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घर के प्रेत या पितर रुष्ट होने के लक्षण और उपाय ?

बहुत जिज्ञासा होती है आखिर ये पितृदोष है क्या? पितृ -दोष शांति के सरल उपाय पितृ या पितृ गण कौन हैं ?आपकी जिज्ञासा को शांत करती विस्तृत प्रस्तुति।

पितृ गण हमारे पूर्वज हैं जिनका ऋण हमारे ऊपर है ,क्योंकि उन्होंने कोई ना कोई उपकार हमारे जीवन के लिए किया है मनुष्य लोक से ऊपर पितृ लोक है,पितृ लोक के ऊपर सूर्य लोक है एवं इस से भी ऊपर स्वर्ग लोक है।

 आत्मा जब अपने शरीर को त्याग कर सबसे पहले ऊपर उठती है तो वह पितृ लोक में जाती है ,वहाँ हमारे पूर्वज मिलते हैं अगर उस आत्मा के अच्छे पुण्य हैं तो ये हमारे पूर्वज भी उसको प्रणाम कर अपने को धन्य मानते हैं की इस अमुक आत्मा ने हमारे कुल में जन्म लेकर हमें धन्य किया इसके आगे आत्मा अपने पुण्य के आधार पर सूर्य लोक की तरफ बढती है।

वहाँ से आगे ,यदि और अधिक पुण्य हैं, तो आत्मा सूर्य लोक को भेज कर स्वर्ग लोक की तरफ चली जाती है,लेकिन करोड़ों में एक आध आत्मा ही ऐसी होती है ,जो परमात्मा में समाहित होती है जिसे दोबारा जन्म नहीं लेना पड़ता मनुष्य लोक एवं पितृ लोक में बहुत सारी आत्माएं पुनः अपनी इच्छा वश ,मोह वश अपने कुल में जन्म लेती हैं।

पितृ दोष क्या होता_है ??
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 हमारे ये ही पूर्वज सूक्ष्म व्यापक शरीर से अपने परिवार को जब देखते हैं ,और महसूस करते हैं कि हमारे परिवार के लोग ना तो हमारे प्रति श्रद्धा रखते हैं और न ही इन्हें कोई प्यार या स्नेह है और ना ही किसी भी अवसर पर ये हमको याद करते हैं,ना ही अपने ऋण चुकाने का प्रयास ही करते हैं तो ये आत्माएं दुखी होकर अपने वंशजों को श्राप दे देती हैं,जिसे "पितृ- दोष" कहा जाता है।

पितृ दोष एक अदृश्य बाधा है .ये बाधा पितरों द्वारा रुष्ट होने के कारण होती है पितरों के रुष्ट होने के बहुत से कारण हो सकते हैं ,आपके आचरण से,किसी परिजन द्वारा की गयी गलती से ,श्राद्ध आदि कर्म ना करने से ,अंत्येष्टि कर्म आदि में हुई किसी त्रुटि के कारण भी हो सकता है।

इसके अलावा मानसिक अवसाद,व्यापार में नुक्सान ,परिश्रम के अनुसार फल न मिलना , विवाह या वैवाहिक जीवन में समस्याएं,कैरिअर में समस्याएं या संक्षिप्त में कहें तो जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्ति और उसके परिवार को बाधाओं का सामना करना पड़ता है पितृ दोष होने पर अनुकूल ग्रहों की स्थिति ,गोचर ,दशाएं होने पर भी शुभ फल नहीं मिल पाते,कितना भी पूजा पाठ ,देवी ,देवताओं की अर्चना की जाए ,उसका शुभ फल नहीं मिल पाता।

पितृ दोष दो प्रकार से प्रभावित करता है!

1.अधोगति वाले पितरों के कारण
2.उर्ध्वगति वाले पितरों के कारण

अधोगति वाले पितरों के दोषों का मुख्य कारण परिजनों द्वारा किया गया गलत आचरण,की अतृप्त इच्छाएं ,जायदाद के प्रति मोह और उसका गलत लोगों द्वारा उपभोग होने पर,विवाहादिमें परिजनों द्वारा गलत निर्णय .परिवार के किसी प्रियजन को अकारण कष्ट देने पर पितर क्रुद्ध हो जाते हैं ,परिवार जनों को श्राप दे देते हैं और अपनी शक्ति से नकारात्मक फल प्रदान करते हैं।

उर्ध्व गति वाले पितर सामान्यतः पितृदोष उत्पन्न नहीं करते ,परन्तु उनका किसी भी रूप में अपमान होने पर अथवा परिवार के पारंपरिक रीति-रिवाजों का निर्वहन नहीं करने पर वह पितृदोष उत्पन्न करते हैं।

इनके द्वारा उत्पन्न पितृदोष से व्यक्ति की भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति बिलकुल बाधित हो जाती है ,फिर चाहे कितने भी प्रयास क्यों ना किये जाएँ ,कितने भी पूजा पाठ क्यों ना किये जाएँ,उनका कोई भी कार्य ये पितृदोष सफल नहीं होने देता। पितृ दोष निवारण के लिए सबसे पहले ये जानना ज़रूरी होता है कि किस गृह के कारण और किस प्रकार का पितृ दोष उत्पन्न हो रहा है ?

जन्म पत्रिका और पितृ दोष जन्म पत्रिका में लग्न ,पंचम ,अष्टम और द्वादश भाव से पितृदोष का विचार किया जाता है। पितृ दोष में ग्रहों में मुख्य रूप से सूर्य, चन्द्रमा, गुरु, शनि और राहू -केतु की स्थितियों से पितृ दोष का विचार किया जाता है।

इनमें से भी गुरु ,शनि और राहु की भूमिका प्रत्येक पितृ दोष में महत्वपूर्ण होती है इनमें सूर्य से पिता या पितामह , चन्द्रमा से माता या मातामह ,मंगल से भ्राता या भगिनी और शुक्र से पत्नी का विचार किया जाता है।

अधिकाँश लोगों की जन्म पत्रिका में मुख्य रूप से क्योंकि गुरु ,शनि और राहु से पीड़ित होने पर ही पितृ दोष उत्पन्न होता है ,इसलिए विभिन्न उपायों को करने के साथ साथ व्यक्ति यदि पंचमुखी ,सातमुखी और आठ मुखी रुद्राक्ष भी धारण कर ले , तो पितृ दोष का निवारण शीघ्र हो जाता है।

हवन /यज्ञ ।।

किसी भी अनुष्ठान को हवन से पूर्ण करने का शास्त्रीय विधान है परन्तु हवन या यज्ञ का शुभ फल पाने के लिए महत्वपूर्ण है कि अग्नि वास का ध्यान रखना |
अक्सर देखने में आता है कि लोग घर में सुख शांति और समृद्धि आदि विभिन्न कार्यों की पूर्ति हेतु यज्ञ (हवन) करवाते हैं उलटे उसके बाद से घर में परेशानियां आ जाती हैं

इस प्रकार कि परेशानियों से बचने का उपाय है हवन से पूर्व अग्नि के वास का ज्ञान करना

अग्नि वास

जिस दिन आपको हवन करना हो , उस दिन की तिथि और वार की संख्या को जोड़कर 1 जमा करें फिर कुल जोड़ को 4 से भाग देवें |

(तिथि संख्या +वार की संख्या) + 1 = कुल जोड़ ÷

4

(1) यदि शेष शुन्य (0) अथवा 3 बचे, तो अग्नि का वास पृथ्वी पर होगा और इस दिन हवन करना कल्याणकारी होता है । पृथ्वी पर अग्नि का वास सुखकारी होता है | हवन शुभ फलदायी होगा

(2) यदि शेष 2 बचे तो अग्नि का वास पाताल में होता है और इस दिन हवन करने से धन का नुक्सान होता है ।

(3) यदि शेष 1 बचे तो आकाश / स्वर्ग में अग्नि का वास होगा, इसमें होम करने से आयु का क्षय होता है । स्वर्ग में अग्नि का वास अशुभ और प्राण नाशक माना गया है

* वार की गणना रविवार से तथा तिथि की गणना शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा से करनी चाहिए

जो लोग नित्य अग्निहोत्र करते, उन्हें अग्नि वास देखने की जरूरत नहीं।

जो कभी कभी आहुति की योजना बनाते, उन्हें जरूर देखना चाहिए

श्री सूक्तम् ।।

श्री सूक्तम् देवी लक्ष्मी की आराधना करने हेतु उनको समर्पित मंत्र हैं। इसे 'लक्ष्मी सूक्तम्' भी कहते हैं। यह सूक्त, ऋग्वेद के खिलानि के अन्तर्गत आता है। इस सूक्त का पाठ धन-धान्य की अधिष्ठात्री, देवी लक्ष्मी की कृपा प्राप्ति के लिए किया जाता है।

राजा रवि वर्मा द्वारा चित्रित देवी लक्ष्मी का चित्र
आन्ध्र प्रदेश के तिरुमल वेंकटेश्वर मंदिर में 'वेंकटेश्वर के तिरुमंजनम्' के समय जो पञ्चसूक्तम का पाठ किया जाता है, उसमें श्रीसूक्तम भी सम्मिलित है।

श्रीसूक्त ऋग्वेद का खिल सूक्त है जो ऋग्वेद के पांचवें मण्डल के अन्त में उपलब्ध होता है। सूक्त में मन्त्रों की संख्या पन्द्रह है। सोलहवें मन्त्र में फलश्रुति है। बाद में ग्यारह मन्त्र परिशिष्ट के रूप में उपलब्ध होते हैं। इनको 'लक्ष्मीसूक्त' के नाम से स्मरण किया जाता है।

आनन्द, कर्दम, श्रीद और चिक्लीत ये चार श्रीसूक्त के ऋषि हैं। इन चारों को श्री का पुत्र बताया गया है। श्रीपुत्र हिरण्यगर्भ को भी श्रीसूक्त का ऋषि माना जाता है।

श्रीसूक्त का चौथा मन्त्र बृहती छन्द में है। पांचवाँ और छटा मन्त्र त्रिष्टुप छन्द में है। अन्तिम मन्त्र का छन्द प्रस्तारपंक्ति है । शेष मन्त्र अनुष्टुप छन्द में है।

श्रीशब्दवाच्या लक्ष्मी इस सूक्त की देवता हैं।

श्रीसूक्त का विनियोग लक्ष्मी के आराधन, जप, होम आदि में किया जाता है। महर्षि बोधायन, वशिष्ठ आदि ने इसके विशेष प्रयोग बतलाये हैं । श्रीसूक्त की फलश्रुति में भी इस सूक्त के मन्त्रों का जप तथा इन मन्त्रों के द्वारा होम करने का निर्देश किया गया है।

आराधनाक्रम में श्रीसूक्त के पन्द्रह मन्त्रों का इस क्रम से विनियोग किया जाता है

१-आवाहन २-आसन ३-पाद्य ४-अर्घ्य ५-आचमन ६-स्नान ७-वस्त्र ८-भूषण
९-गन्ध १०-पुष्प ११-धूप १२-दीप १३-नैवेद्य १४-प्रदक्षिणा १५-उद्वासन

श्रीसूक्त के मन्त्रों का विषय इस प्रकार है

१-भगवान से लक्ष्मी को अभिमुख करने की प्रार्थना

२-भगवान् से लक्ष्मी को अभिमुख रखने की प्रार्थना

३-लक्ष्मी से सान्निध्य के लिये प्रार्थना

४-लक्ष्मी का आवाहन

५-लक्ष्मी की शरणागति एवं अलक्ष्मीनाश की प्रार्थना

६-अलक्ष्मी और उसके सहचारियों के नाश की प्रार्थना

७-माङ्गल्यप्राप्ति की प्रार्थना

८-अलक्ष्मी और उसके कार्यों का विवरण देकर उसके नाश की प्रार्थना

९-लक्ष्मी का आवाहन

१०-मन, वाणी आदि की अमोघता तथा समृद्धि की स्थिरता के लिये प्रार्थना

११-कर्दम प्रजापति से प्रार्थना

१२-लक्ष्मी के परिकर से प्रार्थना

१३- लक्ष्मी के नित्य सान्निध्य के लिये पुनः भगवान से प्रार्थना

१४-पुनः लक्ष्मी के नित्य सान्निध्य के लिये भगवान से प्रार्थना

१५-भगवान से लक्ष्मी के आभिमुख्य की प्रार्थना

१६-फलश्रुति


परिशिष्ट (लक्ष्मीसूक्त) के मन्त्रों के विषय हैं

१-सौख्य की याचना

२-समस्त कामनाओं की पूर्ति की याचना

३-सान्निध्य की याचना

४-समृद्धि के स्थायित्व के लिये प्रार्थना

५-देवताओं में लक्ष्मी के वैभव का विस्तार

६-सोम की याचना

७-मनोविकारों का निषेध

८-लक्ष्मी की प्रसन्नता के लिये प्रार्थना

९-लक्ष्मी की वन्दना

१०-लक्ष्मीगायत्री

११-अभ्युदय के लिये प्रार्थना

श्रीदेवी के नाम - श्रीसूक्त के १५ मन्त्रों में श्री लक्ष्मी के ये नाम मिलते हैं-

१-हिरण्यवर्णा, हरिणी, सुवर्णरजतस्रजा, चन्द्रा, हिरण्मयी, लक्ष्मी
२-अनपगामिनी
३-अश्वपूर्वा, रथमध्या, हस्तिनादप्रयोधिनी, श्री, देवी
४- का, सोस्मिता, हिरण्यप्राकारा, आर्द्रा, ज्वलन्ती, तृप्ता, तर्पयन्ती, पद्मे स्थिता, पद्मवर्णा
५-प्रभासा, यशसा ज्वलन्ती, देवजुष्टा
६-आदित्यवर्णा
७-उदारा 
८-पद्मनेमि
९-गन्धद्वारा, दुराधर्षा, नित्यपुष्टा, करीषिणी
१०-ईश्वरी
११-माता
१२-पद्ममालिनी
१३-पुष्करिणी, यष्टि, पिङ्गला,
१४-पुष्टि, सुवर्णा, हेममालिनी, सूर्या
१५-१६
परिशिष्ट के ११ मन्त्रों में ये नाम और मिलते हैं

१-पद्मानना, पद्मोरू, पद्माक्षी, पद्मसम्भवा
२-अश्वदायी, गोदायी, धनदायी, महाधना,
३-पद्मविपद्मपत्रा, पद्मप्रिया, पद्मदलायताक्षी, विश्वप्रिया, विश्वमनोनुकूला
६-७
८-सरसिजनिलया, सरोजहस्ता, धवलतरांशुकगन्धमाल्यशोभा, भगवती, हरिवल्लभा, मनोज्ञा, त्रिभुवनभूतिकारी
९-विष्णुपत्नी, क्षमा, माधवी, माधवप्रिया, प्रियसखी, अच्युत वल्लभा‌
१०- महादेवी, विष्णुपत्नी

विशुद्ध श्री सूक्त

॥ श्रीसूक्तं ॥
ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदोम् मावह ॥ १ ॥

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥ २ ॥

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनाद प्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीजुषताम् ॥ ३ ॥

कांसोस्मीतां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं 
तृप्तां तर्पयन्तीम् ।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥ ४ ॥

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके 
देवजुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मिनीमिं शरणमहं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां 
त्वां वृणे ॥ ५ ॥

आदित्यवर्णे तपसो ऽधिजातो वनस्पतिस्तव 
वृक्षोऽथ बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या 
अलक्ष्मीः ॥ ६ ॥

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रे ऽस्मिन कीर्तिमृद्धिं 
ददातु मे ॥ ७ ॥

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठां अलक्ष्मीर् नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वान्निर्णुद मे गृहात् ॥ ८ ॥

गंधद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥ ९ ॥ 

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥ १० ॥

कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥ ११ ॥

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वसमे गृहे ।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥ १२ ॥

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदोम् मावह ॥ १३ ॥

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदोम् मावह ॥ १४ ॥

ताम्म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान विन्देयं 
पुरुषानहम् ॥ १५ ॥

ॐ यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुदायाज्य मन्वहम् ।
श्रियः पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥ १६ ॥

इसका सस्वर घना पाठ ओडिशा और दक्षिण भारत में बहुत ज्यादा होता है इसके साथ में विशेष लक्ष्मी सूक्त का भी पाठ किया जाता है जिसमें कि बहुत सारे अतिरिक्त श्लोक हैं ।
श्री सूक्त के हवन में इन सामानों को मिला कर प्रयोग करें
बेल का गूदा
कमल बीज या कमल फूल
शहद
शक्कर
नारियल का बुरादा
गाय का घी
गाय के दूध से बना सूखा खीर
सारी सामग्री को मिक्स कर,

लक्ष्मी पूजन या श्री यंत्र पूजन कर, श्री सूक्त पाठ करें, फिर हवन करें।और विशेष करना चाहते तो जितने भी संभव हो उतने अधखुले कमल पुष्पों में थोड़ा सा खोल के अंदर शुद्ध माखन भर दें, फिर पुष्प बंद कर के। घी में डूबा कर
उससे हवन करें।
कभी निराश नहीं होंगे।

कुलदेवता या कुलदेवी क्या है ?

इनके होने या न होने का ज्ञान कैसे हो। यह लेख उन सभी भाइयों को पढ़ना चाहिए जो आज के आधुनिक युग को ज्यादा महत्व देकर आगे बढ़ गए है। और अब किसी न किसी बाधा से घिरे रहते है। और दर दर भटकते रहते है।और अपना समय और पैसा बर्बाद करते रहते हैं। एक बार इस लेख को जरूर पढ़ें। थोड़ी सी चर्चा इस विषय पर। 

हिन्दू पारिवारिक आराध्य व्यवस्था में कुल देवता/कुलदेवी का स्थान सदैव से रहा है ,,प्रत्येक हिन्दू परिवार किसी न किसी ऋषि के वंशज हैं जिनसे उनके गोत्र का पता चलता है ,बाद में कर्मानुसार इनका विभाजन वर्णों में हो गया विभिन्न कर्म करने के लिए ,जो बाद में उनकी विशिष्टता बन गया और जाती कहा जाने लगा ,,पूर्व के हमारे कुलों अर्थात पूर्वजों के खानदान के वरिष्ठों ने अपने लिए उपयुक्त कुल देवता अथवा कुलदेवी का चुनाव कर उन्हें पूजित करना शुरू किया था ,ताकि एक आध्यात्मिक और पारलौकिक शक्ति कुलों की रक्षा करती रहे जिससे उनकी नकारात्मक शक्तियों/उर्जाओं और वायव्य बाधाओं से रक्षा होती रहे तथा वे निर्विघ्न अपने कर्म पथ पर अग्रसर रह उन्नति करते रहे |
           समय क्रम में परिवारों के एक दुसरे स्थानों पर स्थानांतरित होने ,धर्म परिवर्तन करने आक्रान्ताओं के भय से विस्थापित होने ,जानकार व्यक्ति के असमय मृत होने ,संस्कारों के क्षय होने ,विजातीयता पनपने ,इनके पीछे के कारण को न समझ पाने आदि के कारण बहुत से परिवार अपने कुल देवता /देवी को भूल गए अथवा उन्हें मालूम ही नहीं रहा की उनके कुल देवता /देवी कौन हैं या किस प्रकार उनकी पूजा की जाती है ,इनमे पीढ़ियों से शहरों में रहने वाले परिवार अधिक हैं ,कुछ स्वयंभू आधुनिक मानने वाले और हर बात में वैज्ञानिकता खोजने वालों ने भी अपने ज्ञान के गर्व में अथवा अपनी वर्त्तमान अच्छी स्थिति के गर्व में इन्हें छोड़ दिया या इनपर ध्यान नहीं दिया |
          
कुल देवता /देवी की पूजा छोड़ने के बाद कुछ वर्षों तक तो कोई ख़ास अंतर नहीं समझ में आता ,किन्तु उसके बाद जब सुरक्षा चक्र हटता है तो परिवार में दुर्घटनाओं ,नकारात्मक ऊर्जा ,वायव्य बाधाओं का बेरोक-टोक प्रवेश शुरू हो जाता है ,उन्नति रुकने लगती है ,पीढ़िया अपेक्षित उन्नति नहीं कर पाती ,संस्कारों का क्षय ,नैतिक पतन ,कलह, उपद्रव ,अशांति शुरू हो जाती हैं ,व्यक्ति कारण खोजने का प्रयास करता है कारण जल्दी नहीं पता चलता क्योकि व्यक्ति की ग्रह स्थितियों से इनका बहुत मतलब नहीं होता है ,अतः ज्योतिष आदि से इन्हें पकड़ना मुश्किल होता है ,भाग्य कुछ कहता है और व्यक्ति के साथ कुछ और घटता है ,
           कुल देवता या देवी हमारे वह सुरक्षा आवरण हैं जो किसी भी बाहरी बाधा नकारात्मक ऊर्जा के परिवार में अथवा व्यक्ति पर प्रवेश से पहले सर्वप्रथम उससे संघर्ष करते हैं और उसे रोकते हैं ,यह पारिवारिक संस्कारों और नैतिक आचरण के प्रति भी समय समय पर सचेत करते रहते हैं ,यही किसी भी ईष्ट को दी जाने वाली पूजा को ईष्ट तक पहुचाते हैं ,,यदि इन्हें पूजा नहीं मिल रही होती है तो यह नाराज भी हो सकते हैं और निर्लिप्त भी हो सकते हैं ,,ऐसे में आप किसी भी ईष्ट की आराधना करे वह उस ईष्ट तक नहीं पहुँचता ,क्योकि सेतु कार्य करना बंद कर देता है ,,बाहरी बाधाये ,अभिचार आदि ,नकारात्मक ऊर्जा बिना बाधा व्यक्ति तक पहुचने लगती है ,,कभी कभी व्यक्ति या परिवारों द्वारा दी जा रही ईष्ट की पूजा कोई अन्य बाहरी वायव्य शक्ति लेने लगती है ,अर्थात पूजा न ईष्ट तक जाती है न उसका लाभ मिलता है ,,ऐसा कुलदेवता की निर्लिप्तता अथवा उनके कम शशक्त होने से होता है ,,

      कुलदेवता या देवी सम्बंधित व्यक्ति के पारिवारिक संस्कारों के प्रति संवेदनशील होते हैं और पूजा पद्धति ,उलटफेर ,विधर्मीय क्रियाओं अथवा पूजाओं से रुष्ट हो सकते हैं ,सामान्यतया इनकी पूजा वर्ष में एक बार अथवा दो बार निश्चित समय पर होती है ,यह परिवार के अनुसार भिन्न समय होता है और भिन्न विशिष्ट पद्धति होती है ।,, शादी-विवाह-संतानोत्पत्ति आदि होने पर इन्हें विशिष्ट पूजाएँ भी दी जाती हैं ,,,यदि यह सब बंद हो जाए तो या तो यह नाराज होते हैं या कोई मतलब न रख मूकदर्शक हो जाते हैं और परिवार बिना किसी सुरक्षा आवरण के पारलौकिक शक्तियों के लिए खुल जाता है ,परिवार में विभिन्न तरह की परेशानियां शुरू हो जाती हैं ,,अतः प्रत्येक व्यक्ति और परिवार को अपने कुल देवता या देवी को जानना चाहिए तथा यथायोग्य उन्हें पूजा प्रदान करनी चाहिए, जिससे परिवार की सुरक्षा -उन्नति होती रहे।
नवरात्री का समय कुलदेवता या देवी को जानने का बहुत ही उत्तम समय होता है।
आप सभी चाहे तो इन नौ दिनों में उनकी कृपा प्राप्त कर सकते हैं।

33 कोटी देवता अर्थात 33 प्रकार के देवता!(गौ माता में तैंतीस कोटी देवी देवताओं का वास है।)

✅ 33 कोटि देवता
❌ 33 करोड़ देवता नहीं

🙏 हिन्दू धर्म को भ्रमित करने के लिए अक्सर देवताओं की संख्या 33 करोड़ बताई जाती रही है। धर्मग्रंथों (कवेद) में देवताओं की 33 कोटी बताई गई है। देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते हैं। कोटि का मतलब प्रकार होता है, और एक अर्थ करोड़ भी होता। लेकिन यहां कोटि का अर्थ प्रकार है। वेदो मे को कुल 33 कोटि देवताओं का वर्णन मिलता है।

🙏 इसकी व्याख्या इस प्रकार से हैं:-
8 वसु, 11 रुद्र,12 आदित्य और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं।

👉 8 वसु - पृथवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सुर्य और नक्षत्र। ये सबको बसाने वाले से वसु कहलाते है।
👉 11 रुद्र - प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूमम्म, कृकल, देवदत्त, धन्त्रजय और जीवात्मा (10 प्राण और 1 जीवात्मा) ये अपने-अपने स्थान पर रहने से शरीर में प्रसन्नता व आरोग्य फैलाते है एंव छोड़ने पर रुदन कराने वाले होने से रुद्र कहा जाता है।
👉 12 आदित्य - सम्वंसर के १२ महीनें आदित्य कहलाते है।
👉 1 इन्द्र नाम यहां बिजली का है क्योकि यह सब
प्रकार से एश्वर्य का हेतु हैं।
👉 1 प्रजापति - प्रजापति कहते है यज्ञ (अग्निहौत्र) को ।

🙏 कुल - 8+11+12+1+1=33

🙏 उपरोक्त 33 प्रकार के ( 33 कोटि) देवताओं की पूजा अग्निहौत्र से होती है, क्योंकि कहा भी है, सभी देवताओं का मुख अग्नि है, अग्निहौत्र से क्रमशः सभी देवता पुष्ट होते है, गीता में भी कहा है कि अन्न से सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते है और अन्न पर्जन्य से उत्पन्न होता है पर्जन्य यज्ञ से उत्पन्न होता है और 'यज्ञ" कर्म से उत्पन्न होता है कर्म की उत्पति अक्षर अविनाशी परमेश्वर से होती है। यह अक्षर सर्वव्यापी परमेश्वर सदा यज्ञ में विद्यमान रहता है। गीता -3/14,15 इन्ही तैतीस कोटि को अज्ञानता वश लोग 33 करोड़ कह कर हंसी कराते है।