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नर्मदेश्वर शिवलिङ्ग का महत्व ।।

नर्मदा के कंकर सब शिव शंकर, अर्थात विश्व में यही एक मात्र अमृतदायी नदी है जिसमें प्रत्येक पत्थर लिंङ्ग का आकार ले लेता है। शास्त्रों में केव...

सारे जहाँ से अच्छा ...

सारे जहाँ से अच्छा, औपचारिक रूप से "तराना-ए-हिंदी" (हिन्दुस्तान के लोगों का गान) के रूप में जाना जाता है, उर्दू कविता की ग़ज़ल शैली में कवि मुहम्मद इकबाल द्वारा लिखे गए बच्चों के लिए एक उर्दू भाषा का देशभक्ति गीत है। यह कविता 16 अगस्त 1904 को साप्ताहिक पत्रिका इत्तेहाद में प्रकाशित हुई थी।

इकबाल द्वारा सार्वजनिक रूप से अगले वर्ष गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर, ब्रिटिश भारत (अब पाकिस्तान में) में गाया गया, यह तुरंत ब्रिटिश राज के विरोध का एक गान बन गया। यह गीत, हिंदुस्तान के लिए है - वह भूमि जिसमें वर्तमान बांग्लादेश, भारत और पाकिस्तान सम्मिलित हैं।


1910 में, मुहम्मद इकबाल ने मुस्लिम बच्चों के लिए एक गीत लिखा, "तराना-ए-मिल्ली" (मज़हबी समुदाय का गान), जिसे "सारे जहां से अच्छा" के रूप में एक ही छंद और तुकबंदी योजना में बनाया गया था।

तराना-ए-मिल्ली (1910) का पहला छंद पढ़ता है -

चीन ओ अरब हमारा, हिंदुस्तान हमारा
मुस्लिम हैं हम, वतन है सारा जहां हमारा

अर्थ -
मध्य एशिया और अरब हमारा है,
हिन्दुस्तान हमारा है
हम मुस्लिम हैं, सारा संसार हमारा है

इकबाल के समय में मध्य एशिया को चीन कहा जाता था

पारद शिवलिंग और शालग्राम पूजन का विशेष महत्त्व क्यों?

पारद शम्भु-बीज है। अर्थात् पारद (पारा) की उत्पत्ति महादेव शंकर के वीर्य से हुई मानी जाती है। इसलिए शास्त्रकारों ने उसे साक्षात् शिव माना है और पारदलिंग का सबसे अधिक महत्त्व बताकर इसे दिव्य बताया है। शुद्ध पारद संस्कार द्वारा बंधन करके जिस देवी-देवता की प्रतिमा बनाई जाती है, वह स्वयं सिद्ध होती है। वागभट्ट के मतानुसार, जो पारद शिवलिंग का भक्ति सहित पूजन करता है, उसे तीनों लोकों में स्थित शिवलिंगों के पूजन का फल मिलता है। पारदलिंग का दर्शन महापुण्य दाता है। इसके दर्शन से सैकड़ों अश्वमेध यज्ञों के करने से प्राप्त फल की प्राप्ति होती है, करोड़ों गोदान करने एवं हजारों स्वर्ण मुद्राओं के दान करने का फल मिलता है। जिस घर में पारद शिवलिंग का नियमित पूजन होता है, वहां सभी प्रकार के लौकिक और पारलौकिक सुखों की प्राप्ति होती है। किसी भी प्रकार की कमी उस घर में नहीं होती, क्योंकि वहां ऋद्धि-सिद्धि और लक्ष्मी का वास होता है। साक्षात् भगवान् शंकर का वास भी होता है। इसके अलावा वहां का वास्तुदोष भी समाप्त हो जाता है। प्रत्येक सोमवार को पारद शिवलिंग पर अभिषेक करने पर तांत्रिक प्रयोग नष्ट हो जाता है।

शिव महापुराण में शिवजी का कथन है-

लिंगकोटिसहस्रस्य यत्फलं सम्यगर्चनात् । 
तत्फलं कोटिगुणितं रसलिंगार्चनाद्भवेत ॥ 
ब्रह्महत्या सहस्राणि गौहत्यायाः शतानि च। 
तत्क्षणद्विलयं यांति रसलिंगस्य दर्शनात् ॥ 
स्पर्शनात्प्राप्यत मुक्तिरिति सत्यं शिवोदितम् ॥

अर्थात् करोड़ों शिवलिंगों के पूजन से जो फल प्राप्त होता है, उससे भी करोड़ गुना फल पारद शिवलिंग की पूजा और दर्शन से प्राप्त होता है। पारद शिवलिंग के स्पर्श मात्र से मुक्ति प्राप्त होती है।

शालग्राम

नेपाल में गंडकी नदी के तल में पाए जाने वाले काले रंग के चिकने अंडाकार पत्थर, जिनमें एक छिद्र होता है और पत्थर के अंदर शंख, चक्र, गदा या पद्म खुदे होते हैं तथा कुछ पत्थरों पर सफेद रंग की गोल धारियां चक्र के समान पड़ी होती हैं, इनको शालग्राम कहा जाता है।

शालग्राम रूपी पत्थर की काली बटिया विष्णु के रूप में पूजी जाती है। शालग्राम को एक विलक्षण मूल्यवान पत्थर माना गया है, जिसका वैष्णवजन बड़ा सम्मान करते हैं। पुराणों में तो यहां तक कहा गया है कि जिस घर में शालग्राम न हो, वह घर नहीं, श्मशान के समान है। पद्मपुराण के अनुसार जिस घर में शालग्राम शिला विराजमान रहा करती है, वह घर समस्त तीयों से भी श्रेष्ठ होता है। इसके दर्शन मात्र से ब्रह्महत्या दोष से शुद्ध होकर अंत में मुक्ति प्राप्त होती है। पूजन करने वालों को समस्त भोगों का सुख मिलता है। शालग्राम को समस्त ब्रह्मांडभूत नारायण (विष्णु) का प्रतीक माना जाता है। भगवान् शिव ने स्कंदपुराण के कार्तिक महात्म्य में शालग्राम का महत्त्व वर्णित किया है। प्रति वर्ष कार्तिक मास की द्वादशी को महिलाएं तुलसी और शालग्राम का विवाह कराती हैं और नए कपड़े, जनेऊ आदि अर्पित करती हैं। हिंदू परिवारों में इस विवाह के बाद ही विवाहोत्सव शुरू हो जाते हैं।

ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड अध्याय 21 में उल्लेख मिलता है कि जहां शालग्राम की शिला रहती है, वहां भगवान् श्री हरि विराजते हैं और वहीं संपूर्ण तीर्थों को साथ लेकर भगवती लक्ष्मी भी निवास करती हैं। शालग्राम शिला की पूजा करने से ब्रह्महत्या आदि जितने पाप हैं, वे सब नष्ट हो जाते हैं। छत्राकार शालग्राम राज्य देने की तथा वर्तुलाकार में प्रचुर संपत्ति देने की योग्यता है। विकृत, फटे हुए, शूल के नोक के समान, शकट के आकार के, पीलापन लिए हुए, भग्नचक्र वाले शालग्राम दुख, दखिता, व्याधि, हानि के कारण बनते हैं। अतः इन्हें घर में नहीं रखना चाहिए।

पुराण में यह भी कहा गया है कि शालग्राम शिला का जल जो अपने ऊपर छिड़कता है, वह समस्त यज्ञों और संपूर्ण तीथों में स्नान कर चुकने का फल पा लेता है। शिला की उपासना करने से चारों वेद के पढ़ने तथा तपस्या करने का पुण्य मिलता है। जो निरंतर शालग्राम शिला के जल से अभिषेक करता है, वह संपूर्ण दान के पुण्य तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा के उत्तम फल का अधिकारी बन जाता है। इसमें संदेह नहीं कि शालग्राम के जल का निरंतर पान करने वाला पुरुष देवाभिलषित प्रसाद पाता है। उसे जन्म, मृत्यु और जरा से छुटकारा मिल जाता है। मृत्युकाल में इसका जलपान करने वाला समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को चला जाता है। शालग्राम पर चढ़े तुलसी पत्र को दूर करने वाले का दूसरे जन्म में स्त्री साथ नहीं देती। शालग्राम, तुलसी और शंख इन तीनों को जो व्यक्ति सुरक्षित रूप से रखता है, उससे भगवान् श्री हरि बहुत प्रेम करते हैं।

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शास्त्रों के अनुसार कमाई का कितना हिस्सा दान करना चाहिए और दिया दान कब नष्ट हो जाता है?

हिन्दू धर्म के साथ-साथ कई अन्य धर्मों में भी दान करने की बात कही गयी है। दान देने से आपमें विनम्रता बनी रहती है और कई तरह धार्मिक लाभ भी मिलते हैं। दान के कई प्रकार होते हैं। गीता में तीन प्रकार के दान की बात कही गई है, 
दान करना पुण्य का काम है और यह व्यक्ति के व्यक्तित्व को बेहतर बनाता है।
ऋग्वेद के अनुसार, दान करने का फल यज्ञ करने के फल के समान होता है। 
धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि हर व्यक्ति को अपनी आय का दस प्रतिशत, जिसे 'दशांश' कहा जाता है, दान करना चाहिए ।
भगवद गीता में दान को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है: सात्विक, राजसिक और तामसिक।

 दान देने का मन में पश्चाताप या अश्रद्धा होने पर वह दान नष्ट हो जाता है। 

 यज्ञ करने के बाद जिस फल की प्राप्ति होती है, वही फल किसी को दान करने से भी मिलता है। हिंदू धार्मिक ग्रंथों में भी दान का विशेष महत्व बताया गया है लेकिन साथ में कुछ नियम भी बताये गए हैं। उन्हीं नियमों में इस बात की भी व्याख्या है कि आपको अपनी कमाई का कितना प्रतिशत हिस्सा जरूर दान करना चाहिए। 

 दस प्रतिशत हिस्सा जरूर दान दें 

 धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि हर व्यक्ति को अपनी आय का दस प्रतिशत जरूर दान करना चाहिए । इसे "दशांश" या "दशवंध" कहा जाता है। हिन्दू धर्म के अलावा यहूदी, ईसाई और इस्लामी धर्मों में भी दान देने की सलाह दी गयी है और इसे धार्मिक और नैतिक कर्तव्य माना जाता है। शास्त्रों की मानें, तो हर व्यक्ति को अपनी समर्थता और परिस्थिति के अनुसार दान करना चाहिए। यदि किसी की आय अधिक है और वह अधिक दान करने में सक्षम है, तो उसे अधिक दान करना चाहिए। दान से समाज में संतुलन और समृद्धि बनी रहती है। 

 दान देने के नियम 

भगवद गीता में दान को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है। पहला दान है सात्विक दान , जो बिना किसी अपेक्षा के और सही स्थान और समय पर किया जाता है। दूसरा दान है राजसिक दान, जो फल की अपेक्षा के साथ और किसी अन्य स्वार्थ के लिए किया जाता है। तीसरा है तामसिक दान , जो अनुचित स्थान, समय और व्यक्ति को किया जाता है। दान हमेशा सत्पात्र अर्थात् दान लेने हेतु योग्य व्यक्ति को ही दिया जाना चाहिए और ऋण लेकर कभी भी दान नहीं दिया जाना चाहिए । दान कभी भी अपनों को दुखी या प्रताड़ित करके भी नहीं दिया जाना चाहिए। दान को लेकर यह भी कहा जाता है कि अपने संकट काल के लिए संरक्षित धन यानि सेविंग का कभी भी दान नहीं दिया जाना चाहिए। 

 कब दिया दान नष्ट हो जाता है? 

दान देने से आपके मन के भाव में सकारात्मकता आती है। इसलिए अगर दान देने के बाद दान दाता के मन में पश्चाताप आ जाए या उसे दान देने का अफसोस हो, तो वो दान नष्ट हो जाता है। जो दान अश्रद्धापूर्वक या किसी गलत भाव के साथ दिया जाए, तो वह भी नष्ट हो जाता है। जो भयपूर्वक दिया जाता है। वह भी नष्ट हो जाता है। ऐसा दान जो स्वार्थ पूर्वक अर्थात् दान देने वाले से बदले में कुछ अपेक्षा रखकर दिया जाता है, तो वो भी नष्ट हो जाता है।

जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है जानिए...

जप के अनेक प्रकार हैं। उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं। परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं। जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है। 
जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं- 1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि। 
 
1. नित्य जप

प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है। यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए। आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्‍था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए। उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं। और जप संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है। 
 
2. नैमित्तिक जप

किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है। देव-पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है। सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है। उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए। इससे पुण्य-संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है। यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं। 'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है।   
इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है। पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं। हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है। जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है। इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है। इसलिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए। गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है। 
 
3. काम्य जप

किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं। यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है। आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है। इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है। योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।
 
इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता। काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं। जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है। इसलिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्‍छा नहीं समझते। परंतु सभी साधक समान नहीं होते। कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं। क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है। 
 
4. निषिद्ध जप

मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं। निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है। मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं। ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है। 
 
5. प्रायश्चित जप

अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित-नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह प्रायश्चित जप है। प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है। मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं। यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है। पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं। इसलिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।
 
मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। इसलिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है। नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे। अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए। नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए। प्रात:काल में पहले गो‍मूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें। यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म-चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें। अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें। केवल तुलसी दल-तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें। इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा। जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए। दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्‍या पूरी करें।
 
6. अचल जप

यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए। इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है। इसमें इच्छाशक्ति के साथ-साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है। इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए। स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश-काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।
 
अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। जप निश्चित संख्‍या से कभी कम न हो। जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए। इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए। यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार-विहार संयमित हों। एक स्‍थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्‍या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है। इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए। इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है। भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है। 
 
7. चल जप

यह जप नाम स्मरण जैसा है। प्रसिद्ध वामन प‍ंडित के कथनानुसार 'आते-जाते, उठते-बैठते, करते-धरते, देते-लेते, मुख से अन्न खाते, सोते-जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है। अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है। यह जप कोई भी कर सकता है। इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है। अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक्-शक्ति प्राप्त होती है। पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली-कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे। इससे बड़ी शक्ति संचित होती है। इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।
 
जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है। सुखपूर्वक संसार-यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है। उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है। मन निर्विषय हो जाता है। ईश-सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है। उसका योग-क्षेम भगवान वहन करते हैं। वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है। इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है, पर कुछ लोग छोटी-सी 'सुमरिनी' रखते हैं इसलिए कि कहीं विस्मरण होने का-सा मौका आ जाए तो वहां यह सु‍मरिनी विस्मरण न होने देगी। सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे। सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें। सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो। 

8. वा‍चिक जप

जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे वाचिक जप कहते हैं। बहुतों के विचार में यह जप निम्न कोटि का है और इससे कुछ लाभ नहीं है। परंतु विचार और अनुभव से यह कहा जा सकता है कि यह जप भी अच्‍छा है। विधि यज्ञ की अपेक्षा वाचिक जप दस गुना श्रेष्ठ है, यह स्वयं मनु महाराज ने ही कहा है। जपयोगी के लिए पहले यह जप सुगम होता है। आगे के जप क्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। इस जप से कुछ यौगिक लाभ होते हैं।
 
सूक्ष्म शरीर में जो षट्चक्र हैं उनमें कुछ वर्णबीज होते हैं। महत्वपूर्ण मंत्रों में उनका विनियोग रहता है। इस विषय को विद्वान और अनुभवी जपयोगियों से जानकर भावनापूर्वक जप करने से वर्णबीज शक्तियां जाग उठती हैं। इस जप से वाक्-सिद्धि तो होती ही है, उसके शब्दों का बड़ा महत्व होता है। वे शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते। अन्य लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। जितना जप हुआ रहता है, उसी हिसाब से यह अनुभव भी प्राप्त होता है। एक वाक्-शक्ति भी सिद्ध हो जाए तो उससे संसार के बड़े-बड़े काम हो सकते हैं। कारण, संसार के बहुत से काम वाणी से ही होते हैं। वाक्-शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा हिस्सा है। यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों के लिए उपयोगी है। 
 
9. उपांशु उपाय

वाचिक जप के बाद का यह जप है। इस जप में होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता। विधियज्ञ की अपेक्षा मनु महाराज कहते हैं कि यह जप सौ गुना श्रेष्ठ है। इससे मन को मूर्च्छना होने लगती है, एकाग्रता आरंभ होती है, वृत्तियां अंतर्मुख होने लगती हैं और वाचिक जप के जो-जो लाभ होते हैं, वे सब इसमें होते हैं। इससे अपने अंग-प्रत्यंग में उष्णता बढ़ती हुई प्रतीत होती है। यही तप का तेज है। इस जप में दृष्टि अर्धोन्मीलित रहती है। एक नशा-सा आता है और मनोवृत्तियां कुंठित-सी होती हैं, यही मूर्च्छना है। इसके द्वारा साधक क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। मंत्र का प्रत्येक उच्चार मस्तक पर कुछ असर करता-सा मालूम होता है- भालप्रदेश और ललाट में वेदनाएं अनुभूत होती हैं। अभ्यास से पीछे स्थिरता आ जाती है। 
 
10. भ्रमर जप

भ्रमर के गुंजार की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, वह भ्रमर जप कहाता है। किसी को यह जप करते, देखते-सुनने से इसका अभ्यास जल्दी हो जाता है। इसमें होंठ नहीं हिलते, जीभ हिलाने का भी कोई विशेष कारण नहीं। आंखें झपी रखनी पड़ती हैं। भ्रूमध्य की ओर यह गुंजार होता हुआ अनुभूत होता है। यह जप बड़े ही महत्व का है। इसमें प्राण सूक्ष्म होता जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है। प्राणगति धीर-धीमी होती है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे-धीरे होने लगता है। पूरक करने पर गुंजार व आरंभ होता है और अभ्यास से एक ही पूरक में अनेक बार मंत्रावृत्ति हो जाती है। 
 
इसमें मंत्रोच्चार नहीं करना पड़ता। वंशी के बजने के समान प्राणवायु की सहायता से ध्यानपूर्वक मंत्रावृत्ति करनी होती है। इस जप को करते हुए प्राणवायु से ह्रस्व-दीर्घ कंपन हुआ करते हैं और आधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक उनका कार्य अल्पाधिक रूप से क्रमश: होने लगता है। ये सब चक्र इससे जाग उठते हैं। शरीर पुलकित होता है। नाभि, हृदय, कंठ, तालु और भ्रूमध्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य होने लगता है। सबसे अधिक परिणाम भ्रूमध्यभाग में होता है। वहां के चक्र के भेदन में इससे बड़ी सहायता मिलती है। मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता। उसकी सब शक्तियां जाग उठती हैं। स्मरण शक्ति बढ़ती है। प्राक्तन स्मृति जागती है। मस्तक, भालप्रदेश और ललाट में उष्णता बहुत बढ़ती है। तेजस परमाणु अधिक तेजस्वी होते हैं और साधक को आंतरिक प्रकाश मिलता है। बुद्धि का बल बढ़ता है। मनोवृत्तियां मूर्च्छित हो जाती हैं। नागस्वर बजाने से सांप की जो हालत होती है, वही इस गुंजार से मनोवृत्तियों की होती है। उस नाद में मन स्वभाव से ही लीन हो जाता है और तब नादानुसंधान का जो बड़ा काम है, वह सुलभ हो जाता है। 
 
11. मानस जप 

यह तो जप का प्राण ही है। इससे साधक का मन आनंदमय हो जाता है। इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता है। मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है। नेत्र बंद रहते हैं। मंत्रार्थ का चिंतन ही इसमें मुख्‍य है। श्री मनु महाराज ने कहा है कि विधियज्ञ की अपेक्षा यह जप हजार गुना श्रेष्ठ है। भिन्न मंत्रों के भिन्न-भिन्न अक्षरार्थ और कूटार्थ होते हैं। उन्हें जानने से इष्टदेव के स्वरूप का बोध होता है। पहले इष्टदेव का सगुण ध्यान करके यह जप किया जाता है, पीछे निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होता है। और तब उसका ध्यान करके जप किया जाता है। नादानुसंधान के साथ-साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपायकारी होता है। केवल नादानुसंधान या केवल जप की अपेक्षा दोनों का योग अधिक अच्‍छा है। श्रीमदाद्य शंकराचार्य नादानुसंधान की महिमा कथन करते हुए

कहते हैं- 'एकाग्र मन से स्वरूप चिंतन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है। भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए? चित्त जैसे-जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे-वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा। नादाभ्यंतर ज्योति में जहां मन लीन हुआ, तहां फिर इस संसार में नहीं आना होता है अर्थात मोक्ष होता है।'
 
सतत नादानुसंधान करने से मनोलय बन पड़ता है। आसन पर बैठकर, श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपने कान बंद करके अंतरदृष्टि करने से नाद सुनाई देता है। अभ्यास से बड़े नाद सुनाई देते हैं और उनमें मन रमता है। मंत्रार्थ का चिंतन, नाद का श्रवण और प्रकाश का अनुसंधान- ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं। इस साधन के सिद्ध होने पर मन स्वरूप में लीन होता है, तब प्राण, नाद और प्रकाश भी लीन हो जाते हैं और अपार आनंद प्राप्त होता है। 
 
12. अखंड जप 

यह जप खासकर त्यागी पुरुषों के लिए है। शरीर यात्रा के लिए आवश्यक आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जपमय करना पड़ता है। कितना भी हो तो क्या, सतत जप से मन उचट ही जाता है, इसलिए इसमें यह विधि है कि जप से जब चित्त उचटे, तब थोड़ा समय ध्यान में लगाएं, फिर तत्वचिंतन करें और फिर जप करें। कहा है- 
 
जपाच्छ्रान्त: पुनर्ध्यायेद् ध्यानाच्छ्रान्त: पुनर्जपेत्।
जपध्यानपरिश्रान्त: आत्मानं च विचारयेत्।।
'जप करते-करते जब थक जाएं, तब ध्यान करें। ध्यान करते-करते थकें, तब फिर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें, तब आत्मतत्व का विचार करें।'
 
13. अजपा जप 

यह सहज जप है और सावधान रहने वाले से ही बनता है। किसी भी तरह से यह जप किया जा सकता है। अनुभवी महात्माओं में यह जप देखने में आता है। इसके लिए माला का कुछ काम नहीं। श्वाछोच्छवास की क्रिया बराबर हो ही रही है, उसी के साथ मंत्रावृत्ति की जा सकती है। अभ्यास से मंत्रार्थ भावना दृढ़ हुई रहती है, सो उसका स्मरण होता है। इसी रीति से सहस्रों संख्‍या में जप होता रहता है। इस विषय में एक महात्मा कहते हैं- 
 
राम हमारा जप करे, हम बैठे आराम। 
 
14. प्रदक्षिणा जप

इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, औदुम्बर या पीपल-वृक्ष की अथवा ज्योतिर्लिंगादि के मंदिर की या किसी सिद्धपुरुष की, मन में ब्रह्म भावना करके, मंत्र कहते हुए परिक्रमा करनी होती है। इससे भी सिद्धि प्राप्त होती है- मनोरथ पूर्ण होता है।

महामृत्युंजय मंत्र की महिमा ।।

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

देवाधिदेव महादेव ही एक मात्र ऐसे भगवान हैं, जिनकी भक्ति हर कोई करता है, चाहे वह इंसान हो, राक्षस हो, भूत-प्रेत हो अथवा देवता हो, यहां तक कि पशु-पक्षी, जलचर, नभचर, पाताललोक वासी हो अथवा बैकुण्ठवासी हो, शिव की भक्ति हर जगह हुई और जब तक दुनिया कायम है, शिव की महिमा गाई जाती रहेगी। 

शिव पुराण कथा के अनुसार शिव ही ऐसे भगवान हैं, जो शीघ्र प्रसन्न होकर अपने भक्तों को मनचाहा वर दे देते हैं, वे सिर्फ अपने भक्तों का कल्याण करना चाहते हैं, वे यह नहीं देखते कि उनकी भक्ति करने वाला इंसान है, राक्षस है, भूत-प्रेत है या फिर किसी और योनि का जीव है, शिव को प्रसन्न करना सबसे आसान है। 

शिवलिंग की महिमा अपरम्पार है, शिवलिंग में मात्र जल चढ़ाकर या बेलपत्र अर्पित करके भी शिव को प्रसन्न किया जा सकता है, इसके लिए किसी विशेष पूजन विधि की आवश्यकता नहीं है, एक कथा के अनुसार वृत्तासुर के आतंक से देवता भयभीत थे, वृत्तासुर को श्राप था कि वह शिव पुत्र के हाथों ही मारा जायेगा। 

इसलिए पार्वती के साथ शिवजी का विवाह कराने के लिए सभी देवता चिंतित थे, क्योंकि भगवान शिव समाधिस्थ थे और जब तक समाधि से उठ नहीं जाते, विवाह कैसे होता? देवताओं ने विचार करके रति व कामदेव से शिव की समाधि भंग करने का निवेदन किया, कामदेव ने शिवजी को जगाया तो क्रोध में शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया, रति विलाप करने लगी तो शिव ने वरदान दिया कि द्वापर में कामदेव भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में जन्म लेंगे। 

इस बात में तो सभी यकीन करते होंगे, कि वक़्त से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को कुछ नहीं मिलता, पर यह सभी जानते है कि वक़्त और किस्मत पर भी विजयी हो सकते हैं, अगर आप भगवान् भोलेनाथ की असीम शक्ति में विश्वास रखते है, इसके उदाहरण स्वरुप मैं एक कथा बताना चाहूंगा।

भगवान शिव यानि देवाधिदेव महादेव को तो सब जानते हैं जो परमपिता परमेश्वर, जगत के स्वामी और सब देवो के देव है, कथा से पहले आपको यह बता दूँ की यह वह समय हैं, जब महादेव की अर्धांगिनी देवी पार्वती, बाल्यवस्था में अपनी माता मैना देवी के साथ मार्कंडय ऋषि के आश्रम में रहती थी, और पार्वती देवी एक दिन असुरो के कारण संकट में पड़ गयी और महादेव ने उनके प्राणों की रक्षा की।

मैना ने जब अपनी पुत्रि की जान पर आई आपदा के बारे में सुना तो वह अत्यंत दुखी और भयभीत हो गयी, पर ऋषि मार्कंडय ने उन्हें जब बताया कि कैसे महादेव ने देवी पार्वती की रक्षा की, पर वह तब भी संतोष न कर सकी, मैना देवी विष्णु भगवान की उपासक थी, जिस वजह से शिव की महिमा में ज़रा भी विश्वास नहीं रखती थी, शिवजी ठहरे वैरागी और श्मशान में रहने वाले तो भला वह कैसे उनकी पूजा करे। 

तत्पश्चात ऋषि मार्कंडय ने मैना को शिव भगवान की महिमा के बारे में बताने का विचार किया, और उनको यह कथा विस्तार से बताई- जब मार्कंडय ऋषि केवल ग्यारह वर्ष के थे, तब उनके पिता ऋषि मृकण्डु को गुरुकूल आश्रम के गुरु से यह ज्ञात हुआ की मार्कंडय की सारी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण हो चुकी है और अब वह उन्हें अपने साथ ले जा सकते है।

क्योंकि उन्होंने सारा ज्ञान इतने कम समय में ही अर्जित कर लिया और अब उनको और ज्ञान देने के लिए कुछ शेष नहीं था, यह जानने के बाद भी की उनका पुत्र मार्कंडय इतना बुद्धिमान और ज्ञानवान है, उनके माता पिता खुश नहीं हुयें, मार्कंडय ने जब पूछा की उनके दुःख का कारण क्या है? तब उनके पिता ने उनके जन्म की कहानी बताई कि पुत्र की प्राप्ति हेतु उन्होंने और उनकी माता ने कई वर्षो तक कठिन और घोर तप किया है।

तब भगवान् महादेव प्रसन्न होकर प्रकट हुयें, और उनको इस बात से अवगत कराया की उनके भाग में संतान सुख नहीं है, परन्तु उनके तप से प्रसन्न होकर उनको पुत्र का वरदान दिया, और उनसे पूछा की वह कैसा पुत्र चाहते है, जो बुद्धिवान ना हो पर उसकी आयु बहुत ज्यादा हो या ऐसा पुत्र जो बहुत बुद्धिमान हो परन्तु जिसकी आयु बहुत कम हो।

मृकण्डु और उनकी पत्नी ने कम आयु वाला पर बुद्धिमान पुत्र का वरदान माँगा, महादेवजी ने उनको बताया की यह पुत्र केवल बारह वर्ष तक ही जीवित रहेगा, वह फिर विचार कर ले, पर उन्होंने वही माँगा और महादेव उनको वरदान देकर भोलेनाथ अंतर्ध्यान हो गये, ऋषि मृकंदु ने यह सब अपने पुत्र को बताया, जिसको सुनने के बाद वह बहुत दुःखी हुआ, यह सोचकर की वह अपने माता -पिता की सेवा नहीं कर सकेगा।

परन्तु बालक मार्कंडय ने उसी समय यह निर्णय किया की वह अपनी मृत्यू पर विजय प्राप्त करेंगे और भगवान शिव की पूजा से यह हासिल करेंगे, बालक मार्कंडय ग्यारह वर्ष की आयु में वन को चले गयें, लगभग एक वर्ष के कठिन तप के दौरान उन्होंने एक नए मंत्र की रचना की जो मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सके, वह है- "ॐ त्रियम्बकं यजामहे, सुगन्धिं पुष्टिवर्धनं, उर्वारुकमिव बन्धनात मृत्योर्मोक्षिय मामृतात्" 

जब वह 12 वर्ष के हुए तब यमराज उनके सामने, प्राण हरण के लिये प्रकट हो गये, बालक मार्कंडय ने यमराज को बहुत समझया और याचना की, कि वह उनके प्राण बक्श दे, परन्तु यमराज ने एक ना सुनी और और वह यमपाश के साथ उनके पीछे भागे बालक मार्कंडय भागते-भागते वन में एक शिवलिंग तक पहुचे जिसे देख कर वह उनसे लिपट गये, और भगवान् शिव का मंत्र बोलने लगे जिसकी रचना उन्होंने स्वयं की थी। 

यमराज ने बालक मार्कंडय की तरफ फिर से अपना यमपाश फेका परन्तु शिवजी तभी प्रकट हुए और उनका यमपाश अपने त्रिशूल से काट दिया, बालक मार्कंडय शिवजी के चरणों में याचना करने लगे की वह उनको प्राणों का वरदान दे, परन्तु महादेव ने उनको कहा की उन्होंने ही यह वरदान उनके माता-पिता को दिया था, इस पर बालक मार्कंडय कहते है कि यह वरदान तो उनके माता पिता के लिये था ना कि उनके लिये? 

यह सुनकर महादेव बालक मार्कंडय से अत्यंत प्रसन्न होते है और उनको जीवन का वरदान देते है, भगवान् भोलेनाथ ने यमराज को आदेश देते है की वह इस बालक के प्राण ना ले, कथा से क्या इस बात पर पुन: विचार करने का मन होता है की भक्ति में बहुत शक्ति है, ऐसा क्या नहीं है जो इस संसार में ईश्वर की भक्ति करने से प्राप्त ना किया जा सके, भगवान् भोलेनाथ की भक्ति और शक्ति की महिमा का बहुत बड़ा महात्म्य है।