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"श्री" ।।

सद्गुरु को तो मालूम है कि जीवन क्षणभंगुर है एवं ब्रह्मांड में केवल शिव को छोड़कर सब कुछ अनित्य है। मृत्यु तो निश्चित है परिवर्तन तो होकर ही रहेगा यही अद्वैतवाद कहता है परंतु जीवन हैं यह भी सच्चाई है। जीवन की द्वैतता शक्ति आधारित है। शक्ति के महत्व को तो शिव भी नहीं नकार सकते हैं। अतः अध्यात्म केवल अद्वैतवाद पर तो नहीं चल सकता इससे तो भीषणता, क्षमता, प्रचंडता और बढ़ जाएगी। कई धर्मों में अद्वैतवाद का बोलबाला है एवं वे अपने सिद्धांतों को इतनी अति में ले जाते हैं कि स्त्री तत्व को ही नकार देते हैं और पूरी तरह से असुर हो जाते हैं। यह एकेश्वरवाद का दुष्परिणाम है एकेश्वरवाद के सिद्धांत में शक्ति उपासना की शून्यता होती है। इस तरह के अध्यात्म से कट्टरवादी एवं हिंसक प्रवृत्ति के मनुष्यों का निर्माण होता है। देवी उपासना इन धर्मों में प्रतिबंधित होती है अतः कालांतर यह पतनोमुखी हो जाते हैं। जिन समाजों में उपासक शक्ति की उपासना नहीं करते वहां का वातावरण विविधता शून्य हो जाता है।समाज में घोर अशांति हिंसा क्लेश द्वंद दरिद्रता इत्यादि का ही सृजन होता है इसके विपरीत सनातन अर्थात सदा नित्य रहने वाला धर्म शक्ति के विविध स्वरूपों की उपासना होती है एवं यह पूर्णता वैज्ञानिक धर्म होता है। शक्ति की उपासना ही "श्री" उपासना है। श्री उपासना के अंतर्गत विभिन्न मात्रृ शक्तियों की समग्रता के साथ श्रेष्ठता के साथ संपूर्णता के साथ उपासना की जाती है श्री उपासना में साधक को प्रेतत्व से मुक्ति मिलती है। श्री यंत्र क्या है?श्री यंत्र के अंतर्गत मातृशक्ति के जितने भी रुप हैं सब के सब एक साथ पुष्पगुच्छ के रूप में समाहित हैं और षोडशी रूपी मात्रृ शक्ति इन सबके बीच क्रियाशील है। अतः इसकी उपासना विभिनता एवं शांति प्रदान करती है। जीवन में प्रचुरता श्रीयंत्र की आराधना से ही आती है। मनुष्य को मालूम है कि मृत्यु निश्चित है परंतु मनुष्य श्री उपासना के द्वारा मृत्यु को ढकेलता है जीवन को स्वरूप सर्वोपयोगी बनाता है एवं मृत्यु के पश्चात भी अमरांश की प्राप्ति करता है।वह सदैव नृत्य और नूतन रूप में जनमानस के बीच अपने श्री कर्मों से स्थापित रहता है। मृत्यु के पश्चात भी क्रियाशीलता संभव है आप देखिए जिन महामानवो, वैज्ञानिकों, तत्व चिंतकों एवं जन सेवकों ने अपने जीवन काल में उपयोगी कर्म सेवाएं लाभ एवं शुभ फल उत्पादित किए हैं वह आज भी जनमानस में पूजनीय प्रशंसनीय बने हुए हैं। श्री विद्या अमरत्व की प्राप्ति है। मनुष्य की मृत्यु निश्चित है तो मनुष्य के द्वारा भी असंख्य जीवो एवं प्राकृतिक की अन्य कृतियों को भी अकाल मृत्यु अवश्यंभावी है। एक अनित्य एवं मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य अपने जीवन काल में असंख्य प्राणियों की मृत्यु का कारण बन सकता है। एक अकेला मनुष्य साक्षात यम बन सकता है एक अकेला मनुष्य महा भयानक दैत्य भी बन सकता है एवं वह अपने क्रियाकलापों सोच अविष्कार इत्यादि से सूर्य से भी ज्यादा प्रचंड ताप उत्पन्न करके इस पृथ्वी को भस्म कर सकता है।एक मनुष्य इतना श्रीवान भी हो सकता है कि असंख्ऊ जीवो को सुरक्षा, पुनर्जीवन, शांति, आनंद जैसे सर्वोपयोगी क्षण भी प्रदान कर सकता है। सूर्य तो इस पृथ्वी पर से जीवन को नहीं मिटा रहा है बल्कि अपनी ऊर्जा से जीवन को शक्ति प्रदान कर रहा है परंतु मनुष्य सृष्टि का विनाश करने पर तुला हुआ है। यहीं पर श्री उपासना की आवश्यकता निरूपित होती है। यह पृथ्वी अनंत काल से जीव का पोषण कर रही है और यहीं पर मनुष्य रूपी श्रेष्ठ अनुकृति तेजी के साथ विकसित हो रही है। पृथ्वी अकारण ही मनुष्य विहीन ना हो जाए पृथ्वी सदैव समस्त प्रकार के जीवो के रहने के लिए बनी रहे यही श्री उपासना के अंदर निहित है। हमने जीवन लिया अपने जीवन काल में श्रेष्ठताके साथ प्राप्ति करें और जाने के बाद इस पृथ्वी को अपने कर्मों के द्वारा अपनी सोच, समझ, ज्ञान इत्यादि के माध्यम से कुछ इस प्रकार का शुभ तत्व प्रदान कर दें कि आने वालोके लिए यह पृथ्वी और अधिक शांति प्रिय आनंद प्रदान करने वाली मनोहारी सृष्टि बनी रहे। हमारे काल के बाद किसी और का काल आएगा एवं वह हमें मूल्यांकन करेगा कि हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए क्या उपयोगी कार्य किया? क्या विरासत छोड़ी है? यही स्थिति व्यक्ति को अमरांश प्रदान करेगी। दुष्ट और असुर भी श्रृंखला से ही आते हैं ऊपर से कोई नहीं टपकता। 
                                                 
ऐसी श्रृंखलाएं रुके व्यक्ति चाहे तो मरुस्थल को भी उर्वरक बना सकता है नहीं तो नखलिस्तान भी रेगिस्तान बन सकता है यह है श्री विद्या। सकारात्मक शक्ति का उत्पादन सकारात्मक शक्ति का अनुसंधान एवं शोध। अध्यात्म भागने की कला नहीं है। आप हवाई जहाज देखते हैं दुकानों में समस्त भौतिक वस्तुओं को देखते हैं देखने से तो और असंतुष्टि बढ़ेगी। संतुष्टि तो तभी आएगी जब आप स्वयं हवाई जहाज में बैठ पाएंगे जिस वस्तु को देख रहे हैं उसे प्राप्त कर पाएंगे। इसी प्राप्ति के विधान के लिए श्रीयंत्र का अविष्कार किया गया है। जहां प्राप्ति होगी वही श्री का स्थापत्य होगा। मोक्ष भी प्राप्ति है सिद्धियां भी प्राप्ति है शरीर की प्राप्ति मस्तिष्क की मौजूदगी विभिन्न प्रकार के प्राप्तियो पर ही निर्भर है। अनेकों प्राप्तियों का महा संगठन है शरीर और इसी शरीर द्वारा पुनः प्राप्ति की जाती है। प्रत्येक प्राप्ति संतुष्टि की एक इकाई निर्मित करती है और इन इकाइयों से ही तृप्ति रूपी पवित्र शरीर निर्मित होगा। एक ना एक दिन तो तृप्ति आएगी ही और इसी तृप्ति से श्री की उत्पत्ति होगी। गाय जब तृप्त होगी तभी दूध देगी और यह सभी को मालूम है कि गाय के शरीर में दूध है परंतु वह सींग से नहीं निकलेगा गाय के अंदर पिंन चूभोने से दूध नहीं निकलेगा उसके लिए एक विशेष स्थान निर्धारित है वहीं से दूध का स्त्राव होगा।श्री विद्या के अंतर्गत तृप्ति का कार्य सबसे ज्यादा किया जाता है सभी तृप्त हो तभी सृष्टि में अमृत रूपी श्री शक्ति का उत्सर्जन होगा। सूर्य का प्रकाश तीक्ष्ण होगा तो कुछ दिखाई नहीं देगा बल्कि आंखें चौंधीआ जाएंगी क्षिण होगा तो अंधेरा हो जाएगा और मुश्किल होगी। षोडशी का प्रकाश दूधिया है अर्थात एक विशेष लालिमा लिए हुए इतने अति श्रेष्ठतम स्तर का है कि सब दिशाओं में सब कुछ दृश्य मान है। यही ब्रह्म मुहूर्त की विशेषता है कि तारागण भी दिखाई दे रहे हैं ध्रुव तारा भी चमक रहा है सप्तर्षी मंडल भी दृष्टिगत हो रहा है पशु पक्षी एवं अन्य दृश्य भी स्पष्ट हैं कुछ भी नहीं ऐसा है जो कि विस्मृत हो रहा है। षोडशी काल परम चैतन्य काल होता है यही एक जागृत मस्तिष्क की अवस्था होनी चाहिए दिन के बारह बजे चंद्रमा एवं नक्षत्र गण दिखाई नहीं देते। रात के बारह बजे सूर्य की लालिमा एवं वृक्ष भी दिखाई नहीं देते पर ब्रह्म मुहूर्त में सब कुछ दिखता है। मां त्रिपुर सुंदरी का प्रकाश ही ऐसा है वह तीनों लोकों को प्रकाशित करती है। वे स्वच्छ निर्मल एवं पवित्र प्रकाश है अतः वे साक्षात ब्रह्म विद्या है। श्री यंत्र की उपासना से धन-धान्य रूपी लौकिक एवं समस्त अलौकिक फलों की प्राप्ति होती है।

पूजन संबंधी जानने योग्य बातें ।।

(1). पंचोपचार _गन्ध , पुष्प , धूप , दीप तथा नेवैद्य द्वारा पूजन करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं।

(2). पंचामृत – दूध ,दही , घृत, मधु { शहद } तथा मिश्री [ शक्कर ] इनके मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं।

(3). पंचगव्य – गाय के दूध ,दही,घृत , मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में ‘पंचगव्य’ कहते हैं।

(4). षोडशोपचार – आवाहन् , आसन , पाध्य , अर्घ्य , आचमन , स्नान , वस्त्र , अलंकार , सुगंध , पुष्प , धूप , दीप , नैवैध्य , अक्षत , ताम्बुल तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’ कहते हैं।

(5). दशोपचार – पाध्य , अर्घ्य , आचमनीय , मधुपक्र , आचमन , गंध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने की विधि को ‘दशोपचार’ कहते हैं।

(6). त्रिधातु –सोना , चांदी और लोहा कुछ आचार्य सोना ,चांदी , तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’ कहते हैं।

(7). पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा , तांबा और जस्ता।

(8). अष्टधातु – सोना , चांदी, लोहा , तांबा , जस्ता , रांगा ,कांसा और पारा।

(9). नैवैध्य –खीर , मिष्ठान आदि मीठी वस्तुएं।

(10). नवग्रह –सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध , गुरु , शुक्र , शनि , राहु और केतु।

(11). नवरत्न – माणिक्य , मोती ,मूंगा , पन्ना , पुखराज , हीरा , नीलम , गोमेद , और वैदूर्य।

(12). अष्टगंध – अगर , तगर , गोरोचन , केसर , कस्तूरी ,,श्वेत चन्दन , लाल चन्दन और सिन्दूर { देवपूजन हेतु }
      अगर , लाल चन्दन , हल्दी , कुमकुम , गोरोचन , जटामासी , शिलाजीत और कपूर [ देवी पूजन हेतु ]

(13). गंधत्रय – सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम।

(14). पञ्चांग – किसी वनस्पति के पुष्प , पत्र , फल , छाल ,और जड़।

(15). दशांश – दसवां भाग। 1/10

(16). सम्पुट –मिट्टी के दो शकोरों को एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना।

(17). भोजपत्र – एक वृक्ष की छाल
मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकडा लेना चाहिए ,जो कटा-फटा न हो।

(18). मन्त्र धारण –किसी भी मन्त्र को स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में धारण कर सकते हैं ,परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहें तो पुरुष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण
करना चाहिए।

(19). मुद्राएँ –हाथों की अँगुलियों को किसी विशेष स्तिथि में लेने कि क्रिया को ‘मुद्रा’ कहा जाता है। मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं।

(20). स्नान –यह दो प्रकार का होता है।बाह्य तथा आतंरिक,बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान जप द्वारा होता है।

(21). तर्पण –नदी , सरोवर आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर , हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने की क्रिया को ‘तर्पण’ कहा जाता है। जहाँ नदी , सरोवर आदि न हो , वहां किसी पात्र में पानी भरकर भी ‘तर्पण’ की क्रिया संपन्न कर ली जाती है।

(22). आचमन – हाथ में जल लेकर उसे अपने मुंह में डालने की क्रिया को आचमन कहते हैं।

(23). करन्यास –अंगूठा , अंगुली , करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को ‘करन्यास’ कहा जाता है।

(24). हृद्याविन्यास –ह्रदय आदि अंगों को स्पर्श करते हुए मंत्रोच्चारण को ‘हृदय्विन्यास’ कहते हैं।

(25). अंगन्यास – ह्रदय ,शिर , शिखा , कवच , नेत्र एवं करतल – इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को ‘अंगन्यास’ कहते हैं।

(26). अर्घ्य – शंख , अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्घ्य देना कहा जाता है घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्घ्य-स्थापन कहते हैं।अर्घ्य पात्र में दूध ,तिल , कुशा के टुकड़े , सरसों , जौ , पुष्प , चावल एवं कुमकुम इन सबको डाला जाता है।

(27). पंचायतन पूजा – इसमें पांच देवताओं – विष्णु , गणेश ,सूर्य , शक्ति तथा शिव का पूजन किया जाता है।

(28). काण्डानुसमय** – एक देवता के पूजाकाण्ड को समाप्त कर ,अन्य देवता की पूजा करने को ‘काण्डानुसमय’ कहते हैं।

(29). उद्धर्तन – उबटन।

(30). अभिषेक** – मन्त्रोच्चारण करते हुए शंख से सुगन्धित जल छोड़ने को ‘अभिषेक’ कहते हैं।

(31). उत्तरीय – वस्त्र।

(32). उपवीत – यज्ञोपवीत [ जनेऊ ]।

(33). समिधा – जिन लकड़ियों को अग्नि में प्रज्जवलित कर होम किया जाता है उन्हें समिधा कहते हैं।समिधा के लिए आक ,पलाश , खदिर , अपामार्ग , पीपल ,उदुम्बर ,शमी , कुषा तथा आम की लकड़ियों को ग्राह्य माना गया है।

(34). प्रणव –ॐ।

(35). मन्त्र ऋषि – जिस व्यक्ति ने सर्वप्रथम शिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर उसे विधिवत सिद्ध किया था ,वह उस मंत्र का ऋषि कहलाता है। उस ऋषि को मन्त्र का आदि गुरु मानकर श्रद्धापूर्वक उसका मस्तक में न्यास किया जाता है।

(36). छन्द – मंत्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को ‘छन्द’ कहते हैं। यह अक्षरों अथवा पदों से बनता है। मंत्र का उच्चारण चूँकि मुख से होता है अतः छन्द का मुख से न्यास किया जाता है।

(37). देवता – जीव मात्र के समस्त क्रिया- कलापों को प्रेरित , संचालित एवं नियंत्रित करने वाली प्राणशक्ति को देवता कहते हैं यह शक्ति मनुष्य के हृदय में स्थित होती है ,अतः देवता का न्यास हृदय में किया जाता है।

(38). बीज– मन्त्र शक्ति को उद्भावित करने वाले तत्व को बीज कहते हैं। इसका न्यास गुह्यांग में किया जाता है।

(39). शक्ति*" – जिसकी सहायता से
बीज मन्त्र बन जाता है वह तत्व ‘शक्ति’
कहलाता है। उसका न्यास पाद स्थान में करते है।

(40). विनियोग**– मन्त्र को फल की दिशा का निर्देश देना विनियोग कहलाता है।

(41). उपांशु जप – जिह्वा एवं होठों को हिलाते हुए केवल स्वयं को सुनाई पड़ने योग्य मंत्रोच्चारण को ‘उपांशुजप’ कहते हैं।

(42). मानस जप – मन्त्र , मंत्रार्थ एवं देवता में मन लगाकर मन ही मन मन्त्र
का उच्चारण करने को ‘मानसजप’ कहते हैं।

(43). अग्नि की जिह्वाएँ – अग्नि की 7 जिह्वाएँ मानी गयी हैं , उनके नाम हैं –
   1. हिरण्या 2. गगना 3. रक्ता 4. कृष्णा 
   5. सुप्रभा 6.बहुरूपा एवं 7. अतिरिक्ता।

(44). प्रदक्षिणा –देवता को साष्टांग दंडवत करने के पश्चात इष्ट देव की परिक्रमा करने को ‘प्रदक्षिणा’ कहते हैं।

विष्णु , शिव , शक्ति , गणेश और सूर्य आदि देवताओं की क्रमशः 4, 1, 2 , 1, 3, अथवा 7 परिक्रमाऐं करनी चाहियें।

(45). साधना – साधना 5 प्रकार
की होती है – 
     1.अभाविनी 2. त्रासी 3. दोवोर्धी
     4. सौतकी 5.आतुरी।

     [1] अभाविनी – पूजा के साधन
तथा उपकरणों के अभाव से , मन से अथवा जल मात्र से जो पूजा साधना की जाती है , उसे‘अभाविनी’ कहा जाता है।
     [2] त्रासी –जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से अथवा मान्सोपचारों से पूजन करता है , उसे ‘त्रासी’कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है।
     [3] दोवोर्धी – बालक , वृद्ध , स्त्री ,
मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जाने वाली पूजा‘दोर्वोधी’ कहलाती है।

[4] सौतकी -- सूतक में व्यक्ति मानसिक संध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें। ऐसी साधना को ‘सौतकी’ कहा जाता है।

[5] आतुरी --रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें 
देवमूर्ति अथवा सूर्यमंडल की ओर देखकर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस पर पुष्प चढ़ाएं फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरु तथा ब्राह्मणों की पूजा करके, पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगे – ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजनकरे तो इस पूजा को ‘आतुरी’ कहा जाएगा।

(46). अपने श्रम का महत्व –पूजा की वस्तुएं स्वयं लाकर तन्मय भाव से पूजन करने से पूर्ण फल प्राप्त होता है।अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गये साधनों से पूजा करने पर आधा फल मिलता है।

(47). वर्जित पुष्पादि –
     [1] पीले रंग की कट सरैया , नाग चंपा तथा दोनों प्रकार की वृहती के फूल पूजा में नही चढाये जाते।
     [2] सूखे ,बासी , मलिन , दूषित तथा उग्र गंध वाले पुष्प देवता पर नही चढाये जाते।
     [3] विष्णु पर अक्षत , आक तथा धतूरा नही चढाये जाते।
     [4] शिव पर केतकी , बन्धुक { दुपहरिया } , कुंद , मौलश्री , कोरैया , जयपर्ण , मालती और
जूही के पुष्प नही चढाये जाते।
     [5]दुर्गा पर दूब , आक , हरसिंगार , बेल तथा तगर नही चढाये जाते।
     [6] सूर्य तथा गणेश पर तुलसी नही चढाई जाती।
     [7] चंपा तथा कमल की कलियों के अतिरिक्त अन्य पुष्पों की कलियाँ नही चढाई जाती।

(48). ग्राह्यपुष्प – 
    ~विष्णु पर श्वेत तथा पीले पुष्प , तुलसी
    ~ सूर्य , गणेश पर लाल रंग के पुष्प , 
    ~लक्ष्मी पर कमल,
    ~शिव के ऊपर आक , धतूरा , बिल्वपत्र तथा कनेर के पुष्प विशेष रूप से चढाये जाते हैं। 
    ~अमलतास के पुष्प तथा तुलसी को निर्माल्य नही माना जाता।

(59). ग्राह्य पत्र- – तुलसी , मौलश्री ,
चंपा , कमलिनी , बेल ,श्वेत कमल , अशोक ,
मैनफल , कुषा , दूर्वा , नागवल्ली , अपामार्ग ,
विष्णुक्रान्ता , अगस्त्य तथा आंवला इनके पत्ते देव पूजन में ग्राह्य हैं।

(50). ग्राह्य फल – जामुन , अनार , नींबू , इमली , बिजौरा , केला , आंवला , बेर , आम तथा कटहल ये फल देवपूजन में ग्राह्य हैं।

(51). धूप – अगर एवं गुग्गुल की धूप विशेष
रूप से ग्राह्य है ,यों चन्दन-चूरा , बालछड़ आदि का प्रयोग भी धूप के रूप में किया जाता है।

(52). दीपक की बत्तियां – यदि दीपक में अनेक
बत्तियां हों तो उनकी संख्या विषम रखनी चाहिए ।
   दायीं ओर के दीपक में सफ़ेद रंग की बत्ती तथा 
बायीं ओर के दीपक में लाल रंग की बत्ती डालनी चाहिए।

हवन ।।

अग्नि-सूक्त" ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है ।
इसके ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र है। यह विश्वामित्र के पुत्र है ।
इसके देवता "अग्नि" हैं ।
इसका छन्द "गायत्री-छन्द" है ।
इस सूक्त का स्वर "षड्जकृ" है ।
गायत्री-छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन पाद (चरण) होते हैं । इस प्रकार यह छन्द चौबीस अक्षरों (स्वरों) का छन्द होता है ।
अग्नि-सूक्त में कुल नौ मन्त्र है ।
संख्या की दृष्टि से सम्पूर्ण वैदिक संस्कृत में इऩ्द्र (250) के बाद अग्नि (200) का ही स्थान है , किन्तु महत्ता की दृष्टि से अग्नि का सर्वप्रमुख स्थान है ।
स्वतन्त्र रूप से अग्नि का 200 सूक्तों में स्तवन किया गया है । सामूहिक रूप से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में अग्नि का 2483 सूक्तों में स्तवन किया गया है ।
अग्नि पृथ्वी स्थानीय देवता है । इनका पृथिवीलोक में प्रमुख स्थान है 

अग्नि का स्वरूप
अग्नि शब्द "अगि गतौ" (भ्वादि. 5.2) धातु से बना है । गति के तीन अर्थ हैंः---ज्ञान, गमन और प्राप्ति ।
इस प्रकार विश्व में जहाँ भी ज्ञान, गति, ज्योति, प्रकाश, प्रगति और प्राप्ति है, वह सब अग्नि का ही प्रताप है ।
अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता हैः---"अग्निर्वै सर्वा देवता ।" (ऐतरेय-ब्राह्मण---1.1, शतपथ---1.4.4.10) अर्थात् अग्नि के साथ सभी देवताओं का सम्बन्ध है । अग्नि सभी देवताओँ की आत्मा हैः---"अग्निर्वै सर्वेषां देवानाम् आत्मा ।" (शतपथ-ब्राह्मणः--14.3.2.5
आचार्य यास्क ने अग्नि की पाँच प्रकार से निरुक्ति दिखाई हैः---
(क) "अग्रणीर्भवतीति अग्निः ।" मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।
(ख) "अयं यज्ञेषु प्रणीयते ।" यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।
(ग) "अङ्गं नयति सन्नममानः ।" अग्नि में पडने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है ।
(घ) "अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः । न क्नोपयति न स्नेहयति ।" निरुक्तकार स्थौलाष्ठीवि का मानना है कि यह रूक्ष (शुष्क) करने वाली होती है, अतः इसे अग्नि कहते हैं ।
(ङ) त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात् ।" शाकपूणि आचार्य का मानना है कि अग्नि शब्द इण्, अञ्जू या दह् और णीञ् धातु से बना है । इण् से "अ", अञ्जू से या दह् से "ग" और णीञ् से "नी" लेकर बना है (निरुक्तः---7.4.15)
कोई भी याग अग्नि के बिना सम्भव नहीं है । याग की तीन मुख्य अग्नियाँ होती हैंः---गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि । "गार्हपत्याग्नि" सदैव प्रज्वलित रहती है । शेष दोनों अग्नियों को प्रज्वलित किए बिना याग नहीं हो सकता ।
फलतः अग्नि सभी देवताओं में प्रमुख है ।

अग्नि का स्वरूप भौतिक अग्नि के आधार पर व्याख्यायित किया गया है 

(1.) अग्नि का रूप 
अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है---"घृतपृष्ठ"। 
इसका मुख घृत से युक्त हैः--"घृतमुख" । इसकी जिह्वा द्युतिमान् है । दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान है । केश और दाढी भूरे रंग के हैं । जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है । इसके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं । इसके नेत्र घृतयुक्त हैंः--"घृतम् में चक्षुः ।" इसका रथ युनहरा और चमकदार है । उसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं । अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं । वह अपने उपासकों का सदैव सहायक होता है ।

(2.) अग्नि का जन्म 
अग्नि स्वजन्मा, तनूनपात् है । यह अपने आप से उत्पन्न होता है । अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होता है । इसके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है । इसका अभिप्राय है कि अग्नि का जन्म अग्नि से ही हुआ है । प्रकृति के मूल में अग्नि (Energy) है । ऋग्वेद के "पुरुष-सूक्त" में अग्नि की उत्पत्ति "विराट्-पुरुष" के मुख से बताई गई हैः--"मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च ।"

(3.) भोजन
अग्नि का मुख्य भोजन काष्ठ और घृत है । "आज्य" उसका प्रिय पेय पदार्थ है । यह यज्ञ में दी जाने वाली हवि को ग्रहण करता है ।

(4.) अग्नि कविक्रतु है
अग्नि कवि तुल्य है । वह अपना कार्य विचारपूर्वक करता है । कवि का अर्थ हैः--क्रान्तदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, विमृश्यकारी । वह ज्ञानवान् और सूक्ष्मदर्शी है । उसमें अन्तर्दृष्टि है । ऐसा व्यक्ति ही सुखी होता हैः---"अग्निर्होता कविक्रतुः ।" (ऋग्वेदः---1.1.5) क्रमशः

(5.) गमन
अग्नि का मार्ग कृष्ण वर्ण का है । विद्युत् रथ पर सवार होकर चलता है । जो प्रकाशमान्, प्रदीप्त, उज्ज्वल और स्वर्णिम है । वह रथ दो अश्वों द्वारा खींचा जाता है , जो मनोज्ञा, मनोजवा, घृतपृष्ठ, लोहित और वायुप्रेरित है ।

(6.) अग्नि रोग-शोक और पाप-शाप नाशक है :
अग्नि रोग-शोक , पाप-दुर्भाव, दुर्विचार और शाप तथा पराजय का नाश करता है । इसका अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में सत्त्व और विवेकरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसके हृदय से दुर्भाव, दुर्विचार रोग-शोक के विचार नष्ट हो जाते हैं । वह व्यक्ति पराजित नहीं होता ---"देवम् अमीवचातनम् ।" (ऋग्वेदः--1.12.7) और "प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः ।" (यजुर्वेदः--1.7)

(7.) यज्ञ के साथ अग्नि का सम्बन्ध :
यज्ञ के साथ अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है । उसे यज्ञ का "ऋत्विक्" कहा जाता है । वह "पुरोहित" और "होता" है । वह देवाताओं का आह्वान करता है और यज्ञ-भाग देवताओं तक पहुँचाता हैः---"अग्निमीऴे पुरोहितम् ।" (ऋग्वेदः--1.1.)

(8.) देवताओं के साथ अग्नि का सम्बन्ध 
अग्नि के साथ अश्विनी और उषा रहते हैं । मानव शरीर में आत्मारूपी अग्नि अपनी ऊर्जाएँ फैलाए हुए हैं । अश्विनी प्राण-अपान वायु है । इससे ही मानव जीवन चलता है 
इसी प्रकार उषाकाल में प्राणायाम, धारणा और ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं । अग्नि वायु का मित्र है । जब अग्नि प्रदीप्त होकर जलती है, तब वायु उसका साथ देता हैः---"आदस्य वातो अनु वाति शोचिः ।" (ऋग्वेदः--1.148.4)

(9.) मानव-जीवन के साथ अग्नि का सम्बन्ध :
अग्नि मनुष्य का रक्षक पिता हैः---"स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव ।" (ऋग्वेदः--1.1.9) उसे दमूनस्, गृहपति, विश्वपति कहा जाता है 

(10.) पशुओं से तुलना :
यह आत्मारूपी अग्नि हृदय में प्रकट होती है । यह हृदय में हंस के समान निर्लेप भाव से रहती है । यह उषर्बुध (उषाकाल) में जागने वालों के हृदय में चेतना प्रदान करता हैः----"हंसो न सीदन्, क्रत्वा चेतिष्ठो, विशामुषर्भुत्, ऋतप्रजातः, विभुः ।" (ऋग्वेदः--1.65.

(11.) अग्नि अतिथि है 
अग्नि रूप आत्मा शरीर में अतिथि के तुल्य रहता है और सत्यनिष्ठा से रक्षा करता है । इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति सत्य का आचरण, सत्यनिष्ठ और सत्यवादी हैं, वह उसकी रक्षा करता है । यह अतिथि के समान इस शरीर में रहता है, जब उसकी इच्छा होती है, प्रस्थान कर जाता हैः--"अतिथिं मानुषाणाम् ।" (ऋग्वेदः--1.127.8)

(12.) अग्नि अमृत है 
संसार नश्वर है । इसमें अग्नि ही अजर-अमर है । यह अग्नि ज्ञानी को अमृत प्रदान करती है । अग्नि रूप परमात्मा मानव हृदय में वाद्यमान अमृत तत्त्व है । जो साधक और ज्ञानी हैं, उन्हें इस अमृतत्व आत्मा का दर्शन होता हैः---"विश्वास्यामृत भोजन ।" (ऋग्वेदः---1.44.5)

(13.) अग्नि के तीन शरीर :
अग्नि के तीन शरीर हैः--- स्थूल-शरीर सू्क्ष्म-शरीर और कारण-शरीर । हमारा अन्नमय-कोश और प्राणमय कोश वाला शरीर स्थूल शरीर है । मनोमय और विज्ञानमय कोश वाला शरीर सूक्ष्म शरीर है । आनन्दमय कोश वाला शरीर कारण शरीर हैः---"तिस्र उ ते तन्वो देववाता ।" (ऋग्वेदः--3.20.2)
अग्नि-सूक्त के मन्त्र :
(1.) ॐ अग्निमीऴे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ।।
(2.) ॐ अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ।।
(3.) ॐ अग्निना रयिमश्नवत् पोषमिव दिवेदिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ।।
(4.) ॐ अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
स इद् देवेषु गच्छति ।।
(5.) ॐ अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
देवो देवेभिरागमत् ।।
(6.) ॐ यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत् सत्यमङ्गिरः ।।
(7.) ॐ उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
मनो भरन्त एमसि ।।
(8.) ॐ राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्धमानं स्वे दमे ।।
(9.) ॐ स नः पितेव सूनवेSग्ने सूपायनो भव ।
सचस्वा नः स्वस्तये ।।
(ऋग्वेदः--1.1.1--9)
१. ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम होतारं रत्नधातमम ॥१॥
हम अग्निदेव की स्तुति करते है (कैसे अग्निदेव?) 
जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले ), 
देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज ( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवो का आवाहन करनेवाले) और याचको को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले है ॥१॥
२. अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति ॥२॥
जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि ) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥२॥ 

३. अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम् ॥३॥
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(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥३॥
४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति ॥४॥

हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥४॥
५. अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: । देवि देवेभिरा गमत् ॥५॥

हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥५॥
६. यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत् सत्यमग्ङिर: ॥६॥
हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥६॥
७. उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि॥
हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥७॥
८.राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥८॥
हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥८॥
९. स न: पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भव । सचस्वा न: स्वस्तये ॥९
हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥९॥

शयन के नियम ।।

1. सूने घर में अकेला नहीं सोना चाहिए। देवमन्दिर और श्मशान में भी नहीं सोना चाहिए। (मनुस्मृति)
2. किसी सोए हुए मनुष्य को अचानक नहीं जगाना चाहिए। (विष्णुस्मृति)
3. विद्यार्थी, नौकर औऱ द्वारपाल, ये ज्यादा देर तक सोए हुए हों तो, इन्हें जगा देना चाहिए। (चाणक्यनीति)
4. स्वस्थ मनुष्य को आयुरक्षा हेतु ब्रह्ममुहुर्त में उठना चाहिए। (देवीभागवत)
बिल्कुल अंधेरे कमरे में नहीं सोना चाहिए। (पद्मपुराण)
5. भीगे पैर नहीं सोना चाहिए। सूखे पैर सोने से लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति होती है। (अत्रिस्मृति)
टूटी खाट पर तथा जूठे मुंह सोना वर्जित है। (महाभारत)
6. नग्न होकर नहीं सोना चाहिए। (गौतमधर्मसूत्र)
7. पूर्व की तरफ सिर करके सोने से विद्या, पश्चिम की ओर सिर करके सोने से प्रबल चिन्ता, उत्तर की ओर सिर करके सोने से हानि व मृत्यु, तथा दक्षिण की तरफ सिर करके सोने से धन व आयु की प्राप्ति होती है। (आचारमय़ूख)
8. दिन में कभी नही सोना चाहिए। परन्तु ज्येष्ठ मास मे दोपहर के समय एक मुहूर्त (48 मिनट) के लिए सोया जा सकता है। (जो दिन मे सोता है उसका नसीब फुटा है)
9. दिन में तथा सुर्योदय एवं सुर्यास्त के समय सोने वाला रोगी और दरिद्र हो जाता है। (ब्रह्मवैवर्तपुराण)
10. सूर्यास्त के एक प्रहर (लगभग 3 घंटे) के बाद ही शयन करना चाहिए।
11. बायीं करवट सोना स्वास्थ्य के लिये हितकर हैं।
12. दक्षिण दिशा में पाँव करके कभी नही सोना चाहिए। यम और दुष्टदेवों का निवास रहता है। कान में हवा भरती है। मस्तिष्क में रक्त का संचार कम को जाता है स्मृति- भ्रंश, मौत व असंख्य बीमारियाँ होती है।
13. ह्रदय पर हाथ रखकर, छत के पाट या बीम के नीचें और पाँव पर पाँव चढ़ाकर निद्रा न लें।
14. शय्या पर बैठकर खाना-पीना अशुभ है।
15. सोते सोते पढना नही चाहिए।
16. ललाट पर तिलक लगाकर सोना अशुभ है। इसलिये सोते वक्त तिलक हटा दें

भगवान शिवस्वरूप आदि शंकराचार्य के द्वारा स्थापित चारमठ और दशनाम संन्यासी।।

सनातनधर्मोध्दारक ,चतुष्पीठ संस्थापक जगद्गुरु श्री आदि शंकराचार्य भगवत्पाद 

श्रीमदाद्यशंकराचार्य
 जन्म: ईसापूर्व ५०७कालूडी में     
कैलासगमन :ई.पू.४७५केदारनाथ में                    
मातृश्री:आर्याम्बा                      
पिताश्री:शिवगुरू                      
दीक्षा गुरू:श्री गोविन्दभगवत्पाद                

१:-पीठ :- श्री द्वारका शारदापीठम् , द्वारका 
देवता:-सिध्देश्वर 
देवी:-भद्रकाली 
तिर्थ:-गोमती 
वेद :- सामवेद
महावाक्य:तत्वमसि
प्रथमाचार्य:सुरेश्वराचार्य ,
संन्यासी:-तीर्थ,आश्रम
ब्रह्मचारी:स्वरूप
वर्तमानआचार्य:
स्वामी श्री स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज 

२:-पीठ:- गोवर्धनपीठ , पुरी
देवता:-जगन्नाथ
देवी:- विमला 
तीर्थ:-महोदधि
वेद :-ॠग्वेद 
महावाक्य:- प्रज्ञानंब्रह्म 
प्रथमाचार्य:-पद्मपादाचार्य
ब्रह्मचारी:-प्रकाश,
संन्यासी:-वन ,अरण्य
वर्तमान आचार्य:-
स्वामी श्री निश्चलानन्दसरस्वती जी महाराज ।

३:-पीठ:- उत्तराम्नाय ज्योतिर्मठ ( ज्योतिष्पीठ) , बदरिकाश्रम
देवता:- नारायण
देवी:- पूर्णागिरि
तीर्थ:-अलकनंदा
वेद:- अथर्ववेद
महावाक्य:- अयमात्माब्रह्म
प्रथमाचार्य:-त्रोटकाचार्य
ब्रह्मचारी:-आनन्द
संन्यासी:-गिरि,पर्वत,सागर, 
वर्तमानआचार्य:-अभी विवादित है श्री स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी व श्री स्वामी वासुदेवानन्द सरस्वती जी ।

४:- पीठ:- श्रंगेरीशारदापीठ
देवता:- आदिवाराह
देवी:- कामाक्क्षी
तीर्थ:-रामेश्वरम
वेद:- यजुर्वेद
महावाक्य:-अहं ब्रह्मास्मि
प्रथमाचार्य:- हस्तामलकाचार्य
ब्रह्मचारी:- चैतन्य, 
संन्यासी:-सरस्वती,भारती,पुरी 
वर्तमानआचार्य:-
स्वामी श्री भारती तीर्थ जी महाराज

यही चार सर्वमान्य शंकराचार्य पीठ एवं उनके वर्तमान आचार्य ( शंकराचार्य ) है।
यही हमारे सनातन वैदिक धर्म के सर्वमान्य प्रमुख धर्माचार्य हैं।