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नकली विज्ञान ने हमसे 400 प्रकार के टमाटर छीन कर हमें एक अंडे के आकार का टमाटर जो बिल्कुल गुणहीन है चिपका दिया ।

आजकल आपने देखा होगा कि बाजार में मिलने वाले अधिकतर फल और सब्जियों में स्वाद बिल्कुल नहीं होता । लेकिन दिखने में वह एकदम लाजवाब होगी जैसे कि जामुन ,टमाटर । हाइब्रिड बीज से तैयार होने वाली जामुन इतनी मोटी मोटी ,गोलमटोल होती हैं कि देखते ही खाने के लिये मुहं में पानी आ जाता है । औऱ देशी जामुन बेचारी देखने में बिल्कुल पतली सी । एक कोने में दुबक कर पड़ी रहती कि कोई हम गरीब का भी मोल डाल दे । लेकिन जब आप hybird जामुन को खायो तो स्वाद बिल्कुल फीका फीका सा बेस्वाद सा होता है। हाइब्रिड मोटी मोटी जामुन गले में एक अजीब तरह की खुश्की करती है । खाने के बाद आपको पानी पीना पड़ता है । दूसरी और देशी जामुन मुहं में रखते सार ही रस घोल देती है ।आनंद आ जाता है कोई गले में खारिश नहीं होती । देशी जामुन जिनकी किस्मत और समझ अच्छी हो कभी कभार मिल जाती है । 

आज का दूसरा मुद्दा है टमाटर । अंग्रेजी टमाटर देखने में अंडे जैसे लगते हैं इसलिये मैं इनको अंडे वाले टमाटर कहता हूं । यह अंडे वाले टमाटर खाने में देशी टमाटरों (जोकि बिल्कुल गोल होते हैं ) के मुकाबले बिल्कुल असरदार और स्वादिष्ट नही होते । देशी टमाटर जहाँ एक पड़ेगा और सब्जी में रस घोल देगा ।अंडे वाले हाइब्रिड टमाटर तीन पड़ेंगे और सब्जी की ऐसी तैसी कर देंगे वो अलग । 
कैसे हाइब्रिड गेंहू में कैसे ग्लूटामेट की मात्रा अधिक होती है जिससे आजकल तथाकथित विकसित देश अमेरिका जिसकी 25% जनसंख्या मुधमेह नामक रोग से ग्रसित है । दूसरी और देशी गेहूं जैसे शरबती में ग्लूटामेट की मात्रा संतुलित मात्रा में होती है । 
यह लेख लिखने का उद्देश्य है कि आप भी ना केवल जैविक बल्कि प्रकृति की बनाये हुए फल सब्ज़ियां अनाज ही खरीदें क्योंकि इंसान गलती कर सकता है प्रक्रति नहीं । कुदरती बीजों द्वारा उत्पन्न फल सब्जियां ही आपके स्वास्थ्य के लिये उत्तम हैं ।

भगवान विष्णु को कमल नयन क्यों कहा जाता है??

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, दैत्यों के अत्याचार से परेशान होकर देवताओं ने भगवान विष्णु से इनका संहार करने की प्रार्थना की। बैकुंठ पति भगवान विष्णु बैकुंठ से वाराणसी आए और ब्रह्ममुहूर्त में मणिकार्णिका घाट पर स्नान करके एक हजार कमल पुष्पों से भगवान शिव का पूजन आरंभ किया। वे मंत्रोच्चार के साथ कमल पुष्प शिवलिंग पर चढ़ाने लगे। जब 999 कमल पुष्प चढ़ाए जा चुके तो भगवान विष्णु चौंके, क्योंकि हजारवां कमल पुष्प गायब था। विष्णु ने काफी ढूंढा पर वह पुष्प नहीं मिला।

वह पुष्प भगवान शिव ने भगवान विष्णु की परीक्षा लेने के लिए छिपा लिया था। जब भगवान विष्णु ने फूल काफी ढूंढा लेकिन जब वो नहीं मिला तो विष्णु ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए कमल के फूल की जगह अपनी एक आंख निकालकर चढ़ाई। जब श्री विष्णु ने शिवलिंग पर अपना नेत्र चढ़ा दिया। यही वजह है की भगवान विष्णु को कमल नयन कहा जाता है।
इसके पश्चात शिव जी ने प्रसन्न होकर भगवान विष्णु को तीनों लोकों के पालन की जिम्मेदारी दे दी और विष्णु जी को सुदर्शन चक्र भी प्रदान किया। जिससे श्री हरी विष्णु ने दैत्यों का संहार कर देवताओं को सुख प्रदान किया।

श्री विष्णु ।।


       विष्णु पूजन सार्वभौमिक है। भारतवर्ष के कुछ विद्वान पाश्चात्य मानसिकता से ग्रसित हो विष्णु को केवल आर्यों का देवता बताते हैं एवं शिव को द्रविणों का आराध्य परन्तु वास्तविकता यह है कि दक्षिण में अयप्पा के नाम से विष्णु सदैव से सुपूजित रहे हैं। आर्य संस्कृति किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त रही है एवं आर्य संस्कृति के मूल में वैदिक ग्रंथ हैं। वेदों में जितनी विष्णु के की स्तुतियाँ हैं उतनी ही रुद्र की भी स्तुतियां हैं। रुद्र का तात्पर्य शिव ही है। महाविष्णु को अवतारों का मूल स्तोत्र माना जाता है। पृथ्वी पर जितने भी शरीर धारण किये हुए अवतारी महापुरुष हुए हैं वे सबके सब विष्णु अंश ही हैं एवं इन सब अवतारी शक्तियाँ ने अपने समय काल एवं मांग के अनुसार कोमोवेश पृथ्वी के जीवों में सभ्यता का संचार किया है, उन्हें चेतना प्रदान की है, समाज का उद्धार किया है और समाज के साथ पूर्ण चुनौति से टकरायें हैं। 

           प्रारम्भ में तो इनका घोर विरोध हुआ है पर बाद में चलकर सबने इन्हें पूर्ण हृदय के साथ स्वीकारा है और इनकी परम्पराओं पर चलकर मानव जगत में आश्चर्य जनक परिवर्तन हुए हैं। आश्चर्यजनक परिवर्तनों के लिए हमेशा परम विशेष शक्ति की प्राणी समुदाय को जरूरत पड़ी है। मनुष्य का असंख्य वर्षों का इतिहास इसका गवाह है कि एक अद्भुत, चमत्कारिक एवं दैवीय क्षमता से युक्त जीव आगे चला है और उसके पीछे-पीछे भीड़ चली है। ऐसा हमेशा से होता आया है और हमेशा होता रहेगा। जीव जगत, प्राणी जगत, वनस्पति जगत के अंदर हमेशा एक अध्याय कोरा रहता है जिसके ऊपर नवीन लिखावट की सदैव आवश्यकता होती है। वनसतयाँ भी चमत्कारिक गुण कभी भी ग्रहण कर सकती हैं। मनुष्य भी किसी भी हद तक सुधार कर सकता है और यहीं पर उपासना की जरूरत पड़ती है। 

      उपासना से व्यक्तिगत गुणों का विकास प्रचूरता के साथ होता है। परिवर्तन विश्व का नियम है। जीव का सम्पूर्ण जीवन परिवर्तनीय है। कब किस मार्ग से, किसके द्वारा, किस विधि से परिवर्तन हो जायेगा यह कहना मुश्किल है। आदिकाल से ही शैवमत और विष्णु मतावलम्बियों में भीषण द्वंद रहा है। द्वंद का कारण अर्धविकसित आध्यात्मिक चेतना है। वास्तव में हर और हरि एक दूसरे के पूरक हैं एवं इनके सायुज्य से ही एक साधक में आध्यात्मिक चिंतन पूर्ण हो पाता है। पंच भौतिक शरीर के साथ विष्णु शक्ति सबसे आसानी के साथ क्रियाशील हो पाती है। अन्य किसी देव शक्ति की अपेक्षा विष्णु जीव के प्रति सखा भाव स्थापित करने में ज्यादा सफल रहे हैं। अन्य शक्तियाँ इतनी नजदीक नहीं पहुँच पायी हैं। विष्णु के अलावा कोई और अन्य देव शक्ति जीव का शरीर धारण कर इस पृथ्वी पर लम्बे समय तक विचर भी नहीं पायी हैं। जीव से, मनुष्य से मनुष्य की शैली में, मनुष्य के रूप में, मनुष्य की भाषा में केवल विष्णु ही संवाद स्थापित कर पाये हैं और ब्रह्माण्ड के एक से एक परम दुर्लभ गूढ़ रहस्य सरलता के साथ प्रदान करने में सक्षम हुए हैं। 

        आज मनुष्य रुद्र के बारे में, देवी के बारे में, ब्रह्माण्ड के बारे में, आत्मा, परमात्मा, जीवोत्पत्ति इत्यादि के सम्बन्ध में जो कुछ जान सका है वह सब केवल विष्णु के कारण ही सम्भव हो सका है अन्यथा मनुष्य भी पशु के समान मूढ़ ही रह जाता मस्तिष्क की सीमितता, न्यूनता को एक नया आयाम सदैव से विष्णु वाणी देती आ रही है। एक नया दृष्टिकोण, कुछ विहंगम ज्ञान की प्राप्ति हेतु दिव्य चक्षुओं की जरूरत होती है। कुछ विशेष अनुभूत करने के लिए दिव्य चक्षु अत्यंत आवश्यक हैं और दिव्य चक्षु सदैव से विष्णु प्रदान करते चले आ रहे हैं अध्यात्म का सरलीकरण हमेशा विष्णु ने किया है। चाहे वे बुद्ध के रूप में, राम के रूप में, कृष्ण के रूप में या किसी अन्य रूप में आखिर उद्धारक, सखा वे ही बनते हैं।

श्री राधा स्तोत्रम् ।।


वन्दे राधापदाम्भोजं ब्रह्मादिसुरवन्दितम् यत्कीर्तिकीर्तनेनैव पुनाति भुवनत्रयम् ॥ 

नमो गोलोकवासिन्यै राधिकयै नमो नमः शतश्रृङ्गनिवासिन्यै चन्द्रवत्यै नमो नमः ॥ 

तुलसीवनवासिन्यै वृन्दारण्यै नमो नमः रासमण्डलवासिन्यै रासेश्वर्यै नमो नमः ॥  

 विरजातीरवासिन्यै वृन्दायै च नमो नमः ।   
वृन्दावनविलासिन्यै कृष्णायै च नमो नमः ॥  

 नमः कृष्णप्रियायै च शान्तायै च नमो नमः । 
 कृष्णवक्षः स्थितायै च तत्प्रियायै नमो नमः ॥

नमो वैकुण्ठवासिन्यै महालक्ष्म्ये नमो नमः ।    
विद्याधिष्ठातृदेव्यै च सरस्वत्यै नमो नमः ॥

सर्वैश्वर्याधिदेव्यै च कमलायै नमो नमः । 
पद्मनाभप्रियायै च पद्मायै च नमो नमः ॥ 

महाविष्णोश्च मात्रे च पराद्यायै नमो नमः । 
नमः सिन्धुसुतायै च मर्त्यलक्ष्म्यै नमो नमः ॥

नारायणप्रियायै च नारायण्यै नमो नमः । 
नमोऽस्तु विष्णुमायायै वैष्णव्यै च नमो नमः ॥

महामायास्वरूपायै सम्पदायै नमो नमः । 
नमः कल्याणरूपिण्यै शुभायै च नमो नमः ॥ 

मात्रे चतुर्णा वेदानां सावित्र्यै च नमो नमः । 
नमो दुर्गविनाशिन्यै दुर्गादेव्यै नमो नमः ॥ 

तेजत्सु सर्वदेवानां पुरा कृतयुगे मुदा । 
अधिष्ठानकृतायै च प्रकृत्यै च नमो नमः ॥

नमस्त्रिपुरहारिण्यै त्रिपुरायै नमो नमः । 
सुन्दरीषु च रम्यायै निर्गुणायै नमो नमः ॥ 

नमो निद्रास्वरूपायै निर्गुणायै नमो नमः । 
नमो दक्षसुतायै च नमः सत्यै नमो नमः ॥ 

नमः शैलसुतायै च पार्वत्यै च नमो नमः । 
नमो नमस्तपरिवन्यै ह्युमायै च नमो नमः ॥

निराहारस्वरूपायै ह्यपर्णायै नमो नमः ।   
गौरीलोकविलासिन्यै नमो गौयै नमो नमः ॥

नमः कैलासवासिन्यै माहेश्वर्यै नमो नमः । 
निद्रायै च दयायै च श्रृद्धायै च नमो नमः ॥ 

 नमो धृत्यै क्षमायै च लज्जायै च नमो नमः ।
तृष्णायै क्षुत्स्वरूपायै स्थितिकर्यै नमो नमः ॥ 

 नमः संहाररूपिण्यै महाभायै नमो नमः । 
 भयायै चाभयायै च मुक्तिदायै नमो नमः ॥

नमः स्वधायै स्वाहायै शान्त्यै कान्त्यै नमो नमः ।
            
नमस्तुष्टयै च पुष्टयै च दयायै च नमो नमः ॥ 

नमो निद्रास्वरूपायै श्रृद्धायै च नमो नमः ।    
क्षुत्पिपासास्वरूपायै लज्जायै च नमो नमः ॥

 नमो धृत्यै क्षमायै च चेतनायै नमो नमः ।   
 सर्वशक्तिस्वरूपिण्यै सर्वमात्रे नमो नमः ॥ 

 अन्नो दाहस्वरूपायै भद्रायै च नमो नमः । 
 शोभायै पूर्णचन्द्रे च शरत्पद्ये नमो नमः ॥ 

 नास्ति भेदो यथा देवि दुग्धधावल्ययोः सदा । 
 यथैव गन्धभूम्योश्च यथैव जलशैत्ययोः ॥ 

 यथैव शब्दनभसोर्ज्योतिः सूर्यकयोर्यथा । 
 लोके वेदे पुराणे च राधामाधवयोस्तथा ॥ 

 चेतनं कुरु कल्याणि देहि मामुत्तरं सति । 
 इत्युक्त्वा चोद्धवस्तत्र प्रणनाम पुनः पुनः ॥ 

 इत्युद्धवकृतं स्तोत्रं यः पठेद् भक्तिपूर्वकम् । 
 इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते हरिमन्दिरम् ॥ 
            
न भवेद् बन्धुविच्छेदो रोगः शोकः सुदारुणः।
 प्रोषिता स्त्री लभेत् कान्तं भार्यामेदी लभेत् प्रियाम्॥
अपुत्रों लभते पुत्रान् निर्धनो लभते धनम् । 
 निर्मूमिर्लभते भूमि प्रजाहीनो लभेत् प्रजाम् ॥
रोगाद् विमुच्यते रोगी बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।
 भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥ 
अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः ॥

पाठ फल श्रुती -
जो उद्धव के द्वारा बनाया गया इस स्तोत्र का भक्ति पूर्ण पाठ करता है इस लोक में सुख भोगने के बाद वह हरि के मंदिर में जाता है। उसके मित्र उसका त्याग नहीं करते हैं और ना ही उसे दारुण रोग शोक होता है। वह जिस स्त्री को चाहता है वह उसे प्राप्त होती है और वह उससे अत्यंत प्रेम करने वाली होती है। जिसके पुत्र नहीं होते उसे पुत्र की प्राप्ति होती है। निर्धन को धन प्राप्त होता है जिसके पास भूमि ना हो उसे भूमि की प्राप्ति होती है। प्रजा हीन राजा को प्रजा मिलती है रोगी को रोग से मुक्ति मिलती है जो कारागृह में बंदी है उसे बंधन मुक्ति मिलती है। और उसको बहुत ज्यादा सुयश कृति प्राप्त होती है। जो मूर्ख होता है वह इसके पाठ से पंडित हो जाता है।

राम मन्त्र का अर्थ ।।

र', 'अ' और 'म', इन तीनों अक्षरों के योग से 'राम' मंत्र बनता है। यही राम रसायन है। 'र' अग्निवाचक है। 'अ' बीज मंत्र है। 'म' का अर्थ है ज्ञान। यह मंत्र पापों को जलाता है, किंतु पुण्य को सुरक्षित रखता है और ज्ञान प्रदान करता है। हम चाहते हैं कि पुण्य सुरक्षित रहें, सिर्फ पापों का नाश हो। 'अ' मंत्र जोड़ देने से अग्नि केवल पाप कर्मो का दहन कर पाती है।

और हमारे शुभ और सात्विक कर्मो को सुरक्षित करती है। 'म' का उच्चारण करने से ज्ञान की उत्पत्ति होती है। हमें अपने स्वरूप का भान हो जाता है।

इसलिए हम र, अ और म को जोड़कर एक मंत्र बना लेते हैं-राम। 'म' अभीष्ट होने पर भी यदि हम 'र' और 'अ' का उच्चारण नहीं करेंगे तो अभीष्ट की प्राप्ति नहीं होगी।

राम सिर्फ एक नाम नहीं अपितु एक मंत्र है, जिसका नित्य स्मरण करने से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है। राम शब्द का अर्थ है- मनोहर, विलक्षण, चमत्कारी, पापियों का नाश करने वाला व भवसागर से मुक्त करने वाला।
रामचरित मानस के बालकांड में एक प्रसंग में लिखा है-

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू।
अर्थात~
कलयुग में न तो कर्म का भरोसा है, न भक्ति का और न ज्ञान का। सिर्फ राम नाम ही एकमात्र सहारा है। स्कंदपुराण में भी राम नाम की महिमा का गुणगान किया गया है-

रामेति द्वयक्षरजप: सर्वपापापनोदक:।
गच्छन्तिष्ठन् शयनो वा मनुजो रामकीर्तनात्।।
इड निर्वर्तितो याति चान्ते हरिगणो भवेत्। ---स्कंदपुराण/ नागरखंड

अर्थात यह दो अक्षरों का मंत्र (राम) जपे जाने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है। चलते, बैठते, सोते या किसी भी अवस्था में जो मनुष्य राम नाम का कीर्तन करता है, वह यहां कृतकार्य होकर जाता है और अंत में भगवान विष्णु का पार्षद बनता है।

राम रामेति रामेति रमे रामे रामो रमे |
सहस्त्र नाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ||

विष्णु जी के सहस्त्र नामों को लेने का समय अगर आज के व्यस्त समय में ना मिले तो एक राम नाम ही सहस्त्र विष्णु नाम के बराबर है । कलियुग का एक अच्छा पक्ष है की हज़ारों यज्ञों का पुण्य सिर्फ नाम संकीर्तन से मिल जाता है।