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नित्य, शुद्ध, बुद्ध ।।

         शिवानंद जी एक बहुत बड़ी योगी हुए हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के समय वह श्रीलंका में चिकित्सक के रूप में पदस्थ थे। मुख्य रूप से वे औषधि प्रदान करने वाले चिकित्सक थे। अचानक एक रात को घनघोर बारिश हो रही थी तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी सामने दरवाजे पर एक निर्धन महिला को लेकर कुछ लोग खड़े थे। वह महिला प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी उसके परिजनों ने उसे प्रसूति कराने के लिए आग्रह किया। शिवानंद जी प्रसूति चिकित्सक नहीं थे फिर भी सृष्टि ने ऐसी स्थिति रच दी कि एक ब्रह्मण को चिकित्सक के रूप में प्रसूति करवानी ही पड़ी बस प्रसूति का वह दारुण एवं हृदय विदारक दृश्य देखकर शिवानंद जी के अंदर ब्राह्मणत्व जाग उठा। उन्हें ब्रह्मांड की सच्चाई सामने दिखाई पड़ गई वह विभक्त हो गए उनका डॉक्टरी पेशे से लगाव उचट गया और निकल पड़े अध्यात्म की डगर पर। एक चिकित्सक अब सन्यासी बन चुका था यहां पर उसी स्त्री ने एक बालक को जन्म दिया। शिशु का जन्म कैसे होता है? शिशु मां से अलग तभी हो पाता है जब प्रसव वेदना होती है। शिशु और मां के बीच स्थित नाल को चाकू से काट दिया जाता है अर्थात विभाजन कर दिया जाता है अर्थात विभक्त कर दिया जाता है तभी स्वतंत्र अस्तित्व का निर्माण होता है। यह सत्य धटना हैं इस घटना में एक नहीं दो दो लोगों को प्रसूति हुई जहां एक तरफ उस महिला ने शिशु को जन्म दिया वही शिवानंद के अंदर स्थित नाल भी कट गई। वह भी विभक्त हो गए अपने तथाकथित स्वरूप से और उनके अंदर जन्म ले लिया एक सन्यास्थ शिशु रुपी शिवानंद ने। जो कि अब केवल चिकित्सक नहीं है अब वह दूसरों की चिकित्सा छोड़ स्वयं की चिकित्सा कर रहे हैं स्वयं को ठीक कर रहा है। स्वयं को सुधार लिया तो सारा जग सुधर गया ईश्वर करे किसी दिन आपकी भी नाल कट जाए और आप भी मल मूत्र से सने हुए गर्भस्थ शिशु के रूप में मुक्त होकर नित्य शुद्ध और बुद्ध बने। इन शब्दों के मर्म को अवश्य समझना । यही गुरु का कार्य है यही अवधूत क्रिया है कि वह योग शिष्य की नाल काट दे उसे बंधन मुक्त कर दे उसे नित्य शुद्ध और बुध बना दे बुध तभी बनोगे शुद्ध तभी बनेंगे नित्य तभी बनोगे जब तुम्हारे सारे बंधन को काट दिए जाएगा। हां एक एक करके सारे बंधनों को काट दिया जाएगा अवधूत तुम्हारे रोने से डरेगा नहीं वह तो नाल काटेगा ही। प्रसव के समय माता भी रोती है और शिशु भी रोता है फिर भी नाल काटी जाती है। कुछ क्षण बाद दोनों हंसते खिलखिलाते हैं माता भी प्रसन्न होती है और शिशु भी खिल खिलाता है पर शुरू शुरू में दोनों रोते हैं। यही सद्गुरु का कार्य है उनके कार्य में प्रचंडता तो है निर्मलता तो है पर कल्याण इसी में है।
         विभक्ताअस्त्र प्रदान करते हैं दत्तात्रेय। आप के पास ₹50000 आएगा 5 दिन में साफ हो जाएगा। आप विभक्त आस्त्र से नहीं बच सकते हो। जवानी आएगी आप अपने कर्मों से उसे विभाजित कर लोगे। जितना ज्यादा विभाजित होगी उतनी जल्दी बुड्ढे हो जाओगे। हर महीने तनख्वाह पाते हो 5 दिन में विभाजित हो जाती है।100 कोई ले जाएगा 500 कोई ले जाएगा देखते ही देखते सब कुछ विभाजित हो जाएगा और विभाजित कर भी देना चाहिए नहीं तो व्यक्ति रावण बन जाएगा। एक मस्तिष्क में इतनी ऊर्जा होती है कि अगर वह विभाजित ना की जाए तो एक व्यक्ति को यह पृथ्वी नहीं संभाल सकती एक व्यक्ति के लिए यह पृथ्वी छोटी पड़ जाएगी पृथ्वी तो क्या यह ब्रह्मांड भी छोटा पड़ जाएगा ऊर्जा को विभाजित कर ही दिया जाता है। सूर्य की प्रचंड किरणें अगर विभाजित ना की जाए तो भगवान जाने क्या होगा? मनुष्य तो क्या ग्रह भी भस्म हो जाएंगे एक पिता ने उसे कुछ संताने और संतानों से संताने जैसे-जैसे विभाजन होता जाएगा वैसे-वैसे मृत्यु होती जाएगी और पृथ्वी की शुद्धता बनी रहेगी नित्यता बनी रहेगी प्रबुद्धत्ता बनी रहेगी। जिस बुद्ध भगवान की जनता पूजा करती है वह विभक्त अस्त्र में ही प्रांगत हैं। पिछले 10000 वर्षों का इतिहास उठाकर देख लो प्रतिक्षण विभाजन किया जाता है दुनिया भर के गुरु साधक अवतार धर्म पंथ इन 10000 वर्षों में निर्मित हुए हैं पर यह सब कहां चले गए। लाखों-करोड़ों लोगों ने एक धर्म को अपनाया एक सिद्धांत को अपनाया फिर क्यों नामोनिशान मिट गया? क्यों बड़े-बड़े साम्राज्य मिट्टी में मिल गए? एकीकरण की कोशिश तो होती ही रहती है। संप्रदाय बनाने की गतिविधियां तो चलती ही रहती है परंतु ऊपर से दत्त गुरु विभक्तास्त्र भी चलाते रहते हैं। सब कुछ प्रतिध्वनि है। एक गूंज की अनुगूंज है एक छाया की प्रति छाया है और इन सब के मूल में ही विभक्तास्त्र डाल दिया जाता है। ‍। क्रमशः

             जिव की अनुवांशिक संरचना में ही विभक्तास्त्र होता है । विभक्तास्त्र तक नहीं होता तो जन्म भी नहीं होता। माता के पेट से अलग भी नहीं होता प्रजनन ही विभक्त अस्त्र है। जो इस विभक्तास्त्र को समझ जाते हैं वहीं दत्त गुरु के शिष्य कहलाने योग्य होते हैं। वहीं आप हैं उनका काम ही विभाजन है और विभाजन ही शुद्धता देता है समुद्र का जल विभाजित कर दो उसे वास्तव में बदल दो शुद्ध होने दो। अध्यात्म में तो वर्षा के बादलों को भी अंतरिक्ष समुद्र कहा गया है। नदियों को भी रुकने की इजाजत नहीं दी गई है रुकोगे तो सुख जाओगी। भलाई इसी में है कि समुद्र में मिल जाओ। अगर एक दांत खराब हो गया है तो वह सारे शरीर को तकलीफ देगा मुंह से दुर्गंध आएगी अतः निकलवा देना चाहिए। चार सांस हो परंतु उच्च श्रेणी की हो जीवन से साल 2 साल कम हो जाए परंतु जीवन श्रेष्ठ हो। घसीट घसीट कर रो रो कर जीना अवधूति जीवन नहीं हो सकता यही श्री की उपासना है की अलक्ष्मी को हटा दिया जाए दुख दरिद्रता का दहन कर दिया जाए। विभक्त अस्त्र का प्रचंड प्रयोग किया जाए और दुख को भी विभाजित कर दिया जाए खंड खंड कर दिया जाए। उसके अस्तित्व को नगर ने बना दिया जाए। एक बालक को जन्म देने में कितनी प्रसव पीड़ा होती है? अगर एक स्त्री को 100 बालकों को जन्म देना पड़े तब क्या होगा? अतः कम से कम 60 70 स्त्रियों को 100 बालकों की उपस्थिति दर्ज कराने हेतु प्रसव पीड़ा झेलने दी जाए इससे पीड़ा के क्षण कम हो जाएंगे। कार्य का विभाजन कर देना चाहिए जिससे मजदूरी कम करनी पड़ती है। मजदूर क्या है? सुबह गड्ढा खोदता है शाम को रोटी मिलती है। मुझे बड़ी हंसी आती है आध्यात्मिक मजदूरों को देखकर 99% तांत्रिक तांत्रिक, साधक सब के सब आध्यात्मिक मजदूर हैं। दिन रात मजदूरी करते रहते हैं यह मंत्र वह मंत्र यह साधना व अनुष्ठान गधों को उपहार में कुछ मिलता ही नहीं है उपहार लेना जानते ही नहीं हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में उपहार कौन देगा? अध्यात्म के क्षेत्र में उपहार मिलेगा गुरु के द्वारा। दत्त गुरु के द्वारा जब उपहार में मंत्र मिलेगा तो फिर 11 बार जपने से ही काम हो जाएगा। गुरु जब उपहार में दे देगा आशीर्वाद देगा तो फिर कुछ मजा आएगा नहीं तो बस किराए के मजदूर बने रहोगे। भाई हमने तो उपहार में पाया है इसलिए इसका महत्व समझ रहे हैं। हमने मजदूरी नहीं की है और ना ही मजदूरी करने की इच्छा है। आजकल यह बहुत हो रहा है कि आप पैसा दो अनुष्ठान करा लो। तांत्रिक महाराज से कुछ क्रिया करवा लो ठीक है वह सब के सब आध्यात्मिक मजदूर हैं दिहाड़ी पर काम करते हैं इसलिए इन्हें गुरु नहीं कहा जा सकता क्योंकि इनके पास सामर्थ्य नहीं है जो खुद मजदूर है पैसे पर काम करता है शाम होते ही जिसे रोटी की चिंता होती है वह किसी का काम क्या करेगा? वह तो खुद विभक्तास्त्र से पीड़ित है। सतगुरु की कदापि कृपा नहीं है उसके पास है ही नहीं अन्यथा मजदुरी क्यों करता? कहीं मस्त बैठा अलख जगा रहा होता किसी का कार्य करना कदापि स्वीकार नहीं करता।जिसने गुलामी की जिसने मजदुरी की जिसने अपने आप को बेचा उसकी आध्यात्मिक क्षेत्र में केवल गधे जैसी दुर्गति होती है। उससे खूब बोझ डुलवाया जाता है धोबी का गधा जब तक जीवित होता है तब तक बोझ ढोता है। बात कड़वी है बहुत तीखी है पढ़कर आपकी छाती में ऐठन मचने लगेगी और मैं यही चाहता हूं कि खूब जोर से गुस्सा आए। आप तिलमिला उठे और एक झटके में सब कुछ उठा कर फेंक दो एवं निर्भय हो जाओ।आप पर मेरे विभक्तास्त्र का प्रभाव पड़ जाए तब जाकर आप वास्तविक अध्यात्म रस का पान कर पाओगे। आपके पैरों में पड़ी मानस में पड़ी घटिया धार्मिक बेड़ियां एक झटके में टूट जाएगी। आप मुक्त हो जाओगे समस्त और अवरोधो से नहीं तो आप की शुद्धि नहीं होगी। एक कहानी सुनाता हूं एक बार गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ दोनों जा रहे थे रास्ते में एक किसान भरी दोपहर मे अकाल गस्त जमीन पर हल चला रहा था पानी नहीं था फिर भी हल चला रहा था। गुरु और चेले ने उसे भोजन मांगा उसके पास जो भोजन था उसने उन दोनों को दे दिया गुरु चेला तृप्त होकर बोले किसान भोजन के बदले हमसे कुछ मांग लो। किसान बोला तुम खुद तो दरिद्र हो मुझे क्या दोगे? एक नहीं 50 बार गुरु चेला किसान से कुछ मांगने को कहते रहे रहे गुस्से में किसान ने डंडा उठा लिया गोरखनाथ और मत्स्येंद्रनाथ को जीवन में पहली बार इतनी उल्टी खोपड़ी का आदमी मिला था। फिर गुरु चेला बोले अच्छा भाई तुम तो कुछ मांग नहीं रहे हम ही तुमसे कुछ मांग लेते हैं। किसान बोला ठीक है मांग लो वह बोले आज से तुम्हारे मन में जो भी विचार आए तुम उसका उल्टा करना हम 12 वर्ष बाद फिर मिलेंगे।

                 अब अड़बंग नामक किसान को भूख लगे तो वह भूखा रहे नींद आए तो खड़ा हो जाए रोना आए तो हंसे मल त्याग करने की इच्छा हो तो मूत्र त्याग करें खैर 12 वर्ष बाद गुरु चेला फिर वापस आए उन्होंने देखा किसान आक्षरनस: से हमारी आज्ञा का पालन कर रहा है। वे अपने प्रत्यभिज्ञा शक्ति से समझ गए कि हो ना हो हमारे दत्तगुरु ने एक नया नाम रख दिया है। मत्स्येंद्रनाथ बोले भाई तुम बहुत महान हो हम तुम्हें अपना गुरु बनाना चाहते हैं। अडंबंग जी तुरंत बोल उठे मैं तुम्हारा गुरु क्यों बनूं? तुम मेरे गुरु बनो बस यही तो मत्स्येंद्र नाथ जी सुनना चाह रहे थे। उन्होंने दूसरे ही क्षण अडंबंग को गुरु दीक्षा दे दी और इस प्रकार नौ नाथो में से एक अड़बंगनाथ का उदय हुआ। अध्यात्म के क्षेत्र में वही चलता है जो जीवनत होता है जीवनत और जिद्दी आदमी ही जीवन में कुछ कर पाता है। जुझारू जुनून अत्यंत ही विलक्षण शक्ति है जो जितना ज्यादा जुझारू होगा जितना ज्यादा जुनूनी होगा वह उतना ही विभक्तास्त्र तो चलाने में माहिर होगा। जब जब सनातनी धारा में धर्म संप्रदाय इत्यादि का उदय होता है नाथ रूपी शक्ति तुरंत ही उन्हें विभाजित कर देते हैं।आदि गुरु शंकराचार्य जी ने भी अंत में नाथ संप्रदाय में दीक्षा प्राप्त कर ली थी तभी उन्होंने बिंदुनाद नामक महा ग्रंथ अपने जीवन के अंतिम काल में लिखा। गुरु बिंदु है और शिष्य उस बिंदु की प्रतिध्वनि प्रतिध्वनि फैलाती जाएगी और अंत में विलीन हो जाएगी।प्रतिध्वनि विभाग शास्त्र से युक्त होती है स्वयं में विभाजित होती है और स्वयं भी विभाजित करती जाती है। अगर प्रतिध्वनि विभाजित ना हो तो कान फट जाएंगे आप तक आने से पहले ही ध्वनि अत्यधिक विभाजित हो जाती है। आपके प्रत्येक पंचेइंद्रिय अंग में विभाजन के यंत्र लगे हुए होते हैं। आप श्वास लेते हैं हृदय तक केवल शुद्ध वायु ही पहुंच पाती है नासिका और हृदय के बीच लगे तमाम जैविक यंत्र शुद्धता को रोक देते हैं। ऑक्सीजन के अलावा कुछ भी हृदय तक नहीं पहुंच पाता मस्तिष्क तक प्रत्येक पंचेइंद्रीयाँ केवल संवेग ही पहुंचाती है सब कुछ बीच में ही विभाजित कर दिया जाता है। भोजन जैसे ही करते हो उसके एक-एक लवण खनिज और अन्य तत्वों को संपूर्ण पाचन तंत्र विभाजित करके के रख देता है। मल का निष्कासन कहीं और से होता है मूत्र का निष्कासन कहीं और से होता है। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है कि आपकी नित्यता शुद्धता और बुद्धता बनी रहे। आप एक पुस्तक पढ़ते हैं सभी कुछ आपको थोड़ी याद रहता है हो सकता है एक लेख में बहुत कुछ कचरा हो अनावश्यक हो वह सब अपने आप निष्कासित हो जाता है। हम लोग के पास इतना समय नहीं होता कि किसी पुस्तक या ग्रंथ को पूरा पढ़ पाए। ऐसी स्थिति में एक क्रिया की जाती है पांच 7 दिन तक उस ग्रंथ या पुस्तक को सिरहाने रख कर सो जाया जाता है पांच 7 दिन के भीतर मस्तिष्क स्वयं उस पुस्तक के मूल तत्वों को निद्रित अवस्था में ग्रहण कर लेता है यही कारण है कि आप अपने पूजा घर में दिव्य ग्रंथ रखें आप कुछ ही दिनों में देखेंगे कि उस ग्रंथ में लिखी बातें आपका मस्तिक स्वयं ग्रहण कर रहा है यह बहुत सामान्य सी बात है मस्तिष्क की क्षमताएं अनंत है
    आप एक-एक करके इन तक पहुंचीए आध्यात्मिक ग्रंथ या आध्यात्मिक लेखन क्रियात्मक होते हैं यह स्वयं क्रिया करते हैं स्वयं प्रतिध्वनि उत्पन्न करते हैं यह जीवित जागृत होते हैं क्योंकि इनका निर्माण परम आध्यात्मिक व्यक्तित्व करते हैं यह अत्यंत ही गोपनीय विद्या है। मस्तिष्क स्वयं विभाजन कर देता है वह स्वयं सब कुछ निकाल कर बाहर फेंक देता है विभाजन ही उसका स्वभाव है उसे बहुत जल्दी ऊब होने लगती है।वह एक कार्य को ज्यादा समय तक नहीं कर सकता यह स्वास्थ्य मस्तिष्क की पहचान है स्वस्थ मस्तिष्क चेतन मस्तिष्क नित्य शुद्ध और बुध मस्तिष्क ज्यादा पचड़ो में नहीं पड़ते।वह अति शीघ्र रिश्तो संबंधो मोहमाया प्रपंच इत्यादि से स्वमेव मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। विभाजन कि इसी प्रक्रिया को दत्त गुरु एवं उनका गुरु संप्रदाय प्रतिक्षण शक्ति प्रदान करता है इसी कारणवश जीवन बहुरंगी बहु आयामी अति विस्तृत और मनोरंजक बना हुआ है अन्यथा भाग्य में सिर्फ मजदूरी ही मजदूरी बची रहेगी। 

          मस्तिष्क को तलाश होती है शुद्ध ऊर्जा स्रोतों की मस्तिष्क को तलाश होती है कुछ नए पाने की आपको भी तलाश है कुछ नया पढ़ने की सडा जला मस्तिष्क दत्तगुरु की शक्ति से विहीन मस्तिष्क बस सड़ी गली बातें करेगा नया कुछ नहीं देगा।नया नहीं मिल रहा है अर्थात मस्तिष्क सड़ने लगा है सनातनी धारा में नए नए विचारों का नित्य उदय होता रहता है यह देश रंग बिरंगा है यह किसी को ज्यादा मुंह नहीं लगाता कितने संप्रदाय बने भारत भूमि पर किसी एक का झंडा नहीं गड़ा किसी एक पैगंबर के पीछे लोग दीवाने नहीं हुए किसी एक अवतार की माया यहां नहीं चलती। अवतार देवी देवता आते जाते रहेंगे संप्रदाय आते जाते रहेंगे गुरु महाराज आते जाते रहेंगे। सब के सब विभक्त हो जाएंगे जो विभक्त नहीं होगा उसे मोक्ष कैसे मिलेगा? जिस गुरु का विलीनीकरण नहीं होगा वह महा अवधूत कैसे बन पाएगा? गुरु की अमानत है शिष्य क्योंकि वही उसकी प्रतिध्वनि है वो ही उसे मुक्त कराएगा सद्गुरु की मुक्ति ही उसकी सर्वज्ञता ही है। सर्वज्ञता विभक्तिकरण के द्वारा ही प्राप्त होती हैकिसी आश्रम से प्रमाण पत्र नहीं लेना पड़ेगा। वे सर्वज्ञ हैं सब की अमानत है इसलिए नित्य शुद्ध और बुध्द हैं। नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर के समीप उन्मुक्त भैरव का एक मंदिर है। यहां पर कामातुर भैरव की नग्न मूर्ति कई हजार वर्षों से स्थापित है। प्रसाद के रूप में लोग यहां से भैरो जी की मूर्ति के फोटो ले जाते हैं। भैरव अत्यंत ही प्रचंड देव हैं फिलहाल कुछ वर्षों में नेपाल राज परिवार में तथाकथित सामाजिक मर्यादाओं के चलते अनंत काल से चली आ रही इस परंपरा को शालीनता के नाम पर रोकने की कोशिश की। देव कार्यों में हस्तक्षेप किया जिसके भीषण परिणाम सामने हैं उनका बाकी आप खुद ही समझदार हैं। प्राचीन सास्वत परम सत्य आध्यात्मिक धाराओं में कदापि हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए वरना इतना भयानक विभक्तास्त्र चलता है कि समस्त वंश, कूल देश इत्यादि अनंत ब्रह्मांड में विलीन हो जाते हैं इसे आप प्रलय भी कह सकते हैं। विभक्तास्त्र का अंतिम बिंदु है प्रलयास्त्र इसका भी एक ही मकसद है इस सृष्टि को नित्य बुध्द और शुद्ध रखना।

     ‌‌ शिव शासनत: शिव शासनत:

महाअवधूतम् ।।

        एक तरफ वेदांत दर्शन है तो दूसरी तरफ शैव दर्शन कालांतर इन दोनों में भी सम्मिश्रण हुआ शैवालम्बियो ने विष्णु को अपनाया तो वही वेदांती होने रूद्र को अपनाया। इन दोनों के बीच एक और आध्यात्म की श्रृंखला है जो कि ब्रात्य कहलाते हैं। यह ना तो वेदांत दर्शन में लिप्त हैं और ना ही शैव दर्शन में लिप्त है। यह श्रंखला विश्व के सभी धर्मों की रीढ़ की हड्डी है । प्राचीन काल में भी इन्होंने किसी और अवतार किसी ग्रंथ किसी धार्मिक समूह या परंपरा के प्रति अपनी लिप्तता प्रदर्शन नहीं की है। यह है योग मार्ग यह सभी धर्मों को समय-समय पर सीख देते रहते हैं एवं उनका पुनरुद्धार भी करते रहते हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें विभक्त कर उन्हें नष्ट कर फिर से कुछ नया उदित करवा देते हैं। अवतार एक विशेष कार्य के लिए शक्ति से सम्पुट होता है। राम रावण वध के लिए अवतरित हुए और फिर शरीर त्याग दिया। कृष्णा अपनी कला दिखाकर प्रस्थान कर गए एक काल विशेष में कृष्ण अति सक्रिय रहे हैं कृष्ण द्वापर से बंधे हुए हैं राम त्रेता से बंधे हुए हैं। प्रत्येक अवतार के ऋणात्मक और धनात्मक प्रभाव निश्चित ही होते हैं और उसकी प्रासंगिकता भी काल के अधीन होती है। विष्णु के 24 अवतार हुए हैं। इनमें से अनेकों तिर्यक योनि के हैं। नरसिंह अवतार में तो वह हिरण्यकश्यप के वध के पश्चात अत्यंत उग्र हो गए थे इसलिए सृष्टि को उन्हें पटल से हटाना पड़ा। आप इसकी व्याख्या इस प्रकार से भी कर सकते हैं कि अवतारों की क्रियाशीलता एक युग के बाद कम कर दी जाती है। यह कल्प ज्ञान का विषय है। देवता युग में जब प्रभु श्री राम आए तो उन्होंने स्वयं कहा है कि यह मेरा राम अवतार के रूप में 99 बार आना हुआ है और हनुमान तुम भी मेरे साथ 99 बार आ चुके हो। जब कल्प बदलेगा पुनः वापस आएगा और फिर से राम का सशरीर अवतार होगा। उसके बाद द्वापर में या फिर कलयुग में श्री राम के अवतार की प्रासंगिकता नहीं होगी। अवतार भी यंत्रवत है एवं जिस प्रकार यंत्र परिष्कृत होते रहते हैं उसी प्रकार अवतारों के स्वरूप भी परिष्कृत होते रहते हैं। यही हाल धर्मों का भी होता है।आखिरकार कौन सी ताकत धर्म समाज अवतार, ग्रंथ, परंपराओं, मान्यताओं, देश इत्यादि को अप्रासंगिक होने पर नष्ट कर देती है। यह ताकत ही महाअवधूत शक्ति कहलाती है। महाअवधूत वही है जिसे की पहचाना ना जा सके जिसके स्थान की जानकारी ना हो जो भी पहुंच से दूर हो जिसका की स्थापत्य ना किया जा सके। अगर इनमें से एक भी क्रिया हो गई तो महा अवधूत भी अप्रासंगिक हो जाएगा। दत्तात्रेय की पूजा अत्यंत ही विलक्षण है बिना किसी तामझाम के बिना दिशा ज्ञान के बिना काल ज्ञान के कहीं भी उनका नाम लेकर धूल उड़ा दो पुष्प चढ़ा दो दीपक रख दो इत्यादि वे ग्रहण कर लेंगे क्योंकि वे महाअवधूत है। उनका रूप समझ पाना किसी के बस में नहीं है ब्रह्मांड के ताप से भी अप्रभावित रहते हैं। कालांतर इन्हीं के द्वारा दीक्षित महामानवों ने नाथ के रूप में कुछ हल्की सी पहचान बनाई। हनुमान ने कानों में कुंडल पहन लिए सभी आर्य अवतारों ने कान में कुंडल पहन लिए इसका सीधा तात्पर्य है कि वे महाअवधूत की शक्ति से संस्पर्शितत हुए हैं। कृष्ण और रुक्मणी के विवाह को तो महाअवधूत नहीं मान्यता प्रदान की है। आम जनता आध्यात्म मे जल्दी विश्वास नहीं करती। वह हर घटना को भौतिक चक्षुओं से देखना ज्यादा पसंद करती है इसलिए चमत्कार, कौतुक, इंद्रजाल एवं अलौकिक स्थितियों को निर्मित करना पड़ता है सदृश्य रूप से। आम मानव मस्तिष्क को चमत्कार दिखाने ही पढ़ते हैं। अद्वैतवाद के सिद्धांत पर चलकर धर्म की स्थापना नहीं की जा सकती। थक हार कर कृष्णचंद्र को भी अर्जुन के समक्ष विराट स्वरूप उत्पन्न ही करना पड़ा। यही सब गोरखधंधे हर गुरु को करने पड़ते हैं। परकाया प्रवेश के बारे में बात की तो शंकराचार्य को सार्वजनिक रूप से परकाया प्रवेश करके दिखाना पड़ा। प्रत्यक्षीकरण नितांत आवश्यक है।किसी से कह दिया कि तुम्हें ईस्ट दर्शन होगा तो परिणाम अवश्य देना पड़ेगा। अतः गुरुओं को योग साधना करनी पड़ती है। योग बल के द्वारा ही चमत्कार किए जा सकते हैं।जब अर्जुन ने विराट स्वरूप देखा तभी वह कृष्ण के चरणों में भगवान भगवान कहता हुआ लिपटा। चमत्कार नहीं दिखा सकते तो फिर गुरु के रूप में कभी मान्यता नहीं मिलेगी। चमत्कार कौन दिखा पाएगा? वही जिसके शब्दों को काटने की ताकत किसी में ना हो समस्त प्रकृति जिसके हस्तगत हो सर्वशक्तिमान और सर्व नियंत्रक बनने की प्रक्रिया है। जो कुछ है हम ही हैं हमसे आगे कुछ भी नहीं है।योग बल को सिद्ध करो कुछ करके दिखाओ उनके जीवन में परिणाम देकर बताओ एवं उन्हें धूल से फूल बना दो। यही दत्तात्रेय का संदेश है। चमत्कार को नमस्कार है।

शिवरात्रि से आरम्भ करें "ॐ नमः शिवाय" का जाप और पाएं अद्भुत परिणाम ।।


मंत्र जप एक ऐसा उपाय है जिससे सभी समस्याएं दूर हो सकते हैं। शास्त्रों में मंत्रों को शक्तिशाली और चमत्कारी बताया गया है। सनातन धर्म के सबसे शक्तिशाली मंत्र और प्रभावी मंत्र का अर्थ और उनका जाप करने से होने वाले फायदे के बारें में आज हम आपको बताएगें। आज हम बताएंगे भगवान शिव के शरणाक्षर मंत्र "ॐ नमः शिवाय" की। शिवपुराण में "ॐ नमः शिवाय" को ऐसा मंत्र बताया गया है कि "ॐ नमः शिवाय" मंत्र के जप से सारी मनोकामनाएं पूरी कर सकते हैं। वैसे तो सभी मंत्र अपना प्रभाव रखते हैं।

ॐ नमः शिवाय मंत्र का अर्थ 

'"ॐ नमः शिवाय'" मंत्र एक महामंत्र है। केवल एक मंत्र का जाप करने से आप अपने जीवन में सफल हो सकते हैं। शिव पुराण में इस मंत्र को शरणाक्षर मंत्र भी कहा गया है। क्योंकि इसका निर्माण प्रलव मंत्र ओम के साथ नम: शिवाय पंचाछर मंत्र का मेल करने पर हुआ है। शिव पुराण में बताया गया है कि इस मंत्र के महत्व का वर्णन सौ करोड़ वर्षो में भी संभव नहीं है। ॐ नमः शिवाय का अर्थ है। घृणा, तृष्णा, स्वार्थ, लोभ, ईर्ष्या, काम, कोध्र, मोह, माया और मद से रहित होकर प्रेम और आन्नद से परिपूर्ण होकर परमात्मा का शानिध्य प्राप्त करें।

ॐ नमः शिवाय' मंत्र का जप करने का समय 

वेद पुराणों में इस चमत्कारी मंत्र का जप करने का कोई खास समय निर्धारित नहीं है। इस मंत्र को जब चाहे तब जप कर सकते हैं।

ॐ नमः शिवाय मंत्र जपने की विधि 

इस मंत्र का जाम प्रत्येक दिन रुद्राक्ष की माला से करना चाहिए।

ॐ नमः शिवाय मंत्र का जाप कम से कम 108 बार प्रत्येक दिन करना चाहिए।

जप हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए।

यदि आप किसी पवित्र नदी के किनारे शिव लिंग की स्थापना और पूजन के बाद जप करेंगे उसका फल सबसे उत्तम होगा। इसके अलावा आप किसी पर्वत या शांत वन में भी इस मंत्र का जाप कर सकते हैं। साथ ही इस शारणाक्षर मंत्र का जाप शिवाय या घर में भी कर सकते हैं।

ॐ नमः शिवाय मंत्र का जाप हमेशा योग मुद्रा में बैठकर ही करना चाहिए।

 ॐ नमः शिवाय' मंत्र का जाप करने का नियम 

इस मंत्र को गुरू से प्राप्त करें। इस मंत्र जब ज्यादा असरदार और मंगलकारी बनता है। देवालय, तीर्थ या घर में शांत जगह पर बैठकर इस मंत्र का जाप करें। पंचाक्षरी मंत्र यानी नम शिवाय के आगे हमेशा ॐ लगाकर जप करें। किसी भी हिंदू माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि यानी पहले दिन से कृष्ण पक्ष की चतुर्थदशी तक इस मंत्र का जाप करें। पंचाक्षरी मंत्र की अवधि में व्यक्ति खानपान, वाणी, और इंद्रियों पर पूरा सयम रखें। गुरू पति और माता पिता के प्रति सेवाभाव और सम्मान मंत्र जप काल के दौरान न भूलें। हिंदू पंचांग के सावन, माग्मा और भाद्रपद माह में बहुत शुभ और मनोरथ की पूर्ति करने वाला माना गया है।

 ॐ नमः शिवाय' मंत्र के फायदे 

इस मंत्र का जप करने से धन की प्राप्ति होती है और शत्रुओं पर विजय प्राप्त होती है।

अगर संतान न हो तो संतान प्राप्ति के लिए इस मंत्र का जाप किया जाता है। 

इस मंत्र के जाप से सभी कष्ट और दुख समाप्त हो जाते हैं और मनुष्य पर महाकाल की असीम कृपा बरसने लगती है।
                           शिव शासनत: शिव शसनत:

बाणलिङ्गकवचम् ।।

इस कवच के शिवरात्रि को 108 पाठ से शिवलोक प्राप्ति, रोग नाश, शोक नाश, प्रचुर धन व सुख प्राप्त होता है। 

 ध्यान दें, नर्मदा जी से प्राप्त शिवलिंग को ही बाणलिंग भी कहते हैं। 

ॐ अस्य बाणलिङ्ग कवचस्य संहारभैरवऋषिर्गायत्रीच्छन्दः, हौं बीजं, हूं शक्तिः, नमः कीलकं, श्रीबाणलिङ्ग सदाशिवो देवता,
ममाभीष्ट सिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः ॥

ॐ कारो मे शिरः पातु नमः पातु ललाटकम् ।
शिवस्य कण्ठदेशं मे वक्षोदेशं षडक्षरम् ॥ १॥

बाणेश्वरः कटीं पातु द्वावूरू चन्द्रशेखरः ।
पादौ विश्वेश्वरः साक्षात् सर्वाङ्गं लिङ्गरूपधृक् ॥ २॥

इतिदं कवचं पूर्व्वं बाणलिङ्गस्य कान्ते
पठति यदि मनुष्यः प्राञ्जलिः शुद्धचित्तः ।
व्रजति शिवसमीपं रोगोशोकप्रमुक्तो
बहुधनसुखभोगी बाणलिङ्ग प्रसादतः ॥ ३॥

इति बाणलिङ्ग कवचं समाप्तम् ॥

श्रीयंत्र साधना ।।

चतुर्भिः शिवचक्रे शक्ति चके्र पंचाभिः।
नवचक्रे संसिद्धं श्रीचक्रं शिवयोर्वपुः॥

श्रीयंत्र का उल्लेख तंत्रराज, ललिता सहस्रनाम, कामकलाविलास , त्रिपुरोपनिषद आदि विभिन्न प्राचीन भारतीय ग्रंथों में मिलता है। महापुराणों में श्री यंत्र को देवी महालक्ष्मी का प्रतीक कहा गया है । इन्हीं पुराणों में वर्णित भगवती महात्रिपुरसुन्दरी स्वयं कहती हैं- ‘श्री यंत्र मेरा प्राण, मेरी शक्ति, मेरी आत्मा तथा मेरा स्वरूप है। श्री यंत्र के प्रभाव से ही मैं पृथ्वी लोक पर वास करती हूं।’’

श्री यंत्र में २८१६ देवी देवताओं की सामूहिक अदृश्य शक्ति विद्यमान रहती है। इसीलिए इसे यंत्रराज, यंत्र शिरोमणि, षोडशी यंत्र व देवद्वार भी कहा गया है। ऋषि दत्तात्रेय व दूर्वासा ने श्रीयंत्र को मोक्षदाता माना है । जैन शास्त्रों ने भी इस यंत्र की प्रशंसा की है.

जिस तरह शरीर व आत्मा एक दूसरे के पूरक हैं उसी तरह देवता व उनके यंत्र भी एक दूसरे के पूरक हैं । यंत्र को देवता का शरीर और मंत्र को आत्मा कहते हैं। यंत्र और मंत्र दोनों की साधना उपासना मिलकर शीघ्र फलदेती है । जिस तरह मंत्र की शक्ति उसकी ध्वनि में निहित होती है उसी तरह यंत्र की शक्ति उसकी रेखाओं व बिंदुओं में होती है।

मकान, दुकान आदि का निर्माण करते समय यदि उनकी नींव में प्राण प्रतिष्ठत श्री यंत्र को स्थापित करें तो वहां के निवासियों को श्री यंत्र की अदभुत व चमत्कारी शक्तियों की अनुभूति स्वतः होने लगती है। श्री यंत्र की पूजा से लाभ: शास्त्रों में कहा गया है कि श्रीयंत्र की अद्भुत शक्ति के कारण इसके दर्शन मात्र से ही लाभ मिलना शुरू हो जाता है। इस यंत्र को मंदिर या तिजोरी में रखकर प्रतिदिन पूजा करने व प्रतिदिन कमलगट्टे की माला पर श्री सूक्त के पाठ श्री लक्ष्मी मंत्र के जप के साथ करने से लक्ष्मी प्रसन्न रहती है और धनसंकट दूर होता है।

यह यंत्र मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष देने वाला है। इसकी कृपा से मनुष्य को अष्टसिद्धि व नौ निधियों की प्राप्ति हो सकती है। श्री यंत्र के पूजन से सभी रोगों का शमन होता है और शरीर की कांति निर्मल होती है। इसकी पूजा से पंचतत्वों पर विजय प्राप्त होती है । इस यंत्र की कृपा से मनुष्य को धन, समृद्धि, यश, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है। श्री यंत्र के पूजन से रुके हुए कार्य बनते हैं । श्री यंत्र की श्रद्धापूर्वक नियमित रूप से पूजा करने से दुख दारिद्र्य का नाश होता है । श्री यंत्र की साधना उपासना से साधक की शारीरिक और मानसिक शक्ति पुष्ट होती है। इस यंत्र की पूजा से दस महाविद्याओं कीे कृपा भी प्राप्त हो सकती है। श्री यंत्र की साधना से आर्थिक उन्नति होती है और व्यापार में सफलता मिलती है।

श्री यंत्र का निर्माण श्री यंत्र का रूप ज्यामितीय होता है। इसकी संरचना में बिंदु, त्रिकोण या त्रिभुज, वृत्त, अष्टकमल का प्रयोग होता है । तंत्र के अनुसार श्री यंत्र का निर्माण दो प्रकार से किया जाता है- एक अंदर के बिंदु से शुरू कर बाहर की ओर जो ‘सृष्टि-क्रिया निर्माण’ कहलाता है और दूसरा बाहर के वृत्त से शुरू कर अंदर की ओर जो ‘संहार-क्रिया निर्माण’ कहलाता है। श्री यंत्र में ९ त्रिकोण या त्रिभुज होते हैं जो निराकार शिव की ९ मूल प्रकृतियों के द्योतक हैं। मुख्यतः दो प्रकार के श्रीयंत्र बनाये जाते हैं – सृष्टि क्रम और संहार क्रम। सृष्टि क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में ५ ऊध्र्वमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शिव त्रिकोण कहते हैं। ये ५ ज्ञानेंद्रियों के प्रतीक हैं। ४ अधोमुखी त्रिकोण होते हैं जिन्हें शक्ति त्रिकोण कहा जाता है। ये प्राण, मज्जा, शुक्र व जीवन के द्योतक हैं। संहार क्रम के अनुसार बने श्रीयंत्र में ४ ऊध्र्वमुखी त्रिकोण शिव त्रिकोण होते हैं और ५ अधोमुखी त्रिकोण शक्ति त्रिकोण होते हैं। यह श्रीयंत्र कश्मीर संप्रदाय में कौल मत के अनुयायी उपयोग में लाते हैं। क्रमशः

श्री यंत्र में ९ त्रिभुजों का निर्माण इस प्रकार से किया जाता है कि उनसे मिलकर ४३ छोटे त्रिभुज बन जाते हैं जो ४३ विभिन्न देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। मध्य के सबसे छोटे त्रिभुज के बीच एक बिंदु होता है जो समाधि का सूचक है अर्थात यह शिव व शक्ति का संयुक्त रूप है। इसके चारों ओर जो ४३ त्रिकोण बनते हैं वे योग मार्ग के अनुसार यम १०, नियम १०, आसन ८, प्रत्याहार ५, धारण ५, प्राणायाम ३, ध्यान २, होते हैं । इन त्रिभुजों के बाहर की तरफ ८ कमल दल का समूह होता है जिसके चारों ओर १६ दल वाला कमल समूह होता है। इन सबके बाहर भूपुर है।
मनुष्य शरीर की भांति ही श्री यंत्र की संरचना में भी ९ चक्र होते हैं जिनका क्रम अंदर से बाहर की ओर इस प्रकार है- केंद्रस्थ रक्त बिंदु फिर पीला त्रिकोण जो सर्वसिद्धिप्रद कहलाता है। फिर हरे रंग के ८ त्रिकोण सर्वरक्षाकारी हैं। उसके बाहर काले रंग के १० त्रिकोण सर्वरोगनाशक हैं। फिर लाल रंग के १० त्रिकोण सर्वार्थ सिद्धि के प्रतीक हैं। उसके बाहर नीले १४ त्रिकोण सौभाग्यदायक हैं। फिर गुलाबी ८ कमलदल का समूह दुख, क्षोभ आदि के निवारण का प्रतीक है। उसके बाहर पीले रंग के १६ कमलदल का समूह इच्छापूर्ति कारक है। अंत में सबसे बाहर हरे रंग का भूपुर त्रैलोक्य मोहन के नाम से जाना जाता है। इन ९ चक्रों की अष्ठिात्री ९ देवियों के नाम इस प्रकार हैं:- १. त्रिपुरा २. त्रिपुरेशी ३. त्रिपुरसुंदरी ४. त्रिपुरवासिनी, ५. त्रिपुराश्री, ६. त्रिपुरामालिनी, ७. त्रिपुरासिद्धा, ८. त्रिपुरांबा और ९. महात्रिपुरसुंदरी।

आज बाजार में अनेक धातुओं ओर रत्नों के बने श्री यंत्र आसानी से प्राप्त हो जाते हैं, किंतु वे विधिवत सिद्ध व प्राणप्रतिष्ठित नहीं होते हैं । सिद्ध श्री यंत्र में विधिपूर्वक हवन-पूजन आदि करके देवी-देवताओं को प्रतिष्ठित किया जाता है तब श्री यंत्र समृद्धि देने वाला बनता है । ओर यह भी आवश्यक नहीं है कि श्री यंत्र रत्नों का ही बना हो, श्री यंत्र तांबे पर बना हो अथवा भोजपत्र पर बना हो, जब तक उसमें मंत्र व देवशक्ति विधिपूर्वक प्रवाहित नहीं की गई हो तब तक वह श्री प्रदाता अर्थात फल प्रदान करने वाला नहीं होता है, इसलिए सदैव विधिवत प्राणप्रतिष्ठित श्रीयन्त्र ही स्वीकार करना चाहिए।

श्रीयंत्र स्थापन पूजन विधान
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इस यंत्र को पूजा स्थान के अलावा अपनी अलमारी में भी रखा जा सकता है, फैक्टरी या कारखाने अथवा किसी महत्वपूर्ण स्थान पर भी स्थापित किया जा सकता है। जिस दिन से यह स्थापित होता है, उसी दिन से साधक को इसका प्रभाव अनुभव होने लगता है।

श्रीयंत्र का पूजन विधान काफी विस्तृत है लेकिन साधकों की आवश्यकता अनुसार हम यहाँ बहुत ही सरल और स्पष्ट विधान दे रहे है। स्नान, ध्यान शुद्ध पीले रंग के वस्त्र धारण कर, पूर्व या उत्तर की ओर मुंह कर पीले या सफेद आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने एक चौकी स्थापित कर उस पर लाल वस्त्र बिछा लें। गृहस्थ व्यक्तियों को श्रीयंत्र का पूजन पत्नी सहित करना सिद्धि प्रदायक बताया गया है। आप स्वयं अथवा पत्नी सहित जब श्रीयंत्र का पूजन सम्पन्न करें तो पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ ही पूजन सम्पन्न करें।

साधना में सफलता हेतु गुरु पूजन आवश्यक है। अपने सामने स्थापित बाजोट पर गुरु चित्र/विग्रह/यंत्र/पादुका स्थापित कर लें और हाथ जोड़कर गुरु का ध्यान करें।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

इसके पश्चात् चावलों की ढेरी बनाकर उस पर एक सुपारी गणपति स्वरूप स्थापित कर लें। गणपति का पंचोपचार पूजन कुंकुम, अक्षत, चावल, पुष्प, इत्यादि से करें।
बाजोट पर एक ताम्रपात्र में पुष्पों का आसन देकर श्रीयंत्र (ताम्र/पारद या जिस स्वरूप में हो) स्थापित कर लें। इसके बाद एकाग्रता पूर्वक श्री यंत्र का आगे लिखे विधान से पूजन आरंभ करें।

“ श्री यन्त्र पूजन विधान (संक्षिप्त) “ 
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( “प्रपञ्चसार तन्त्र”, “श्रीविद्यार्णव तन्त्र” एवं “शारदातिलक तन्त्र” के आधार पर )

विनियोगः-
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ॐ हिरण्य – वर्णामित्यादि-पञ्चदशर्चस्य श्रीसूक्तस्याद्यायाः ऋचः श्री ऋषिः तां म आवहेति चतुर्दशानामृचां आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुताश्चत्वारः ऋचयः, आद्य-मन्त्र-त्रयाणां अनुष्टुप् छन्दः, कांसोऽस्मीत्यस्याः चतुर्थ्या वृहती छन्दः, पञ्चम-षष्ठयोः त्रिष्टुप् छन्दः, ततोऽष्टावनुष्टुभः, अन्त्या प्रस्तार-पंक्तिः छन्दः । श्रीरग्निश्च देवते । हिरण्य-वर्णां बीजं । “तां म आवह जातवेद” शक्तिः । कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकम् । मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगः।

श्री-आनन्द-कर्दम-चिक्लीत-इन्दिरा-सुतेभ्यः ऋषिभ्यो नमः-शिरसि । अनुष्टुप्-बृहती-त्रिष्टुप्-प्रस्तार-पंक्ति-छन्दोभ्यो नमः-मुखे । श्रीरग्निश्च देवताभ्यां नमः – हृदि । हिरण्य-वर्णां बीजाय नमः गुह्ये । “तां म आवह जातवेद” शक्तये नमः – पादयो । कीर्तिसमृद्धिं ददातु मे” कीलकाय नमः नाभौ ।मम श्रीमहालक्ष्मी-प्रसाद-सिद्धयर्थे जपे विनियोगाय नमःसर्वांगे।

अंग-न्यासः-
‘श्री-सूक्त’ के मन्त्रों में से एक-एक मन्त्र का उच्चारण करते हुए दाहिने हाथ की अँगुलियों से क्रमशः सिर, नेत्र, कान, नासिका, मुख, कण्ठ, दोनों बाहु, हृदय, नाभि, लिंग, पायु (गुदा), उरु (जाँघ), जानु (घुटना), जँघा और पैरों में न्यास करें । 
१ ॐ हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्त्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्यमयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – शिरसि
२ ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।। – नेत्रयोः
३ ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।। – कर्णयोः
४ ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं ।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नासिकायाम्
५ ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।। – मुखे
६ ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।। – कण्ठे
७॰ ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।। – बाह्वोः
८ ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।। – हृदये
९ ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।। – नाभौ
१० ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।। – लिंगे
११ ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।। – पायौ
१२ ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।। – उर्वोः
१३ ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।। – जान्वोः
१४ ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।। – जंघयोः
१५ ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।। – पादयोः

षडङ्ग-न्यास---कर-न्यास---अंग-न्यास 
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ॐ हिरण्य-मय्यै नमः अंगुष्ठाभ्यां नमः हृदयाय नमः
ॐ चन्द्रायै नमः तर्जनीभ्यां नमः शिरसे स्वाहा
ॐ रजत-स्रजायै नमः मध्यमाभ्यां नमः शिखायै वषट्
ॐ हिरण्य-स्रजायै नमः अनामिकाभ्यां नमः कवचाय हुम्
ॐ हिरण्यायै नमः कनिष्ठिकाभ्यां नमः नेत्र-त्रयाय वौषट्
ॐ हिरण्य-वर्णायै नमः करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः अस्त्राय फट्
दिग्-बन्धनः- “ॐ भूर्भुवः स्वरोम्” से दिग्-बन्धन करें ।

ध्यानः-

या सा पद्मासनस्था विपुल-कटि-तटी पद्म-पत्रायताक्षी,
गम्भीरावर्त्त-नाभि-स्तन-भार-नमिता शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया ।
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गन्ध-मणि-गण-खचितैः स्नापिता हेम-कुम्भैः,
नित्यं सा पद्म-हस्ता मम वसतु गृहे सर्व-मांगल्य-युक्ता ।।

अरुण-कमल-संस्था, तद्रजः-पुञ्ज-वर्णा,
कर-कमल-धृतेष्टा, भीति-युग्माम्बुजा च।
मणि-मुकुट-विचित्रालंकृता कल्प-जालैः
सकल-भुवन-माता ,सन्ततं श्रीः श्रियै नः।।
मानस-पूजनः- 

इस प्रकार ध्यान करके भगवती लक्ष्मी का मानस पूजन करें -
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ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-कनिष्ठांगुष्ठ-मुद्रा) । 
ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (अधोमुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । 
ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-तर्जनी-अंगुष्ठ-मुद्रा) । 
ॐ रं वह्नयात्मकं दीपं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि । (ऊर्ध्व-मुख-मध्यमा-अंगुष्ठ-मुद्रा) ।
 ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-अनामिका-अंगुष्ठ-मुद्रा) । 
ॐ शं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीमहा-लक्ष्मी-श्रीपादुकाभ्यां नमः अनुकल्पयामि (ऊर्ध्व-मुख-सर्वांगुलि-मुद्रा) ।

अब सर्व-देवोपयोगी पद्धति से( पात्रासादन पूजनं ) अर्घ्य एवं पाध्य -आचमनीय आदि पात्रों की स्थापना करके पीठ-पूजन करें।

‘सर्वतोभद्र-मण्डल′ आदि पर निम्न ‘पूजन-यन्त्र’ की स्थापना करके मण्डूकादि-पर-तत्त्वान्त देवताओं की पूजा करें । तत्पश्चात् पूर्वादि-क्रम से भगवती लक्ष्मी की पीठ-शक्तियों की अर्चना करें।
यथा -
श्री विभूत्यै नमः, श्री उन्नत्यै नमः, श्री कान्त्यै नमः, श्री सृष्ट्यै नमः, श्री कीर्त्यै नमः, श्री सन्नत्यै नमः, श्री व्युष्ट्यै नमः, श्री उत्कृष्ट्यै नमः।

मध्य में – ‘श्री ऋद्धयै नमः ।’
पुष्पाञ्जलि समर्पित कर मध्य में प्रसून-तूलिका की कल्पना करके - “श्री सर्व-शक्ति-कमलासनाय नमः” इस मन्त्र से समग्र ‘पीठ‘ का पूजन करे।

‘सहस्रार’ में गुरुदेव का पूजन कर एवं उनसे आज्ञा लेकर पूर्व-वत् पुनः ‘षडंग-न्यास’ करे। भगवती लक्ष्मी का ध्यान कर पर-संवित्-स्वरुपिणी तेजो-मयी देवी लक्ष्मी को नासा-पुट से पुष्पाञ्जलि में लाकर आह्वान करे। 

यथा -
ॐ देवेशि ! भक्ति-सुलभे, परिवार-समन्विते !
तावत् त्वां पूजयिष्यामि, तावत् त्वं स्थिरा भव !

हिरण्य-वर्णां हरिणीं, सुवर्ण-रजत-स्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्य-मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।।

श्री महा-लक्ष्मि ! इहागच्छ, इहागच्छ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्तिष्ठ, इह सन्निधेहि, इह सन्निधेहि, इह सन्निरुध्वस्व, इह सन्निरुध्वस्व, इह सम्मुखी भव, इह अवगुण्ठिता भव !

आवाहनादि नव मुद्राएँ दिखाकर ‘अमृतीकरण’ एवं ‘परमीकरण’ करके –
 “ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः प्राणाः । 
ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः जीव इह स्थितः । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः सर्वेन्द्रियाणि । ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः श्रीमहा-लक्ष्मी-देवतायाः वाङ्-मनो-चक्षु-श्रोत्र-घ्राण-प्राण-पदानि इहैवागत्य सुखं चिर तिष्ठन्तु स्वाहा ।।

” इस प्राण-प्रतिष्ठा-मन्त्र से लेलिहान-मुद्रा-पूर्वक प्राण-प्रतिष्ठा करे ।

उक्त प्रकार आवाहनादि करके यथोपलब्ध द्रव्यों से भगवती की राजसी पूजा करे । 

यथा -
१ आसन -
ॐ तां म आवह जात-वेदो, लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! तुभ्यं पद्मासनं कल्पयामि नमः ।।
देवी के वाम भाग में कमल-पुष्प स्थापित करके ‘सिंहासन-मुद्रा’ और ‘पद्म-मुद्रा’ दिखाए ।

२ अर्घ्य-दान -
ॐ अश्वपूर्वां रथ-मध्यां, हस्ति-नाद-प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! एतत् ते अर्घ्यं कल्पयामि स्वाहा ।।
‘कमल-मुद्रा’ से भगवती के शिर पर अर्घ्य प्रदान करे ।

३ पाद्य -
ॐ कांसोऽस्मि तां हिरण्य-प्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीं ।
पद्मे स्थितां पद्म-वर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
।। हे महा-लक्ष्मि ! पाद्यं कल्पयामि नमः ।।
चरण-कमलों में ‘पाद्य’ समर्पित करके प्रणाम करे ।

४ आचमनीय -
ॐ चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव-जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्म-नेमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणोमि ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै आचमनीयं कल्पयामि नमः ।।
मुख में आचमन प्रदान करके प्रणाम करे ।

५ - मधु-पर्क -
ॐ आदित्य-वर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ।।
।। श्री महालक्ष्म्यै मधु-पर्क कल्पयामि स्वधा । 
पुनराचमनीयम् कल्पयामि ।।
पुनः आचमन समर्पित करें ।

६ स्नान (सुगन्धित द्रव्यों से उद्वर्तन करके स्नान कराए) -
ॐ उपैतु मां दैव-सखः, कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिं वृद्धिं ददातु मे ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै स्नानं कल्पयामि नमः ।।
‘स्नान’ कराकर केशादि मार्जन करने के बाद वस्त्र प्रदान करे । इसके पूर्व पुनः आचमन कराए ।

७ वस्त्र -
ॐ क्षुत्-पिपासाऽमला ज्येष्ठा, अलक्ष्मीर्नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वान् निर्णुद मे गृहात् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै वाससी परिकल्पयामि नमः ।।
पुनः आचमन कराए ।

८ आभूषण -
ॐ गन्ध-द्वारां दुराधर्षां, नित्य-पुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्व-भूतानां, तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै सुवर्णानि भूषणानि कल्पयामि ।।

९ गन्ध -
ॐ मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै गन्धं समर्पयामि नमः ।।

१० पुष्प -
ॐ कर्दमेन प्रजा-भूता, मयि सम्भव-कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले, मातरं पद्म-मालिनीम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै एतानि पुष्पाणि वौषट् ।।

११ धूप -
ॐ आपः सृजन्तु स्निग्धानि, चिक्लीत वस मे गृहे । नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ।।
ॐ वनस्पति-रसोद्-भूतः, गन्धाढ्यो गन्धः उत्तमः । आघ्रेयः सर्व-देवानां, धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम् ।।
।।श्री महा-लक्ष्म्यै धूपं आघ्रापयामि नमः ।।
१२ दीप -
ॐ आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं, पिंगलां पद्म-मालिनीम् । चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह ।।
ॐ सुप्रकाशो महा-दीपः, सर्वतः तिमिरापहः । स बाह्यान्तर-ज्योतिः, दीपोऽयं प्रति-गृह्यताम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै प्रदीपं दर्शयामि नमः ।।
दीपक दिखाकर प्रणाम करे । पुनः आचमन कराए ।

१३ नैवेद्य -
देवी के समक्ष ‘चतुरस्र-मण्डल′ बनाकर उस पर ‘त्रिपादिका-आधार’ स्थापित करे । षट्-रस व्यञ्जन-युक्त ‘नैवेद्य-पात्र’ उस आधार पर रखें । ‘वायु-बीज’ (यं) नैवेद्य के दोषों को सुखाकर, ‘अग्नि-बीज’ (रं) से उसका दहन करे । ‘सुधा-बीज’ (वं) से नैवेद्य का ‘अमृतीकरण’ करें । बाँएँ हाथ के अँगूठे से नैवेद्य-पात्र को स्पर्श करते हुए दाहिने हाथ में सुसंस्कृत अमृत-मय जल-पात्र लेकर ‘नैवेद्य’ समर्पित करें -
ॐ आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं, सुवर्णां हेम-मालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो ममावह ।।
ॐ सत्पात्र-सिद्धं सुहविः, विविधानेक-भक्षणम् । नैवेद्यं निवेदयामि, सानुगाय गृहाण तत् ।।
।। श्री महा-लक्ष्म्यै नैवेद्यं निवेदयामि नमः ।।
चुलूकोदक (दाईं हथेली में जल) से ‘नैवेद्य’ समर्पित करें ।
दूसरे पात्र में अमृतीकरण जल लेकर “ॐ हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का पाठ करके – “श्री महा-लक्ष्म्यै अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा” । श्री महा-लक्ष्मि ! अपोशनं कल्पयामि स्वाहा ।
तत्पश्चात् “प्राणाय स्वाहा” आदि का उच्चारण करते हुए ‘पञ्च प्राण-मुद्राएँ’ दिखाएँ । 
“हिरण्य-वर्णाम्” – इस प्रथम ऋचा का दस बार पाठ करके समर्पित करें । 
फिर ‘उत्तरापोशन’ कराएँ । ‘नैवेद्य-मुद्रा’ दिखाकर प्रणाम करें । ‘नैवेद्य-पात्र’ को ईशान या उत्तर दिशा में रखें । नैवेद्य-स्थान को जल से साफ कर ताम्बूल प्रदान करें ।

१४ ताम्बूल -
ॐ तां म आवह जात-वेदो लक्ष्मीमनप-गामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरूषानहम् ।।
।। श्री महा-लक्ष्मि ! ऐं हं हं हं इदम् ताम्बूलं गृहाण, स्वाहा ।।
‘ताम्बूल′ देकर प्रणाम करें ।

आवरण-पूजा पुरश्चरण-विधान
आवरण-पूजा
भगवती से उनके परिवार की अर्चना हेतु अनुमति माँग कर ‘आवरण-पूजा’ करे । 

यथा -
ॐ संविन्मयि ! परे देवि ! परामृत-रस-प्रिये ! अनुज्ञां देहि मे मातः ! परिवारार्चनाय ते ।।

प्रथम आवरण केसरों में ‘षडंग-शक्तियों’ का पूजन करे -

१ हिरण्य-मय्यै नमः हृदयाय नमः । हृदय-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२ चन्द्रायै नमः शिरसे स्वाहा । शिरः-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३ रजत-स्रजायै नमः शिखायै वषट् । शिखा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
४ हिरण्य-स्रजायै नमः कवचाय हुम् । कवच-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
५ हिरण्यायै नमः नेत्र-त्रयाय वौषट् । नेत्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६ हिरण्य-वर्णायै नमः अस्त्राय फट् । अस्त्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
प्रथम आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, प्रथमावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
पुष्पाञ्जलि प्रदान करे ।

द्वितीय आवरण पत्रों में पूर्व से प्रारम्भ करके वामावर्त-क्रम से ‘पद्मा, पद्म-वर्णा, पद्मस्था, आर्द्रा, तर्पयन्ती, तृप्ता, ज्वलन्ती’ एवं ‘स्वर्ण-प्राकारा’ का पूजन-तर्पण करे । यथा -
१ पद्मायै नमः । पद्मा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
२ पद्म-वर्णायै नमः । पद्म-वर्णा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
३ पद्मस्थायै नमः । पद्मस्था-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
४ आर्द्रायै नमः । आर्द्रा–श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
५ तर्पयन्त्यै नमः । तर्पयन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
६ तृप्तायै नमः । तृप्ता-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
७ ज्वलन्त्यै नमः । ज्वलन्ती-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः । क्रमशः

८ स्वर्ण-प्राकारायै नमः । स्वर्ण-प्राकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः ।
द्वितीय आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । 

यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, द्वितीयावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।

तृतीय आवरण भू-पुर में इन्द्र आदि दिक्-पालों का पूजन-तर्पण करे । यथा -
लं इन्द्राय नमः – पूर्वे । रं अग्न्ये नमः – अग्नि कोणे । यं यमाय नमः – दक्षिणे । क्षं निऋतये नमः – नैऋत-कोणे । वं वरुणाय नमः – पश्चिमे । यं वायवे नमः – वायु-कोणे । सं सोमाय नमः – उत्तरे । हां ईशानाय नमः – ईशान-कोणे । आं ब्रह्मणे नमः – इन्द्र और ईशान के बीच । ह्रीं अनन्ताय नमः – वरुण और निऋति के बीच ।
तृतीय आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, तृतीयावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।

चतुर्थ आवरण इन्द्रादि दिक्पालों के समीप ही उनके ‘वज्र’ आदि आयुधों का अर्चन करें । यथा -
ॐ वं वज्राय नमः, ॐ वज्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ शं शक्तये नमः, ॐ शक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ दं दण्डाय नमः, ॐ दण्ड-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ खं खड्गाय नमः, ॐ खड्ग-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ पां पाशाय नमः, ॐ पाश-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ अं अंकुशाय नमः, ॐ अंकुश-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ गं गदायै नमः, ॐ गदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ त्रिं त्रिशूलाय नमः, ॐ त्रिशूल-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ पं पद्माय नमः, ॐ पद्म-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
ॐ चं चक्राय नमः, ॐ चक्र-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
चतुर्थ आवरण की पूजा कर फल भगवती को समर्पित करें । यथा -
ॐ अभीष्ट-सिद्धिं मे देहि, शरणागत-वत्सले !
भक्तया समर्पये तुभ्यं, चतुर्थावरणार्चनम् ।। पूजिताः तर्पिताः सन्तु महा-लक्ष्म्यै नमः ।।
प्रथम ऋचा से कर्णिका में महा-देवी महा-लक्ष्मी का पुष्प-धूप-गन्ध, दीप और नैवेद्य आदि उपचारों से पुनः पूजन करें ।

तत्पश्वात् पूजा-यन्त्र में देवी के समक्ष गन्ध-पुष्प-अक्षत से भगवती के ३२ नामों से पूजन-तर्पण करें ।
१ ॐ श्रियै नमः । श्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२ ॐ लक्ष्म्यै नमः । लक्ष्मी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३ ॐ वरदायै नमः । वरदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
४ ॐ विष्णु-पत्न्यै नमः । विष्णु-पत्नी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
५ ॐ वसु-प्रदायै नमः । वसु-प्रदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
६ ॐ हिरण्य-रुपिण्यै नमः । हिरण्य-रुपिणी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
७ ॐ स्वर्ण-मालिन्यै नमः । स्वर्ण-मालिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
८ ॐ रजत-स्रजायै नमः । रजत-स्रजा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
९ ॐ स्वर्ण-गृहायै नमः । स्वर्ण-गृहा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१० ॐ स्वर्ण-प्राकारायै नमः । स्वर्ण-प्राकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
११ ॐ पद्म-वासिन्यै नमः । पद्म-वासिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१२ ॐ पद्म-हस्तायै नमः । पद्म-हस्ता-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१३ ॐ पद्म-प्रियायै नमः । पद्म-प्रिया-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१४ ॐ मुक्तालंकारायै नमः । मुक्तालंकारा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१५ ॐ सूर्यायै नमः । सूर्या-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१६ ॐ चन्द्रायै नमः । चन्द्रा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१७ ॐ बिल्व-प्रियायै नमः । बिल्व-प्रिया-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१८ ॐ ईश्वर्यै नमः । ईश्वरी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
१९ ॐ भुक्तयै नमः । भुक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२० ॐ प्रभुक्तयै नमः । प्रभुक्ति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२१ ॐ विभूत्यै नमः । विभूति-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२२ ॐ ऋद्धयै नमः । ऋद्धि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२३ ॐ समृद्धयै नमः । समृद्धि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२४ ॐ तुष्टयै नमः । तुष्टि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२५ ॐ पुष्टयै नमः । पुष्टि-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२६ ॐ धनदायै नमः । धनदा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२७ ॐ धनेश्वर्यै नमः । धनेश्वरी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।

२८ ॐ श्रद्धायै नमः । श्रद्धा-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
२९ ॐ भोगिन्यै नमः । भोगिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३० ॐ भोगदायै नमः । भोगिनी-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३१ ॐ धात्र्यै नमः । धात्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
३२ ॐ विधात्र्यै नमः । विधात्री-श्रीपादुकां पूजयामि तर्पयामि नमः।
उपर्युक्त ३२ नामों से भगवती के निमित्त हविष्य ‘बलि’ प्रदान करने का भी विधान है ।
श्री-सूक्त की पन्द्रह ऋचाओं से नीराजन और प्रदक्षिणा करके पुष्पाञ्जलि प्रदान करे । तदुपरान्त पुनः न्यास करके श्री-सूक्त का पाठ करे । ‘क्षमापन-स्तोत्र’ का पाठ करके पूजन और पाठ का फल भगवती को समर्पित करके विसर्जन करे ।

विशेष पुरश्चरण-काल में और बाद में भी प्रति-दिन सूर्योदय के समय जलाशय में स्नान करके सूर्य-मण्डलस्था भगवती महा-लक्ष्मी का उपर्युक्त ३२ नामों से तर्पण करना ‘श्री-सूक्त’ के साधकों के लिए आवश्यक है ।( संक्षिप्त आराधन )

माँ परा अम्बा भगवती राजराजेश्वरी महालक्ष्मी प्रसन्नोस्तु