Follow us for Latest Update

रविवार को पीपल की पूजाः क्यों नहीं करनी चाहिए और दरिद्रता किन किन कारणों से घर में आती है?

       जब देवताओं के पास से लक्ष्मी विलुप्त हो गईं तो उन्हें पुनः प्राप्त करने के लिए समुद्र मंथन करना पड़ा. पर मंथन में लक्ष्मीजी से पहले दारिद्रा निकलीं थी. उन्हें माता लक्ष्मी की बड़ी बहन माना गया और ज्येष्ठा कहलाईं.

दोनों ने रहने के लिए कोई आवास मांगा तो भगवान विष्णु ने ही उन्हें पीपल के पेड़ में निवास के लिए कहा क्योंकि पीपल के पेड़ को भगवान विष्णु का आशीर्वाद प्राप्त है.

लक्ष्मीजी ने श्रीविष्णु के रूप में अपना चुन लिया. अब मुश्किल यह आई कि बड़ी बहन के रहते छोटी की शादी कैसे हो? दारिद्रा भी कम सुंदर न थीं, पर उनके लिए वर नहीं मिल रहा था.

लक्ष्मीजी को दारिद्रा के वर की भी चिंता हुई. एक दिन विष्णुजी ने दारिद्रा से पूछा कि वह अपनी पसंद बताएं तो उनके लिए वर ढूंढा जाए. दारिद्रा ने अपनी पसंद- नापसंद बतानी शुरू की.

दरिद्रा बोलीं- मुझे किसी तरह का धार्मिक कार्य पसंद नहीं. वेद मंत्र शोर लगते हैं और कथाएं व्यर्थ. मुझे ऐसा घर चाहिए जहां यह सब न होता हो. मेरा पति धार्मिक होते हुये भी यह सब कार्य न करे. इनसे मुझे दूर रखे.

दारिद्रा की शादी दु:सह नामक एक ब्राह्मण से कर दी गयी. दु:सह थे तो मुनि पर दारिद्री से शादी के बाद इनका ध्यान धर्म से उचट गया. शादी के बाद दोनो पतिपत्नी यहां वहां भटकने लगे.

उस समय हर घर में तीनो प्रहर पूजा-पाठ होता था. कथा, प्रवचन, हवन, यज्ञ और भजन कीर्तन तो सदा ही चलते रहते थे. दारिद्रा हर जगह से कानों पर हाथ रखकर भागती. उसे यह सब सहन न होता. भागते भागते वह बुरी तरह थक गयी.

दारिद्रा के साथ दु:सह भी भाग रहे थे. दोनों थक गए. रास्ते में मार्कंडेय मुनि दिखे तो पूछा कि भगवन हम दोनों कहां जायें कहां रहें? आप ज्ञानी हैं कृपया हमें उचित राह दिखायें.

मार्कंडेयजी बोले- जिस घर में गाएं हों, भगवन की मूर्ति हो, लोग रोज पूजा करते हों, भस्म लगाए शिवभक्त या नारायण का कीर्तन करने वाले रहते हों, ऐसे घरों में भूलकर भी मत जाना.

दु:सह ने पूछा- कहां नहीं जाना है यह तो समझ गए, किस घर में वास करें जहां हमारा ही एकछत्र प्रभाव चले. मार्कंडेयजी बोले- जिस घर में पूजा न हो, पति-पत्नी रोज लड़ें, बच्चों से पहले खुद खाएं, भगवान की निंदा करें, मैले रहें. उनमें आराम से वास करो.

जिस घर में लोग शाम को सोते हों, अवैध संबंध रखते हों, जुआ खेलते हों या जिस घर में नीम, पलाश, खैर, ताड़, कदंब, इमली के या कांटेदार, दूध वाले पेड़, अपराजित, दोपहरिया, तगर के फूल लगे हों, इन सब में जा कर रह सकते हो. वहां निर्विघ्न वास करो.

मार्कण्डेयजी द्वारा निवास स्थान का पता मिलने के बाद दु:सह बोले- दारिद्री, पीपल के पेड़ के नीचे बैठो मैं उचित घर ढूँढ कर आता हूं. मुझे लगता है कि धरती पर अभी धर्म का प्रभाव है इसलिए शायद ही ऐसा कोई घर मिले. मैं रसातल में देखकर आता हूं.

दु:सह को गए बहुत देर हो गयी तो दरिद्री वही पीपल तले बैठकर रोने लगीं. तभी अचानक विष्णुजी और लक्ष्मीजी पीपल के नीचे आ गए और रोने का कारण पूछा. दारिद्री बोली- दु:सह मुझे छोड़ रसातल को गये मैं अनाथ कहां रहूं?

पति न आये तो क्या होगा, आ भी गये तो हमारी आजीविका का क्या होगा, हमें घर मिल भी जाये तो पेट कैसे पालेंगे. यह सुनकर भगवान विष्णु ने कहा- दरिद्रे, यह तो कोई समस्या ही नहीं है. मैं इसका हल बताता हूं.

पृथ्वी पर लोगों में खूब भक्तिभाव है. पर उनमें भेद भी है. जो लोग शिवजी और मेरी निंदा करते हैं उनका सारा धन तुम्हारा हुआ. लोग मेरी पूजा करते हैं पर शिवजी की निंदा उन अभागे भक्तों के सारे धन पर तुम्हारा ही अधिकार है.

इस तरह तुम्हारे पास पर्याप्त धन बिना होगा. फिलहाल हर रविवार को इस पीपल को ही अपना वास बनाओ. रविवार को जो लोग पीपल की पूजा करेंगे उन्हें लक्ष्मी के स्थान पर दरिद्रा की कृपा प्राप्त होगी.

उस दिन से दारिद्री मार्कंडेय के बताए स्थानों में वास करती हैं. जिन घरों में कलह-कलेश, मैल, अधर्म का वास होता है उनका सर्वसमर्थ होने पर अचानक एक दिन भाग्य फूट जाता है और दरिद्रता अपना स्थान जमा लेती है.

हर रविवार दारिद्री पीपल में ही निवास करती हैं. इस दिन जो व्यक्ति पीपल की पूजा करता है, उसे दरिद्रता प्राप्त होती है. पीपल को काटने के लिए रविवार का दिन ही नियत है.

अग्नि में डाला हुआ पदार्थ नष्ट नहीं होता, फैल जाता है ।।

यह बात बुद्धिगम्य कर लेनी चाहिए कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ नष्ट नहीं होता ।

अग्नि का काम स्थूल पदार्थ को सूक्ष्म रूप में परिवर्तित कर देना है ।

यज्ञ करते हुए अग्नि में घी डालते हैं, वह नष्ट नहीं होता, स्थूल घी, घी के सूक्ष्म परमाणुओं में बदल जाता है , 
जो घी एक कटोरी में था, 
परमाणुओं के रूप में वह सारे वातावरण में फैल जाता है ।
सामग्री गुग्गल, जायफल, जावित्री, मुनक्का आदि जो कुछ डाला गया था,
वह परमाणुओं में टूटकर सारे वायुमण्डल में व्याप्त हो जाती है ।
किसी बात का पता चलता है, किसी का नहीं । 
उदाहरण के लिए स्थूल (साबुत) मिर्च को आप जेब में डाल कर घुमते रहें, 
किसी को कुछ पता नहीं चलेगा, 
उसी को हमाम दस्ते में कूटें तो उसकी धमक से छीकें आने लगेंगी, 
उसी को आग में डाल दें तो सारे घर के लोग दूर-दूर बैठे हुए भी परेशान हो जाएँगे ।
क्यों परेशान हो जाएँगे ?
क्योंकि आग का काम स्थूल वस्तु को तोड कर सूक्ष्म कर देना है और वस्तु सूक्ष्म हो कर परिमित स्थान में कैद न रह कर दूर-दूर फैल जाती है और असर करती है। 

मनु महाराज ने ठीक कहा है आग में डालने से हवि सूक्ष्म हो कर सूर्य तक फैल जाती है

"अग्नौ हुतं हविः सम्यक् आदित्यम् उपतिष्ठति ।"

अमोघ शिव कवच ।।

       मै आज सर्व साधारण व समस्त आस्तिक भक्तो के लाभार्थ अति प्राचीन सिद्धीप्रद अमोघ शिव कवच प्रयोग दे रहा हूँ ।इसके शुद्ध सत्य अनुष्ठान से भयंकर से भयंकर विपत्ति से छुटकारा मिल जाता है और भगवान आशुतोष की कृपा हो जाती है।

अथ विनियोग:
 
अस्य श्री शिव कवच स्त्रोत्र मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषि:, अनुष्टुप छंद:, श्री सदाशिव रुद्रो देवता, ह्रीं शक्ति:, रं कीलकम, श्रीं ह्रीं क्लीं बीजं, श्री सदाशिव प्रीत्यर्थे शिवकवच स्त्रोत्र जपे विनियोग:।

अथ न्यास: 

(पहले सभी मंत्रो को बोलकर क्रम से करन्यास करे। तदुपरांत इन्ही मंत्रो से अंगन्यास करे।) 

करन्यास
 
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ 
ह्रां सर्वशक्तिधाम्ने इशानात्मने अन्गुष्ठाभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ 
नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषातमने तर्जनीभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ 
मं रूं अनादिशक्तिधाम्ने अधोरात्मने मध्यमाभ्याम नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने अनामिकाभ्याम नम:। 
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कनिष्ठिकाभ्याम नम:। 
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
यं र: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने करतल करपृष्ठाभ्याम नम:।

अंगन्यास 

ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ 
ह्रां सर्वशक्तिधाम्ने इशानात्मने हृदयाय नम:।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ 
नं रिं नित्यतृप्तिधाम्ने तत्पुरुषातमने शिरसे स्वाहा।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ 
मं रूं अनादिशक्तिधाम्ने अधोरात्मने शिखायै वषट।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
शिं रैं स्वतंत्रशक्तिधाम्ने वामदेवात्मने नेत्रत्रयाय वौषट।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
वां रौं अलुप्तशक्तिधाम्ने सद्योजातात्मने कवचाय हुम।
ॐ नमो भगवते ज्वलज्वालामालिने ॐ
यं र: अनादिशक्तिधाम्ने सर्वात्मने अस्त्राय फट।

अथ दिग्बन्धन: 

।।ॐ भूर्भुव: स्व:।।

बोलकर दसों दिशाओं में चुटकी बजाएं।

ध्यानम

कर्पुरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम।
सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानीसहितं नमामि।।

श्री शिव कवचम 

ॐ नमो भगवते सदाशिवाय, सकलतत्वात्मकाय, सर्वमंत्रस्वरूपाय, सर्वमंत्राधिष्ठिताय, सर्वतंत्रस्वरूपाय, सर्वतत्वविदूराय, ब्रह्मरुद्रावतारिणे, नीलकंठाय, पार्वतीमनोहरप्रियाय, सोमसुर्याग्नीलोचनाय, भस्मोधूलितविग्रहाय, महामणिमुकुटधारणाय, माणिक्यभूषणाय, सृष्टिस्थितिप्रलयकालरौद्रावताराय, दक्षाध्वरध्वन्सकाय, महाकालभेदनाय, मुलाधारैकनिलयाय, तत्वातीताय, गंगाधराय, सर्वदेवाधिदेवाय, षडाश्रयाय, वेदांतसाराय, त्रिवर्गसाधनाया नेक्कोटीब्रहमांडनायकायानन्त्वासुकीतक्षककर्कोटकशंखकुलिकपद्ममहापद्मेत्यष्टनागकुलभूषणाय, प्रणवरूपाय, चिदाकाशायाकाशदिकस्वरूपाय, ग्रहनक्षत्रमालिने, सकलायकलंकरहिताय, सकललोकैककर्त्रे, सकललोकैकसंहर्त्रे, सकललोकैकगुरवे, सकललोकैकभर्त्रे, सकललोकैकसाक्षीणे, सकलनिगमगुह्याय, सकलवेदांतपारगाय, सकललोकैकवरप्रदाय, सकललोकैकशंकराय, शशांकशेखराय, शाश्वतनिजावासाय, निराभासाय, निरामयाय, निर्मलाय, निर्लोभाय, निर्मोहाय, निर्मदाय, निश्चिन्ताय, निर्हंकाराय, निराकुलाय, निष्कलन्काय, निर्गुणाय, निष्कामाय, निरुप्लवाय, नीवद्याय, निरन्तराय, निष्कारणाय, निरातंकाय, निष्प्रपंचाय, नि:संगाय, निर्द्वंदाय, निराधाराय, नीरोगाय, निष्क्रोधाय, निर्गमाय, निष्पापाय, निर्भयाय, निर्विकल्पाय, निर्भेदाय, निष्क्रियाय, निस्तुल्याय, निस्संशयाय, निरंजनाय, निरुपम विभवाय, नित्यशुद्धबुद्धपरिपूर्णसच्चिदानंदाद्वयाय, परमशांतस्वरूपाय, तेजोरूपाय, तेजोमयाय, 
जयजय रूद्रमहारौद्र, भद्रावतार, महाभैरव, कालभैरव, कल्पान्तभैरव, कपाल मालाधर, खट्वांगखंगचर्मपाशांकुशडमरूकरत्रिशूल चापबाणगदाशक्तिभिन्दिपालतोमरमुसलमुदगरप्रासपरिघभुशुण्डीशतघ्नीचक्रद्यायुद्धभीषणकर, सहस्रमुख, दंष्ट्रा कराल वदन, विक्टाट हास विस्फारित ब्रहमांड मंडल, नागेन्द्र कुंडल, नागेन्द्रहार, नागेन्द्र वलय, नागेन्द्र चर्मधर, मृत्युंजय, त्रयम्बक, त्रिपुरान्तक, विश्वरूप, विरूपाक्ष, विश्वेश्वर, वृषवाहन, विश्वतोमुख सर्वतो रक्ष रक्ष माम ज्वल ज्वल महामृत्युअपमृत्युभयं नाशय नाशय चौर भयंमुत्सारयोत्सारय: विष सर्प भयं शमय शमय: चौरान मारय मारय: मम शत्रून उच्चाटयोच्चाटय: त्रिशुलेंन विदारय विदारय: कुठारेण भिन्धि भिन्धि: खंगेन छिन्धि छिन्धि: खट्वांगेन विपोथय विपोथय: मूसलेन निष्पेषय निष्पेषय: बाणे: संताडय संताडय: रक्षांसि भीषय भीषयाशेष्भूतानी विद्रावय विद्रावय: कुष्मांडवेतालमारीचब्रहमराक्षसगणान संत्रासय संत्रासय: माम अभयं कुरु कुरु: वित्रस्तं माम अश्वास्याश्वसय: नरक भयान माम उद्धरौद्धर: संजीवय संजीवय: क्षुत्रिडभ्यां माम आप्यापय आप्यापय: दु:खातुरं माम आनंदय आनंदय : शिव कवचे न माम आच्छादय आच्छादय: मृत्युंजय! त्रयम्बक! सदाशिव!!! नमस्ते नमस्ते।।

गोत्र (GOTRA) क्या होता है, इसका महत्व और जब गोत्र ज्ञात ना हो तो ।।

    हमारे सनातन धर्म में गोत्र का बहुत महत्व है। ‘गोत्र’ का शाब्दिक अर्थ तो बहुत व्यापक है। विद्वानों ने समय-समय पर इसकी यथोचित व्याख्या भी की है। ‘गो’ अर्थात् इन्द्रियां, वहीं ‘त्र’ से आशय है ‘रक्षा करना’, अत: गोत्र का एक अर्थ ‘इन्द्रिय आघात से रक्षा करने वाले’ भी होता है जिसका स्पष्ट संकेत ‘ऋषि’ की ओर है।

     व्याकरण के प्रयोजनों के लिये पाणिनि में गोत्र की परिभाषा है ‘अपात्यम पौत्रप्रभ्रति गोत्रम्’ (४.१.१६२), अर्थात ‘गोत्र शब्द का अर्थ है बेटे के बेटे के साथ शुरू होने वाली (एक साधु की) संतान्। गोत्र, कुल या वंश की संज्ञा है जो उसके किसी मूल पुरुष के अनुसार होती है

    संक्षेप में कहे तो मनुस्मृति के अनुसार सात पीढ़ी बाद सगापन खत्म हो जाता है अर्थात सात पीढ़ी बाद गोत्र का मान बदल जाता है और आठवी पीढ़ी के पुरुष के नाम से नया गोत्र आरम्भ होता है।

   लेकिन गोत्र की सही गणना का पता न होने के कारण हिन्दू लोग लाखो हजारो वर्ष पहले पैदा हुए पूर्वजो के नाम से ही अज्ञानतावश अपना गोत्र चला रहे है जिससे वैवाहिक जटिलताएं उतपन्न हो रही हैं।

    सामान्यत: ‘गोत्र’ को ऋषि परम्परा से संबंधित माना गया है। ब्राह्मणों के लिए तो ‘गोत्र’ विशेषरूप से महत्त्वपूर्ण है क्योंकि ब्राह्मण ऋषियों की संतान माने जाते हैं। अत: प्रत्येक ब्राह्मण का संबंध एक ऋषिकुल से होता है। प्राचीनकाल में चार ऋषियों के नाम से गोत्र परंपरा प्रारंभ हुई। ये ऋषि हैं-अंगिरा,कश्यप,वशिष्ठ और भगु हैं। कुछ समय उपरान्त जमदग्नि, अत्रि, विश्वामित्र और अगस्त्य भी इसमें जुड़ गए। व्यावहारिक रूप में ‘गोत्र’ से आशय पहचान से है। जो ब्राह्मणों के लिए उनके ऋषिकुल से होती है।

                 कालान्तर में जब वर्ण व्यवस्था ने जाति-व्यवस्था का रूप ले लिया तब यह पहचान स्थान व कर्म के साथ भी संबंधित हो गई। यही कारण है कि ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य वर्गों के गोत्र अधिकांश उनके उद्गम स्थान या कर्मक्षेत्र से संबंधित होते हैं। ‘गोत्र’ के पीछे मुख्य भाव एकत्रीकरण का है किन्तु वर्तमान समय में आपसी प्रेम व सौहार्द की कमी के कारण गोत्र का महत्त्व भी धीरे-धीरे कम होकर केवल कर्मकाण्डी औपचारिकता तक ही सीमित रह गया है।

जब गोत्र पता न हो तो …

    ब्राह्मणों में जब किसी को अपने ‘गोत्र’ का ज्ञान नहीं होता तब वह ‘कश्यप’ गोत्र का उच्चारण करता है। ऐसा इसलिए होता क्योंकि कश्यप ऋषि के एक से अधिक विवाह हुए थे और उनके अनेक पुत्र थे। अनेक पुत्र होने के कारण ही ऐसे ब्राह्मणों को जिन्हें अपने ‘गोत्र’ का पता नहीं है ‘कश्यप’ ऋषि के ऋषिकुल से संबंधित मान लिया जाता है।
जिनके गोत्र ज्ञात न हों उन्हें काश्यपगोत्रीय माना जाता है।

गोत्रस्य त्वपरिज्ञाने काश्यपं गोत्रमुच्यते।
यस्मादाह श्रुतिस्सर्वाः प्रजाः कश्यपसंभवाः।।

अर्जुन के रथ पर क्यों बैठे थे हनुमान ।।

महाभारत के अनुसार, जब कौरव सेना का नाश हो गया तो दुर्योधन भाग कर एक तालाब में छिप गया। पांडवों को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने दुर्योधन को युद्ध के लिए ललकारा। दुर्योधन तालाब से बाहर निकला और भीम ने उसे पराजित कर दिया। दुर्योधन को मरणासन्न अवस्था में छोड़कर पांडव अपने-अपने रथों पर कौरवों के शिविर में आए। तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पहले रथ से उतरने को कहा, बाद में वे स्वयं उतरे।

श्रीकृष्ण के उतरते ही अर्जुन के रथ पर बैठे हनुमानजी भी उड़ गए। तभी देखते ही देखते अर्जुन का रथ जल कर राख हो गया। यह देख अर्जुन ने श्रीकृष्ण से इसका कारण पूछा? तब श्रीकृष्ण ने बताया कि ये रथ तो दिव्यास्त्रों के वार से पहले ही जल चुका था, सिर्फ मेरे बैठे रहने के कारण ही अब तक यह भस्म नहीं हुआ था। जब तुम्हारा काम पूरा हो गया, तभी मैंने इस रथ को छोड़ा। इसलिए यह अभी भस्म हुआ है।

वनवास के दौरान पांडव जब बदरिकाश्रम में रह रहे थे, तभी एक दिन वहां उड़ते हुए एक सहस्त्रदल कमल आ गया। द्रौपदी ने उसे उठा लिया और भीम से कहा- यह कमल बहुत ही सुंदर है। मैं यह कमल धर्मराज युधिष्ठिर को भेंट करूंगी। अगर आप मुझसे प्रेम करते हैं तो ऐसे बहुत से कमल मेरे लिए लेकर आइए। द्रौपदी के ऐसा कहने पर भीम उस दिशा की ओर चल दिए, जिधर से वह कमल उड़ कर आया था। कमल पुष्प की खोज में चलते-चलते भीम एक केले के बगीचे में पहुंच गए। भीम नि:संकोच उस बगीचे में घुस गए। इस बगीचे में भगवान श्रीहनुमान रहते थे। उन्हें अपने भाई भीमसेन के वहां आने का पता लग गया। हनुमानजी ने सोचा कि यह मार्ग भीम के लिए उचित नहीं है। यह सोचकर उनकी रक्षा करने के विचार से वे केले के बगीचे में से होकर जाने वाले संकरे रास्ते को रोककर लेट गए।

भीम को बगीचे के संकरे रास्ते पर लेटे हुए वानरराज हनुमान दिखाई दिए। बगीचे में इस प्रकार एक वानर को लेटे हुए देखकर भीम उनके पास पहुंचे और जोर से गर्जना की। हनुमानजी ने अपनी आंखें खोलकर उपेक्षापूर्वक भीम की ओर देखा और कहा- तुम कौन हो और यहां क्या कर रहे हो? मैं रोगी हूं, यहां आनंद से सो रहा था, तुमने मुझे क्यों जगा दिया? यहां से आगे यह पर्वत अगम्य है, इस पर कोई नहीं चढ़ सकता। अत: तुम यहां से चले जाओ।

हनुमानजी की बात सुनकर भीम बोले- वानरराज। आप कौन हैं और यहां क्या कर रहे हैं? मैं तो चंद्रवंश के अंतर्गत कुरुवंश में उत्पन्न हुआ हूं। मैंने माता कुंती के गर्भ से जन्म लिया है और मैं महाराज पाण्डु का पुत्र हूं। लोग मुझे वायुपुत्र भी कहते हैं। मेरा नाम भीम है।

भीम की बात सुनकर हनुमानजी बोले- मैं तो बंदर हूं, तुम जो इस रास्ते से जाना चाहते हो तो मैं तुम्हें इधर से नहीं जाने दूंगा। अच्छा तो यही हो कि तुम यहां से लौट जाओ, नहीं तो मारे जाओगे।
यह सुनकर भीम ने कहा- मैं मरुं या बचूं, तुमसे तो इस विषय में नहीं पूछ रहा हूं। तुम उठकर मुझे रास्ता दो।

हनुमान बोले- मैं रोगी हूं, यदि तुम्हें जाना ही है तो मुझे लांघकर चले जाओ।

भीम बोले- संसार के सभी प्राणियों में ईश्वर का वास है, इसलिए मैं तुम्हारा लंघन कर परमात्मा का अपमान नहीं करुंगा। यदि मुझे परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान न होता तो मैं तुम्ही को क्या, इस पर्वत को भी उसी प्रकार लांघ जाता जैसे हनुमानजी समुद्र को लांघ गए थे।
हनुमानजी ने कहा- यह हनुमान कौन था, जो समुद्र को लांघ गया था? उसके विषय में तुम कुछ कह सकते हो तो कहो।

भीम बोले- वे मेरे भाई हैं। वे श्रीरामचंद्रजी की पत्नी सीताजी की खोज करने के लिए एक ही छलांग में सौ योजन बड़ा समुद्र लांघ गए थे। मैं भी बल और पराक्रम में उन्हीं के समान हूं। इसलिए तुम खड़े हो जाओ मुझे रास्ता दो। यदि मेरी आज्ञा नहीं मानोगे तो मैं तुम्हें यमपुरी पहुंचा दूंगा।

भीम की बात सुनकर हनुमानजी बोले- हे वीर। तुम क्रोध न करो, बुढ़ापे के कारण मुझमें उठने की शक्ति नहीं है इसलिए कृपा करके मेरी पूंछ हटाकर निकल जाओ। यह सुनकर भीम हंसकर अपने बाएं हाथ से हनुमानजी पूंछ उठाने लगे, किंतु वे उसे टस से मस न कर सके। तब भीम हनुमानजी के पास पहुंचे और कहा- आप कौन हैं? अपना परिचय दीजिए और मेरे कटु वचनों के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए। तब हनुमानजी ने अपना परिचय देते हुए कहा कि इस मार्ग में देवता रहते हैं, मनुष्यों के लिए यह मार्ग सुरक्षित नहीं है, इसीलिए मैंने तुम्हें रोका था। तुम जहां जाने के लिए आए हो, वह सरोवर तो यहीं है।

हनुमानजी की बात सुनकर भीम बहुत प्रसन्न हुए और बोले- समुद्र को लांघते समय आपने जो विशाल रूप धारण किया था, उसे मैं देखना चाहता हूं।

भीम के ऐसा कहने पर हनुमानजी ने कहा- तुम उस रूप को नहीं देख सकते और न कोई अन्य पुरुष उसे देख सकता है। सतयुग का समय दूसरा था और त्रेता और द्वापर का भी दूसरा है। काल तो निरंतर क्षय करने वाला है, अब मेरा वह रूप है ही नहीं। तब भीमसेन ने कहा- आप मुझे युगों की संख्या और प्रत्येक युग के आचार, धर्म, अर्थ और काम के रहस्य, कर्मफल का स्वरूप तथा उत्पत्ति और विनाश के बारे में बताइए। भीम के आग्रह पर हनुमानजी ने उन्हें कृतयुग, त्रेतायुग फिर द्वापरयुग व अंत में कलयुग के बारे में बताया।

हनुमानजी की बात सुनकर भीम बोले- आपके उस विशाल रूप को देखे बिना मैं यहां से नहीं जाऊंगा। यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा है तो मुझे उस रूप में दर्शन दीजिए। भीम के इस प्रकार कहने पर हनुमानजी ने अपना विशाल रूप दिखाया, जो उन्होंने समुद्र लांघते समय धारण किया था। भीमसेन हनुमानजी का यह रूप देखकर आश्चर्यचकित हो गए। इसके बाद हनुमानजी अपने मूल स्वरूप में आ गए और उन्होंने भीम को अपने गले से लगा लिया। इससे तुरंत ही भीम की सारी थकावट दूर हो गई और सब प्रकार की अनुकूलता का अनुभव होने लगा। गले लगाने के बाद हनुमानजी ने भीम से कहा कि- भाई होने के नाते मैं तुम्हारा प्रिय करूंगा। जिस समय तुम शत्रु सेना में घुसकर सिंहनाद करोगे, उस समय मैं अपने शब्दों से तुम्हारी गर्जना को बढ़ा दूंगा तथा अर्जुन के रथ की ध्वजा पर बैठा हुआ ऐसी भीषण गर्जना करुंगा, जिससे शत्रुओं के प्राण सूख जाएंगे और तुम उन्हें आसानी से मार सकोगे। ऐसा कहकर हनुमानजी ने भीमसेन को मार्ग दिखाया और अंतर्धान हो गए