Follow us for Latest Update

यह क्षण तो दुर्लभ हैं ।।

प्रत्येक के जीवन में ऐसी क्रांति घटित नहीं होती ,यह कोई आवश्यक नहीं हैं कि "सदगुरु " मिल ही जाए ,जो ठोकर मार कर जगा दे ,सत्य की प्रतीति करवा दे ऐसा क्षण तो हजारो वर्षो के बाद ही आता हैं ,जब "सदगुरु " स्वयं आ कर साकार रूप में उपस्थित हो शिष्य को पुकारता हैं झकझोरता हैं,और उसके जीवन के सवारने का प्रयास करता हैं I जो जीवन में बेसुध ही रहेंगे ,पूरी जिंदगी उनके हाथ से निकल जाएगी और एक बार पुनः सभी पूर्णता से वंचित रह जायेंगे I

-वही क्षण जीवन का सौभाग्य क्षण होता हैं ,सर्वश्रेष्ठ क्षण होता हैं ,जब हमारे मृत प्रायः जीवन में ऐसे व्यक्तित्व का पदार्पण होता हैं ,जिसका हमारे ऊपर पूर्ण अधिकार हो ,जो हमें अपने प्राणों का अंश मानता हो जो हमारे मिथ्या भ्र्मजाल को तोड़ने की सामर्थ्य रखता हो ,इस मृग तृष्णा से निकाल कर ,उस परम सत्य ,परम तत्व से सक्षात्कार करने की हिम्मत रखता हो I

-और यह नींद से जागना ही ज्ञान को प्राप्त करना हैं अपने आप में चेतना को अनुभव करना हैं I

-और यह जागना ही ,परम सत्य से परिचित होना हैं I

-परन्तु यह अमूल रूपांतरण उस व्यक्ति के बिना संभव नहीं जिसे "सदगुरु " कहा गया हैं ,जिसकी प्रसंशा संसार के सभी ग्रंथों ने एक स्वर से कहीं हैं I

प्रकृति रुपी गुरु 
----------------
-जन्म लेते ही बालक से गुरु का सम्बन्ध हो जाता हैं ,प्रकृति को गुरु ही माना गया हैं ! पशु-पक्षियों के बच्चे प्रकृति में ही जन्म लेते हैं ,प्रकृति रुपी गुरु उनका सीधा सम्बन्ध जुड़ जाता हैं ......और वह कुछ समय में ही अपने पावों में खड़ा हो जाता हैं ,विचरण करने लग जाता हैं ,पक्षी पंख फैला कर उड़ने की क्षमता प्राप्त कर लेता हैं I

-पर मनुष्य को कई वर्ष लग जाते हैं ,इस क्षमता को प्राप्त करने में क्योकि वह प्रकृति से कटा हुआ हैं ,शुद्ध प्रकृति से सम्बन्ध नहीं जुड़ पाता ,प्रकृति रुपी गुरु की थपथपाहट उसे अनुभव नहीं होती !अतः जीवन के क्रिया कलाप सीखने में ही उसे कई वर्ष लग जाते हैं ,यह मानव जीवन की विडम्बना या न्यूनता ही कही जाएगी I 

-इसलिए यह भी स्वीकारा गया हैं ,कि जिसने प्रकृति को समझ लिया आत्मसात कर लिया ,वह सदगुरु को भी समझ सकता हैं ,क्योकि सदगुरु महाप्रकृति से सम्बन्ध जोड़ देते हैं ,संपर्क सूत्र स्थापित कर देते हैं I

कैसे हो यह मिलन 
---------------------
-जो वास्तव में जाग्रत हैं ,प्राण ऊर्जा से आपूरित हैं ,अदृश्य जिन्हे आकर्षित करता हैं ,जो अज्ञात की खोज में निकल पड़ते हैं -इतने साहस से कि चाहे रात्रि की गहन कालिमा हो ,चाहे तूफ़ान का झंझावात उठ रहा हो ,चाहे मर-मिटने का डर हो ,पर रुका नहीं जा सकता ,उन्हें गंतव्य मिल ही जाता हैं I 

-कहावत भी हैं ,जब शिष्य तैयार हो जाता हैं -सद्गुरु स्वयं प्रत्यक्ष हो जाते हैं I

-पर यह मिलन किस रहस्य पूर्ण ढंग से होगा ,किस क्षण होगा ,कहाँ तार मिल जायेंगे ,किसी को ज्ञात नहीं I

-प्रकृति की बड़ी अद्भुद लीला हैं यह ....सदगुरु के नजरे मिलते ही एक चिंगारी सी प्रज्वलित होती हैं ,जिससे शिष्य का सारा अहंकार ,लोभ ,मोह ,तृष्णाएं ,जल कर खाक हो जाती हैं ,उसकी अंतरात्मा ही मानो बदल जाती हैं I गुरु रुपी पारस का स्पर्श होते ही ,अमूल्य कुंदन बन जाता हैं वह .....और यह सब कुछ घटित होता हैं ,क्षण भर में ही ,युगो की आवश्यकता नहीं हैं I

-ऐसा ही सदगुरु ,शिष्य की अन्तर शक्ति को जगा कर उसे आत्म आनंद में रमण कराता हैं ,शक्तिपात द्वारा देह को पाप -ताप से रहित कर दिव्य कुंडलिनी जगाता हैं ,ज्ञान की मस्ती देता हैं ,भक्ति का प्रमाण देता हैं ,कर्म में निष्कामता सीखा देता हैं I

-ऐसे ही सदगुरु के प्रसाद से शिष्य रुपी "नर "भी "नारायण "स्वरूप बनकर आनंद मग्न हो जाता हैं I

-जब तुम्हे जीवन के किसी मोड़ पर कोई चेतना पुंज ,कोई जाग्रत व्यक्तित्व मिल जाए तो अपनी इस जिंगदी में दौड़ कर उससे मिल लेना डूब जाना उसके ह्रदय में ,समां जाना उसके व्यक्तित्व में -क्योकि जीवन में ऐसे क्षण तो कभी-कभी ही आते हैं I

-और वे क्षण यदि चूक गए ,तो फिर तुम्हारे पास पछताने के अलावा कुछ भी नहीं बचेगा I

-और इसलिए तो कहता हूँ -"जब जाग्रत ,चैतन्य सदगुरु मिल जाय तो अपने आप को समर्पित कर देना "I

-और इस समर्पण से तुम्हे सब कुछ मिल जायेगा I
-जिसे सत्यम-शिवम् -सुंदरम और ब्रम्हानंद कहा गया हैं ।

-----------------------------------------------------------

गुरु के बिना ब्रह्मानंद तो क्या,सांसारिक सुख भी दुर्लभ है ।।

     परमेश्वर का साक्षात्कार एकमात्र गुरु से ही सम्भव है । जब तक गुरु की कृपा से हमारी अन्त:शक्ति नहीं जागती, अन्त:ज्योति नहीं प्रकाशित होती, अन्तर के दिव्य ज्ञान-चक्षु नहीं खुलते- तब तक हमारी जीव-दशा नहीं मिटती। इसलिए अन्त:विकास के लिए और दिव्यत्व की प्राप्ति के लिए हमें मार्गदर्शक की, अर्थात् पूर्ण सत्य के ज्ञाता एवं शक्तिशाली सद्गुरु की अत्यन्त आवश्यकता है ।

जैसे प्राण बिना जीना सम्भव नहीं, उसी तरह गुरु बिना ज्ञान नहीं, शक्ति का विकास नहीं, अन्धकार का नाश नहीं, तीसरे नेत्र का उदय नहीं । गुरु की जरूरत मित्र से, पुत्र से, बंधु से और पति या पत्नी से भी अधिक है । गुरु की जरूरत द्रव्य से, कल-कारखानों से, कला से और संगीत से भी अधिक है । अधिक क्या कहूँ, गुरु की जरूरत आरोग्य और प्राण से भी ज्यादा है ।

गुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है । वे मानव को नया जन्म देते हैं, ज्ञान की प्रतीति कराते हैं, साधना बताकर ईश्वरानुरागी बनाते हैं । गुरु वे हैं, जो शिष्य की अन्त:- शक्ति को जगाकर उसे आत्मानंद में रमण कराते हैं । गुरु की व्याख्या यह है– जो शक्तिपात द्वारा अन्त:- शक्ति कुण्डलिनी को जगाते हैं, यानी मानव-देह में परमेश्वर की शक्ति को संचारित कर देते हैं, जो योग की शिक्षा देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं । भक्ति का प्रेम देते हैं, कर्म में निष्कामता सिखा देते हैं, जीते-जी मोक्ष देते हैं– वे परमगुरु शिव से अभिन्न रूप हैं । वे शिव, शक्ति, राम, कृष्ण, गणपति और माता-पिता हैं । वे सभी के पूजनीय परमगुरु शिष्य की देह में ज्ञान-ज्योति को प्रज्जवलित करते हुए अनुग्रहरूप कृपा करते हैं और लीला-विनोद में ही नर को नारायणस्वरूप की आनंद धारा में मस्त रहने की कला सिखा देते हैं । ऐसे गुरु महामहिमावान हैं । उनको साधारण जड़-बुद्धि वाले नहीं समझ सकते ।

साधारणतया गुरुजनों का परिचय पाना, उन्हें समझना महाकठिन है । किसी ने थोड़ा चमत्कार दिखाया, तो हम उसे गुरु मान लेते हैं । थोड़ा प्रवचन सुनाया, तो उसे गुरु मान लेते हैं । किसी ने मंत्र दिया या तंत्र-विधि बतलायी, तो उसे गुरु मान लेते हैं । इस तरह अनेकजनों में गुरु-भाव करके अंत:समाधान से हम बंचित रह जाते हैं । अन्त में हमारी श्रद्धा भंग हो जाती है और फिर हम गुरुत्व को भी पाखण्ड समझने लगते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि हम सच्चे गुरुजनों से दूर रह जाते हैं । पाखण्डी गुरु से धोखा खाकर हम सच्चे गुरु की अवहेलना करने लग जाते हैं ।

साक्षात्कारी गुरु को साधारण समझकर उनको त्यागो मत । गुरु की महानता तब समझ में आती है, जब तुम पर गुरुदेव की पूर्ण कृपा होती है । गुरु अपने शिष्यों को साधना के उच्चतम शिखर पर ले जाकर उनके सत्यस्वरूप का उन्हें साक्षात्कार करवा कर, सत्यस्वरूप शिव में मिलाकर ‘शिव’ ही बना देते हैं । ऐसे गुरुजनों को गुरु मानकर, उन तत्ववेत्ताओं से दीक्षा पाना क्या परम सौभाग्य नहीं है ? उनके दिये हुए शब्द ही चैतन्य मंत्र हैं । वे चितिमय परम गुरु मंत्र द्वारा, स्पर्श द्वारा या दृष्टि द्वारा शिष्य में प्रवेश करते हैं । इसीलिए गुरु-सहवास (सानिध्य), गुरु आश्रमवास, गुरु-सेवा, गुरु-गुणगान, गुरुजनों से प्रेमोन्मत्त स्थिति में प्रवाहित होने वाले चिति-स्पन्दनों का सेवन शिष्य को पूर्ण सिद्धि-पद की प्राप्ति करा देने में समर्थ है– इसमें क्या आश्चर्य है ?
                                           
🙏 @Sanatan

अंतस हूक उठी गुरु आये -

प्रायः पाठको के मानस में यह प्रश्न उठता हैं -"गुरु तत्व " क्या हैं ?
ऐसी कौन सी शक्ति निहित हैं ,इन "गुरु-तत्व " में जिसके लिए कहां गया हैं कि "प्रथमे गुरु की वंदना ?

प्रश्न गूढ़ हैं - गूढ़ इसलिए हैं कि सामान्य मानव के धरातल पर गुरु को परिभाषित करना अत्यंत दुष्कर हैं ,कठिन हैं ,पर अगर सीधे-साधे शब्दों में कहें तो ज्ञान ही गुरु हैं I

ज्ञान भी कौन सा ,जो तन्द्रा अवस्था को तोड़ दे ,नींद से जगा दे हमें ,यह बोध करा सके कि अभी तक जो जीवन समझा था ,वह वास्तविक जीवन हैं ही नहीं ,बस एक गहरी नींद थी वह ,जिसमें आकंठ डूबे हैं सभी I

-सद्गुरु की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को ,अगर एक शब्द में कहें तो वह हैं अप्रमाद (अवेरनेस ) अर्थात जाग कर जीना ,जब व्यक्ति को अपने अस्तित्व का भान हो जाय I

-अभी तक की यात्रा में स्वयं से ही अनभिज्ञ हैं आदमी ,स्वयं से ही परिचित नहीं हैं ,निकटतम ही नहीं पहुंच पाया हैं वह ,और निकटतम तक पहुंचना ही सदगुरुदेव का ध्येय हैं ,तभी दूरतम तक मंजिल तय हो सकती हैं ,क्योकि दूर भी निकट का ही प्रसारण हैं I

-पर मानव अपनी तन्द्रा को सहेज कर रखे हुए हैं ,प्रमाद जाल में जकड़ा हुआ हैं ....... और प्रतिपल उसे मृत्यु की ओर अग्रसर कर रहा हैं ....... और सदगुरु ले चलता हैं उसे मुक्ति के पथ पर ,अमृत की राह पर ,क्योकि जागते ही शिष्य को ज्ञान हो जाता हैं उस अमृत कुंड का जो भीतर ही प्रसुप्त हैं ,जो मिट नहीं सकता ,एक ऐसी सम्पदा ,जो छीनी नहीं जा सकती ,जो शाश्वत हैं ,समयातीत हैं I

-अतः यह स्पष्ट हैं कि गुरु कोई शरीर या नाम नहीं ,किसी व्यक्तित्व या चमक-दमक युक्त आश्रम के अधिष्ठाता को भी गुरु नहीं कहते ,प्रवचन करने वाले ,या शिष्यों की फौज चलने वाले सन्यासी को भी गुरु नाम से सम्बोधित नहीं किया जाता I

- जो कुछ वास्तविक ज्ञान हैं वह गुरु हैं ,इसलिए गुरु को तत्व कहा गया हैं ,जो समस्त ब्रम्हांड में फैला हुआ हैं I यह अलग तथ्य हैं कि यह ज्ञान किसी शरीर में भी विध्यमान रह सकता हैं ,और इसलिए वह शरीर भी पवित्र और पूज्य बन जाता हैं ,फिर ऐसे उच्च कोटि के ज्ञान को धारण करने वाले व्यक्तित्व को गुरु कह सकते हैं I

-और यह भी सत्य हैं ,जहाँ परम सत्य को पाने के लिए ,पीड़ा और अभीप्सा हैं ,अस्तित्व किसी न किसी के माध्यम से उपस्थित हो ही जाता हैं ,यही अस्तित्व "सदगुरु " होता हैं ,जिसके पास बैठते -बैठते ,जिसके रस में निमग्न होते-होते सत्य एक दिन उपज उठता हैं I

गुरु ही मृत्यु हैं 
---------------
शास्त्रों में गुरु को मृत्यु भी कहा गया हैं ,क्योकि वह शिष्य की त्वरित मृत्यु का कारण बनता हैं ,नष्ट करता हैं उसके अब तक के संचित कर्मो (प्रारब्ध) की झूठी सम्पदा को ,संस्कारों को I शिष्य के पाखंड ,उसकी सन्देहशीलता ,उसकी न्यूनता ,उसका ओछापन ,और उसकी निर्लज्जता को मृत्यु देता हैं I

-वह मृत्यु देता हैं जिससे शिष्य के चित्त पर ,ह्रदय पर जो स्याह हैं कालापन हैं ,वह समाप्त हो जाय , जो कुछ व्यर्थ हैं ,निस्सार हैं ,वह मर जाय ..... तब वह नए सिरे से निर्माण कर सके ,देवदूत की तरह अद्वितीय मानव की तरह I शिष्य की आस्था को ही बदल देना चाहता हैं वह ,ताकि शिष्य पूरी तरह मिट जाय I

-और मृत्यु ही महाजीवन का प्रारम्भ होती हैं ,शिष्य मिटा नहीं की उसके भीतर का परमात्मा दृष्टव्य हो जाता हैं I 

-बड़ा विचित्र खेल हैं ,यह ठीक वैसा ही हैं ,जैसा बीज का माटी में खो कर अंकुरित होना ...खोना जरुरी हैं ,मिटना अनिवार्य हैं I और जब तक शिष्य बीज के आवरण को ही अपना प्राण समझता हैं ,उसे खोने से डरता हैं ,तभी तक वह अंधकार में डूबा हैं

- गुरु उसे स्पष्ट करता हैं कि यह तो मात्र आवरण हैं ,प्राण तो इसके भीतर हैं ,आवरण हटेगा तभी प्राणों का अंकुरण होगा ,तभी वृक्ष का जन्म होगा ,तभी करोड़ो वृक्ष का अस्तित्व होगा I

-पर स्वप्न से निकलना इतना सुगम नहीं हैं ,बड़ी मीठी नींद हैं यह -कोई सम्राट बना बैठा हैं ,कोई स्वर्ग की सैर कर रहा हैं ,तो कोई स्वर्ण महल में विश्राम कर रहा हैं ....और अगर कोई इस नींद से जगाता हैं ,तो बड़ी व्याकुलता होती हैं उसे ,जब कोई इस नकली घेरे से बाहर निकालने की क्रिया करता हैं तो बड़ी पीड़ा होती हैं ,क्योकि वह उसी मृग मरीचिका में प्रसन्न हैं I

-पर सदगुरु से नजरे मिलते ही ,एक-एक कर सब लूटने लगता हैं ,वे अपने शिष्य की सभी मिथ्या आशाये ,संतोष ,सांत्वना ,आस्था और मान्यताएं सब छीन लेता हैं ,और जैसे-जैसे खोखली सम्पदा छिनेगी शिष्य घबराएगा ,अंधकार उसे घना प्रतीत होगा ,और सारी बैसाखिया हटते ही वह एक दम से गिर जायेगा I 

 -पर यह गिरना ही उसके अपने पैरो पर खड़े होने की प्रथम शुरुवात होगी I 
प्रत्येक पूर्णिमा के पहले अमावस्या तो आएगी ही ,गहन रात्रि के बाद ही प्रभात का सूर्य उदय होगा I

जप माला का संस्कार ।।

 कोई भी जप , साधना या अनुष्ठान में
माला की जरुरत होती है ! प्रायः जनसाधारण बाजार से
माला खरीदकर उसी से जप आरम्भ कर देते है ! ऐसी माला से जप करना निरर्थक व निषिद्ध है क्योंकि उससे कोई लाभ या सिद्धि सम्भव नहीं है ! सर्वप्रथम माला क्रय करने के बाद विधवत उसके संस्कार करना चाहिए अन्यथा जप निष्फल है !
अधिकतम माला संस्कार की विधि जो प्राप्त होती है उसमें कुछ न कुछ कमी अवश्य रहती है जैसे संस्कार दिया है तो प्राणप्रतिष्ठा नहीं होती , आज आप सब के लाभार्थ मैं माला संस्कार की संपूर्ण विधि पर प्रकाश डाल रहा हु आशा करता हु की साधक भाई - बहनो के कुछ काम आ जाये !

व्यावहारिक विधि--- साधक सर्वप्रथम स्नान आदि से शुद्ध हो कर अपने पूजा गृह में पूर्व या उत्तर की ओर मुह कर आसन पर बैठ जाए अब सर्व प्रथम आचमन - पवित्रीकरण करने के बाद गणेश -गुरु तथा अपने इष्ट देव/ देवी का पूजन सम्पन्न कर ले तत्पश्चात पीपल के 09 पत्तो को भूमि पर अष्टदल कमल की भाती बिछा ले ! एक पत्ता मध्य में तथा शेष आठ पत्ते आठ दिशाओ में रखने से अष्टदल कमल बनेगा ! इन पत्तो के ऊपर आप माला को रख दे ! अब अपने समक्ष पंचगव्य तैयार कर के रख ले किसी पात्र में और उससे माला को प्रक्षालित ( धोये )
करे ! आप सोचे-गे कि पंचगव्य क्या है ? तो जान ले गाय
का दूध , दही , घी , गोमूत्र , गोबर यह पांच चीज
गौ का ही हो उसको पंचगव्य कहते है ! पंचगव्य से
माला को स्नान करना है - स्नान करते हुए अं आं इत्यादि सं हं पर्यन्त समस्त स्वर वयंजन का उच्चारण करे ! फिर
समस्य़ा हो गयी यहाँ कि यह अं आं इत्यादि सं हं पर्यन्त समस्त स्वर वयंजन क्या है ?

 तो नोट कर ले - ॐ अं आं इं ईं उं ऊं ऋं
ऋृं लृं लॄं एं ऐं ओं औं अं अः कं खं गं घं ङं चं छं जं झं ञं टं ठं डं ढं णं तं थं दं धं नं पं फं बं भं मं यं रं लं वं शं षं सं हं क्षं !! 

यह उच्चारण करते हुए माला को पंचगव्य से धोले ध्यान रखे इन समस्त स्वर का अनुनासिक उच्चारण होगा !
माला को पंचगव्य से स्नान कराने के बाद निम्न मंत्र बोलते हुए माला को जल से धो ले -

ॐ सद्यो जातं प्रद्यामि सद्यो जाताय वै नमो नमः
भवे भवे नाति भवे भवस्य मां भवोद्भवाय नमः !!

अब माला को साफ़ वस्त्र से पोछे और निम्न मंत्र बोलते हुए माला के प्रत्येक मनके पर चन्दन- कुमकुम आदि का तिलक करे
-
ॐ वामदेवाय नमः जयेष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कल विकरणाय नमो बलविकरणाय नमः !
बलाय नमो बल प्रमथनाय नमः सर्वभूत दमनाय नमो मनोनमनाय नमः !!

अब धूप जला कर माला को धूपित करे और मंत्र बोले -

ॐ अघोरेभ्योथघोरेभ्यो घोर घोर तरेभ्य: सर्वेभ्य: सर्व
शर्वेभया नमस्ते अस्तु रुद्ररूपेभ्य:

अब माला को अपने हाथ में लेकर दाए हाथ से ढक ले और निम्न मंत्र का १०८ बार जप कर उसको अभिमंत्रित करे -

ॐ ईशानः सर्व विद्यानमीश्वर सर्वभूतानाम
ब्रह्माधिपति ब्रह्मणो अधिपति ब्रह्मा शिवो मे अस्तु
सदा शिवोम !!

अब साधक माला की प्राण - प्रतिष्ठा हेतु अपने दाय हाथ में जल लेकर विनियोग करे -

ॐ अस्य श्री प्राण प्रतिष्ठा मंत्रस्य ब्रह्मा विष्णु रुद्रा ऋषय: ऋग्यजु:सामानि छन्दांसि प्राणशक्तिदेवता आं बीजं
ह्रीं शक्ति क्रों कीलकम अस्मिन माले प्राणप्रतिष्ठापने
विनियोगः !!

अब माला को बाय हाथ में लेकर दाय हाथ से ढक ले और निम्न मंत्र बोलते हुए ऐसी भावना करे कि यह माला पूर्ण चैतन्य व शक्ति संपन्न हो रही है !

ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं सः ह्रीं ॐ आं
ह्रीं क्रों अस्य मालाम प्राणा इह प्राणाः ! ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं
लं वं शं षं सं हों ॐ क्षं सं हं सः ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों अस्य
मालाम जीव इह स्थितः ! ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं
हों ॐ क्षं सं हं सः ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों अस्य मालाम
सर्वेन्द्रयाणी वाङ् मनसत्वक चक्षुः श्रोत्र जिह्वा घ्राण
प्राणा इहागत्य इहैव सुखं तिष्ठन्तु स्वाहा ! 

ॐ मनो जूतिजुर्षतामाज्यस्य बृहस्पतिरयज्ञमिमन्तनो त्वरिष्टं यज्ञं समिमं दधातु विश्वे देवास इह मादयन्ताम् ॐ प्रतिष्ठ !!

अब माला को अपने मस्तक से लगा कर पूरे सम्मान सहित स्थान दे ! इतने संस्कार करने के बाद माला जप करने योग्य शुद्ध तथा सिद्धिदायक होती है !

नित्य जप करने से पूर्व माला का संक्षिप्त पूजन निम्न मंत्र से करने के उपरान्त जप प्रारम्भ करे -

ॐ अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्व मंत्रार्थ
साधिनी साधय-साधय सर्व सिद्धिं परिकल्पय मे स्वाहा ! ऐं
ह्रीं अक्षमालिकायै नमः !

जप करते समय माला पर किसी कि दृष्टि नहीं पड़नी चाहिए ! गोमुख रूपी थैली ( गोमुखी ) में माला रखकर इसी थैले में हाथ डालकर जप किया जाना चाहिए अथवा वस्त्र आदि से माला आच्छादित कर ले अन्यथा जप निष्फल होता है !
आशा करता हु अब आप जब भी माला बाजार से ख़रीदेगे तो उपरोक्त विधान अनुसार संस्कार अवश्य करेगे !

हमारा युग निर्माण सत्संकल्प ।।

 —हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे।

 —शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर आत्म- संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे।

 —मन को कुविचारों और दुर्भावनाओं से बचाए रखने के लिए स्वाध्याय एवं सत्संग की व्यवस्था रख रहेंगे।

 —इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत अभ्यास करेंगे।

 — अपने आपको समाज का एक अभिन्न अंग मानेंगे और सबके हित में अपना हित समझेंगे। 

 —मर्यादाओं को पालेंगे, वर्जनाओं से बचेंगे, नागरिक कर्तव्यों का पालन करेंगे और समाजनिष्ठ बने रहेंगे।

—समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी को जीवन का एक अविच्छिन्न अंग मानेंगे। 

—चारों ओर मधुरता, स्वच्छता, सादगी एवं सज्जनता का वातावरण उत्पन्न करेंगे। 

 — अनीति से प्राप्त सफलता की अपेक्षा नीति पर चलते हुए असफलता को शिरोधार्य करेंगे। 

 —मनुष्य के मूल्यांकन की कसौटी उसकी सफलताओं, योग्यताओं एवं विभूतियों को नहीं, उसके सद्विचारों और सत्कर्मों को मानेंगे। 

 —दूसरों के साथ वह व्यवहार न करेंगे, जो हमें अपने लिए पसंद नहीं। 

 —नर- नारी परस्पर पवित्र दृष्टि रखेंगे। 

 —संसार में सत्प्रवृत्तियों के पुण्य प्रसार के लिए अपने समय, प्रभाव, ज्ञान, पुरुषार्थ एवं धन का एक अंश नियमित रूप से लगाते रहेंगे। 

—परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे। 

 —सज्जनों को संगठित करने, अनीति से लोहा लेने और नव- सृजन की गतिविधियों में पूरी रुचि लेंगे। 

 —राष्ट्रीय एकता एवं समता के प्रति निष्ठावान् रहेंगे। जाति, लिंग, भाषा, प्रांत, सम्प्रदाय आदि के कारण परस्पर कोई भेदभाव न बरतेंगे। 

 —मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम उत्कृष्ट बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएँगे, तो युग अवश्य बदलेगा। 

 —‘‘हम बदलेंगे- युग बदलेगा’’, ‘‘हम सुधरेंगे- युग सुधरेगा’’ इस तथ्य पर हमारा परिपूर्ण विश्वास है।