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कर्म और भाग्य ।।

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहिं तब फल चाखा।।


कर्म चाहे आज के हों अथवा पूर्व जन्म के उनका फल असंदिग्ध है। परिणाम से मनुष्य बच नहीं सकता। दुष्कर्मों का भोग जिस तरह भोगना पड़ता है, शुभ कर्मों से उसी तरह श्री-सौभाग्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। यह सुअवसर जिसे प्राप्त हो वही सौभाग्यशाली है और इसके लिए किसी दैवी के भरोसे नहीं बैठना पड़ता। कर्मों का संपादन मनुष्य स्वयं करता है। अतः अपने अच्छे व बुरे भाग्य का निर्णायक भी वही है। हमारा श्रेय इसमें यही है कि सत्कर्मों के द्वारा अपना भविष्य सुधार लें। जो इस बाथशत को समझ लेंगे और इस पर आचरण करेंगे उनको कभी दुर्भाग्य का रोना नहीं रोना पड़ेगा।

भ्रम इस बात से पैदा हो जाता है कि बार -बार प्रत्यक्ष रूप से कर्म करने पर भी विपरीत परिणाम प्राप्त हो जाते हैं, तो लोग उसे भाग्य-चक्र मानकर परमात्मा को दोष देने लगते हैं। किंतु यह भाग्य तो अपने पूर्व संचित कर्मों का ही परिणाम है। यहां मनुष्य जीवन के विराट् रुप की कल्पना की गई है और एक जीवन का दूसरे जीवन से संस्कार-जन्य संबंध माना गया है। इस दृष्टि से भी जिसे आज भाग्य कहकर पुकारते हैं, यह भी कर के अपने कर्म का ही परिणाम है।

प्राकृतिक विधान के अनुसार तो यह भाग्य अपनी ही रचना है। अपने किए हुए का प्रतिफल है। मनुष्य भाग्य के वश में नहीं है, उसका निर्माता मनुष्य स्वयं है। परमात्मा के न्याय के अभेद देखें तो यही बात पुष्ट होती है कि भाग्य स्वयं हमारे द्वारा अपने को संपन्न करता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है।

वास्तव में हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि कर्म-फल किसी भी दशा में नष्ट नहीं होता। किसी न किसी समय वह अवश्य सामने आता है। विवशतावश उस समय उसे भले ही भाग्य कहकर टाल दिया जाय, पर इससे कर्म-फल का सिद्धांत तो नहीं मिट सकता।

अपने कर्मों के द्वारा स्वयं हम ही अपने भाग्य-निर्माता हैं, पर हमारे द्वारा सृष्टि भाग्य हमें बांधता है, क्योंकि हमने जो कुछ बोया है, उसे इस जीवन या दुसरे जीवन में हमें अवश्य काटना होगा। फिर भी हम लोग वर्तमान में भूतकाल से प्राप्त प्राचीन भाग्य को कोसते हुए ही भविष्य के लिए अपने भाग्य का निर्माण कर रहे हैं। यह बात हमारे लिए संकल्प और कर्म को एक अर्थ प्रदान करती है।

पुरुषार्थ की भाग्य के ऊपर विजय का सशक्त प्रतिपादन 'योगवशिष्ठ' में किया गया है। महर्षि वशिष्ठ जी इसके मुमुक्षु प्रकरण के षष्ठ सर्ग में कहते हैं -

"द्वौ हुडाविव युध्येते पुरुषार्थौ परस्परम्।
य एव बलवांस्तत्रस से एव जयतिक्षणात्।।"


अर्थात पूर्वजन्म और इस जन्म के कर्मरुपी दो भेंड़े आपस में लड़ते हैं, उनमें जो बलवान होता है, वह विजयी होता है। उदार स्वभाव और सदाचार वाले, इस जगत् मोहक दैव से (भाग्य चक्र से) वैसे ही निकल जाते हैं जैसे पिंजरे से सिंह। पौरुष का फल हाथ में रखे गए आंवले के समान स्पष्ट है। प्रत्यक्ष को छोड़कर दैव के मोह में निमग्न लोग मूढ़ हैं।

अथर्ववेद में कहा गया है -

"अयं मे हस्तो भगवानयं में भगवत्तरः"

अर्थात यह हाथ ही भगवान है, यह भगवान से भी बलवान है। कर्म ही भाग्य है। कर्म का कारण और फल दोनों ही हाथ में है।

'नियमितवादिता' अकर्मण्यता नहीं सिखाती। कर्म करना और फल को कृष्णार्पण कर देना, यही बात तो स्पष्ट रुप से गीता हमें सिखाती है। पूर्वजन्म एवं पूर्वजन्म का सिद्धांत यदि सत्य है, मनुष्य को अपने पूर्वजन्म के कर्मों का अच्छा-बुरा फल भोगना पड़ता है, यदि यह सत्य है तो 'भाग्यवादी' का सिद्धांत भी सत्य है, इसमें कोई संदेह नहीं। भाग्यवाद कभी भी अकर्मण्यता को जन्म नहीं देता। जब आलसी अपने आलस्य का समर्थन करते हैं, भाग्य का नाम लेकर उसकी आड़ में जो अपनी अकर्मण्यता का समर्थन करते हैं तो वे न केवल धूर्त हैं वरन् समाज को भारी हानि पहुंचाने वाले हैं। 'भाग्य' मनुष्य की विवशता है संचित प्रारब्ध उसका नियंत्रण करता है पर पुरुषार्थ तो उसका आज का कर्तव्य है, इस कर्त्तव्य की उपेक्षा करना एक प्रकार से ईश्वर की उपेक्षा करना है। हमारे भाग्य के अटपटेपन में भी किन पुरुषार्थियों का पुरुषार्थ काम कर रहा हो, यह कौन जानता है?

अंग्रेजी में कहावत है कि ईश्वर उसकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। अर्थात जो क्रियाशील व पुरुषार्थी हैं ईश्वर का वरदहस्त उनके साथ है। लोग तर्क देते हैं कि भगवत अनुग्रह से फल प्राप्ति बिना कर्म के ही हो जाती है। वे भूल जाते हैं कि भगवद्भक्ति, स्मरण, कीर्तन, चिंतन आदि भी तो कर्म है, कर्म नहीं बल्कि विशिष्ट कर्म हैं।

भाग्य का अस्तित्व यदि है तो वह कर्म से जुड़ा है। यहां कर्म के सूक्ष्म भेद को जानना आवश्यक है।

कर्म तीन प्रकार के होते हैं-

१) क्रियमाण कर्म,
२) संचित कर्म, और
३) प्रारब्ध कर्म

१) संचित कर्म :-  जो दबाव में बेमन से, परिस्थितिवश किया जाए ऐसे कर्मों का फल 1000 वर्ष तक भी संचित रह जाता है। इस कर्म को मन से नहीं किया जाता। इसका फल हल्का धुंधला और कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों से टकराकर समाप्त भी हो जाता है।

२) प्रारब्ध कर्म :- तीव्र मानसिकता पूर्ण मनोयोग से योजनाबद्ध तरीके से तीव्र विचार एवं भावना पूर्वक किए जाने वाले कर्म। इसका फल अनिवार्य है, पर समय निश्चित नहीं है। इसी जीवन में भी मिलता है और अगले जन्म में भी मिलता है।

३) क्रियमाण कर्म :- शारीरिक कर्म जो तत्काल फल देने वाले होते हैं। क्रिया के बदले में तुरंत प्रतिक्रिया होती है।

इस तरह क्रियमाण ही संचित कर्म बनते हैं तथा संचित कर्म ही प्रारब्ध है। जब यह प्रारब्ध कर्म फलित होते हैं तो इनके कारण उत्पन्न अदृश्य एवं परिस्थितियों को समझना पाने के कारण इसे भाग्य रूपी अदृश्य शक्ति का नाम देते हैं व इसका अस्तित्व मानने लगते हैं, जबकि यह कर्म से जुड़ा है। मनुष्य अपनी इच्छा व पुरुषार्थ द्वारा कर्म की गति को दिशा दे सकता है।

प्रारब्ध यदि कष्ट कर हो तो भी उसे भोगना तो पड़ता है, लेकिन उसको हल्का किया जा सकता है। 'मंत्र तंत्रौषधि बलात्' से उसको हल्का किया जा सकता है। शूल की पीड़ा को सुई में बदला जा सकता है। दरिद्र व्यक्ति संचित कर्म का नाश तपस्या से कर सकता है। नि: संतान किसी तपस्वी के आशीर्वाद व अनुग्रह से पुत्र प्राप्त कर सकता है। अल्पायु तप आदि से दीर्घायु में परिवर्तित हो सकती है। अर्थात मनुष्य अपने भाग्य (अर्थात प्रारब्ध) को परिवर्तित, संशोधित एवं संवर्धित कर सकता है।

इस तरह भाग्य या प्रारब्ध कोई ऐसी शक्ति नहीं कि जिनके आगे मनुष्य घुटने टेक दे, उसके हाथों की कठपुतली बनकर दीन-हीन दरिद्र व निकृष्ट स्तर का जीवन जिए। बल्कि यह तो उसी के कर्मों की रचना है, जिसे मनुष्य अपने प्रयास-पुरुषार्थ अर्थात नवीन कर्मों द्वारा परिमार्जित कर सकता है श्रेष्ठ कर्म करता हुआ वह अपने लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है, आखिर मनुष्य अपना भाग्य विधाता आप ही तो है।

संदर्भ ग्रंथ:-
१.) अखण्ड ज्योति पत्रिका
२.) गहना कर्मणोगति:
३.) मरने के बाद हमारा क्या होता है?

ब्रह्म नहीं माया नहीं, नहीं जीव नहिं काल। अपनी हू सुधि ना रही रह्यौ एक नंदलाल ॥ - ब्रज के सवैया


न मैं ब्रह्म के विषय में जानना चाहता हूं, न ही माया के विषय में, न मैं जीव के विषय में जानना चाहता हूं न ही मैं काल के विषय में जानना चाहता हूं । मैं अपनी सुधि ही खो जाऊं और मुझे केवल एक श्री राधा कृष्ण का ही ध्यान रहे।

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खगोलशास्त्री सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर // पुण्यतिथि ।।

जन्म : 19 अक्टूबर 1910
मृत्यु : 21 अगस्त 1995

विज्ञान के क्षेत्र में विश्व का सर्वाधिक प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार पाने वाले सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर तीसरे भारतीय वैज्ञानिक थे। उनसे पहले विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार चंद्रशेखर वेंकटरमन (भौतिकी विज्ञान) 1930 में तथा दूसरे डॉक्टर हरगोविंद खुराना (शरीर एवं औषधि विज्ञान) 1968 में यह उपलब्धि प्राप्त कर चुके है। हालांकि नोबेल पुरस्कार पाने वाले वह पांचवें भारतीय थे। विज्ञान के क्षेत्र से अलग यह उपलब्धि पाने वाले गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर जिन्हें साहित्य के लिए 1913 में तथा दूसरा मदर टेरेसा जिन्हें शांति और सद्भावना के लिए 1979 मे नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने अपने कार्यों और उपलब्धियों द्वारा नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर भारत का झंडा विश्व में ऊंचा किया था। खगोल भौतिकी के क्षेत्र में सुब्रमण्यम की प्रसिद्धि और उनको नोबेल पुरस्कार दिए जाने का कारण है। तारों के ऊपर किए गए उनके गहन अनुसंधान कार्य और एक महत्वपूर्ण सिद्धांत जिसे चंद्रशेखर लिमिट के नाम से आज भी खगोल विज्ञान के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है।

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर की इस महान खोज ने जहां पूर्व में की गई आधी अधूरी खोजो के सिद्धांतो को सुधार कर उन्हें पुनर्स्थापित किया, वहीं भविष्य में खगोल विज्ञान के क्षेत्र में किए जाने वाले अनेक अनुसंधानों का मार्ग भी प्रशस्त किया। उनकी इसी सफलतापूर्वक खोज ने उन्हें नोबेल पुरस्कार का अधिकारी बनाया।

>> सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर का जन्म <<

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर का जन्म 19 अक्टूबर 1910 को लाहौर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। दक्षिण भारतीय ब्राह्मण परिवार में जन्मे सुब्रमण्यम अपने 7 भाई बहनों के परिवार में सबसे बड़े पुत्र थे। उनके पिता श्री सी.एस. अय्यर ब्रिटिश सरकार के रेल विभाग में अधिकारी पद पर कार्यरत थे। अत्यंत जिज्ञासु प्रवृत्ति और कुशाग्र बुद्धि के स्वामी सुब्रमण्यम की प्रतिभा के लक्षण उनकी बाल्यावस्था में ही प्रकट होने लगे थे।

सुब्रमण्यम की बचपन से ही खेलों से कहीं अधिक रूचि किताबों में थी। यदि यह कहा जाए कि भविष्य में महान वैज्ञानिक बनने के गुण उनके खून में ही थे, तो गलत नहीं होगा। शिक्षित माता पिता की संतान के रूप में जन्मे सुब्रमण्यम चंद्रशेखर महान भौतिक विज्ञानी श्री चंद्रशेखर वेंकट रमन के भांजे थे। जिस समय सुब्रमण्यम का जन्म हुआ, उस समय वेंकटरमन भारत में भौतिक विज्ञान की आधारशिला रख रहे थे।

>> सुब्रमण्यम चंद्रशेखर की शिक्षा <<

सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में ही हुई थी। सन् 1925 में जब उन्होंने प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की तो उसी साल के अंत में उनके पिता लाहौर छोड़कर मद्रास चले आएं। आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज की प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की और छात्रवृत्ति सहित कॉलेज में अध्ययन आरम्भ किया। जैसे जैसे वे शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ते चले जा रहे थे, वैसे वैसे पढ़ने के प्रति उनकी रूचि भी तेजी से बढ़ती जा रही थी।

उनके सहपाठी अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अतिरिक्त और कुछ नहीं पढ़ते थे, किंतु सुब्रमण्यम नियमित रूप से पुस्तकालय जाते और भौतिक विज्ञान की जो भी नई पुस्तक मिलती, यहां तक की शोध पत्र भी पढ़ डालते थे। उन्होंने बी.एस.सी की भौतिकी विज्ञान ऑनर्स की परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त की।

बी.एस.सी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने अपने मामा वेंकटरमन से भौतिक विज्ञान की अनेक बारिकियों को जाना। और सन् 1930 में सुब्रमण्यम इंग्लैंड पहुंचे, और कैंम्बिज विश्विविद्यालय में भौतिक विज्ञान के छात्र के रूप में अपना शोध कार्य आरंभ कर दिया। यहां उन्होंने रॉल्फ हॉवर्ड फाउलर द्वारा प्रतिपादित उन सिद्धांतों का अध्ययन किया जो सुदूर आकाश गंगा में स्थित श्वेत बौने तारों की प्रकृति पर आधारित थे।

निश्चित समय पर अपना शोध कार्य पूर्ण करके सन् 1933 में उन्होंने विश्वविद्यालय से पी.एच.डी.(P.H.D) की उपाधि प्राप्त की। इसी साल उन्हें कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज का फैलो चुन लिया गया। ट्रिनिटी कॉलेज (Trinity College Of London) की फैलोशिप पाना अपने आप में एक महत्वपूर्ण सफलता थी। वे सन् 1937 तक यहां फैलो के रूप मे अपने शोध और अनुसंधान कार्यों में तन्मयता से जुटे रहे।

सन् 1933 से 1937 तक 4 वर्षों का समय सुब्रमण्यम और विश्व खगोल विज्ञान के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण था। इसी समयावधि में सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर ने अपनी महत्वपूर्ण खोज “चंद्रशेखर लिमिट” को विश्व विज्ञान जगत के सामने रखा। यह अलग बात है कि पश्चिमी वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित किए गए पारंपरिक सिद्धांतों को ही सर्वोपरि

मानने वाले वैज्ञानिक समुदाय ने उनकी इस खोज को स्वीकारने में अपेक्षाकृत अधिक समय ले लिया। किंतु अपनी इसी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर उन्होंने सिद्ध कर ही दिया कि वे अपनी जगह कितने सही थे।

>> नोबेल पुरस्कार <<
 
सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर के उपलब्धियों भरे वैज्ञानिक जीवन में इसे विडम्बना ही कहा जाएगा, कि जो खोज “चंद्रशेखर लिमिट” उन्होंने सन् 1935-1936 में ही कर ली थी, उसके लिए लगभग 47-48 सालो के बाद सन् 1983 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया, जबकि उन्हीं के दो शिष्य सन् 1957 में ही यह सम्मान प्राप्त कर चुके थे। यह अलग बात है कि बाद के सालो में किए गए उनके अन्य अनुसंधान कार्यों जैसे कि ब्लैक होल (Black hole) की उत्पत्ति और संरचना व आकाश गंगा के अन्य रहस्यों को उजागर करने के परिणामस्वरूप और अधिक समय तक इस सम्मान से वंचित रख पाना संभव नहीं रह गया था। सन् 1983 मे उन्हें नोबेल पुरस्कार दिए जाने पर विश्व के समस्त वैज्ञानिक समुदाय ने प्रसन्नता प्रकट की।

>> परिवारिक और व्यक्तिगत जीवन <<
 
हालांकि सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर 20 साल की आयु में ही अपनी मातृभूमि छोड़कर विदेश आ गए थे। जहां लगभग 7 साल इंग्लैंड और बाकी का जीवन अमेरिका की पश्चिमी सभ्यता संस्कृति के संपर्क में रहकर बिताया, किंतु वे कभी भी अपने देश भारत और उसकी संस्कृति को नहीं भूले। वे भारतीय रंग ढ़ंग के अनुरूप ही रहते थे। अपने घर में दक्षिण भारतीय पहनावा धोती कुर्ता पहने उन्हें अक्सर देखा जाता था। एक खगोलीय विज्ञानी होते हुए भी उन्हें संगीत में विशेष रूची थी। सन् 1936 मे चंद्रशेखर भारत आए थे। हालांकि वे बहुत थोडे समय के लिए यहां रूके। किंतु इसी समय उन्होंने अपनी जीवन संगिनी का वरण किया और उन्हें भी अपने साथ अमेरिका ले गए। सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की पत्नी श्रीमती ललिता दुरई स्वामी भी एक वैज्ञानिक थी। और भारत में महान वैज्ञानिक वेंकटरमन की विज्ञान अनुसंधान शाला में काम करती थी। विदेश में रहते हुए भी वे अपने पति की अच्छी सहयोगिनी सिद्ध हुई।

>> सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की मृत्यु <<

अपना महत्वपूर्ण जीवन विज्ञान को सीखने और सीखाने में अर्पित कर देने वाले महान वैज्ञानिक सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने 85 वर्ष की आयु में 21 अगस्त 1995 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आज सुब्रमण्यम चंद्रशेखर हमारे बीच नहीं है। किंतु वे अपने जाने से पूर्व अपने शिष्यों के रूप में भविष्य के वैज्ञानिकों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर गए है, जिसके सुपरिणाम हमें निकट भविष्य में देखने को मिल सकते हैं

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हनुमान जी की भयंकर गर्जना ।।

ऐसा पढ़ने में आता है की अर्जुन के रथ पर बैठे हनुमान जी कभी कबार खड़े हो कर कौरवो की सेना की और घूर कर देखते तो उस समय कौरवो की सेना तूफान की गति से युद्ध भूमि को छोड़ कर भाग निकलती..

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हनुमान जी की दृष्टि का सामना करने
का साहस किसी में नही था..
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उस दिन भी ऐसा ही हुआ था जब कर्ण और अर्जुन के बीच युद्ध चल रहा था..
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कर्ण अर्जुन पर अत्यंत भयंकर बाणो की वर्षा किये जा रहा था उनके बाणो की वर्षा से श्रीकृष्ण को भी बाण लगते गए..
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अतः उनके बाण से श्रीकृष्ण का कवच कटकर गिर पड़ा और उनके सुकुमार अंगो पर लगने लगे..
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रथ की छत पर बैठे पवनपुत्र हनुमान जी  एक टक नीचे अपने इन आराध्य की और ही देख रहे थे।
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श्रीकृष्ण कवच हीन हो गए थे, उनके श्री अंगपर कर्ण निरंतर बाण मारता ही जा रहा था..
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हनुमान जी से यह सहन नही हुआ..
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अकस्मात् वे उग्रतर गर्जना करके दोनों हाथ उठाकर कर्ण को मार देने के लिए उठ खड़े हुए।
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हनुमान जी की भयंकर गर्जना से ऐसा लगा मानो ब्रह्माण्ड फट गया हो..
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कौरव-सेना तो पहले ही भाग चुकी थी 
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अब पांडव पक्ष की सेना भी उनकी गर्जना के भय से भागने लगी..
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हनुमान जी का क्रोध देख कर कर्ण के हाथ से धनुष छूट कर गिर गया।
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भगवान श्रीकृष्ण तत्काल उठकर अपना दक्षिण हस्त उठाया और हनुमान जी को स्पर्श करके सावधान किया..
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रुको ! तुम्हारे क्रोध करने का समय नही है।
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श्रीकृष्ण के स्पर्श से हनुमान जी रुक तो गए किन्तु उनकी पूछ खड़ी हो कर आकाश में हिल रही थी..
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उनके दोनों हाथों की मुठियां बंध थीं, वे दाँत कट- कटा रहे थे और आग्नेय नेत्रों से कर्ण को घूर रहे थे..
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हनुमान जी का क्रोध देख कर कर्ण और उनके सारथि काँपने लगे और स्वेद धरा चल रही थी दोनों ने दृष्टि निचे कर रखी थी।
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हनुमान जी का क्रोध शांत न होते देख कर श्रीकृष्ण ने कड़े स्वर में कहा 
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हनुमान ! मेरी और देखो, अगर तुम इस प्रकार कर्ण की और कुछ क्षण देखोगे तो कर्ण तुम्हारी दृष्टि से ही मर जाएगा।
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यह त्रेतायुग नही है। तुम्हारे पराक्रम को तो दूर तुम्हारे तेज को भी कोई यहाँ सह नही सकता।
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तुमको मैंने इस युद्ध मे शांत रहकर बैठने को कहा है।
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फिर हनुमान जी ने अपने आराध्यदेव की और नीचे देखा और शांत हो कर बैठ गए..
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((((जय जय श्री राधे)))))
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धर्म की जय हो अधर्मी का नाश हो,
प्राणियों में सद्भावना हो विश्व का कल्याण हो 🙏🚩

चांद्रायण साधना आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना ।।

कल्प साधना में ऐसे तीन योगाभ्यासों का निर्धारण किया गया है जो सभी साधकों को समान रूप से करने पड़ते हैं । इन्हें अनिवार्य साधनाओं में गिना गया है। इनमें एक बिंदुयोग दूसरा नादयोग और तीसरा लययोग है। बिंदुयोग को त्राटक साधना भी कहा जाता है। नादयोग को ‘अनाहत ध्वनि' भी कहते हैं । लययोग को आत्मदेव की साधना कहते हैं। छाया पुरुष जैसे अभ्यास इसी के अंतर्गत आते हैं। स्थूल शरीर के साथ लययोग सूक्ष्म के साथ बिंदुयोग और कारण शरीर के साथ नादयोग का सीधा संबंध है। इन साधनाओं के आधार पर इन तीनों चेतना क्षेत्रों को अधिक परिष्कृत अधिक प्रखर एवं अधिक समर्थ बनाया जा सकता है। अन्न, जल, वायु की तरह इन तीन साधनाओं को भी समान उत्कर्ष की दृष्टि से सर्व सुगम किंतु साथ ही असाधारण रूप से प्रभावी भी माना गया है। 

बिंदुयोग-त्राटक साधना को आज्ञाचक्र का जागरण एवं तृतीय नेत्र का उन्मीलन कहा जाता है। दोनों भवों के बीच मस्तक के भृकुटि भाग में सूक्ष्म स्तर का तृतीय नेत्र है। भगवान शंकर की, देवी दुर्गा की तीन आँखें चित्रित की जाती हैं। दो आँखें सामान्य एक भूकुटि स्थान पर दिव्य। इसे ज्ञान चक्षु भी कहते हैं। अर्जुन को भगवान ने इसी के माध्यम से विराट के दर्शन कराए थे। भगवान शिव ने इसी को खोलकर ऐसी अग्नि निकाली थी, जिसमें उपद्रवी कामदेव जलकर भस्म हो गया। दमयंती ने भी कुदृष्टि डालते व्याध को इसी नेत्र ज्वाला के सहारे भस्म कर दिया था। संजय इसी केंद्र से अद्भुत दिव्य दृष्टि का टेलीविजन की तरह, दूरबीन की तरह उपयोग करते रहे और धृतराष्ट्र को घर बैठे महाभारत का सारा आंखों देखा हाल सुनाते रहे। आज्ञाचक्र को शरीर विज्ञान के अनुसार और पिट्यूटरी ग्रंथियों का मध्यवर्ती सर्किल माना जाता है और उसे एक प्रकार का त्रिदलीय चक्र-दिव्य दृष्टि केंद्र, कहा जाता है। टेलीविजन राडार, टेलीस्कोप के समन्वय युक्त क्षमता से इसकी तुलना की जाती है। जो चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता है वह इसमें सन्निहित अतीन्द्रिय क्षमता के सहारे परिलक्षित हो सकता है, ऐसी मान्यता है। दूरदर्शन सूक्ष्म दर्शनविचार संचालन जैसी विभूतियों का उद्गम इसे माना जाता है। साधारणतया यह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है और उसके अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष परिचय नहीं मिलताकिंतु यदि इसे प्रयत्नपूर्वक जगाया जा सके तो यह तीसरा नेत्र विचार संस्थान की क्षमता को अनेक गुनी बढ़ा देता है। चूंकि यह केंद्र दीपक की लौ के समान आकृति वाला बिंदु माना जाता है इसलिए उसे जागृत करने की साधना को बिंदुयोग कहते हैं। इसी का एक नाम त्राटक साधना भी है।

अब तक.... , कल्प साधना में ऐसे तीन योगाभ्यासों का निर्धारण किया गया है जो सभी साधकों को समान रूप से करने पड़ते हैं। इनमें एक बिंदुयोग दूसरा नादयोग और तीसरा लययोग है। बिंदुयोग को त्राटक साधना भी कहा जाता है। 

अभी हम सभी प्रथम योग बिंदुयोग को समझेंगे..... 

बिंदुयोग का एक नाम त्राटक साधना भी है।

यह साधना सरल है। आमतौर से पालथी मारकर, कमर सीधी कर एकांत स्थान में साधना के लिए बैठते हैं। तीन फुट दूरी पर कंधे की सीध में ऊँचाई पर एक घृत दीप जलाकर रखते हैं। दस सैकिन्ड तक उसकी लौ को खुली आँख से देखना, फिर एक मिनट बंद रखना। फिर दस सैकिंड देखने, पचास सैकिंड बंद रखने का अभ्यास अनुमान से ही करना पड़ता है। घड़ी का उपयोग इस बीच बन पड़ना सुविधाजनक नहीं रहेगा। दूसरा कोई चुपके से धागे आदि का संकेत कर दे तो दूसरी बात है।

दीपक के प्रकाश की लौ आँखें बंद करके आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रज्वलित देखने का अभ्यास करना होता है, साथ ही यह भी धारणा करनी होती है कि वह प्रकाश समूचे मस्तिष्क में फैलकर उसके प्रसुप्त शक्ति केंद्रों को जागृत कर रहा है। आरंभ में यह ध्यान दस मिनट से आरंभ करना चाहिए और बढ़ाते-बढ़ाते दूनी-तिगुनी अवधि तक पहुँचा देना चाहिए। खोलने बंद करने का समय एक सा ही रहेगा। दीपक का सहारा आरंभ में ही कुछ समय लेना पड़ता है। इसके बाद आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रकाश लौ जलने और उनकी आभा से समूचा मनःसंस्थान आलोकमय हो जाने की धारणा बिना किसी अवलंबन के मात्र कल्पना-भावना के आधार पर चलती रहती है।

दीपक की ही तरह प्रभातकालीन सूर्य का प्रकाश पुंज लक्ष्य इष्ट माना जा सकता है। गायत्री का प्राण ‘सविता' वही है। पालथी मारना हाथ गोदी में और कमर सीधी रखने को ध्यान मुद्रा कहते हैं। दीपक धारणा की तरह प्रभात कालीन अरुणाभ सूर्य को पाँच सैकिंड खुली आँख से देखकर बाद में पचपन सैकिंड के लिए आँखें बंद कर लेते हैं और आज्ञाचक्र के स्थान पर उस उदीयमान सूर्य का ध्यान करते हैं। साथ ही यह धारणा करते हैं कि सविता देवता की ज्योति किरणें स्थूल शरीर में प्रवेश करके पवित्रता, प्रखरता, सूक्ष्म शरीर में दूरदर्शी विवेकशीलता, कारण शरीर में श्रद्धा संवेदना का संचार करती और समग्र काय कलेवर को ज्योतिपुंज बनाती हैं। सूर्य त्राटक की ध्यान धारणा आरंभ में दस मिनट करनी चाहिए और धीरे-धीरे बीस मिनट तक बढ़ा देनी चाहिए। दीपक या सूर्य दोनों में से किसी को भी माध्यम बनाकर आज्ञाचक्र का जागरण, तृतीय नेत्र का उन्मीलन हो सकता है। कुछ समय तो लगता ही है। बीज बोने से लेकर वृक्ष फलने तक की प्रक्रिया पूरी होने में कुछ समय तो चाहिए ही। हथेली पर सरसों तो बाजीगर ही जमा सकते हैं।

संदर्भ : 
📕वांग्मय ७ प्रसुप्ति से जगृति की ओर 
✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।