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हमारी अतृप्ति और असंतोष का कारण ।।

आवश्यकताओं को मर्यादा से बढ़ा देने का नाम अतृप्ति और दुःख है उन्हें कम कर पूर्ति करने से सुख और सन्तोष प्राप्त होता है। मनुष्य एक ही प्रकार के सुख से तृप्त नहीं रहता। अतः असंतोष सदैव बना रहता है। वह असंतोष निंदनीय है जिसमें किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए मनुष्य दिन रात हाय-हाय करता रहे और न पाने पर असंतुष्ट, अतृप्त, और दुःखी रहे।

तृष्णाएं एक के पश्चात् दूसरी बढ़ेगी। एक आवश्यकता की पूर्ति होगी, तो दो नई आवश्यकताएं आकर उपस्थित हो जायेंगी। अतः विवेकशील पुरुष को अपनी आवश्यकताओं पर कड़ा नियंत्रण रखना चाहिए। इस प्रकार आवश्यकताओं को मर्यादा के भीतर बाँधने के लिए एक विशेष शक्ति-मनोनिग्रह की जरूरत है।

एक विचारक का कथन है-“जो मनुष्य अधिकतम संतोष और सुख पाना चाहता है, उसको अपने मन और इन्द्रियों को वश में करना अत्यन्त आवश्यक है। यदि हम अपने आपको तृष्णा और वासना में बहायें, तो हमारे असंतोष की सीमा न रहेगी।”

अनेक प्रलोभन तेजी से हमें वश में कर लेते हैं, हम अपनी आमदनी को भूल कर उनके वशीभूत हो जाते हैं। बाद में रोते चिल्लाते हैं। जिह्वा के आनन्द, मनोरंजन आमोद प्रमोद के मजे हमें अपने वश में रखते हैं। हम सिनेमा का भड़कीला विज्ञापन देखते ही मन को हाथ से खो बैठते हैं और चाहे दिन भर भूखे रहें, अनाप-शनाप व्यय कर डालते हैं। इन सभी में हमें मनोनिग्रह की नितान्त आवश्यकता है। मन पर संयम रखिये। वासनाओं को नियंत्रण में बाँध लीजिये, पॉकेट में पैसा न रखिये। आप देखेंगे कि आप इन्द्रियों को वश में रख सकेंगे।

आर्थिक दृष्टि से मनोनिग्रह और संयम का मूल्य लाख रुपये से भी अधिक है। जो मनुष्य अपना स्वामी है और इन्द्रियों को इच्छानुसार चलाता है, वासना से नहीं हारता, वह सदैव सुखी रहता है।

प्रलोभन एक तेज आँधी के समान है जो मजबूत चरित्र को भी यदि वह सतर्क न रहे, गिराने की शक्ति रखती है। जो व्यक्ति सदैव जागरुक रहता है, वह ही संसार के नाना प्रलोभनों आकर्षणों, मिथ्या दंभ, दिखावा, टीपटाप से मुक्त रह सकता है। यदि एक बार आप प्रलोभन और वासना के शिकार हुए तो वर्षों उसका प्रायश्चित करने में लग जायेंगे।

आत्मचिंतन के क्षण ।।

 Aatmchintan Ke Kshan ।।


🔷 अक्सर अनुकूलताओं में सुखी और प्रतिकूलताओं में दुःखी होना हमारा स्वभाव बन गया है। उन्नति के, लाभ के, फल-प्राप्ति के क्षणों में हमें बेहद खुशी होती है तो कुछ न मिलने पर, लाभ न होने पर दुःख भी कम नहीं होता। लेकिन इसका आधार तो स्वार्थ, प्रतिफल, लगाव अधिकार आदि की भावना है। इन्हें हटाकर देखा जाय तो सुख-दुःख का कोई अस्तित्व ही शेष न रहेगा। दोनों ही निःशेष हो जायेंगे।

🔶 सुख-दुःख का सम्बन्ध मनुष्य की भावात्मक स्थिति से मुख्य है। जैसा मनुष्य का भावना स्तर होगा उसी के रूप में सुख-दुःख की अनुभूति होगी। जिनमें उदार दिव्य सद्भावनाओं का समुद्र उमड़ता रहता है, वे हर समय प्रसन्न, सुखी, आनन्दित रहते हैं। स्वयं तथा संसार और इसके पदार्थों को प्रभु का मंगलमय उपवन समझने वाले महात्माओं को पद-पद पर सुख के सिवा कुछ और रहता ही नहीं। काँटों में भी वे फलों की तरह मुस्कुराते हुए सुखी रहते हैं। कठिनाइयों में भी उनका मुँह कभी नहीं कुम्हलाता।        
                                                
🔷 संकीर्णमना हीन भावना वाले, रागद्वेष से प्रेरित स्वभाव वाले व्यक्तियों को यह संसार दुःखों का सागर मालूम पड़ेगा। ऐसे व्यक्ति कभी नहीं कहेंगे कि “हम सुखी हैं।” वे दुःख में ही जीते हैं और दुःख में ही मरते हैं। दुर्भावनायें ही दुःखों की जनक है। इसी तरह वे हैं जिनका पूरा ध्यान अपनेपन पर ही है। उनका भी दुःखी रहना स्वाभाविक है। केवल अपने को सुखी देखने वाले, अपना हित, अपना लाभ चाहने वाले, अपना ही एकमात्र ध्यान रखने वाले संकीर्णमना व्यक्तियों को सदैव मनचाहे परिणाम तो मिलते नहीं। अतः अधिकतर दुःख और रोना-धोना ही इस तरह के लोगों के पल्ले पड़ता है।

पितृपक्ष में श्राद्ध क्यों करें ?


🔸 पितृपक्ष में वातावरण में तिर्यक (रज-तमात्मक) तरंगों की  तथा यमतरंगों की अधिकता होती है । इसलिए पितृपक्ष में श्राद्ध करने से रज-तमात्मक कोषों से संबंधित पितरों के लिए पृथ्वी के निकट आना सरल होता है ।

🔸 हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार पितृपक्ष व्रत है । इसकी अवधि भाद्रपद पूर्णिमा से आमावस्या तक रहती है । इस काल में प्रतिदिन महालय श्राद्ध करना चाहिए ।

🔸 पितृपक्ष में पितर यमलोक से धरती पर अपने वंशजों के घर रहने आते हैं इस काल में एक दिन श्राद्ध करने पर, पितर वर्षभर तृप्त रहते हैं ।

🔸 पितृपक्ष में अपने सब पितरों के लिए श्राद्ध करने से उनकी वासना, इच्छा शांत होती है और आगे जाने के लिए ऊर्जा मिलती है ।

गुरुकुल में क्या पढ़ाया जाता था ?? यह जान लेना अति आवश्यक है।

◆ अग्नि विद्या ( metallergy )

◆ वायु विद्या ( flight ) 

◆ जल विद्या ( navigation ) 

◆ अंतरिक्ष विद्या ( space science ) 

◆ पृथ्वी विद्या ( environment )

◆ सूर्य विद्या ( solar study ) 

◆ चन्द्र व लोक विद्या ( lunar study ) 

◆ मेघ विद्या ( weather forecast ) 

◆ पदार्थ विद्युत विद्या ( battery ) 

◆ सौर ऊर्जा विद्या ( solar energy ) 

◆ दिन रात्रि विद्या ( day - night studies )

◆ सृष्टि विद्या ( space research ) 

◆ खगोल विद्या ( astronomy) 

◆ भूगोल विद्या (geography ) 

◆ काल विद्या ( time ) 

◆ भूगर्भ विद्या (geology and mining ) 

◆ रत्न व धातु विद्या ( gems and metals ) 

◆ आकर्षण विद्या ( gravity ) 

◆ प्रकाश विद्या ( solar energy ) 

◆ तार विद्या ( communication ) 

◆ विमान विद्या ( plane ) 

◆ जलयान विद्या ( water vessels ) 

◆ अग्नेय अस्त्र विद्या ( arms and amunition )

◆ जीव जंतु विज्ञान विद्या ( zoology botany ) 

◆ यज्ञ विद्या ( material Sc)

● वैदिक विज्ञान
( Vedic Science )

◆ वाणिज्य ( commerce ) 

◆ कृषि (Agriculture ) 

◆ पशुपालन ( animal husbandry ) 

◆ पक्षिपालन ( bird keeping ) 

◆ पशु प्रशिक्षण ( animal training ) 

◆ यान यन्त्रकार ( mechanics) 

◆ रथकार ( vehicle designing ) 

◆ रतन्कार ( gems ) 

◆ सुवर्णकार ( jewellery designing ) 

◆ वस्त्रकार ( textile) 

◆ कुम्भकार ( pottery) 

◆ लोहकार ( metallergy )

◆ तक्षक ( guarding )

◆ रंगसाज ( dying ) 

◆ आयुर्वेद ( Ayurveda )

◆ रज्जुकर ( logistics )

◆ वास्तुकार ( architect)

◆ पाकविद्या ( cooking )

◆ सारथ्य ( driving )

◆ नदी प्रबन्धक ( water management )

◆ सुचिकार ( data entry )

◆ गोशाला प्रबन्धक ( animal husbandry )

◆ उद्यान पाल ( horticulture )

◆ वन पाल ( horticulture )

◆ नापित ( paramedical )

इस प्रकार की विद्या गुरुकुल में दी जाती थीं।

इंग्लैंड में पहला स्कूल 1811 में खुला 
उस समय भारत में 732000 गुरुकुल थे।
खोजिए हमारे गुरुकुल कैसे बन्द हुए ? 

और मंथन जरूर करें वेद ज्ञान विज्ञान को चमत्कार छूमंतर व मनघड़ंत कहानियों में कैसे बदला या बदलवाया गया। वेदों के नाम पर वेद विरुद्ध हिंदी रूपांतरण करके मिलावट की ।

अपरा विधा- भेाैतिक विज्ञान को व अपरा विधा आध्यात्मिक विज्ञान को कहा गया है। इन दोनों में १६ कलाओं का ज्ञान होता है।

तैत्तिरीयोपनिषद , भ्रगुवाल्ली अनुवादक ,५, मंत्र १, में ऋषि भ्रगु ने बताया है कि-

विज्ञान॑ ब्रहोति व्यजानात्। विज्ञानाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। विज्ञानेन जातानि जीवन्ति। विज्ञान॑ प्रयन्त्यभिस॑विशन्तीति।
 
अर्थ- तप के अनातर उन्होंने ( ऋषि ने) जाना कि वास्तव मैं विज्ञान से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं। उत्पत्ति के बाद विज्ञान से ही जीवन जीते हैं। अंत में प्रायान करते हुए विज्ञान में ही प्रविष्ठ हो जाते हैं।

तैत्तिरीयोपनिषद ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवादक ८, मंत्र ९ में लिखा है कि-

 विज्ञान॑ यज्ञ॑ तनुते। कर्माणि तनुतेऽपि च। विज्ञान॑ देवा: सर्वे। ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते। विज्ञान॑ ब्रह्म चेद्वेद।

अर्थ- विज्ञान ही यज्ञों व कर्मों की वृद्धि करता है। सम्पूर्ण देवगण विज्ञान को ही श्रेष्ठ ब्रह्म के रूप में उपासना करते हैं। जो विज्ञान को ब्रह्म स्वरूप में जानते हैं, उसी प्रकार से चिंतन में रत्त रहते हैं, तो वे इसी शरीर से पापों से मुक्त होकर सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि प्राप्त करते हैं। उस विज्ञान मय देव के अंदर ही वह आत्मा ब्रह्म रूप है। उस विज्ञान मय आत्मा से भिन्न उसके अन्तर्गत वह आत्मा ही ब्रह्म स्वरूप है।

( संसार के सभी जीव शिल्प विज्ञान के द्वारा ही जीवन यापन करते हैं।)

★ वेद ज्ञान है शिल्प विज्ञान है

त्रिनो॑ अश्विना दि॒व्यानि॑ भेष॒जा त्रिः पार्थि॑वानि॒ त्रिरु॑ दत्तम॒द्भ्यः। 
आ॒मान॑ श॒योर्ममि॑काय सू॒नवे त्रि॒धातु॒ शर्म॑ वहतं शुभस्पती॥

ऋग्वेद (1.34.6)

हे (शुभस्पती) कल्याणकारक मनुष्यों के कर्मों की पालना करने और (अश्विना) विद्या की ज्योति को बढ़ानेवाले शिल्पि लोगो ! आप दोनों (नः) हम लोगों के लिये (अद्भ्यः) जलों से (दिव्यानि) विद्यादि उत्तम गुण प्रकाश करनेवाले (भेषजा) रसमय सोमादि ओषधियों को (त्रिः) तीनताप निवारणार्थ (दत्तम्) दीजिये (उ) और (पर्थिवानि) पृथिवी के विकार युक्त ओषधी (त्रिः) तीन प्रकार से दीजिये और (ममकाय) मेरे (सूनवे) औरस अथवा विद्यापुत्र के लिये (शंयोः) सुख तथा (ओमानम्) विद्या में प्रवेश और क्रिया के बोध करानेवाले रक्षणीय व्यवहार को (त्रिः) तीन बार कीजिये और (त्रिधातु) लोहा ताँबा पीतल इन तीन धातुओं के सहित भूजल और अन्तरिक्ष में जानेवाले (शर्म) गृहस्वरूप यान को मेरे पुत्र के लिये (त्रिः) तीन बार (वहतम्) पहुंचाइये ॥

भावार्थ- मनुष्यों को चाहिये कि जो जल और पृथिवी में उत्पन्न हुई रोग नष्ट करनेवाली औषधी हैं उनका एक दिन में तीन बार भोजन किया करें और अनेक धातुओं से युक्त काष्ठमय घर के समान यान को बना उसमें उत्तम २ जव आदि औषधी स्थापन कर देश देशांतरों में आना जाना करें।

विश्वकर्मा कुल श्रेष्ठो धर्मज्ञो वेद पारगः।
सामुद्र गणितानां च ज्योतिः शास्त्रस्त्र चैबहि।।
लोह पाषाण काष्ठानां इष्टकानां च संकले।
सूत्र प्रास्त्र क्रिया प्राज्ञो वास्तुविद्यादि पारगः।।
सुधानां चित्रकानां च विद्या चोषिठि ममगः।
वेदकर्मा सादचारः गुणवान सत्य वाचकः।। 

(शिल्प शास्त्र) अर्थववेद

भावार्थ – विश्वकर्मा वंश श्रेष्ठ हैं विश्वकर्मा वंशी धर्मज्ञ है, उन्हें वेदों का ज्ञान है। सामुद्र शास्त्र, गणित शास्त्र, ज्योतिष और भूगोल एवं खगोल शास्त्र में ये पारंगत है। एक शिल्पी लोह, पत्थर, काष्ठ, चान्दी, स्वर्ण आदि धातुओं से चित्र विचित्र वस्तुओं सुख साधनों की रचना करता है। वैदिक कर्मो में उन की आस्था है, सदाचार और सत्यभाषण उस की विशेषता है।

 यजुर्वेद के अध्याय २९ के मंत्र 58 के ऋषि जमदाग्नि है इसमे बार्हस्पत्य शिल्पो वैश्वदेव लिखा है। वैश्वदेव में सभी देव समाहित है।

शुल्वं यज्ञस्य साधनं शिल्पं रूपस्य साधनम् ॥

(वास्तुसूत्रोपनिषत्/चतुर्थः प्रपाठकः - ४.९ ॥)

अर्थात - शुल्ब सूत्र यज्ञ का साधन है तथा शिल्प कौशल उसके रूप का साधन है।

शिल्प और कुशलता में बहुत बड़ा अन्तर है ( एक शिल्प विद्या द्वारा किसी प्रारूप को बनाना और दूसरा कुशलता पूर्वक उसका उपयोग करना , ये दोनो अलग अलग है 

कुशलता 

जैसे शिल्प द्वारा निर्मित ओजारो से नाई कुशलता से कार्य करता है , शिल्पी द्वारा निर्मित यातायन के साधन को एक ड्राईवर कुशलता पूर्वक चलता है आदि 

सामान्यतः जिस कर्म के द्वारा विभिन्न पदार्थों को मिलाकर एक नवीन पदार्थ या स्वरूप तैयार किया जाता है उस कर्म को शिल्प कहते हैं । ( उणादि० पाद०३, सू०२८ ) किंतु विशेष रूप निम्नवत है

१- जो प्रतिरूप है उसको शिल्प कहते हैं "यद् वै प्रतिरुपं तच्छिल्पम" (शतपथ०- का०२/१/१५ ) 

२- अपने आप को शुद्ध करने वाले कर्म को शिल्प कहते हैं 

(क)"आत्मा संस्कृतिर्वै शिल्पानि: " (गोपथ०-उ०/६/७)

(ख) "आत्मा संस्कृतिर्वी शिल्पानि: " (ऐतरेय०-६/२७) 

३- देवताओं के चातुर्य को शिल्प कहकर सीखने का निर्देश है (यजुर्वेद ४ / ९, म० भा० )

 ४- शिल्प शब्द रूप तथा कर्म दोनों अर्थों में आया है -

(क)"कर्मनामसु च " (निघन्टु २ / १ )

(ख) शिल्पमिति रुप नाम सुपठितम्" (निरुक्त ३/७)

५ - शिल्प विद्या आजीविका का मुख्य साधन है। (मनुस्मृति १/६०, २/२४, व महाभारत १/६६/३३ )

६- शिल्प कर्म को यज्ञ कर्म कहा गया है।

( वाल्मि०रा०, १/१३/१६, व संस्कार विधि, स्वा० द० सरस्वती व स्कंद म०पु० नागर६/१३-१४ )

।।पांचाल_ब्राह्मण।।

शिल्पी ब्राह्मण नामान: पञ्चाला परि कीर्तिता:।
(शैवागम अध्याय-७)
अर्थात-पांच प्रकार के श्रेष्ठ शिल्पों के कर्ता होने से शिल्पी ब्राह्मणों का नाम पांचाल है।
 
पंचभि: शिल्पै:अलन्ति भूषयन्ति जगत् इति पञ्चाला:। (विश्वकर्म वंशीय ब्राह्मण व्यवस्था-भाग-३, पृष्ठ-७६-७७)
अर्थात- पांच प्रकार के शिल्पों से जगत को भूषित करने वाले शिल्पि ब्राह्मणों को पांचाल कहते हैं।

ब्रह्म विद्या ब्रह्म ज्ञान (ब्रह्मा को जानने वाला) जो की चारो वेदों में प्रमाणित है जो वैदिक गुरुकुलो में शिक्षा दी जाती थी ये (metallergy) जिसे अग्नि विद्या या लौह विज्ञान (धातु कर्म) कहते है , ये वेदों में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मकर्म ब्रह्मज्ञान है पृथ्वी के गर्भ से लौह निकालना और उसका चयन करना की किस लोहे से , या किस लोहे के स्वरूप से, सुई से लेकर हवाई जहाज, युद्ध पोत जलयान, थलयान, इलेक्ट्रिक उपकरण , इलेक्ट्रॉनिक उपकरण , रक्षा करने के आधुनिक हथियार , कृषि के आधुनिक उपकरण , आधुनिक सीएनसी मशीन, सिविल इन्फ्रास्ट्रक्चर सब (metallergy) अग्नि विद्या ऊर्फ लोहा विज्ञान की देन है हमारे वैदिक ऋषि सब वैज्ञानिक कार्य करते थे वेदों में इन्हीं विश्वकर्मा शिल्पियों को ब्राह्मण की उपाधि मिली है जो वेद ज्ञान विज्ञान से ही संभव है चमत्कारों से नहीं वेद ज्ञान विज्ञान से राष्ट्र निर्माण होता है पाखण्ड से नहीं, इसी को विज्ञान कहा गया है बिना शिल्प विज्ञान के हम सृष्टि विज्ञान की कल्पना भी नहीं कर सकते इसलिए सभी विज्ञानिंक कार्य इन्ही सुख साधनों से संभव है इसलिए वैदिक शिल्पी विश्वकर्मा ऋषियों द्वारा भारत की सनातन संस्कृति विश्वगुरु कहलाई
भगवान (विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों) ने अपने रचनात्मक कार्यों से इस ब्रह्मांड का प्रसार किया है। जो सभी वैदिक ग्रंथों में प्रमाणित

जैसे जैसे हम् आधुनिक होते गए वैसे वैसे हम् हमारी जड़ों को काटते गए उन्हीं जड़ों में से एक महत्वपूर्ण जड़ है पितृ ।

सबसे पहले पितृ होते कौन हैं ?

इन्हें आम भाषा में पितर , घर का प्रेत भी बोलते हैं। यह आपके परिवार की वो आत्माएं होती हैं जिनका अभी दूसरा जन्म नहीं हुआ है मुक्ति नहीं हुई है । ये आत्माएं पितृ बनके पितृ लोक नामक सूक्ष्म लोक में वास करते हैं । यह लोक हमारी धरती पर ही स्थित होता है । जिसके कारण पितरों से संपर्क बनाना या इनकी कृपा प्राप्त करना सहज हो जाता है । वहीं दूसरी और यह रूष्ट होने पर शीघ्र विपरीत प्रभाव भी दिखाते हैं।

इनमें अलग अलग श्रेणी होती है पितृ की जिसे आऊत प्रेत , जुझार , सगस , वीर आदि कहकर संबोधित करते हैं । इनपर बाद में बात करेंगे ।

इनका पितृ लोक में फसने का मुख्य कारण होता है अपूर्ण इच्छाएं एवं अविवाहित मृत्यु को प्राप्त होना , निसंतान मृत्यु को प्राप्त होना , अन्य भी कारण कहे गए है इसके जैसे पराई स्त्री का हरण , माता पिता की हत्या करना , गौ हत्या आदि , इनके विषय में गरुड़ पुराण में विस्तार से बताया गया है ।

पितृ हमारा सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण रक्षा कवच होते हैं, पितृ रूष्ट होने पर अन्य देवता तक आपका पूजन नहीं पहुंचता है न ही कोई अन्य कार्य सिद्ध होता है । यह ठीक उसी प्रकार है अगर नींव कमजोर हो तो ऊपर की मंजिल नहीं डाली जा सकती और अगर नींव मजबूत है तो मंजिल के ऊपर मंजिल डाल सकते हैं ।

हर व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वो अपने कुल के पितरों की मुक्ति एवं सद्गति के लिए प्रयास करें , जिसके विपरीत आज लोग अपने घर के पितृ को अपने स्वार्थ के लिए बैठा कर उनसे काम लेते है । जो कि पितृ और स्वयं दोनों के लिए हितकारी नहीं है ।

पितृ दोष या पितृ के रूष्ट होने के लक्षण क्या है ?

● घर में बरकत न रहना
● किसी बात को लेकर हर छोटी छोटी बात पर झगड़ना
● घर के एक दूसरे सदस्य को बैर भाव से देखना
● संतान नहीं होना
● परिवार में किसी भी प्रकार का संतुलन नहीं होना
● हमेशा बीमारी बने रहना
● अजीब अजीब घटना होना
● घर के सदस्य आपस में किसी की भी नहीं बने
● संतान माता-पिता का आदर नहीं करती हैं
● माता-पिता भी संतान को हमेशा प्रताड़ित करते रहते हैं
● मरे हुए बच्चों के सपने आना
● मरी स्त्रियों दिखना
● हमेशा मन में शंका बनी रहना कि कुछ न कुछ होने वाला है
● आदमी अपने कार्य की सफलता के लिए आश्वस्त रहता है 95 पर्सेट तक पहुंचता है और फिर नीचे गिर जाता है
● हर बनते काम बिगड़ जाना
● सपने में बार बार सर्पो का दिखना
● परिवार के बुजुर्गों का स्वप्न में दिखना
● सपनो में अपने माता पिता दादा दादी को रोते हुए देखना
● घर परिवार में क्लेश होना

जो कुंवारे पितृ होते है उनका दिन चौदस का होता है और जो विवाहित होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए हो उनका मुख्य दिन अमावस्या का होता है , जो पूर्ण आयु में जाते है उनके लिए पूर्णिमा ।

पितृ प्रसन्नता हेतु सबसे आसान उपाय तो यह है कि इन 4 दिनों में ( दोनो चतुर्दशी , अमावस्या एवं पूर्णिमा ) पितृ के लिए नियमित धूप दीप करे तो वो हमेशा प्रसन्न रहते है ।

दूसरा एक सरल एवं असरदार उपाय है वो है - पितृ के लिए श्रीमद्भागवत गीता का पाठ । 

यह उपाय आप श्राद्ध में करें ।

पूर्णिमा के दिन सुबह पितरों को हल्दी चावल से निमंत्रण दें कि आज से मैं आपके लिए श्रीमद्भागवत गीता का पाठ कर रहा हूँ आपको यह पाठ सुनने के लिए रोज आना होगा जो आपको समय उचित लगे उन्हें वो समय भी बता दें कि इतने बजे पाठ करूंगा । ऐसा कहकर हल्दी चावल दहली के बाहर डाल दें ।

अब जो निश्चित समय है उससे थोड़ा पहले से यह तैयारी कर लें ।

अपने कक्ष को झाड़ू पोंछा करके साफ करें । फिर गौमूत्र का छिड़काव करें । गाय के गोबर से भूमि लीपें । फिर उसपर सफेद वस्त्र बिछाएं , 2 गांठ का एक हरा बांस का टुकड़ा लाएं । इसके एक तरफ सफेद कपड़ा कलावे से बांध दें । सुपारी जनेऊ और हल्दी की गांठ लाएं ।

सफेद वस्त्र के ऊपर 1 पीछे और 7 ढेरी आगे लगाएं चावल की एक के ऊपर बांस को खड़ा रखें जसमे वस्त्र बांधा हुआ हिस्सा ऊपर की तरफ होगा और बाकी 7 ढेर पर एक एक सुपारी रखें और सुपारी पर जनेऊ पहनाए , सुपारी की जगह चुना पत्थर मिल जाये तो अति उत्तम होगा । अब आपके दिये गए निश्चित समय पर दहली पर खड़े होकर हल्दी कुमकुम और अक्षत डालकर पितरों का स्वागत करें और उनके अंदर आने का बोलें और सफेद आसन के ऊपर उनका आसान बताये और कहे आप अपने आसन पर विराजमान होजाये । अब आप धूप दीप प्रज्वलित करें । बांस पर और चुना पत्थरों ( सुपारी ) पर हल्दी कुमकुम आदि चढ़ाएं ।

अपने सामने श्रीमद्भागवत गीता रखें , ग्रंथ का कुमकुम अक्षत से पूजन करें ।

पितृ हेतु भोजन एवं पानी रखें भगवान विष्णु के लिए 2 पीली मावे की मिठाई रखें ।

अब पाठ शुरू करें , रोज इसी प्रकार पाठ करना है संभव हो तो रोज सभी अध्यायों का पाठ करें और अगर सामर्थ्य नही हो तो 16 दिन में 18 अध्यायों का पाठ पूरा करलें ।

पाठ पूरा होने के बाद जो पितृ के लिए भोग रखा था वो गाय के उपलों की अगियारी करके उसपर भोजन करवाये फिर जल अर्पित करें।

फिर उन्हें कहे अब अपने स्थान को चले जाइये कल फिर इस समय पर आजायेगा । आगे भी इसी तरह से करना है

जब 16 दिन के पाठ पूरे होजाये तब भगवान विष्णु से अपने पितरों की सद्गति हेतु प्रार्थना करें । उनहे वैकुंठ में स्थान देने के लिए प्रार्थना करें ।

अगर आप चाहे तो पाठ 15 दिन में पूरे करके सोलहवें दिन सर्व पितृ अमावस्या को ब्राह्मण जन से पितृ हेतु तर्पण भी करवा सकते है । 7 ब्राह्मणों को सात सफेद वस्त्र दान करें ।

क्रिया पूरी होने के बाद सभी सामग्रियों को एकत्रित करके किसी बहती नादि में प्रवाहित करदें । क्रिया के बाद निश्चित लाभ होगा ।

अंतिम दिन पितरों को वापिस आने का नही बोलें उन्हें बोलें की अबसे आप श्री हरि के लोक में वास करना ।
आप चाहे तो अंतिम दिन तर्पण एवं त्रिपिंडी भी करवा सकते है । सोने पर सुहागा होगा ।

अब दूसरा प्रयोग बताते है ।

🚩🚩 दूसरा प्रयोग 🚩🚩

यहां एक स्तोत्र दे रहा हूँ । जिसकी पाठ विधि इस प्रकार है ।

पहले इसका एक पाठ पूरा होगा १ श्लोक से लेकर २४ फिर २२ २३ २४ के क्रम में दो बार पाठ करें ।

एक पूरे पाठ का क्रम यह होगा -

१ २ ३ ...... २४ , २२ २३ २४ , २२ २३ २४

फिर इसका हवन भी इसी क्रम से होगा काले तिल और गाय के घी से ।

१ , २२ , २३ , २४ वे श्लोक में आहुति के समय स्वधा बोलके आहुति देनी है और अन्य श्लोकों में स्वाहा बोलकर ।

स्तोत्र --

नमो वः पितरो, यच्छिव तस्मै नमो, वः पितरो यतृस्योन तस्मै।
नमो वः पितरः, स्वधा वः पितरः । ।।१।।

नमोऽस्तु ते निर्ऋर्तु, तिग्म तेजोऽयस्यमयान विचृता बन्ध-पाशान्।
यमो मह्यं पुनरित् त्वां ददाति। तस्मै यमाय नमोऽस्तु मृत्यवे । ।।२।।

नमोऽस्त्वसिताय, नमस्तिरश्चिराजये। स्वजाय वभ्रवे नमो, नमो देव जनेभ्यः। ।।३।।

नमः शीताय, तक्मने नमो, रूराय शोचिषे कृणोमि।
यो अन्येद्युरूभयद्युरभ्येति, तृतीय कायं नमोऽस्तु तक्मने। ।।४।।

नमस्ते अधिवाकाय, परा वाकाय ते नमः। सुमत्यै मृत्यो ते नमो, दुर्मत्यै त इदं नमः। ।।५।।

नमस्ते यातुधानेभ्यो, नमस्ते भेषजेभ्यः। नमस्ते मृत्यो मूलेभ्यो, ब्राह्मणेभ्य इदं मम। ।।६।।

नमो देव वद्येभ्यो, नमो राज-वद्येभ्यः। अथो ये विश्वानां, वद्यास्तेभ्यो मृत्यो नमोऽस्तु ते। ।।७।।

नमस्तेऽस्तु नारदा नुष्ठ विदुषे वशा। कसमासां भीम तमा याम दत्वा परा भवेत्। ।।८।।

नमस्तेऽस्तु विद्युते, नमस्ते स्तनयित्नवे। नमस्तेऽस्तु वश्मने, येना दूड़ाशे अस्यसि। ।।९।।

नमस्तेऽस्त्वायते, नमोऽस्तु पराय ते। नमस्ते प्राण तिष्ठत, आसीनायोत ते नमः। ।।१०।।

नमस्तेऽस्त्वायते, नमोऽस्तु पराय ते। नमस्ते रूद्र तिष्ठत, आसीनायोत ते नमः। ।।११।।

नमस्ते जायमानायै, जाताय उत ते नमः। वालेभ्यः शफेभ्यो, रूपायाघ्न्ये ते नमः। ।।१२।।

नमस्ते प्राण क्रन्दाय, नमस्ते स्तनयित्नवे। नमस्ते प्राण विद्युते, नमस्ते प्राण वर्षते। ।।१३।।

नमस्ते प्राण प्राणते, नमोऽस्त्वपान ते।
परा चीनाय ते नमः, प्रतीचीनाय ते नमः, सर्वस्मै न इदं नमः। ।।१४।।

नमस्ते राजन् ! वरूणा मन्यवे, विश्व ह्यग्र निचिकेषि दुग्धम्।
सहस्त्रमन्यान् प्रसुवामि, साकं शतं जीवाति शरदस्तवायं। ।।१५।।

नमस्ते रूद्रास्य ते, नमः प्रतिहितायै। नमो विसृज्य मानायै, नमो निपतितायै। ।।१६।।

नमस्ते लांगलेभ्यो, नमः ईषायुगेभ्यः। वीरूत् क्षेत्रिय नाशन्यप् क्षैत्रियमुच्छतु। ।।१७।।

नमो गन्धर्वस्य, नमस्ते नमो भामाय चक्षुषे च कृण्मः।
विश्वावसो ब्रह्मणा ते नमोऽभि जाया अप्सासः परेहि। ।।१८।।

नमो यमाय, नमोऽस्तु, मृत्यवे, नमः पितृभ्य उतये नयन्ति।
उत्पारणस्य यो वेद, तमग्नि पुरो दद्येस्याः अरिष्टतातये। ।।१९।।

नमो रूद्राय, नमोऽस्तु तक्मने, नमो राज्ञ वरूणायं त्विणीमते।
नमो दिवे, नमः पृथिव्ये, नमः औषधीभ्यः। ।।२०।।

नमो रूराय, च्यवनाय, रोदनाय, घृष्णवे। नमः शीताय, पूर्व काम कृत्वने।। ।।२१।।

नमो वः पितर उर्जे, नमः वः पितरो रसाय। ।।२२।।

नमो वः पितरो भामाय, नमो वः पितरा मन्धवे। ।।२३।।

नमो वः पितरां पद घोरं, तस्मै नमो वः पितरो, यत क्ररं तस्मै। ।।२४।।

कई बार पितृ तांत्रिक बंधन में बंधे होते है तब कितना ही कर्म कांड करने पर भी उनका शुभ प्रभाव नही मिलता , ऐसी स्थिति में तांत्रिक प्रयोग के द्वारा उनकी मुक्ति का मार्ग खोला जाता है ।
चलिए यह एक अलग विषय है आगे,,,