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पवित्रता की शक्ति की अनिवार्यता ।।

      वास्तव में ब्रह्मचर्य से अभिप्राय मन्सा, वाचा, कर्मना पूर्णत्या पवित्र रहने से है। लेकिन फिर भी आज इस विसय का गहराई से स्पष्टीकरण करते हैं।_

          वास्तव में मनुष्य की पवित्रता से अभिप्राय उसकी रज शक्ति के क्षीण होने से रुक जाने से है। जब हम काम विकार का त्याग करते है तो रज क्षीण होने से रुक जाता है जिससे यही रज शक्ति रीढ़ की हड्डी के बीच में से जाने वाली सुषुम्ना नाड़ी तथा उसके दोनों ओर साथ साथ मस्तिष्क तक जाने वाली इडा और पिंगला नाड़ी को पोषित कर भिरकुटि से भी ऊपर मध्य मस्तिष्क तक पहुचती है। और जहाँ पर भी ये सूक्ष्म नाडिया आपस में भेदन करती है वही पर एक ऊर्जा चक्र का निर्माण करती है। हमारे शरीर में ऐसे 7 बड़े ऊर्जा केंद्र है। जो की पवित्रता(रज) की शक्ति को एकत्रित कर परमात्मा से योग लगाने से सहज ही जागृत हो जाते है। और हमारे शरीर की अवस्थाये और हमारे मन की अवस्थाये इन ऊर्जा चक्रों के द्वारा प्रभावित होती है। यदि चक्रों की ऊर्जा क्षीण हो जाती है तो भय, शोक, अनिंद्रा, डिप्रेशन, दुःख, मन की निक्रिस्टता, मनोबल की कमी आदि से व्यक्ति प्रभावित हो जाता है। यदि हम परमात्मा से योग लगाए और पवित्रता की शक्ति नही है तो इनको जागृत करना संभव नही। और यदि कुछ समय के लिए कोई अपनी शक्ति के ट्रान्सफर द्वारा आपके इन ऊर्जा चक्रों को जागृत कर भी दे तो कुछ ही दिन बाद ये फिर से डीएक्टिवेट हो जाएंगे। अर्थात इनके जागृत रहने के लिए पवित्रता की शक्ति परम आवयशक है। जब हम पवित्रता की शक्ति को धारण कर परमात्मा से योग लगाते है तो यह शक्ति ऊपर की ओर बढ़ती हुई मस्तिस्क के मध्य में ऊपर तक जाती है और एक ऊर्जा चक्र सहस्त्रार, यानि की हजार पंखुड़ियों के कमल के खिल जाने जैसा परम शान्ति का अनुभव कराती है । इसी चक्र के रास्ते परमात्मा से आने वाली कॉस्मिक पॉवर हमारे शरीर में प्रवेश कर हमको अनंत शक्तियो की प्राप्ति का अनुभव कराती है और शरीर के सारे रोग और कस्ट समाप्त होने लगते है। मस्तिस्क पूर्ण विकसित होने लगता है। आप अपने आपको पूर्व से कई गुना विकशित और एनर्जी से भरपूर अनुभव करते है। यदि आप यह पवित्रता नही अपनाते तो परमात्मा से आने वाली कॉस्मिक एनर्जी का कुछ % ही आप ग्रहण कर पाएंगे। जिससे की पूरा चार्ज न होने की वजह से रोग, नेगेटिव एनर्जी आपको घेर लेते है जिससे आप बहुत दुखी और अशांत अनुभव करते है। तो पवित्रता सर्व सुखो की खान है।_

           हम जानते हैं की मनुष्य शरीर अस्थि, मांस, मज्जा, रक्त और लसीका से मिल कर बना है। जब भी मनुष्य विकार में जाता है तो सुक्र कोष में इकट्ठा हुआ रज सुक्र नाड़ियो से बहता है। जो रज नाड़ियो में संचित रह जाता है और वापिस नही जा पाता वह रज, रक्त कोशिकाओं द्वारा सोख कर रक्त में मिलता है और रक्त का शोधन गुर्दे और पसीने के द्वारा ही होता है यही कारण है की विकारी मनुष्य का शरीर ज्यादा दुर्गंधयुक्त हो जाता है। क्योकि उसका रज पसीने के रास्ते ऊपरी त्वचा तक पहुचता है। इसी कारण से विकारी पतित के हाथ का बना भोजन खाने को परहेज बताया है।हमको सच्चा सच्चा रास्ता बताया है। तो आपका भी कर्त्वय बनता है की ऐसे निस्वार्थ श्रीमत का पालन करना।

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बच्चे का मुण्डन संस्कार क्यों कराया जाता है ?

मुण्डन संस्कार को चूड़ाकरण संस्कार या चौलकर्म भी कहते है जिसका अर्थ है—वह संस्कार जिसमें बालक को चूड़ा अर्थात् शिखा दी जाए ।

बच्चे का मुण्डन संस्कार कराने के पीछे हमारे ऋषि-मुनियों की बहुत गहरी सोच थी । माता के गर्भ से आए सिर के बाल अपवित्रमाने गये हैं । इनके मुण्डन का उद्देश्य बालक की अपवित्रता को दूर कर उसे अन्य संस्कारों (वेदारम्भ, यज्ञ आदि) के योग्य बनाना है क्योंकि मुण्डन करते हुए यह कहा जाता है कि इसका सिर पवित्र हो, यह दीर्घजीवी हो। 
 
दूसरी बात गर्भ के बाल झड़ते रहते हैं जिससे शिशु के तेज की वृद्धि नहीं हो पाती है । इन केशों को मुंडवा कर शिखा रखी जाती है । कहीं-कहीं पर पहले मुण्डन में नहीं वरन् दूसरी बार के मुण्डन में शिखा छोड़ते हैं । शिखा से आयु और तेज की वृद्धि होती है । मुण्डन बालिकाओं का भी होता है, किन्तु उनकी शिखा नहीं छोड़ी जाती है ।
उत्तम, मध्यम व अधम श्रेणी का मुण्डन संस्कार
शास्त्रों में जन्मकालीन बालों का बच्चे के प्रथम, तीसरे या पांचवे वर्ष में या कुल की परम्परानुसार शुभ मुहुर्त में मुण्डन करने का विधान है । जन्म से तीसरे वर्ष में मुण्डन संस्कार उत्तम माना गया है । पांचवे या सातवें वर्ष में मध्यम और दसवें व ग्यारहवें वर्ष में मुण्डन संस्कार करना निम्न श्रेणी का माना जाता है ।
बच्चे का मुण्डन शुभ मुहुर्त में किसी देवी-देवता या कुल देवता के स्थान पर या पवित्र नदी के तट पर कराया जाता है । अपने गोत्र की परम्परानुसार मुण्डन करके बालों को नदी के तट पर या गोशाला में गाड़ दिया जाता है । कहीं-कहीं कुल देवता को ये बाल समर्पित कर फिर उन्हें विसर्जित किया जाता है मुण्डन करने के बाद बच्चे के सिर पर दही-मक्खन, मलाई या चंदन लगाया जाता है।
 कुछ लोग मुण्डन के बाद बालक को स्नान कराकर सिर पर सतिया (स्वास्तिक) बना देते हैं । मुण्डन में अपने परिवार की परम्परा और रीतियों के अनुसार ही पूजा-पाठ और दान-पुण्य व अन्य मांगलिक कार्य किए जाते हैं ।

यजुर्वेद (३।६३) में मुण्डन संस्कार पर एक श्लोक है जिससे स्पष्ट होता है कि मुण्डन संस्कार से बच्चे को कितने लाभ हैं—

‘नि वर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ।।’
 
अर्थात्—हे बालक ! मैं तेरे दीर्घायु के लिए, उत्पादन शक्ति प्राप्त करने के लिए,ऐश्वर्य वृद्धि के लिए, सुन्दर संतान के लिए, बल और पराक्रम प्राप्त करने के योग्य होने के लिए तेरा मुण्डन-संस्कार करता हूँ।

आचार्य चरक ने मुण्डन संस्कार का महत्व बताते हुए कहा है कि इससे बालक की आयु, पुष्टि, पवित्रता और सौन्दर्य में वृद्धि होती है ।

मुण्डन संस्कार के अनेक मन्त्रों का भी यही भाव है कि—‘सूर्य, इन्द्र, पवन आदि सभी देव तुझे दीर्घायु, बल और तेज प्रदान करें ।’
—मुण्डन संस्कार बालक के आयु, सौन्दर्य, तेज और कल्याण की वृद्धि के लिए किया जाता है । शुभ मुहूर्त में नाई से बच्चे का मुण्डन कराया जाता है और मर्मस्थान की सुरक्षा के लिए सिर के पिछले भाग में चोटी रखने का विधान है । बालक का मुण्डन कराने के बाद उसके सिर में मलाई या दही, मक्खन आदि की मालिश की जाती है जिससे मस्तिष्क के मज्जातन्तुओं को कोमलता, शीतलता और शक्ति प्राप्त होती है । आगे चलकर यही उसकी बुद्धि के विकास में सहायक होती है क्योंकि अच्छे स्वास्थ्य के लिए सिर ठण्डा होना चाहिए ।
—अधिकांशत: मुण्डन प्रथम या तीसरे वर्ष में किया जाता है । यह समय बच्चे के दांत निकलने का होता है । इसके कारण शरीर में कई तरह की परेशानियां होती हैं । बच्चे का शरीर निर्बल होकर उसके बाल झड़ने लगते हैं । हमारे शास्त्रकारो ने ऐसे समय में मुण्डन कराने का विधान बच्चे को अस्वस्थ होने से बचाने के लिए ही किया ।
—यह संस्कार त्वचा सम्बन्धी रोगों के लिए बहुत लाभकारी है। शिखा को छोड़कर शेष बालों को मूंड़ देने से शरीर का तापमान सामान्य हो जाता है और उस समय होने वाली फुंसी, दस्त आदि बीमारियों स्वयं कम हो जाती हैं । एक बार बाल मूंड़ देने के बाद बाल फिर झड़ते नहीं, वे बंध जाते हैं । इस प्रकार मुण्डन संस्कार का उद्देश्य बालक की स्वच्छता, पवित्रता, सौन्दर्य वृद्धि और पुष्टि है । मनुष्य की समस्त शारीरिक क्रियाओं का केन्द्र मस्तिष्क ही है । यदि मस्तिष्क स्वस्थ है तो मनुष्य सौ वर्ष तक दीर्घजीवी हो सकता है।

भारतीय सम्वत् अर्थात् नवसंवत्सर का ये है वैज्ञान‍िक पहलू ।।

अंग्रेजी कैलेण्डर सहित विश्व में अनेक कैलेण्डर (कालगणना) प्रचलित हैं जिसमें चीन, इजराइल और सऊदी अरब जैसे देशों का अपना अलग कैलेण्डर है लेकिन भारतीय कैलेण्डर (कालगणना) विश्व की एकमात्र कालगणना है, जिसका वैज्ञानिक आधार है। आज से लाखों वर्ष पहले हमारे ऋषि, मुनियों (उस समय के वैज्ञानिक) ने कालगणना के वैज्ञानिक आधार का इस प्रकार से अनुसंधान किया कि कोई भी आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सकता है।

--- वैसे तो भारतीय कालगणना लाखों वर्ष पुरानी है लेकिन वर्तमान में इसे सम्वत् के नाम से जाना जाता है, जिसका प्रारम्भ सम्राट विक्रमादित्य के समय से हुआ है। इसी कालगणना को युगाब्द के नाम से जाना जाता है, जिसका प्रारम्भ महाभारत के महाराज युधिष्ठिर के राज्याभिषेक से हुआ था। ‘इससे पूर्व इसी कालगणना को प्रभु श्री राम के नाम से जाना जाता रहा है जिसका प्रारम्भ प्रभु श्रीराम के राज्याभिषेक से हुआ था। इसी कालगणना को प्रभु श्रीराम से पूर्व उनके पूर्वज महाराज प्रथु के नाम से जाना जाता रहा है।’

--- ग्रह, नक्षत्र, उनकी गति और उनसे निकलने वाली तरंगों का पृथ्वी पर रहने वाले मानव और अन्य जीव जन्तुओं पर पड़ने वाले प्रभावों को आज का विज्ञान भी स्वीकार करता है। इन्हीं आधारों पर ही भारतीय कालगणना का निर्धारण किया गया है।

--- यह जानकर आज के वैज्ञानिक भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि लाखों वर्ष पहले भारत के वैज्ञानिकों ने किस प्रकार से वर्तमान दूरबीन आदि जैसे यन्त्रों के न होते हुए भी सटीक खोजें की है जिसमें आज तक कोई संशोधन नहीं हुआ है, जबकि अंग्रेजी कलैण्डर में मात्र दो हजार वर्ष की अवधि के दौरान चार बार संशोधन हो चुका है। हैरानी की बात तो यह है कि विज्ञान में अपने आपको सर्वोच्च मानने वाला पश्चिमी जगत आज तक वैज्ञानिक आधार पर कोई कलैण्डर नहीं बना पाया है।

--- लाखों वर्ष पूर्व भारत के ऋषि, मुनियों (वैज्ञानिकों) द्वारा यह अविष्कार किया गया था कि सूर्य ग्रह और चन्द्र ग्रह ब्रहमाण्ड के ऐसे ग्रह हैं, जिनसे निकलने वाली किरणों का मानव जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। आज का विज्ञान इसको काॅस्मिक रेज के रूप में स्वीकार करने लगा है। लाखों वर्ष पहले भारत में ही यह खोज हुई थी कि सूर्य ग्रह किसी ग्रह की परिक्रमा नहीं लगाता है और पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा लगाती है। धुरी पर घूमते हुए पृथ्वी का जो हिस्सा सूर्य की ओर होता है, उस ओर प्रकाश होने के कारण दिन होता है और जो हिस्सा पीछे की ओर होता है, वहाँ अन्धकार होने के कारण रात्रि होती है। एक दिन और एक रात्रि को मिलाकर एक दिनमान कहा जाता है। लगभग 365 दिनमान में पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा पूरी कर लेती है। इसी को एक वर्ष कहा जाता है।

--- चन्द्रमा पृथ्वी का भ्रमण करता है। जिस अवधि में रात्रि में चन्द्रमा का प्रकाश पृथ्वी के जिस हिस्से पर पड़ता है उस अवधि को हमारे वैज्ञानिकों ने शुक्ल पक्ष कहा है और भ्रमण करते हुए पृथ्वी के जिस हिस्से पर चन्द्रमा की किरणे नहीं पड़ती है उस अवधि को हमारे वैज्ञानिकों ने कृष्ण पक्ष कहा है। कालगणना के अन्तर्गत इस प्रकार का अनुसंधान भारत की सनातनी संस्कृति के अलावा विश्व के किसी भी कोने में नहीं हुआ है।
--- भारत में लाखों वर्ष पूर्व से ही प्रत्येक वर्ष को बारह भागों में विभाजित किया गया है जिसे मास (महीना) कहा जाता है। चन्द्रमा एक वर्ष की अवधि में पृथ्वी के लगभग बारह चक्कर लगा लेता है और इसी आधार पर भारतीय कालगणना में मास का निर्धारण किया गया है। प्रत्येक मास का नाम उस नक्षत्र के नाम से है जिससे मास प्रारम्भ होता है जैसे चित्रा नक्षत्र से चैत्र मास, विशाखा नक्षत्र से वैशाख मास। इससे यह स्पष्ट है कि भारत में लाखों वर्ष पूर्व यह खोज की जा चुकी थी कि पृथ्वी को प्रभावित करने वाले मुख्यतः सत्ताईस नक्षत्र हैं।
---प्रत्येक मास में लगभग ढाई नक्षत्र का सम्बन्ध आता है, यानी उस समय ग्रहों तथा नक्षत्रों की चाल का भी अनुसंधान किया गया था जबकि यह हकीकत है कि अंग्रेजी कलैण्डर वर्ष में प्रारम्भ में मात्र दस महीने होते थे इसमें संशोधन करते हुए भारतीय कलैण्डर के आधार पर ही बारह माह निर्धारित किये गये। लैटिन शब्दावली के अनुसार सितम्बर को सातवाँ, अक्टूबर को आठवाँ, नवम्बर को नौवाँ व दिसम्बर को दसवाँ माना जाता है लेकिन अंग्रेजी कलैण्डर में सितम्बर से दिसम्बर तक को क्रमशः नौवाँ से बारहवाँ महीना माना जाता है। स्पष्ट है कि अंग्रेजी कलैण्डर विज्ञान व शब्दावली दोनों के आधार पर पूर्णतः अर्थहीन है।

--- भारतीय कैलेण्डर में पूर्णिमा और अमावस्या का भी महत्व होता है। आज का विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि मानव शरीर का 70 प्रतिशत भाग जल तत्व से सम्बन्धित है। हम सभी यह जानते हैं कि पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार भाटा आता है, कहने का आशय है कि चन्द्रमा की किरणें जब अपने पूर्ण रूप में होती हैं तो मानव शरीर का जल तत्व प्रभावित होता है जिसका सीधा प्रभाव मानव की गतिविधियों पर पड़ता है। भारतीय कालगणना में विचार करते हुए हमारे वैज्ञानिकों द्वारा यहाँ तक खोज की गयी कि मानव को अपने जीवन में किस कार्य को कब महत्व देना चाहिए।

--- भारतीय कालगणना में पल और क्षण तक की खोज की गयी और यहाँ तक खोज हुई है कि किस नक्षत्र व किस ग्रह का कितना अंश किस समय तक रहता है। सूर्य व चन्द्र ग्रह के अलावा अन्य ग्रहों की गति तथा उनके पड़ने वाले प्रभाव की खोज भी भारत की देन है जिसका समावेश भारतीय कलैण्डर में किया गया है। भारत में जितने भी त्यौहार हैं वे सभी ग्रहों व नक्षत्रों पर आधारित हैं और उस अवधि में ग्रहों तथा नक्षत्रों की तरंगें साधना और आराधना करने के लिए सहायक होती हैं जिससे मानव सुखी व आनन्दमय जीवन जी सके। आखिरकार कैलेण्डर बनाते समय हमारे वैज्ञानिकों के केन्द्र में मानव जीवन ही था।

--- अंग्रेजी कैलेण्डर का प्रथम दिन मौज मस्ती के रूप में मनाया जाता है जबकि भारत में नौ दिनों तक ईश्वर की आराधना करते हुए जीवन की साधना की जाती है। इन दिनों माँ दुर्गा का पूजन महिलाओं के प्रति सम्मान और सशक्तीकरण का एक ऐसा उदाहरण है जो दुनिया के किसी भी कोने में नहीं मिल सकता है।

--- भारतीय कैलेण्डर के प्रथम दिन को संस्कृत दिवस तथा ज्योतिष दिवस के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय कालगणना ग्रहों तथा नक्षत्रों पर आधारित होने के कारण ज्योतिष से भी गहन रूप से सम्बन्धित है। भारतीय कालगणना का उल्लेख ऋगवेद और अथर्ववेद जैसे विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थों में काल चक्र के रूप में मिलता है। अंग्रेजी नववर्ष चीन, इजराइल, सऊदी अरब जैसे देशों में नहीं मनाया जाता है, लेकिन दुर्भाग्य है कि गुलामी की मानसिकता में जी रहे भारतीयों के मन मस्तिष्क में अंग्रेजी कलैण्डर का जूनून आज भी हावी है।

--- भारतीय नव वर्ष के प्रथम दिन का अन्य कारणों से भी विशेष महत्व है। इसी दिन महान सन्त झूलेलाल जयन्ती, भारत के स्वाधीनता सेनानियों को प्रेरणा श्रोत आर्य समाज की स्थापना तथा विश्व के सर्वाधिक विराट स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक व प्रथम सरसंघचालक डा0 केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्मदिन भी है।

--- आज यक्ष प्रश्न तो यह है कि कब भारत के लोग अपनी इस अद्भुत वैज्ञानिक कालगणना पर गर्व करेंगे? और कब मानसिक गुलामी से अपने आपको मुक्त कर पायेंगे? वक्त को इन्तजार है भारत के लोगों का अपनी सनातनी संस्कृति की जड़ों की ओर लौटने का।

यह क्षण तो दुर्लभ हैं ।।

प्रत्येक के जीवन में ऐसी क्रांति घटित नहीं होती ,यह कोई आवश्यक नहीं हैं कि "सदगुरु " मिल ही जाए ,जो ठोकर मार कर जगा दे ,सत्य की प्रतीति करवा दे ऐसा क्षण तो हजारो वर्षो के बाद ही आता हैं ,जब "सदगुरु " स्वयं आ कर साकार रूप में उपस्थित हो शिष्य को पुकारता हैं झकझोरता हैं,और उसके जीवन के सवारने का प्रयास करता हैं I जो जीवन में बेसुध ही रहेंगे ,पूरी जिंदगी उनके हाथ से निकल जाएगी और एक बार पुनः सभी पूर्णता से वंचित रह जायेंगे I

-वही क्षण जीवन का सौभाग्य क्षण होता हैं ,सर्वश्रेष्ठ क्षण होता हैं ,जब हमारे मृत प्रायः जीवन में ऐसे व्यक्तित्व का पदार्पण होता हैं ,जिसका हमारे ऊपर पूर्ण अधिकार हो ,जो हमें अपने प्राणों का अंश मानता हो जो हमारे मिथ्या भ्र्मजाल को तोड़ने की सामर्थ्य रखता हो ,इस मृग तृष्णा से निकाल कर ,उस परम सत्य ,परम तत्व से सक्षात्कार करने की हिम्मत रखता हो I

-और यह नींद से जागना ही ज्ञान को प्राप्त करना हैं अपने आप में चेतना को अनुभव करना हैं I

-और यह जागना ही ,परम सत्य से परिचित होना हैं I

-परन्तु यह अमूल रूपांतरण उस व्यक्ति के बिना संभव नहीं जिसे "सदगुरु " कहा गया हैं ,जिसकी प्रसंशा संसार के सभी ग्रंथों ने एक स्वर से कहीं हैं I

प्रकृति रुपी गुरु 
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-जन्म लेते ही बालक से गुरु का सम्बन्ध हो जाता हैं ,प्रकृति को गुरु ही माना गया हैं ! पशु-पक्षियों के बच्चे प्रकृति में ही जन्म लेते हैं ,प्रकृति रुपी गुरु उनका सीधा सम्बन्ध जुड़ जाता हैं ......और वह कुछ समय में ही अपने पावों में खड़ा हो जाता हैं ,विचरण करने लग जाता हैं ,पक्षी पंख फैला कर उड़ने की क्षमता प्राप्त कर लेता हैं I

-पर मनुष्य को कई वर्ष लग जाते हैं ,इस क्षमता को प्राप्त करने में क्योकि वह प्रकृति से कटा हुआ हैं ,शुद्ध प्रकृति से सम्बन्ध नहीं जुड़ पाता ,प्रकृति रुपी गुरु की थपथपाहट उसे अनुभव नहीं होती !अतः जीवन के क्रिया कलाप सीखने में ही उसे कई वर्ष लग जाते हैं ,यह मानव जीवन की विडम्बना या न्यूनता ही कही जाएगी I 

-इसलिए यह भी स्वीकारा गया हैं ,कि जिसने प्रकृति को समझ लिया आत्मसात कर लिया ,वह सदगुरु को भी समझ सकता हैं ,क्योकि सदगुरु महाप्रकृति से सम्बन्ध जोड़ देते हैं ,संपर्क सूत्र स्थापित कर देते हैं I

कैसे हो यह मिलन 
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-जो वास्तव में जाग्रत हैं ,प्राण ऊर्जा से आपूरित हैं ,अदृश्य जिन्हे आकर्षित करता हैं ,जो अज्ञात की खोज में निकल पड़ते हैं -इतने साहस से कि चाहे रात्रि की गहन कालिमा हो ,चाहे तूफ़ान का झंझावात उठ रहा हो ,चाहे मर-मिटने का डर हो ,पर रुका नहीं जा सकता ,उन्हें गंतव्य मिल ही जाता हैं I 

-कहावत भी हैं ,जब शिष्य तैयार हो जाता हैं -सद्गुरु स्वयं प्रत्यक्ष हो जाते हैं I

-पर यह मिलन किस रहस्य पूर्ण ढंग से होगा ,किस क्षण होगा ,कहाँ तार मिल जायेंगे ,किसी को ज्ञात नहीं I

-प्रकृति की बड़ी अद्भुद लीला हैं यह ....सदगुरु के नजरे मिलते ही एक चिंगारी सी प्रज्वलित होती हैं ,जिससे शिष्य का सारा अहंकार ,लोभ ,मोह ,तृष्णाएं ,जल कर खाक हो जाती हैं ,उसकी अंतरात्मा ही मानो बदल जाती हैं I गुरु रुपी पारस का स्पर्श होते ही ,अमूल्य कुंदन बन जाता हैं वह .....और यह सब कुछ घटित होता हैं ,क्षण भर में ही ,युगो की आवश्यकता नहीं हैं I

-ऐसा ही सदगुरु ,शिष्य की अन्तर शक्ति को जगा कर उसे आत्म आनंद में रमण कराता हैं ,शक्तिपात द्वारा देह को पाप -ताप से रहित कर दिव्य कुंडलिनी जगाता हैं ,ज्ञान की मस्ती देता हैं ,भक्ति का प्रमाण देता हैं ,कर्म में निष्कामता सीखा देता हैं I

-ऐसे ही सदगुरु के प्रसाद से शिष्य रुपी "नर "भी "नारायण "स्वरूप बनकर आनंद मग्न हो जाता हैं I

-जब तुम्हे जीवन के किसी मोड़ पर कोई चेतना पुंज ,कोई जाग्रत व्यक्तित्व मिल जाए तो अपनी इस जिंगदी में दौड़ कर उससे मिल लेना डूब जाना उसके ह्रदय में ,समां जाना उसके व्यक्तित्व में -क्योकि जीवन में ऐसे क्षण तो कभी-कभी ही आते हैं I

-और वे क्षण यदि चूक गए ,तो फिर तुम्हारे पास पछताने के अलावा कुछ भी नहीं बचेगा I

-और इसलिए तो कहता हूँ -"जब जाग्रत ,चैतन्य सदगुरु मिल जाय तो अपने आप को समर्पित कर देना "I

-और इस समर्पण से तुम्हे सब कुछ मिल जायेगा I
-जिसे सत्यम-शिवम् -सुंदरम और ब्रम्हानंद कहा गया हैं ।

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गुरु के बिना ब्रह्मानंद तो क्या,सांसारिक सुख भी दुर्लभ है ।।

     परमेश्वर का साक्षात्कार एकमात्र गुरु से ही सम्भव है । जब तक गुरु की कृपा से हमारी अन्त:शक्ति नहीं जागती, अन्त:ज्योति नहीं प्रकाशित होती, अन्तर के दिव्य ज्ञान-चक्षु नहीं खुलते- तब तक हमारी जीव-दशा नहीं मिटती। इसलिए अन्त:विकास के लिए और दिव्यत्व की प्राप्ति के लिए हमें मार्गदर्शक की, अर्थात् पूर्ण सत्य के ज्ञाता एवं शक्तिशाली सद्गुरु की अत्यन्त आवश्यकता है ।

जैसे प्राण बिना जीना सम्भव नहीं, उसी तरह गुरु बिना ज्ञान नहीं, शक्ति का विकास नहीं, अन्धकार का नाश नहीं, तीसरे नेत्र का उदय नहीं । गुरु की जरूरत मित्र से, पुत्र से, बंधु से और पति या पत्नी से भी अधिक है । गुरु की जरूरत द्रव्य से, कल-कारखानों से, कला से और संगीत से भी अधिक है । अधिक क्या कहूँ, गुरु की जरूरत आरोग्य और प्राण से भी ज्यादा है ।

गुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है । वे मानव को नया जन्म देते हैं, ज्ञान की प्रतीति कराते हैं, साधना बताकर ईश्वरानुरागी बनाते हैं । गुरु वे हैं, जो शिष्य की अन्त:- शक्ति को जगाकर उसे आत्मानंद में रमण कराते हैं । गुरु की व्याख्या यह है– जो शक्तिपात द्वारा अन्त:- शक्ति कुण्डलिनी को जगाते हैं, यानी मानव-देह में परमेश्वर की शक्ति को संचारित कर देते हैं, जो योग की शिक्षा देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं । भक्ति का प्रेम देते हैं, कर्म में निष्कामता सिखा देते हैं, जीते-जी मोक्ष देते हैं– वे परमगुरु शिव से अभिन्न रूप हैं । वे शिव, शक्ति, राम, कृष्ण, गणपति और माता-पिता हैं । वे सभी के पूजनीय परमगुरु शिष्य की देह में ज्ञान-ज्योति को प्रज्जवलित करते हुए अनुग्रहरूप कृपा करते हैं और लीला-विनोद में ही नर को नारायणस्वरूप की आनंद धारा में मस्त रहने की कला सिखा देते हैं । ऐसे गुरु महामहिमावान हैं । उनको साधारण जड़-बुद्धि वाले नहीं समझ सकते ।

साधारणतया गुरुजनों का परिचय पाना, उन्हें समझना महाकठिन है । किसी ने थोड़ा चमत्कार दिखाया, तो हम उसे गुरु मान लेते हैं । थोड़ा प्रवचन सुनाया, तो उसे गुरु मान लेते हैं । किसी ने मंत्र दिया या तंत्र-विधि बतलायी, तो उसे गुरु मान लेते हैं । इस तरह अनेकजनों में गुरु-भाव करके अंत:समाधान से हम बंचित रह जाते हैं । अन्त में हमारी श्रद्धा भंग हो जाती है और फिर हम गुरुत्व को भी पाखण्ड समझने लगते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि हम सच्चे गुरुजनों से दूर रह जाते हैं । पाखण्डी गुरु से धोखा खाकर हम सच्चे गुरु की अवहेलना करने लग जाते हैं ।

साक्षात्कारी गुरु को साधारण समझकर उनको त्यागो मत । गुरु की महानता तब समझ में आती है, जब तुम पर गुरुदेव की पूर्ण कृपा होती है । गुरु अपने शिष्यों को साधना के उच्चतम शिखर पर ले जाकर उनके सत्यस्वरूप का उन्हें साक्षात्कार करवा कर, सत्यस्वरूप शिव में मिलाकर ‘शिव’ ही बना देते हैं । ऐसे गुरुजनों को गुरु मानकर, उन तत्ववेत्ताओं से दीक्षा पाना क्या परम सौभाग्य नहीं है ? उनके दिये हुए शब्द ही चैतन्य मंत्र हैं । वे चितिमय परम गुरु मंत्र द्वारा, स्पर्श द्वारा या दृष्टि द्वारा शिष्य में प्रवेश करते हैं । इसीलिए गुरु-सहवास (सानिध्य), गुरु आश्रमवास, गुरु-सेवा, गुरु-गुणगान, गुरुजनों से प्रेमोन्मत्त स्थिति में प्रवाहित होने वाले चिति-स्पन्दनों का सेवन शिष्य को पूर्ण सिद्धि-पद की प्राप्ति करा देने में समर्थ है– इसमें क्या आश्चर्य है ?
                                           
🙏 @Sanatan