Follow us for Latest Update

श्री राधा स्तोत्रम् ।।


वन्दे राधापदाम्भोजं ब्रह्मादिसुरवन्दितम् यत्कीर्तिकीर्तनेनैव पुनाति भुवनत्रयम् ॥ 

नमो गोलोकवासिन्यै राधिकयै नमो नमः शतश्रृङ्गनिवासिन्यै चन्द्रवत्यै नमो नमः ॥ 

तुलसीवनवासिन्यै वृन्दारण्यै नमो नमः रासमण्डलवासिन्यै रासेश्वर्यै नमो नमः ॥  

 विरजातीरवासिन्यै वृन्दायै च नमो नमः ।   
वृन्दावनविलासिन्यै कृष्णायै च नमो नमः ॥  

 नमः कृष्णप्रियायै च शान्तायै च नमो नमः । 
 कृष्णवक्षः स्थितायै च तत्प्रियायै नमो नमः ॥

नमो वैकुण्ठवासिन्यै महालक्ष्म्ये नमो नमः ।    
विद्याधिष्ठातृदेव्यै च सरस्वत्यै नमो नमः ॥

सर्वैश्वर्याधिदेव्यै च कमलायै नमो नमः । 
पद्मनाभप्रियायै च पद्मायै च नमो नमः ॥ 

महाविष्णोश्च मात्रे च पराद्यायै नमो नमः । 
नमः सिन्धुसुतायै च मर्त्यलक्ष्म्यै नमो नमः ॥

नारायणप्रियायै च नारायण्यै नमो नमः । 
नमोऽस्तु विष्णुमायायै वैष्णव्यै च नमो नमः ॥

महामायास्वरूपायै सम्पदायै नमो नमः । 
नमः कल्याणरूपिण्यै शुभायै च नमो नमः ॥ 

मात्रे चतुर्णा वेदानां सावित्र्यै च नमो नमः । 
नमो दुर्गविनाशिन्यै दुर्गादेव्यै नमो नमः ॥ 

तेजत्सु सर्वदेवानां पुरा कृतयुगे मुदा । 
अधिष्ठानकृतायै च प्रकृत्यै च नमो नमः ॥

नमस्त्रिपुरहारिण्यै त्रिपुरायै नमो नमः । 
सुन्दरीषु च रम्यायै निर्गुणायै नमो नमः ॥ 

नमो निद्रास्वरूपायै निर्गुणायै नमो नमः । 
नमो दक्षसुतायै च नमः सत्यै नमो नमः ॥ 

नमः शैलसुतायै च पार्वत्यै च नमो नमः । 
नमो नमस्तपरिवन्यै ह्युमायै च नमो नमः ॥

निराहारस्वरूपायै ह्यपर्णायै नमो नमः ।   
गौरीलोकविलासिन्यै नमो गौयै नमो नमः ॥

नमः कैलासवासिन्यै माहेश्वर्यै नमो नमः । 
निद्रायै च दयायै च श्रृद्धायै च नमो नमः ॥ 

 नमो धृत्यै क्षमायै च लज्जायै च नमो नमः ।
तृष्णायै क्षुत्स्वरूपायै स्थितिकर्यै नमो नमः ॥ 

 नमः संहाररूपिण्यै महाभायै नमो नमः । 
 भयायै चाभयायै च मुक्तिदायै नमो नमः ॥

नमः स्वधायै स्वाहायै शान्त्यै कान्त्यै नमो नमः ।
            
नमस्तुष्टयै च पुष्टयै च दयायै च नमो नमः ॥ 

नमो निद्रास्वरूपायै श्रृद्धायै च नमो नमः ।    
क्षुत्पिपासास्वरूपायै लज्जायै च नमो नमः ॥

 नमो धृत्यै क्षमायै च चेतनायै नमो नमः ।   
 सर्वशक्तिस्वरूपिण्यै सर्वमात्रे नमो नमः ॥ 

 अन्नो दाहस्वरूपायै भद्रायै च नमो नमः । 
 शोभायै पूर्णचन्द्रे च शरत्पद्ये नमो नमः ॥ 

 नास्ति भेदो यथा देवि दुग्धधावल्ययोः सदा । 
 यथैव गन्धभूम्योश्च यथैव जलशैत्ययोः ॥ 

 यथैव शब्दनभसोर्ज्योतिः सूर्यकयोर्यथा । 
 लोके वेदे पुराणे च राधामाधवयोस्तथा ॥ 

 चेतनं कुरु कल्याणि देहि मामुत्तरं सति । 
 इत्युक्त्वा चोद्धवस्तत्र प्रणनाम पुनः पुनः ॥ 

 इत्युद्धवकृतं स्तोत्रं यः पठेद् भक्तिपूर्वकम् । 
 इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते हरिमन्दिरम् ॥ 
            
न भवेद् बन्धुविच्छेदो रोगः शोकः सुदारुणः।
 प्रोषिता स्त्री लभेत् कान्तं भार्यामेदी लभेत् प्रियाम्॥
अपुत्रों लभते पुत्रान् निर्धनो लभते धनम् । 
 निर्मूमिर्लभते भूमि प्रजाहीनो लभेत् प्रजाम् ॥
रोगाद् विमुच्यते रोगी बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।
 भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥ 
अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः ॥

पाठ फल श्रुती -
जो उद्धव के द्वारा बनाया गया इस स्तोत्र का भक्ति पूर्ण पाठ करता है इस लोक में सुख भोगने के बाद वह हरि के मंदिर में जाता है। उसके मित्र उसका त्याग नहीं करते हैं और ना ही उसे दारुण रोग शोक होता है। वह जिस स्त्री को चाहता है वह उसे प्राप्त होती है और वह उससे अत्यंत प्रेम करने वाली होती है। जिसके पुत्र नहीं होते उसे पुत्र की प्राप्ति होती है। निर्धन को धन प्राप्त होता है जिसके पास भूमि ना हो उसे भूमि की प्राप्ति होती है। प्रजा हीन राजा को प्रजा मिलती है रोगी को रोग से मुक्ति मिलती है जो कारागृह में बंदी है उसे बंधन मुक्ति मिलती है। और उसको बहुत ज्यादा सुयश कृति प्राप्त होती है। जो मूर्ख होता है वह इसके पाठ से पंडित हो जाता है।

राम मन्त्र का अर्थ ।।

र', 'अ' और 'म', इन तीनों अक्षरों के योग से 'राम' मंत्र बनता है। यही राम रसायन है। 'र' अग्निवाचक है। 'अ' बीज मंत्र है। 'म' का अर्थ है ज्ञान। यह मंत्र पापों को जलाता है, किंतु पुण्य को सुरक्षित रखता है और ज्ञान प्रदान करता है। हम चाहते हैं कि पुण्य सुरक्षित रहें, सिर्फ पापों का नाश हो। 'अ' मंत्र जोड़ देने से अग्नि केवल पाप कर्मो का दहन कर पाती है।

और हमारे शुभ और सात्विक कर्मो को सुरक्षित करती है। 'म' का उच्चारण करने से ज्ञान की उत्पत्ति होती है। हमें अपने स्वरूप का भान हो जाता है।

इसलिए हम र, अ और म को जोड़कर एक मंत्र बना लेते हैं-राम। 'म' अभीष्ट होने पर भी यदि हम 'र' और 'अ' का उच्चारण नहीं करेंगे तो अभीष्ट की प्राप्ति नहीं होगी।

राम सिर्फ एक नाम नहीं अपितु एक मंत्र है, जिसका नित्य स्मरण करने से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है। राम शब्द का अर्थ है- मनोहर, विलक्षण, चमत्कारी, पापियों का नाश करने वाला व भवसागर से मुक्त करने वाला।
रामचरित मानस के बालकांड में एक प्रसंग में लिखा है-

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू।
अर्थात~
कलयुग में न तो कर्म का भरोसा है, न भक्ति का और न ज्ञान का। सिर्फ राम नाम ही एकमात्र सहारा है। स्कंदपुराण में भी राम नाम की महिमा का गुणगान किया गया है-

रामेति द्वयक्षरजप: सर्वपापापनोदक:।
गच्छन्तिष्ठन् शयनो वा मनुजो रामकीर्तनात्।।
इड निर्वर्तितो याति चान्ते हरिगणो भवेत्। ---स्कंदपुराण/ नागरखंड

अर्थात यह दो अक्षरों का मंत्र (राम) जपे जाने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है। चलते, बैठते, सोते या किसी भी अवस्था में जो मनुष्य राम नाम का कीर्तन करता है, वह यहां कृतकार्य होकर जाता है और अंत में भगवान विष्णु का पार्षद बनता है।

राम रामेति रामेति रमे रामे रामो रमे |
सहस्त्र नाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ||

विष्णु जी के सहस्त्र नामों को लेने का समय अगर आज के व्यस्त समय में ना मिले तो एक राम नाम ही सहस्त्र विष्णु नाम के बराबर है । कलियुग का एक अच्छा पक्ष है की हज़ारों यज्ञों का पुण्य सिर्फ नाम संकीर्तन से मिल जाता है।

रामायण हमें क्या सिखाती है ।।


१-शुद्ध सच्चिदानन्दघन एक परमात्मा ही सर्वत्र व्याप्त है और अखिल विश्व एवं विश्व की घटनाएँ उसी का स्वरूप और लीला हैं।

२- परमात्मा समय-समय पर अवतार धारणकर प्रेम द्वारा साधुओं का और दण्ड द्वारा दुष्टों का उद्धार करने के लिये लोककल्याणार्थ आदर्श लीला करते हैं।

३- भगवान् की शरणागति ही उद्धार का सर्वोत्तम उपाय है। उदाहरण-विभीषण।

४ - सत्य ही परम धर्म है, सत्य के लिये धन, प्राण, ऐश्वर्य सभी का सुख पूर्वक त्याग कर देना चाहिये। उदाहरण - श्रीराम |

५- मनुष्य जीवन का परम ध्येय परमात्मा की प्राप्ति करना है और वह भगवत्-शरणागति पूर्वक संसार के समस्त कर्म ईश्वरार्थ त्यागवृत्ति से फलासक्ति-शून्य होकर करने से सफल हो सकता है।

६ - वर्णाश्रम धर्म का पालन करना परम कर्तव्य है।

७- माता-पिता की सेवा पुत्र का प्रधान धर्म उदाहरण- श्रीराम, श्रवणकुमार |

८-स्त्रियों के लिये पातिव्रत परम धर्म है। उदाहरण - श्रीसीताजी । 

९- पुरुष के लिये एकपत्नी - व्रत का पालन अतिआवश्यक है। उदाहरण- श्रीराम ।

१०- भाइयों के लिये सर्वस्व त्यागकर उन्हें सुख पहुँचाने की चेष्टा करना परम कर्तव्य है। उदाहरण- श्रीराम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न ।

११-धर्मात्मा राजा के लिये प्राण देकर भी उसकी सेवा करना प्रजा का प्रधान कर्तव्य है। उदाहरण- (१) वनगमन के समय अयोध्या की प्रजा । (२) लंका के युद्ध में वानरी प्रजा का आत्म बलिदान ।

१२- अन्यायी - अधर्मी राजा के अन्याय का कभी समर्थन न करना चाहिये। सगे भाई होने पर भी उसके विरुद्ध खड़े होना उचित है। उदाहरण- विभीषण।

१३- प्रजारञ्जन के लिये प्राण प्रिय वस्तु का भी विसर्जन कर देना राजा का प्रधान धर्म है। उदाहरण - श्रीरामजी द्वारा सीता त्याग।

१४- प्रजाहित के लिये यज्ञादि कर्मों में सर्वस्व दान दे डालना। उदाहरण- दशरथ और श्रीराम |

१५-धर्म पर अत्याचार और स्त्री-जाति पर जुल्म करने से बड़े-से-बड़े शक्तिशाली सम्राट् का विनाश हो जाता है। उदाहरण - रावण ।

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

Hinduism's Historic Expansion in Southeast Asia:

Tracing its Arrival and Influence in Indonesia


The arrival of Hinduism in Southeast Asia is a fascinating historical phenomenon that has left an indelible impact on the culture and spiritual beliefs of the region. The expansion of Hinduism can be traced back to the first century, when Hindu influences began reaching the Indonesian Archipelago. The diffusion process of cultural and spiritual ideas from India is not entirely unclear, and historical evidence suggests that early Hinduism on Java, Bali, and Sumatra consisted of both main schools of Hinduism - Vaisnavism and Shaivism.

The early Hindu kingdoms of Indonesia, such as Tarumanagara in West Java and Holing in Central Java, were established in the 4th century. These kingdoms fused Hindu and Buddhist ideas with pre-existing native folk religion and Animist beliefs. The kingdom of Kutai in East Kalimantan was also among the early Hindu states established in the region.

Hinduism and Buddhism spread across the archipelago, and several notable ancient Indonesian Hindu kingdoms, such as Mataram, Kediri, Singhasari, and Majapahit, were established. These kingdoms completed major infrastructure projects and built many square temples that were dedicated to Hindu deities like Vishnu, Shiva, and Ganesha. The Javanese language saw numerous sastras and sutras of Hinduism translated into it, and expressed in art form.

The Hindu-Buddhist ideas reached their peak of influence in the 14th century, and Majapahit, the last and largest among the Hindu-Buddhist Javanese empires, influenced the Indonesian archipelago. The arrival of Hinduism in Indonesia and its subsequent impact on the region's culture and spiritual beliefs is a testament to the power of cultural diffusion and the influence of religion in shaping the world around us.

Share With Your Friends

ओरा (आभामंडल)


आभामंडल को अंग्रेजी में ओरा (Aura) कहते हैं। देवी या देवताओं के चित्रों में पीछे जो गोलाकार प्रकाश दिखाई देता है उसे ही ओरा कहा जाता है। दरअसल ओरा यह हमारे शरीर के आसपास एक एनर्जी सर्कल होता है। विज्ञान की भाषा में इसे इलेक्ट्रॉनिक मैग्नेटिक फील्ड कहते हैं। ओरा सजीव व्यक्तियों से लेकर निर्जीव व्यक्ति, वस्तुओं का भी हो सकता है। धरती का भी आभामंडल है। आपने चंद्रमा के आसपास प्रकाश देखा ही होगा। यही उसका आभामंडल है जो ध्यान से देखने पर दूर तक गोल दिखाई देता है।
 
कई रंगों का होता है ओरा : प्रत्येक व्यक्ति का ओरा अलग-अलग रंग का होता है जिससे उसके व्यक्तित्व, स्वभाव का पता चलता है। 
 
नकारात्मक और सकारात्मक ओरा : जिन लोगों का ओरा अपने विचार और कर्मों के द्वारा नकारात्मक हो चला है उसके पास बैठने या उनसे मिलने की भी अच्छे आदमी की इच्छा नहीं होती है। हम खुद अनुभव करते हैं कि कुछ लोगों से मिलकर हमें आत्मिक शांति का अनुभव होता है तो कुछ से मिलकर उनसे जल्दी से छुटकारा पाने का दिल करता है, क्योंकि उनमें बहुत ज्यादा नकारात्मक ऊर्जा होती है। अक्सर अपराधियों और कुविचारों के लोगों का ओरा नकारात्मक अर्थात काला, धुंधला, गहरा नीले या कपोत रंग का होता है। बहुत ज्यादा गहरा लाल रंग भी नकारात्मक होता है।

इन तरीकों से करें ओरा को ठीक ~

1. आग में तापना : आपने अक्सर देखा होगा कि अखाड़े के बाबा या नागा बाबा धूना लगाते हैं या धूनी लगाकर तापते हैं। इससे ओरा ठीक और शुद्ध होता है। यह आभामंडल को भौतिक रूप से ठीक करने की प्रक्रिया है। आप आग के सामने पीठ करके बैठें और बहुत थोड़े समय के लिए तापें। ऐसा कम से कम 43 दिन तक करें। आपने शायद यह कभी नहीं सोचा होगा कि हम किसी मूर्ति आदि की आरती क्यों उतारते हैं। दरअसल, आरती उतारने वाले को ही आरती का लाभ मिलता है।
 
2. ध्यान : प्रतिदिन उचित स्‍थान और वातावरण पर आसन लगाकर ध्यान करें। ध्यान के वक्त किसी भी प्रकार के फालतू एवं नकारात्मक विचारों को त्यागकर आपको पूर्णत: शांत रहकर अपनी श्वासों के आवागमन पर ध्यान देना है। ऐसा आप कम से कम 43 दिनों तक करें। यदि आप ध्यान नहीं करना जानते हैं तो प्रार्थना करें।