कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहिं तब फल चाखा।।
कर्म चाहे आज के हों अथवा पूर्व जन्म के उनका फल असंदिग्ध है। परिणाम से मनुष्य बच नहीं सकता। दुष्कर्मों का भोग जिस तरह भोगना पड़ता है, शुभ कर्मों से उसी तरह श्री-सौभाग्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। यह सुअवसर जिसे प्राप्त हो वही सौभाग्यशाली है और इसके लिए किसी दैवी के भरोसे नहीं बैठना पड़ता। कर्मों का संपादन मनुष्य स्वयं करता है। अतः अपने अच्छे व बुरे भाग्य का निर्णायक भी वही है। हमारा श्रेय इसमें यही है कि सत्कर्मों के द्वारा अपना भविष्य सुधार लें। जो इस बाथशत को समझ लेंगे और इस पर आचरण करेंगे उनको कभी दुर्भाग्य का रोना नहीं रोना पड़ेगा।
भ्रम इस बात से पैदा हो जाता है कि बार -बार प्रत्यक्ष रूप से कर्म करने पर भी विपरीत परिणाम प्राप्त हो जाते हैं, तो लोग उसे भाग्य-चक्र मानकर परमात्मा को दोष देने लगते हैं। किंतु यह भाग्य तो अपने पूर्व संचित कर्मों का ही परिणाम है। यहां मनुष्य जीवन के विराट् रुप की कल्पना की गई है और एक जीवन का दूसरे जीवन से संस्कार-जन्य संबंध माना गया है। इस दृष्टि से भी जिसे आज भाग्य कहकर पुकारते हैं, यह भी कर के अपने कर्म का ही परिणाम है।
प्राकृतिक विधान के अनुसार तो यह भाग्य अपनी ही रचना है। अपने किए हुए का प्रतिफल है। मनुष्य भाग्य के वश में नहीं है, उसका निर्माता मनुष्य स्वयं है। परमात्मा के न्याय के अभेद देखें तो यही बात पुष्ट होती है कि भाग्य स्वयं हमारे द्वारा अपने को संपन्न करता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है।
वास्तव में हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि कर्म-फल किसी भी दशा में नष्ट नहीं होता। किसी न किसी समय वह अवश्य सामने आता है। विवशतावश उस समय उसे भले ही भाग्य कहकर टाल दिया जाय, पर इससे कर्म-फल का सिद्धांत तो नहीं मिट सकता।
अपने कर्मों के द्वारा स्वयं हम ही अपने भाग्य-निर्माता हैं, पर हमारे द्वारा सृष्टि भाग्य हमें बांधता है, क्योंकि हमने जो कुछ बोया है, उसे इस जीवन या दुसरे जीवन में हमें अवश्य काटना होगा। फिर भी हम लोग वर्तमान में भूतकाल से प्राप्त प्राचीन भाग्य को कोसते हुए ही भविष्य के लिए अपने भाग्य का निर्माण कर रहे हैं। यह बात हमारे लिए संकल्प और कर्म को एक अर्थ प्रदान करती है।
पुरुषार्थ की भाग्य के ऊपर विजय का सशक्त प्रतिपादन 'योगवशिष्ठ' में किया गया है। महर्षि वशिष्ठ जी इसके मुमुक्षु प्रकरण के षष्ठ सर्ग में कहते हैं -
"द्वौ हुडाविव युध्येते पुरुषार्थौ परस्परम्।
य एव बलवांस्तत्रस से एव जयतिक्षणात्।।"
अर्थात पूर्वजन्म और इस जन्म के कर्मरुपी दो भेंड़े आपस में लड़ते हैं, उनमें जो बलवान होता है, वह विजयी होता है। उदार स्वभाव और सदाचार वाले, इस जगत् मोहक दैव से (भाग्य चक्र से) वैसे ही निकल जाते हैं जैसे पिंजरे से सिंह। पौरुष का फल हाथ में रखे गए आंवले के समान स्पष्ट है। प्रत्यक्ष को छोड़कर दैव के मोह में निमग्न लोग मूढ़ हैं।
अथर्ववेद में कहा गया है -
"अयं मे हस्तो भगवानयं में भगवत्तरः"
अर्थात यह हाथ ही भगवान है, यह भगवान से भी बलवान है। कर्म ही भाग्य है। कर्म का कारण और फल दोनों ही हाथ में है।
'नियमितवादिता' अकर्मण्यता नहीं सिखाती। कर्म करना और फल को कृष्णार्पण कर देना, यही बात तो स्पष्ट रुप से गीता हमें सिखाती है। पूर्वजन्म एवं पूर्वजन्म का सिद्धांत यदि सत्य है, मनुष्य को अपने पूर्वजन्म के कर्मों का अच्छा-बुरा फल भोगना पड़ता है, यदि यह सत्य है तो 'भाग्यवादी' का सिद्धांत भी सत्य है, इसमें कोई संदेह नहीं। भाग्यवाद कभी भी अकर्मण्यता को जन्म नहीं देता। जब आलसी अपने आलस्य का समर्थन करते हैं, भाग्य का नाम लेकर उसकी आड़ में जो अपनी अकर्मण्यता का समर्थन करते हैं तो वे न केवल धूर्त हैं वरन् समाज को भारी हानि पहुंचाने वाले हैं। 'भाग्य' मनुष्य की विवशता है संचित प्रारब्ध उसका नियंत्रण करता है पर पुरुषार्थ तो उसका आज का कर्तव्य है, इस कर्त्तव्य की उपेक्षा करना एक प्रकार से ईश्वर की उपेक्षा करना है। हमारे भाग्य के अटपटेपन में भी किन पुरुषार्थियों का पुरुषार्थ काम कर रहा हो, यह कौन जानता है?
अंग्रेजी में कहावत है कि ईश्वर उसकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। अर्थात जो क्रियाशील व पुरुषार्थी हैं ईश्वर का वरदहस्त उनके साथ है। लोग तर्क देते हैं कि भगवत अनुग्रह से फल प्राप्ति बिना कर्म के ही हो जाती है। वे भूल जाते हैं कि भगवद्भक्ति, स्मरण, कीर्तन, चिंतन आदि भी तो कर्म है, कर्म नहीं बल्कि विशिष्ट कर्म हैं।
भाग्य का अस्तित्व यदि है तो वह कर्म से जुड़ा है। यहां कर्म के सूक्ष्म भेद को जानना आवश्यक है।
कर्म तीन प्रकार के होते हैं-
१) क्रियमाण कर्म,
२) संचित कर्म, और
३) प्रारब्ध कर्म
१) संचित कर्म :- जो दबाव में बेमन से, परिस्थितिवश किया जाए ऐसे कर्मों का फल 1000 वर्ष तक भी संचित रह जाता है। इस कर्म को मन से नहीं किया जाता। इसका फल हल्का धुंधला और कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों से टकराकर समाप्त भी हो जाता है।
२) प्रारब्ध कर्म :- तीव्र मानसिकता पूर्ण मनोयोग से योजनाबद्ध तरीके से तीव्र विचार एवं भावना पूर्वक किए जाने वाले कर्म। इसका फल अनिवार्य है, पर समय निश्चित नहीं है। इसी जीवन में भी मिलता है और अगले जन्म में भी मिलता है।
३) क्रियमाण कर्म :- शारीरिक कर्म जो तत्काल फल देने वाले होते हैं। क्रिया के बदले में तुरंत प्रतिक्रिया होती है।
इस तरह क्रियमाण ही संचित कर्म बनते हैं तथा संचित कर्म ही प्रारब्ध है। जब यह प्रारब्ध कर्म फलित होते हैं तो इनके कारण उत्पन्न अदृश्य एवं परिस्थितियों को समझना पाने के कारण इसे भाग्य रूपी अदृश्य शक्ति का नाम देते हैं व इसका अस्तित्व मानने लगते हैं, जबकि यह कर्म से जुड़ा है। मनुष्य अपनी इच्छा व पुरुषार्थ द्वारा कर्म की गति को दिशा दे सकता है।
प्रारब्ध यदि कष्ट कर हो तो भी उसे भोगना तो पड़ता है, लेकिन उसको हल्का किया जा सकता है। 'मंत्र तंत्रौषधि बलात्' से उसको हल्का किया जा सकता है। शूल की पीड़ा को सुई में बदला जा सकता है। दरिद्र व्यक्ति संचित कर्म का नाश तपस्या से कर सकता है। नि: संतान किसी तपस्वी के आशीर्वाद व अनुग्रह से पुत्र प्राप्त कर सकता है। अल्पायु तप आदि से दीर्घायु में परिवर्तित हो सकती है। अर्थात मनुष्य अपने भाग्य (अर्थात प्रारब्ध) को परिवर्तित, संशोधित एवं संवर्धित कर सकता है।
इस तरह भाग्य या प्रारब्ध कोई ऐसी शक्ति नहीं कि जिनके आगे मनुष्य घुटने टेक दे, उसके हाथों की कठपुतली बनकर दीन-हीन दरिद्र व निकृष्ट स्तर का जीवन जिए। बल्कि यह तो उसी के कर्मों की रचना है, जिसे मनुष्य अपने प्रयास-पुरुषार्थ अर्थात नवीन कर्मों द्वारा परिमार्जित कर सकता है श्रेष्ठ कर्म करता हुआ वह अपने लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है, आखिर मनुष्य अपना भाग्य विधाता आप ही तो है।
संदर्भ ग्रंथ:-
१.) अखण्ड ज्योति पत्रिका
२.) गहना कर्मणोगति:
३.) मरने के बाद हमारा क्या होता है?
जो जस करहिं तब फल चाखा।।
कर्म चाहे आज के हों अथवा पूर्व जन्म के उनका फल असंदिग्ध है। परिणाम से मनुष्य बच नहीं सकता। दुष्कर्मों का भोग जिस तरह भोगना पड़ता है, शुभ कर्मों से उसी तरह श्री-सौभाग्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। यह सुअवसर जिसे प्राप्त हो वही सौभाग्यशाली है और इसके लिए किसी दैवी के भरोसे नहीं बैठना पड़ता। कर्मों का संपादन मनुष्य स्वयं करता है। अतः अपने अच्छे व बुरे भाग्य का निर्णायक भी वही है। हमारा श्रेय इसमें यही है कि सत्कर्मों के द्वारा अपना भविष्य सुधार लें। जो इस बाथशत को समझ लेंगे और इस पर आचरण करेंगे उनको कभी दुर्भाग्य का रोना नहीं रोना पड़ेगा।
भ्रम इस बात से पैदा हो जाता है कि बार -बार प्रत्यक्ष रूप से कर्म करने पर भी विपरीत परिणाम प्राप्त हो जाते हैं, तो लोग उसे भाग्य-चक्र मानकर परमात्मा को दोष देने लगते हैं। किंतु यह भाग्य तो अपने पूर्व संचित कर्मों का ही परिणाम है। यहां मनुष्य जीवन के विराट् रुप की कल्पना की गई है और एक जीवन का दूसरे जीवन से संस्कार-जन्य संबंध माना गया है। इस दृष्टि से भी जिसे आज भाग्य कहकर पुकारते हैं, यह भी कर के अपने कर्म का ही परिणाम है।
प्राकृतिक विधान के अनुसार तो यह भाग्य अपनी ही रचना है। अपने किए हुए का प्रतिफल है। मनुष्य भाग्य के वश में नहीं है, उसका निर्माता मनुष्य स्वयं है। परमात्मा के न्याय के अभेद देखें तो यही बात पुष्ट होती है कि भाग्य स्वयं हमारे द्वारा अपने को संपन्न करता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है।
वास्तव में हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि कर्म-फल किसी भी दशा में नष्ट नहीं होता। किसी न किसी समय वह अवश्य सामने आता है। विवशतावश उस समय उसे भले ही भाग्य कहकर टाल दिया जाय, पर इससे कर्म-फल का सिद्धांत तो नहीं मिट सकता।
अपने कर्मों के द्वारा स्वयं हम ही अपने भाग्य-निर्माता हैं, पर हमारे द्वारा सृष्टि भाग्य हमें बांधता है, क्योंकि हमने जो कुछ बोया है, उसे इस जीवन या दुसरे जीवन में हमें अवश्य काटना होगा। फिर भी हम लोग वर्तमान में भूतकाल से प्राप्त प्राचीन भाग्य को कोसते हुए ही भविष्य के लिए अपने भाग्य का निर्माण कर रहे हैं। यह बात हमारे लिए संकल्प और कर्म को एक अर्थ प्रदान करती है।
पुरुषार्थ की भाग्य के ऊपर विजय का सशक्त प्रतिपादन 'योगवशिष्ठ' में किया गया है। महर्षि वशिष्ठ जी इसके मुमुक्षु प्रकरण के षष्ठ सर्ग में कहते हैं -
"द्वौ हुडाविव युध्येते पुरुषार्थौ परस्परम्।
य एव बलवांस्तत्रस से एव जयतिक्षणात्।।"
अर्थात पूर्वजन्म और इस जन्म के कर्मरुपी दो भेंड़े आपस में लड़ते हैं, उनमें जो बलवान होता है, वह विजयी होता है। उदार स्वभाव और सदाचार वाले, इस जगत् मोहक दैव से (भाग्य चक्र से) वैसे ही निकल जाते हैं जैसे पिंजरे से सिंह। पौरुष का फल हाथ में रखे गए आंवले के समान स्पष्ट है। प्रत्यक्ष को छोड़कर दैव के मोह में निमग्न लोग मूढ़ हैं।
अथर्ववेद में कहा गया है -
"अयं मे हस्तो भगवानयं में भगवत्तरः"
अर्थात यह हाथ ही भगवान है, यह भगवान से भी बलवान है। कर्म ही भाग्य है। कर्म का कारण और फल दोनों ही हाथ में है।
'नियमितवादिता' अकर्मण्यता नहीं सिखाती। कर्म करना और फल को कृष्णार्पण कर देना, यही बात तो स्पष्ट रुप से गीता हमें सिखाती है। पूर्वजन्म एवं पूर्वजन्म का सिद्धांत यदि सत्य है, मनुष्य को अपने पूर्वजन्म के कर्मों का अच्छा-बुरा फल भोगना पड़ता है, यदि यह सत्य है तो 'भाग्यवादी' का सिद्धांत भी सत्य है, इसमें कोई संदेह नहीं। भाग्यवाद कभी भी अकर्मण्यता को जन्म नहीं देता। जब आलसी अपने आलस्य का समर्थन करते हैं, भाग्य का नाम लेकर उसकी आड़ में जो अपनी अकर्मण्यता का समर्थन करते हैं तो वे न केवल धूर्त हैं वरन् समाज को भारी हानि पहुंचाने वाले हैं। 'भाग्य' मनुष्य की विवशता है संचित प्रारब्ध उसका नियंत्रण करता है पर पुरुषार्थ तो उसका आज का कर्तव्य है, इस कर्त्तव्य की उपेक्षा करना एक प्रकार से ईश्वर की उपेक्षा करना है। हमारे भाग्य के अटपटेपन में भी किन पुरुषार्थियों का पुरुषार्थ काम कर रहा हो, यह कौन जानता है?
अंग्रेजी में कहावत है कि ईश्वर उसकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। अर्थात जो क्रियाशील व पुरुषार्थी हैं ईश्वर का वरदहस्त उनके साथ है। लोग तर्क देते हैं कि भगवत अनुग्रह से फल प्राप्ति बिना कर्म के ही हो जाती है। वे भूल जाते हैं कि भगवद्भक्ति, स्मरण, कीर्तन, चिंतन आदि भी तो कर्म है, कर्म नहीं बल्कि विशिष्ट कर्म हैं।
भाग्य का अस्तित्व यदि है तो वह कर्म से जुड़ा है। यहां कर्म के सूक्ष्म भेद को जानना आवश्यक है।
कर्म तीन प्रकार के होते हैं-
१) क्रियमाण कर्म,
२) संचित कर्म, और
३) प्रारब्ध कर्म
१) संचित कर्म :- जो दबाव में बेमन से, परिस्थितिवश किया जाए ऐसे कर्मों का फल 1000 वर्ष तक भी संचित रह जाता है। इस कर्म को मन से नहीं किया जाता। इसका फल हल्का धुंधला और कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों से टकराकर समाप्त भी हो जाता है।
२) प्रारब्ध कर्म :- तीव्र मानसिकता पूर्ण मनोयोग से योजनाबद्ध तरीके से तीव्र विचार एवं भावना पूर्वक किए जाने वाले कर्म। इसका फल अनिवार्य है, पर समय निश्चित नहीं है। इसी जीवन में भी मिलता है और अगले जन्म में भी मिलता है।
३) क्रियमाण कर्म :- शारीरिक कर्म जो तत्काल फल देने वाले होते हैं। क्रिया के बदले में तुरंत प्रतिक्रिया होती है।
इस तरह क्रियमाण ही संचित कर्म बनते हैं तथा संचित कर्म ही प्रारब्ध है। जब यह प्रारब्ध कर्म फलित होते हैं तो इनके कारण उत्पन्न अदृश्य एवं परिस्थितियों को समझना पाने के कारण इसे भाग्य रूपी अदृश्य शक्ति का नाम देते हैं व इसका अस्तित्व मानने लगते हैं, जबकि यह कर्म से जुड़ा है। मनुष्य अपनी इच्छा व पुरुषार्थ द्वारा कर्म की गति को दिशा दे सकता है।
प्रारब्ध यदि कष्ट कर हो तो भी उसे भोगना तो पड़ता है, लेकिन उसको हल्का किया जा सकता है। 'मंत्र तंत्रौषधि बलात्' से उसको हल्का किया जा सकता है। शूल की पीड़ा को सुई में बदला जा सकता है। दरिद्र व्यक्ति संचित कर्म का नाश तपस्या से कर सकता है। नि: संतान किसी तपस्वी के आशीर्वाद व अनुग्रह से पुत्र प्राप्त कर सकता है। अल्पायु तप आदि से दीर्घायु में परिवर्तित हो सकती है। अर्थात मनुष्य अपने भाग्य (अर्थात प्रारब्ध) को परिवर्तित, संशोधित एवं संवर्धित कर सकता है।
इस तरह भाग्य या प्रारब्ध कोई ऐसी शक्ति नहीं कि जिनके आगे मनुष्य घुटने टेक दे, उसके हाथों की कठपुतली बनकर दीन-हीन दरिद्र व निकृष्ट स्तर का जीवन जिए। बल्कि यह तो उसी के कर्मों की रचना है, जिसे मनुष्य अपने प्रयास-पुरुषार्थ अर्थात नवीन कर्मों द्वारा परिमार्जित कर सकता है श्रेष्ठ कर्म करता हुआ वह अपने लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है, आखिर मनुष्य अपना भाग्य विधाता आप ही तो है।
संदर्भ ग्रंथ:-
१.) अखण्ड ज्योति पत्रिका
२.) गहना कर्मणोगति:
३.) मरने के बाद हमारा क्या होता है?