं क्योंकि उत्पत्ति-प्रलय चक्र सदा चलता रहता है जिस कारण से इसे अविनाशी कहा है। इस संसार रुपी वृक्ष के पत्ते आदि छन्द हैं अर्थात् भाग (च्ंतजे) हैं। (य तम् वेद) जो इस संसार रुपी वृक्ष के सर्वभागों को तत्व से जानता है, (सः) वह (वेदवित्) वेद के तात्पर्य को जानने वाला है अर्थात् वह तत्वदर्शी सन्त है। जैसा कि गीता अध्याय 4 श्लोक 32 में कहा है कि परम अक्षर ब्रह्म स्वयं पृथ्वी पर प्रकट होकर अपने मुख कमल से तत्वज्ञान विस्तार से बोलते हैं।

वेदों में सच्चे गुरु की पहचान 

यजुर्वेद अध्याय 19 मंत्र 25, 26 में लिखा है कि पूर्ण गुरु वेदों के अधूरे वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों व एक चौथाई श्लोकों को पूरा करके विस्तार से बताएगा व तीन समय की पूजा बताएगा। तत्वदर्शी सन्त वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णन करता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाता है।

कबीर जी ने सूक्ष्मवेद में कबीर सागर के अध्याय ‘‘जीव धर्म बोध‘‘ में पृष्ठ 1960 पर दिया है” :-
गुरू के लक्षण चार बखाना, प्रथम वेद शास्त्र को ज्ञाना।।
दुजे हरि भक्ति मन कर्म बानि, तीजे समदृष्टि करि जानी।।
चौथे वेद विधि सब कर्मा, ये चार गुरू गुण जानों मर्मा।।

अर्थात् कबीर जी ने कहा है कि जो सच्चा गुरू होगा, उसके चार मुख्य लक्षण होते हैं :-

सब वेद तथा शास्त्रों को वह ठीक से जानता है।
दूसरे वह स्वयं भी भक्ति मन-कर्म-वचन से करता है अर्थात् उसकी कथनी
और करनी में कोई अन्तर नहीं होता।
तीसरा लक्षण यह है कि वह सर्व अनुयाईयों से समान व्यवहार करता है, भेदभाव नहीं रखता।

चौथा लक्षण यह है कि वह सर्व भक्ति कर्म वेदों के अनुसार करवाता है तथा अपने द्वारा करवाए भक्ति कर्मों को वेदों से प्रमाणित भी करता है।

     जो ईश्वर की भावनाएं होती हैं, जो ईश्वर की स्थापनाएं होती हैं, जो ईश्वर के सारे उद्देश्य होते हैं, ईश्वर जिन भावनाओं से जुड़ा होता है, जिन गुणों से जुड़ा होता है, जिन अच्छाइयों से जुड़ा होता है, वो सब संतों में होती हैं। संत के जीवन में समाज भी यही खोजता है कि संत में लोभ नहीं हो, कामना-हीनता हो।

साबर पद्धति ।।

साबर गुरु पूजन पद्धति
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जो लोग गुरु-शिष्य परंपरा से पहले से ही जुड़े हुये हैं, वो इस बात को अचप ्छी तरह से समझते हैं कि साबर पद्धति का विकास ही इसलिए हुआ था ताकि लोगों को संस्कृत जैसी कठिन भाषा का साधनात्मक क्षेत्र में प्रयोग न करना पड़े । गुरु गोरखनाथ के समय साबर पद्धति का विकास अपने चरम तक हुआ है । कारण भी था, क्योंकि साबर मंत्र बोलचाल की भाषा में ही लिखे गये हैं । भले ही इन शब्दों का तार्किक अर्थ न निकलता हो, लेकिन ये होते बहुत ही प्रभावशाली हैं ।

जैसा कि पहले ही विवेचन किया जा चुका है कि गुरु पूजन चाहे जिस भी विधि से किया जाए, सबका प्रभाव एक समान ही होता है । परंतु प्रत्येक साधक या साधिका की अपनी एक मनोभूमि होती है और उसी के अनुसार वह विधि का चयन करता है । इसी क्रम में इस पद्धति को भी सबके समक्ष रखा जा रहा है ताकि इस बात का अहसास किया जा सके कि सदगुरुदेव ने एक ही कार्य को कितने अलग – अलग तरीके से करना सिखाया है । तरीका आप चुन लीजिए, पर गुरु पूजन करिये अवश्य ।

ये साबर गुरु पूजन है और ये विशिष्ट इसलिए भी है क्योकि इस साधना में हमारे सदगुरुदेव, दादागुरुदेव तथा सिद्धाश्रम, नवनाथों और, योगियों का पूजन हो जाता है जो कि सोने पे सुहागा है ।_

[ मानसिक स्मरण ]

_सर्व प्रथम सुबह (या जिस भी समय पूजन करना हो) अपने परम पूज्य सदगुरुदेव का मानसिक स्मरण करें-

_।। आनंदमानंदकरं प्रसन्नं, ज्ञानस्वरूपं निजबोधरूपं योगीन्द्रमीड्यं भवरोगवैद्यं, श्री मद्गुरुं नित्यमहं भजामि ।।_

[ पंच महाभूत पूजन ]

फिर मानसिक रूप से ही पंच महाभूतों का पूजन करना चाहिए --

लं पृथिव्यात्मकं गन्धं समर्पयामि

हं आकाशात्मकं पुष्पं समर्पयामि

यं वाय्वात्मकं धूपं आद्यापयामि

रं वह्यात्मकं दीपं दर्शयामि

वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि

सं सर्वात्मकं ताम्बूलादि सर्वोपचारान् समर्पयामि

_अब अपने सामने सदगुरुदेव का चित्र रखकर उनके सामने हाथ जोड़ कर सम्पूर्ण गुरु मण्डल को नमस्कार करें यथा-

ॐ नव नाथ गुरुभ्यो नमः

ॐ निखिलेश्वरानंदाय परम गुरवे नमः

ॐ सच्चिदानंदाय पारमेष्ठि गुरुवे नमः

ॐ दिव्यौघ गुरुं नमामि

ॐ सिद्धौघ गुरुं नमामि

ॐ मानवौघ गुरुं नमामि

 ध्यान 

_अब दोनो हाथ जोड़ कर गुरु ध्यान करें_

।। गुरुर्वै सतां देहि मदैव ध्यानं, प्रज्ञाप्रदं सिद्धि मदं च ध्यानम,

देवत्व दर्शन मदे भव सिन्धुपारं,गुरुर्वै कृपात्वं गुरुर्वै कृपात्वं ।।

[ दिशा रक्षण ]

बायें हाथ मे थोड़ी सी पीली सरसों ले कर, उसे दाहिने हाथ से ढक कर निम्न मंत्र 3 बार पढ़ें, फिर चारों दिशाओं में थोड़ा-थोड़ा फेंक दें --

।। ॐ शत्रुनां ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ह्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं भंजय भंजय नाशय नाशय दिशां रक्ष रक्ष मां सिद्धिं देहि देहि फट् ।।

[ देह रक्षा ]

इस मंत्र को 7 बार पढ़कर जल अभिमंत्रित करें और उस जल से अपने चारों ओर एक गोल घेरा खींच दें –

[ रक्षा मंत्र ]

।। ॐ नमो आदेश गुरु को, वज्र वज्री वज्र किवाड़,

वज्री में बाँधा दसों द्वार को घाले, उलट वेद वाही को खात,

पहली चौकी गणपति की, दूजी चौकी हनुमंत जी की,

तीजी चौकी भैरों की, चौथी चौकी राय की,

रक्षा करने को श्री नृसिंह देव जी आवे,

शब्द साँचा पिण्ड काचा फूरो मंत्र ईश्वरी वाचा,

सत्य नाथ आदेश गुरु का ।।

[ पंचोपचार पूजन ]

अब सदगुरुदेव का विधिवत पंचोपचार पूजन करें-

आसनः कुछ पुष्प चढ़ाते हुए श्री गुरु चरणेभ्यो नमः आसनं समर्पयामि

स्नान-जल चढ़ाते हुए श्री गुरु चरणेभ्यो नमः स्नानं समर्पयामि

गंध-चंदन चढ़ाएं श्री गुरु चरणेभ्यो नमः गंधं समर्पयामि

अक्षत–श्री गुरु चरणेभ्यो नमः अक्षतान् समर्पयामि

पुष्प–श्री गुरु चरणेभ्यो नमः पुष्प मालां समर्पयामि नमः

[ पाद (चरण) पूजन ]

निम्न मंत्रों से सद्गुरुदेव के चरणों मे चावल चढ़ाएं 

ॐ भवाय नमः पादौ पूजयामि नमः

ॐ गुरुभ्यो नमः पादौ पूजयामि नमः

ॐ परम गुरुभ्यो नमः पादौ पूजयामि नमः

ॐ परात्पर गुरुभ्यो नमः पादौ पूजयामि नमः

ॐ पारमेष्ठि गुरुभ्यो नमः पादौ पूजयामि नमः

ॐ रुद्राय नमः पादौ पूजयामि नमः

ॐ मृडाय नमः पादौ पूजयामि नमः

ॐ भवनाशाय नमः पादौ पूजयामि नमः

ॐ सर्वज्ञान हराय नमः पादौ पूजयामि नमः

[ धूप ]

श्री गुरु चरणेभ्यो नमः धूपमाद्यापयामि

[ दीप ]

श्री गुरु चरणेभ्यो नमः दीपं दर्शयामि

[ नैवेद्य ]

_श्री गुरु चरणेभ्यो नमः नैवेद्यं निवेदयामि_

[ नीराजन (आरती)]

श्री गुरु चरणेभ्यो नमः नीराजनं समर्पयामि

 मूल मंत्र

अब निम्न मूल मंत्र की 21 बार जप करें । ये मंत्र अत्यधिक चैतन्य और उष्ण (गर्म) है अतः इसे 21-बार पढ़ना ही बहुत है, अधिक पढ़ने की कोशिश न करें ।

।। टारन भ्रम अघन की सेना, सतगुरु मुकुति पदारथ देना

ठाकत द्रुगदा निरमल करणम,डार सुधामुख आपदा हरणम

ढ़ावत द्वैव हन्हेरी मन की, णासत गुरु भ्रमता सब मन की

या कीरीया को सोऊ पिछाना, अद्वैत अखंड आपको माना

रम रहया सब मे पुरुष अलेखम, आद अपार अनाद अभेखम

डा डा मिति आतम दरसाना, प्रकट के ज्ञान जो तब माना

लवलीन भये आदम पद ऐसे, ज्यूं जल जले भेद कहूं कैसे

वासुदेव बिन और कोन, नानक ओम सोऽहं आतम सोऽहं ।।

पुष्पांजलि 

अब निम्न मंत्रों से पुष्पांजलि दें -

ॐ परम हंसाय विद्महे महातत्त्वाय धीमहि तन्नो हंसः प्रचोदयात।

ॐ महादेवाय विद्महे रुद्र मूर्तये धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात।

ॐ गुरुदेवाय विद्महे परमब्रम्हाय धीमहि तन्नो गुरुः प्रचोदयात।

अब नमस्कार करें और क्षमा प्रार्थना करें फिर गुरु-आरती कर जप समर्पण करें 

 जप समर्पण 

गुह्याति गुह्य गोप्ता त्वं गृहाण तवार्चनम । सिद्धिर्भवतु मे देव त्वत प्रसादान्महेश्वरः ।।

।। ॐ शान्तिः ।। शान्तिः ।। शान्तिः ।।


ॐ आदायायै विद्ममहे परमेश्वयै धीमहि तन्नो काली प्रचोदयात्।।

     तीन महाशुन्यों पर भगवती महाकाली विराजमान है तो वही साथ महाशुन्यों पर तारा विराजमान है तारा अर्थात प्रकाश। तीन और सात का अनुपात है सात प्रतिशत जगत प्रकाशमान है और तीन प्रतिशत जगत अप्रकाशवान है अदृश्य है। इस तीन प्रतिशत अदृश्य एवं अप्रकाशवान का ही नाम अद्वैत है परंतु यह अद्वैत इतना शक्तिशाली है कि इसमें 7% जगत कहां विलुप्त हो जाता है पता ही नहीं चलता है। एक रत्न होता है काला हकीक, बिल्कुल काला अब यह दुर्लभ हो गया है अब इसकी जगह नकली लीपे पुते हकीक मिलते हैं ठीक इसी प्रकार एक रत्न होता है काला तुरमुलीन जो कि दुर्लभ है इसी श्रृंखला में काला हीरा भी आता है अधिकांशत: काले हीरे मानव निर्मित या रंग किए हुए होते हैं परंतु काला हीरा अपने आप में परम तांत्रिक वस्तु है। जापानी लोग पाश्चात्य लोग हमेशा से महाकाली के परम उपासक रहे हैं वह समझ गए कि जो कुछ मिलेगा अद्वैत में से ही मिलेगा और जो कुछ हमें विलुप्त करना है उसके लिए भी हमें अद्वैत सिद्ध करना होगा अर्थात काली को सिद्ध करना होगा। 
               इन तीनों रत्नों में इतनी दुर्लभ कालिका सिद्धि है कि यह मस्तिष्क में बेवजह उठ रही विचार तरंगों विद्युतीय तरंगों अदृश्य तरंगों को खींच लेते हैं सोख लेते हैं अपने आप में विलीन कर लेते हैं। यह मस्तिष्क की समस्त विकृतियों को रोकने में सक्षम है इन के माध्यम से परम नकारात्मक शक्तियों का शोषण भी हो सकता है उन्हें किसी स्थान विशेष पर प्रक्षेपित भी किया जा सकता है। अधिकांशतः अंतरिक्ष वायुयानो मे लड़ाकू जहाजों में रडारो मे इन विशुद्ध काले रत्नों का उपयोग गोपनीय कारणों से किया जाता है यह तीनों रत्न प्रकृति द्वारा प्रदत महा प्रत्यंगिरा तत्वों से युक्त है। मनुष्य का मस्तिष्क बहुत खतरनाक है मनुष्य का मस्तिष्क परम उत्पादक है यह कुछ भी उत्पादित कर सकता है इसमें अनंत कारखाने लगे हुए हैं। कोई भी विलक्षण एवं शक्तिशाली मस्तिष्क चाहे तो विवाद उत्पन्न कर दें एवं विवाद ऐसा बवाल ऐसा घटना ऐसी परिस्थिति ऐसी की समस्त विश्व उससे हैरान परेशान होकर रह जाए। कोई शक्तिशाली मस्तिष्क ऐसा खतरनाक षड्यंत्र किताब विष समायोजन उत्पन्न कर सकता है जिससे कि संपूर्ण विश्व लहूलुहान हो सकता है परमाणु बम हाइड्रोजन बम दुनिया भर के अस्त्र-शस्त्र का उत्पादन मनुष्य ने ही किया है। लड़ाकू धर्म, लड़ाकू हिंसा, लड़ाकू पंथ, आध्यात्मिक विचार धाराएं नास्तिक चिंतन इत्यादि सब कुछ मनुष्य के मस्तिष्क रूपी कारखाने में ही उद्दीप्त होता है।
           महाकाली ऐसे काले पुरुषों ऐसी काली स्त्रियों ऐसे काले कर्म करने वाले मस्तिष्क को ढूंढती रहती है और उनका मुंड मर्दन करती है। काली करतूत काले कर्म कालिख पुती विचारधाराएं कालीमा युक्त चरित्र इत्यादि ही काले जादू है। काला जादू का क्या तात्पर्य है? काले जादू का तात्पर्य है ठगी, आंखों में धूल झोंकना, धोखा, पाखंड, हरण, काले कारनामे इत्यादि इत्यादि। इस पृथ्वी पर काले जादू के बड़े-बड़े अनुसंधानकर्ता है वह नकल करने में माहिर हैं नकल को असल सिद्ध कर दे रूप बदलकर भेष बदलकर छद्म रूप में खूब काला धन इकट्ठा करते हैं इन सब के पीछे खड़ग लेकर दौड़ती है महाकाली। रावण ने भी तो भेष बदलकर सीता जी का अपहरण कर लिया था राहु केतु ने भेष बदलकर अमृत पान कर लिया था। बहुत कुछ होता है जादू सिर्फ तकनीक है प्रबंधन है आंखों के सामने धोखा उत्पन्न करने का इसलिए काली दिगंबरा है वह दिगंबर कर देती है छल को। 
                        
   शिव शासनत: शिव शासनत: