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चार युग और उनकी विशेषताएं ।।

युग शब्द का अर्थ होता है एक निर्धारित संख्या के वर्षों की काल-अवधि। जैसे सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग आदि। आज में हम चारों युगों का वर्णन करेंगें। युग वर्णन से तात्पर्य है कि उस युग में किस प्रकार से व्यक्ति का जीवन, आयु, ऊँचाई, एवं उनमें होने वाले अवतारों के बारे में विस्तार से परिचय देना। प्रत्येक युग के वर्ष प्रमाण और उनकी विस्तृत जानकारी कुछ इस तरह है –

सत्ययुग- यह प्रथम युग है इस युग की विशेषताएं इस प्रकार है –

सत्ययुग का तीर्थ – पुष्कर है।
इस युग में कोई भी पाप नहीं होता है, अर्थात पाप की मात्र 0% है।
इस युग में पुण्य की मात्रा – 20 विश्वा अर्थात् (100%) होती है।

इस युग के अवतार – मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह (सभी अमानवीय अवतार हुए) है ! अवतार होने का कारण – शंखासुर का वध एंव वेदों का उद्धार, पृथ्वी का भार हरण, हरिण्याक्ष दैत्य का वध, हिरण्यकश्यपु का वध एवं प्रह्लाद को सुख देने के लिए।

इस युग की मुद्रा – रत्नमय है ।
इस युग के पात्र – स्वर्ण के है ।
काल - 17,28000 वर्ष 
मनुष्य की लंबाई - 32 फ़ीट
आयु - 1 लाख वर्ष

2) त्रेतायुग – यह द्वितीय युग है इस युग की विशेषताएं इस प्रकार है –

त्रेतायुग का तीर्थ – नैमिषारण्य है ।
इस युग में पाप की मात्रा – 5 विश्वा अर्थात् (25%) होती है ।
इस युग में पुण्य की मात्रा – 15 विश्वा अर्थात् (75%) होती है ।
इस युग के अवतार – वामन, परशुराम, राम (राजा दशरथ के घर)

अवतार होने के कारण – बलि का उद्धार कर पाताल भेजा, मदान्ध क्षत्रियों का संहार, रावण-वध एवं देवों को बन्धनमुक्त करने के लिए ।

इस युग की मुद्रा – स्वर्ण है ।
इस युग के पात्र – चाँदी के है ।
काल - 12,96,000 वर्ष
मनुष्य की लंबाई - 21 फ़ीट
आयु - 10,000 वर्ष

3) द्वापरयुग – यह तृतीय युग है इस युग की विशेषताएं इस प्रकार है –

द्वापरयुग का तीर्थ – कुरुक्षेत्र है ।

इस युग में पाप की मात्रा – 10 विश्वा अर्थात् (50%) होती है ।
इस युग में पुण्य की मात्रा – 10 विश्वा अर्थात् (50%) होती है ।
इस युग के अवतार – कृष्ण, (देवकी के गर्भ से एंव नंद के घर पालन-पोषण)।

अवतार होने के कारण – कंसादि दुष्टो का संहार एंव गोपों की भलाई, दैत्यो को मोहित करने के लिए ।

इस युग की मुद्रा – चाँदी है ।
इस युग के पात्र – ताम्र के हैं ।
काल - 8,64,000 वर्ष
मनुष्य की लंबाई - 11 फ़ीट
आयु - 1,000 वर्ष

4) कलियुग – यह चतुर्थ युग है इस युग की विशेषताएं इस प्रकार है –

कलियुग का तीर्थ – गंगा है ।
इस युग में पाप की मात्रा – 15 विश्वा अर्थात् (75%) होती है ।
इस युग में पुण्य की मात्रा – 5 विश्वा अर्थात् (25%) होती है ।
इस युग के अवतार – कल्कि (ब्राह्मण विष्णु यश के घर) ।

अवतार होने के कारण – मनुष्य जाति के उद्धार अधर्मियों का विनाश एंव धर्म कि रक्षा के लिए।

इस युग की मुद्रा – लोहा है।
इस युग के पात्र – मिट्टी के है।
काल - 4,32,000 वर्ष
मनुष्य की लंबाई - 5.5 फ़ीट
आयु - 60-100 वर्ष.

क्रमसूत्र में पंच-अंग पूजा का विधान

पंच अंग जिन्हें पंचांग भी कहा जाता है, पटल, पद्धति, कवच, सहस्रनाम एवं स्तोत्र हैं। ये पंचांग अभीष्ट देवता के शरीर के प्रमुख अंग माने गए हैं। कहा भी गया है :-

 पटलं देवता-गात्रं पद्धतिर्देवताशिरः। 

 कवचं देवता-नेत्रे सहस्रनामं मुखं स्मृतम। 

 स्तोत्र देवीरसा प्रोक्ता पंचांगमिदमीरितम।। 

अर्थात पटल देवता की देह, पद्धति सिर , कवच दोनों चक्षु, सहस्रनाम मुख और स्तोत्र जिह्वा हैं। पटल में पूजा विधान, मंत्र और बीजाक्षर के समस्त समूहों का भेद समाहित रहता है। तंत्र साधना से संबद्ध विधि-विधानों को समझने के लिए पटल का ज्ञान अत्यावश्यक है, इसलिए इसे देवता का शरीर माना गया है। पटल के बाद नंबर आता है पद्धति का। ""पद्धति को देवता का सिर माना गया है। वैसे इसका अर्थ है मार्ग । यह शब्द अपने आपमें बहुत से विषयों को समाए हुए है। इसमें तंत्र साधना के लिए शास्त्रीय विधि का मार्गदर्शन होता है जिसमें प्रातः स्नान से लेकर पूजा और जप समाप्ति तक के मंत्र तथा उनके विनियोगादि का वर्णन होता है। जिस प्रकार प्राचीन समय में योद्धा अपने अंग-प्रत्यंगों की सुरक्षा के लिए युद्ध में जाने से पहले कवच धारण करते थे, उसी प्रकार यह कवच साधक के शरीर की रक्षा करता है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक देवता की साधना में उनके नामों द्वारा उनके अपने शरीर में निवास तथा रक्षा की प्रार्थना करते हुए जो न्यासादि किए जाते हैं, वही कवच के रूप में वर्णित होते हैं।

गुरू गीता ।।

                  गुरू मंत्र कामधेनु के समान है, क्योकिं यह समस्त कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ हैं। यह कल्पवृक्ष के समान है, जो भी मन की इच्छा की जाए, वह गुरू मंत्र के प्रभाव से अपने आप पूर्ण हो ही जाती हैं। यह चिंतामणि के समान है, जिससे समस्त प्रकार की चिंताएं समाप्त होती ही हैं। इस प्रकार यह गुरु मन्त्र सर्व मंगलदायक हैं। जिसके जप मात्र से ही समस्त ताप, दुःख,भय, दैन्य, रोग, आदि अपने आप समाप्त हो जाते हैं। "59"

           यदि साधक मोक्ष की इच्छा करता है, तो उसकी मोक्ष की इच्छा पूर्ति होती हैं। यदि वह भोग की इच्छा करता है ,तो भोग प्राप्ति संभव होती है। यदि वह काम की इच्छा करता है, तो काम प्राप्ति होती है। साधक के जीवन की जो भी इच्छाएं होती हैं, उन समस्त इच्छाओं की पूर्ति केवल गुरू मंत्र जप करने से ही संभव होती हैं। इस तरह सुविज्ञ, साधक मन को भ्रम में डालने वाली अन्य साधनाओं को दृष्टि विगत करके गुरु मन्त्र का ही जप करता है। "60"।।गुरू गीता।। 
                  गुरू मंत्र कामधेनु के समान है, क्योकिं यह समस्त कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ हैं। यह कल्पवृक्ष के समान है, जो भी मन की इच्छा की जाए, वह गुरू मंत्र के प्रभाव से अपने आप पूर्ण हो ही जाती हैं। यह चिंतामणि के समान है, जिससे समस्त प्रकार की चिंताएं समाप्त होती ही हैं। इस प्रकार यह गुरु मन्त्र सर्व मंगलदायक हैं। जिसके जप मात्र से ही समस्त ताप, दुःख,भय, दैन्य, रोग, आदि अपने आप समाप्त हो जाते हैं। "59"

           यदि साधक मोक्ष की इच्छा करता है, तो उसकी मोक्ष की इच्छा पूर्ति होती हैं। यदि वह भोग की इच्छा करता है ,तो भोग प्राप्ति संभव होती है। यदि वह काम की इच्छा करता है, तो काम प्राप्ति होती है। साधक के जीवन की जो भी इच्छाएं होती हैं, उन समस्त इच्छाओं की पूर्ति केवल गुरू मंत्र जप करने से ही संभव होती हैं। इस तरह सुविज्ञ, साधक मन को भ्रम में डालने वाली अन्य साधनाओं को दृष्टि विगत करके गुरु मन्त्र का ही जप करता है। "60"


ब्राह्मण कौन है ?

वज्रसुचिकोपनिषद ( वज्रसूचि उपनिषद् )

यह उपनिषद सामवेद से सम्बद्ध है ! 
इसमें कुल ९ मंत्र हैं ! 

सर्वप्रथम चारों वर्णों में से ब्राह्मण की प्रधानता का उल्लेख किया गया है तथा ब्राह्मण कौन है, इसके लिए कई प्रश्न किये गए हैं ! 

क्या ब्राह्मण जीव है ? शरीर है, जाति है, ज्ञान है, कर्म है, या धार्मिकता है ?

 इन सब संभावनाओं का निरसन कोई ना कोई कारण बताकर कर दिया गया है ...

अंत में ‘ब्राह्मण’ की परिभाषा बताते हुए उपनिषदकार कहते हैं कि जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व से संपृक्त है, वह ब्राह्मण है ! 

चूँकि आत्मतत्व सत्, चित्त, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए इस ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही सठीक अर्थ में ब्राह्मण कहा जा सकता है !

वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि शास्त्रंज्ञानभेदनम ! दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञान चक्षुषाम !!१!!

अज्ञान नाशक, ज्ञानहीनों के दूषण, ज्ञान नेत्र वालों के भूषन रूप वज्रसूची उपनिषद का वर्णन करता हूँ !!

ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेद्वचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम ! तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं आर्म किं धार्मिक इति !!२!!

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं ! 

इन वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है... ऐसा वेद वचन है और स्मृति में भी वर्णित है ! 

अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है ? 
क्या वह जीव है अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है ?

तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेतन्न ! अतीतानागतानेकदेहानां जीवस्यैकरुपत्वात एकस्यापी कर्मवशादनेकदेहसम्भवात सर्वशरीराणां जीवस्यैकरुपत्वाच्च ! तस्मान्न जीवो ब्राह्मण इति !!३!!

इस स्थिति में यदि सर्वप्रथम जीव को ही ब्राह्मण मानें ( कि ब्राह्मण जीव है), तो यह संभव नहीं है..

क्योंकि भूतकाल और भविष्यतकाल में अनेक जीव हुए होंगें !

 उन सबका स्वरुप भी एक जैसा ही होता है ! 

जीव एक होने पर भी स्व-स्व कर्मों के अनुसार उनका जन्म होता है और समस्त शरीरों में...

 जीवों में एकत्व रहता है, इसलिए केवल जीव को ब्राह्मण नहीं कह सकते ! 

तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेतन्न ! आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां पान्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरुपत्वाज्जरामरणधर्माधर्मादिसाम्यदर्शनाद ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्ण इति नियमाभावात ! पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्मह्त्यादिदोषसंभावाच्च ! तस्मान्न देहो ब्राह्मण इति !!४!!

क्या शरीर ब्राह्मण (हो सकता) है?

 नहीं... यह भी नहीं हो सकता ! 

चांडाल से लेकर सभी मानवों के शरीर एक जैसे ही अर्थात पांचभौतिक होते हैं...

उनमें जरा-मरण, धर्म-अधर्म आदि सभी सामान होते हैं !

 ब्राह्मण- गौर वर्ण, क्षत्रिय- रक्त वर्ण , वैश्य- पीत वर्ण और शूद्र- कृष्ण वर्ण वाला ही हो. ऐसा कोई नियम देखने में नहीं आता ...

तथा (यदि शरीर ब्राह्मण है तो ) पिता, भाई के दाह संस्कार करने से पुत्र आदि को ब्रह्म हत्या का दोष भी लग सकता है ! 

अस्तु, केवल शरीर का ब्राह्मण होना भी संभव नहीं है !! 

तर्हि जातिर्ब्राह्मण इति चेतन्न ! तत्रजात्यंतरजंतुष्वनेकजातिसंभवा महर्षयो बहवः सन्ति ! ऋष्यश्रृंगो मृग्या: कौशिकः कुशात जाम्बूको जम्बूकात ! वाल्मिको वल्मिकात व्यासः कैवर्तकन्यकायाम शंशपृष्ठात गौतमः वसिष्ठ उर्वश्याम अगस्त्यः कलशे जात इति श्रुत्वात ! एतेषम जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति ! तस्मान्न जातिर्ब्राह्मण इति !!५!!

क्या जाति ब्राह्मण है ( अर्थात ब्राह्मण कोई जाति है )?

 नहीं... यह भी नहीं हो सकता...

 क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है !

 जैसे – मृगी से श्रृंगी ऋषि की... कुश से कौशिक की... जम्बुक से जाम्बूक की.. वाल्मिक से वाल्मीकि की.. मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की...शशक पृष्ठ से गौतम की...उर्वशी से वसिष्ठ की... कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है !

 इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना (ब्राह्मण) जाति के ही प्रकांड विद्वान् हुए है.....

 इसलिए केवल कोई जाति विशेष भी ब्राह्मण नहीं हो सकता ! 

तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेतन्न ! क्षत्रियादयोSपि परमार्थदर्शिनोSभिज्ञा बहवः सन्ति !!६!!

क्या ज्ञान को ब्राह्मण माना जाये ?

 ऐसा भी नहीं हो सकता...

 क्योंकि बहुत से क्षत्रिय (रजा जनक) आदि भी परमार्थ दर्शन के ज्ञाता हुए हैं (होते हैं) ! 

अस्तु, केवल ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !

तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेतन्न ! सर्वेषां प्राणिनां प्रारब्धसंचितागामिकर्मसाधर्म्यदर्शानात्कर्माभिप्रेरिता: संतो जनाः क्रियाः कुर्वन्तीति ! तस्मान्न कर्म ब्राह्मण इति !!७!!*" 

तो क्या कर्म को ब्राह्मण माना जाये? 

नहीं ऐसा भी संभव नहीं है...

 क्योंकि समस्त प्राणियों के संचित, प्रारब्ध और आगामी कर्मों में साम्य प्रतीत होता है तथा कर्माभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति क्रिया करते हैं ! 

अतः केवल कर्म को भी ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता है !! 

तर्हि धार्मिको इति चेतन्न ! क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः सन्ति ! तस्मान्न धार्मिको ब्राह्मण इति !!८!!*"

क्या धार्मिक , ब्राह्मण हो सकता है?

 यह भी सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है... 

 क्योंकि क्षत्रिय आदि बहुत से लोग स्वर्ण आदि का दान-पुण्य करते रहते हैं ! 

अतः केवल धार्मिक भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !! 

तर्हि को वा ब्राह्मणो नाम ! यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं षडूर्मीषडभावेत्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूतान्तर्यामित्वेन वर्तमानमन्तर्बहीश्चाकाशवदनुस्यूतमखंडानन्द स्वभावमप्रमेयमनुभवैकवेद्यमापरोक्षतया भासमानं करतलामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भावमात्सर्यतृष्णाशामोहादिरहितो दंभाहंकारादिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मण इति श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासानामभिप्रायः ! अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नासत्येव ! सच्चिदानंदमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदात्मानं सच्चिदानंद ब्रह्म भावयेदि त्युपनिषत !!९!! 

तब ब्राह्मण किसे माना जाये ? 

(इसका उत्तर देते हुए उपनिषत्कार कहते हैं – ) 

जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त ना हो..जाति गुण और क्रिया से भी युक्त न हो.. 

षड उर्मियों और षड भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो.. 

सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरुप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला , अशेष कल्पों का आधार रूप , समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला , भीतर -बाहर आकाशवत संव्याप्त ..

अखंड आनंद्वान , अप्रमेय, अनुभवगम्य , अप्रत्येक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला...

 काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला ...

शम-दम आदि से संपन्न ... 

मात्सर्य , तृष्णा , आशा,मोह आदि भावों से रहित...

दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है...

 ऐसा श्रुति, स्मृति-पूराण और इतिहास का अभिप्राय है ! इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता !

 आत्मा सत-चित और आनंद स्वरुप तथा अद्वितीय है !

 इस प्रकार ब्रह्मभाव से संपन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है ! यही उपनिषद का मत है !

भक्तियोग ।।

या महिमावती भक्तिः सैव धीमहि प्रोच्यते ।
अणवोऽपि तथा नूनं विभुतामाधियान्ति हि ।।

(या) जो (महिमावती) महिमावती (भक्तिः) भक्ति है (सैव) वह ही (धीमहि) धीमहि (प्रोच्यते) कहलाती है। (तथा) उससे (अणवोऽपि) अणु भी (नूनं) निश्चय से (विभुतां) विभुत्व को (अधियान्ति) प्राप्त होते हैं।

गायत्री का यः शब्द उस महिमा मयी भक्ति साधना की ओर इंगित करता है जो धीमहि ध्यान करने योग्य कही जाती है। भक्ति की महिमा अपार है। सच्चे ईश्वर भक्त के लिए इस संसार में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं रह जाती, जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य ईश्वर को प्राप्त करना है और उस ईश्वर प्राप्ति का उपाय है भक्ति। इसीलिए गायत्री के गर्भ में सन्निहित योगों में भक्ति योग का भी स्थान है।

‘भक्ति’ का अर्थ है प्रेम। ईश्वर से प्रेम करना सच्ची भक्ति है। भजन भक्ति का प्रधान अंग है। भजन करने से भक्ति तत्व प्राप्त हो जाता है इतना तो अनेकों व्यक्ति जानते हैं पर यह ज्ञान बहुत थोड़े लोगों को है कि भक्ति भजन का वास्तविक तात्पर्य क्या है। आइए भक्ति और भजन की वास्तविकता पर कुछ विचार करें।

ईश्वर भक्ति की रूप रेखा

परमात्मा सर्वत्र व्यापक है, इस सत्य को जानते तो अनेक लोग हैं पर उसे मानते नहीं। व्यवहार में नहीं लाते। जो परमात्मा को सर्वव्यापी, घटघट वासी मानेगा, उसका जीवन उसी क्षण पूर्ण पवित्र, निष्पाप और कषाय कल्मषों से रहित हो जायगा। गीता में भगवान ने कहा है कि जो मेरी शरण में आता है, जो मुझे अनन्य भाव से भजता है वह तुरन्त ही पापों से छूट जाता है। निस्संदेह बात ऐसी ही है। भगवान की शरण में जाने वाला, उसकी सच्ची भक्ति करने वाला, उस पर पूर्ण आस्था रखने वाला, एक प्रकार से जीवन मुक्त ही हो जाता है।

ईश्वर की भक्ति और सच्चा जीवन एक ही वस्तु के दो नाम हैं। जो भगवान का भक्त है, जिसने सब कुछ छोड़ कर प्रभु के चरणों में आत्म-समर्पण कर दिया है, जो परमात्मा की उपासना करता है उसे जगत्पिता की सर्व व्यापकता पर आस्था जरूर होनी चाहिए। यदि यह विश्वास दृढ़ हो जाय कि भगवान जर्रे जर्रे में समाया हुआ है, हर जगह मौजूद है तो पाप कर्म करने का साहस ही नहीं हो सकता। ऐसा कौन सा चोर है जो सावधान खड़ी हुई सशस्त्र पुलिस के सामने चोरी करने का साहस करे। चोरी, व्यभिचार, ठगी, धूर्तता, दंभ, असत्य, हिंसा आदि के लिए आड़ की-पर्दे की, दुराव की जरूरत पड़ती है। जहां मौका होता है, इन बुरे कामों को पकड़ने वाला नहीं होता, वहीं इनका किया जाना संभव है। जहां धूर्तता को भली प्रकार समझने वालों, देखने वाले और पकड़ने वाले लोगों की मजबूत ताकत सामने खड़ी होती है। वहां पाप कर्मों का हो सकना संभव नहीं। इसी प्रकार जो इस बात पर सच्चे मन से विश्वास करता है कि परमात्मा सब जगह मौजूद है वह किसी भी दुष्कर्म के करने का साहस नहीं कर सकता।

बुरा काम करने वाला पहले यह भली प्रकार देखता है कि मुझे देखने वाला या पकड़ने वाला तो कोई यहां नहीं है। जब वह भली भांति विश्वास कर लेता है कि उसका पाप कर्म किसी की दृष्टि या पकड़ में नहीं आ रहा है तभी वह अपने काम में हाथ डालता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने को परमात्मा की दृष्टि या पकड़ से बाहर मानते हैं वे ही दुष्कर्म करने को उद्यत हो सकते हैं। पाप कर्म करने का स्पष्ट अर्थ यह है कि यह व्यक्ति ईश्वर का मानने का दंभ भले ही करता हो पर वास्तव में वह परमात्मा के आस्तित्व से इनकार करता है। 

उसके मन को इस बात पर भरोसा नहीं है कि परमात्मा यहां मौजूद है। यदि विश्वास होता तो इतने बड़े हाकिम के सामने किस प्रकार उसके कानूनों का तोड़ने का साहस करता? जो व्यक्ति एक पुलिस के चपरासी को देखकर भय से थर थर कांपा करते हैं वे लोग इतने दुस्साहसी नहीं हो सकते कि परमात्मा जैसे सृष्टि के सर्वोच्च अफसर की आंखों के आगे, न करने योग्य काम करें, उसके कानून को तोड़ें, उसको क्रुद्ध बनावें, उसका अपमान करें। ऐसा दुस्साहस तो सिर्फ वही कर सकता है जो यह समझता हो कि ‘परमात्मा’ कहने सुनने भर की चीज है। वह पोथी पत्रों में, मन्दिर मठों में, नदी तालाबों में या कहीं स्वर्ग नरक में भले ही रहता होगा, पर हर जगह वह नहीं है। मैं उसकी दृष्टि और पकड़ से बाहर हूं।

जो लोग परमात्मा की सर्व व्यापकता पर विश्वास नहीं करते, वे ही नास्तिक हैं। जो प्रकट या अप्रकट रूप से दुष्कर्म करने का साहस कर सकते हैं वे ही नास्तिक हैं। इन नास्तिकों में कुछ तो भजन पूजा बिल्कुल नहीं करते, कुछ करते हैं। जो नहीं करते वे सोचते हैं व्यर्थ का झंझट मोल लेकर उसमें समय गंवाने से क्या फायदा? जो पूजन भजन करते हैं वे भीतर से तो न करने वालों के समान ही होते हैं पर व्यापार बुद्धि से रोजगार के रूप में ईश्वर की खाल ओढ़ लेते हैं। कितने ही लोग ईश्वर के नाम के बहाने ही अपने जीविका चलाते हैं, हमारे देश में करीब 56 लाख आदमी ऐसे हैं जिनकी कमाई पेशा, रोजगार ईश्वर के नाम पर है। यदि वे यह प्रकट करें कि हम ईश्वर को नहीं मानते तो उनकी ऐश आराम देने वाली, बिना परिश्रम की कमाई हाथ से चली जायेगी। इसलिए उन्हें ईश्वर को उसी प्रकार ओढ़े रहना पड़ता है जैसे जाड़े से बचने के लिए, गर्मी देने वाले कम्बल को ओढ़े रहते हैं। जैसे ही वह जरूरत पूरी हुई वैसे ही कम्बल को एक कोने में पटक देते हैं। यह तिजारती लोग जनता के समझ अपनी ईश्वर भक्ति का बड़ा भारी घटाटोप बांधते हैं क्योंकि जितना बड़ा घटाटोप बांध सकेंगे उतनी ही अधिक कमाई होगी। तिजारती उद्देश्य पूरा होते ही अपने असली रूप में आ जाते हैं। पापों से खुलकर खेलते हुए एकान्त में उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती।

एक तीसरी किस्म के नास्तिक और हैं। वे प्रत्यक्ष रूप से ईश्वर के नाम पर रोजी नहीं चलाते बल्कि उलटा उसके नाम पर कुछ खर्च करते हैं। ईश्वर का आडम्बर उनके द्वारा आये दिन रचा जाता रहता है। शरीर पर ईश्वर भक्ति के चिन्ह धारण किये रहते हैं, घर में ईश्वर के प्रतीक मौजूद होते हैं, ईश्वर के निमित्त कहे जाने वाले कर्मकाण्डों का आयोजन होता रहता है। ईश्वर भक्त कहलाने वालों का स्वागत सत्कार, भेंट पूजा होती रहती है। यह सब इसलिए होता है कि लोग उनके संबंध में अच्छे ख्याल रखें, उनका आदर करें, उन्हें धर्मात्मा समझें, उनके जीवन भर के कुकर्मों की कलई न खोलें और आज भी जो उनके दुष्कर्म चल रहे हैं, वे छिपे रहें।

चौथे प्रकार के नास्तिक और हैं। वे पाप छिपाने या धन कमाने के लिए नहीं किन्तु अपने को पुजवाने के लिए, यश और श्रद्धा प्राप्त करने के लिए, ईश्वर भक्त बनते हैं। इसके लिए कुछ त्याग और कष्ट भी उठाते हैं पर भीतर से उन्हें प्रभु की सर्व व्यापकता पर आस्था नहीं होती। कुछ लोग रिश्वत के रूप में ईश्वर भक्ति को साधते हैं, अमुक भोग ऐश्वर्य की लालसा उन्हें उसी मार्ग पर ले जाती है जिस प्रकार आज कल घूसखोर हाकिमों को एक मोटी रकम झुका कर लोग मनमाना काम करवा लेते हैं और थैली खर्च करके थैला भरने में सफल हो जाते हैं। कुछ लोग तथाकथित ऋद्धि सिद्धियों और न जाने किन किन अप्रत्यक्ष वैभवों के मनसूबे बांध कर उसे प्राप्त करने की फिकर में ईश्वर का दरवाजे खटखटाते रहते हैं।

इस प्रकार प्रत्यक्षतः ईश्वर भक्त दिखाई देने वालों में भी असंख्यों मनुष्य ऐसे हैं जिनकी भीतरी मनोभूमि परमात्मा से कोसों दूर है। उनका निजी जीवन, घरेलू आचरण, व्यक्तिगत व्यवहार, ऐसा नहीं होता जिससे यह प्रतीत होता हो कि यह ईश्वर को हाजिर नाजिर समझ कर अपने को बुराइयों से बचाते हैं। ऐसे लोगों को किस प्रकार आस्तिक कहा जाय? जो पापों में जितना ही अधिक लिप्त है जिसका व्यक्तिगत जीवन जितना ही दूषित है वह उतना ही बड़ा नास्तिक है। लोगों को धोखा देकर अपना स्वार्थ साधना, छल, प्रपंच, माया, दंभ, भय, अत्याचार, कपट और धूर्तता से दूसरों के अधिकारों को अपहरण कर स्वयं सम्पन्न बनना नास्तिकता का स्पष्ट प्रमाण है। जो पाप करने का दुस्साहस करता है वह आस्तिक नहीं हो सकता, भले ही वह आस्तिकता का कितना ही बड़ा प्रदर्शन क्यों न करता हो।

ईश्वर भक्ति का जितना ही अंश जिसमें होगा वह उतने ही दृढ़ विश्वास के साथ ईश्वर की सर्व व्यापकता पर विश्वास करेगा, सबसे प्रभु को समाया हुआ देखेगा। आस्तिकता का दृष्टिकोण बनते ही मनुष्य भीतर और बाहर से निष्पाप होने लगता है। अपने प्रियतम को घट घट में बैठा कर वह सबसे नम्रता का, मधुरता का, स्नेह का, आदर का, सेवा का, सरलता, शुद्धता और निष्कपटता से भरा हुआ व्यवहार करता है। भक्त अपने भगवान् के लिए व्रत, उपवास, तप, तीर्थ यात्रा आदि द्वारा स्वयं कष्ट उठाता है और अपने प्राणवल्लभ के लिए नैवेद्य, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, भोग प्रसाद आदि कुछ न कुछ अर्पित करता ही करता है। ‘‘स्वयं कष्ट सहकर भगवान को कुछ समर्पण करना’’ पूजा की सम्पूर्ण विधि व्यवस्थाओं का यही तथ्य है।

भगवान को घट घट वासी मानने वाले भक्त अपनी पूजा विधि को इसी आधार पर अपने व्यवहारिक जीवन में उतारते हैं। वे अपने स्वार्थों की उतनी परवाह नहीं करते, खुद कुछ कष्ट भी उठाना पड़े तो उठाते हैं पर जनता जनार्दन को, नरनारायण को अधिक सुखी बनाने में वे दत्त रहते हैं। लोक सेवा का व्रत लेकर वे घटघट वासी परमात्मा की व्यावहारिक रूप से पूजा करते हैं। ऐसे भक्तों का जीवन-व्यवहार बड़ा निर्मल, पवित्र, मधुर और उदार होता है। आस्तिकता का यही तो प्रत्यक्ष लक्षण है।

पूजा के समस्त कर्मकाण्ड इसलिए हैं कि मनुष्य परमात्मा को स्मरण रखे, उसके अस्तित्व को अपने चारों ओर देखे और मनुष्योचित कर्म करे। पूजा, अर्चना, वन्दना, कथा, कीर्तन, व्रत, उपवास, तीर्थ आदि सबका प्रयोजन मनुष्य की इस चेतना को जाग्रत करना है कि परमात्मा की निकटता का स्मरण रहे और ईश्वर के प्रेम एवं श्रद्धा द्वारा लोक सेवा का व्रत रखे और ईश्वर के क्रोध से डर कर पापों से बचे। जिस पूजा उपासना से यह उद्देश्य सिद्ध न होता हो, वह व्यर्थ है। जिस उपाय से भी ‘‘पाप से बचने और पुण्य में प्रवृत्त होने’’ का भाव जाग उठे वह उपाय ईश्वर भक्ति की साधना ही है।