सद्गुरु को तो मालूम है कि जीवन क्षणभंगुर है एवं ब्रह्मांड में केवल शिव को छोड़कर सब कुछ अनित्य है। मृत्यु तो निश्चित है परिवर्तन तो होकर ही रहेगा यही अद्वैतवाद कहता है परंतु जीवन हैं यह भी सच्चाई है। जीवन की द्वैतता शक्ति आधारित है। शक्ति के महत्व को तो शिव भी नहीं नकार सकते हैं। अतः अध्यात्म केवल अद्वैतवाद पर तो नहीं चल सकता इससे तो भीषणता, क्षमता, प्रचंडता और बढ़ जाएगी। कई धर्मों में अद्वैतवाद का बोलबाला है एवं वे अपने सिद्धांतों को इतनी अति में ले जाते हैं कि स्त्री तत्व को ही नकार देते हैं और पूरी तरह से असुर हो जाते हैं। यह एकेश्वरवाद का दुष्परिणाम है एकेश्वरवाद के सिद्धांत में शक्ति उपासना की शून्यता होती है। इस तरह के अध्यात्म से कट्टरवादी एवं हिंसक प्रवृत्ति के मनुष्यों का निर्माण होता है। देवी उपासना इन धर्मों में प्रतिबंधित होती है अतः कालांतर यह पतनोमुखी हो जाते हैं। जिन समाजों में उपासक शक्ति की उपासना नहीं करते वहां का वातावरण विविधता शून्य हो जाता है।समाज में घोर अशांति हिंसा क्लेश द्वंद दरिद्रता इत्यादि का ही सृजन होता है इसके विपरीत सनातन अर्थात सदा नित्य रहने वाला धर्म शक्ति के विविध स्वरूपों की उपासना होती है एवं यह पूर्णता वैज्ञानिक धर्म होता है। शक्ति की उपासना ही "श्री" उपासना है। श्री उपासना के अंतर्गत विभिन्न मात्रृ शक्तियों की समग्रता के साथ श्रेष्ठता के साथ संपूर्णता के साथ उपासना की जाती है श्री उपासना में साधक को प्रेतत्व से मुक्ति मिलती है। श्री यंत्र क्या है?श्री यंत्र के अंतर्गत मातृशक्ति के जितने भी रुप हैं सब के सब एक साथ पुष्पगुच्छ के रूप में समाहित हैं और षोडशी रूपी मात्रृ शक्ति इन सबके बीच क्रियाशील है। अतः इसकी उपासना विभिनता एवं शांति प्रदान करती है। जीवन में प्रचुरता श्रीयंत्र की आराधना से ही आती है। मनुष्य को मालूम है कि मृत्यु निश्चित है परंतु मनुष्य श्री उपासना के द्वारा मृत्यु को ढकेलता है जीवन को स्वरूप सर्वोपयोगी बनाता है एवं मृत्यु के पश्चात भी अमरांश की प्राप्ति करता है।वह सदैव नृत्य और नूतन रूप में जनमानस के बीच अपने श्री कर्मों से स्थापित रहता है। मृत्यु के पश्चात भी क्रियाशीलता संभव है आप देखिए जिन महामानवो, वैज्ञानिकों, तत्व चिंतकों एवं जन सेवकों ने अपने जीवन काल में उपयोगी कर्म सेवाएं लाभ एवं शुभ फल उत्पादित किए हैं वह आज भी जनमानस में पूजनीय प्रशंसनीय बने हुए हैं। श्री विद्या अमरत्व की प्राप्ति है। मनुष्य की मृत्यु निश्चित है तो मनुष्य के द्वारा भी असंख्य जीवो एवं प्राकृतिक की अन्य कृतियों को भी अकाल मृत्यु अवश्यंभावी है। एक अनित्य एवं मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य अपने जीवन काल में असंख्य प्राणियों की मृत्यु का कारण बन सकता है। एक अकेला मनुष्य साक्षात यम बन सकता है एक अकेला मनुष्य महा भयानक दैत्य भी बन सकता है एवं वह अपने क्रियाकलापों सोच अविष्कार इत्यादि से सूर्य से भी ज्यादा प्रचंड ताप उत्पन्न करके इस पृथ्वी को भस्म कर सकता है।एक मनुष्य इतना श्रीवान भी हो सकता है कि असंख्ऊ जीवो को सुरक्षा, पुनर्जीवन, शांति, आनंद जैसे सर्वोपयोगी क्षण भी प्रदान कर सकता है। सूर्य तो इस पृथ्वी पर से जीवन को नहीं मिटा रहा है बल्कि अपनी ऊर्जा से जीवन को शक्ति प्रदान कर रहा है परंतु मनुष्य सृष्टि का विनाश करने पर तुला हुआ है। यहीं पर श्री उपासना की आवश्यकता निरूपित होती है। यह पृथ्वी अनंत काल से जीव का पोषण कर रही है और यहीं पर मनुष्य रूपी श्रेष्ठ अनुकृति तेजी के साथ विकसित हो रही है। पृथ्वी अकारण ही मनुष्य विहीन ना हो जाए पृथ्वी सदैव समस्त प्रकार के जीवो के रहने के लिए बनी रहे यही श्री उपासना के अंदर निहित है। हमने जीवन लिया अपने जीवन काल में श्रेष्ठताके साथ प्राप्ति करें और जाने के बाद इस पृथ्वी को अपने कर्मों के द्वारा अपनी सोच, समझ, ज्ञान इत्यादि के माध्यम से कुछ इस प्रकार का शुभ तत्व प्रदान कर दें कि आने वालोके लिए यह पृथ्वी और अधिक शांति प्रिय आनंद प्रदान करने वाली मनोहारी सृष्टि बनी रहे। हमारे काल के बाद किसी और का काल आएगा एवं वह हमें मूल्यांकन करेगा कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए क्या उपयोगी कार्य किया? क्या विरासत छोड़ी है? यही स्थिति व्यक्ति को अमरांश प्रदान करेगी। दुष्ट और असुर भी श्रृंखला से ही आते हैं ऊपर से कोई नहीं टपकता।
ऐसी श्रृंखलाएं रुके व्यक्ति चाहे तो मरुस्थल को भी उर्वरक बना सकता है नहीं तो नखलिस्तान भी रेगिस्तान बन सकता है यह है श्री विद्या। सकारात्मक शक्ति का उत्पादन सकारात्मक शक्ति का अनुसंधान एवं शोध। अध्यात्म भागने की कला नहीं है। आप हवाई जहाज देखते हैं दुकानों में समस्त भौतिक वस्तुओं को देखते हैं देखने से तो और असंतुष्टि बढ़ेगी। संतुष्टि तो तभी आएगी जब आप स्वयं हवाई जहाज में बैठ पाएंगे जिस वस्तु को देख रहे हैं उसे प्राप्त कर पाएंगे। इसी प्राप्ति के विधान के लिए श्रीयंत्र का अविष्कार किया गया है। जहां प्राप्ति होगी वही श्री का स्थापत्य होगा। मोक्ष भी प्राप्ति है सिद्धियां भी प्राप्ति है शरीर की प्राप्ति मस्तिष्क की मौजूदगी विभिन्न प्रकार के प्राप्तियो पर ही निर्भर है। अनेकों प्राप्तियों का महा संगठन है शरीर और इसी शरीर द्वारा पुनः प्राप्ति की जाती है। प्रत्येक प्राप्ति संतुष्टि की एक इकाई निर्मित करती है और इन इकाइयों से ही तृप्ति रूपी पवित्र शरीर निर्मित होगा। एक ना एक दिन तो तृप्ति आएगी ही और इसी तृप्ति से श्री की उत्पत्ति होगी। गाय जब तृप्त होगी तभी दूध देगी और यह सभी को मालूम है कि गाय के शरीर में दूध है परंतु वह सींग से नहीं निकलेगा गाय के अंदर पिंन चूभोने से दूध नहीं निकलेगा उसके लिए एक विशेष स्थान निर्धारित है वहीं से दूध का स्त्राव होगा।श्री विद्या के अंतर्गत तृप्ति का कार्य सबसे ज्यादा किया जाता है सभी तृप्त हो तभी सृष्टि में अमृत रूपी श्री शक्ति का उत्सर्जन होगा। सूर्य का प्रकाश तीक्ष्ण होगा तो कुछ दिखाई नहीं देगा बल्कि आंखें चौंधीआ जाएंगी क्षिण होगा तो अंधेरा हो जाएगा और मुश्किल होगी। षोडशी का प्रकाश दूधिया है अर्थात एक विशेष लालिमा लिए हुए इतने अति श्रेष्ठतम स्तर का है कि सब दिशाओं में सब कुछ दृश्य मान है। यही ब्रह्म मुहूर्त की विशेषता है कि तारागण भी दिखाई दे रहे हैं ध्रुव तारा भी चमक रहा है सप्तर्षी मंडल भी दृष्टिगत हो रहा है पशु पक्षी एवं अन्य दृश्य भी स्पष्ट हैं कुछ भी नहीं ऐसा है जो कि विस्मृत हो रहा है। षोडशी काल परम चैतन्य काल होता है यही एक जागृत मस्तिष्क की अवस्था होनी चाहिए दिन के बारह बजे चंद्रमा एवं नक्षत्र गण दिखाई नहीं देते। रात के बारह बजे सूर्य की लालिमा एवं वृक्ष भी दिखाई नहीं देते पर ब्रह्म मुहूर्त में सब कुछ दिखता है। मां त्रिपुर सुंदरी का प्रकाश ही ऐसा है वह तीनों लोकों को प्रकाशित करती है। वे स्वच्छ निर्मल एवं पवित्र प्रकाश है अतः वे साक्षात ब्रह्म विद्या है। श्री यंत्र की उपासना से धन-धान्य रूपी लौकिक एवं समस्त अलौकिक फलों की प्राप्ति होती है।