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उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों में से एक गंगोत्री धाम की कथा ।।

श्रद्धालु यहां गंगा स्नान करके मां के दर्शन और पव‌ित्र भाव से केदारनाथ को अर्प‌ित करने ल‌िए जल लेते हैं। गंगोत्री समुद्र तल से ९,९८० (३,१४० मी.) फीट की ऊंचाई पर स्थित है। गंगोत् से ही भागीरथी नदी निकलती है। गंगोत्री भारत के पवित्र और आध्‍यात्मिक रूप से महत्‍वपूर्ण नदी गंगा का उद्गगम स्‍थल भी है। 

गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा भागीरथ के नाम पर इस नदी का नाम भागीरथी रखा गया। कथाओं में यह भी कहा गया है कि राजा भागीरथ ने ही तपस्‍या करके गंगा को पृथ्‍वी पर लाए थे। गंगा नदी गोमुख से निकलती है।

पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि सूर्यवंशी राजा सागर ने अश्‍वमेध यज्ञ कराने का फैसला किया। इसमें इनका घोड़ा जहां-जहां गया उनके ६०,००० बेटों ने उन जगहों को अपने आधिपत्‍य में लेता गया। इससे देवताओं के राजा इंद्र चिंतित हो गए।

 ऐसे में उन्‍होंने इस घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सागर के बेटों ने मुनिवर का अनादर करते हुए घोड़े को छुड़ा ले गए। इससे कपिल मुनि को काफी दुख पहुंचा। उन्‍होंने राजा सागर के सभी बेटों को शाप दे दिया जिससे वे राख में तब्‍दील हो गए।

 राजा सागर के क्षमा याचना करने पर कपिल मुनि द्रवित हो गए और उन्‍होंने राजा सागर को कहा कि अगर स्‍वर्ग में प्रवाहित होने वाली नदी पृथ्‍वी पर आ जाए और उसके पावन जल का स्‍पर्श इस राख से हो जाए तो उनका पुत्र जीवित हो जाएगा। लेकिन राजा सागर गंगा को जमीन पर लाने में असफल रहे। बाद में राजा सागर के पुत्र भागीरथ ने गंगा को स्‍वर्ग से पृथ्‍वी पर लाने में सफलता प्राप्‍त की। 

गंगा के तेज प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए भागीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया। फलत: भगवान शिव ने गंगा को अपने जटा में लेकर उसके प्रवाह को नियंत्रित किया। इसके उपरांत गंगा जल के स्‍पर्श से राजा सागर के पुत्र जीवित हुए।

ऐसा माना जाता है कि १८वीं शताबादि में गोरखा कैप्‍टन अमर सिंह थापा ने आदि शंकराचार्य के सम्‍मान में गंगोत्री मंदिर का निर्माण किया था। यह मंदिर भागीरथी नदी के बाएं किनारे पर स्थित सफेद पत्‍थरों से निर्मित है। इसकी ऊंचाई लगभग २० फीट है। मंदिर बनने के बाद राजा माधोसिंह ने १९३५ में इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया।

 फलस्‍वरूप मंदिर की बनावट में राजस्‍थानी शैली की झलक मिल जाती है। मंदिर के समीप 'भागीरथ शिला' है जिसपर बैठकर उन्‍होंने गंगा को पृथ्‍वी पर लाने के लिए कठोर तपस्‍या की थी। इस मंदिर में देवी गंगा के अलावा यमुना, भगवान शिव, देवी सरस्‍वती, अन्‍नपुर्णा और महादुर्गा की भी पूजा की जाती है।

हिंदू धर्म में गंगोत्री को मोक्षप्रदायनी माना गया है। यही वजह है कि हिंदू धर्म के लोग चंद्र पंचांग के अनुसार अपने पुर्वजों का श्राद्ध और पिण्‍ड दान करते हैं। मंदिर में प्रार्थना और पूजा आदि करने के बाद श्रद्धालु भगीरथी नदी के किनारे बने घाटों पर स्‍नान आदि के लिए जाते हैं।

 तीर्थयात्री भागीरथी नदी के पवित्र जल को अपने साथ घर ले जाते हैं। इस जल को पवित्र माना जाता है तथा शुभ कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। गंगोत्री से लिया गया गंगा जल केदारनाथ और रामेश्‍वरम के मंदिरों में भी अर्पित की जाती है।

मंदिर का समय: सुबह 6.15 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 9.30 तक (गर्मियों में)। सुबह 6.45 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 7 बजे तक (सर्दियों में)।

मंदिर अक्षय तृतीया (मई) को खुलती है और यामा द्वितीया को बंद होती है। मंदिर की गतिविधि तड़के चार बजे से शुरू हो जाती है। सबसे पहले 'उठन' (जागना) और 'श्रृंगार' की विधि होती है जो आम लोगों के लिए खुला नहीं होता है। 

सुबह 6 बजे की मंगल आरती भी बंद दरवाजे में की जाती है। 9 बजे मंदिर के पट को 'राजभोग' के लिए 10 मिनट तक बंद रखा जाता है। सायं 6.30 बजे श्रृंगार हेतु पट को 10 मिनट के लिए एक बार फिर बंद कर दिया जाता है। इसके उपरांत शाम 8 बजे राजभोग के लिए मंदिर के द्वार को 5 मिनट तक बंद रखा जाता है।

 ऐसे तो संध्‍या आरती शाम को 7.45 बजे होती है लेकिन सर्दियों में 7 बजे ही आरती करा दी जाती है। तीर्थयात्रियों के लिए राजभोग, जो मीठे चावल से बना होता है, उपलब्‍ध रहता है (उपयुक्‍त शुल्‍क अदा करने के बाद)।

तीर्थयात्री प्राय: गनगनानी के रास्‍ते गंगोत्री जाते हैं। यह वही मार्ग है जिसपर पराशर मुनि का आश्रम था जहां वे गर्म पानी के सोते में स्‍नान करते थे। गंगा के पृथ्‍वी आगमन पर (गंगा सप्‍तमी) वैसाख (अप्रैल) में विशेष श्रृंगार का आयोजन किया जाता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार जिस दिन भगवान शिव ने भागिरथी नदी को भागीरथ को प्र‍स्‍तुत किया था उस दिन को (ज्‍येष्‍ठ, मई) गंगा दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। इसके अलावा जन्‍माष्‍टमि, विजयादशमी और दिपावली को भी गंगोत्री में विशेष रूप से मनाया जाता है।

जीवन में सफलता पाने के लिए अपनाएं गीता के 5 उपदेश ।।

 ---- श्रीमदभगवत् गीता का हर एक श्लोक जीवन के अलग-अलग पक्षों में आपका मार्गदर्शन करता है। हम आपको गीता के पांच ऐसे उपदेश बताते हैं जिन्हें अपनाकर आप अपने जीवन में सफलता हासिल कर सकते हैं।

---- महाभारत के युद्ध में जब अर्जुन दुविधा में थे। मन संशय में घिरा हुआ था। कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें जीवन दर्शन का ऐसा रास्ता दिखाया, जो पूरी दुनिया के लिए प्रेरणास्रोत है। इसे श्रीमदभगवत् गीता के नाम से जाना जाता है। इस ग्रंथ का हर एक श्लोक जीवन के अलग-अलग पक्षों में आपका मार्गदर्शन करता है। हम आपको गीता के ऐसे पांच उपदेश बताते हैं, जिन्हें अपनाकर आप अपने जीवन में सफलता हासिल कर सकते हैं।

कर्म में विश्वास

---- गीता का उपदेश है कि हर व्यक्ति को कर्म में विश्वास करना चाहिए क्योंकि ये जगत ही कर्मलोक है। कर्म आपके हाथ में है, परिणाम नहीं,.इसलिए कर्म पर ध्यान लगाएं। कर्म के अनुरूप परिणाम तय है।

 मोह और माया का त्याग करें

---- भगवान कृष्ण कहते हैं कि इंसान हर वक्त अपनी कामनाओं और इच्छाओं में डूबा रहा है और यही उसके सभी दुखों का कारण है। अगर वो इससे मुक्त होकर अपना कर्तव्य निभाए, तभी उसका जीवन सार्थक होगा।

बुद्धि का नाश करता है क्रोध

---- गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि शांत चित्त में भगवान का वास है। जब मनुष्य पर क्रोध छाता है तो उसकी बुद्धि सही निर्णय नहीं ले पाती, इसलिए क्रोध का त्यागकर व्यक्ति को जीवन के लक्ष्यों की तरफ बढ़ना चाहिए।

समभाव में सुख

---- भगवान कृष्ण व्यक्ति को हर परिस्थितियों में एक सा रहने की सीख देते हैं। गीता में कहा गया है कि सुख और दुख में व्यक्ति को एक जैसे ही रहना चाहिए क्योंकि कोई भी स्थिति स्थायी नहीं रहती है।

इंद्रियों पर वश से विजय

--- गीता में कहा गया है कि क्रोध, लोभ, मोह ये सब मानवीय इंद्रियों के दोष हैं। जो मनुष्य अपनी इंद्रियों और मन पर नियंत्रण करता है, उसकी सफलता निश्चित है।

MUDRA PRACTICE ।।

Our body is a mini world made of five elements, Agni (Fire), Vayu (Air), Akasha (Aether), Bhumi (Earth) and Jala (Water); and when there is disturbance in these elements, it can lead to an imbalanced mind and cause our body to suffer from diseases. 

While it can be restored with the physical postures, drawn to bring awareness to the body and mind, there is more in all yoga styles that can help us balance all these elements within ourselves. Such is the case of the Mudras.

What is a Mudra?

To put it simply, a Mudra is a hand gesture that guides the energy flow to specific areas of the brain. There are many types of Mudras designed to bring different benefits, depending on what we specifically need. They are done in conjunction with breathing to increase the flow of Prana in the body. By practicing it, a connection is developed with the patterns in the brain that influences the unconscious reflexes in the different areas. The internal energy is, in turn, balanced and redirected, creating an impact on the sensory organs, tendons and glands veins.

Gyan Mudra (Mudra of Knowledge)

This Mudra gives rise to the root chakra reducing tension and depression. This pose is quite calming and spiritually awakening. It stimulates the air element in the body, which ultimately leads to an increase in the memory power, nervous system and pituitary gland production. It increases the level of concentration, builds mental power and sharpens the brain. If done regularly, your mental and psychological disorders such as anger, stress, anxiety depression and even insomnia can be improved considerably.

How to do it:

This pose is performed by touching the index finger with the thumb while keeping the other three fingers straight. It is best to perform this pose in the early morning for 30 to 40 minutes at a stretch.


दिशाशूल ।।

यात्रा एक ऐसा शब्द है जो कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में प्रयोग होता है. यात्रा कभी सुखदायी होती है तो कभी इतनी यातनाएं यात्रा में मिलती है कि व्यक्ति सोचता है कि यह यह यात्रा, यात्रा नहीं यातना थी. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हम कभी भी यात्रा में जाने से पहले शकुन और दिशा शूल का विचार नहीं करते, फलस्वरूप कभी सफल हो जाते है तो कभी हमें असफलता का मुंह देखना पडता है. शास्त्र और ऋषि मुनियों का अनुभव कहता है कि दिशा शूल के समय यात्रा करने से यात्रा सफल नहीं होती है. तथा यात्रा मार्ग में विभिन्न परेशानियों का सामना करना पडता है.दिशा शूल होने पर यात्रा यथासंभव स्थगित कर देनी चाहिए या उसका परिहार कर देना चाहिए।

सोमवार और शनिवार को पूर्व दिशा कि ओर यात्रा में दिशा शूल होता है।

मंगलवार और बुधवार को उत्तर दिशा कि ओर यात्रा में दिशा शूल होता है।

रविवार और शुक्रवार को पश्चिम दिशा कि ओर यात्रा में दिशा शूल होता है।

सोमवार और वृहस्पतिवार को आग्नेय (दक्षिण-पूर्व कोण) दिशा कि ओर यात्रा में दिशा शूल होता है।

बुधवार और शुक्रवार को ईशान (पूर्व-उत्तर कोण) दिशा कि ओर यात्रा में दिशा शूल होता है।

इसलिए उपरोक्त दिशा और उपदिशाओं में यात्रा नहीं करनी चाहिए. विस्तार के लिए निम्न तालिका पर ध्यान रखे।

पूर्व सोमवार, शनिवार,
ईशान (उत्तर-पूर्व) बुधवार, शुक्रवार,
उत्तर बुधवार, मंगलवार,
वायव्य (उत्तर-पश्चिम)
मंगलवार,
पश्चिम रविवार, शुक्रवार,
नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम)
रविवार,
शुक्रवार,
दक्षिण वृहस्पतिवार,
आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) सोमवार, वृहस्पतिवार,

शास्त्रानुसार दिशा शूल हमेशा पीठ का या बांया लेना श्रेष्ठ रहता है. सम्मुख और दाहिना कभी भी भूल कर भी ना लें.इसके बारे में लिखा गया है कि..

दिशा शूल ले जाओ बामे
राहू योगिनी पूठ,!
सन्मुख लेवें चंद्रमा
लावे लक्ष्मी लूट !!

यदि यात्रा करनी अति आवश्यक हो, और उस दिन दिशा शूल हो तो उन वस्तुओं को खा कर यात्रा करने से दिशा शूल का दोष का फल न्यून हो जाता है. और कार्य सिद्धि होने लगती है, जिस कार्य के लिए हम यात्रा पर निकले है वह कार्य बिना किसी बाधा के पूर्ण हो जाता है।

इसके लिए प्रत्येक वार की वस्तुएं निम्न है..

रविवार को पान खाकर यात्रा पर जाना चाहिए.

सोमवार को यात्रा पर जाने से पहले दर्पण देख कर ही घर से निकलना चाहिए.

मंगलवार को यात्रा से पूर्व धनिया खाए, तो यात्रा सुखपूर्वक होगी.

बुधवार को गुड़ खाएं.

वृहस्पतिवार को दही खा कर यात्रा पर निकलना चाहिए.

शुक्रवार को राई खा कर जाए.

शनिवार को बायविडिंग खा कर यात्रा करने से लाभ प्राप्त होता है।

यह तो मुख्य दिशाओं के दिशा शूल का परिहार था लेकिन उपदिशाओं में यात्रा करने के लिए भी शास्त्र में उपाय दिए है कि 
रविवार को चन्दन का तिलक, 
सोमवार को दही का तिलक, 
मंगलवार को मिट्टी का तिलक, 
बुधवार को घी का तिलक, 
वृहस्पतिवार को आटे का तिलक, 
शुक्रवार को तिल खा कर 
और शनिवार को खल खा कर यात्रा करने से उपदिशा का दिशा शूल नहीं लगता है।

दिशा शूल के निवारन के लिए लोकाचार के नियमों का पालन अवश्य करें. जो व्यक्ति प्रतिदिन अपनी नौकरी या व्यवसाय के लिए यात्रा करते है. वह भी इस बात का ध्यान रखे कि घर से निकलते समय नासिका (नाक) का जो स्वर चलता हो, उसी तरफ का पैर आगे रख कर यात्रा में निकलने से सभी दिशा शूल का दोष समाप्त हो जाता है. तथा प्रत्येक व्यक्ति जब भी यात्रा करनी हो उसू समय का नासिका का जो स्वर चल रहा हो और उसी तरफ का पैर आगे बढ़ा कर यात्रा में निकलता है तो दिशा शूल का प्रभाव मिट जाता है।


पवित्रता की शक्ति की अनिवार्यता ।।

      वास्तव में ब्रह्मचर्य से अभिप्राय मन्सा, वाचा, कर्मना पूर्णत्या पवित्र रहने से है। लेकिन फिर भी आज इस विसय का गहराई से स्पष्टीकरण करते हैं।_

          वास्तव में मनुष्य की पवित्रता से अभिप्राय उसकी रज शक्ति के क्षीण होने से रुक जाने से है। जब हम काम विकार का त्याग करते है तो रज क्षीण होने से रुक जाता है जिससे यही रज शक्ति रीढ़ की हड्डी के बीच में से जाने वाली सुषुम्ना नाड़ी तथा उसके दोनों ओर साथ साथ मस्तिष्क तक जाने वाली इडा और पिंगला नाड़ी को पोषित कर भिरकुटि से भी ऊपर मध्य मस्तिष्क तक पहुचती है। और जहाँ पर भी ये सूक्ष्म नाडिया आपस में भेदन करती है वही पर एक ऊर्जा चक्र का निर्माण करती है। हमारे शरीर में ऐसे 7 बड़े ऊर्जा केंद्र है। जो की पवित्रता(रज) की शक्ति को एकत्रित कर परमात्मा से योग लगाने से सहज ही जागृत हो जाते है। और हमारे शरीर की अवस्थाये और हमारे मन की अवस्थाये इन ऊर्जा चक्रों के द्वारा प्रभावित होती है। यदि चक्रों की ऊर्जा क्षीण हो जाती है तो भय, शोक, अनिंद्रा, डिप्रेशन, दुःख, मन की निक्रिस्टता, मनोबल की कमी आदि से व्यक्ति प्रभावित हो जाता है। यदि हम परमात्मा से योग लगाए और पवित्रता की शक्ति नही है तो इनको जागृत करना संभव नही। और यदि कुछ समय के लिए कोई अपनी शक्ति के ट्रान्सफर द्वारा आपके इन ऊर्जा चक्रों को जागृत कर भी दे तो कुछ ही दिन बाद ये फिर से डीएक्टिवेट हो जाएंगे। अर्थात इनके जागृत रहने के लिए पवित्रता की शक्ति परम आवयशक है। जब हम पवित्रता की शक्ति को धारण कर परमात्मा से योग लगाते है तो यह शक्ति ऊपर की ओर बढ़ती हुई मस्तिस्क के मध्य में ऊपर तक जाती है और एक ऊर्जा चक्र सहस्त्रार, यानि की हजार पंखुड़ियों के कमल के खिल जाने जैसा परम शान्ति का अनुभव कराती है । इसी चक्र के रास्ते परमात्मा से आने वाली कॉस्मिक पॉवर हमारे शरीर में प्रवेश कर हमको अनंत शक्तियो की प्राप्ति का अनुभव कराती है और शरीर के सारे रोग और कस्ट समाप्त होने लगते है। मस्तिस्क पूर्ण विकसित होने लगता है। आप अपने आपको पूर्व से कई गुना विकशित और एनर्जी से भरपूर अनुभव करते है। यदि आप यह पवित्रता नही अपनाते तो परमात्मा से आने वाली कॉस्मिक एनर्जी का कुछ % ही आप ग्रहण कर पाएंगे। जिससे की पूरा चार्ज न होने की वजह से रोग, नेगेटिव एनर्जी आपको घेर लेते है जिससे आप बहुत दुखी और अशांत अनुभव करते है। तो पवित्रता सर्व सुखो की खान है।_

           हम जानते हैं की मनुष्य शरीर अस्थि, मांस, मज्जा, रक्त और लसीका से मिल कर बना है। जब भी मनुष्य विकार में जाता है तो सुक्र कोष में इकट्ठा हुआ रज सुक्र नाड़ियो से बहता है। जो रज नाड़ियो में संचित रह जाता है और वापिस नही जा पाता वह रज, रक्त कोशिकाओं द्वारा सोख कर रक्त में मिलता है और रक्त का शोधन गुर्दे और पसीने के द्वारा ही होता है यही कारण है की विकारी मनुष्य का शरीर ज्यादा दुर्गंधयुक्त हो जाता है। क्योकि उसका रज पसीने के रास्ते ऊपरी त्वचा तक पहुचता है। इसी कारण से विकारी पतित के हाथ का बना भोजन खाने को परहेज बताया है।हमको सच्चा सच्चा रास्ता बताया है। तो आपका भी कर्त्वय बनता है की ऐसे निस्वार्थ श्रीमत का पालन करना।

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