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गुरुजी! साधना करते समय यदि कभी - कभी मन से बुरे विचार आते हैं, तो क्या वह साधना में विघ्न डालता है ? और यह साधना के फल में बाधा डालता है क्या ?

उत्तर
 साधना करते समय अपने मन, भाव और बुद्धि को सद्गुरु के चरणों में या इष्ट के चरणों में रखकर समर्पण भाव से भजन करना चाहिए। योगी कहते हैं कि साधक का सूक्ष्म मन जिस व्यक्ति का स्मरण करता है। उसका सूक्ष्म रूप वहां मौजूद होता है, लेकिन एक सक्षम गुरु होने के कारण साधक के मन को शुद्ध करके पुनः उसे गुरुचरण में लाकर रख देंते हैं।

मैं मन नहीं हूँ, मैं चित्त नहीं हूँ, मैं बुद्धि नहीं हूँ, मैं तो आत्मा हूँ। सोचना और संकल्प विकल्प करना मन और बुद्धि का काम है । इसकी सहायता से अन्य इन्द्रियाँ अपनी - अपनी क्रियाओं में लग जाती हैं, यदि साधक निरंतर यह सोचकर जप करता रहे कि, मेरा इससे कोई लेना - देना नहीं है, तो कुछ ही दिनों में मन, बुद्धि और इन्द्रियों का अशुद्ध व्यापार कम हो जाएगा, और एक अच्छी स्थिति प्राप्त हो जाएगी । कई साधक मन - बुद्धि के साथ - साथ इन्द्रियों से भी व्याकुल रहते हैं, और उचित मार्गदर्शक के अभाव में साधक साधना से विमुख हो जाता है।

सभी विरोधी तत्त्वों की उपस्थिति में और साथ ही आंदोलन में, यदि सच्चा साधक स्वयं को गुरुप्राप्त मंत्र, गुरुचरण में समर्पित करके चलता है, तो लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। साधक साधना में या किसी भी समय जिस किसी को भी याद करता है। वह सूक्ष्म शरीर उसके पास होता है। आसन के ऊपर केवल उसका स्थूल शरीर दिखाई देता है। इसलिए सद्गुरु सूक्ष्म रूप से सदैव सदशिष्य के पीछे खड़े रहते हैं, और उसके चंचल मन को पकड़कर खींचते हैं और अपने चरणों में रख देते हैं। योग्य गुरु के अभाव में या गुरु के न होने पर साधक कितनी भी साधना कर ले फिर भी उसे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि, गुरुकृपा के बिना मन और बुद्धि की एक्य की स्थिति प्राप्त नहीं की जा सकती है, और इस अवस्था को प्राप्त किये बिना लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। भटकते हुए मन को जहां साधना से विमुख कर दिया गया है, वहां गुरु के अतिरिक्त और कौन पहुंचा सकता है ? साधक बिना गुरु के कितनी ही साधना कर ले उसका फल नहीं मिलता, अगर मिलता है तो फल के अनेक रूप प्रकट होते हैं। क्योंकि साधना के दौरान जो भी विचार आए हैं उनका फल मिलता है। अर्थात् शांति, अशांति, सुख, दु:ख सभी की अनुभूति होती है। लेकिन एक योग्य गुरु होने के कारण वह सदशिष्य सकाम कर्म नहीं करता है,और उसका चंचल मन तृप्त नहीं होता।

कलियुग के बारे में महापुरुष कहते हैं कि, यदि मानसिक साधन, पूजा और सद्विचार किया जाए तो, उसका अनंतगुणा फल मिलता है, और यदि मन में कोई बुरा विचार आए और उन विचारों पर सीधे अमल न करे तो उसे कोई पाप या दोष नही लगता । तो अंत में मैंने इस प्रश्न का समाधान कर दिया कि, कोई भी मानसिक विचार विघ्न नहीं डाल सकता, समस्त संकल्प विकल्प जो बुद्धि से सोचते हो। उससे एक तरफ रखकर उपासना करो तो लक्ष्य सिद्धि हो जाएगी।

 ।। हरि ॐ तत्सत् जय सद् गुरुदेव।।

होली पर्व ।।

होली वर्ण का त्योहार है
रंग फारसी (ईरानी) भाषा का शब्द है और विदेशी शब्द की श्रेणी में आता है। इस्लामी आक्रांता अपने साथ अरबी, फारसी, उर्दू आदि भाषाओं को अखंड भारत में लेकर आए, इन आक्रांताओं द्वारा अखंड भारत की संस्कृति, भाषा आदि को नष्ट-भष्ट किया गया। इस्लामी आक्रांताओं के आने से पहले भारत में फारसी शब्द रंग के स्थान पर संस्कृत शब्द वर्ण का उपयोग होता था।

नवात्रैष्टि यज्ञ / मन्वादि तिथि
प्राचीनकाल में होली पर्व को नवात्रैष्टि यज्ञ कहा जाता था। उस समय खेत के अधूरे पके अन्न को यज्ञ में अर्पित करके उसे प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता था। अन्न को होला कहते है, इसी से इसका नाम होलिकाेत्सव पड़ा। इसी दिन वर्तमान मनवंतर के प्रथम पुरुष मनु वैैवस्वत ब्रह्मा से उत्पन्न हुए थे, इसलिए इसे मन्वादि तिथि कहते है। इसी दिन ब्रह्मा से सप्तऋषि, इंद्र, कई देवता आदि भी उत्पन्न हुए थे।

देवी लक्ष्मी जयंती
पुराणों के अनुसार देवताओं और असुरो द्वारा किए गए समुद्र मंथन के समय इसी दिन देवी लक्ष्मी समुद्र से अवतरित हुई थी। इसलिए होली पर्व पर देवी लक्ष्मी की पूजा की जाती हैं।

पंचांग के अनुसार होली पर्व फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता हैं। इस पर्व के पश्चात चैत्र मास आरंभ हो जाता हैं, भारतीय ज्योतिषी चैत्र मास से नया वर्ष आरंभ मानते है। होली पर्व पारंपरिक रूप से संध्या से अगले दिन संध्या तक मनाया जाता हैं। पहले दिन की संध्या को छोटी होली या होलिका दहन और दूसरे दिन इसे वर्ण होली, धुलंडी, धुरड्डी, धुरखेल या धूलिवंदन आदि नामो से जाना जाता हैं। होली वसंत का त्योहार, वर्ण का त्योहार, प्रेम का त्योहार और यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक हैं।

होलिका दहन / छोटी होली
किसी सार्वजनिक या रिक्त स्थान में लकड़ी व गाय गोबर के उपले से होली तत्पर (तैयार) की जाती हैं। उपलो के मध्य में छेद करके पतली रस्सी डालकर उपलो की माला बनाई जाती हैं। मुहूर्त के अनुसार होली में अग्नि लगाई जाती हैं। सभी उपस्थित जन इस अग्नि की परिक्रमा लगाते हुए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि होलिका दहन के साथ ही उनकी आंतरिक बुराई भी नष्ट हो जाए। होलिका अग्नि में लोग गेहूँ, जौ की बालियां, चने के होले को भूनकर अपने अपने घर ले जाते हैं, ऐसा माना जाता हैं होलिका दहन की अग्नि में अन्न को भूनकर घर पर लाना शुभ होता है। यह परंपरा प्राचीन नवात्रैष्टि यज्ञ जैसी है।

वर्ण होली / धूलंडी
इस दिन लोग एक दूसरे पर वर्ण, गुलाल आदि लगाते हैं। प्रभात होते ही सब अपने मित्रों और संबंधियों से मिलने निकल पड़ते हैं। होली के गीत गाए बजाए जाते हैं, स्थान स्थान पर जनता टोलिया बनाकर नृत्य करते हैं, यात्रा निकालते हैं। बालक बालिकाएं वर्ण से भरी हुई पानी की पिचकारियों के साथ खेलते, मनोरंजन करते हैं। धूलंडी कार्यक्रम के पश्चात स्नान एवं विश्राम करके नए वस्त्र पहन कर एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं, होली पर्व की बधाई देते हैं, ईश्वर का स्मरण करते हैं, मिष्ठान का सेवन करते हैं आदि। वर्तमान समय में प्राकृतिक वर्ण के साथ रासायनिक वर्ण का उपयोग बढ़ रहा है जिससे त्वचा रोग व स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

पारंपरिक होली फूलों, पत्तों से खेली जाती थीं। हल्दी, चंदन, कुमकुम, ढाक आदि का उपयोग किया जाता था। होली टूटे हुए संबंधों को जोड़ने, संघर्षों को समाप्त करने और भावनात्मक अशुद्धियों से स्वयं को दूर करने का एक अवसर माना जाता था। आज भी अनेक स्थानों पर पारंपरिक रूप से होली पर्व मनाया जाता हैं।

होली पर प्रतिबंध
अनेक इस्लामिक आक्रांताओं व शासकों द्वारा होली व अन्य गैर इस्लामी त्योहार को इस्लाम विरुद्ध घोषित करके त्योहार मनाने पर रोक और मनाने पर दंड दिया जाता था। औरंगजेब ने होली व अन्य गैर इस्लामी त्योहार मनाने पर मृत्यु दंड का विधान बनाया था।

Know the teachings that Ravana gave to Laxman on his deathbed ।।

सोलह सुखों के बारे में सुना था तो जानिये क्या हैं वो सोलह सुख ।।

1. पहला सुख निरोगी काया।

2. दूजा सुख घर में हो माया।
3. तीजा सुख कुलवंती नारी।
4. चौथा सुख सुत आज्ञाकारी।

5. पाँचवा सुख सदन हो अपना।
6. छट्ठा सुख सिर कोई ऋण ना।
7. सातवाँ सुख चले व्यापारा।
8. आठवाँ सुख हो सबका प्यारा।

9. नौवाँ सुख भाई और बहन हो ।
10. दसवाँ सुख न बैरी स्वजन हो।
11. ग्यारहवाँ मित्र हितैषी सच्चा।
12. बारहवाँ सुख पड़ौसी अच्छा।

13. तेरहवां सुख उत्तम हो शिक्षा।
14. चौदहवाँ सुख सद्गुरु से दीक्षा।
15. पंद्रहवाँ सुख हो साधु समागम।
16. सोलहवां सुख संतोष बसे मन।

सोलह सुख ये होते भाविक जन।
जो पावैं सोइ धन्य हो जीवन।।

हालांकि आज के समय में ये सभी सुख हर किसी को मिलना मुश्किल है। लेकिन इनमें से जितने भी सुख मिलें उससे खुश रहने की कोशिश करनी चाहिए

॥सर्वे भवन्तु सुखिनः॥

मैं शिव हूं ।।