वास्तव में ब्रह्मचर्य से अभिप्राय मन्सा, वाचा, कर्मना पूर्णत्या पवित्र रहने से है। लेकिन फिर भी आज इस विसय का गहराई से स्पष्टीकरण करते हैं।_
वास्तव में मनुष्य की पवित्रता से अभिप्राय उसकी रज शक्ति के क्षीण होने से रुक जाने से है। जब हम काम विकार का त्याग करते है तो रज क्षीण होने से रुक जाता है जिससे यही रज शक्ति रीढ़ की हड्डी के बीच में से जाने वाली सुषुम्ना नाड़ी तथा उसके दोनों ओर साथ साथ मस्तिष्क तक जाने वाली इडा और पिंगला नाड़ी को पोषित कर भिरकुटि से भी ऊपर मध्य मस्तिष्क तक पहुचती है। और जहाँ पर भी ये सूक्ष्म नाडिया आपस में भेदन करती है वही पर एक ऊर्जा चक्र का निर्माण करती है। हमारे शरीर में ऐसे 7 बड़े ऊर्जा केंद्र है। जो की पवित्रता(रज) की शक्ति को एकत्रित कर परमात्मा से योग लगाने से सहज ही जागृत हो जाते है। और हमारे शरीर की अवस्थाये और हमारे मन की अवस्थाये इन ऊर्जा चक्रों के द्वारा प्रभावित होती है। यदि चक्रों की ऊर्जा क्षीण हो जाती है तो भय, शोक, अनिंद्रा, डिप्रेशन, दुःख, मन की निक्रिस्टता, मनोबल की कमी आदि से व्यक्ति प्रभावित हो जाता है। यदि हम परमात्मा से योग लगाए और पवित्रता की शक्ति नही है तो इनको जागृत करना संभव नही। और यदि कुछ समय के लिए कोई अपनी शक्ति के ट्रान्सफर द्वारा आपके इन ऊर्जा चक्रों को जागृत कर भी दे तो कुछ ही दिन बाद ये फिर से डीएक्टिवेट हो जाएंगे। अर्थात इनके जागृत रहने के लिए पवित्रता की शक्ति परम आवयशक है। जब हम पवित्रता की शक्ति को धारण कर परमात्मा से योग लगाते है तो यह शक्ति ऊपर की ओर बढ़ती हुई मस्तिस्क के मध्य में ऊपर तक जाती है और एक ऊर्जा चक्र सहस्त्रार, यानि की हजार पंखुड़ियों के कमल के खिल जाने जैसा परम शान्ति का अनुभव कराती है । इसी चक्र के रास्ते परमात्मा से आने वाली कॉस्मिक पॉवर हमारे शरीर में प्रवेश कर हमको अनंत शक्तियो की प्राप्ति का अनुभव कराती है और शरीर के सारे रोग और कस्ट समाप्त होने लगते है। मस्तिस्क पूर्ण विकसित होने लगता है। आप अपने आपको पूर्व से कई गुना विकशित और एनर्जी से भरपूर अनुभव करते है। यदि आप यह पवित्रता नही अपनाते तो परमात्मा से आने वाली कॉस्मिक एनर्जी का कुछ % ही आप ग्रहण कर पाएंगे। जिससे की पूरा चार्ज न होने की वजह से रोग, नेगेटिव एनर्जी आपको घेर लेते है जिससे आप बहुत दुखी और अशांत अनुभव करते है। तो पवित्रता सर्व सुखो की खान है।_
हम जानते हैं की मनुष्य शरीर अस्थि, मांस, मज्जा, रक्त और लसीका से मिल कर बना है। जब भी मनुष्य विकार में जाता है तो सुक्र कोष में इकट्ठा हुआ रज सुक्र नाड़ियो से बहता है। जो रज नाड़ियो में संचित रह जाता है और वापिस नही जा पाता वह रज, रक्त कोशिकाओं द्वारा सोख कर रक्त में मिलता है और रक्त का शोधन गुर्दे और पसीने के द्वारा ही होता है यही कारण है की विकारी मनुष्य का शरीर ज्यादा दुर्गंधयुक्त हो जाता है। क्योकि उसका रज पसीने के रास्ते ऊपरी त्वचा तक पहुचता है। इसी कारण से विकारी पतित के हाथ का बना भोजन खाने को परहेज बताया है।हमको सच्चा सच्चा रास्ता बताया है। तो आपका भी कर्त्वय बनता है की ऐसे निस्वार्थ श्रीमत का पालन करना।
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