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शिखा सूत्र का प्राचीन विज्ञान ।।

सिर के ऊपरी भाग को ब्रह्मांड कहा गया है और सामने के भाग को कपाल प्रदेश। कपाल प्रदेश का विस्तार ब्रह्मांड के आधे भाग तक है। दोनों की सीमा पर मुख्य मस्तिष्क की स्थिति समझनी चाहिए।

ब्रह्मांड का जो केन्द्रबिन्दु है, उसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं। ब्रह्मरंध्र में सुई की नोंक के बराबर एक छिद्र है जो अति महत्वपूर्ण है। सारी अनुभूतियां, दैवी जगत् के विचार, ब्रह्मांड में क्रियाशक्ति और अनन्त शक्तियां इसी ब्रह्मरंध्र से प्रविष्ट होती हैं। हिन्दू धर्म में इसी स्थान पर चोटी (शिखा) रखने का नियम है। ब्रह्मरंध्र से निष्कासित होने वाली ऊर्जा शिखा के माध्यम से प्रवाहित होती है ।

वास्तव में हमारी शिखा जहां एक ओर ऊर्जा को प्रवाहित करती है, वहीं दूसरी ओर उसे ग्रहण भी करती है। वायुमंडल में बिखरी हुई असंख्य विचार तरंगें और भाव तरंगें शिखा के माध्यम से ही मनुष्य के मस्तिष्क में प्रविष्ट होती हैं। कहने की आवश्यकता नहीं, हमारा मस्तिष्क एक प्रकार से रिसीविंग और ब्रॉडकास्टिंग सेंटर का कार्य शिखारूपी एंटीना या एरियल के माध्यम से करता है। मुख्य मस्तिष्क( सेरिब्रम) के बाद लघु 

मस्तिष्क(सेरिबेलम) है और ब्रह्मरंध्र के ठीक नीचे अधो मस्तिष्क (मेडुला एबलोंगेटा) की स्थिति है जिसके साथ एक 'मेडुला' नामक अंडाकार पदार्थ संयुक्त है। वह मस्तिष्क के भीतर विद्यमान एक तरल पदार्थ में तैरता रहता है। मेरूमज्जा का अन्त इसी अंडाकार पदार्थ में होता है। यह पदार्थ अत्यन्त रहस्यमय है। आज के वैज्ञानिक भी इसे समझ नहीं सके हैं। बाहर से आने वाली परिदृश्यमान शक्तियां अधो मस्तिष्क से होकर इसी अंडाकार पदार्थ से टकराती हैं और योग्यतानुसार मानवीय विचारों, भावनाओं, अनुभूतियों में स्वतः परिवर्तित होकर बिखर जाती हैं।

योगसाधना की दृष्टि से मुख्य मस्तिष्क आकाश है। मनुष्य जो कुछ देखता है, कल्पना करता है, स्वप्न देखता है--यह सारा अनुभव उसको इसी आकाश में करना पड़ता है....


मां प्रत्यंगिरा कालिका अलयम ।।

यह एक मंदिर है जो मोरनपल्ली, होसुर, तमिलनाडु में स्थित है । यह सबसे बड़ी है प्रत्यङ्गिरा प्रतिमा है और राजगोपुरम मंदिर पर है। वर्तमान में मंदिर का निर्माण अभी भी किया जा रहा है। मंदिर में सप्ताहांत और सप्ताह के दिनों में कई लोग रहते हैं। मंदिर की पूजा करते हैं, प्रत्यङ्गिरा , सराबेस्वरा , नरसिंह , और मरियम्मा का !

प्रत्यंगिरा एक हिन्दू देवी हैं। इनका सिर सिंह का है और शेष शरीर नारी का है। प्रत्यंगिरा शक्ति स्वरूपा हैं। वे विष्णु, रुद्र तथा दुर्गा देवी के एकीकृत रूप हैं। आदि पराशक्ति महादेवी का यह तीव्र रूप महादेव के शरभ अवतार की शक्ति है। प्रभु नरसिंह और प्रभु शरभ में हो रहे भीषण युद्ध पर इन्होंने ही रोक लगाई थी। दोनों के शक्तियों को स्वयं में समा कर देवी ने ही दोनों के क्रोध को शांत किया। उन्हें अपराजिता तथा निकुम्बला के नाम से भी जाना जाता हैं। रावण के कुल की आराध्या देवी प्रत्यंगिरा ही थी।

हरि और हर अर्थात विष्णु और शिव, दोनों की शक्ति के निष्पादक होने के लिए शास्त्रों ने उन्हें देवी की उत्पत्ति का श्रेय दिया है। शास्त्रों में, जब भगवान नारायण ने भगवान नरसिंह का तमस अवतार लिया, तो वे अपने हाथों से हिरणकश्यप का वध करने के बाद भी शांत नहीं हुए। आंतरिक आवेग और क्रोध ने नरसिंह को उस युग के हर नकारात्मक सोच वाले व्यक्ति का अंत करने के अपने आग्रह को नियंत्रित नहीं करने दिया। वे अजेय भी थे।

देवताओं ने नरसिंह अवतरण को शांत करने के लिए भगवान शिव से दया की प्रार्थना की। अनाथों के स्वामी, महादेव ने तब शरभ का रूप धारण किया, जो आधा सिंह और आधा पक्षी था। वे दोनों बड़े पैमाने पर और लंबे समय तक बिना किसी परिणाम के साथ लड़ते रहे। हरि और हर के बीच के युद्ध को रोकना असंभव प्रतीत हो रहा था, इसलिए देवताओं ने देवी महाशक्ति महा योगमाया दुर्गा का आह्वान किया, जो अपने मूल रूप में भगवान शिव की पत्नी हैं तथा उनके पास नारायण को योगनिद्रा में विलीन करने की व्यापक क्षमता भी थी क्योंकि वे स्वयं योगनिद्रा हैं।

देवी महामाया ने फिर आधे सिंह और आधे मानव का देह धारण किया। देवी उनके सामने इस तीव्र स्वरूप में प्रकट हुई और अपने प्रचण्ड हुंकार से उन दोनों को स्तब्ध कर दिया, जिससे उन दोनों के बीच का भीषण युद्ध समाप्त हो गया और सृष्टि से प्रलय का संकट टल गया।
देवी प्रत्यंगिरा नारायण तथा शिव की संयुक्त विनाशकारी शक्ति रखती है और शेर और मानव रूपों का यह संयोजन अच्छाई और बुराई के संतुलन का प्रतिनिधित्व करता है। देवी को अघोर लक्ष्मी, सिद्ध लक्ष्मी, पूर्ण चन्डी, अथर्वन भद्रकाली, आदि नामों से भी भक्तों द्वारा संबोधित किया जाता है।


संत दर्शन करते वक़्त निम्न बातों का ध्यान रखें !!

 बिना आज्ञा लिए किसी भी संत के पैर न छुएं उन्हें दूर से ही पंचांग प्रणाम करें !!

 किसी भी संत से किसी भी प्रकार की निन्दा अथवा बुराई ना करें !!

किसी भी संत के दर्शन करने जाएं तो कुछ फल, किसी मंदिर का प्रसाद या प्रसादी माला लेकर जाएं! मिठाई के डिब्बे, बिस्किट्स, चॉकलेट आदि ना ले जाएं !!

 किसी भी संत को यदि आप सेवा (धन रूप) में देना चाहते हैं तो आज्ञा लेकर संत के आस पास जो भी स्थान हो वहां रख दें, उनके हाथ में न दें !!

किसी भी संत की ऐसे सेवा करें जिससे उनके भजन में वृद्धि हो ! संतों को विलासिता (जैसे मोबाइल या चांदी का अगरबत्ती स्टैंड) की वस्तुएं आदि न दें !!

 यदि कोई संत सो रहे हों या प्रसाद पा रहे हों तो उन्हें प्रणाम नहीं करना चाहिए !!

संत से या वैष्णव से मिलते वक़्त उनसे अगली बार मिलने के लिए उपयुक्त समय ले लें !!

ध्यान रहे संत के सामने न तो सोयें न ही कुछ खायें न ही

 झूठन फैलायें !!

 संत के यहां जाने पर अपने झूठे बर्तन धोकर वापिस रखें !

विष्णु भगवान ने पृथ्वी को किस समुद्र से निकाला था, जबकि समुद्र पृथ्वी पर ही है?

बचपन से मेरे मन मे भी ये सवाल था कि आखिर कैसे पृथ्वी को समुद्र में छिपा दिया जबकि समुद पृथ्वी पर ही है। हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया था। फलस्वरूप भगवान बिष्णु ने सूकर का रूप धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया और पृथ्वी को पुनः उसके कच्छ में स्थापित कर दिया।
इस बात को आज के युग में एक दंतकथा के रूप में लिया जाता था। लोगों का ऐसा मानना था कि ये सरासर गलत और मनगढंत कहानी है। लेकिन नासा के एक खोज के अनुसार
खगोल विज्ञान की दो टीमों ने ब्रह्मांड में अब तक खोजे गए पानी के सबसे बड़े और सबसे दूर के जलाशय की खोज की है। उस जलाशय का पानी, हमारी पृथ्वी के समुद्र के 140 खरब गुना पानी के बराबर है। जो 12 बिलियन से अधिक प्रकाश-वर्ष दूर है। जाहिर सी बात है कि उस राक्षस ने पृथ्वी को इसी जलाशय में छुपाया होगा।
इसे आप "भवसागर" भी कह सकते हैं। क्योंकि हिन्दू शास्त्र में भवसागर का वर्णन किया गया है।
जब मैंने ये खबर पढ़ा तो मेरा भी भ्रम दूर हो गया। और अंत मे मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहुँगा की जो इस ब्रह्मांड का रचयिता है, जिसके मर्जी से ब्रह्मांड चलता है। उसकी शक्तियों की थाह लगाना एक तुच्छ मानव के वश की बात नही है। मानव तो अपनी आंखों से उनके विराट स्वरूप को भी नही देख सकता।
जिस किसी को इसका स्रोत जानना है वो यहाँ से देख सकते हैं
कुछ बेवकूफ जिन्हें ये लगता है कि हमारा देश और यहाँ की सभ्यता गवांर है। जिन्हें लगता है कि नासा ने कह दिया तो सही ही होगा। जिन्हें ये लगता है की भारत की सभ्यता भारत का धर्म और ज्ञान विज्ञान सबसे पीछे है। उनके लिये मैं बता दूं कि सभ्यता, ज्ञान, विज्ञान, धर्म, सम्मान भारत से ही शुरू हुआ है। अगर आपको इसपर भी सवाल करना है तो आप इतिहास खंगाल कर देखिये। जिन सभ्यताओं की मान कर आप अपने ही धर्म पर सवाल कर रहे हैं उनके देश मे जाकर देखिये। उनके भगवान तथा धर्म पर कोई सवाल नही करता बल्कि उन्होंने अपने धर्म का इतना प्रचार किया है कि मात्र 2000 साल में ही आज संसार मे सबसे ज्यादा ईसाई हैं। और आप जैसे बेवकूफों को धर्मपरिवर्तन कराते हैं। और आप बेवकूफ हैं जो खुद अपने ही देश और धर्म पर सवाल करते हैं। अगर उनकी तरह आपके भी पूर्वज बंदर थे तो आप का सवाल करना तथा ईश्वर पर तर्क करना सर्वदा उचित है।
     कौन होता है नासा जो हमे ये बताएगा कि आप सही हैं या गलत। हिन्दू धर्म कितना प्राचीन है इसका अनुमान भी नही लगा सकता नासा। जब इंग्लैंड में पहला स्कूल खुला था तब भारत में लाखों गुरुकुल थे। और लाखों साल पहले 4 वेद और 18 पुराण लिखे जा चुके थे। जब भारत मे प्राचीन राजप्रथा चल रही थी तब ये लोग कपड़े पहनना भी नही जानते थे। तुलसीदास जी ने तब सूर्य के दूरी के बारे में लिख दिया था जब दुनिया को दूरी के बारे में ज्ञान ही नही था। खगोलशास्त्र के सबसे बड़े वैज्ञानिक आर्यभट्ट जो भारत के थे। उन्होंने दुनिया को इस बात से अवगत कराया कि ब्रह्मांड क्या है, पृथ्वी का आकार और व्यास कितना है। और आज अगर कुछ मूर्ख विदेशी संस्कृति के आगे भारत को झूठा समझ रहे हैं तो उनसे बड़ा मूर्ख और द्रोही कोई नही हो सकता। ये अपडेट करना आवश्यक हो गया था। जिनके मन मे ईश्वर के प्रति शंका है। 

जो वेद और पुराणों को बस एक मनोरंजन का पुस्तक मानते हैं। उनके लिए शास्त्र कहता है:-
बिष्णु विमुख इसका अर्थ है भगवान विष्णु के प्रति प्रीति नहीं रखने वाला, अस्नेही या विरोधी। इसे ईश्‍वर विरोधी भी कहा गया है। ऐसे परमात्मा विरोधी व्यक्ति मृतक के समान है। ऐसे अज्ञानी लोग मानते हैं कि कोई परमतत्व है ही नहीं। जब परमतत्व है ही नहीं तो यह संसार स्वयं ही चलायमान है। हम ही हमारे भाग्य के निर्माता है। हम ही संचार चला रहे हैं। हम जो करते हैं, वही होता है। अविद्या से ग्रस्त ऐसे ईश्‍वर विरोधी लोग मृतक के समान है जो बगैर किसी आधार और तर्क के ईश्‍वर को नहीं मानते हैं। उन्होंने ईश्‍वर के नहीं होने के कई कुतर्क एकत्रित कर लिए हैं।

दिन और रात का सही समय पर होना। सही समय पर सूर्य अस्त और उदय होना। पेड़ पौधे, अणु परमाणु तथा मनुष्य की मस्तिष्क की कार्यशैली का ठीक ढंग से चलना ये अनायास ही नही हो रहा है। जीव के अंदर चेतना कहाँ से आता है, हर प्राणी अपने जैसा ही बीज कैसे उत्पन्न करता है, शरीर की बनावट उसके जरूरत के अनुसार ही कैसे होता है? बिना किसी निराकार शक्ति के ये अपने आप होना असंभव है। और अगर अब भी ईश्वर और वेद पुराण के प्रति तर्क करना है तो उसके जीवन का कोई महत्व नही है।


गुरु प्राणश्चेतना मंत्र ।।

   एक ऐसा मंत्र, एक ऐसी विद्या जिसके अभ्यास मात्र से साधक में गुरु तत्व का जागरण होने लगता है । गुरु की सत्ता से साधक की चेतना जुड़ने लग जाती है और वह गुरु से संबंधित उन तथ्यों और ज्ञान को प्राप्त करने लग जाता है जो किसी भी साधना से संभव है ही नहीं ।

मेरा अपना अनुभव ये रहा है कि अगर साधक इस मंत्र के मात्र 1008 पाठ संपन्न कर ले, तो साधक का चेतना स्तर इतना ऊपर उठ जाता है कि वह गुरु की सूक्ष्म उपस्थिति का भी आभास कर पाता है । जो श्रेष्ठ साधक हैं वह इस मंत्र का नित्य प्रतिदिन 11 या 21 बार तो अभ्यास करते ही हैं । इस मंत्र के प्रयोग से साधक को गुरु से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मार्गदर्शन मिलता ही है ।

ये हमारे जीवन का सौभाग्य है कि गुरु प्रेरणा से इस अत्यंत दुर्लभ मंत्र को आज आप सबके लिए पोस्ट किया जा रहा है । ऋषियों के इस दुर्लभ और महत्वपूर्ण ज्ञान को हमें न सिर्फ अपने जीवन में स्थान देना चाहिये बल्कि अपने स्वजनों और बच्चों को भी इस मंत्रों का अभ्यास कराना चाहिए ।

 गुरु प्राणश्चेतना मंत्र

।। ॐ पूर्वाह सतां सः श्रियै दीर्घो येताः वदाम्यै स रुद्रः स ब्रह्मः स विष्णवै स चैतन्य आदित्याय रुद्रः वृषभो पूर्णाह समस्तेः मूलाधारे तु सहस्त्रारे, सहस्त्रारे तु मूलाधारे समस्त रोम प्रतिरोम चैतन्य जाग्रय उत्तिष्ठ प्राणतः दीर्घतः एत्तन्य दीर्घाम भूः लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, मह लोक, जन लोक, तप लोक, सत्यम लोक, मम शरीरे सप्त लोक जाग्रय उत्तिष्ठ चैतन्य कुण्डलिनी सहस्त्रार जाग्रय ब्रह्म स्वरूप दर्शय दर्शय जाग्रय जाग्रय चैतन्य चैतन्य त्वं ज्ञान दृष्टिः दिव्य दृष्टिः चैतन्य दृष्टिः पूर्ण दृष्टिः ब्रह्मांड दृष्टिः लोक दृष्टिः अभिर्विह्रदये दृष्टिः त्वं पूर्ण ब्रह्म दृष्टिः प्राप्त्यर्थम, सर्वलोक गमनार्थे, सर्व लोक दर्शय, सर्व ज्ञान स्थापय, सर्व चैतन्य स्थापय, सर्वप्राण, अपान, उत्थान, स्वपान, देहपान, जठराग्नि, दावाग्नि, वड वाग्नि, सत्याग्नि, प्रणवाग्नि, ब्रह्माग्नि, इन्द्राग्नि, अकस्माताग्नि, समस्तअग्निः, मम शरीरे, सर्व पाप रोग दुःख दारिद्रय कष्टः पीडा नाशय – नाशय सर्व सुख सौभाग्य चैतन्य जाग्रय, ब्रह्मस्वरूपं स्वामी परमहंस निखिलेश्वरानंद शिष्यत्वं, स-गौरव, स-प्राण, स-चैतन्य, स-व्याघ्रतः, स-दीप्यतः, स-चंन्द्रोम, स-आदित्याय, समस्त ब्रह्मांडे विचरणे जाग्रय, समस्त ब्रह्मांडे दर्शय जाग्रय, त्वं गुरूत्वं, त्वं ब्रह्मा, त्वं विष्णु, त्वं शिवोहं, त्वं सूर्य, त्वं इन्द्र, त्वं वरुण, त्वं यक्षः, त्वं यमः, त्वं ब्रह्मांडो, ब्रह्मांडोत्वं मम शरीरे पूर्णत्व चैतन्य जाग्रय उत्तिष्ठ उत्तिष्ठ पूर्णत्व जाग्रय पूर्णत्व जाग्रय पूर्णत्व जाग्रयामि ।।

चूंकि, मंत्र बड़ा है और अत्यंत ही प्रभावशाली है तो प्रतिदिन मात्र 11 या 21 बार इसका अभ्यास पर्याप्त रहता है । जो, साधक नये हैं उनको इसका 1, 3, 5 या 7 बार से प्रारंभ करना चाहिए।