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यक्ष व यक्षिणी ।।

💫यक्षिणी (या यक्षी ; पालि: यक्खिनी या यक्खी ) हिंदू, बौद्ध और जैन धार्मिक पुराणों में वर्णित एक वर्ग है जो देवों (देवताओं), असुरों (राक्षसों), और गन्धर्वों या अप्सराओं से अलग हैं। यक्षिणी और यक्ष, भारत के सदियों पुराने पवित्र पेड़ों से जुड़े कई अपसामान्य प्राणियों में से एक हैं।

यक्ष-यक्षिणी का वर्णन, अनेक धर्म ग्रंथों में मिलता है। इन्हें भगवान शिव के, सेवक माना जाता है। इनके राजा यक्षराज कुबेर हैं, जो धन के स्वामी हैं। ये कुबेर रावण के भाई भी हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार, यक्ष-यक्षिणीयों के पास रहस्यमयी ताकत होती है।

मनोकांमना पूर्ति हेतु यक्ष - यक्षिणी पूजा ----

तंत्र शास्त्र के अनुसार, इस ब्रह्मांड में , कई लोक हैं। सभी लोकों के अलग-अलग देवी-देवता हैं। पृथ्वी से , इन सभी लोकों की दूरी अलग-अलग है। मान्यता है कि, नजदीक लोक में रहने वाले देवी-देवता जल्दी प्रसन्न होते हैं। क्योंकि, लगातार ठीक दिशा और समय पर, किसी मंत्र विशेष की साधना करने पर, उन तक तरंगे जल्दी पहुंचती हैं। यही कारण है कि, यक्ष-यक्षिणी की साधना जल्दी पूरी होती है । क्योंकि, इनके लोक पृथ्वी से पास माने गए हैं।

यक्ष एक दैवी प्रजाति है, इनका स्वामी शिव का भक्त कुबेर है । शिव, कुबेर की भक्ति से, इतने प्रसन्न हो गए कि, उसे देवताओं का खजांची अथवा कोषाध्यक्ष बना दिया। ये सबसे धनवान देवता हैं और अपने कैलास के बगल में , उनको रहने का स्थान ( लोक ) दिया , यक्षों के राजा कुबेर हैं , और उनके लोक का नाम ' अलकापूरी ' है । यक्ष लोग देवताओं जैसे होते है।

योगिनी, किन्नरी, अप्सरा आदि की तरह ही यक्षिणियां भी, मनुष्य की समस्त कामनाओं की पूर्ति करती हैं। साधारणतया, 36 यक्षिणियां हैं तथा उनके वर देने के प्रकार अलग-अलग हैं। माता, बहन या पत्नी के रूप में , उनका वरण किया जाता है। उनकी साधना के पहले तैयारी की जाती है, जो अधिक कठिन है, बजाय साधना के।

रहस्यमयी शक्तियों के स्वामी होते हैं यक्ष-यक्षिणी, इनकी पूजा से पूरी हो सकती है , हर मनोकामनाएं !

।। श्रीगोवर्धनाष्टकम् ।।

 
कृष्णप्रसादेन समस्तशैल
साम्राज्यमाप्नोति च वैरिणोऽपि ।
शक्रस्य यः प्राप बलिं स साक्षा-
द्गोवर्धनो मे दिशतामभीष्टम् ॥ १॥
स्वप्रेष्ठहस्ताम्बुजसौकुमार्य
सुखानुभूतेरतिभूमि वृत्तेः ।
महेन्द्रवज्राहतिमप्यजानन्
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ २॥
यत्रैव कृष्णो वृषभानुपुत्र्या
दानं गृहीतुं कलहं वितेने ।
श्रुतेः स्पृहा यत्र महत्यतः श्री
गोवर्धनो मे दिषतामभिष्टम् ॥ ३॥
स्नात्वा सरः स्वशु समीर हस्ती
यत्रैव नीपादिपराग धूलिः ।
आलोलयन् खेलति चारु स श्री
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ४॥
कस्तूरिकाभिः शयितं किमत्रे-
त्यूहं प्रभोः स्वस्य मुहुर्वितन्वन् ।
नैसर्गिकस्वीयशिलासुगन्धै-
र्गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ५॥
वंशप्रतिध्वन्यनुसारवर्त्म
दिदृक्षवो यत्र हरिं हरिण्याः ।
यान्त्यो लभन्ते न हि विस्मिताः स
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ६॥
यत्रैव गङ्गामनु नावि राधां
आरोह्य मध्ये तु निमग्ननौकः ।
कृष्णो हि राधानुगलो बभौ स
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ७॥
विना भवेत्किं हरिदासवर्य
पदाश्रयं भक्तिरतः श्रयामि ।
यमेव सप्रेम निजेशयोः श्री
गोवर्धनो मे दिषतामभीष्टम् ॥ ८॥
एतत्पठेद्यो हरिदासवर्य
महानुभावाष्टकमार्द्रचेताः ।
श्रीराधिकामाधवयोः पदाब्ज
दास्यं स विन्देदचिरेण साक्षात् ॥ ९॥
इति महामहोपाध्याय श्रीविश्वनाथचक्रवर्ति विरचितं श्रीगोवर्धनाष्टकं सम्पूर्णं ।।

जानिए आपके प्राण कहाँ से निकलेंगे...

प्रत्येक व्यक्ति अलग इंद्रिय से मरता है।किसी की मौत आंख से होती है, तो आंख खुली रह जाती है—हंस आंख से उड़ा। किसी की मृत्यु कान से होती है। किसी की मृत्यु मुंह से होती है, तो मुंह खुला रह जाता है। 

अधिक लोगों की मृत्यु जननेंद्रिय से होती है, क्योंकि अधिक लोग जीवन में जननेंद्रिय के आसपास ही भटकते रहते हैं, उसके ऊपर नहीं जा पाते।

आपकी जिंदगी जिस इंद्रिय के पास जीयी गई है, उसी इंद्रिय से मौत होगी। औपचारिक रूप से हम मृतक को जब मरघट ले जाते हैं तो उसकी कपाल—क्रिया करते हैं, उसका सिर तोड़ते हैं। वह सिर्फ प्रतीक है। पर समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु उस तरह होती है। समाधिस्थ व्यक्ति की मृत्यु सहस्रार से होती है।

जननेंद्रिय सबसे नीचा द्वार है। जैसे कोई अपने घर की नाली में से प्रवेश करके बाहर निकले। सहस्रार, जो तुम्हारे मस्तिष्क में है द्वार, वह श्रेष्ठतम द्वार है। 

जननेंद्रिय पृथ्वी से जोड़ती है, सहस्रार आकाश से। जननेंद्रिय देह से जोड़ती है, सहस्रार आत्मा से। जो लोग समाधिस्थ हो गए हैं, जिन्होंने ध्यान को अनुभव किया है, जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं, उनकी मृत्यु सहस्रार से होती है।

उस प्रतीक में हम अभी भी कपाल—क्रिया करते हैं। मरघट ले जाते हैं, बाप मर जाता है, तो बेटा लकड़ी मारकर सिर तोड़ देता है। मरे—मराए का सिर तोड़ रहे हो! 

प्राण तो निकल ही चुके, अब काहे के लिए दरवाजा खोल रहे हो? अब निकलने को वहां कोई है ही नहीं। मगर प्रतीक, औपचारिक, आशा कर रहा है बेटा कि बाप सहस्रार से मरे; मगर बाप तो मर ही चुका है। 

यह दरवाजा मरने के बाद नहीं खोला जाता, यह दरवाजा जिंदगी में खोलना पड़ता है। इसी दरवाजे की तलाश में सारे योग, तंत्र की विद्याओं का जन्म हुआ। इसी दरवाजे को खोलने की कुंजियां हैं योग में, तंत्र में। 

इसी दरवाजे को जिसने खोल लिया, वह परमात्मा को जानकर मरता है। उसकी मृत्यु समाधि हो जाती है।

प्रत्येक व्यक्ति उस इंद्रिय से मरता है, जिस इंद्रिय के पास जीया। जो लोग रूप के दीवाने हैं, वे आंख से मरेंगे; इसलिए चित्रकार, मूर्तिकार आंख से मरते हैं। उनकी आंख खुली रह जाती है। जिंदगी—भर उन्होंने रूप और रंग में ही अपने को तलाशा, अपनी खोज की। संगीतज्ञ कान से मरते हैं। उनका जीवन कान के पास ही था।

उनकी सारी संवेदनशीलता वहीं संगृहीत हो गई थी। मृत्यु देखकर कहा जा सकता है—आदमी का पूरा जीवन कैसा बीता। अगर तुम्हें मृत्यु को पढ़ने का ज्ञान हो, तो मृत्यु पूरी जिंदगी के बाबत खबर दे जाती है कि आदमी कैसे जीया; क्योंकि मृत्यु सूचक है, सारी जिंदगी का सार—निचोड़ है—आदमी कहां जीया।

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मृत्यु के समय जीव के साथ क्या घटित हो रहा होता है उसका वहां अन्य लोगों को अंदाज़ नही हो पाता । लेकिन घटनाएं तेज़ी से घटती हैं । मृत्यु के समय व्यक्ति की सबसे पहले वाक उसके मन में विलीन हो जाती है ।उसकी बोलने की शक्ति समाप्त हो जाती है।

उस समय वह मन ही मन विचार कर सकता है लेकिन कुछ बोल नहीं सकता । उसके बाद दृष्टिऔर फिरश्रवण इन्द्रिय मन में विलीन हो जाती हैं । उस समय वह न देख पाता है, न बोल पाता है और न ही सुन पाता है ।

उसके बाद मन इन इंद्रियों के साथ प्राण में विलीन हो जाता है उस समय सोचने समझने की शक्ति समाप्त हो जाती है, केवल श्वास-प्रश्वास चलती रहती है ।

इसके बाद सबके साथ प्राण सूक्ष्म शरीर मे प्रवेश करता है । फिर जीव सूक्ष्म रूप से पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश (पञ्च तन्मात्राओं) का आश्रय लेकर हृदय देश से निकलने वाली 101 नाड़ियों में से किसी एक में प्रवेश करता है ।

हृदय देश से जो 101 नाड़ियां निकली हुई है, मृत्यु के समय जीव इन्हीं में से किसी एक नाड़ी में प्रवेश कर देह-त्याग करता है । मोक्ष प्राप्त करने वाला जीव जिस नाड़ी में प्रवेश करता है, वह नाड़ी हृदय से मस्तिष्क तक फैली हुई है । जो मृत्यु के समय आवागमन से मुक्त नहीं हो रहे होते वे जीव किसी दूसरी नाड़ी में प्रवेश करते हैं ।

जीव जब तक नाड़ी में प्रवेश नही करता तब तक ज्ञानी और मूर्ख दोनों की एक गति एक ही तरह की होती है । नाड़ी में प्रवेश करने के बाद जीवन की अलग अलग गतियां होती हैं।

श्री आदि शंकराचार्य जी का कथन है कि 'जो लोग ब्रह्मविद्या की प्राप्ति करते हैं वो मृत्यु के बाद देह ग्रहण नही करते, बल्कि मृत्यु के बाद उनको मोक्ष प्राप्त हो जाता है' । श्री रामानुज स्वामी का कहना है 'ब्रह्मविद्या प्राप्त होने के बाद भी जीव जीव देवयान पथ पर गमन करने के बाद ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है, उसके बाद मुक्त हो जाता है' ।

देवयान पथ के संदर्भ में श्री आदि शंकराचार्य जी ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि 'जो सगुण ब्रह्म की उपासना करते हैं वे ही सगुण ब्रह्म को प्राप्त होते हैं और जो निर्गुण ब्रह्म की उपासना कर ब्रह्मविद्या प्राप्त करते हैं वे लोग देवयान पथ से नहीं जाते'। 

अग्नि के सहयोग से जब स्थूल शरीर नष्ट हो जाता है, उस समय सूक्ष्म शरीर नष्ट नहीं हुआ करता ।

मृत्यु के बाद शरीर का जो भाग गर्म महसूस होता है, वास्तव में उसी स्थान से सूक्ष्म शरीर देह त्याग करता है । इसलिए वह स्थान थोड़ा गर्म महसूस होता है ।

 गीता के अनुसार जो लोग मृत्यु के अनंतर देवयान पथ से गति करते हैं उनको 'अग्नि' और 'ज्योति' नाम के देवता अपने अपने अधिकृत स्थानों के द्वारा ले जाते हैं । उसके बाद 'अह:' अथवा दिवस के अभिमानी देवता ले जाते हैं । उसके बाद शुक्ल-पक्ष व उत्तरायण के देवता ले जाते हैं ।

थोड़ा स्पष्ट शब्दों में कहे तो देवयान पथ में सबसे पहले अग्नि-देवता का देश आता है फिर दिवस-देवता, शुक्ल-पक्ष, उत्तरायण, वत्सर और फिर आदित्य देवता का देश आता है । देवयान मार्ग इन्हीं देवताओं के अधिकृत मार्ग से ही होकर गुजरता है ।

उसके बाद चन्द्र, विद्युत, वरुण, इन्द्र, प्रजापति तथा ब्रह्मा, क्रमशः आदि के देश पड़ते हैं । जो ईश्वर की पूजा-पाठ करते हैं, भक्ति करते हैं वो इस मार्ग से जाते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता तथा वो अपने अभीष्ट के अविनाशी धाम चले जाते हैं ।
 
पितृयान मार्ग से भी चन्द्रलोक जाना पड़ता है, लेकिन वो मार्ग थोड़ा अलग होता है । उस पथ पर धूम, रात्रि, कृष्ण-पक्ष, दक्षिणायन आदि के अधिकृत देश पड़ते हैं। अर्थात ये सब देवता उस जीव को अपने देश के अधिकृत स्थान के मध्य से ले जाते हैं। 

चन्द्रलोक कभी अधिक गर्म तो कभी अतरिक्त शीतल हो जाता है । वहां अपने स्थूल शरीर के साथ कोई नहीं रह सकता, लेकिन अपने सूक्ष्म शरीर (जो मृत्यु के बाद मिलता है) कि साथ चन्द्रलोक में रह सकता है ।

जो ईश्वर पूजा नहीं करते, परोपकार नही करते, हर समय केवल इन्द्रिय सुख-भोग में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वे लोग मृत्यु के बाद न तो देवयान पथ से और न ही पितृयान पथ से जाते है बल्कि वे पशु योनि 
(जैसी उनकी आसक्ति या वासना हो) में बार बार यही जन्म लेकर यही मरते रहते हैं ।

जो लोग अत्यधिक पाप करते है, निरीह और असहायों को सताने में जिनको आनंद आता है, ऐसे नराधमों की गति (मृत्य के बाद) निम्न लोकों में यानी कि नरक में होती है । यहां ये जिस स्तर का कष्ट दूसरों को दिए होते हैं उसका दस गुणा कष्ट पाते हैं । विभिन्न प्रकार के नरकों का वर्णन भारतीय ग्रंथों में दिया गया है ।

अतः नारायण का स्मरण सदैव करें।समय बीतता जा रहा है।जीवन क्षणभंगुर है।


कार्तिक मास

🔺 श्री हरि नारायण को सर्वाधिक प्रिय कार्तिक मास का अलौकिक वेदोक्त वर्णन ⁉️
🔺 कार्तिक मास की सर्वोपयुक्त व्रत विधि ⁉️
🔺 कार्तिक मास में वेदानुसार किन-किन पदार्थों का त्याज्य कर दें ⁉️
🔺 कार्तिक मास के लिए कितने प्रकार के महात्म्य बताए गए हैं ⁉️

🛑 विशेष ➺ कार्तिक मास स्नान की संपूर्ण विधि व्याख्या अवश्य पढ़ें।

           ।। कार्तिक मास ।।
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सत्य सनातन धर्म में कार्तिक मास की महत्ता अति श्रेष्ठ मानी गई है। सभी बारह मासों में मार्गशीर्ष मास को अत्यन्त पुण्यदायक कहा गया है, उससे भी अधिक पुण्य देने वाला वैशाख मास कहा गया है, प्रयाग में माघ मास का अधिक महत्व है तथा इससे भी महान तथा अधिक फलदायी कार्तिक मास को कहा गया है, जब ब्रह्मा जी ने एक तरफ सभी प्रकार के दान, व्रत तथा नियम रखे और दूसरी ओर कार्तिक का स्नान रखकर तौला तो कार्तिक स्नान का पलड़ा ही भारी पाया।

सूर्य भगवान जब तुला राशि पर आते है तो कार्तिक मास का प्रारम्भ होता है इस मास का माहत्म्य पद्मपुराण तथा स्कन्दपुराण में विस्तार पूर्वक मिलता है। कलियुग में कार्तिक मास को मोक्ष के साधन के रूप में दर्शाया गया है इस मास को धर्म, अर्थ काम और मोक्ष को देने वाला बताया गया है नारायण भगवान ने स्वयं इसे ब्रम्हा को, ब्रम्हा ने नारद को और नारद ने महाराज पृथु को कार्तिक मास के सर्वगुण सम्पन्न माहात्म्य के संदर्भ में बताया है।

कार्तिकसमो मासो न कृतेन समं युगम्।
न वेदसदृशं शास्त्रं न तीर्थं गंगा समम्।। 

कार्तिक मास से श्रेष्ठ कोई अन्य मास नहीं,
सतयुग के समान कोई अन्य युग नहीं।
वेद के समान कोई अन्य शास्त्र नहीं और
गंगाजी के समान कोई और तीर्थ नहीं है।

भगवान नारायण के शयन और प्रबोधन से चातुर्मास्य का प्रारम्भ और समापन होता है उत्तरायण को देवकाल और दक्षिणायन को आसुरिकाल माना जाता है दक्षिणायन में सत्गुणों के क्षरण से बचने और बचाने के लिए हमारे शास्त्रों में व्रत और तप का विधान है सूर्य का कर्क राशि पर आगमन दक्षिणायन का प्रारम्भ माना जाता है और कातिक मास इस अवधि में ही होता है पुराण आदि शास्त्रों में कार्तिक मास का विशेष महत्व है यूँ तो हर मास का अलग अलग महत्व है परन्तु व्रत, तप की दृष्टि से कार्तिक मास की महता अधिक है शास्त्रों में भगवान विष्णु और विष्णु तीर्थ के ही समान कर्तिक् मास को श्रेष्ट और दुर्लभ कहा गया है शास्त्रों में ये मास परम कल्याणकारी कहा गया है।

 कार्तिक मास के व्रत नियम
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कार्तिक मास में जो भी व्रत आदि रखता है उसे सदा एक पहर रात बचते ही उठ जाना चाहिए फिर स्तोत्र आदि के द्वारा अपने इष्ट देव की स्तुति करते हुए दिन के बाकी कामों को करना चाहिए। गाँव अथवा नगर के अनुसार दैनिक कर्म मल-मूत्र त्याग आदि कर उत्तर की ओर मुँह करके बैठना चाहिए। इसके साथ ही दाँत व जिह्वा की शुद्धि के लिए वृक्ष के समीप जाकर निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए - 

आयुर्बल यशो वर्च: प्रजा पशुवसूनि च ।
ब्रह्म प्रज्ञां च मेघां च त्वं नो देहि वनस्पते ।।

अर्थात हे वनस्पति! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, सन्तति, पशु, धन, वैदिक ज्ञान, प्रज्ञा एवं धारणाशक्ति प्रदान करें. इस प्रकार कहकर वृक्ष से दाँतुन लेनी चाहिए. दूध वाले वृक्षों की दाँतुन लेना वर्जित माना गया है। दाँतों को विधिपूर्वक शुद्ध करके मुँह को जल से धोना चाहिए, इसके बाद कार्तिक का व्रत करने वाले को विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए।

स्नान के बाद नए अथवा स्वच्छ वस्त्र धारण करके तिलक लगाना चाहिए फिर अपनी गोत्र विधि के अनुसार अथवा अपने घर के नियमानुसार संध्या उपासना करनी चाहिए. जब तक सूर्योदय ना हो जाए तब तक गायत्री मंत्र का जाप करते रहना चाहिए। संध्योपासना के अंत में विष्णु सहस्त्रनाम आदि का पाठ करना चाहिए, फिर व्यक्ति को अपनी दिनचर्या आरंभ करनी चाहिए जैसे वह जो भी काम करता हो उस पर जाना चाहिए। मध्यान्ह में दाल के अलावा शेष अन्न का भोजन करना चाहिए। जो व्यक्ति अतिथियों को भोजन कराकर स्वयं भोजन ग्रहण करता है वह भोजन अमृततुल्य होता है।

मुख शुद्धि के लिए तुलसी का सेवन करना उत्तम है। उसके बाद शेष दिन सांसारिक व्यवहार में व्यतीत करना चाहिए, सायंकाल में पुन: भगवान के मन्दिर जाकर संध्या करके यथाशक्ति दीपदान करना चाहिए. भगवान विष्णु अथवा अपने देवता को प्रणाम करके आरती उतारनी चाहिए, प्रथम प्रहर में कीर्तन करते हुए जागरण करना चाहिए, प्रथम प्रहर के बीत जाने पर शयन करना चाहिए, इस प्रकार जो व्यक्ति एक महीने तक शास्त्र अनुसार विधि का पालन करते हुए कार्तिक मास में स्नान-दान करता है, उसे भगवान का सालोक्य प्राप्त होता है।

कार्तिक मास त्याज्य पदार्थ
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हिन्दू धर्म में इस महीने में कुछ परहेज/ त्याज्य बताए गए हैं। कार्तिक स्नान करने वाले श्रद्धालुओं को इसका पालन करना चाहिए। इस मास में धूम्रपान निषेध होता है। यही नहीं लहुसन, प्याज और मांसाहर का सेवन भी वर्जित होता है। 

कार्तिक मास में प्याज, सिंघाड़ा, सेज, बेर, राई, नशीली वस्तुएँ और चिवड़ा इन सभी का उपयोग भी वर्जित है, कार्तिक व्रत करने वाले व्यक्ति को देवता, वेद, ब्राह्मण, गुरु, गौ, व्रती, स्त्री और महात्माओं की निन्दा नहीं करनी चाहिए, कार्तिक मास में नरक चतुर्दशी को (छोटी दीवाली) शरीर में तेल लगाना चाहिए, इसके अलावा व्रती मनुष्य को अन्य किसी भी दिन तेल नहीं लगाना चााहिए, व्रत करने वाले को कार्तिक में चाण्डाल, म्लेच्छ, पतित, व्रतहीन, ब्राह्मण द्वेषी और वेद बहिष्कृत लोगों से बातचीत भी नहीं करनी चाहिए।

इस महीने में भक्त को बिस्तर पर नहीं सोना चाहिए उसे भूमि शयन करना चाहिए। इस दौरान सूर्य उपासना विशेष फलदायी होती है। साथ ही दाल खाना तथा दोपहर में सोना भी अच्छा नहीं माना जाता है। तेल लगाना, दूसरे का दिया भोजन ग्रहण करना, तेल खाना, अधिक बीज वाले फलों का सेवन, चावल तथा दाल ये खाद्य पदार्थ कार्तिक मास में नहीं खाने चाहिए. इसके अलावा गाजर, बैंगन, बासी खाना, मसूर, कांसे के बर्तन में भोजन, कांजी, दुर्गंधित पदार्थ, किसी भी समुदाय का अन्न अर्थात भण्डारा, शूद्र का अन्न, सूतक का अन्न, श्राद्ध का अन्न यह कार्तिक व्रत करने वाले को त्याग देने चाहिए।

कार्तिक मास वेदोक्त महात्म्य 
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भगवान श्रीकृष्ण कहते है- हे प्रिये! एकादशी और कार्तिक व्रत मुझे बहुत ही प्रिय हैं। इनसे मुक्ति, भुक्ति, पुत्र तथा सम्पत्ति प्राप्त होती है। कार्तिक मास में जब तुला राशि पर सूर्य आता है तब ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान करने व व्रत व उपवास करने वाले मनुष्य मुझे बहुत प्रिय हैं क्योंकि यदि उन्होंने पाप भी किये हों तो भी स्नान व व्रत के प्रभाव से उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है। कार्तिक में स्नान, जागरण, दीपदान तथा तुलसी के पौधे की रक्षा करने वाले मनुष्य साक्षात भगवान विष्णु के समान है। कार्तिक मास में मन्दिर में झाड़ू लगाने वाले, स्वस्तिक बनाने वाले तथा भगवान विष्णु की पूजा करने वाले मनुष्य जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा पा जाते हैं। इसके अतिरिक्त कुछ विशेष नियम निम्न प्रकार हैं 

1 ➾ जो कार्तिक मास प्राप्त हुआ देख पराये अन्न का सर्वथा त्याग करता है (बाहर का कुछ नही खाता) उसे अतिक्रच्छ नामक यज्ञ करने का फल मिलता है।

2 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे रोज भगवान विष्णु को कमल के फूल चढाता है। वह 1 करोड जन्म के पाप से मुक्त हो जाता है।

3 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे रोज भगवान विष्णु को तुलसी चढाता है , वह हर 1 पत्ते पर 1 हीरा दान करने का फल पाता है।

4 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे रोज गीता का एक अध्याय पड़ता है वह कभी यमराज का मुख नही देखता।

5 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे शालिग्राम शिला का दान करता है उसे सम्पूर्ण पृथ्वी के दान का फल मिलता है।

6 ➾ कार्तिक मास मे जो व्यक्ति पुरे मास पलाश की पत्तल मे भोजन करता है । वह विष्णु लोक को जाता है।

7 ➾ कार्तिक मास मे तुलसी पीपल और विष्णु की रोज पूजा करनी चाहिए।

8 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे रोज भगवान विष्णु के मंदिर की परिक्रमा करता है । उसे पग पग पर अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है।

9 ➾ इस जन्म मे जो पाप होते है वह सब कार्तिक मास मे दीपदान करने से नष्ट हो जाता है।

10 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे रोज नाम जप करते है। उन पर भगवान विष्णु प्रसन्न रहते है।

11 ➾ जो मनुष्य कार्तिक मास मे तुलसी ,पीपल या आवले का वृक्षारोपण करते है। वह पेड़ जब तक पृथ्वी पर रहते है। लगाने वाला तब तक वैकुण्ठ मे वास करता है।

🛑 विशेष ➺
 
 कार्तिक स्नान सम्पूर्ण विधि
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कार्तिक महीने में दान, पूजा-पाठ तथा स्नान का बहुत महत्व होता है तथा इसे कार्तिक स्नान की संज्ञा दी जाती है। यह स्नान सूर्योदय से पूर्व किया जाता है। इस समय घर की महिलायें नदियों में ब्रह्ममूहुर्त में स्नान करती हैं। यह स्नान विवाहित तथा कुंवारी दोनों के लिए फलदायी होता है। स्नान कर पूजा-पाठ को खास अहमियत दी जाती है। कार्तिक स्नान आश्विन माह की पूर्णिमा से प्रारंभ होकर अगले माह कार्तिक माह की पूर्णिमा पर समाप्त होता है। इस पवित्र स्नान को आरंभ करने से पहले आश्विन माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी आने पर भगवान विष्णु को प्रणाम कर कार्तिक व्रत करने की आज्ञा लेनी चाहिए। इस तरह से आज्ञा लेने से भगवान प्रसन्न होते हैं और अपने भक्त पर कृपा कर उसे आत्मिक बल तथा मनोबल प्रदान करते हैं. साथ ही ईश्वर अपने भक्त को विधिपूर्वक कार्तिक व्रत करने की सद्बुद्धि देते हैं।

इस काल खंड में देश की पवित्र नदियों में स्नान का खास महत्व होता है। भगवान कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए आश्विन की पूर्णिमा से लेकर कार्तिक की पूर्णिमा तक प्रतिदिन गंगा जी में स्नान करना चाहिए. यदि गंगा जी नहीं है तब किसी भी नदी, तालाब अथवा पोखर आदि में कार्तिक स्नान करना चाहिए. यदि कुछ भी नहीं है तब नियमित रुप से घर पर ही शुद्ध बाल्टी अथवा पात्र से स्नान करना है उसमें गंगा जी सहित सभी पवित्र नदियों की कल्पना करके स्नान करना चाहिए।
 
देवी पक्ष अर्थात भगवती दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी की महारात्रि आने तक प्रतिदिन स्नान करना चाहिए। श्रीगणेश जी को प्रसन्न करने के लिए आश्विन कृष्ण चतुर्थी से लेकर कार्तिक कृष्ण चतुर्थी तक नियमपूर्वक स्नान करना चाहिए। भगवान जनार्दन को प्रसन्न करने के लिए आश्विन शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक प्रतिदिन स्नान करना चाहिए।
 
जो मनुष्य जाने-अनजाने कार्तिक मास में नियम से स्नान करते हैं, उन्हें कभी यम-यातना को नहीं देखना पड़ता, कार्तिक मास में तुलसी के पौधे के नीचे राधा-कृष्ण की मूर्त्ति रखकर पूरे भाव के साथ पूजा करनी चाहिए. यदि आंवले का पेड़ है तब उसके नीचे भी राधा-कृष्ण की मूर्त्ति रखकर पूरे श्रद्धा भाव से पूजन करना चाहिए।
 
विधिपूर्वक स्नान करने के लिए जब दो घड़ी रात बाकी बच जाए तब तुलसी की मिट्टी, वस्त्र और कलश लेकर जलाशय या गंगा तट अथवा पवित्र नदी के किनारे जाकर पैर धोने चाहिए तथा गंगा जी के साथ अन्य पवित्र नदियों का ध्यान करते हुए विष्णु, शिव आदि देवताओं का ध्यान करना चाहिए. उसके बाद नाभि तक जल में खड़े होकर निम्न मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।

कार्तिकेsहं करिष्यामि प्रात: स्नानं जनार्दनं ।
प्रीत्यर्थं तव देवेश दामोदर मया सह ।।

अर्थात हे जनार्दन देवेश्वर ! लक्ष्मी सहित आपकी प्रसन्नता के लिए मैं कार्तिक प्रात: स्नान करुँगा। 

उसके बाद निम्न मंत्र का उच्चारण करें - 

गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे ।
नम: कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने ।।।
नमस्तेsस्तु हृषीकेश गृहाणार्घ्यं नमोsस्तुते ।।

अर्थात आप मेरे द्वारा दिये गये इस अर्घ्य को श्रीराधाजी सहित स्वीकार करें, 
हे हरे! आप कमलनाभ को नमस्कार है, जल में शयन करने वाले आप नारायण को नमस्कार है. इस अर्घ्य को स्वीकार कीजिए, आपको बारम्बार नमस्कार है।
 
व्यक्ति किसी भी जलाशय में स्नान करे, उसे स्नान करते समय गंगा जी का ही ध्यान करना चाहिए. सबसे पहले मृत्तिका (मिट्टी) आदि से स्नान कर ऋचाओं द्वारा अपने मस्तक पर अभिषेक करें. अघमर्षण और स्नानांग तर्पण करें तथा पुरुष सूक्त द्वारा अपने सिर पर जल छिड़्के. इसके बाद जल से बाहर निकलकर दुबारा अपने मस्तक पर आचमन करना चाहिए और कपड़े बदलने चाहिए। कपड़े बदलने के बाद तिलक आदि लगाना चाहिए। जब कुछ रात बाकी रह जाए तब स्नान किया जाना चाहिए क्योंकि यही स्नान उत्तम कहलाता है तथा भगवान विष्णु को पूर्ण रूप से संतुष्ट करता है। 

प्राचीनकाल में कार्तिक मास में पुष्कर का स्पर्श पाकर नन्दा परम धाम को प्राप्त हुई थी, राजा प्रभंजन भी कार्तिक मास में पुष्कर में स्नान करने से व्याघ्र योनि से मुक्त हुए थे,अत: कार्तिक मास में जो मनुष्य प्रात:काल उठकर तीर्थ में स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त होकर श्री हरि को प्राप्त होता है। सूर्योदय काल में किया गया स्नान मध्यम स्नान कहलाता है, कृत्तिका अस्त होने से पहले तक का स्नान उत्तम माना जाता है, बहुत देर से किया गया स्नान कार्तिक स्नान नहीं माना जाता है। 
इस प्रकार संपूर्ण कार्तिक स्नान कर्म विधि को सर्व मोक्ष एवं कल्याण रूप में निरूपित किया जाना चाहिए। 


🚩नमो नारायण 🚩

आवाहन बंधन, संकल्प जाप और विसर्जन कैसे करते हैं ??

सभी का आवाहन मंत्र अलत होता है।
साधारण रूप से आवाहन करना है तो
आवाहन मुद्रा बनाकर उनका मंत्र बोलते हुए आवाहयामी बोला जाता है
जैसे गणेश जी का आवाहन करना है तो "ॐ गं गणपतये नमः आवाहयामी स्थापित नमः"

संकल्प के लिए हाथ में थोड़ा सा जल लेकर अपना संकल्प को बोला जाता है आप हिंदी में भी हो सकते हैं उसमें अपना नाम, गोत्र, तिथि, वार, किस चीज के लिए साधना कर रहे हैं इत्यादि बोला जाता है।

बंधन के लिए मंत्र दिया होगा उसे बोलते हुए करना है।

मंत्र जप में विसर्जन नहीं होता समर्पण होता है।

१.पवित्रीकरण

बायें हाथ में जल लेकर उसे दायें हाथ से ढककर निम्न मंत्र पढ़ें -

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥

इस अभिमंत्रित जल को दाहिने हाथ की उंगलियों से अपने सम्पूर्ण शरीर पर छिड़कें, जिससे आन्तरिक और बाह्य शुद्धि हो।

२. आचमन

मन, वाणी तथा हृदय की शुद्धि के लिए पंचपात्र से आचमनी द्वारा जल लेकर तीन बार निम्न मंत्रों के उच्चारण के साथ पियें

ॐ केशवाय नमः ।
ॐ माधवाय नमः।
ॐ गोविंदा य नमः।

ओम ऋषिकेशाय नमः एक आचमनी जल ले कर हाथ धो ले।

३.शिखा बन्धन

शिखा पर दाहिना हाथ रखकर दैवी शक्ति का स्थापन करें, जिससे साधना पथ में प्रवृत्त होने के लिए आवश्यक ऊर्जा प्राप्त हो सके

चिद्रूपिणि महामाये दिव्य तेजः समन्विते । 
तिष्ठ देवि ! शिखामध्ये तेजो वृद्धिं कुरुष्व मे॥

४.न्यास

इसके उपरान्त मंत्रों के द्वारा अपने सम्पूर्ण शरीर को पुष्ट व सबल बनाएं। प्रत्येक मंत्र उच्चारण के साथ सम्बन्धित अंग को दाहिने हाथ से स्पर्श करें।

५.आसन पूजन

अब अपने आसन के नीचे कुंकुम या चन्दन से त्रिकोण बनाकर उस पर अक्षत, चन्दन व पुष्प निम्न मंत्र बोलते हुए समर्पित करें और हाथ जोड़कर प्रार्थना करें

ॐ पृथ्वि ! त्वया धृता लोका देवि ! त्वं विष्णुना धृता। 
त्वं च धारय मां देवि ! पवित्रं कुरु चासनम् ॥

६.दिग् बन्धन

बायें हाथ में जल या चावल लेकर दाहिने हाथ से सभी दिशाओं में निम्न मंत्र बोलते हुए ऊपर व नीचे छिड़कें

ॐ अपसर्पन्तु ये भूता ये भूताः भूमि ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया ।। 
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम्। सर्वेषामविरोधेन पूजाकर्म समारभे ।।

गणेश स्मरण

तत्पश्चात् गणपति के बारह नामों का स्मरण करें, प्रत्येक कार्य करने के पूर्व भी इन बारह नामों का स्मरण सिद्धिदायक माना गया है।

 सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः ।
 लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ।।
 धूम्रकेतु र्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः। 
 द्वादशै तानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि।।
 विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। 
 संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥

इतना करने के बाद जिसकी मंत्र जाप करना है उसे देवी/देवता का संक्षिप्त पूजन करें।

पूजन में सबसे पहले हाथ जोड़कर ध्यान करें ध्यान मंत्र बोलते हुए।

फिर आवाहन मुद्रा बनाते हुए आवाहन मंत्र बोलकर आवाहन करें।

फिर आसन के लिए कुछ पुष्प लेकर आसान मंत्र बोलते हुए उसके पुष्प चढ़ाएं।

फिर पैर धोने के लिए पाद्य, हाथ धोने के लिए अर्ध्य ,स्नान,वस्त्र, चंदन,अक्षत,पुष्प,धूप,दीप नैवेद्य, निरंजन जल आरती पुष्पांजलि विशेषार्ध्य, समर्पण (सभी का मंत्र अलग-अलग होगा)
फिर उसके बाद मानसिक रूप से गुरु आज्ञा लेकर मंत्र जप शुरू करें अंत में जप समर्पण कर दें।