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जानिए आपका कौनसा चक्र बिगडा है ।।

(1) मूलाधार चक्र , मूल=जड़, आधार = नींव

चक्र के देवता- भगवान गणेश
चक्र की देवी – डाकिनी जिसके चार हाँथ हैं, लाल आँखे हैं।
तत्व – पृथ्वी
रंग – गहरा लाल
बीज मंत्र –  ‘ लं ‘

मूलाधार चक्र अनुत्रिक के आधार में स्थित है, यह मानव चक्रों में सबसे पहला है। इसका समान रूप मंत्र लम (LAM) है। मूलाधार चक्र पशु और मानव चेतना के मध्य सीमा निर्धारित करता है। इसका संबंध अचेतन मन से है, जहां पिछले जीवनों के कर्म और अनुभव संग्रहीत होते हैं। अत: कर्म सिद्धान्त के अनुसार यह चक्र हमारे भावी प्रारब्ध का मार्ग निर्धारित करता है। यह चक्र हमारे व्यक्तित्व के विकास की नींव भी है।

मूलाधार चक्र की सकारात्मक उपलब्धियां स्फूर्ति, उत्साह और विकास हैं। नकारात्मक गुण हैं सुस्ती, निष्क्रियता, आत्म-केन्द्रित (स्वार्थी) और अपनी शारीरिक इच्छाओं द्वारा प्रभावित होना है।

इस चक्र का देवता भगवान शिव है जो पशुपति महादेव के रूप में ध्यानावस्थित है - जिसका अर्थ है कि निम्नस्तरीय गुणों पर नियंत्रण कर लिया गया है।

मूलाधार चक्र के सांकेतिक चित्र में चार पंखुडिय़ों वाला एक कमल है। ये चारों मन के चार कार्यों : मानस, बुद्धि, चित्त और अहंकार का प्रतिनिधित्व करते हैं -यह सभी इस चक्र में उत्पन्न होते हैं।

जीवन चेतना है और चेतना उत्क्रांति का प्रयास करती है। मूलाधार चक्र के चिह्न की ऊर्जा और ऊपर उठने की गति दोनों ही विशेषता होती हैं। चक्र का रंग लाल है जो शक्ति का रंग है। शक्ति का अर्थ है ऊर्जा, गति, जाग्रति और विकास। लाल सुप्त चेतना को जाग्रत कर सक्रिय, सतर्क चेतना का प्रतीक है। मूलाधार चक्र का एक दूसरा प्रतीक चिह्न उल्टा त्रिकोण है, जिसके दो अर्थ हैं। एक अर्थ बताता है कि ब्रह्माण्ड की ऊर्जा खिंच रही है और नीचे की ओर इस तरह आ रही जैसे चिमनी में जा रही हो। अन्य अर्थ चेतना के ऊर्ध्व प्रसार का द्योतक है। त्रिकोण का नीचे कीओर इंगित करने वाला बिन्दु प्रारंभिक बिन्दु है, बीज है, और त्रिकोण के ऊपर की ओर जाने वाली भुजाएं मानव चेतना की ओर चेतना के प्रगटीकरण के द्योतक हैं।

मूलाधार चक्र का प्रतिनिधित्व करने वाला पशु 7 सूंडों वाला एक हाथी है। हाथी बुद्धि का प्रतीक है। 7 सूंडें पृथ्वी के 7 खजानों (सप्तधातु) की प्रतीक हैं। मूलाधार चक्र का तत्त्व पृथ्वी है, हमारी आधार और 'माता', जो हमें ऊर्जा और भोजन उपलब्ध कराती है।

आधार चक्र का ही एक दूसरा नाम मूलाधार चक्र भी है। इसके बिगड़ने से वीरता, धन , समृधि , आत्मबल , शारीरिकबल , रोजगार , कर्मशीलता, घाटा, असफलता रक्त एवं हड्डी के रोग ,कमर व पीठ में दर्द, आत्महत्या के विचार, डिप्रेशन, कैंसर अदि होता है। 

चक्र जगाने की विधि

 मनुष्य तब तक पासुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है इसलिए भोग, निद्रा, और सम्भोग पर सयंम रखते हुए भगवान श्री गणेश को प्रणाम कर के ‘ लं ‘ मन्त्र के उच्चारण के साथ इस चक्र पर लगातार ध्यान लगाने से यह चक्र जागृत होने लगता है। इसको जागृत करने का दूसरा नियम है यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।

इसका प्रभाव 

इस चक्र के जागृत होनेपर व्यक्ति के भीतर  वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जागृत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरुरी है।

(2) स्वाधिष्ठान चक्र, स्व = आत्मा, स्थान=जगह

चक्र के देवता- भगवान विष्णु
वस्त्र चमकदार सुन्दर पिला रंग
चक्र की देवी- देवी राकनी ( वनस्पति की देवी ) नीले कमल की तरह
तत्व – जल
रंग – सिंदूरी, कला, सफ़ेद
बीज मंत्र – ‘ वं ‘

स्वाधिष्ठान चक्र त्रिकास्थि (पेडू के पिछले भाग की पसली) के निचले छोर में स्थित है। इसका मंत्र वम (ङ्क्ररू) है।

स्वाधिष्ठान चक्र हमारे विकास के एक-दूसरे स्तर का संकेतक है। चेतना की शुद्ध, मानव चेतना की ओर उत्क्रांति का प्रारंभ स्वाधिष्ठान चक्र में होता है। यह अवचेतन मन का वह स्थान है जहां हमारे अस्तित्व के प्रारंभ में गर्भ से सभी जीवन अनुभव और परछाइयां संग्रहीत रहती हैं। मूलाधार चक्र हमारे कर्मों का भंडारग्रह है तथापि इसको स्वाधिष्ठान चक्र में सक्रिय किया जाता है।

स्वाधिष्ठान चक्र की जाग्रति स्पष्टता और व्यक्तित्व में विकास लाती है। किन्तु ऐसा हो, इससे पहले हमें अपनी चेतना को नकारात्मक गुणों से शुद्ध कर लेना चाहिए। स्वाधिष्ठान चक्र के प्रतीकात्मक चित्र ६ पंखुडिय़ों वाला एक कमल है। ये हमारे उन नकारात्मक गुणों को प्रकट करते हैं, जिन पर विजय प्राप्त करनी है - क्रोध, घृणा, वैमनस्य, क्रूरता, अभिलाषा और गर्व। अन्य प्रमुख गुण जो हमारे विकास को रोकते हैं, वे हैं आलस्य, भय, संदेह, बदला, ईर्ष्
क्रमशः

स्वाधिष्ठान चक्र का प्रतीक पशु मगर (मगरमच्छ) है। यह सुस्ती, भावहीनता और खतरे का प्रतीक है जो इस चक्र में छिपे हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का तत्त्व है जल, यह भी छुपे हुए खतरे का प्रतीक है। जल कोमल और लचीला है, किन्तु यह जब नियंत्रण से बाहर हो जाता है तो भयंकर शक्तिशाली भी है। स्वाधिष्ठान चक्र के साथ यही विचित्रता है। जब अवचेतन से चेतनावस्था की ओर नकारात्मक भावनाएं उत्पन्न होती हैं, तब हम पूर्णरूप से संतुलन खो सकते हैं।

इस चक्र का देवता ब्रह्मा सृष्टिकर्ता और उनकी पुत्री सरस्वती बुद्धि और ललितकलाओं की देवी है। स्वाधिष्ठान का रंग संतरी, सूर्योदय का रंग है जो उदीयमान चेतना का प्रतीक है। संतरी रंग सक्रियता और शुद्धता का रंग है। यह सकारात्मक गुणों का प्रतीक है और इस चक्र में प्रसन्नता, निष्ठा, आत्मविश्वास और ऊर्जा जैसे गुण पैदा होते हैं।

 इसके बिगड़ने पर क्रूरता,गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, नपुंसकता ,बाँझपन ,मंद्बुधिता ,मूत्राशय और गर्भाशय के रोग ,अध्यात्मिक सिद्धी में बाधा बैभव के आनंद में कमी अदि होता है। 

चक्र जागने की विधि

जीवन में मनोरंजन जरुरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को वेहोशी में धकेलता है । फिल्म सच्ची नहीं होती लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आप के बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते । इस चक्र पर ‘ वं ‘ मन्त्र के साथ ध्यान करने से यह चक्र जागृत होने लगता है।

प्रभाव

इसके जागृत होने पर क्रूरता, गर्व आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वाश आदि दुर्गुणों का नाश होता है तथा क्रिया शक्ति की प्राप्ति होती है। सिद्धयां प्राप्त करने के लिए जरुरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हों।

(3) मणिपुर चक्र, मणि= गहना, पुर= स्थान, शहर

देवता- रूद्र ( मतान्तर से इंद्र, लक्ष्मी ) तीन आँखों वाले सरीर में विभूति सिंदूरी वर्ण
देवी- लाकिनी सब का उपकार करने वाली रंग काला वस्त्र पिले हैं देवी आभूषण से सजी अमृतपान के कारण आनंदमय हैं।
तत्व- अग्नि
रंग- पीला
बीज मंत्र- ‘ रं ‘

मणिपुर चक्र नाभि के पीछे स्थित है। इसका मंत्र है रम। जब हमारी चेतना मणिपुर चक्र में पहुंच जाती है तब हम स्वाधिष्ठान के निषेधात्मक पक्षों पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। मणिपुर चक्र में अनेक बहुमूल्य मणियां हैं जैसे स्पष्टता, आत्मविश्वास, आनन्द, आत्म भरोसा, ज्ञान, बुद्धि और सही निर्णय लेने की योग्यता जैसे गुण।

मणिपुर चक्र का रंग पीला है। मणिपुर का प्रतिनिधित्व करने वाला पशु मेढ़ा (मेष)है। इसका अनुरूप तत्त्व अग्नि है, इसलिए यह 'अग्नि' या 'सूर्य केन्द्र' के नाम से भी जाना जाता है। शरीर में अग्नि तत्त्व सौर मंडल में गर्मी के समान ही प्रकट होता है। मणिपुर चक्र स्फूर्ति का केन्द्र है। यह हमारे स्वास्थ्य को सुदृढ़ और पुष्ट करने के लिए हमारी ऊर्जा नियंत्रित करता है। इस चक्र का प्रभाव एक चुंबक की भांति होता है, जो ब्रह्माण्ड से प्राण को अपनी ओर आकर्षित करता है।

पाचक अग्नि के स्थान के रूप में, यह चक्र अग्न्याशय और पाचक अवयवों की प्रक्रिया को विनियमित करता है। इस केन्द्र में अवरोध कई स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकते हैं, जैसे पाचन में खराबियां, परिसंचारी रोग, मधुमेह और रक्तचाप में उतार-चढ़ाव। तथापि, एक दृढ़ और सक्रिय मणिपुर चक्र अच्छे स्वास्थ्य में बहुत सहायक होता है और बहुत सी बीमारियों को रोकने में हमारी मदद करता है। जब इस चक्र की ऊर्जा निर्बाध प्रवाहित होती है तो प्रभाव एक शक्तिपुंज के समान, निरन्तर स्फूर्ति प्रदान करने वाला होता है - संतुलन और शक्ति बनाए रखता है।

मणिपुर चक्र के प्रतीक चित्र में दस पंखुडिय़ों वाला एक कमल है। यह दस प्राणों, प्रमुख शक्तियों का प्रतीक है जो मानव शरीर की सभी प्रक्रियाओं का नियंत्रण और पोषण करती है। मणिपुर का एक अतिरिक्त प्रतीक त्रिभुज है, जिसका शीर्ष बिन्दु नीचे की ओर है। यह ऊर्जा के फैलाव, उद्गम और विकास का द्योतक है। मणिपुर चक्र के सक्रिय होने से मनुष्य नकारात्मक ऊर्जाओं से मुक्त होता है और उसकी स्फूर्ति में शुद्धता और शक्ति आती है।

इस चक्र के देवता विष्णु और लक्ष्मी हैं। भगवान विष्णु उदीयमान मानव चेतना के प्रतीक हैं, जिनमें पशु चारित्रता बिल्कुल नहीं है। देवी लक्ष्मी प्रतीक है-भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि की, जो भगवान की कृपा और आशीर्वाद से फलती-फूलती है।

इसके बिगड़ने पर तृष्णा, ईष्र्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, अधूरी सफलता , गुस्सा , चिड़चिड़ापन, नशाखोरी, तनाव , शंकालु प्रवृति, कई तरह की बिमारिया ,दवावो का काम न करना ,अज्ञात भय ,चहरे का तेज गायब , धोखाधड़ी, डिप्रेशन, उग्रता , हिंसा, दुश्मनी , अपयश ,अपमान ,आलोचना ,बदले की भावना , एसिडिटी , ब्लडप्रेशर, शुगर, थायोरायड,सिर एवं शरीर के दर्द, किडनी ,लीवर ,केलेस्ट्राल,खून का रोग आदि इसके बिगड़ने का
क्रमशः

मतलब जिंदगी का बिगड़ जाना । 

चक्र जागृत करने की विधि

आप के कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए अग्नि मुद्रा में बैठें अनामिका ऊँगली को मोड़कर अंगुष्ठ के मूल में लगाएं अब इस चक्र पर ध्यान लगाएं। पेट से स्वास लें ।

प्रभाव
इसके सक्रीय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान का होना बहोत जरुरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरुरी है कि आप शरीर नहीं आत्मा हैं। आत्मशक्ति, आत्मबल, और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं ।

(4) अनाहत चक्र, अनाहत नाद = शाश्वत ध्वनि ॐ ध्वनि

देवता – ईश्  श्री जगदम्बा ( शिव-शक्ति )
देवी- काकनी सर्वजन हितकारी देवी का रंग पीला है, तीन आँखे हैं चार हाँथ हैं।
रंग- हरा, नीला, चमकदार, किरमिजी
तत्व- वायु
बीज मंत्र- ‘ यं ‘

अनाहत चक्र हृदय के निकट सीने के बीच में स्थित है। इसका मंत्र यम (YAM) है। अनाहत चक्र का रंग हलका नीला, आकाश का रंग है। इसका समान रूप तत्त्व वायु है। वायु प्रतीक है-स्वतंत्रता और फैलाव का। इसका अर्थ है कि इस चक्र में हमारी चेतना अनंत तक फैल सकती है।

अनाहत चक्र आत्मा की पीठ (स्थान) है। अनाहत चक्र के प्रतीक चित्र में बारह पंखुडिय़ों का एक कमल है। यह हृदय के दैवीय गुणों जैसे परमानंद, शांति, सुव्यवस्था, प्रेम, संज्ञान, स्पष्टता, शुद्धता, एकता, अनुकंपा, दयालुता, क्षमाभाव और सुनिश्चिय का प्रतीक है। तथापि, हृदय केन्द्र भावनाओं और मनोभावों का केन्द्र भी है। इसके प्रतीक छवि में दो तारक आकार के ऊपर से ढाले गए त्रिकोण हैं। एक त्रिकोण का शीर्ष ऊपर की ओर संकेत करता है और दूसरा नीचे की ओर। जब अनाहत चक्र की ऊर्जा आध्यात्मिक चेतना की ओर प्रवाहित होती है, तब हमारी भावनाएं भक्ति, शुद्ध, ईश्वर प्रेम और निष्ठा प्रकट करती है। तथापि यदि हमारी चेतना सांसारिक कामनाओं के क्षेत्र में डूब जाती है, तब हमारी भावनाएं भ्रमित और असंतुलित हो जाती हैं। तब होता यह है कि इच्छा, द्वेष-जलन, उदासीनता और हताशा भाव हमारे ऊपर छा जाते हैं।

अनाहत, ध्वनि (नाद) की पीठ है। इस चक्र पर एकाग्रता व्यक्ति की प्रतिभा को लेखक या कवि के रूप में विकसित कर सकती है। अनाहत चक्र से उदय होने वाली दूसरी शक्ति संकल्प शक्ति है जो इच्छा पूर्ति की शक्ति है। जब आप किसी इच्छा की पूर्ति करना चाहते हैं, तब अपने हृदय में इसे एकाग्रचित्त करें। आपका अनाहत चक्र जितना अधिक शुद्ध होगा उतनी ही शीघ्रता से आपकी इच्छा पूरी होगी।

अनाहत चक्र का प्रतीक पशु कुरंग (हिरण) है जो अत्यधिक ध्यान देने और चौकन्नेपन का हमें स्मरण कराता है। इस चक्र के देवता शिव और पार्वती हैं, जो चेतना और प्रकृति के प्रतीक हैं। इस चक्र में दोनों को सुव्यवस्था में एक हो जाना चाहिए।

इसके बिगड़ने पर लिप्सा, कपट, तोड़ -फोड़, कुतर्क, चिन्ता, नफरत, प्रेम में असफलता ,प्यार में धोखा , अकेलापन, अपमान, मोह, दम्भ, अपनेपन में कमी ,मन में उदासी , जीवन में विरानगी ,सबकुछ होते हुए भी बेचनी, छाती में दर्द , साँस लेने में दिक्कत , सुख का अभाव, ह्रदय व फेफड़े के रोग,केलोस्ट्राल में बढ़ोतरी अदि । 

चक्र को जागृत करने की विधि

ह्रदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जागृत होने लगता है। खासकर रात्रि  को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जागृत होने लगता है और शुष्मना इस चक्र को भेदकर ऊपर की ओर उठने लगती है।

प्रभाव

इसके जागृत होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार समाप्त हो जाते हैं। तथा प्रेम और संवेदना  मन में जाग्रत होती हैं तथा मन की  इच्छा पूर्ण होती है। ज्ञान स्वतः ही प्रकट होने लगता है। व्यक्ति अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक, रूप से जिम्मेदार, एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व बन जाता है। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैसी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।

(5) विशुद्धि चक्र विष = जहर, अशुद्धता
शुद्धि = अवशिष्ट निकालना

देवता – सदाशिव रंग सफेद, तीन आँखे, पञ्च मुख, दस भुजाएं
देवी – सकिनी वस्त्र पिले चन्द्रमां के सागर से भी पवित्र तत्व
रंग – बैगनी
तत्व- आकाश
बीज मंत्र – ‘ हं ‘

विशुद्धि चक्र कंठ में स्थित है। इसका मंत्र हम है। विशुद्धि का रंग बैंगनी है। इस चक्र में हमारी चेतना पांचवें स्तर पर पहुंच जाती है। इसका समानरूप तत्त्व आकाश (अंतरिक्ष) है। हम इसका अनुवाद 'ईश्वर' (लोकोत्तर) भी कर सकते हैं, इसका अभिप्राय यह है कि यह स्थान ऊर्जा से भरा रहना चाहिए। विशुद्धि चक्र उदान प्राण का प्रारंभिक बिन्दु है। श्वसन के समय शरीर के विषैले पदार्थों को शुद्ध करना इस प्राण की प्रक्रिया है। इस मुख्य कार्य के कारण ही इस
क्रमशः

चक्र का नाम व्युत्पन्न है। शुद्धिकरण न केवल शारीरिक स्तर पर ही होता है अपितु मनोभाव और मन के स्तर पर भी होता है। जीवन में हमने जिन समस्याओं और दुखद अनुभवों को 'निगल लिया' और भीतर दबा लिया, वे तब तक हमारे अवचेतन मन में बने रहते हैं, जब तक कि हम उनका सामना नहीं करते और बुद्धि से उनका समाधान नहीं कर देते।

विशुद्धि चक्र का देवता सृष्टिकर्ता, ब्रह्मा है, जो चेतना का प्रतीक है। ध्यान में जब व्यक्ति की चेतना आकाश में समाहित हो जाती है, हमें ज्ञान और बुद्धि प्राप्त होती है। विशुद्धि चक्र का प्रतीक पशु एक सफेद हाथी है। हमें इसके चित्र में एक चन्द्रमा की छवि भी दिखती है जो मन का प्रतीक है।

विशुद्धि चक्र प्रसन्नता की अनगिनत भावनाओं और स्वतंत्रता को दर्शाता है जो हमारी योग्यता और कुशलता को प्रफुल्लित करता है। विकास के इस स्तर के साथ, एक स्पष्ट वाणी, गायन और भाषण की प्रतिभा के साथ-साथ एक संतुलित और शांत विचार भी होते हैं।

जब तक यह चक्र पूर्ण विकसित नहीं हो जाता, कुछ खास कठिनाइयां अनुभव की जा सकती हैं। विशुद्धि चक्र में रुकावट चिन्ता की भावनाएं, स्वतंत्रता का अभाव, बंधन, टेंटुए और कंठ की समस्याएं उत्पन्न करता है। कुछ शारीरिक कठिनाइयों, जैसे सूजन और वाणी में रुकावट, का भी सामना करना पड़ सकता है।

 ये उन सोलह शक्तिशाली कलाओं (योग्यताओं) का प्रतीक है, जिनसे एक मानव विकास कर सकता है। चूंकि विशुद्धि चक्र ध्वनि का केन्द्र है, संख्या सोलह संस्कृत के सोलह स्वरों की भी प्रतीक है। इस केन्द्र में वाक्सिद्धि अनुभव की जा सकती है, जो एक ऐसी असाधारण योग्यता है कि व्यक्ति जो भी बोले वह सत्य सिद्ध हो जाए।

कण्ठ में विशुद्धि चक्र यह सरस्वती का स्थान है । यह सोलह पंखुरियों वाला है। यहाँ सोलह कलाएँ सोलह विभूतियाँ विद्यमान है, इसके बिगड़ने पर वाणी दोष ,अभिब्यक्ति में कमी ,गले , नाक, कान,दात, थाई रायेड, आत्मजागरण में बाधा आती है। 

चक्र को जागृत करने की विधि

कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जागृत होने लगता है। और सुषुम्ना इस चक्र को भेदकर ऊपर की ओर उठने लगती है।

प्रभाव

इसके जागृत होने पर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जगृत होने से व्यक्ति अपने व्यवहार में अत्यन्त सत्यनिष्ठ, कुशल और मधुर हो जाता है और व्यर्थ के तर्क-वितर्क  में नहीं फंसता, बिना अहम् को बढ़ावा दिए परिस्थितियों पर नियंत्रण करने में वह अत्यन्त युक्ति कुशल हो जाता है।

(6) आज्ञाचक्र - आज्ञा =आदेश, ज्ञान

रंग – सफेद
बीज मंत्र – ‘ ॐ ‘

आज्ञा चक्र मस्तक के मध्य में, भौंहों के बीच स्थित है। इस कारण इसे "तीसरा नेत्र” भी कहते हैं। आज्ञा चक्र स्पष्टता और बुद्धि का केन्द्र है। यह मानव और दैवी चेतना के मध्य सीमा निर्धारित करता है। यह ३ प्रमुख नाडिय़ों, इडा (चंद्र नाड़ी) पिंगला (सूर्य नाड़ी) और सुषुम्ना (केन्द्रीय, मध्य नाड़ी) के मिलने का स्थान है। जब इन तीनों नाडिय़ों की ऊर्जा यहां मिलती है और आगे उठती है, तब हमें समाधि, सर्वोच्च चेतना प्राप्त होती है।

इसका मंत्र है ॐ। आज्ञा चक्र का रंग सफेद है। इसका तत्व मन का तत्व, अनुपद तत्त्व है। इसका चिह्न एक श्वेत शिवलिंगम्, सृजनात्मक चेतना का प्रतीक है। इसमें और बाद के सभी चक्रों में कोई पशु चिह्न नहीं है। इस स्तर पर केवल शुद्ध मानव और दैवी गुण होते हैं।

आज्ञा चक्र के प्रतीक चित्र में दो पंखुडिय़ों वाला एक कमल है जो इस बात का द्योतक है कि चेतना के इस स्तर पर 'केवल दो', आत्मा और परमात्मा (स्व और ईश्वर) ही हैं। आज्ञा चक्र की देव मूर्तियों में शिव और शक्ति एक ही रूप में संयुक्त हैं। इसका अर्थ है कि आज्ञा चक्र में चेतना और प्रकृति पहले ही संयुक्त है, किन्तु अभी भी वे पूर्ण ऐक्य में समाए नहीं हैं।

इस चक्र के गुण हैं - एकता, शून्य, सत, चित्त और आनंद। 'ज्ञान नेत्र' भीतर खुलता है और हम आत्मा की वास्तविकता देखते हैं - इसलिए 'तीसरा नेत्र' का प्रयोग किया गया है जो भगवान शिव का द्योतक है। आज्ञा चक्र 'आंतरिक गुरू' की पीठ (स्थान) है। यह द्योतक है बुद्धि और ज्ञान का, जो सभी कार्यों में अनुभव किया जा सकता है। उच्चतर, नैतिक विवेक के तर्कयुक्त शक्ति के समक्ष अहंकार आधारित प्रतिभा समर्पण कर चुकी है। तथापि, इस चक्र में एक रुकावट का उल्टा प्रभाव है जो व्यक्ति की परिकल्पना और विवेक की शक्ति को कम करता है, जिसका परिणाम भ्रम होता है।

यहाँ '?' उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा स्वहा, सप्त स्वर आदि का निवास है । इसके बिगड़ने पर एकाग्रता ,जीने की चाह,निर्णय की सक्ति, मानसिक सक्ति,सफलता की राह आदि इसके बिगड़ने मतलब सबकुछ बिगड़ जाने का खतरा ।   

चक्र को जगृत करने की विधि

भृकुटि के मध्य ( भौहों के बीच ) ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव
यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से ये सभी शक्तियां जाग पड़ती हैं। और व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।
   
बिंदु चक्र बिंदु = नोंक, बूँद

बिन्दु चक्र सिर के शीर्ष भाग पर केशों के गुच्छे के नीचे स्थित है। बिन्दु चक्र के चित्र में २३ पंखुडिय़ों वाला कमल होता है। इसका प्रतीक चिह्न चन्द्रमा है, जो वनस्पति की वृद्धि का पोषक है। भगवान कृष्ण ने कहा है : ''मैं मकरंद कोष चंद्रमा होने के कारण सभी वनस्पतियों का पोषण करता हूं" (भगवद्गीता १५/१३)। इसके देवता भगवान शिव हैं, जिनके केशों में सदैव अर्धचन्द्र विद्यमान रहता है। मंत्र है शिवोहम्(शिव हूं मैं)। यह चक्र रंगविहीन और पारदर्शी है।

बिन्दु चक्र स्वास्थ्य के लिए एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है, हमें स्वास्थ्य और मानसिक पुनर्लाभ प्राप्त करने की शक्ति प्रदान करता है। यह चक्र नेत्र दृष्टि को लाभ पहुंचाता है, भावनाओं को शांत करता है और आंतरिक सुव्यवस्था, स्पष्टता और संतुलन को बढ़ाता है। इस चक्र की सहायता से हम भूख और प्यास पर नियंत्रण रखने में सक्षम हो जाते हैं, और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक खाने की आदतों से दूर रहने की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं। बिन्दु पर एकाग्रचित्तता से चिन्ता एवं हताशा और अत्याचार की भावना तथा हृदय दमन से भी छुटकारा मिलता है।

बिन्दु चक्र शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, स्फूर्ति और यौवन प्रदान करता है, क्योंकि यह "अमरता का मधुरस" (अमृत) उत्पन्न करता है। यह अमृतरस साधारण रूप से मणिपुर चक्र में गिरता है, जहां यह शरीर द्वारा पूरी तरह से उपयोग में लाए बिना ही जठराग्नि से जल जाता है। इसी कारण प्राचीन काल में ऋषियों ने इस मूल्यवान अमृतरस को संग्रह करने का उपाय सोचा और ज्ञात हुआ कि इस अमृतरस के प्रवाह को जिह्वा और विशुद्धि चक्र की सहायता से रोका जा सकता है। जिह्वा में सूक्ष्म ऊर्जा केन्द्र होते हैं, इनमें से हरेक का शरीर के अंग या क्षेत्र से संबंध होता है। उज्जाई प्राणायाम और खेचरी मुद्रा योग विधियों में जिह्वा अमृतरस के प्रवाह को मोड़ देती है और इसे विशुद्धि चक्र में जमा कर देती है। एक होम्योपैथिक दवा की तरह सूक्ष्म ऊर्जा माध्यमों द्वारा यह संपूर्ण शरीर में पुन: वितरित कर दी जाती है, जहां इसका आरोग्यकारी प्रभाव दिखाई देने लगते हैं।
                                  
(8) सहस्रार चक्र सहस्रार =हजार, अनंत, असंख्य

भगवान – शंकर
रंग – बैंगनी
बीज मंत्र – ॐ

सहस्रार चक्र सिर के शिखर पर स्थित है। इसे "हजार पंखुडिय़ों वाले कमल”, "ब्रह्म रन्ध्र” (ईश्वर का द्वार) या "लक्ष किरणों का केन्द्र” भी कहा जाता है, क्योंकि यह सूर्य की भांति प्रकाश का विकिरण करता है। अन्य कोई प्रकाश सूर्य की चमक के निकट नहीं पहुंच सकता। इसी प्रकार, अन्य सभी चक्रों की ऊर्जा और विकिरण सहस्रार चक्र के विकिरण में धूमिल हो जाते हैं।

सहस्रार चक्र में एक महत्त्वपूर्ण शक्ति - मेधा शक्ति है। मेधा शक्ति एक हार्मोन है, जो मस्तिष्क की प्रक्रियाओं जैसे स्मरण शक्ति, एकाग्रता और बुद्धि को प्रभावित करता है। योग अभ्यासों से मेधा शक्ति को सक्रिय और मजबूत किया जा सकता है।

सहस्रार चक्र का कोई विशेष रंग या गुण नहीं है। यह विशुद्ध प्रकाश है, जिसमें सभी रंग हैं। सभी नाडिय़ों की ऊर्जा इस केन्द्र में एक हो जाती है, जैसे हजारों नदियों का पानी सागर में गिरता है। यहां अन्तरात्मा शिव की पीठ है। सहस्रार चक्र के जाग्रत होने का अर्थ दैवी चमत्कार और सर्वोच्च चेतना का दर्शन है। जिस प्रकार सूर्योदय के साथ ही रात्रि ओझल हो जाती है, उसी प्रकार सहस्रार चक्र के जागरण से अज्ञान धूमिल (नष्ट) हो जाता है।

यह चक्र योग के उद्देश्य का प्रतिनिधित्व करता है- आत्म अनुभूति और ईश्वर की अनुभूति, जहां व्यक्ति की आत्मा ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ जाती है। जिसे यह उपलब्धि मिल जाती है, वह सभी कर्मों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त करता है - पुनर्जन्म और मृत्यु के चक्र से पूरी तरह स्वतंत्र। ध्यान में योगी निर्विकल्प समाधि (समाधि का उच्चतम स्तर) सहस्रार चक्र पर पहुंचता है, यहां मन पूरी तरह निश्चल हो जाता है और ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय एक में ही समाविष्ट होकर पूर्णता को प्राप्त होते हैं।

सहस्रार चक्र में हजारों पंखुडिय़ों वाले कमल का खिलना संपूर्ण, विस्तृत चेतना का प्रतीक है। इस चक्र के देवता विशुद्ध, सर्वोच्च चेतना के रूप में भगवान शिव है। इसका समान रूप तत्त्व आदितत्त्व, सर्वोच्च, आध्यात्मिक तत्त्व है। मंत्र वही है जैसा आज्ञा चक्र के लिए है-मूल जप ॐ।

शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों से सम्बन्ध रैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम का अस्तित्व है । वहाँ से जैवीय विद्युत का स्वयंभू प्रवाह उभरता है ।इसके बिगड़ने पर मानसिक बीमारी, अध्यात्मिकता का आभाव ,भाग्य का साथ न देना अदि ।

चक्र को जगृत करने की विधि

यह वास्तव में चक्र नहीं है बल्कि साक्षात तथा संपूर्ण परमात्मा और आत्मा है। जो व्यक्ति सहस्रार चक्र का जागरण करने में सफल हो जाते हैं, वे जीवन मृत्यु पर नियंत्रण कर लेते हैं सभी लोगों में अंतिम दो चक्र सोई हुई अवस्था में रहते हैं। अतः इस चक्र का जागरण सभी के बस में नहीं होता है। इसके लिए कठिन साधना व लंबे समय तक अभ्यास की आवश्यकता होती है। इसका मन्त्र ‘ॐ’ है।

प्रभाव

शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत् का संग्रह है। यही मोक्ष का द्वार है।

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यदि बच्चों का पढ़ने में नहीं लगता है मन तो करें वास्तु के 5 उपाय ।।

यह जानना जरूरी है कि बच्चे का पढ़ने में मन क्यों नहीं लगा रहा है। यदि आपके बच्चे का पढ़ने में मन नहीं लगता है तो आप वास्तु के अनुसार 5 उपाय कर सकते हैं।

1. अध्ययन की दिशा :- पूर्व, ईशा, उत्तर, वायव्य, पश्चिम और नैऋत्य में अध्ययन कक्ष बनाया जा सकता है। इसमें खासकर पूर्व, उत्तर और वायव्य उत्तम है। कक्ष नहीं है या नहीं बना सकते हो तो इसी दिशा में पढ़ाई की टैबल रखें।

2. पढ़ाई के स्थान पर चित्र :- पढ़ने के कक्ष में मां सरस्वती, वेदव्यास या किसी पढ़ते हुए बच्चे का चित्र लगाएं। इसके अलावा किसी हरे तोते का चित्र लगाएं जिससे बच्चे का पढ़ने में तुरंत ही मन लगने लगेगा। उत्तर की दीवार पर तोते, चहकते हुए पक्षी, मोर, वीणा, कलम, पुस्तक, हंस, मछली या डॉल्फिन का चित्र लगा सकते हैं। 

3. किधर रहे बच्चे का मुंह :- घर के उत्तर की ओर ही बच्चे का मुंह होना चाहिए और तस्वीरें भी उत्तर की दीवार पर लगी होना चाहिए।

4. पीठ के पीछे क्या होना चाहिए :- बच्चों की पीठ के पीछे द्वार अथवा खिड़की न हो। उनकी पीठ के पीछे दीवार हो तो चलेगा। 

5. दीवारों का रंग :- अध्ययन कक्ष की दीवारों का रंग सफेद, पिंकीश या क्रीम ही रखें। गहरे रंगों से बचें। 

माँ सरस्वती देवी कला, संगीत और ज्ञान की हिंदू देवी ।।

वृहद् भारतीय परंपरा में ज्ञान-विद्या,नृत्य, संगीत, कला आदि की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती का विशिष्ट महत्त्व है इस तथ्य का प्रमाण यह है कि भारतीय मूल के सभी धर्मों में वैदिक,जैन एवं बौद्ध आदि में सरस्वती देवी को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है |

सरस्वती हिन्दू धर्म की प्रमुख वैदिक एवं पौराणिक देवियों में से हैं। सनातन धर्म शास्त्रों में दो सरस्वती का वर्णन आता है एक ब्रह्मा पत्नी सरस्वती एवं एक ब्रह्मा पुत्री तथा विष्णु पत्नी सरस्वती। ब्रह्मा पत्नी सरस्वती मूल प्रकृति से उत्पन्न सतोगुण महाशक्ति एवं प्रमुख त्रिदेवियो मे से एक है एवं विष्णु की पत्नी सरस्वती ब्रह्मा के जिव्हा से प्रकट होने के कारण ब्रह्मा की पुत्री मानी जाती है कई शास्त्रों में इन्हें मुरारी वल्लभा (विष्णु पत्नी) कहकर भी संबोधन किया गया है। धर्म शास्त्रों के अनुसार दोनों देवियां ही समान नाम स्वरूप , प्रकृति ,शक्ति एवं ब्रह्मज्ञान-विद्या आदि की अधिष्ठात्री देवी मानी गई है इसलिए इनकी ध्यान आराधना में ज्यादा भेद नहीं बताया गया है।

ब्रह्म विद्या एवं नृत्य संगीत क्षेत्र के अधिष्ठाता के रूप में दक्षिणामूर्ति/नटराज शिव एवं सरस्वती दोनों को माना जाता है इसी कारण दुर्गा सप्तशती की मूर्ति रहस्य में दोनों को एक ही प्रकृति का कहा गया है अतः सरस्वती के १०८ नामों में इन्हें शिवानुजा(शिव की छोटी बहन) कहकर भी संबोधित किया गया है

कहीं-कहीं ब्रह्मा पुत्री सरस्वती को विष्णु पत्नी सरस्वती से संपूर्णतः अलग माना जाता है इस तरह मतान्तर मे तीन सरस्वती का भी वर्णन आता है। इसके अन्य पर्याय या नाम हैं वाणी, शारदा, वागेश्वरी , वेदमाता इत्यादि।

 ये शुक्लवर्ण,शुक्लाम्बरा, वीणा-पुस्तक-धारिणी तथा श्वेतपद्मासना कही गई हैं। इनकी उपासना करने से मूर्ख भी विद्वान् बन सकता है। माघ शुक्ल पंचमी(श्रीपंचमी/बसंतपंचमी) को इनकी विशेष रूप से पूजन करने की परंपरा है । देवी भागवत के अनुसार विष्णु पत्नी सरस्वती वैकुण्ठ में निवास करने वाली है एवं पितामह ब्रह्मा की जिह्वा से जन्मी हैं तथा कहीं-कहीं ऐसा भी वर्णन आता है की नित्यगोलोक निवासी श्री कृष्ण भगवान के वंशी के स्वर से प्रकट हुई है। देवी सरस्वती का वर्णन वेदों के मेधा सूक्त मे,उपनिषदों, रामायण, महाभारत के अतिरिक्त कालिका पुराण, वृहत्त नंदीकेश्वर पुराण तथा शिव महापुराण, श्रीमद् देवी भागवत पुराण इत्यादि इसके अलावा ब्रह्मवैवर्त पुराण में विष्णु पत्नी सरस्वती का विशेष उल्लेख आया है। 

पौराणिक कथा अनुसार सृष्टि के प्रारंभिक काल में पितामह ब्रह्मा ने अपने संकल्प से ब्रह्मांड की तथा उनमें सभी प्रकार के जंघम-स्थावर जैसे पेड़-पौधे, पशु-पक्षी मनुष्यादि योनियो की रचना की। लेकिन अपनी सर्जन से वे संतुष्ट नहीं थे, उन्हें लगता था कि कुछ कमी रह गई है जिसके कारण चारों ओर मौन छाया रहता है।

तब ब्रह्मा जी ने इस समस्या के निवारण के लिए अपने कमण्डल से जल अपने अंजली में लेकर संकल्प स्वरूप उस जल को छिड़कर भगवान श्री विष्णु की स्तुति करनी आरम्भ की। ब्रम्हा जी के किये स्तुति को सुन कर भगवान विष्णु तत्काल ही उनके सम्मुख प्रकट हो गए और उनकी समस्या जानकर भगवान विष्णु ने मूलप्रकृति आदिशक्ति माता का आव्हान किया। विष्णु जी के द्वारा आव्हान होने के कारण मूलप्रकृति आदिशक्ति वहां तुरंत ही ज्योति पुंज रूप मे प्रकट हो गयीं तब ब्रम्हा एवं विष्णु जी ने उन्हें इस संकट को दूर करने का निवेदन किया।

ब्रम्हा जी तथा विष्णु जी बातों को सुनने के बाद उसी क्षण मूलप्रकृति आदिशक्ति के संकल्प से तथा स्वयं के अंश से श्वेतवर्णा एक प्रचंड तेज उत्पन्न किया जो एक दिव्य नारी के नारी स्वरूप बदल गया। जिनके हाथो में वीणा, वर-मुद्रा पुस्तक एवं माला एवं श्वेत कमल पर विराजित थी। मूल प्रकृति आदिशक्ति के शरीर से उत्पन्न तेज से प्रकट होते ही उस देवी ने वीणा का मधुरनाद किया जिससे समस्त राग रागिनिया संसार के समस्त जीव-जन्तुओं को वाणी प्राप्त हो गई। जलधारा में कोलाहल व्याप्त हो गया। पवन चलने से सरसराहट होने लगी। तब सभी देवताओं ने शब्द और रस का संचार कर देने वाली उन देवी को ब्रह्म ज्ञान विद्या वाणी संगीत कला की अधिष्ठात्री देवी "सरस्वती" कहा गया।

फिर आदिशक्ति मूल प्रकृति ने पितामह ब्रम्हा से कहा कि मेरे तेज से उत्पन्न हुई ये देवी सरस्वती आपकी अर्धांगिनी शक्ति अर्थात पत्नी बनेंगी, जैसे लक्ष्मी श्री विष्णु की शक्ति हैं, शिवा शिव की शक्ति हैं उसी प्रकार ये सरस्वती देवी ही आपकी शक्ति होंगी। ऐसी उद्घोषणा कर मूलप्रकृति ज्योति स्वरूप आदिशक्ति अंतर्धान हो गयीं। इसके बाद सभी देवता सृष्टि के संचालन में संलग्न हो गए।

सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा और वीणावादिनी सहित अनेक नामों से संबोधित जाता है। ये सभी प्रकार के ब्रह्म विद्या-बुद्धि एवं वाक् प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की अधिष्ठात्री देवी भी हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-

प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।

भावार्थ:- ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। कई पुराणो के अनुसार नित्यगोलोक निवासी श्रीकृष्ण भगवान ने सरस्वती से प्रसन्न होकर कहा की उनकी बसंत पंचमी के दिन विशेष आराधना करने वालों को ज्ञान विद्या कला मे चरम उत्कर्ष प्राप्त होगी । इस उद्घोषणा के फलस्वरूप भारत में वसंत पंचमी के दिन ब्रह्मविद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा होने कि परंपरा आज तक जारी है।

सरस्वती देवी के अन्य नामों में शारदा, वीणावादिनी, वीणापाणि, आदि कई नामों से जाना जाता है। 

परिचय

सरस्वती को साहित्य, संगीत, कला की देवी माना जाता है। उसमें विचारणा, भावना एवं संवेदना का त्रिविध समन्वय है। वीणा संगीत की, पुस्तक विचारणा की और [[हंस] वाहन कला की अभिव्यक्ति है। लोक चर्चा में सरस्वती को शिक्षा की देवी माना गया है। शिक्षा संस्थाओं में वसंत पंचमी को सरस्वती का जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाया जाता है। पशु को मनुष्य बनाने का - अंधे को नेत्र मिलने का श्रेय शिक्षा को दिया जाता है। मनन से मनुष्य बनता है। मनन बुद्धि का विषय है। भौतिक प्रगति का श्रेय बुद्धि-वर्चस् को दिया जाना और उसे सरस्वती का अनुग्रह माना जाना उचित भी है। इस उपलब्धि के बिना मनुष्य को नर-वानरों की तरह वनमानुष जैसा जीवन बिताना पड़ता है। शिक्षा की गरिमा-बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन को समझाने के लिए सरस्वती अर्चना की परम्परा है। इसे प्रकारान्तर से गायत्री महाशक्ति के अंतगर्त बुद्धि पक्ष की आराधना कहना चाहिए।

स्वरूप

सरस्वती के एक मुख, चार हाथ हैं। मुस्कान से उल्लास, दो हाथों में वीणा-भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है। पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है। वाहन राजहंस -सौन्दर्य एवं मधुर स्वर का प्रतीक है। इनका वाहन राजहंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेदग्रंथ और स्फटीकमाला होती है। भारत में कोई भी शैक्षणिक कार्य के पहले इनकी पूजा की जाती हैं।

पूजकगण 

बाली द्वीप में सरस्वती की प्रतिमा

कहते हैं कि महाकवि कालिदास, वरदराजाचार्य, वोपदेव आदि मंद बुद्धि के लोग सरस्वती उपासना के सहारे उच्च कोटि के विद्वान् बने थे। इसका सामान्य तात्पर्य तो इतना ही है कि ये लोग अधिक मनोयोग एवं उत्साह के साथ अध्ययन में रुचिपूवर्क संलग्न हो गए और अनुत्साह की मनःस्थिति में प्रसुप्त पड़े रहने वाली मस्तिष्कीय क्षमता को सुविकसित कर सकने में सफल हुए होंगे। इसका एक रहस्य यह भी हो सकता है कि कारणवश दुर्बलता की स्थिति में रह रहे बुद्धि-संस्थान को सजग-सक्षम बनाने के लिए वे उपाय-उपचार किए गए जिन्हें 'सरस्वती आराधना' कहा जाता है।
--- उपासना की प्रक्रिया भाव-विज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है। श्रद्धा और तन्मयता के समन्वय से की जाने वाली साधना-प्रक्रिया एक विशिष्ट शक्ति है। मनःशास्त्र के रहस्यों को जानने वाले स्वीकार करते हैं कि व्यायाम, अध्ययन, कला, अभ्यास की तरह साधना भी एक समर्थ प्रक्रिया है, जो चेतना क्षेत्र की अनेकानेक रहस्यमयी क्षमताओं को उभारने तथा बढ़ाने में पूणर्तया समर्थ है। सरस्वती उपासना के संबंध में भी यही बात है। उसे शास्त्रीय विधि से किया जाय तो वह अन्य मानसिक उपचारों की तुलना में बौद्धिक क्षमता विकसित करने में कम नहीं, अधिक ही सफल होती है।

फल

मन्दबुद्धि लोगों के लिए गायत्री महाशक्ति का सरस्वती तत्त्व अधिक हितकर सिद्घ होता है। बौद्धिक क्षमता विकसित करने, चित्त की चंचलता एवं अस्वस्थता दूर करने के लिए सरस्वती साधना की विशेष उपयोगिता है। मस्तिष्क-तंत्र से संबंधित अनिद्रा, सिर दर्द्, तनाव, जुकाम जैसे रोगों में गायत्री के इस अंश-सरस्वती साधना का लाभ मिलता है। कल्पना शक्ति की कमी, समय पर उचित निणर्य न कर सकना, विस्मृति, प्रमाद, दीघर्सूत्रता, अरुचि जैसे कारणों से भी मनुष्य मानसिक दृष्टि से अपंग, असमर्थ जैसा बना रहता है और मूर्ख कहलाता है। उस अभाव को दूर करने के लिए सरस्वती साधना एक उपयोगी आध्यात्मिक उपचार है।

माँ अन्नपूर्णा ।।

अन्नपूर्णा देवी हिन्दू धर्म में मान्य देवी-देवताओं में विशेष रूप से पूजनीय हैं। इन्हें माँ जगदम्बा का ही एक रूप माना गया है, जिनसे सम्पूर्ण विश्व का संचालन होता है। इन्हीं जगदम्बा के अन्नपूर्णा स्वरूप से संसार का भरण-पोषण होता है। 

अन्नपूर्णा का शाब्दिक अर्थ है- 'धान्य' (अन्न) की अधिष्ठात्री। सनातन धर्म की मान्यता है कि प्राणियों को भोजन माँ अन्नपूर्णा की कृपा से ही प्राप्त होता है।

शिव की अर्धांगनी, कलियुग में माता अन्नपूर्णा की पुरी काशी है, किंतु सम्पूर्ण जगत् उनके नियंत्रण में है। बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी के अन्नपूर्णाजी के आधिपत्य में आने की कथा बडी रोचक है। 

भगवान शंकर जब पार्वती के संग विवाह करने के पश्चात् उनके पिता के क्षेत्र हिमालय के अन्तर्गत कैलास पर रहने लगे, तब देवी ने अपने मायके में निवास करने के बजाय अपने पति की नगरी काशी में रहने की इच्छा व्यक्त की।
 महादेव उन्हें साथ लेकर अपने सनातन गृह अविमुक्त-क्षेत्र (काशी) आ गए। काशी उस समय केवल एक महाश्मशान नगरी थी। माता पार्वती को सामान्य गृहस्थ स्त्री के समान ही अपने घर का मात्र श्मशान होना नहीं भाया।

 इस पर यह व्यवस्था बनी कि सत्य, त्रेता, और द्वापर, इन तीन युगों में काशी श्मशान रहे और कलियुग में यह अन्नपूर्णा की पुरी होकर बसे। इसी कारण वर्तमान समय में अन्नपूर्णा का मंदिर काशी का प्रधान देवीपीठ हुआ।

स्कन्दपुराण के 'काशीखण्ड' में लिखा है कि भगवान विश्वेश्वर गृहस्थ हैं और भवानी उनकी गृहस्थी चलाती हैं। अत: काशीवासियों के योग-क्षेम का भार इन्हीं पर है। 'ब्रह्मवैव‌र्त्तपुराण' के काशी-रहस्य के अनुसार भवानी ही अन्नपूर्णा हैं।

 परन्तु जनमानस आज भी अन्नपूर्णा को ही भवानी मानता है। श्रद्धालुओं की ऐसी धारणा है कि माँ अन्नपूर्णा की नगरी काशी में कभी कोई भूखा नहीं सोता है। अन्नपूर्णा माता की उपासना से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। ये अपने भक्त की सभी विपत्तियों से रक्षा करती हैं।

 इनके प्रसन्न हो जाने पर अनेक जन्मों से चली आ रही दरिद्रता का भी निवारण हो जाता है। ये अपने भक्त को सांसारिक सुख प्रदान करने के साथ मोक्ष भी प्रदान करती हैं। तभी तो ऋषि-मुनि इनकी स्तुति करते हुए कहते हैं-

शोषिणीसर्वपापानांमोचनी सकलापदाम्।दारिद्र्यदमनीनित्यंसुख-मोक्ष-प्रदायिनी॥

काशी की पारम्परिक 'नवगौरी यात्रा' में आठवीं भवानी गौरी तथा नवदुर्गा यात्रा में अष्टम महागौरी का दर्शन-पूजन अन्नपूर्णा मंदिर में ही होता है। अष्टसिद्धियों की स्वामिनी अन्नपूर्णाजी की चैत्र तथा आश्विन के नवरात्र में अष्टमी के दिन 108 परिक्रमा करने से अनन्त पुण्य फल प्राप्त होता है। 

सामान्य दिनों में अन्नपूर्णा माता की आठ परिक्रमा करनी चाहिए। प्रत्येक मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन अन्नपूर्णा देवी के निमित्त व्रत रखते हुए उनकी उपासना करने से घर में कभी धन-धान्य की कमी नहीं होती है।

 भविष्यपुराण में मार्गशीर्ष मास के अन्नपूर्णा व्रत की कथा का विस्तार से वर्णन मिलता है। काशी के कुछ प्राचीन पंचांग मार्गशीर्ष की पूर्णिमा में अन्नपूर्णा जयंती का पर्व प्रकाशित करते हैं।

अन्नपूर्णा देवी का रंग जवापुष्प के समान है। इनके तीन नेत्र हैं, मस्तक पर अ‌र्द्धचन्द्र सुशोभित है। भगवती अन्नपूर्णा अनुपम लावण्य से युक्त नवयुवती के सदृश हैं। बन्धूक के फूलों के मध्य दिव्य आभूषणों से विभूषित होकर ये प्रसन्न मुद्रा में स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान हैं।

 देवी के बायें हाथ में अन्न से पूर्ण माणिक्य, रत्न से जडा पात्र तथा दाहिने हाथ में रत्नों से निर्मित कलछूल है। अन्नपूर्णा माता अन्न दान में सदा तल्लीन रहती हैं।

 देवीभागवत में राजा बृहद्रथ की कथा से अन्नपूर्णा माता और उनकी पुरी काशी की महिमा उजागर होती है। भगवती अन्नपूर्णा पृथ्वी पर साक्षात कल्पलता हैं, क्योंकि ये अपने भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करती हैं।

 स्वयं भगवान शंकर इनकी प्रशंसा में कहते हैं- "मैं अपने पांचों मुख से भी अन्नपूर्णा का पूरा गुण-गान कर सकने में समर्थ नहीं हूँ। यद्यपि बाबा विश्वनाथ काशी में शरीर त्यागने वाले को तारक-मंत्र देकर मुक्ति प्रदान करते हैं, तथापि इसकी याचना माँ अन्नपूर्णा से ही की जाती है। गृहस्थ धन-धान्य की तो योगी ज्ञान-वैराग्य की भिक्षा इनसे मांगते हैं-

अन्नपूर्णेसदा पूर्णेशङ्करप्राणवल्लभे।
ज्ञान-वैराग्य-सिद्धयर्थम् भिक्षाम्देहिचपार्वति॥

मंत्र-महोदधि, तन्त्रसार, पुरश्चर्यार्णव आदि ग्रन्थों में अन्नपूर्णा देवी के अनेक मंत्रों का उल्लेख तथा उनकी साधना-विधि का वर्णन मिलता है।

मंत्र शास्त्र के सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'शारदातिलक' में अन्नपूर्णा के सत्रह अक्षरों वाले निम्न मंत्र का विधान वर्णित है-

"ह्रीं नम: भगवतिमाहेश्वरिअन्नपूर्णेस्वाहा"

मंत्र को सिद्ध करने के लिए इसका सोलह हज़ार बार जप करके, उस संख्या का दशांश (1600 बार) घी से युक्त अन्न के द्वारा होम करना चाहिए। जप से पूर्व यह ध्यान करना होता है-

रक्ताम्विचित्रवसनाम्नवचन्द्रचूडामन्नप्रदाननिरताम्स्तनभारनम्राम्।नृत्यन्तमिन्दुशकलाभरणंविलोक्यहृष्टांभजेद्भगवतीम्भवदु:खहन्त्रीम्॥

अर्थात 'जिनका शरीर रक्त वर्ण का है, जो अनेक रंग के सूतों से बुना वस्त्र धारण करने वाली हैं, जिनके मस्तक पर बालचंद्र विराजमान हैं, जो तीनों लोकों के वासियों को सदैव अन्न प्रदान करने में व्यस्त रहती हैं, यौवन से सम्पन्न, भगवान शंकर को अपने सामने नाचते देख प्रसन्न रहने वाली, संसार के सब दु:खों को दूर करने वाली, भगवती अन्नपूर्णा का मैं स्मरण करता हूँ।'

प्रात:काल नित्य 108 बार अन्नपूर्णा मंत्र का जप करने से घर में कभी अन्न-धन का अभाव नहीं होता। शुक्ल पक्ष की अष्टमी के दिन अन्नपूर्णा का पूजन-हवन करने से वे अति प्रसन्न होती हैं। करुणा मूर्ति ये देवी अपने भक्त को भोग के साथ मोक्ष प्रदान करती हैं। 

सम्पूर्ण विश्व के अधिपति विश्वनाथ की अर्धांगिनी अन्नपूर्णा सबका बिना किसी भेद-भाव के भरण-पोषण करती हैं। जो भी भक्ति-भाव से इन वात्सल्यमयी माता का अपने घर में आवाहन करता है, माँ अन्नपूर्णा उसके यहाँ सूक्ष्म रूप से अवश्य वास करती हैं।


पूर्णिमा,अमावस्या का रहस्य ।।

        हिन्दू धर्म में पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण के अलावा वर्ष में ऐसे कई महत्वपूर्ण दिन और रात हैं जिनका धरती और मानव मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उनमें से ही माह में पड़ने वाले 2 दिन सबसे महत्वपूर्ण हैं- पूर्णिमा और अमावस्या। पूर्णिमा और अमावस्या के प्रति बहुत से लोगों में डर है। खासकर अमावस्या के प्रति ज्यादा डर है। वर्ष में 12 पूर्णिमा और 12 अमावस्या होती हैं। सभी का अलग-अलग महत्व है।

हिन्दू पंचांग के अनुसार माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहते हैं और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या।

हिन्दू पंचांग कि अवधारणा

यदि शुरुआत से गिनें तो 30 तिथियों के नाम निम्न हैं- पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)। 

अमावस्या पंचांग के अनुसार माह की 30वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन कि चंद्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता। हर माह की पूर्णिमा और अमावस्या को कोई न कोई पर्व अवश्य मनाया जाता ताकि इन दिनों व्यक्ति का ध्यान धर्म की ओर लगा रहे।

नकारात्मक और सकारात्मक शक्तियां

धरती के मान से 2 तरह की शक्तियां होती हैं- सकारात्मक और नकारात्मक, दिन और रात, अच्छा और बुरा आदि। हिन्दू धर्म के अनुसार धरती पर उक्त दोनों तरह की शक्तियों का वर्चस्व सदा से रहता आया है। हालांकि कुछ मिश्रित शक्तियां भी होती हैं, जैसे संध्या होती है तथा जो दिन और रात के बीच होती है। उसमें दिन के गुण भी होते हैं और रात के गुण भी। 

इन प्राकृतिक और दैवीय शक्तियों के कारण ही धरती पर भांति-भांति के जीव-जंतु, पशु-पक्षी और पेड़-पौधों, निशाचरों आदि का जन्म और विकास हुआ है। इन शक्तियों के कारण ही मनुष्यों में देवगुण और दैत्य गुण होते हैं। 

हिन्दुओं ने सूर्य और चन्द्र की गति और कला को जानकर वर्ष का निर्धारण किया गया। 1 वर्ष में सूर्य पर आधारित 2 अयन होते हैं- पहला उत्तरायण और दूसरा दक्षिणायन। इसी तरह चंद्र पर आधारित 1 माह के 2 पक्ष होते हैं- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। 

इनमें से वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं, तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य और पितर आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। अच्छे लोग किसी भी प्रकार का धार्मिक और मांगलिक कार्य रात में नहीं करते जबकि दूसरे लोग अपने सभी धार्मिक और मांगलिक कार्य सहित सभी सांसारिक कार्य रात में ही करते हैं।

पूर्णिमा का रहस्य

पूर्णिमा की रात मन ज्यादा बेचैन रहता है और नींद कम ही आती है। कमजोर दिमाग वाले लोगों के मन में आत्महत्या या हत्या करने के विचार बढ़ जाते हैं। चांद का धरती के जल से संबंध है। जब पूर्णिमा आती है तो समुद्र में ज्वार-भाटा उत्पन्न होता है, क्योंकि चंद्रमा समुद्र के जल को ऊपर की ओर खींचता है। मानव के शरीर में भी लगभग 85 प्रतिशत जल रहता है। पूर्णिमा के दिन इस जल की गति और गुण बदल जाते हैं। 

वैज्ञानिकों के अनुसार इस दिन चन्द्रमा का प्रभाव काफी तेज होता है इन कारणों से शरीर के अंदर रक्‍त में न्यूरॉन सेल्स क्रियाशील हो जाते हैं और ऐसी स्थिति में इंसान ज्यादा उत्तेजित या भावुक रहता है। एक बार नहीं, प्रत्येक पूर्णिमा को ऐसा होता रहता है तो व्यक्ति का भविष्य भी उसी अनुसार बनता और बिगड़ता रहता है। 

जिन्हें मंदाग्नि रोग होता है या जिनके पेट में चय-उपचय की क्रिया शिथिल होती है, तब अक्सर सुनने में आता है कि ऐसे व्यक्‍ति भोजन करने के बाद नशा जैसा महसूस करते हैं और नशे में न्यूरॉन सेल्स शिथिल हो जाते हैं जिससे दिमाग का नियंत्रण शरीर पर कम, भावनाओं पर ज्यादा केंद्रित हो जाता है। ऐसे व्यक्‍तियों पर चन्द्रमा का प्रभाव गलत दिशा लेने लगता है। इस कारण पूर्णिमा व्रत का पालन रखने की सलाह दी जाती है।

कुछ मुख्य पूर्णिमा

कार्तिक पूर्णिमा, माघ पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा, गुरु पूर्णिमा, बुद्ध पूर्णिमा आदि। 

चेतावनी : इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, पूर्णिमा और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है।

अमावस्या का रहस्य

      वर्ष के मान से उत्तरायण में और माह के मान से शुक्ल पक्ष में देव आत्माएं सक्रिय रहती हैं तो दक्षिणायन और कृष्ण पक्ष में दैत्य आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं। जब दानवी आत्माएं ज्यादा सक्रिय रहती हैं, तब मनुष्यों में भी दानवी प्रवृत्ति का असर बढ़ जाता है इसीलिए उक्त दिनों के महत्वपूर्ण दिन में व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को धर्म की ओर मोड़ दिया जाता है। 

अमा‍वस्या के दिन भूत-प्रेत, पितृ, पिशाच, निशाचर जीव-जंतु और दैत्य ज्यादा सक्रिय और उन्मुक्त रहते हैं। ऐसे दिन की प्रकृति को जानकर विशेष सावधानी रखनी चाहिए। प्रेत के शरीर की रचना में 25 प्रतिशत फिजिकल एटम और 75 प्रतिशत ईथरिक एटम होता है। इसी प्रकार पितृ शरीर के निर्माण में 25 प्रतिशत ईथरिक एटम और 75 प्रतिशत एस्ट्रल एटम होता है। अगर ईथरिक एटम सघन हो जाए तो प्रेतों का छायाचित्र लिया जा सकता है और इसी प्रकार यदि एस्ट्रल एटम सघन हो जाए तो पितरों का भी छायाचित्र लिया जा सकता है। 

ज्योतिष में चन्द्र को मन का देवता माना गया है। अमावस्या के दिन चन्द्रमा दिखाई नहीं देता। ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं, उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। लड़कियां मन से बहुत ही भावुक होती हैं। इस दिन चन्द्रमा नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर में हलचल अधिक बढ़ जाती है। जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है। 

धर्मग्रंथों में चन्द्रमा की 16वीं कला को 'अमा' कहा गया है। चन्द्रमंडल की 'अमा' नाम की महाकला है जिसमें चन्द्रमा की 16 कलाओं की शक्ति शामिल है। शास्त्रों में अमा के अनेक नाम आए हैं, जैसे अमावस्या, सूर्य-चन्द्र संगम, पंचदशी, अमावसी, अमावासी या अमामासी। अमावस्या के दिन चन्द्र नहीं दिखाई देता अर्थात जिसका क्षय और उदय नहीं होता है उसे अमावस्या कहा गया है, तब इसे 'कुहू अमावस्या' भी कहा जाता है। अमावस्या माह में एक बार ही आती है। शास्त्रों में अमावस्या तिथि का स्वामी पितृदेव को माना जाता है। अमावस्या सूर्य और चन्द्र के मिलन का काल है। इस दिन दोनों ही एक ही राशि में रहते हैं।

कुछ मुख्‍य अमावस्या

भौमवती अमावस्या, मौनी अमावस्या, शनि अमावस्या, हरियाली अमावस्या, दिवाली अमावस्या, सोमवती अमावस्या, सर्वपितृ अमावस्या। 

चेतावनी : इस दिन किसी भी प्रकार की तामसिक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। इस दिन शराब आदि नशे से भी दूर रहना चाहिए। इसके शरीर पर ही नहीं, आपके भविष्य पर भी दुष्परिणाम हो सकते हैं। जानकार लोग तो यह कहते हैं कि चौदस, अमावस्या और प्रतिपदा उक्त 3 दिन पवित्र बने रहने में ही भलाई है।