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मूर्ति पूजा बहुउपयोगी है ।।

भारतीय संस्कृति में प्रतीकवाद का महत्वपूर्ण स्थान है। सबके लिए सरल सीधी पूजा-पद्धति को आविष्कार करने का श्रेय को ही प्राप्त है। पूजा-पद्धति की उपयोगिता और सरलता की दृष्टि से हिन्दू धर्म की तुलना अन्य सम्प्रदायों से नहीं हो सकती। हिन्दू धर्म में ऐसे वैज्ञानिक मूलभूत सिद्धाँत दिखाई पड़ते हैं, जिनसे हिन्दुओं की कुशाग्र बुद्धि, विवेक और मनोविज्ञान की अपूर्व जानकारी का पता चलता है। मूर्ति-पूजा ऐसी ही प्रतीक पद्धति है। 

 मूर्ति-पूजा क्या है? पत्थर, मिट्टी, धातु या चित्र इत्यादि की प्रतिमा को मध्यस्थ बनाकर हम सर्वव्यापी अनन्त शक्तियों और गुणों से सम्पन्न परमात्मा को अपने सम्मुख उपस्थित देखते हैं। निराकार ब्रह्म का मानस चित्र निर्माण करना कष्टसाध्य है। बड़े योगी, विचारक, तत्ववेत्ता सम्भव है यह कठिन कार्य कर दिखायें, किन्तु साधारण जन के लिए तो वह निताँत असम्भव-सा है। भावुक भक्तों, विशेषतः नारी उपासकों के लिए तो किसी प्रकार की मूर्ति का आधार रहने से उपासना में बड़ी सहायता मिलती है। मानस चिन्तन और एकाग्रता की सुविधा को ध्यान में रखते हुए प्रतीक रूप में मूर्ति-पूजा की योजना बनी है। साधक अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान की कोई भी मूर्ति चुन लेता है और साधना करने लगता है। उस मूर्ति को देखकर हमारी अन्तः चेतना ऐसा अनुभव करती है मानो साक्षात् भगवान से हमारा मिलन हो रहा है। 

 आचार्य श्रीराम शर्मा का यह कथन सत्य है कि यद्यपि इस प्रकार की मूर्ति-पूजा में भावना प्रधान और प्रतिमा गौण है, तो भी प्रतिमा को ही यह श्रेय देना पड़ेगा कि वह भगवान की भावनाओं का उद्रेक और सञ्चार विशेष रूप से हमारे अन्तःकरण में करती है। यों कोई चाहे, तो चाहे जब, चाहे जहाँ भगवान को स्मरण कर सकता है, पर मन्दिर में जाकर प्रभु-प्रतिमा के सम्मुख अनायास ही जो आनन्द प्राप्त होता है, वह बिना मन्दिर में जाये, चाहे जब कठिनता से ही प्राप्त होगा। गंगा-तट पर बैठकर ईश्वरीय शक्तियों का जो चमत्कार मन में उत्पन्न होता है, वह अन्यत्र मुश्किल से ही हो सकता है। 

 मूर्ति-पूजा के साथ-साथ धर्म-मार्ग में सिद्धाँतमय प्रगति करने के लिए हमारे यहाँ त्याग और संयम पर बड़ा जोर दिया गया है। सोलह संस्कार, नाना प्रकार के धार्मिक कर्मकाण्ड, व्रत, जप, तप, पूजा, अनुष्ठान, तीर्थ-यात्राएं, दान, पुण्य, स्वाध्याय, सत्संग ऐसे ही दिव्य प्रयोजन हैं, जिनसे मनुष्य में संयम और व्यवस्था आती है। मन दृढ़ बनकर दिव्यत्व की ओर बढ़ता है। आध्यात्मिक नियन्त्रण में रहने का अभ्यस्त बनता है। 

 मूर्ति-पूजा के पक्ष में पं. दीनानाथ शर्मा के विचार बहुमूल्य हैं। शर्मा जी लिखते हैं :- 

 “जड़ (मूल) ही सबका आधार हुआ करती है। जड़ सेवा के बिना किसी का भी कार्य नहीं चलता। दूसरे की आत्मा की प्रसन्नतार्थ उसके आधार भूत जड़ शरीर एवं उसके अंकों की सेवा करनी पड़ती है। परमात्मा की उपासना के लिए भी उसके आश्रय स्वरूप जड़ प्रकृति की पूजा करनी पड़ती है। हम वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, प्रकाश आदि की उपासना से प्रचुर लाभ उठाते हैं, तब मूर्ति-पूजा से क्यों घबड़ाना चाहिए? उसके द्वारा तो आप अणु-अणु में व्यापक चेतन (सच्चिदानन्द) की पूजा कर रहे होते हैं। आप जिस बुद्धि को या मन को आधारीभूत करके परमात्मा का अध्ययन कर रहे होते हैं क्या वे जड़ नहीं हैं? परमात्मा भी जड़ प्रकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता, सृष्टि भी नहीं रच सकता। तब सिद्ध हुआ कि जड़ और चेतन का परस्पर सम्बन्ध है। तब परमात्मा भी किसी मूर्ति के बिना उपास्य कैसे हो सकता है? 

 हमारे यहाँ मूर्तियाँ मन्दिरों में स्थापित हैं, जिनमें भावुक जिज्ञासु पूजन, वन्दन, अर्चन के लिए जाते हैं और ईश्वर की मूर्तियों पर चित्त एकाग्र करते हैं। घर में परिवार की नाना चिन्ताओं से भरे रहने के कारण पूजा, अर्चन, ध्यान इत्यादि इतनी अच्छी तरह नहीं हो पाता, जितना मन्दिर के प्रशान्त स्वच्छ वातावरण में हो सकता है। अच्छे वातावरण का प्रभाव हमारी उत्तम वृत्तियों को शक्तिवान् बनाने वाला है। मंदिर के सात्विक वातावरण में कुप्रवृत्तियाँ स्वयं फीकी पड़ जाती हैं। इसलिए हिन्दू संस्कृति में मंदिर की स्थापना को बड़ा महत्व दिया गया है, जो उचित ही है।” 

 सम्भव है इनमें से कुछ आक्षेप सत्य हों; किन्तु मन्दिरों को समाप्त कर देने या सरकार द्वारा जब्त कर लेने मात्र से क्या अनाचार दूर हो जाएंगे? यदि किसी अंग में कोई विकार आ जाय, तो क्या उसे जड़मूल से नष्ट कर देना उचित है? 

 कदापि नहीं। उसमें उचित परिष्कार और सुधार करना चाहिए। इसी बात की आवश्यकता आज हमारे मन्दिरों में है। मन्दिर स्वच्छ नैतिक शिक्षण के केन्द्र रहें। उनमें पढ़े-लिखे निस्पृह पुजारी रखे जायं, जो मित्रि, पूजा कराने के साथ-साथ जनता को धर्मग्रन्थों, आचार, शास्त्रों, नीति, ज्ञान की शिक्षण भी दें और जिनका चरित्र जनता के लिए आदर्श रूप हो।

मनुष्य का यह स्वभाव है कि जब तक वह यह जानता है कि कोई उसके कामों, चरित्र या विविध हाव-भाव विचारों को देख रहा है, तब तक वह बड़ा सावधान रहता है। बाह्य नियन्त्रण हटते ही वह शिथिल-सा होकर पुनः पतन में बहक जाता है। मंदिर में भगवान की मूर्ति के सम्मुख उसे सदैव ऐसा अनुभव होता रहता है कि वह ईश्वर के सम्मुख है, परमात्मा उसके कार्यों, मन्तव्यों और विचारों को सतर्कता से देख रहे हैं, अतः उसे चित्त-शुद्धि में सहायता मिलती है। मूर्ति चित-शुद्धि के लिए प्रत्यक्ष परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करती है। जिन भारतीय ऋषियों ने भगवान की मूर्ति की कल्पना की थी, वे मनोविज्ञान-वेत्ता भी थे। उनके इस उपाय से भोली भावुक जनता की चित्त-शुद्धि हुई। मनुष्य ने अपने सात्विक प्रवृत्तियों, कला और सौंदर्य-वृत्ति का सारा प्रदर्शन मन्दिरों में किया हैं। मूर्ति में भगवान की भावना और अपनी श्रद्धा भरकर उन्होंने आत्मविकास किया। 

 अल्पज्ञ, अशक्त, अज्ञान मनुष्य भला भगवान का वैभव क्या बढ़ावेगा? वह महान है, स्वयं असीम शक्तियों का पुञ्ज है। उधर हम रंक हैं; अशक्त हैं; अपनी शक्तियों में सीमित हैं। 

 लेकिन इस उक्ति का तात्पर्य यही है कि हम ऐसे कार्य, ऐसी भावना प्रकट करें, जो हमारे माध्यम से हमारे पिता परमेश्वर के महत्व को प्रकट करने वाले हों। परमेश्वर का वैभव बढ़ाने की कोशिश करने में हम स्वयं अपना जीवन उन्नत कर लेते हैं, उसे ईश्वरीय शक्तियों से भर लेते हैं। 

 मन्दिर में ईश्वर की कोई प्रतिमा स्थापित कर निरन्तर उन्हें अपने कार्यों का दृष्टा मानकर हम जो सदाचरण करते हैं, अपने कर्तव्यों को पूर्ण करते हैं, भजन, पूजन, स्वाध्याय, प्रार्थना करते हैं, वही भगवान का वैभव बढ़ाने वाली बातें हैं। जिन विचारों या कार्यों से हमारा देवत्व प्रकट होता है, वे ही इस दुर्लभ मानव-देह से करने योग्य कार्य हैं। वाणी से भगवान के दिव्य गुणों, अतुल सामर्थ्यों का गुण-गान करें, हाथों से पवित्र कार्य करे, ब्रह्म-चिन्तन भजन-गायन, और अर्चन से बुद्धि को शुद्ध बनाये, यही हमारे अहंकार को दूर कर सकता है और चित्त शुद्ध कर सकता है। 

 जब मूर्ति में हम भगवान की आस्था, श्रद्धा और विश्वास के साथ स्थापित कर देते हैं, तो वही दिव्य सामर्थ्यों से पूर्ण हो जाती है। उसी पत्थर की प्रतिमा के सामने हमारा सिर अपने आप झुक जाता है। यह मनुष्य की श्रद्धा का चमत्कार है। इस मूर्ति के सामने निरन्तर रहने से चित्त-शुद्धि होती है और आत्मानुशासन प्राप्त हो जाता है। जीवन का चरम लक्ष्य होना चाहिए ईश्वर से तादात्म्य और इसी को मानना चाहिए- परम पुरुषार्थ। मूर्ति-पूजा वह प्रारम्भिक अवस्था है जिसमें मनुष्य दिव्य गुणों के विकास की पहली सीढ़ी पर चढ़ता है। योगसूत्र में भगवान की व्याख्या “रागद्वेषादि रहित पुरुष विशेषः” की है। इस प्रकार मूर्ति-पूजा करते-करते मनुष्य निरहंकार बनता है। जिस मूर्ति में वह जिन देव गुणों का आरोपण का पूजा करने लगता है, कालान्तर में वे ही उसके चरित्र में प्रकट होने लगते हैं। इस प्रकार मूर्ति-पूजा उपयोगी है और आवश्यक भी।

स्त्रियों के बाल सुंदरता और सौभाग्य का प्रतीक वही खुले बाल , शोक और अशुद्दि की निशानी ।।

रामायण में बताया गया है, जब देवी सीता का श्रीराम से विवाह होने वाला था, उस समय उनकी माता सुनयना ने उनके बाल बांधते हुए उनसे कहा था, विवाह उपरांत सदा अपने केश बांध कर रखना। 

बंधे हुए लंबे बाल आभूषण सिंगार होने के साथ साथ संस्कार व मर्यादा में रहना सिखाते हैं। 

ये सौभाग्य की निशानी है ,  
एकांत में केवल अपने पति के लिए इन्हें खोलना।

हजारो लाखो वर्ष पूर्व हमारे ऋषि मुनियो ने शोध कर यह अनुभव किया कि सिर के काले बाल को पिरामिड नुमा बनाकर सिर के उपरी ओर या शिखा के उपर रखने से वह सूर्य से निकली किरणो को अवशोषित करके शरीर को ऊर्जा प्रदान करते है। जिससे चेहरे की आभा चमकदार , शरीर सुडौल व बलवान होता है।

यही कारण है कि गुरुनानक देव व अन्य सिक्ख गुरूओ ने बाल रक्षा के असाधारण महत्त्व को समझकर धर्म का एक अंग ही बना लिया। लेकिन वे कभी भी बाल को खोलकर नही रखे , 

ऋषी मुनियो व साध्वीयो ने हमेशा बाल को बांध कर ही रखा। भारतीय आचार्यो ने बाल रक्षा का प्रयोग , साधना काल में ही किया इसलिय आज भी किसी लंबे अनुष्ठान , नवरात्री पर्व , श्रावण मास , तथा श्राद्ध पर्व आदि में नियम पूर्वक बाल रक्षा कर शक्ति अर्जन किया जाता है।

महिलाओं के लिए केश सवांरना अत्यंत आवश्यक है उलझे एवं बिखरे हुए बाळ अमंगलकारी कहे गए है। - कैकेई का कोपभवन में बिखरे बालों में रुदन करना और अयोध्या का अमंगल होना।

पति से वियुक्त तथा शोक में डुबी हुई स्त्री ही बाल खुले रखती है --- जैसे अशोक वाटिका में सीता 

रजस्वला स्त्री , खुले बाल रखती है ,जैसे --- 
चीर हरण से पूर्व द्रोपदी , उस वक्त द्रोपदी रजस्वला थी ,जब दुःशासन खींचकर लाया 
तब द्रोपदी ने प्रतीज्ञा की थी कि-- मैं अपने बाल तब बाँधुंगी जब दुःसासन के रक्त से धोऊँगी --- 

जब रावण देवी सीता का हरण करता है तो उन्हें केशों से पकड़ कर अपने पुष्पक विमान में ले जाता है। अत: उसका और उसके वंश का नाश हो गया।

महाभारत युद्ध से पूर्व कौरवों ने द्रौपदी के बालों पर हाथ डाला था, उनका कोई भी अंश जीवित न रहा।

कंस ने देवकी की आठवीं संतान को जब बालों से पटक कर मारना चाहा तो वह उसके हाथों से निकल कर महामाया के रूप में अवतरित हुई। 

कंस ने भी अबला के बालों पर हाथ डाला तो उसके भी संपूर्ण राज-कुल का नाश हो गया।।

सौभाग्यवती स्त्री के बालों को सम्मान की निशानी कही गयी है।
दक्षिण भारतीय की कुछ महिलाएं मनन्त - संकल्प आदि के चलते बाळा जी में केश मुंडन करवा लेती हैं ।

लेकिन भारत के अन्य क्षेत्रो में ऐसी कोई प्रथा नहीं है । कोई महिला जब विधवा हो जाती हैं तभी उनके बाल छोटे करवा दिए जाते हैं। या जो विधवा महिलाये अपने पति के अस्थि विसर्जन को तीर्थ जाती है। वे ही बाल मुंडन करवाती है अर्थात विधवा ही मुण्डन करवाती हैं , सौभाग्यवती नहीं।

गरुड पुराण के अनुसार बालों में काम का वास रहता है | बालों का बार बार स्पर्श करना दोष कारक बताया गया है। क्योकि बालों को अशुध्दी माना गया है इसलिय कोई भी जप अनुष्ठान ,चूड़ाकरण , यज्ञोपवीत, आदि-२ शुभाशुभ कृत्यों में क्षौर कर्म कराया जाता है तथा शिखाबन्धन कर पश्चात हस्त प्रक्षालन कर शुद्ध किया जाता है।

दैनिक दिनचर्या में भी स्नान पश्चात बालों में तेल लगाने के बाद उसी हाथ से शरीर के किसी भी अंग में तेल न लगाएं हाथों को धो लें।

भोजन आदि में बाल आ जाय तो उस भोजन को ही हटा दिया जाता है।

 मुण्डन या बाल कटाने के बाद शुद्ध स्नान आवश्यक बताया गया है। बडे यज्ञ अनुष्ठान आदि में मुंडन तथा हर शुद्धिकर्म में सभी बालो (शिरस्, मुख और कक्ष) के मुण्डन का विधान हैं ।

बालों के द्वारा बहुत सा तन्त्र क्रिया होती है जैसे वशीकरण यदि कोई स्त्री खुले बाल करके निर्जन स्थान या... ऐसा स्थान जहाँ पर किसी की अकाल मृत्यु हुई है.. ऐसे स्थान से गुजरती है तो अवश्य ही प्रेत बाधा का योग बन जायेगा.।।

वर्तमान समय में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से महिलाये खुले बाल करके रहना चाहते हैं, और जब बाल खुले होगें तो आचरण भी स्वछंद ही होगा।भारतीय महिलाओ में भी इस फैशन रुपी कुप्रथा का प्रवाह शुरु हो चुका है।

अनेक वैज्ञानिको जैसे इंग्लैंड के डॉ स्टैनले हैल , अमेरिका के स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ गिलार्ड थॉमस आदि ने पश्चिम देश के महिलाओ की बडी संख्या पर निरीक्षण के आधार पर लिखा कि केवल 4 प्रतिशत महिलाय ही शारीरिक रूप से पत्नी व माँ बनने के योग्य है शेष 96 प्रतिशत स्त्रिया , बाल कटाने के कारण पुरुष भाव को ग्रहण कर लेने के कारण माँ बनने के लिये अयोग्य है

शिष्य को गुरु से कभी डरना नहीं चाहिए ।।

 वे बिल्कुल प्रेम की मूर्ति हैं। उनसे ऐसे मिलो जैसे हमारा छोटा बच्चा छल कपट से रहित हमारे सीने से लग जाता है। वह आपकी सूरत और सीरत नहीं देखता , बस वह जानता है कि आप उसको प्रेम करते हो।

इसी तरह गुरुदेव है । जब हम निश्चल होकर उनसे प्रेम करते है तो वे दौड़ कर अपने भक्तों के वश में प्रेम वश बंध जाते है और अथाह प्रेम करते है। निश्छल प्रेम करते है। सांसारिक जगत में अपनों से निश्चल प्रेम की संभावना रखना अपने मनोबल को गिराना है। क्योंकि संसार में हर एक रिश्ता किसी ना किसी स्वार्थ पूर्ति हेतु एक दूसरे से बंधा है।

कई बार लोग कहते है - हम तो बीमार हो गये, हमारे ये काम बिगड़ गये, गुरुदेव चाहते ही नहीं कि हम उनकी पूजा करें। लेकिन हमारा यह सोचना बिल्कुल गलत है क्योंकि सदगुरु किसी को कष्ट नहीं देते। वे तो सिर्फ देना जानते हैं , प्यार में लुट जाते है गुरुदेव।

हमारी बीमारी का कारण हमारी पूजा से संबंधित नहीं होती। क्योंकि इस ब्रह्मांड में अनगिनत नाकारात्मक शक्तियां हैं। जो हमारे शरीर में हमारे घरों में हमेशा रहती है। हमें मालूम नहीं होता। हमारे घरों में जहां भी गंदगी रहती है। वही उनका वास होता है। हमारे शरीर में भी खानपान के माध्यम से, विचारों के माध्यम से नकारात्मकता प्रवेश कर जाती है।
हमें ज्ञात नहीं होता। क्योंकि ये सब सूक्ष्म जगत की माया है‌। जब हम पूजा पर बैठते हैं तब ये नाकारात्मक शक्तियां और अधिक परेशान करती है। क्योंकि इन नाकारात्मक शक्तियों को भली-भांति ज्ञात होता है कि यदि ये व्यक्ति पूजा पाठ करेगा, तो इसके गुरुदेव, माता रानी या आपके जो भी इष्टदेव हैं- वे नाकारात्मक शक्ति को आपके भीतर से निकाल कर बाहर फेंक देंगे। इसी कारण नकारात्मक शक्तियां अनेक प्रकार से विघ्न डालती हैं। 

इन से बचा कैसे जाये ? इन से बचने का उपाय है- हमेशा पूजा में शुद्धता वरते, अपने घर के मंदिर की व्यवस्था साफ-सुथरी रखें। हमेशा शुद्ध आसन कंबल का इस्तेमाल करें या कुश के आसन का। आसन जितना मोटा हो उतना ही अच्छा। पूजा शुरू करें तब एक कपूर पर दो लौंग रख कर अवश्य जलाएं, इससे नकारात्मकता से बचा जा सकता है। एक लोटा जल अवश्य रखें। चंदन , तिलक अवश्य लगाएं। पूजा संपूर्ण होने पर लोटे में से थोड़ा जल आसन के नीचे गिराकर आंखों पर लगाए। इससे पूजा या मंत्र- जप का पूरा फल आपको प्राप्त होगा। नकारात्मक शक्तियाँ आपकी पूजा या मंत्र- जप को चुराकर नहीं ले जा पायेंगी ।

सूक्ष्म जगत बहुत रहस्यमई है। जिसमें नकारात्मकता और सकारात्मकता दोनों शक्तियां मौजूद है- जैसे अच्छाई और बुराई, अंधेरा और उजाला।
गुरु किसी का अहित नहीं करते। प्रेम पूर्वक, निडर होकर विश्वास के साथ हमेशा उनकी पूजा-अर्चना करें। आशा है, इस उपाय के साथ आप सभी लाभांवित होंगे।

 

आरती का अर्थ ।।

व्याकुल होकर भगवान को याद करना, उनका स्तवन करना।

 आरती, पूजा के अंत में धूप, दीप, कर्पूर से की जाती है। इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। हिंदू धर्म में अग्नि को शुद्ध माना गया है। पूजा के अंत में जलती हुई लौ को आराध्य देव के सामने एक विशेष विधि से घुमाया जाता है।

 इसमें इष्टदेवता की प्रसन्नता के लिए दीपक दिखाने के साथ ही उनका स्तवन और गुणगान किया जाता है। यह उपासक के हृदय में भक्ति दीप प्रज्वलित करने और ईश्वर का आशीर्वाद ग्रहण करने का सुलभ माध्यम है।

आरती चार प्रकार की होती है – दीप आरती, जल आरती, धूप, कपूर, अगरबत्ती से आरती, पुष्प आरती

दीप आरती: दीपक लगाकर आरती का आशय है। हम संसार के लिए प्रकाश की प्रार्थना करते हैं।
जल आरती: जल जीवन का प्रतीक है। आषय है हम जीवन रूपी जल से भगवान की आरती करते हैं।

धूप, कपूर, अगरबत्ती से आरती: धूप, कपूर और अगरबत्ती सुगंध का प्रतीक है। यह वातावरण को सुगंधित करते हैं तथा हमारे मन को भी प्रसन्न करते हैं।

पुष्प आरती: पुष्प सुंदरता और सुगंध का प्रतीक है। अन्य कोई साधन न होने पर पुष्प से आरती की जाती है।

आरती एक विज्ञान है। आरती के साथ – साथ ढोल – नगाड़े, तुरही, शंख, घंटा आदि वाद्य भी बजते हैं। इन वाद्यों की ध्वनि से रोगाणुओं का नाश होता है। वातावरण पवित्र होता है। दीपक और धूप की सुगंध से चारों ओर सुगंध का फैलाव होता है। पर्यावरण सुगंध से भर जाता है। आरती के पश्चात मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है।

पूजा में आरती का इतना महत्व क्यों हैं इसका जवाब स्कंद पुराण में मिलता है। इस पुराण में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति मंत्र नहीं जानता, पूजा की विधि नहीं जानता लेकिन सिर्फ आरती कर लेता है तो भगवान उसकी पूजा को पूर्ण रूप से स्वीकार कर लेते हैं।

आरती करते हुए भक्त के मान में ऐसी भावना होनी चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारती कहलाती है। आरती प्रायः दिन में एक से पांच बार की जाती है। इसे हर प्रकार के धामिक समारोह एवं त्यौहारों में पूजा के अंत में करते हैं।

आरती करने का समय 

१-मंगला आरती. २-सृंगार आरती. ३- राजभोग आरती. ४-संध्या आरती ५-शयन आरती

१-मंगला आरती-यह आरती भगवान् को सूर्योदय से पहले उठाते समय करनी चाहिए.

२-सृंगार आरती-यह आरती भगवान् जी की पूजा करने के बाद करनी चाहिए.

३- राजभोग आरती-यह आरती दोपहर को भोग लगाते समय करनी चाहिए,और भगवान् जी की आराम की व्यवस्था कर देनी चाहिए.

४-संध्या आरती-यह आरती शाम को भगवान् जी को उठाते समय करनी चाहिए.

५-शयन आरती -यह आरती भगवान् जी को रात्री में सुलाते समय करनी चाहिए

एक पात्र में शुद्ध घी लेकर उसमें विषम संख्या (जैसे ३, ५ या ७) में बत्तियां जलाकर आरती की जाती है। इसके अलावा कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं।

 आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरी धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती मानव शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक मानी जाती है

आरती की थाली या दीपक (या सहस्र दीप) को ईष्ट देव की मूर्ति के समक्ष ऊपर से नीचे, गोलाकार घुमाया जाता है। इसे घुमाने की एक निश्चित संख्या भी हो सकती है, व गोले के व्यास भी कई हो सकते हैं। इसके साथ आरती गान भी समूह द्वारा गाय़ा जाता है जिसको संगीत आदि की संगत भी दी जाती है। आरती होने के बाद पंडित या आरती करने वाला, आरती के दीपक को उपस्थित भक्त-समूह में घुमाता है, व लोग अपने दोनों हाथों को नीचे को उलटा कर जोड़ लेते हैं व आरती पर घुमा कर अपने मस्तक को लगाते हैं। इसके दो कारण बताये जाते हैं।

एक मान्यता अनुसार ईश्वर की शक्ति उस आरती में समा जाती है, जिसका अंश भक्त मिल कर अपने अपने मस्तक पर ले लेते हैं। दूसरी मानयता अनुसा ईश्वर की नज़र उतारी जाती है, या बलाएं ली जाती हैं, व भक्तजन उसे इस प्रकार अपने ऊपर लेने की भावना करते हैं, जिस प्रका एक मां अपने बच्चों की बलाएं ले लेती है। ये मात्र सांकेतिक होता है, असल में जिसका उद्देश्य ईश्वर के प्रति अपना समर्पण व प्रेम जताना होता है


मूर्ति पूजा सर्वव्यापी उपासना पद्धति है।।

संसार में मूर्ति पूजा तो सर्वत्र बिखरी पड़ी है, पर आश्चर्य है कि मूर्ति पूजा के नाम पर कुछ समूहों या सज्जनों द्वारा झूठा विरोध क्यों किया जाता है। मानव दैनिक जीवन में जो भी कार्य करता है या विचार करता है सर्वप्रथम उस कार्य या विचार का चित्र प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उसके मनः पटल पर अंकित होता है। बिना किसी प्रकार के मानसिक चित्र या कल्पना के मानव संसार में कोई भी कार्य करने में समर्थ नहीं। जब यह स्थिति प्रत्यक्ष थी तभी तो भारत के महान् धार्मिक वैज्ञानिकों ने अलौकिक मूर्ति पूजा का विज्ञान जन साधारण के हितार्थ संसार के समक्ष रक्खा। भाग्यवान मानवों ने उसका स्वागत किया। 

 इस सत्य से मुख मोड़ा नहीं जा सकता कि मूर्ति पूजा से संसार में कोई भी जीवित व्यक्ति वैराग्य नहीं ले सकता। ईसाई तो प्रत्यक्ष श्री ईसामसीह के चित्र, मूर्ति एवं क्रास, गिरजाघर आदि को पवित्र मानकर उनके समक्ष नतमस्तक होकर अपने को सौभाग्यशाली मानते हैं। इस्लाम धर्म के मानने वाले भी किसी न किसी प्रकार से अपने पैगम्बर के, मस्जिद के तथा ताजिओं आदि के प्रति श्रद्धा प्रगट कर ईश्वर से सम्बन्धित आकारों की पूजा अपने विचारों के अनुसार कर परोक्ष रूप में साकार उपासना का प्रतिपादन करते हैं। मुसलमान अपने किसी भी धार्मिक चिन्ह का अपमान सहन नहीं कर सकता। यदि उनके दिल में आकृति के प्रति श्रद्धा नहीं है तो अपमान के प्रति विरोध भावना कहाँ से प्रगट होती है? किसी धार्मिक कृत्य पर सुगंध करना, स्वच्छ या नवीन वस्त्र पहनना, नियमित रूप से नमाज पढ़ना, रोजे रखना आदि कृत्य सब मूर्ति पूजा के ही तो परोक्ष अंग हैं। 

 संसार की उत्पत्ति के उपरान्त किन्हीं विभूतियों ने वस्त्र एवं सामाजिक प्रतिष्ठा की मान्यता का विधान बनाया होगा। आज नाना प्रकार के फैशनों में उसके विस्तार को देखकर आश्चर्य होता है। कितने प्रकार के कपड़े मानव ने बना डाले, कितने प्रकार के रंग ढंग देश देशान्तरों में चले और समाप्त हो गये, आज कितने प्रकार के कपड़े चल रहे हैं अथवा पहने जा रहे हैं, कोई उनकी गणना करने में भी समर्थ नहीं है। पर वाह रे सिद्धाँत तू तो अपनी जगह पर अटल खड़ा है। ठीक इसी प्रकार आध्यात्मवाद के आश्रय में बिरले ही मानव भगवान् के चरणों में पहुँचने में समर्थ थे और हैं। अतः साधारणजनों की रक्षार्थ मूर्ति-पूजन के सरल साधन द्वारा मानव को प्रभु चरणों से सम्बन्ध स्थापित करने का विधान बनाकर जिस अटूट सिद्धान्त की रचना की गई, कोई कुछ भी कहे वह अखण्ड-ज्योति की भाँति आज भी सारे संसार को प्रकाश दे रही है। संसार में अन्य देशों अथवा जातियों ने मूर्ति-पूजा का आन्तरिक महत्व नहीं समझा, वरन्, मानवी आवश्यकता के कारण उसे अनजाने ही अपना लिया। अतः उस अपनाने में मूल वस्तु तो रह गई, पर अन्य भौतिक साधन नष्ट हो गये। दूसरी ओर विशाल हिन्दू जाति ने उसके आन्तरिक महत्व और लाभ को समझते हुए उसका अनुसरण किया। 

 मानव, स्वभाव से अनेक प्रकार की भावनाओं के आश्रित होकर अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है। सनातन धर्म ने वनस्पति, जल, जीव, तारागण, चन्द्र, सूर्य सारे चराचर को अपनी पवित्र पूजन पद्धति में स्थान देकर देवी देवताओं आदि की इतनी बाहुल्यता कर दी कि मानव -मात्र अपनी बुद्धि और रुचि के अनुसार पूजन शैली छाँटने में स्वतन्त्र है। भारतीय पूजन विधि में पाँचों इन्द्रियों को तृप्ति देने का सरल साधन है। चारों वर्णों की रचना को सार्थक करने हेतु सभी वर्णों की अनुकूल तृप्ति भी पूजन से बनती है। अन्त में चार अवस्थाएँ हैं। भारतीय पूजन विधि में बालकों के मनोविज्ञान की पूर्ति बाजे एवं प्रसाद पंचामृत से होती है। बड़े होने पर पाठ, शृंगार, कीर्तन आदि से मानव सन्तोष प्राप्त करता है। तृतीय अवस्था आने पर विचार, साधन, प्रवचन आदि सन्तोष के प्रत्यक्ष साधन हैं। संन्यास लेने पर सारे जगत को ब्रह्ममय मानकर मानव सेवा कर जगत को सन्मार्ग पर लगाने की सच्ची मूर्ति-पूजा का विधान है। 

 इस महान मूर्ति-पूजन की किस भाँति प्रशंसा की जावे। जिन महान् आत्माओं द्वारा संसार में इसका प्रादुर्भाव हुआ, संसार उनका सदैव आभारी रहेगा। मूर्ति पूजन के विज्ञान को विदेशी तो गंभीरता से समझना चाहते हैं, पर खेद है कि जिनकी वह धरोहर है, वे हिन्दू अज्ञानता वश इस अमूल्य धरोहर पर गर्व अनुभव करने की अपेक्षा अनेक प्रकार का विरोध प्रदर्शित कर अपने को गर्त में गिराते हैं। भगवान उन्हें सद्बुद्धि दे यही प्रार्थना है।