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अक्षय कवच महापूजा ।।

       अध्यात्म का एकमात्र लक्ष्य ऊर्जा को अर्ध्वगामी बनाना एवं मनुष्य को संकीर्ण और खण्ड-खण्ड वाली सोच के प्रवृत्ति चक्र से मुक्ति दिलाना है। वेद दृष्टाओं ने कभी भी व्यक्ति पूजा को महत्व नहीं दिया है। किसी भी वेद में व्यक्ति विशेष को पूजने के लिये नहीं कहा गया है, बस कहा गया है तो उस व्यक्ति को नमन करने के लिए और उसके प्रति श्रद्धा रखने के लिये जो कि वास्तव में सद्गुरु हो । यहाँ पर भी सद्गुरु के सद्गुरु रूपी उस शिवत्व के प्रति साधक को सदैव ऋणी रहने के लिये कहा गया है जो कि उसका परिचय ईष्ट अर्थात ब्रह्माण्डीय दिव्य ऊर्जाओं से करवाता है। इसके साथ ही वेद एक मार्गीय नहीं है। एकांगी पूजन सदैव साधक को पथ भ्रष्ट एवं अंत में योनियों के चक्कर में ही भटकाता है। एकांगी प्रक्रिया नाम की कोई चीज नहीं होती है, यह तो मानव निर्मित धर्म और अधकचरी पूजा प्रवृत्ति का द्योतक है। 

             वेदों में आदि मातृ शक्ति को भी पूजा गया है तो वहीं ब्रह्मा की भी उपासना, शिव की भी उपासना है एवं इनके साथ जगत पालक विष्णु और महालक्ष्मी के साथ-साथ अन्य दिव्य देवताओं इत्यादि की भी पूजा अर्चना है। वेदोक्त पूजन में सभी देवता स्थापित किये जाते हैं, समस्त शक्तियों का आह्वान किया जाता है। सभी को समान आदर प्रदान किया जाता है। मानव निर्मित धर्म एवं अध्यात्म में बस यही मूल फर्क है। ऐसा कोई भी महामंत्र नहीं है जिसके मात्र जाप से जीवन के सभी आयाम पूर्ण होते हैं । आप स्त्री को माँ स्वरूप में भी देखते हैं तो वही बहन के स्वरूप में भी, उससे प्रेम करते हैं एवं पत्नी स्वरूप मे जीवन भर के सहयोगी बनते हैं वहीं पुत्री स्वरूप में स्वयं कन्यादान भी करते हैं। एक स्त्री पुत्री भी होती है, बहन भी होती है, पत्नी भी होती है, तो वहीं माता या परदादी, दादी इत्यादि भी हो सकती है। इसके अलावा और अनेकों या फिर असंख्य स्वरूप में ही व्यक्ति विशेष का जीवन सम्पन्न होता है। प्रत्येक सम्बन्ध में व्यवहार भी सम्बन्धों के अनुकूल ही होता है। 

               वेद जब महापूजा की बात करते हैं तब मंत्र दृष्टा और हमारे ऋषि मुनि आदि शक्ति भवानी अनेकों स्वरूप में दृष्टा बनकर उसके दिव्य दृष्टांत को निहारते हुए परमानंद में खो जाते हैं। शिव की पूजा शक्ति पूजा के बिना अधूरी है। वास्तव में जो शिवत्व का पिपासु होगा उस पर तो आदि शक्ति की कृपा स्वयं ही बरसेगी। वेदोक्त पूजन में कहीं भी खण्डता दिखाई नहीं पड़ती। यह ब्रह्माण्डीय या फिर परब्रह्मण्डीय पूजन है पूजन का अर्थ नमन एवं दुर्लभ प्रेममयी अमृत कोष की स्थापना करना है जिस प्रकार शिशु अबोध अवस्था में सर्वप्रथम 'माँ' शब्द पुकारता है और उसके मुख से निकले माँ महामंत्र के कारण ही के वक्षस्थल से अमृतरूपी दुग्ध की धारा निकल पड़ती है। ठीक इसी प्रकार साधक जब अपने समस्त अधकचरे ज्ञान, व्यर्थ दम्भ और अहम के साथ-साथ अन्य तथाकथित मानवीय बुद्धि और तर्क इत्यादि को त्यागकर पूर्ण श्रद्धा के साथ आदि शक्ति भवानी से पूजन, स्तुति इत्यादि के द्वारा सम्बन्ध स्थापित करता है तो फिर आदि शक्ति भवानी जो कि समस्त जग की निर्मात्री है, जिसकी कोख से असंख्य देवियाँ एवं ब्रह्मा, विष्णु और महेश का भी जन्म हुआ है भक्त को इतना वात्सल्य देती कि वह इस पृथ्वी लोक के समस्त कष्टों और दुखों से मुक्त जाता है।

               जिस प्रकार एक स्त्री चाहे वह किसी भी योनि की क्यों न हो अपने नवजात शिशु को समस्त ऊर्जा मात्र दुग्ध के द्वारा ही प्रदान कर देती है ठीक उसी प्रकार आदि शक्ति माँ भवानी से प्रकट हुई दिव्य एवं मनोरम प्रकाश रूपी अमृत धारा साधक को शिशु के समान मस्त एवं सभी चिंताओं से मुक्त बना देती है। जिस साधक पर माँ भगवती की कृपा होती है उस पर तो शिव का वश भी नहीं चलता तो फिर उनके गणों जैसे कि राक्षस, वेताल, भूतप्रेत, डंकनी शंकनी इत्यादियों की क्या मजाल है। इस पृथ्वी लोक में मां भगवती की सेवा साधक को समस्त सुखों एवं ऐश्वर्य, से लाद देती है। यश, प्रसिद्धि कीर्ति, सौन्दर्य, भोग इत्यादि समस्त मानवीय जरूरतें देवी का ही अंश है। 
क्रमशः
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

स्वयं भगवान शंकर भी पार्वती या माँ अन्नपूर्णा के द्वारा ही भोजन पाते हैं। उनकी समस्त आवश्यकताओं का ध्यान भी आदि शक्ति ही रखती है। एक बार शिव भक्त आपको भूखे पेट मिल जायेंगे, उनके आसपास दरिद्रता भी विद्यमान मिल सकती है परंतु माँ भवानी के शिष्य आपको कभी भी भूख से तड़पते हुए नहीं मिलेंगे। पिता के अभाव में भी बच्चों का लालन पालन माँ करती है परंतु माँ के अभाव में बच्चों का लालन पालन पिता के वश की बात नहीं है। प्रकृति की संरचना ही कुछ ऐसी है। अपने भक्तों पर जरा सी भी आँच आती देख आदि शक्ति सिंहनी के समान रौद्र रूप धारण कर लेती है या फिर काली स्वरूप में समस्त जगत का ही संहार होने लगता है तो फिर भगवान शिव को भी उनके चरणों में लेटकर उन्हें पुनः शांत करना पड़ता है। शिव भी शक्ति की आज्ञा में बंधे हुए हैं। माँ भवानी के मुख से निकला कोई भी शब्द चूक नहीं सकता। शिव को उसे पूरा ही करना पड़ता है। प्रेम, ममता, सुरक्षा एवं ऊर्जा का अटूट भण्डार है माँ आदि शक्ति की उपासना । स्वयं भगवान शंकर अपने गणों एवं भक्तों को जीवन यापन एवं घोर दरिद्रता मिटाने के लिए माँ की आराधना करने को प्रेरित करते हैं।
 
              वैदिक ऋषि मार्कण्डेय जी ने एक बार मनुष्यों 'की अत्यंत ही दुर्दशा देखकर अपने पिता ब्रह्मा से पूछा कि हे पितामह आप कोई ऐसा दुर्लभ शिव रहस्य या शिव सूत्र बताइये जिससे कि पृथ्वी पर निवास करने वाले मेरे शिष्य जीवन में समस्त ऐश्वर्यों और सुख की प्राप्ति के साथ-साथ अपनी सम्पूर्ण आयु आरोग्य एवं सुरक्षापूर्वक व्यतीत कर सकें। इस पर पिता स्वरूप ब्रह्मा जी बोले हे पुत्र तुमने तो स्वयं आदि शक्ति शिव से महामृत्युंजय मंत्र प्राप्त किया है तो फिर तुम्हे अन्य किसी सुरक्षा चक्र की क्या आवश्यकता। इस पर मार्कण्डेय जी ने कहा कि प्रभु सुरक्षा चक्र तो प्राप्त कर लिया परंतु अभाव एवं ऐश्वर्य की अनुपस्थिति में जीवन पशुतुल्य हो चला है। तब ब्रह्मा जी ने उन्हें अति गोपनीय देवी कवच की विधि एवं उसके महत्वों का विस्तारपूर्वक वर्णन बताया। 

              दुर्गा सप्तशती में इसे देवी कवच के नाम से वर्णित किया गया है। बाद में शक्ति इस महापूजा की सरल एवं समय अनुकूल पद्धति को दीक्षा एवं ज्ञान के रूप में प्राप्त किया। अध्यात्म के पथ पर सदगुरु के अनुसार जब तक शिष्य आरोग्य, धन, सुन्दर पत्नी, सुदर्शन स्वास्थ्य, सफलता, प्रसिद्धि कीर्ति यश इत्यादि को प्राप्त नहीं करता वह पूर्णत्व भी नहीं पा सकता है। वेद दृष्टाओं ने कभी भी दरिद्रता या सब कुछ त्यागने की बात नहीं की है कोई भी ऋषि श्री विहीन नहीं था। सभी वैदिक ऋषियों ने शिव के साथ-साथ शक्ति की भी समान आराधना की और उनके कृपाबल पर ही जीवन में सभी भौतिक सुखों के साथ साथ शिवत्व का भी पान किया। जिस प्रकार शिव मात्र मृग छाल लपेटे बिना किसी सिहांसन के हिमालय पर निमग्न भाव से विराजमान रहते हैं तो वहीं आदि शक्ति स्वरूप माँ अन्नपूर्णा उनके साथ निवास करती हुई शिव के अलावा उनके सभी गणों भक्तों और यहाँ तक कि पुत्रों को भी किसी भी वस्तु की कमी नहीं होने देती हैं।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

सद्गुरु स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज द्वारा वर्णित महापूजनविधि ।।

        सर्वप्रथम प्रातःकाल स्नान आदि से निवृत्त होकर आदि शक्ति माँ भवानी के चित्र या मूर्ति के सामने आसन लगाकर बैठें। इसके पश्चात् पूर्ण श्रद्धा के साथ चित्र के सामने शुद्ध घी का दीपक प्रज्जवलित करें। तत्पश्चात् दोनों हाथों को जोड़ते हुए ग्यारह बार ॐ नमश्चण्डिकायै ।। (ॐ चण्डिका देवी को नमस्कार है ) मंत्र का श्रद्धा के साथ जाप करें। अगर आप आसन के ऊपर पद्मासन की स्थिति में बैठ सकते हैं तो अति उत्तम होगा अन्यथा साधारण स्थिति भी चलेगी पर ध्यान रहे रीढ़ की हड्डी एकदम सीधी हो। सिले हुए वस्त्रों को पहनकर पूजा करना सदैव वर्जित है। धोति का इस्तेमाल सर्वश्रेष्ठ होता है। आंतरिक वस्त्र स्वच्छ होने चाहिए। इसके पश्चात् लगभग पाँच बार “दुं दुर्गाये नमः " मंत्र का मानसिक जाप करते हुए नाड़ी शोधन प्राणायाम सम्पन करें । तत्पश्चात् वर्णित नीचे सम्पूर्ण कवच का पाठ करें। 

        ‌पूर्व दिशा में ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति) मेरी रक्षा

 करें अग्निकोण में अग्निशक्ति, दक्षिण दिशा में

 वाराही तथा नैऋत्य कोण में मृग पर सवारी

 करने वाली देवी मेरी रक्षा करें। उत्तर दिशा में

 कौमारी और ईशान कोण में शूल धारिणी देवी

 रक्षा करें। ब्रह्माणि ! तुम ऊपर की ओर से मेरी

 रक्षा करो और वैष्णवीदेवी नीचे की ओर से मेरी

 रक्षा करें। इसी प्रकार शव को अपना वाहन

 बनाने वाली चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी

 रक्षा करे । जया आगे से और विजया पीछे की

 ओर से मेरी रक्षा करें। वामभाग में अजिता और

 दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा , करें ।

 उद्योतिनी शिखा की रक्षा करें। उमा मेरे मस्तक

 पर विराजमान होकर रक्षा करे। ललाट में

 मालाधारी रक्षा करे और यशस्विनीदेवी मेरी

 भौहों का संरक्षण करें। भौंहों के मध्य भाग में

 त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघणटा देवी रक्षा करें।

 दोनों नेत्रों के मध्यभाग में शखिनी और कानों में

 द्वारवासिनी रक्षा करें। कालिका देवी कपोलों

 की तथा भगवती शांकरी कानों के मूल भाग की

 रक्षा करें। नासिका में सुगन्धा और ऊपर के

 ओंठ में चर्चिका देवी रक्षा करें। नीचे के ओठ में

 अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती देवी रक्षा

 करें। कौमारी दाँतों की और चण्डिका

 कण्ठप्रदेश की रक्षा करें। चित्रघण्टा गले की

 घाँटी की और महामाया तालु में रहकर रक्षा

 करें। कामाक्षी ठोढ़ी की और सर्वमङ्गला मेरी

 वाणी की रक्षा करें। भद्रकाली ग्रीवा में और

 धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदण्ड) में रहकर रक्षा करें।

 कण्ठ के बाहरी भाग में नीलग्रीवा और कण्ठ

 की नली में नलकूबरी रक्षा करें। दोनों कंधों में

 खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की

 वज्रधारिणी रक्षा करें। दोनों हाथों में दण्डिनी

 और अंगुलियों में अम्बिका रक्षा करें। शूलेश्वरी

 नखों की रक्षा करें। कुलेश्वरी कुक्षि (पेट) में

 रहकर रक्षा करें। महादेवी दोनों स्तनों की और

 शोकविनाशिनी देवी मन की रक्षा करें ।ललिता

 देवी हृदय में और शूलधारिणी उदर में रहकर

 रक्षा करें। नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की

 गुह्येश्वरी रक्षा करें। पूजना और कामिका लिंग

 की और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करें।

 भगवती कटिभाग में और विन्धवासिनी घुटनों

 की रक्षा करें। सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली

 महाबला देवी दोनों पिण्डलियों मेरी रक्षा करे।

 नारसिंही दोनों घुट्टियों की और तैजसी देवी

 दोनों चरणों के पृष्ठ भाग की रक्षा करें। श्री देवी

 पैरों की अंगुलियों में और तलवासिनी पैरों के

 तलुओं में रहकर रक्षा करें। अपनी दाढ़ी के

 कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली

 देवी नखों की और अर्ध्वकेशिनी देवी केशों की

 रक्षा करें। रोमावलियों के छिद्रों में कौबेरी और

 त्वचा की वागीश्वरी देवी रक्षा करें। पार्वती देवी

 रक्त, मज्जा, वसा, मांस, हड्डी और मेदकी रक्षा

 करें।

आँतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वरी

 रक्षा करें। मूलाधार आदि कमल केशों में

पद्मावती देवी और कफ में चूडामणि देवी स्थित

 होकर रक्षा करें। नख के तेज की ज्वालामुखी

 रक्षा करें। जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं

 हो सकता, वह अभेद्या देवी शरीर की समस्त

 संधियों में रहकर रक्षा करें। ब्रह्माणि! आप मेरे

 वीर्य की रक्षा करें। छत्रेश्वरी छाया की तथा धर्म

 धारिणी देवी मेरे अहंकार, मन और बुद्धि की

 रक्षा करें। हाथ में वज्र धारण करने वाली

 वज्रहस्ता देवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान

 और समान वायु की रक्षा करें। कल्याण से

 शोभित होने वाली भगवती कल्याणशोभना मेरे

 प्राण की रक्षा करें। रस, रूप, गंध, शब्द और

 स्पर्श इन विषयों का अनुभव करते समय

 योगिनी देवी रक्षा करें तथा सत्वगुण, रजोगुण

 और तमोगुण की रक्षा सदा नारायणी देवी रक्षा

 करें। वाराही आयु की रक्षा करे। वैष्णवी धर्म की

 रक्षा करें तथा चक्रिणी (चक्र धारण करने वाली)

 देवी यश, कीर्ति लक्ष्मी, धन तथा विद्या की रक्षा

 करें। इन्द्राणि! आप मेरे गोत्र की रक्षा करें।

 चण्डिके मेरे पशुओं की रक्षा करो। महालक्ष्मी

 पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा

 करें। मेरे पथकी सुपथा तथा मार्ग की क्षेमकरी

 रक्षा करे राजा के दरबार में महालक्ष्मी रक्षा करें

 तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया देवी

 सम्पूर्ण भयों से मेरी रक्षा करें । हे देवि! जो

 स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अतएव रक्षा

 से रहित है, वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो

 क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो । 

           इस प्रकार पाठ सम्पन्न करने के पश्चात सम्पूर्ण वेदोक्त रीति से माँ की आरती सम्पन्न करें। पूजन के पश्चात ही अन्न को ग्रहण करना चाहिए। पूजन से पूर्व किसी भी प्रकार का भोजन वर्जित है। इस प्रकार 21 दिनों तक और विशेषकर नवरात्रि के पवित्र 9 दिनों में यह महापूजा आपके रक्त के कण-कण में आदि शक्ति माँ भवानी को स्थापित कर देगी और जो साधक अखण्ड रूप से प्रतिदिन इस कवच का पाठ करते हैं उनकी यात्राओं में दुर्घटनाऐं नहीं होती। जिस भी वस्तु का वे चिंतन करते हैं वह उन्हें निश्चित ही प्राप्त होती है। माँ के कवच से सुरक्षित मनुष्य • निर्भय होकर पृथ्वी लोक में विचरता है। देवी कला प्राप्त करने का यह एकमात्र साधन है। शतायु जीवन इसी कवच के द्वारा दे सम्भव हो पाता है। चेचक, कोढ़ इत्यादि व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। इस 
           कवच से कवचित साधक पर सांप, बिच्छू एवं अन्य कृत्रिम विषों का असर नहीं होता। कुटिल तांत्रिकों द्वारा मारण, मूठ, मोहन जैसे प्रयोग उल्टे हो जाते हैं। शिव गण जैसे कि डाकिनी शाकिनी, ब्रह्म राक्षस, वेताल, यक्ष, गंधर्व, भूत पिशाच, कुष्माण्ड भैरव आदि कवचित साधक को देखकर स्वयं ही भाग जाते हैं। साधक की जिह्ना पर देवी स्वयं विद्यमान हो जाती है। उसके मुख से निकला शब्द ब्रह्म वाक्य होता है। यह कवच सौन्दर्य सम्मोहन की वृद्धि करता है एवं ग्रह कलह, स्त्री कष्ट इत्यादि से साधक को सर्वथा मुक्त रखता है। इस दुर्लभ कवच को प्राप्त करने के लिए देवता भी मानव शरीर धारण करने के लिए लालायित हो जाते हैं। स्त्रियाँ रजस्वला होने पर 5 दिन कवच का जाप कदापि न करें एवं घर में मौजूद किसी भी रजस्वला स्त्री को पूजा गृह में कदापि प्रवेश नहीं करना चाहिए। कवच का पाठ करने से पहले देवी की मूर्ति को दुग्ध स्नान या जल स्नान अवश्य करानी चाहिए एवं यथा शक्ति माँ की मूर्ति का श्रृंगार, तिलक भी करना चाहिए। 
           माँ चण्डिका की मूर्ति के पैरों में तिलक अवश्य लगाना चाहिए एवं इसके साथ ही उनके द्वारा धारण किये गये सभी अस्त्र-शस्त्रों का भी तिलक करना चाहिए। लाल पुष्प देवी को अत्यंत प्रिय हैं एवं इसके साथ ही धूप, अगरबत्ती भी अवश्य प्रज्जवलित करनी चाहिए। माँ चण्डिका का पूजन राजसिक पूजन होता है एवं राजसिक पूजन में नैवैद्य, पुष्प, अक्षत, चाँवल, कुमकुम, चन्दन इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। देवी का पूजन करने वाले साधक को अत्यंत ही सात्विक प्रवृत्तियाँ धारण करनी चाहिए। मांस, मदिरा एवं वेश्यागमन सर्वथा वर्जित है। इस प्रकार के कृत्य देवी को अत्यंत कुपित कर देते हैं। प्रातः काल देवी का पाठ सर्वश्रेष्ठ होता है एवं साधक को समय विशेष का भी ध्यान रखना चाहिए अगर आप प्रतिदिन सात बजे कवच का पाठ करते हैं तो फिर निश्चित समय पर ही पाठ करें। पाठ करते वक्त शरीर के रोम-रोम में देवी का स्थापत्य महसूस करना चाहिए एवं मानसिक रूप से किसी भी प्रकार का चिंतन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार आप सम्पूर्ण देह को चैतन्य, जागृत एवं मंदिर के समान पवित्र बनाने में सफल होंगे जीवन में होने वाले प्रत्येक कर्म अर्ध्वगामी और माँ आदिशक्ति के अनंत नेत्रों के समक्ष सम्पन्न होगे। आपका सम्पूर्ण जीवन मातृत्व की मधुरता के कारण मधुर एवं स्वस्थ हो जायेगा 

                 ‌‌ || ॐ श्री चण्डिकायै नमः ||

श्रावण मास : शिवजी को अर्पित करते हैं 15 तरह के फूल, होते हैं 10 फायदे ।।

श्रावण मास में शिवजी और माता पार्तती की पूजा का महत्व रहता है। पूजा सामग्री कई प्रकार की रहती है परंतु शिवजी को कुछ विशेष प्रकार के फूल ही चढ़ाए जाते हैं। आओ जानते हैं कि भगवान शिव को कौन कौनसे फूल और पूजा सामग्री अर्पित की जाती है।
 
1. धतूरे के फूल 2. हरसिंगार के फूल3. नागकेसर के सफेद पुष्प 4. सूखे कमल गट्टे
5. कनेर के फूल 6. कुसुम के फूल
7. आंकड़े के फूल 8. कुश के फूल
9. गेंदे के फूल 10. गुलाब के फूल
11. शंख पुष्पी का फूल 12. बेला के फूल
13. चमेली का फूल 14. शेफालिका का फूल 15. आगस्त्य
 
ये फूल अर्पित करने के लाभ

1. ऐसी मान्यता है कि शिवजी को चमेली का फूल चढ़ाने से वाहन सुख मिलता है। 
2. कमल का फूल, बिल्वपत्र और शंख पुष्पी चढ़ाने से धनलाभ होता है। 
3. बेला का फूल चढ़ाने से विवाह की समस्या दूर होती है। 
4. संतान प्राप्त के लिए धतूरा अर्पित करना होता।
5. तनाव दूर करने के लिए शेफालिका का फूल अर्पित करना चाहिए। 
6. आगस्त्य का फूल चढ़ाने से मान सम्मान की प्राप्ति होती है। 
7. कनेर का फूल चढ़ाने से वस्त्र आभूषणों की प्राप्ति होती है। 
8. दूर्वा चढ़ाने लंबी आयु प्राप्त होती है। 
10. सफेद कमल का फूल चढ़ाने से सुख शांति की प्राप्ति होती है।
 
शिव पूजन में 11 चढ़ने वाली प्रमुख सामग्री 

1.जल, 2.दूध, 3.दही, 4.शहद, 5.घी, 6. शक्कर, 7.ईत्र, 8.चंदन, 9.केसर, 10.भांग और 11. लाल फूल।

उपरोक्त 11 चीजों के अर्पण करने के फायदे

1. जल अर्पित करने से मन शांत होता है। 
2. दूध अर्पित करने से सेहत में लाभ होता है।
3. दही अर्पित करने से स्वभाव में सुधार होता है। 
4. शहद अर्पित करने से वाणी में मिठास आती है।
5. घी अर्पित करने से शक्ति बढ़ती है।
6. शक्कर अर्पित करने से सुख और समृद्धि बढ़ती है। 
7. ईत्र अर्पित करने से विचार और भाव पवित्र होते हैं।
8. चंद ‍अर्पित करने से मान सम्मान प्राप्त होता है।
9. केसर अर्पित करने से सौम्यता प्राप्त होती है। 
10. भांग अर्पित करने से सभी तरह की बुराइया और रोग समाप्त होते हैं।

पुराण श्रृंखला -2

पुराणों का स्पष्ट उल्लेख अथर्ववेद के मंत्रों में है।

पुराण प्राचीनता में वेद के समकक्ष हैं। अज्ञानता और अंग्रेजों के प्रभाव के कारण कुछ वर्ग इसे 2000 साल पुराना बता देते हैं, जबकि सच यह है कि शुंग और गुप्त काल में अन्य ग्रंथों की तरह केवल पुराणों का उद्धार किया गया, न कि उस काल में उसका उदय हुआ। वेदों की तरह पुराणों को भी वेदव्यास जी एवं उनके शिष्यों ने लिखा और प्रचारित किया। पुराणों के उदय का स्पष्ट उल्लेख अथर्ववेद में हुआ है।

अथर्वेद का यह मंत्र देखिए:-

ऋच: सामानि छन्दांसि पुराणं यजुषा सह।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रिता:।।

मंत्र का अर्थ है:-
ऋक्, साम, छंद (अथर्व) और यजुर्वेद के साथ ही पुराण भी उस उच्छिष्ट से उत्पन्न हुए हैं।
इतना ही नहीं, दिव्यलोक में निवास करने वाले देव भी उच्छिष्ट से ही उत्पन्न हुए।


उच्छिष्ट का अर्थ कुछ विद्वान ‘यज्ञ का अवशेष’ मानते हैं तो कुछ जगत् पर शासन करने वाले यज्ञमय परमात्मा से उत्पन्न मानते हैं। सायण की दृष्टि में इस व्युत्पत्ति से सब पदार्थों का अवसान होने पर शेष रहने वाले परमात्मा की द्योतना उच्छिष्ट शब्द के द्वारा होती है।

आचार्य बलदेव उपाध्याय लिखते हैं, अथर्ववेद में हमें ‘पुराण’ शब्द इतिहास, गाथा तथा नाराशंसी शब्दों के साथ प्रयुक्त मिलता है, जहां एक विशिष्ट विद्या के रूप में ही उपलब्ध होता है। आचार्य लिखते हैं, पुराण का उदय ‘उच्छिष्ट’ संज्ञक ब्रह्म से बतलाया गया है। द्युलोक में निवास करने वाले देव भी उसी उच्छिष्ट से पैदा हुए हैं। स्पष्ट है कि जिस विधि से वेदों की रचना हुई, पुराणों और उसके देवों की रचना ही उसी विधि से हुई, इसलिए पुराण को ‘पंचम वेद’ भी कहा जाता है।

समस्या तब उत्पन्न हुई जब बौद्धों ने सनातन का इतिहास धूमिल कर स्वयं को सनातन से भी प्राचीन साबित करने के लिए पुराणों में क्षेपक जोड़ कर इसे दूषित और अश्लील बनाया और फिर अंग्रेजों ने भी इसी नीति का सहारा लेकर पुराणों को मिथक ठहराने और उसे 2000 साल पुराना सहित्य साबित करने का प्रयास किया ताकि सूर्यवंशियों, चंद्रवंशियों के संपूर्ण इतिहास के साथ भारत सहित पूरे विश्व का जो इतिहास-भूगोल इसमें वर्णित है, उसे मिथक साबित कर मिटाया जा सके। बिना पुराणों में वर्णित इतिहास और भूगोल को मिटाए ग्रीक और यूनान की सभ्यता की प्राचीनता सिद्ध नहीं की जा सकती थी।

उदाहरणार्थ पुराणों का पाताल लोक आज का अमेरिकी महाद्वीप है। पाताल लोक में जिस माया सभ्यता का उल्लेख है वह आज भी मैक्सिको में मौजूद है। आप सोचिए, अमेरिका के मूल निवासियों को ‘रेड इंडियन’ क्यों कहा जात था? अमेरिका की मूल जाति में लगा यह ‘इंडस’ क्या है, और ईसाइयों ने इस ‘अमेरिकन इंडस’ को समाप्त क्यों कर दिया?

इधर भारत में समस्या तब उत्पन्न हुई जब कुछ भारतीय विद्वानों ने तर्क से अब्राहमिक रिलीजन का खंडन करने के लिए सनातन को भी अब्रामिक तर्ज पर केवल एक पुस्तक अर्थात वेद आधारित स्थापित करने का प्रयास, मूर्तिपूजा व पुराणों के प्रति घृणा का उद्गार किया। यह अब्राहमिकों को उसी के तर्क से काटने का अनुपम प्रयास तो था, परंतु इससे सनातन की भक्ति धारा को भी जबरदस्त चोट पहुंची। तर्क की शुष्कता में भक्ति की सरसता को गौण बनाने का प्रयास किया गया।

जिस भक्ति आंदोलन के कारण पूर्व मध्य और मध्य युग में आक्रांताओं से भारत बचा, उसे अपनों ने ही शुष्क तर्क से अंग्रेजी काल में जाने-अनजाने चोट पहुंचाने का प्रयास किया, हालांकि इसमें न अब्राहमिकों को सफलता मिली, न शुष्क तर्क को प्रधान बनाने वाले भारतीयों को।

ज्ञात हो कि आदि शंकराचार्य ने पूर्व में ही वेदांत अर्थात वेदों का अंत की घोषणा कर उसी वेद के यजुर्वेद से आखिरी (40वें अध्याय) अध्याय ईशोपनिषद सहित 10 उपनिषदों, गीता और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिख कर भविष्य के आसन्न खतरों के लिए वेद के कर्मकांड की जगह ज्ञानकांड पर चलने की राह सनातनियों के लिए प्रशस्त किया था। यह सनातन की प्रगति और प्रवाह का द्योतक है। वेद के कर्मकांड ब्राह्मण ग्रंथों के रूप में संरक्षित किए गये, लेकिन भविष्य का मार्ग वेदांत में देखा गया।

आदि शंकर ने भी पुराणों का खंडन नहीं किया, हां आम जन की आस्था को चोट न पहुंचे इसके लिए अद्वैतवादी होते हुए भी उन्होंने उसी पुराण में वर्णित देवों से ‘पंचदेव’ की पूजा का विधान सुनिश्चित कर सनातनियों के सांप्रदायिक झगड़े को हमेशा के लिए समाप्त कराने का प्रयास किया ताकि सनातन समाज बिखरे नहीं, एक बना रहे। बुद्ध को भी भगवान विष्णु के अवतार में समाहित कर केवल 32 साल की उम्र में उन्होंने सनातन की एकता स्थापित कर दी।

सोचिए, एक वेदांती अद्वैतवादी महान प्रकांड विद्वान आदि शंकराचार्य के लिए मूर्ति पूजा और अवतारवाद की प्रासंगिकता तो नहीं थी, फिर भी उन्होंने तर्क की जगह आम जन की आस्था को भी अपने दिग्विजय अभियान में स्थान दिया, क्यों? वह भी तो मूर्ति और पुराण को गाली दे सकते थे, जो नहीं दिया, क्यों? महान मूर्ति पूजक रामकृष्ण परमहंस और उनके वेदांती शिष्य विवेकानंद में पुन: पुराण (साकार) और वेदांत (निराकार) अंग्रेजी राज में प्रकट हुआ।

सनातन को जोड़ने की राह आदि शंकराचार्य के रास्ते चल कर ही हो सकती है, न कि अब्रहमिक तरीके से मूर्ति और पुराण को गाली देकर। सब अपनी अपनी आस्था और तर्क को मानें, न कि उसे एक-दूसरे पर थोपें! सनातन में साकार भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि निराकार। सनातन साकार से निराकार की यात्रा है। किसी को सीधे निराकार सध जाए तो यह ईश्वर की कृपा और उसके पूर्वजन्मों क फल है।

वेद को ही सबको मानना चाहिए, न कि अन्य धर्मग्रंथों को, ऐसा मानने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद में लिखा है:- एकं सत्य विप्र बहुधा वदंति। यदि वेद के ऋषि केवल एक मार्ग के आग्रही और अब्राहमिक रिलीजन की तरह अपना मतवाद दूसरों पर थोपने वाले होते तो क्या ऐसे क्रांतिकारी विचार को जन्म दे सकते थे? इस एक मंत्र में साकार और निराकार दोनों विधि से यात्रा का सार छिपा है।

 धन्यवाद।


पुराण श्रृंखला -1

आज से पुराणों को लेकर छोटे-छोटे पोस्ट की एक श्रृंखला आरंभ कर रहा हूं। 

पुराणों में देव कथाओं के साथ हमारा इतिहास भी वर्णित है, जिसके कारण इसे नष्ट कर दिया गया ताकि हिंदुओं और हिंदुस्तान पर शासन करना आसान हो जाए। बिना इतिहास के समाज की क्या दुर्गति होती है, यह आज भी हम देख रहे हैं। 

भारतीय इतिहास लेखन की शैली पश्चिमी अखबारी इतिहास से भिन्न है। पुराण, रामायण और महाभारत हमारे इतिहास हैं।

पुराणों की रचना पराशर मुनी, उनके पुत्र वेद व्यास और उनके शिष्यों पैल, जैमिन, वैशम्पायन, सुमन्तमुनि और रोम हर्षण ने मिलकर की थी। उसके बाद शिष्यों की परंपरा ने शुद्ध वेद और पुराण को बौद्धकाल तक जिंदा रखा।

पुराणों को पहला सबसे बड़ा आक्रमण बौद्ध काल में झेलना पड़ा और उसमें अतिशयोक्ति और क्षेपक की भरमार कर उसे अश्लील रूप दे दिया गया। बौद्ध काल में तो 'दशरथ जातक' लिख कर रामायण को भी दूषित कर उस पर अश्लीलता आरोपित कर दिया गया। 

'दशरथ जातक' में राम और सीता को दशरथ की संतान अर्थात भाई-बहन बताते हुए, उनका विवाह करा हिंदुओं के पूरे गौरव, संस्कार और संस्कृति को ही नष्ट करने का प्रयास किया गया।

बौद्ध के बाद शुंग और गुप्त काल में सनातन धर्मग्रंथों का पुनःलेखन करा कर इसका उद्धार किया गया। मनुस्मृति इसी काल में संक्षिप्त रूप से पुनः लिखा गया। इसीलिए इस काल में वर्णाश्रम की कठोरता भी हमारे शास्त्रों का हिस्सा बन गयी। 

बौद्धों द्वारा समाज को नष्ट करने के कारण इस काल में वर्णाश्रम व्यवस्था को कठोर किया गया, परंतु बौद्धों पर कोई भौतिक आघात नहीं किया गया। उल्टा गुप्त काल ने बौद्धों को नालंदा जैसा विश्वविद्यालय बनाकर दिया। हर्षवर्द्धन के राज्यकाल तक पुनः पुराणों का पाठ आरंभ हो चुका था।

मध्यकाल में तुर्क, अफगान, मंगोल, मुगलों आदि ने हिन्दुओं के ग्रंथों सहित मंदिरों और स्मारकों को नष्ट करने का एक खतरनाक दौर आरंभ किया। 

बौद्ध जो भगवान बुद्ध के ज्ञान और ध्यान से निकल कर पुस्तक आधारित धर्म बन गये थे, नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों और ग्रंथों के नष्ट होने पर भारत से निकल कर दूसरे देशों में फैल गये, परंतु हिंदुओं के ब्राह्मण वर्ग ने श्रुति-स्मृति परंपरा के जरिए अपने धर्म ग्रंथों को बचाने का भरसक प्रयास किया, जिस कारण उन्हें तुर्कों से लेकर अंग्रेजी राज तक भयंकर विनाशलीला का सामना करना पड़ा। उनको मारकर जनेऊ तौलवाने का उदाहरण तो अकबर और औरंगजेब काल तक मिल जाता है।

मुगल के बाद अंग्रेजी राज आया और उसने आर्य-द्रविड़ संघर्ष, ब्राह्मणवाद, जातीय विभाजन, मूल नागरिक जैसी अवधारणाओं की रचना कर न केवल हमारे पुराण, इतिहास, धर्मग्रंथों को नष्ट किया, बल्कि भारत का ही एक ऐसा वर्ग तैयार कर दिया जो भारतीय इतिहास को नष्ट-भ्रष्ट कर भारत के इतिहास को मौर्य काल से आरंभ कर सिंधुघाटी के मुहाने पर खड़ा करने में जुट गया। 

कुरीतियों के नाम पर जातिवाद के जरिए हिंदू समाज को बांटने का नंगा नाच जो अंग्रेजों ने आरंभ किया, अपनों ने भी सहित्य रच-रच कर इसे पत्थर की लकीर बना दिया। विश्वामित्र, वेदव्यास, विदुर, सत्यकाम जाबाल आदि के कर्मगत ब्राह्मण का उदाहरण स्वयं भारतीय भी भूल गये।

जिस आदि मनु ने विश्व की सबसे प्राचीन राजधानी अयोध्या की रचना की, वह गाली बना दिया गया। सरयू-गंगा-यमुना-सरस्वती नदियों के संगम पर जिस सनातन समाज, साहित्य और इतिहास की रचना हुई, उसे सिंधु तट पर स्थापित कर दिया गया ताकि पश्चिम से हुए आक्रमणकारियों के आक्रमण को न्यायसंगत ठहराया जा सके। 

गंगी-जमुनी तहजीब जैसे जुमलों की रचना कर यमुना भी हमसे छीनकर मात्र 1400 साल पुराने मजहब को हस्तांतरित कर दिया गया। इसका तात्पर्य इतना ही था कि यमुना किनारे जिस संस्कृति और साहित्य की रचना की गई, स्वयं हिंदू ही उसे अविश्वास की नजरों से देखे और आज इसका परिणाम दिख रहा है। 

आर्य से अंग्रेज तक बाहर से आए की अवधारणा के जरिए यह साबित करने का प्रयास किया गया कि भारतीयों की अपनी न कभी कोई संस्कृति रही, न कभी कोई अपनी सभ्यता रही और न अपना कभी कोई इतिहास ही रहा। यह मिली-जुली संस्कृति वाला लावारिस देश है, इसलिए इस पर सभी को शासन करने और सभी को इसको नोंचने-खसोटने का अधिकार है। 

यह अवधारणा इतनी जोरदार थी कि मूर्धन्य भारतीय विद्वान भी इसके झांसे में आते चले गये। अपने पुराणों में वर्णित राजवंशों की जगह अंग्रेजों द्वारा थोपे सिकंदर के समकक्ष वाले मौर्य साम्राज्य से ही भारत का उद्भव उनके द्वारा रचित साहित्य में भी स्थापित किया जाने लगा। 

रामायण, महाभारत और पुराणों को मिथक (माईथोलॉजी) कहने और स्थापित करने का जो चलन आरंभ हुआ, वह आज तक देवदत्त पटनायक जैसे Anti-Hindu साहित्य रच-रच कर स्थापित करने में जुटे हुए हैं।

कल बताऊंगा कि अथर्ववेद में कहां और किस श्लोक में पुराणों की चर्चा है। अर्थात अथर्वेद के समय पुराणों का लेखन आरंभ हो चुका था।