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मूर्ति पूजा ।।

कासीत् प्रमा प्रतिमा, किं निदानमाज्यम्, किमासीत् परिधिः क आसीत्।
 छन्दः किमासीत् प्र उगं किमुक्थं यद्देवा देवमयजन्त विश्वे।।(ऋक् 8-7-18-3)

ये प्रश्नोत्तर क्रम है इसे वाकोवाक्य भी कहा जाता है।
मानने वालों को तो इतने से ही मान लेना चाहिये ।
न मानने को तो साक्षात् भगवान भी नहीं मना सकते।
प्रमाण रावण कंस शिशुपालादि को कहां मना पाये।

प्र.-1
प्रमा का?
(परमेश्वरः कया प्रमीयते) परमेश्वर की प्रमा क्या है,परमात्मा का यथार्थ ज्ञान किससे हो सकता है?

उ.-1प्रतिमा।प्रतिमया प्रतिमा के द्वारा ही परमात्मा का यथार्थ ज्ञान हो सकता है।

प्र.-2
किं निदानम्,,(प्रतिमायाःनिर्माणकारणं किम्) प्रतिमा का निर्माण कारण (उपादानादि) क्या है,,
उ.-2
आज्यम् प्राकट्यमात्रम्( यैः प्रतिमा निर्माणं कर्तुं शक्यते तैरेव काष्ठ पाषाण मृदादिभिः कुर्यात्,)श्रुतिविहित काष्ठ पाषाण मृत्तिकादि से निर्माण करना चाहिये।

प्र.-3
परिधिः कः?(परिधीयते अस्मिन्निति परिधिः स्थानं कीदृशं स्यात् यत्र मूर्ति: स्थाप्या) प्रतिमा की स्थापना के लिये उपयुक्त स्थान कौन सा हो।
उ.-3
छन्दः (छादनात् छन्दः इति निरुक्त्या छादितं स्थानं स्यात् अन्तरिक्षे मूर्तिपूजनं न कार्यम्)आच्छादित स्थान में मूर्ति की स्थापना हो,खुले में नहीं।

प्र.-4
वितर्के प्र उ गं,, (गमन साधनं यानं किम्) उ वितर्क में है मूर्ति को स्थानान्तरित करने के लिये कैसा यान हो।

उ.-4
यत् किमपि,विमान रथ गजाजनरादिकम्.।उत्तमोत्तम विमान गज अज नर पालकी आदि।

प्र.-5
देवाः विद्वांसः देवं भगवन्तं किमुक्थं अजयन्तः किम् वाग् विषयं मत्वा पूजयन्ति,देवगण भगवान का पूजन किस प्रकार करते हैं।

उ.-5
यत् (यथाविहितं स्यात्) श्रुति स्मृति धर्मशास्त्रानुरूप कर्तव्य विधायक शास्त्रों के अनुसार ही पूजन करना चाहिये मनमाने नहीं।
क्योंकि शास्त्र विधि का उल्लंघन करके किया गया कर्म सर्वत्र दुखद होता है।यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।गीतायाम्

प्राणप्रतिष्ठामन्त्र-
एतु प्राणाः एतु मन एतु चक्षु रथोबलम्(अथर्व,5 )इस प्रतिमा में प्राण आये, मन आये,नेत्र आये, बल आये।

प्रतिमा को नमस्कार-
ऋषीणां प्रस्तरोसि नमोस्तु देव्याय प्रस्तराय (अथर्व )

हे प्रतिमे त्वम् ऋषीणां प्रस्तरोसि अतः दिव्याय प्रस्तराय तुभ्यम् नमोस्तु।
हे प्रतिमे तुम ऋषियों के वन्दनीय दिव्य पाषाण हो अतः तुमको नमस्कार है।

औरों की तो बात ही क्या मूर्तिपूजा पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाले 
भी स्वामी दयानन्दजी कृत संस्कारविधि 62-74 में उलूखल मूसल छुरा झाङू कुश जूते तक का पूजन करते पाये जाते हैं।
1--
नमस्तेस्त्वायते नमो अस्तु परायते।
नमस्ते रुद्र तिष्ठत परमात्मन् आयते ते नमः अस्तु(आने वाले तुमको नमन हो) आयते की निष्पत्ति कैसे हुई,,आङ् उपसर्ग पूर्वक इण गतौ धातु से शतृ प्रत्यय करने पर आ एति आगच्छतीति आयन् तस्मै आयते,,ऐसा रूप सिद्ध होता है।

2-
भक्त पाद्यार्घ्य देने की तैय्यारी में है तब तक प्रेम विवश भगवान खङे है।भक्त कहता है, तिष्ठते ते नमः अस्तु।प्रेमाभिभूत होकर खङे रहने वाले आप रुद्र को नमस्कार है।

3-
आसन पर विराजने के उपरान्त भक्त पूजा करने को उद्यत हो कहता है।उत आसीनाय उपविष्टाय ते नमः सपर्या सम्भार अंगीकार करने के लिये विराजित रुद्र को नमस्कार है।

4-
पूजोपरान्त आशीर्वादादि देकर जब भगवान जाने लगते हैं तब भक्त कहता है।परायते ते नमः अस्तु परावृत्य गच्छते आकर पुनः स्वधाम जाने वाले प्रभु रुद्र को नमस्कार है।

भले मानुसों और कितने प्रमाण देने से आपकी शंका पिशाची का परिमर्दन होगा।जिससे आक्रान्त आप यथार्थ बोध से वंचित हो कुछ भी बोल उठते हैं।

यस्मिन्निमा विश्वाभुवनान्यन्तः स नो मृड पशुपते नमस्ते (अथर्व 11-15-5-5,6)
यस्मिन् परात्मनि अन्तः उदरे एव विश्वा भुवनानि चराचर भुवनानि सन्ति सः परमात्मा नः अस्मान् हमको मृड आनन्दं सुखं वा प्रददातु।हे पशुपते शिव ते नमः अस्तु।।सकल लोक जिसके अन्दर अवस्थित हैं ,वह परमात्मा हमको सुख प्रदान करे,उन जीवमात्र (पशु घृणा,शंका,भय,लज्जा,जुगुप्सा,
कुल,शील,वित्तादि अष्ट पाशैर्बद्धो जीवमात्रः पशुः तेषाम् पशुनाम् पतिः पशुपतिः सम्बोधने पशुपते ) के स्वामी पशुपति को नमस्कार है।

मुखायते पशुपते यानि चक्षूंषि ते भव,
त्वचे रूपाय संदृशे प्रतीचीनाय ते नमः।
अंगेभ्यस्त उदराय जिह्वाय आस्याय ते दद्भ्यो गन्धाय ते नमः।(अथर्व 11-11-1-5,56)

हे पशुपते ते मुखाय ,यानि चक्षूंषि त्रिनेत्राणि,त्वचे,नमः अस्तु । हे भव ते संदृशे रूपाय दर्शनीय रूप को नमः।प्रतीचीनाय ते नमः,पश्चिमदिगधिपते ते नमः, ते अंगेभ्यः उदराय जिह्वाय नमः। ते दद्भ्यः गन्धाय नमः,हे सदाशिव पशुपते आपके मुख को ,नेत्रों को, त्वचा को ,नमस्कार हो, हे भव आपका जो दर्शनीय रूप है उसको भी नमस्कार है, पश्चिम दिशा के स्वामी को नमन है,आपके अंगों उदर , जिह्वा , दन्त ,तथा आपकी पावन देहगन्ध को भी नमस्कार है।

अर्हन् विभर्षि सायकानिधन्वार्हन् निष्कं यजतं विश्वरूपं अर्हन्निदम् दयसे विश्वमम्व न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति।(ऋग् 2-33-10)
रुद्र अर्हन् धन्वा सायकानि विभर्षि हे सामर्थ्यशाली शिव आप धनुषवाण धारण करने वाले हैं।

अर्हन् यजतं विश्वरूपं निष्कं विभर्षि हे सौन्दर्यनिधे शिव आप पूजनीय विविध रूपो में व्यक्त हो विविध महर्घ रत्नहार अलंकारादि को धारण करने वाले हैं।

अर्हन् इदं अम्वं विश्वं दयसे हे स्तुत्य शिव आप इस समस्त विश्व की रक्षा करते हैं।
त्वत् ओजीयः न अस्ति हे भगवन् आप से बढकर ओजस्वी श्रेष्ठ कोई है नहीं।
निराकार ब्रह्म का तो सावयव होना ,सालंकार होना, असम्भव है अतः भगवती श्रुति ने स्पष्ट उद्घोष किया है कि वे साकार भी हैं(जैसे भगवान साकार ही हैं ये कहना अज्ञान है,वैसे ही भगवान निराकार ही हैं ये कहना भी अज्ञान ही है,क्योंकि आप ब्रह्म की इयत्ता निर्धारित करने वाले होते कौन हैं,क्या आप स्वयं को सर्वज्ञ मनाते हैं जो उनके विषय में निर्णय देने का दुस्साहस करते हैं)

प्रजापतिः चरति गर्भे अन्तः अजायमानो बहुधा विजायते(यजु 31-16)
जन्मादिरहित निराकार परमात्मा अपनी शुद्ध सत्वगुण प्रधान माया के साहचर्य से स्वेच्छया (भक्तभावपराधीनत्वात् न त्वन्येन केनचित् पारतन्त्र्येण) विविधरूप धारण करते हैं।भगवान कहते भी हैं संभवामि युगे युगे।

त्रयम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिवबन्धनान् मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।।(यजु 3-6)

निरुक्तकाराभिमतार्थ,,त्रीणि अम्बकानि यस्य सः त्र्यम्बको रुद्रः तं त्र्यम्बकं यजामहे,,,तीन नेत्र वाले सदाशिव को हम पूजते हैं। सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्,,जो कि सुगन्धियुक्त पुष्टिकर्ता हैं। उर्व्वारुकमिव मृत्योः बन्धनात् मुक्षीय अमृतात् मा जैसे पका हुआ खरबूजा अपनी डाल से अलग हो जाता है उसी प्रकार सदाशिव की कृपा से हम मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें।परन्तु अमृतत्व से अलग न हो।
अब निष्पक्ष होकर सुधीजन विचार करें कि क्या मूर्ति पूजा का विधान वेदप्रतिपाद्य नहीं है।

श्रुति शास्त्र स्मृति पुराण से जो धर्म निर्णय मानता ,
वो वस्तुतः निगमागमों के तत्व को है जानता।
शुचि धर्मतत्व विशुद्ध यह वैदिक सनातन कर्म है,
वैदिक सनातन कर्म ही पौराणिकों का धर्म है।।

 (निज प्रभुमय देखहि जगत केहि सन करहि विरोध।
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिनके द्विज पद प्रेम।।सुन्दर काण्ड )

दुख इस बात का है कि भोले भाले सगुणोपासक श्रद्धालु
जनों से उनकी आस्था का प्रमाण मांगने वाले वो लोग हैं जिनका अपना कोई वास्तविक आधार नहीं,जैसे विचारी सती साध्वी पतिव्रता से कुलटाओं का समूह कहने लगे तू पाखण्ड करती है चल अपने सतीत्व को प्रमाणित कर।

जिनके आदर्श की उम्र मात्र कुछ वर्ष है,जिनकी परम्परा निराधार कुतर्को पर टिकी है जिनका धर्म कर्म मर्म मात्र सनातन धर्म के सर्वजनहितकारी लोकमंगलकारी सिद्धान्तों का उपहास ही करना है।मूर्ति पूजा के नाम से भी चिढने वाले अपने वंदनीय का चित्र गले में लटकाये घूमते हुए गर्व का अनुभव करते शरमाते नहीं हैं। कुतर्काश्रित खण्डन करना और गाली देना ही जिनका स्वभाव बन गया है।
आश्चर्य ये है कि पतंजलि को तो मानते हैं महाभाष्य से प्रमाण भी देते हैं,परन्तु उनके सिद्धान्त का खण्डन करके मात्र 4 संहिताओं को ही वेद मानते हैं 1131 शाखाओं में से केवल 4 को मानना शेष का परित्याग करने वाले विचारे अल्पग्राही ,समग्रवेद को मानने वालों से कहते हैं कि इन चार ही संहिताओं में मूर्ति पूजा का प्रमाण दिखाओ तो माने,महाशयो 1127 शाखाओं का क्या होगा ।आप कहते हैं कि उपलब्ध नहीं हैं तो आपकी बात को हम सत्य मानते हैं परन्तु जो आज प्रत्यक्ष उपलब्ध नहीं है वह है ही नहीं इसमें क्या प्रमाण है।यदि आप कहते हैं कि जो उपलब्ध नहीं है उसे क्यों माने तो आप तो फस गये क्या आप निराकार ब्रह्म दिखा सकते हैं(हम निराकार की सत्ता पर शंका नहीं कर रहे हमको तो मान्य है ही) ठीक है आज कलिकाल के कुठाराघातों के कारण वेद समग्रतया उपलब्ध नहीं है,तब भी तो सामवेद की 3 शाखायें ,,यजुर्वेद की 3 शाखायें,अथर्ववेद की 2 शाखायें ऋग्वेद की 2 शाखायें आज भी सुरक्षित हैं नित्य स्वाध्याय होता है आप उन विप्रों के वेदाराधन की उपेक्षा कैसे कर सकते हैं।(जनश्रुति पर आधारित पर शाखाओं की उपलब्धता)
उपनिषदों में ईशावास्य को मानते हैं तब अन्य को मानने में क्या हानि है।

अब आप स्वयं सोचे इतने प्रबल प्रमाण होने पर भी लोग क्यों इस अनादि परम्परा साकारोपासना का विरोध करते हैं,भगवान शंकराचार्य रामानुजाचार्य रामानन्दाचार्य निम्बार्काचार्य बल्लभाचार्य माधवाचार्य तुलसी दास बाल्मिकि व्यास से लेकर श्री करपात्री जी आदि तक समस्त साकारोपासक अगणित ऋषि महर्षियों का तिरस्कार करके क्या सिद्ध करना चाहते हैं ।क्या इस परम्परा में हजारों वर्षों से नित्य होने वाली ठाकुर जी की सेवा पूजा का उपहास करके, स्वयं एक तथाकथित वेदज्ञ(वेद को समग्रतया जानने की बात कहना सागर को पीना,आकाश को पकङना,धरती के रजकण गिनना,जैसा ही है,धरती के धूलीकण तो गिने भी जा सकते हैं परन्तु वेद को समग्रतया जानना असम्भव) की बातों को प्रमाण मानकर ,आप आत्मविनाश करने को उद्यत नहीं हो रहे क्या,तथा इस पवित्र परम्परा के तपःपूत ऋषिप्रवरों को पौराणिक कहकर मखौल उङाने का दुस्साहस नहीं करते हैं क्या,क्या ये सत्य नहीं कि यह सुनियोजित षडयन्त्र है भारतीय संस्कृति को चोट पहुंचाने के लिये हमारे ही कुछ भाई बिक गये हैं पाश्चात्यों के हाथ और उनके द्वारा बरगलाये जाने पर अपने ही हाथों अपने ही घर को आग लगाने में लगे हैं।

 ये कैसी एकता की बात है आप किसी के हृदय पर आघात करें फिर कहे हम तो सभी हिन्दुओं को एक करने के लिये कर रहे हैं किसी को पराजित करके नीचा दिखाने की भावना जब तक न त्यागी जायेगी आप अपने सहोदर का भी स्नेह न पा सकोगे मन की कुटिलता त्यागे विना आप हिन्दुओं को कैसे एक कर सकोगे।

आप मूर्ति पूजा का खण्डन करके क्या पा रहे है।
कपिल भगवान कृत माता देवहूति का उपदेश झुठला रहे हैं।
नारद,शाण्डिल्य, आदि दिव्यर्षियों द्वारा कृत उपासना पद्धति को नकार रहे है।
रंग अवधूत ,दत्तात्रेय ,धूनीवाले दादा जी,अखण्डानन्द जी,उङिया बाबा,हरीबाबा,आदि की अनुभूतियों को तिरस्कृत कर रहे हैं।
श्री रामकृष्ण परमहंस की आध्यात्मिक उपलब्धि पर आप उंगली उठा रहे हैं।
महारणा प्रताप की वंश परम्परा में सम्पूजित भगवान एकलिंग की पूजा पर प्रश्नचिह्न लगा रहे हैं,जो कि आज भी विद्यमान हैं,,आप राणा की जय करेंगे राजपूताने की जय बोलेंगे और उनके उपास्य की अवहेलना सोचें
वीर शिवाजी की जय बोलते हैं पर उनकी आराध्या माँ तुलजा भवानी की सत्ता को नकारते हैं।
प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद को कहते हैं वे सर्वश्रेष्ठ थे परन्तु उनके द्वारा पुनः स्थापित भगवान सोमनाथ की सत्ता पर उंगली उठाते हैं।

चारों धामों ,समस्त तीर्थों, सप्तपुरियों द्वादश ज्योतिर्लिंगों, इक्यावन शक्तिपीठों, चारों महाकुम्भों के पवित्र क्षेत्रों, की आध्यात्मिक सत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
नामदेव, ज्ञानेश्वर, मीराबाई, एकनाथ, तुकाराम,नरसी, धन्ना,चेता, हरिदास, चैतन्य महाप्रभु, तुलसी सूरदास,नाभादास, आदि सहस्रों भक्त सन्त जिन्होंने भगवान का साक्षात्कार किया , इन सबका तिरस्कार करते हैं।

राम, कृष्ण, विष्णु ,शिव ,सूर्य ,दुर्गा ,गणेश, हनुमानजी सब्रह्मण्य स्वामी त्रिपति बालाजी आदि दिव्य उपास्यों के समस्त उपासकों को आप गलत अज्ञानी भटके सिद्ध करके आप कौनसे हिन्दुओं की एकता की बात करते हैं,,इन सबका नित्य अपमान करके आप किस संगठन की कल्पना करते हैं,,क्या प्रमाण है कि ये तथाकथित उंगली पर गिने जा सकने वाले निराकारोपासक(मात्र अपने ही मुख से स्वयं को आर्य कहने वाले भले ही आर्य का एक लक्षण न घटता हो वेद का एक मन्त्र सस्वर शुद्ध भले न बोल सकें पर वेदाभिमानी बनने वाले) श्रेष्ठ हिन्दु हैं।

हम मान सकते हैं कि अर्थपिशाचग्रस्त कुछ जनों ने स्वार्थपूर्तिहेतु अपप्रचारपूर्वक साकारोपासना की आड़ ली होगी।
हो सकता है मूर्ति पूजा की आङ में बहुत से स्वार्थी विषयी लोग व्यापार करने लगे होंगे, तो क्या कुछ गलत लोगों के कारण आप पूरी परम्परा को नकार सकते हैं।

आज समय की आवश्यकता है हठधर्मिता को त्यागकर परमत सहिष्णु होकर राष्ट्रहित में इन विवादों को छोङकर उपासना पद्धतियों के भिन्न होने पर भी हम सब हिन्दु जाति के संरक्षण के लिये ,अपनी अस्मिता की रक्षा के लिय़े,हिन्दु पर होते आघातों से शिक्षा लेकर एक हो जायें।यही उपाय है अन्यथा इन विवादों से कुछ भला होगा नहीं,,,,सिर्फ ये होगा कि हम सब परस्पर महापुरुषों को गाली देकर प्रायश्चित्त के भागी होते हैं ,निस्तेज होते जाते हैं।

,देखो भाई बङी साफ बात है,,जैसे स्वामी दयानन्द जी को ही प्रमाणित मानने वाले अन्यों की महत्ता को जाने विना उनके त्याग तपस्या विद्या साधना से अनभिज्ञ हो उनको पौराणिक कहकर उनकी उपेक्षा करते हैं ।
वैसे ही अन्य भी इनके द्वारा अपने आदर्शों का अपमान देखकर विचलित होंगे ही और बदले में वे इनके आदर्श के त्याग तप ज्ञान साधना की उपेक्षा करके उनको गाली देंगे ही ।
परिणाम क्या हुआ,पूरी हिन्दु जाति किसी न किसी रूप में अपने सभी महापुरुषों को तिरस्कृत कर रही है।

जो जाति अपने महापुरुषों का सम्मान सुरक्षित नहीं रख पाती वह पराभव को प्राप्त हो जाती है।
परमात्मा तो निराकार भी है साकार भी निराकार ही भक्तप्रेमविवश हो साकार होते हैं जैसे काष्ठगत अग्नि निराकार है,वही मन्थनादि द्वारा साकार हो जाती है,,जैसे माचिस की तीली में आग है पर उस आग को साकार करना होगा घर्षण से,तब आप दीप जला सकते है बिना साकार उसकी उपयोगिता ही क्या है।

आक्षेप करने से यदि राष्ट्रहित हो हिन्दुहित हो सनातन हित हो तो अवश्य करें।यदि समन्वय से सर्वहित हो तो अवश्य इस विषय में उदारवादी जन विवेकी महानुभाव एकतापथ पर बढ़ें।

 ये आलेख उनके लिये है जो ब्रह्म को सगुण और निर्गुण रूप में स्वीकार करते हैं,,कुतर्क से बचते हैं,,जिनके हृदय में हिन्दु जाति के अभ्युदय की भावना है ,और संगठित होने के लिये आक्षेप रहित समतामूलक परस्पर आदरभाव का व्यवहार करते हैं।।
अतिशयोक्ति अथवा अन्यथोक्ति लगे तो विना सूचित किये अपने अनुरूप बना लें।शिवार्पणमस्तु।।

सङ्कलयिता 
पूर्वाचार्य पद सरोजाश्रित:
त्र्यम्बकेश्वरश्चैतन्य:

रोजगार प्राप्ति के लिए करें ।।

।। मां काली पञ्च बाण ।।


इस साबर मंत्र का प्रयोग नवरात्रि से शुरू कर सकते हैं।

आज के इस युग में प्रत्येक व्यक्ति अच्छे रोजगार की प्राप्ति में लगा हुआ है पर बहुत प्रयत्न करने पर भी अच्छी नौकरी नहीं मिलती है ! रोजगार सम्बन्धी किसी भी समस्या के समाधान के लिए इस मन्त्र का प्रतिदिन 11बार सुबह और 11बार शाम को जप करे !

प्रथम वाण—-

ॐ नमः काली कंकाली महाकाली
मुख सुन्दर जिए ब्याली
चार वीर भैरों चौरासी
बीततो पुजू पान ऐ मिठाई
अब बोलो काली की दुहाई !

द्वितीय वाण ——-

ॐ काली कंकाली महाकाली
मुख सुन्दर जिए ज्वाला वीर वीर
भैरू चौरासी बता तो पुजू
पान मिठाई !

तृतीय वाण ———

ॐ काली कंकाली महाकाली
सकल सुंदरी जीहा बहालो
चार वीर भैरव चौरासी
तदा तो पुजू पान मिठाई
अब बोलो काली की दुहाई !

चतुर्थ वाण ———

ॐ काली कंकाली महाकाली
सर्व सुंदरी जिए बहाली
चार वीर भैरू चौरासी
तण तो पुजू पान मिठाई
अब राज बोलो
काली की दुहाई !

पंचम वाण ———

ॐ नमः काली कंकाली महाकाली
मख सुन्दर जिए काली
चार वीर भैरू चौरासी
तब राज तो पुजू पान मिठाई
अब बोलो काली की दोहाई !

 विधि 

इस मन्त्र को सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है ! यह मन्त्र स्वयं सिद्ध है। केवल माँ काली के सामने अगरबती जलाकर 11 बार सुबह और 11 बार शाम को जप कर ले ! मन्त्र एक दम शुद्ध है। भाषा के नाम पर हेर फेर न करे !शाबर मन्त्र जैसे लिखे हो वैसे ही पढने पर फल देते है। शुद्ध करने पर निष्फल हो जाते है !

मां महिषासुरमर्दिनी स्रोत ।।

       ॥जय मां दुर्गा॥


अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १ ॥

सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २ ॥

अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमलय शृङ्गनिजालय मध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ३ ॥

अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्द गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते ।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ४ ॥

अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ५ ॥

अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे
त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शुलकरे ।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ६ ॥

अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते ।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ७ ॥

धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके
कनकपिशङ्ग पृषत्कनिषङ्ग रसद्भटशृङ्ग हताबटुके ।
कृतचतुरङ्ग बलक्षितिरङ्ग घटद्बहुरङ्ग रटद्बटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ८ ॥

सुरललना ततथेयि तथेयि कृताभिनयोदर नृत्यरते
कृत कुकुथः कुकुथो गडदादिकताल कुतूहल गानरते ।
धुधुकुट धुक्कुट धिंधिमित ध्वनि धीर मृदंग निनादरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ९ ॥

जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते
झणझणझिञ्झिमि झिङ्कृत नूपुरशिञ्जितमोहित भूतपते ।
नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १० ॥

अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते
श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते ।
सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ ११ ॥

सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते
विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते ।
शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १२ ॥

अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते
त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते ।
अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १३ ॥

कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते
सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले ।
अलिकुलसङ्कुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १४ ॥

करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते
मिलितपुलिन्द मनोहरगुञ्जित रञ्जितशैल निकुञ्जगते ।
निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १५ ॥

कटितटपीत दुकूलविचित्र मयुखतिरस्कृत चन्द्ररुचे
प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे
जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १६ ॥

विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते
कृतसुरतारक सङ्गरतारक सङ्गरतारक सूनुसुते ।
सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते ।
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १७ ॥

पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे
अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् ।
तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १८ ॥

कनकलसत्कलसिन्धुजलैरनुषिञ्चति तेगुणरङ्गभुवम्
भजति स किं न शचीकुचकुम्भतटीपरिरम्भसुखानुभवम् ।
तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम्
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ १९ ॥

तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते ।
मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥ २० ॥

नज़र लगने से बचने के लिए पहले से कुछ उपाय अपनाए जा सकते हैं ताकि बुरी नज़र का असर ही न हो।

1. नियमित पूजा और प्रार्थना: हर रोज़ सुबह और शाम पूजा करना, दीपक जलाना, और घर में सकारात्मक ऊर्जा बनाए रखना बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह नकारात्मक शक्तियों से बचाने में सहायक हो सकता है।

2. घर में नमक और कपूर का प्रयोग: सप्ताह में एक बार घर में नमक और कपूर जलाने से नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है। साथ ही, नमक के पानी से पोछा लगाने से भी घर की नकारात्मक ऊर्जा कम होती है।

3. काले धागे या तावीज़ का प्रयोग: बच्चों या बड़ों को नज़र से बचाने के लिए लोग काले धागे या काले मनके पहनाते हैं। यह एक लोकप्रिय उपाय है, खासकर जब लोग किसी विशेष अवसर या कार्य के लिए जा रहे हों।

4. लाल धागा या रक्षासूत्र: मंदिर से अभिमंत्रित किया हुआ लाल धागा पहनने से भी लोग बुरी नज़र से सुरक्षित रहते हैं। इसे दाहिने हाथ की कलाई या गले में बांधा जाता है।

5. घर के मुख्य दरवाजे पर काला टीका: घर के मुख्य द्वार पर काला टीका लगाना या नज़र बट्टू लटकाना एक सामान्य तरीका है जिससे बुरी नज़र से बचा जा सकता है।

6. सकारात्मक सोच और आत्म-रक्षा: अपने मन में हमेशा सकारात्मक विचार रखना और किसी भी प्रकार की नकारात्मकता से दूर रहना एक अच्छी आदत मानी जाती है। इससे आप मानसिक रूप से मज़बूत रहते हैं और नकारात्मक शक्तियाँ कमज़ोर होती हैं।

7. दुर्गा सप्तशती या हनुमान चालीसा का पाठ: नियमित रूप से हनुमान चालीसा या दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से नकारात्मक ऊर्जा दूर रहती है और आप बुरी नज़र से बचे रहते हैं।

8. लाल मिर्च और नमक का पाउच: कुछ लोग लाल मिर्च और नमक को एक कपड़े में बांधकर अपनी जेब में या घर के कोने में रखते हैं, जिससे बुरी नज़र न लगे।

इन उपायों को अपनाकर आप नज़र लगने से बच सकते हैं। ये सब आपकी आस्था और विश्वास पर निर्भर करते हैं, और ये प्राचीन भारतीय परंपराओं में बहुत लोकप्रिय हैं।

सनातन संस्कृति के आश्चर्यों में से एक रहस्य -

🔺अग्नि के सर्वप्रथम आविष्कारक !

🔺वैदिक संस्कृति में अग्नि यज्ञों के प्रचलन कर्ता!
🔺 समुद्रों से प्राप्त पेट्रोल, गैस, केरोसिन के वैदिक खोजी !


     विश्व के प्रथम वैज्ञानिक- अथर्वा ऋषि
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आधुनिक काल में सबसे उच्च विश्वस्त विज्ञान विधा मानी जाती है तथा उनके शोधकर्ताओं को वैज्ञानिक शब्दों से विभूषित किया जाता है, आज के अंग्रेजी भाषी वैज्ञानिकों की लंबी रेखा के बीच भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति के एक वैदिक ऋषि पुरुष को विश्व का प्रथम वैज्ञानिक होने का रहस्य उद्घाटन किया जा रहा है विश्व के प्रथमतम वैज्ञानिक होने के श्रेय अथर्वा ऋषि को है। महर्षि अथर्वा ने ऋषि अंगिरस के साथ मिलकर अथर्ववेद की रचना की। महर्षि अथर्व का विवाह भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्र महर्षि कर्दम की पुत्री शांति 'चित्ति' के साथ हुआ। इस मिलाप से महानतम महर्षि दधीचि का जन्म हुआ। ऋग्वेद में अथर्वा ऋषि का उल्लेख १५ बार हुआ है। (ऋग्० १.८०.१६, १.८३.५, ९.११.२ आदि)। अथर्वा ऋषि ने अग्नि-विषयक तीन आविष्कार किए हैं। इनका साक्षात विशिष्ट प्रमाण तथा उल्लेख ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के श्लोकों में है।


💫 (१) अरणि वृक्ष के मंथन से अग्नि का आविष्कार (Fire with Friction) —

 संसार के सभी काम अग्नि से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा से चलते हैं। यजुर्वेद का भी कथन है कि विद्वानों ने अग्नि को उपयोगिता की दृष्टि से सर्वप्रथम स्थान दिया है। ऋग्वेद ने अग्नि को ऊर्जा का सम्राट् कहा है।

(क) अयमिह प्रथमो धायि धातृ‌भिर्होता यजिष्ठः।  
(यजु० ३.१५)
(ख) त्वामग्ने मनीषिणः सम्राजम्०।   
(ऋग्० ३.१०.१)

ऋग्वेद में अरणियों के घर्षण से अग्नि उत्पन्न करने का वर्णन है। ऋग्वेद में कहा है कि अरणि नामक वृक्ष की समिधाओं में अग्नि है। दो अरणियों के घर्षण से अग्नि उत्पन्न होती है। 

(क) अरण्योर्निहितो जातवेदाः।
(ऋग्० ३.२९.२)
(ख) नवं जनिष्टारणी।
(ऋग्०५.९.३)
(ग) अग्निं मन्थाम पूर्वथा।
(ऋग्० ३.२९.१)

अथर्वा ऋषि ने सर्वप्रथम अरणि नामक वृक्ष की लकड़ियों को रगड़ कर अग्नि का अविष्कार किया ऋग्वेद और यजुर्वेद में इसका विस्तृत उल्लेख है। यजुर्वेद का कथन है कि अथर्वा ऋषि ने मन्थन (घर्षण, Friction) के द्वारा अग्नि उत्पन्न की। यज्ञ में इस अग्नि का प्रयोग सर्वप्रथम अथर्वा के पुत्र दधीचि ऋषि ने किया ।

(क) अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्यद् अग्ने। 
(यजु० ११.३२)
(ख) तमु त्वा दध्यङ् ऋषिः पुत्र ईधे अथर्वणः।
(यजु० ११.३३)

💫 (२) जल के मन्थन से अग्नि (Hydroelectric, Hydel) —

महान दधीचि पितृ अथर्वा ऋषि का द्वितीय अविष्कार है जलीय विद्युत् । ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और तैत्तिरीय संहिता में उल्लेख है कि अथर्वा ऋषि ने तालाब के जल से मन्थन (Friction) के द्वारा जलीय विद्युत् (Hydel) का आविष्कार किया था । 

त्वामग्ने पुष्करादधि-अथर्वा निरमन्बत। 
(ऋग्० ६.१६.१३ । यजु० ११.३२ । साम० ९। तैत्ति० ३.५.११.३)

💫 (३) भूगर्भीय अग्नि (पुरीष्य अग्नि, Oil and Natural Gas) —

भूगर्भीय अग्नि (Gas) का पता चलाना और उसे उत्खनन द्वारा निकालना, अथर्वा ऋषि का तृतीय अविष्कार है। इसका विस्तृत वर्णन ऋग्वेद, यजुर्वेद और तैत्तिरीय संहिता में मिलता है। ऋग्वेद आदि में 'पुरीष्यासो अग्नयः' शब्द का प्रयोग है। साथ ही इसे पृथ्वी एवं समुद्र से खोदकर निकालने का उल्लेख है। भूगर्भीय अग्नि का बहुवचन में उल्लेख सिद्ध करता है कि पुरीष्य अग्नि शब्द के द्वारा भूगर्भीय प्रज्वलनशील सभी पदार्थों, पेट्रोल, गैस, किरोसिन तेल (मिट्टी का तेल) आदि का ग्रहण है। यजुर्वेद में मंत्रों (यजु० ११.२८ से ३२) में इसकी उच्च प्रज्वलनशीलता का विस्तृत वर्णन है। 

(क) पुरीष्योऽसि विश्वभरा अथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने। 
(यजु०११.३२)
(ख) पृथिव्याः सधस्थाद् अग्निं पुरीष्यम्.. खनामः।
(यजु०११.२८)
(ग) अपां पृष्ठमसि योनिरग्नेः समुद्रम् अभितः पिन्वमानम्। 
(यजु०११.२९)
(घ) अग्निमन्तर्भरिष्यन्ती ज्योतिष्मन्तम् अजस्रमित् ।
(यजु०११.३१)
(ङ) पुरीष्यासो अग्नयः । 
(ऋग्० ३.२२.४, यजु० १२.५०, तैति० ४.२४३)

यजुर्वेद के मंत्र में 'योनिरग्नेः' से स्पष्ट किया गया है कि ये अग्नि के कारण अत्यन्त प्रज्वलनशील पदार्थ हैं। 'समुद्रम् अभितः' के द्वारा स्पष्ट किया गया है कि ये अग्नियाँ (गैस, पेट्रोल आदि) समुद्रों के बहुत विस्तृत भाग में फैली हुई हैं।

यजुर्वेद में 'पुरीष्योऽसि विश्वभरा' के द्वारा उल्लेख है कि भूगर्भीय पेट्रोल, गैस आदि विश्व के लिए अत्यन्त उपयोगी है और ये संसार का पालन-पोषण करते हैं।