Follow us for Latest Update

ब्राह्मण कौन है ?

वज्रसुचिकोपनिषद ( वज्रसूचि उपनिषद् )

यह उपनिषद सामवेद से सम्बद्ध है ! 
इसमें कुल ९ मंत्र हैं ! 

सर्वप्रथम चारों वर्णों में से ब्राह्मण की प्रधानता का उल्लेख किया गया है तथा ब्राह्मण कौन है, इसके लिए कई प्रश्न किये गए हैं ! 

क्या ब्राह्मण जीव है ? शरीर है, जाति है, ज्ञान है, कर्म है, या धार्मिकता है ?

 इन सब संभावनाओं का निरसन कोई ना कोई कारण बताकर कर दिया गया है ...

अंत में ‘ब्राह्मण’ की परिभाषा बताते हुए उपनिषदकार कहते हैं कि जो समस्त दोषों से रहित, अद्वितीय, आत्मतत्व से संपृक्त है, वह ब्राह्मण है ! 

चूँकि आत्मतत्व सत्, चित्त, आनंद रूप ब्रह्म भाव से युक्त होता है, इसलिए इस ब्रह्म भाव से संपन्न मनुष्य को ही सठीक अर्थ में ब्राह्मण कहा जा सकता है !

वज्रसूचीं प्रवक्ष्यामि शास्त्रंज्ञानभेदनम ! दूषणं ज्ञानहीनानां भूषणं ज्ञान चक्षुषाम !!१!!

अज्ञान नाशक, ज्ञानहीनों के दूषण, ज्ञान नेत्र वालों के भूषन रूप वज्रसूची उपनिषद का वर्णन करता हूँ !!

ब्रह्मक्षत्रियवैश्यशूद्रा इति चत्वारो वर्णास्तेषां वर्णानां ब्राह्मण एव प्रधान इति वेद्वचनानुरूपं स्मृतिभिरप्युक्तम ! तत्र चोद्यमस्ति को वा ब्राह्मणो नाम किं जीवः किं देहः किं जातिः किं ज्ञानं किं आर्म किं धार्मिक इति !!२!!

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं ! 

इन वर्णों में ब्राह्मण ही प्रधान है... ऐसा वेद वचन है और स्मृति में भी वर्णित है ! 

अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि ब्राह्मण कौन है ? 
क्या वह जीव है अथवा कोई शरीर है अथवा जाति अथवा कर्म अथवा ज्ञान अथवा धार्मिकता है ?

तत्र प्रथमो जीवो ब्राह्मण इति चेतन्न ! अतीतानागतानेकदेहानां जीवस्यैकरुपत्वात एकस्यापी कर्मवशादनेकदेहसम्भवात सर्वशरीराणां जीवस्यैकरुपत्वाच्च ! तस्मान्न जीवो ब्राह्मण इति !!३!!

इस स्थिति में यदि सर्वप्रथम जीव को ही ब्राह्मण मानें ( कि ब्राह्मण जीव है), तो यह संभव नहीं है..

क्योंकि भूतकाल और भविष्यतकाल में अनेक जीव हुए होंगें !

 उन सबका स्वरुप भी एक जैसा ही होता है ! 

जीव एक होने पर भी स्व-स्व कर्मों के अनुसार उनका जन्म होता है और समस्त शरीरों में...

 जीवों में एकत्व रहता है, इसलिए केवल जीव को ब्राह्मण नहीं कह सकते ! 

तर्हि देहो ब्राह्मण इति चेतन्न ! आचाण्डालादिपर्यन्तानां मनुष्याणां पान्चभौतिकत्वेन देहस्यैकरुपत्वाज्जरामरणधर्माधर्मादिसाम्यदर्शनाद ब्राह्मणः श्वेतवर्णः क्षत्रियो रक्तवर्णो वैश्यः पीतवर्णः शूद्रः कृष्णवर्ण इति नियमाभावात ! पित्रादिशरीरदहने पुत्रादीनां ब्रह्मह्त्यादिदोषसंभावाच्च ! तस्मान्न देहो ब्राह्मण इति !!४!!

क्या शरीर ब्राह्मण (हो सकता) है?

 नहीं... यह भी नहीं हो सकता ! 

चांडाल से लेकर सभी मानवों के शरीर एक जैसे ही अर्थात पांचभौतिक होते हैं...

उनमें जरा-मरण, धर्म-अधर्म आदि सभी सामान होते हैं !

 ब्राह्मण- गौर वर्ण, क्षत्रिय- रक्त वर्ण , वैश्य- पीत वर्ण और शूद्र- कृष्ण वर्ण वाला ही हो. ऐसा कोई नियम देखने में नहीं आता ...

तथा (यदि शरीर ब्राह्मण है तो ) पिता, भाई के दाह संस्कार करने से पुत्र आदि को ब्रह्म हत्या का दोष भी लग सकता है ! 

अस्तु, केवल शरीर का ब्राह्मण होना भी संभव नहीं है !! 

तर्हि जातिर्ब्राह्मण इति चेतन्न ! तत्रजात्यंतरजंतुष्वनेकजातिसंभवा महर्षयो बहवः सन्ति ! ऋष्यश्रृंगो मृग्या: कौशिकः कुशात जाम्बूको जम्बूकात ! वाल्मिको वल्मिकात व्यासः कैवर्तकन्यकायाम शंशपृष्ठात गौतमः वसिष्ठ उर्वश्याम अगस्त्यः कलशे जात इति श्रुत्वात ! एतेषम जात्या विनाप्यग्रे ज्ञानप्रतिपादिता ऋषयो बहवः सन्ति ! तस्मान्न जातिर्ब्राह्मण इति !!५!!

क्या जाति ब्राह्मण है ( अर्थात ब्राह्मण कोई जाति है )?

 नहीं... यह भी नहीं हो सकता...

 क्योंकि विभिन्न जातियों एवं प्रजातियों में भी बहुत से ऋषियों की उत्पत्ति वर्णित है !

 जैसे – मृगी से श्रृंगी ऋषि की... कुश से कौशिक की... जम्बुक से जाम्बूक की.. वाल्मिक से वाल्मीकि की.. मल्लाह कन्या (मत्स्यगंधा) से वेदव्यास की...शशक पृष्ठ से गौतम की...उर्वशी से वसिष्ठ की... कुम्भ से अगस्त्य ऋषि की उत्पत्ति वर्णित है !

 इस प्रकार पूर्व में ही कई ऋषि बिना (ब्राह्मण) जाति के ही प्रकांड विद्वान् हुए है.....

 इसलिए केवल कोई जाति विशेष भी ब्राह्मण नहीं हो सकता ! 

तर्हि ज्ञानं ब्राह्मण इति चेतन्न ! क्षत्रियादयोSपि परमार्थदर्शिनोSभिज्ञा बहवः सन्ति !!६!!

क्या ज्ञान को ब्राह्मण माना जाये ?

 ऐसा भी नहीं हो सकता...

 क्योंकि बहुत से क्षत्रिय (रजा जनक) आदि भी परमार्थ दर्शन के ज्ञाता हुए हैं (होते हैं) ! 

अस्तु, केवल ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !

तर्हि कर्म ब्राह्मण इति चेतन्न ! सर्वेषां प्राणिनां प्रारब्धसंचितागामिकर्मसाधर्म्यदर्शानात्कर्माभिप्रेरिता: संतो जनाः क्रियाः कुर्वन्तीति ! तस्मान्न कर्म ब्राह्मण इति !!७!!*" 

तो क्या कर्म को ब्राह्मण माना जाये? 

नहीं ऐसा भी संभव नहीं है...

 क्योंकि समस्त प्राणियों के संचित, प्रारब्ध और आगामी कर्मों में साम्य प्रतीत होता है तथा कर्माभिप्रेरित होकर ही व्यक्ति क्रिया करते हैं ! 

अतः केवल कर्म को भी ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता है !! 

तर्हि धार्मिको इति चेतन्न ! क्षत्रियादयो हिरण्यदातारो बहवः सन्ति ! तस्मान्न धार्मिको ब्राह्मण इति !!८!!*"

क्या धार्मिक , ब्राह्मण हो सकता है?

 यह भी सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है... 

 क्योंकि क्षत्रिय आदि बहुत से लोग स्वर्ण आदि का दान-पुण्य करते रहते हैं ! 

अतः केवल धार्मिक भी ब्राह्मण नहीं हो सकता है !! 

तर्हि को वा ब्राह्मणो नाम ! यः कश्चिदात्मानमद्वितीयं जातिगुणक्रियाहीनं षडूर्मीषडभावेत्यादिसर्वदोषरहितं सत्यज्ञानानन्दानन्तस्वरूपं स्वयं निर्विकल्पमशेषकल्पाधारमशेषभूतान्तर्यामित्वेन वर्तमानमन्तर्बहीश्चाकाशवदनुस्यूतमखंडानन्द स्वभावमप्रमेयमनुभवैकवेद्यमापरोक्षतया भासमानं करतलामलकवत्साक्षादपरोक्षीकृत्य कृतार्थतया कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भावमात्सर्यतृष्णाशामोहादिरहितो दंभाहंकारादिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत एवमुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मण इति श्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासानामभिप्रायः ! अन्यथा हि ब्राह्मणत्वसिद्धिर्नासत्येव ! सच्चिदानंदमात्मानमद्वितीयं ब्रह्म भावयेदात्मानं सच्चिदानंद ब्रह्म भावयेदि त्युपनिषत !!९!! 

तब ब्राह्मण किसे माना जाये ? 

(इसका उत्तर देते हुए उपनिषत्कार कहते हैं – ) 

जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त ना हो..जाति गुण और क्रिया से भी युक्त न हो.. 

षड उर्मियों और षड भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो.. 

सत्य, ज्ञान, आनंद स्वरुप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला , अशेष कल्पों का आधार रूप , समस्त प्राणियों के अंतस में निवास करने वाला , भीतर -बाहर आकाशवत संव्याप्त ..

अखंड आनंद्वान , अप्रमेय, अनुभवगम्य , अप्रत्येक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला...

 काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला ...

शम-दम आदि से संपन्न ... 

मात्सर्य , तृष्णा , आशा,मोह आदि भावों से रहित...

दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है...

 ऐसा श्रुति, स्मृति-पूराण और इतिहास का अभिप्राय है ! इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता !

 आत्मा सत-चित और आनंद स्वरुप तथा अद्वितीय है !

 इस प्रकार ब्रह्मभाव से संपन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है ! यही उपनिषद का मत है !

भक्तियोग ।।

या महिमावती भक्तिः सैव धीमहि प्रोच्यते ।
अणवोऽपि तथा नूनं विभुतामाधियान्ति हि ।।

(या) जो (महिमावती) महिमावती (भक्तिः) भक्ति है (सैव) वह ही (धीमहि) धीमहि (प्रोच्यते) कहलाती है। (तथा) उससे (अणवोऽपि) अणु भी (नूनं) निश्चय से (विभुतां) विभुत्व को (अधियान्ति) प्राप्त होते हैं।

गायत्री का यः शब्द उस महिमा मयी भक्ति साधना की ओर इंगित करता है जो धीमहि ध्यान करने योग्य कही जाती है। भक्ति की महिमा अपार है। सच्चे ईश्वर भक्त के लिए इस संसार में कोई वस्तु अप्राप्य नहीं रह जाती, जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य ईश्वर को प्राप्त करना है और उस ईश्वर प्राप्ति का उपाय है भक्ति। इसीलिए गायत्री के गर्भ में सन्निहित योगों में भक्ति योग का भी स्थान है।

‘भक्ति’ का अर्थ है प्रेम। ईश्वर से प्रेम करना सच्ची भक्ति है। भजन भक्ति का प्रधान अंग है। भजन करने से भक्ति तत्व प्राप्त हो जाता है इतना तो अनेकों व्यक्ति जानते हैं पर यह ज्ञान बहुत थोड़े लोगों को है कि भक्ति भजन का वास्तविक तात्पर्य क्या है। आइए भक्ति और भजन की वास्तविकता पर कुछ विचार करें।

ईश्वर भक्ति की रूप रेखा

परमात्मा सर्वत्र व्यापक है, इस सत्य को जानते तो अनेक लोग हैं पर उसे मानते नहीं। व्यवहार में नहीं लाते। जो परमात्मा को सर्वव्यापी, घटघट वासी मानेगा, उसका जीवन उसी क्षण पूर्ण पवित्र, निष्पाप और कषाय कल्मषों से रहित हो जायगा। गीता में भगवान ने कहा है कि जो मेरी शरण में आता है, जो मुझे अनन्य भाव से भजता है वह तुरन्त ही पापों से छूट जाता है। निस्संदेह बात ऐसी ही है। भगवान की शरण में जाने वाला, उसकी सच्ची भक्ति करने वाला, उस पर पूर्ण आस्था रखने वाला, एक प्रकार से जीवन मुक्त ही हो जाता है।

ईश्वर की भक्ति और सच्चा जीवन एक ही वस्तु के दो नाम हैं। जो भगवान का भक्त है, जिसने सब कुछ छोड़ कर प्रभु के चरणों में आत्म-समर्पण कर दिया है, जो परमात्मा की उपासना करता है उसे जगत्पिता की सर्व व्यापकता पर आस्था जरूर होनी चाहिए। यदि यह विश्वास दृढ़ हो जाय कि भगवान जर्रे जर्रे में समाया हुआ है, हर जगह मौजूद है तो पाप कर्म करने का साहस ही नहीं हो सकता। ऐसा कौन सा चोर है जो सावधान खड़ी हुई सशस्त्र पुलिस के सामने चोरी करने का साहस करे। चोरी, व्यभिचार, ठगी, धूर्तता, दंभ, असत्य, हिंसा आदि के लिए आड़ की-पर्दे की, दुराव की जरूरत पड़ती है। जहां मौका होता है, इन बुरे कामों को पकड़ने वाला नहीं होता, वहीं इनका किया जाना संभव है। जहां धूर्तता को भली प्रकार समझने वालों, देखने वाले और पकड़ने वाले लोगों की मजबूत ताकत सामने खड़ी होती है। वहां पाप कर्मों का हो सकना संभव नहीं। इसी प्रकार जो इस बात पर सच्चे मन से विश्वास करता है कि परमात्मा सब जगह मौजूद है वह किसी भी दुष्कर्म के करने का साहस नहीं कर सकता।

बुरा काम करने वाला पहले यह भली प्रकार देखता है कि मुझे देखने वाला या पकड़ने वाला तो कोई यहां नहीं है। जब वह भली भांति विश्वास कर लेता है कि उसका पाप कर्म किसी की दृष्टि या पकड़ में नहीं आ रहा है तभी वह अपने काम में हाथ डालता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने को परमात्मा की दृष्टि या पकड़ से बाहर मानते हैं वे ही दुष्कर्म करने को उद्यत हो सकते हैं। पाप कर्म करने का स्पष्ट अर्थ यह है कि यह व्यक्ति ईश्वर का मानने का दंभ भले ही करता हो पर वास्तव में वह परमात्मा के आस्तित्व से इनकार करता है। 

उसके मन को इस बात पर भरोसा नहीं है कि परमात्मा यहां मौजूद है। यदि विश्वास होता तो इतने बड़े हाकिम के सामने किस प्रकार उसके कानूनों का तोड़ने का साहस करता? जो व्यक्ति एक पुलिस के चपरासी को देखकर भय से थर थर कांपा करते हैं वे लोग इतने दुस्साहसी नहीं हो सकते कि परमात्मा जैसे सृष्टि के सर्वोच्च अफसर की आंखों के आगे, न करने योग्य काम करें, उसके कानून को तोड़ें, उसको क्रुद्ध बनावें, उसका अपमान करें। ऐसा दुस्साहस तो सिर्फ वही कर सकता है जो यह समझता हो कि ‘परमात्मा’ कहने सुनने भर की चीज है। वह पोथी पत्रों में, मन्दिर मठों में, नदी तालाबों में या कहीं स्वर्ग नरक में भले ही रहता होगा, पर हर जगह वह नहीं है। मैं उसकी दृष्टि और पकड़ से बाहर हूं।

जो लोग परमात्मा की सर्व व्यापकता पर विश्वास नहीं करते, वे ही नास्तिक हैं। जो प्रकट या अप्रकट रूप से दुष्कर्म करने का साहस कर सकते हैं वे ही नास्तिक हैं। इन नास्तिकों में कुछ तो भजन पूजा बिल्कुल नहीं करते, कुछ करते हैं। जो नहीं करते वे सोचते हैं व्यर्थ का झंझट मोल लेकर उसमें समय गंवाने से क्या फायदा? जो पूजन भजन करते हैं वे भीतर से तो न करने वालों के समान ही होते हैं पर व्यापार बुद्धि से रोजगार के रूप में ईश्वर की खाल ओढ़ लेते हैं। कितने ही लोग ईश्वर के नाम के बहाने ही अपने जीविका चलाते हैं, हमारे देश में करीब 56 लाख आदमी ऐसे हैं जिनकी कमाई पेशा, रोजगार ईश्वर के नाम पर है। यदि वे यह प्रकट करें कि हम ईश्वर को नहीं मानते तो उनकी ऐश आराम देने वाली, बिना परिश्रम की कमाई हाथ से चली जायेगी। इसलिए उन्हें ईश्वर को उसी प्रकार ओढ़े रहना पड़ता है जैसे जाड़े से बचने के लिए, गर्मी देने वाले कम्बल को ओढ़े रहते हैं। जैसे ही वह जरूरत पूरी हुई वैसे ही कम्बल को एक कोने में पटक देते हैं। यह तिजारती लोग जनता के समझ अपनी ईश्वर भक्ति का बड़ा भारी घटाटोप बांधते हैं क्योंकि जितना बड़ा घटाटोप बांध सकेंगे उतनी ही अधिक कमाई होगी। तिजारती उद्देश्य पूरा होते ही अपने असली रूप में आ जाते हैं। पापों से खुलकर खेलते हुए एकान्त में उन्हें जरा भी झिझक नहीं होती।

एक तीसरी किस्म के नास्तिक और हैं। वे प्रत्यक्ष रूप से ईश्वर के नाम पर रोजी नहीं चलाते बल्कि उलटा उसके नाम पर कुछ खर्च करते हैं। ईश्वर का आडम्बर उनके द्वारा आये दिन रचा जाता रहता है। शरीर पर ईश्वर भक्ति के चिन्ह धारण किये रहते हैं, घर में ईश्वर के प्रतीक मौजूद होते हैं, ईश्वर के निमित्त कहे जाने वाले कर्मकाण्डों का आयोजन होता रहता है। ईश्वर भक्त कहलाने वालों का स्वागत सत्कार, भेंट पूजा होती रहती है। यह सब इसलिए होता है कि लोग उनके संबंध में अच्छे ख्याल रखें, उनका आदर करें, उन्हें धर्मात्मा समझें, उनके जीवन भर के कुकर्मों की कलई न खोलें और आज भी जो उनके दुष्कर्म चल रहे हैं, वे छिपे रहें।

चौथे प्रकार के नास्तिक और हैं। वे पाप छिपाने या धन कमाने के लिए नहीं किन्तु अपने को पुजवाने के लिए, यश और श्रद्धा प्राप्त करने के लिए, ईश्वर भक्त बनते हैं। इसके लिए कुछ त्याग और कष्ट भी उठाते हैं पर भीतर से उन्हें प्रभु की सर्व व्यापकता पर आस्था नहीं होती। कुछ लोग रिश्वत के रूप में ईश्वर भक्ति को साधते हैं, अमुक भोग ऐश्वर्य की लालसा उन्हें उसी मार्ग पर ले जाती है जिस प्रकार आज कल घूसखोर हाकिमों को एक मोटी रकम झुका कर लोग मनमाना काम करवा लेते हैं और थैली खर्च करके थैला भरने में सफल हो जाते हैं। कुछ लोग तथाकथित ऋद्धि सिद्धियों और न जाने किन किन अप्रत्यक्ष वैभवों के मनसूबे बांध कर उसे प्राप्त करने की फिकर में ईश्वर का दरवाजे खटखटाते रहते हैं।

इस प्रकार प्रत्यक्षतः ईश्वर भक्त दिखाई देने वालों में भी असंख्यों मनुष्य ऐसे हैं जिनकी भीतरी मनोभूमि परमात्मा से कोसों दूर है। उनका निजी जीवन, घरेलू आचरण, व्यक्तिगत व्यवहार, ऐसा नहीं होता जिससे यह प्रतीत होता हो कि यह ईश्वर को हाजिर नाजिर समझ कर अपने को बुराइयों से बचाते हैं। ऐसे लोगों को किस प्रकार आस्तिक कहा जाय? जो पापों में जितना ही अधिक लिप्त है जिसका व्यक्तिगत जीवन जितना ही दूषित है वह उतना ही बड़ा नास्तिक है। लोगों को धोखा देकर अपना स्वार्थ साधना, छल, प्रपंच, माया, दंभ, भय, अत्याचार, कपट और धूर्तता से दूसरों के अधिकारों को अपहरण कर स्वयं सम्पन्न बनना नास्तिकता का स्पष्ट प्रमाण है। जो पाप करने का दुस्साहस करता है वह आस्तिक नहीं हो सकता, भले ही वह आस्तिकता का कितना ही बड़ा प्रदर्शन क्यों न करता हो।

ईश्वर भक्ति का जितना ही अंश जिसमें होगा वह उतने ही दृढ़ विश्वास के साथ ईश्वर की सर्व व्यापकता पर विश्वास करेगा, सबसे प्रभु को समाया हुआ देखेगा। आस्तिकता का दृष्टिकोण बनते ही मनुष्य भीतर और बाहर से निष्पाप होने लगता है। अपने प्रियतम को घट घट में बैठा कर वह सबसे नम्रता का, मधुरता का, स्नेह का, आदर का, सेवा का, सरलता, शुद्धता और निष्कपटता से भरा हुआ व्यवहार करता है। भक्त अपने भगवान् के लिए व्रत, उपवास, तप, तीर्थ यात्रा आदि द्वारा स्वयं कष्ट उठाता है और अपने प्राणवल्लभ के लिए नैवेद्य, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, भोग प्रसाद आदि कुछ न कुछ अर्पित करता ही करता है। ‘‘स्वयं कष्ट सहकर भगवान को कुछ समर्पण करना’’ पूजा की सम्पूर्ण विधि व्यवस्थाओं का यही तथ्य है।

भगवान को घट घट वासी मानने वाले भक्त अपनी पूजा विधि को इसी आधार पर अपने व्यवहारिक जीवन में उतारते हैं। वे अपने स्वार्थों की उतनी परवाह नहीं करते, खुद कुछ कष्ट भी उठाना पड़े तो उठाते हैं पर जनता जनार्दन को, नरनारायण को अधिक सुखी बनाने में वे दत्त रहते हैं। लोक सेवा का व्रत लेकर वे घटघट वासी परमात्मा की व्यावहारिक रूप से पूजा करते हैं। ऐसे भक्तों का जीवन-व्यवहार बड़ा निर्मल, पवित्र, मधुर और उदार होता है। आस्तिकता का यही तो प्रत्यक्ष लक्षण है।

पूजा के समस्त कर्मकाण्ड इसलिए हैं कि मनुष्य परमात्मा को स्मरण रखे, उसके अस्तित्व को अपने चारों ओर देखे और मनुष्योचित कर्म करे। पूजा, अर्चना, वन्दना, कथा, कीर्तन, व्रत, उपवास, तीर्थ आदि सबका प्रयोजन मनुष्य की इस चेतना को जाग्रत करना है कि परमात्मा की निकटता का स्मरण रहे और ईश्वर के प्रेम एवं श्रद्धा द्वारा लोक सेवा का व्रत रखे और ईश्वर के क्रोध से डर कर पापों से बचे। जिस पूजा उपासना से यह उद्देश्य सिद्ध न होता हो, वह व्यर्थ है। जिस उपाय से भी ‘‘पाप से बचने और पुण्य में प्रवृत्त होने’’ का भाव जाग उठे वह उपाय ईश्वर भक्ति की साधना ही है।

गरुण पुराण के अध्याय 23 में एक श्लोक है —

भज इत्येव वै धातुः सेवायां परिकीर्तिता ।
तस्मात्सेवावुधै प्रोक्ता भक्तिः साधन भृयसी ।।

श्लोक का तात्पर्य है कि—‘भज’ धातु का अर्थ सेवा है (भज-सेवायां) इसलिए बुध जनों ने भक्ति का साधन सेवा कहा है। ‘भजन’ शब्द भज धातु से बना है जिसका स्पष्ट अर्थ सेवा है। ‘ईश्वर का भजन करना चाहिए’ जिन शास्त्रों ने इस महामंत्र का मनुष्य को उपदेश दिया है उनका तात्पर्य ईश्वर की सेवा में मनुष्य को प्रवृत्त करा देना था। जिस विधि व्यवस्था से मनुष्य प्राणी ईश्वर की सेवा में तल्लीन हो जाय वही भजन है। इस भजन के अनेक मार्ग हैं। अध्यात्म मार्ग के आचार्यों ने देश काल और पात्र के भेद को ध्यान में रख कर भजन के अनेकों कार्यक्रम बनाये और बताये हैं। विश्व के इतिहास में जो जो अमर विभूतियां, महान आत्माएं, सन्त, सिद्ध, जीवन मुक्त, ऋषि एवं अवतार हुए हैं उन सभी ने भजन किये हैं और कराये हैं पर उन सबके भजनों की प्रणाली एक दूसरे के समान नहीं है। देश काल और परिस्थिति के अनुसार उन्हें भेद करना पड़ा है, यह भेद होते हुए भी मूलतः भजन के आदि भूत तथ्य में किसी ने अन्तर नहीं आने दिया है।

भजन (ईश्वर की सेवा) करने का तरीका ईश्वर की इच्छा और आज्ञा का पालन करना है। सेवक लोग अपने मालिकों की सेवा इसी प्रकार किया करते हैं। एक राजा के शासन तंत्र में हजारों कर्मचारी काम करते हैं। इन सबके जिम्मे काम बंटे होते हैं। हर एक कर्मचारी अपना अपना नियत काम करता है। अपने नियम कार्य को उचित रीति से करने वालों की राजा की कृपा पात्र होती है, उसके वेतन तथा पद में वृद्धि होती है, पुरस्कार मिलता है, खिताब आदि दिये जाते हैं। जो कर्मचारी अपने नियम कार्य में प्रमाद करता है वह राजा का कोप भाजन बनता है, जुर्माना, मुअत्तिली, तनुख्वाह में तनज्जुली, बर्खास्तगी या अन्य प्रकार की सजाएं पाता है। इन नियुक्त कर्मचारियों की सेवा का उचित स्थान उन्हीं कार्यों में है जो उनके लिए नियम हैं। रसोइये, महतर, पंखा झलने वाले, कहार, धोबी, चौकीदार, चारण, नाई आदि सेवक भी राजा के यहां रहते हैं। वे भी अपना नियत काम करते हैं। परन्तु इन छोटे कर्मचारियों में से कोई ऐसा नहीं सोचता कि राजा की सर्वोपरि कृपा हमारे ही ऊपर है। बात ठीक भी है राजा के अभीष्ट उद्देश्य को सुव्यवस्थित रखने वाले राज मंत्री, सेनापति, अर्थमंत्री, व्यवस्थापक न्यायाध्यक्ष आदि उच्च कर्मचारी जितना आदर, वेतन, और आत्मभाव प्राप्त करते हैं, बेचारे मेहतर, रसोइये आदि को वह जीवन भर स्वप्न में भी प्राप्त नहीं होता।

राज्य के समस्त कर्मचारी यदि अपने नियम कार्यों में अरुचि प्रकट करते हुए राजा के रसोइये, मेहतर, कहार, धोबी, चारण आदि बनने के लिए दौड़ पड़ें तो राजा को इससे तनिक भी प्रसन्नता और सुविधा न होगी। हजारों लाखों रसोइयों द्वारा पकाया और परोसा हुआ भोजन अपने सामने देख कर राजा को भला क्या प्रसन्नता हो सकती है? यद्यपि इन सभी कर्मचारियों का राजा के प्रति अगाध प्रेम है और प्रेम से प्रेरित होकर ही उन्होंने व्यक्तिगत शरीर सेवा की ओर दौड़ लगाई है, पर ऐसा विवेक रहित प्रेम करीब-करीब द्वेष जैसा ही हानिकर जान पड़ता है। राज्य के आवश्यक कार्य में हर्ज और अनावश्यक कार्य की वृद्धि यह कार्य प्रणाली किसी बुद्धिमान राजा को प्रिय नहीं हो सकती।

ईश्वर राजाओं का महाराज है। हम सब उसके राज्य कर्मचारी हैं, सबके लिए नियम कर्म उपस्थित हैं। अपने-अपने उत्तरदायित्व की उचित रीति में पालन करते हुए हम ईश्वर की इच्छा और आज्ञा को पूरा करते हैं और इस प्रकार सच्ची सेवा करते हुए स्वभावतः उसके प्रिय पात्र बन जाते हैं। राजाओं को व्यक्तिगत सेवा की आवश्यकता भी है, परन्तु परमात्मा को रसोइये, मेहतर, कहार, चारण, चौकीदार आदि की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। वह सर्वव्यापक है, वासना और विकारों से रहित है, ऐसी दशा में उसके लिए भोजन, कपड़ा, पंखा, रोशनी आदि का कुछ उपयोग भी नहीं है।

ध्यान, जप, स्मरण, कीर्तन, व्रत पूजन, अर्चन, वन्दन, यह सब आध्यात्मिक व्यायाम हैं। इनके करने से आत्मा का बल और सतोगुण बढ़ता है। आत्मोन्नति के लिए इन सबका करना आवश्यक और उपयोगी भी है। परन्तु इतना मात्र ही ईश्वर भजन या ईश्वर भक्ति नहीं है। यह भजन का एक बहुत छोटा अंश मात्र है। सच्ची ईश्वर सेवा उसकी इच्छा और आज्ञाओं को पूरा करने में है, उसकी फुलवारी को अधिक हराभरा फलाफूला बनाने में है। अपने नियम कर्त्तव्य करते हुए अपनी और दूसरों की सात्विक उन्नति में लगे रहना प्रभु को प्रसन्न करने का सर्वोत्तम उपाय हो सकता है।

धर्म पुस्तकों में एक कथा मिलती है कि एक ऋषि के आगे से देवदूत निकला। उसके हाथ में एक बहुत बड़ी पुस्तक थी। ऋषि ने पूछा—भाई देवदूत, यह पुस्तक कैसी है? उसने उत्तर दिया—इसमें दुनिया भर के ईश्वर भक्तों के नाम लिखे हैं। ऋषि ने पूछा—क्या इसमें मेरा भी नाम है? देवदूत ने सारी पुस्तक खोल डाली पर कहीं भी उनका नाम न मिला। इस प्रकार ऋषि को बड़ा दुःख हुआ कि मैंने ईश्वर की आज्ञा पालन करने में सारा जीवन लगा दिया पर मेरा नाम भक्तों की सूची में शामिल न हो पाया। कुछ दिन बाद एक दूसरा देवदूत एक छोटी पुस्तक लिए हुए उधर से निकला। ऋषि ने पूछा—इसमें क्या लिखा है? देवदूत ने उन्हें बताया कि इसमें कुछ ऐसे आदमियों के नाम हैं जिनकी भक्ति स्वयं ईश्वर करता है। ऋषि के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि—क्या ऐसे भी लोग हैं जिनकी भक्ति ईश्वर को करनी पड़ती है? पुस्तक पढ़ी गई उसमें सबसे ऊपर उन्हीं ऋषि का नाम लिखा हुआ था। महात्मा कबीर ने भी ऐसा ही कहा है—

कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर ।
पीछे लागे हरि फिरत, कहत कबीर कबीर ।।
कबीर माला ना जपों, जिह्वा कहों न राम ।
सुमिरन मेरा हरि करें, मैं पावों विश्राम ।।

ईश्वर को प्रसन्न करने की इच्छा से भगवद् भजन करने वालों को भजन का वास्तविक तात्पर्य समझना चाहिए। भजन सेवा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। परमात्मा की सेवा उसकी चलती फिरती प्रतिमाओं की सेवा में है। उसके बगीचे को—संसार को—अधिक सुन्दर सुख शान्तिमय बनाने का प्रयत्न करने में है, अपने कर्त्तव्य धर्म को उत्तरदायित्व को एक ईमानदार और सच्चे मनुष्य की तरह पालन करने में है। ईश्वर की इच्छा और आज्ञा है कि ‘अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना की जाय’’ अपने भीतर, बाहर और सर्वत्र जो इस तथ्य को ध्यान में रखकर कार्य करता है उसी का भजन सच्चा है। लोक कल्याण की दृष्टि से जो अपने और दूसरों के जीवन को उत्तम बनाने के प्रयत्न में तत्परतापूर्वक जुटे हुए हैं वे ही सच्चे भजनानन्दी हैं, वे ही सच्चे भक्त हैं। इसी प्रकार की भक्ति और ऐसा ही भजन करना भक्तियोग का वास्तविक प्रयोजन है।

मंत्र जप प्रभाव ।।

             जब तक किसी विषय वस्तु के बारे में पूर्ण जानकारी नहीं होती तो व्यक्ति वह कार्य आधे अधूरे मन से करता है और आधे-अधूरे मन से किये कार्य में सफलता नहीं मिल सकती है| मंत्र के बारे में भी पूर्ण जानकारी होना आवश्यक है, मंत्र केवल शब्द या ध्वनि नहीं है, मंत्र जप में समय, स्थान, दिशा, माला का भी विशिष्ट स्थान है| मंत्र-जप का शारीरिक और मानसिक प्रभाव तीव्र गति से होता है| इन सब प्रश्नों का समाधान आपके लिये -

जिस शब्द में बीजाक्षर है, उसी को 'मंत्र' कहते हैं| किसी मंत्र का बार-बार उच्चारण करना ही 'मंत्र-जप' कहलाता है, लेकिन प्रश्न यह उठता है, कि वास्तव में मंत्र जप क्या है? जप से क्या परिणाम होते निकलता है?

व्यक्त-अव्यक्त चेतना

१. व्यक्त चेतना (Conscious mind). २. अव्यक्त चेतना (Unconscious mind).

हमारा जो जाग्रत मन है, उसी को व्यक्त चेतना कहते हैं| अव्यक्त चेतना में हमारी अतृप्त इच्छाएं, गुप्त भावनाएं इत्यादि विद्यमान हैं| व्यक्त चेतना की अपेक्षा अव्यक्त चेतना अत्यंत शक्तिशाली है| हमारे संस्कार, वासनाएं - ये सब अव्यक्त चेतना में ही स्थित होते हैं|

 
किसी मंत्र का जब जाप होता है, तब अव्यक्त चेतना पर उसका प्रभाव पड़ता है| मंत्र में एक लय (Rythm) होता है, उस मंत्र ध्वनि का प्रभाव अव्यक्त चेतना को स्पन्दित करता है| मंत्र जप से मस्तिष्क की सभी नाड़ियों में चैतन्यता का प्रादुर्भाव होने लगता है और मन की चंचलता कम होने लगाती है|

मंत्र जप के माध्यम से दो तरह के प्रभाव उत्पन्न होते हैं -
१. मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological effect)
२. ध्वनि प्रभाव (Sound effect)

मनोवैज्ञानिक प्रभाव तथा ध्वनि प्रभाव के समन्वय से एकाग्रता बढ़ती है और एकाग्रता बढ़ने से इष्ट सिद्धि का फल मिलता ही है| मंत्र जप का मतलब है इच्छा शक्ति को तीव्र बनाना| इच्छा शक्ति की तीव्रता से क्रिया शक्ति भी तीव्र बन जाति है, जिसके परिणाम स्वरुप इष्ट का दर्शन या मनोवांछित फल प्राप्त होता ही है| मंत्र अचूक होते हैं तथा शीघ्र फलदायक भी होते हैं|

मंत्र जप और स्वास्थ्य 
लगातार मंत्र जप करने से उच्च रक्तचाप, गलत धारणायें, गंदे विचार आदि समाप्त हो जाते हैं| मंत्र जप का साइड इफेक्ट (Side Effect) यही है|
मंत्र में विद्यमान हर एक बीजाक्षर शरीर की नसों को उद्दिम करता है, इससे शरीर में रक्त संचार सही ढंग से गतिशील रहता है|

"क्लीं ह्रीं" इत्यादि बीजाक्षरों का एक लयात्मक पद्धति से उच्चारण करने पर ह्रदय तथा फेफड़ों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है व उनके विकार नष्ट होते हैं|

जप के लिये ब्रह्म मुहूर्त को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि उस समय पूरा वातावरण शान्ति पूर्ण रहता है, किसी भी प्रकार का कोलाहर या शोर नहीं होता| कुछ विशिष्ट साधनाओं के लिये रात्रि का समय अत्यंत प्रभावी होता है| गुरु के निर्देशानुसार निर्दिष्ट समय में ही साधक को जप करना चाहिए| सही समय पर सही ढंग से किया हुआ जप अवश्य ही फलप्रद होता है|

अपूर्व आभा
         मंत्र जप करने वाले साधक के चेहरे से एक अपूर्व आभा आ जाति है| आयुर्वेद की दृष्टि से देखा जाय, तो जब शरीर शुद्ध और स्वास्थ होगा, शरीर स्थित सभी संस्थान सुचारू रूप से कार्य करेंगे, तो इसके परिणाम स्वरुप मुखमंडल में नवीन कांति का प्रादुर्भाव होगा ही|

जप माला 
जप करने के लिए माला एक साधन है| शिव या काली के लिए रुद्राक्ष माला, हनुमान के लिए मूंगा माला, लक्ष्मी के लिए कमलगट्टे की माला, गुरु के लिए स्फटिक माला - इस प्रकार विभिन्न मंत्रो के लिए विभिन्न मालाओं का उपयोग करना पड़ता है|

मानव शरीर में हमेशा विद्युत् का संचार होता रहता है| यह विद्युत् हाथ की उँगलियों में तीव्र होता है| इन उँगलियों के बीच जब माला फेरी जाती है, तो लयात्मक मंत्र ध्वनि (Rythmic sound of the Hymn) तथा उँगलियों में माला का भ्रमण दोनों के समन्वय से नूतन ऊर्जा का प्रादुर्भाव होता है|

जप माला के स्पर्श (जप के समय में) से कई लाभ हैं - 
-- रुद्राक्ष से कई प्रकार के रोग नष्ट हो जाते हैं|
-- कमलगट्टे की माला से शीतलता एव अआनंद की प्राप्ति होती है|
-- स्फटिक माला से मन को अपूर्व शान्ति मिलती है|

दिशा 
दिशा को भी मंत्र जप में आत्याधिक महत्त्व दिया गया है| प्रत्येक दिशा में एक विशेष प्रकार की तरंगे (Vibrations) प्रवाहित होती रहती है| सही दिशा के चयन से शीघ्र ही सफलता प्राप्त होती है|

जप-तप
       जप में तब पूर्णता आ जाती है, पराकाष्ठा की स्थिति आ जाती है, उस 'तप' कहते हैं| जप में एक लय होता है| लय का अर्थ है ध्वनि के खण्ड| दो ध्वनि खण्डों की बीच में निःशब्दता है| इस निःशब्दता पर मन केन्द्रित करने की जो कला है, उसे तप कहते हैं| जब साधक तप की स्थिति को प्राप्त करता है, तो उसके समक्ष सृष्टि के सारे रहस्य अपने आप अभिव्यक्त हो जाते हैं| तपस्या में परिणति प्राप्त करने पर धीरे-धीरे
हृदयगत अव्यक्त नाद सुनाई देने लगता है, तब वह साधक उच्चकोटि का योगी बन जाता है| ऐसा साधक गृहस्थ भी हो सकता है और संन्यासी भी|

कर्म विध्वंस 
मनुष्य को अपने जीवन में जो दुःख, कष्ट, दारिद्य, पीड़ा, समस्याएं आदि भोगनी पड़ती हैं, उसका कारण प्रारब्ध है| जप के माध्यम से प्रारब्ध को नष्ट किया जा सकता है और जीवन में सभी दुखों का नाश कर, इच्छाओं को पूर्ण किया जा सकता है, इष्ट देवी या देवता का दर्शन प्राप्त किया जा सकता है|

गुरु उपदेश 
मंत्र को सदगुरू के माध्यम से ही ग्रहण करना उचित होता है| सदगुरू ही सही रास्ता दिखा सकते हैं, मंत्र का उच्चारण, जप संख्या, बारीकियां समझा सकते हैं, और साधना काल में विपरीत परिश्तिती आने पर साधक की रक्षा कर सकते हैं|

साधक की प्राथमिक अवशता में सफलता व साधना की पूर्णता मात्र सदगुरू की शक्ति के माध्यम से ही प्राप्त होती है| यदि साधक द्वारा अनेक बार साधना करने पर भी सफलता प्राप्त न हो, तो सदगुरू विशेष शक्तिपात द्वारा उसे सफलता की मंजिल तक पहुंचा देते हैं|

इस प्रकार मंत्र जप के माध्यम से नर से नारायण बना जा सकता है, जीवन के दुखों को मिटाया जा सकता है तथा अदभुद आनन्द, असीम शान्ति व् पूर्णता को प्राप्त किया जा सकता है, क्योंकि मंत्र जप का अर्थ मंत्र कुछ शब्दों को रचना है, अपितु मंत्र जप का अर्थ है - जीवन को पूर्ण बनाना हैं।

भक्ति की अग्निपरीक्षा ।।

एक बरहमन समूची दिल्ली में कुफ्र फैल रहा है, आने वाले ने तीखे स्वरों में और हिकारत भरे अंदाज में शाही दरबार में अपनी शिकायत दर्ज की।

कुफ्र? बादशाह के माथे पर बल पड़े।

शिकायत है जहाँपनाह! उस बरहमन की बातों में आकर कई इस्लाम के बन्दे भी बहक गये है, गुमराह हो गये है। दूसरे ने शिकायत का समर्थन किया।

कौन है वह गुस्ताख़? बादशाह ने जानना चाहा।

एक पागल है, बुतपरस्त है। हर वक्त वह बुत उसके साथ रहता है। शहर के आम जगहों में भी खुलेआम बुतपरस्ती में मशगूल रहता है।

किसी ने उसे रोका नहीं?

पागल समझकर लापरवाही की गई, लेकिन हुजूर-कुफ्र के साथ ही वह बगावत का जहर भी उड़ेलता है।

वह कैसे?

कहता है बरहमन किसी की हुकूमत में नहीं रहता, किसी का हुक्म नहीं मनाता, क्योंकि उसका बादशाह राम है-बरहमन उसी की बादशाहत में रहता है।

क्या बकते हो? मेरी ही सल्तनत में बादशाह भी पैदा हो गया?

जहाँपनाह! वह तो बुत्परास्तो का ही एक देव है। वही राम-रावण के किस्से वाला.........। इतना कहकर बादशाह कुछ सोचने लगा। बोला- वाकई पागल है, लेकिन फिर इस्लाम के बन्दों को उसने कैसे बहकाया?

शहर में अफवाह गरम है की वह बुत हर एक मुराद पूरी करता है। इस झूठ के शिकार बनकर कई मुसलमान औरतें और नौजवान भी बरहमन के मुकाम पर जाने लगे है, उस बुत को सिजदा करते हैं।

तोबा! तोबा! खास मेरी दारुल सल्तनत में यह गुनाह। बुतपरस्त को हम माफ कर सकते....।

आलीजाह! शाहीहुक्म के बमुजिब बुतपरस्ती पर सख्त पाबन्दी है, इसी कानून के खिलाफ वह अपने आँगन में एक जश्न करता है, तमाम हिंदुओं को इकठ्ठा करता है, उनके बीच बुत को संवारता है, सजाता है, फिर इबादत का दिखावा करता है। कई मुसलमान भी उस जलसे में नजर आये है।

उन मुसलमानों को भला यह क्या सूझी है?

गरीब परवर! बरहमन बहुत मक्कार है। बना हुआ पागल है। बुतपरस्ती के बाद वहाँ आये हुए मुसलमान मर्द, औरतों और बच्चों को भी बुत की जूठन बांटता है।

बुत की जूठन?

जूठन ही कहिये। काफ़िर उसे प्रसाद कहते हैं। उनका अकीदा है की बुत को जो चीज नजर करो, वह उसे मंजूर करता है, फिर जो बच रहा, वही जूठन उनके लिए प्रसाद होती है। आलिम ने अपनी जानकारी सबको बताने की कोशिश की।

कुफ्र! और दिल्ली में! जासूसों को हाजिर करो। जासूस बुलाये गये। ये लोग वेश बदलकर जनता की खबरें सुल्तान को पहुँचाया करते थे। जासूसों ने कोर्निश बजाई। सुल्तान ने पूछा-तुम लोगों को उस काफ़िर के कारनामे की कुछ भी खबर नहीं?

है जहाँपनाह!

बयान करो!

आलीजाह! उस बरहमन ने बुत की एक तस्वीर बने है। वह लकड़ी एक तख्ते पर कई रंग मिलकर बनाई गयी है। बुत बाहर नहीं निकालता, तस्वीर ही वह बाहर ले जाता है। बरहमन उसे साथ लिए घूमता है, जहाँ जाता है वही उसको सिजदा करता है, इबादत का ढोंग करता है। उस पर पानी-फूल चढ़ाता है।

तुम लोगों ने इसकी इत्तिला हाकिमो को क्यों नहीं की?

की थी हुजूरे आला! लेकिन उन्होंने कुछ तव्वजो नहीं की। फरमाया की किसी पागल के पीछे पड़ने से क्या फायदा?

पागल! कैसा पागल? बुतपरस्ती का दीवानगी नहीं, वह गुनाह है। कानूनन जुर्म है। हाकिमो से कहो, बुतपरस्त को गिरफ्तार करके बुत समेत हाजिर किया जाये।

जो हुक्म शहंशाह!

अब तक साँझ झुक आई थी। ब्राह्मण के घर थोड़ा ही आटा बचा था। ब्राह्मणी भूसी से प्रसाद बनाने का उपक्रम कर रही थी। इस घर में दो समय से अधिक संचय कभी रहा ही नहीं। ब्राह्मण कल की फिक्र नहीं करता था। बड़े मजे से वह इस वाक्य को जब-तब दुहरा लिया करता था। उसे किसी ने एक दिन चेतावनी दी- पंडित जी! फिरोजशाह तुगलक का जमाना है, मूर्तिपूजा पर रोक लगी है। क्यों संकट मोल लेते हो?

ब्राह्मण ने आनंद भरे मन से उत्तर दिया- भाई! इस शरीर का कुछ मोह नहीं। सुल्तान शरीर ही छीन सकता है, आत्मा तो राम की है, राम ही उसकी गति है। फिर कैसा भय?

एक दिन उसके पड़ोस के एक मुसलमान लड़के ने आकर उसका घड़ा छू लिया। कहने लगा- जनाब यह पानी तो बेकार हो गया। अब अपने खुदा को क्या पिलाओगे?

ब्राह्मण हा-हा करके हंसने लगा। बोला- बेटा! पानी तो सबको पवित्र करता है। वह तुम्हारे छूने से अपवित्र कैसे हो सकता है? राम की सब संतानें है, वह संसार का पिता है। तुम्हारे खेल-कूद से वह चिढ़ता थोड़े ही है।

मुसलमान लड़का उस निश्छल मुँह को ताकता रह गया। पूछने लगा धीरे से- पंडित जी अभी प्रसाद नहीं बनाया गया?

बन रहा है बेटा! आरती का समय आए, तब आना। प्रसाद ले जाना।

एक दिन दोपहरी में मैला-कुचैला एक डोम का लड़का आँगन में आ खड़ा हुआ डरा-सा। वह अपरिचित इस ओर कभी नहीं आया था? कहीं दूर का अनाथ बालक था। ब्राह्मण ने देखा, लड़का भयभीत है। कहा- आओ पुत्र! मेरे पास आओ। प्यार भारी आवाज़ से आकृष्ट हो, हिम्मत करके वह लड़का आगे बढ़ा। ब्राह्मण में उठ कर उसके हाथ-मुँह धोए। अपने अँगोछे से उसका मुँह पोंछा। अपने पास चौकी पर बिठाया। ब्रह्माणी से कहा- अरे, आओ देखो। तुम्हारे घर अतिथि भगवन् आयें हैं, बाल भगवान।

ब्राह्मणी उत्सुक हो दौड़ी आई। देखा एक किशोर लड़का पति के पास बैठा है।

पत्नी को देखते ही ब्राह्मण देवता बोल उठे- बड़े भाग्य! बाल-भगवान कृपा करके आए हैं। इनकी सेवा करो। जल्दी से कुछ बनाओ, इन्हें जिमाओ।

ब्राह्मणी ने जो कुछ रूखा-सूखा था, बनाया। बालक को अपनी गोद में बैठाकर भोजन कराया। कहा- भैया! रोज आया करो। अपने माता-पिता से कह देना की हम वहाँ जाते हैं। आओगे न? बालक ने प्रसन्नता से सिर हिलाकर विदा ली। ऐसी घटनाएँ उस आँगन में आए दिन होती रहती थीं। सबका आलय था वह आँगन और वह ब्राह्मण सचराचर जगत को राममय देखता था। पूरी दिल्ली में वही अकेला नागरिक था, हाथ उठा कर नितांत निर्भयता से कहा करता था- "मैं राम के राज्य में रहता हूँ, सुल्तान हमारा राजा नहीं। "

यह वाक्य सुनते-सुनते कुछ लोग उसे सनकी या पागल समझने लगे थे, तो क्या आश्चर्य! भीर भी आरती के समय उसका आँगन प्रायः भरा-भरा रहता था।

आज भी आरती का समय हो गया था। ब्राह्मणी प्रसाद बना लायी। ब्राह्मण रामलला को स्नान करने गया।दोनों समय स्नान-विधि होती थी, फिर एक स्वच्छ कपड़े से वह मूर्ति पोंछता। पश्चात नैवेद्य चढ़ाता था, जो भी घर में प्राप्त हो। आज जैसे ही आरती समाप्त हुई- सुल्तान के सिपाहियों ने घर घेर लिया। ब्राह्मण को गिरफ्तार कर लिया गया। उसकी मुश्कें कास दी गयीं। सिपाही मूर्ति भी उठाकर ले चले।

ब्राह्मण ज़रा भी घबड़ाया नहीं, रोया चिल्लाया नहीं। सब कुछ देखता रहा-सहता रहा। चलते समय पत्नी से कहा- देवी! धीरज रखना, मूर्ति लौटेगी नहीं, शायद मैं भी न लौट सकूँ... किन्तु मूर्ति के स्थान पर तुम आरती व प्रसाद का नियम भंग न करना, जब तक जीवन रहे। मूर्ति मिट्टी की भी बना सकती हो। मिट्टी माता है। सब खनिज उसी से उपजते हैं। ताँबा-पीतल न सही, माटी-मूरत सही। उसी में मोद मानो। राम के सेवक कैसे होते हैं, इसकी आन निभाना। ब्राह्मणी ने बहुत रोका, फिर भी दो आँसू की बूँदें नीचे ढुलक पड़ी, पति की अर्चना में। विदा वेला की अर्चना थी वह। इतने दिन साथ रहे, साथ जिए। राम की सेवा साथ-साथ की। दुःख को भी सुख माना। कभी कोई शिकायत नहीं की। अब कब मिलेंगे कुछ ठीक नहीं। कहते हैं- " राम के सेवक की आन निभाना। "

"निभाऊँगी-निभाऊँगी? अकेले भी निभाऊँगी।" रोते हुए हृदय से यही आश्वासन मुख पर मूर्त हो उठा- पति के संतोष के लिए। वे चले गए, बँधे हुए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ फिरोजशाह तुगलक का दरबार था।

मसनद के सहारे तलवार टिकाकर बैठा था सुल्तान। जिरह बख्तर से सज्जित सिपाही और सिपहसालार दोनों तरफ पंक्तिबद्ध खड़े थे। हृदय से यही आश्वासन मुख पर मूर्त हो उठा- पति के संतोष के लिए। वे चले गए, बँधे हुए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ फिरोजशाह तुगलक का दरबार था।

मसनद के सहारे तलवार टिकाकर बैठा था सुल्तान। जिरह बख्तर से सज्जित सिपाही और सिपहसालार दोनों तरफ पंक्तिबद्ध खड़े थे।वजीर एक तरफ बैठा था। जहाँपनाह! पागल काफ़िर हाजिर है। सिपाहियों ने निवेदन किया।

सुल्तान ने दृष्टि किया, मुंह से कुछ बोला नहीं। दूसरे ही क्षण रस्सों से जकड़ा वह ब्राह्मण उपस्थित किया गया। उसकी मुश्कें बँधी थीं। सुल्तान की दृष्टि उस पर पड़ी। साथ शाही फरमान हुआ, इसकी मुश्कें खोल दी जाएँ। फिर कैदी से पूछा क्यों! यह किसकी सल्तनत है?

तमाम दुनिया का साम्राज्य उसी की लीला है। वही सबका सम्राट है?

वह कौन है?

जिसने जगत सिरजा।

खुदा की बात करते हो?

आप खुदा कह लें मैं राम कह लेता हूँ।

गलत! खुदा को कोई कैद नहीं कर सकता। तुम्हारा राम मेरे यहाँ कैदी बनकर हाजिर है।

झूठ यह मूर्ति राम की पहचान है। हजारों पहचानों में से एक। मूर्ति का कुछ भी करो राम की तुम धुल भी नहीं पा सकते। हाँ, यह सच है की राम की ही तरह उसकी पहचान भी पवित्र है, लेकिन उनके लिए जो इसे पहचाने, नहीं तो पत्थर है ......?

तुम्हारा यह अफसाना मैं नहीं समझ पाया।

समझना चाहें तो देर नहीं लगेगी। आपके अन्तः पुर में ही गुरु मिल जायेगा। कहीं खोजना नहीं होगा।
क्या मतलब? सुल्तान चौंका।

आप नाराज़ न हों, मेरा तात्पर्य श्रीमान की मातुश्री से था। मैं उन्हें जनता हूँ, वे राजपूत की बेटी हैं , राम और उनकी मूर्ति की महिमा आप उनसे भलीप्रकार समझ सकते हैं।

वदज़ुबान बरहमन! तिलमिला उठा सुल्तान। उसका चेहरा उतर गया।

मैंने कोई बदजुबानी नहीं की। हर एक की माँ मेरी भी माँ है। आप इसे गलत नहीं समझें।

तुम तो पागल नहीं लगते। फिर भी कानून तोड़ने की जुर्रत करते हो?

मैंने कोई कानून नहीं तोड़ा।

क्यों क्या तुम नहीं जानते, मेरी सल्तनत में बुतपरस्ती जुर्म है।

मैं इसे कानून नहीं मानता। जोर-जुल्म का नाम कानून नहीं है।

यह बगावत है और तुम जिसके राज्य में हो ..........।

कैदी ने बीच में टोककर कहा- ब्राह्मण किसी के राज्य में नहीं रहता। वह स्वतंत्र रहकर ही मृत्यु को प्राप्त होता है।

हूँ,काजी और उलेमा अपना फतवा दे की इस बागी काफ़िर को कौन -सी सजा दी जानी चाहिए।

काजियो ने अपनी पुरानी पोथियाँ उलटनी-पलटनी शुरू की। इसके बाद उलेमा आपस में कानाफूसी करके सजा तजवीज करने लगे। फिरोजशाह तुगलक दांतों से मूंछें कुतरता रहा। थोड़ी ही देर में उलेमाओ ने फ़तवा दे दिया -जहाँपनाह!इस काफ़िर को सजाए मौत से कम तो कोई सजा नहीं दी जा सकती।

शरिअत कहती है की काफ़िर की गर्दन उड़ा दी जाये। काजियो ने भी हामी भरी।

एक रास्ता है, जाँ बख्शी का,बशर्ते यह इस्लाम काबूल कर ले।

शर्म करो। मेरे शरीर के दो टुकड़े कर दो। इस्लाम की बात क्यों करते हो? मैं हिन्दू रहकर ही मरूँगा। ब्राह्मण की आवाज़ में बड़ा वजन था।

ठीक है। इसे जिन्दा जला दो। हुक्म देते हुए एक क्षण सुतन की निगाह राम की मूर्ति पर गयी, बोला यह बुत भी इसके साथ आग के हवाले कर दिया जाए।

जो,हुक्म,जल्लाद जो उसका कत्ल करने के लिए बुलाई गए थे,ब्राह्मण को ले चले। मूर्ति को भी उसके साथ ले जाया गया। ब्राह्मण का चेहरा अलौकिक तेज़ से उद्भासित हो उठा। प्रसन्न मन से बार बार घूमकर वह मूर्ति को देखता जा रहा था,मानो कह रहा हो-"ओ प्रभु!सेवक तुम्हारे साथ ही है "।


लकड़ियों का एक बड़ा सा पहाड़ खड़ा कर दिया गया। ब्राह्मण के हाथ पैर बांध कर उस पर डाल दिया गया। वह जोर लगा कर किसी तरह उठ कर बैठ गया?मूर्ति भी उसके साथ फेंक दी गयी। बंधे हाथों से उसने मूर्ति को जैसे-तैसे उठाकर अपने पास ही रखा। तभी जल्लाद ने आवाज़ दी-होशियार आखिरी वक्त आ गया, खुदा को याद कर ले।


ब्राह्मण ने सर उठाया। एक बार नीले आकाश को देखा।अहा! कितना स्वच्छ गगन है। सूर्य कैसे देदीप्यमान है। दूर पर हरियाली की साड़ी लिए क्षितिज किसकी प्रतीक्षा में खड़ा है। धरती किसकी वंदना में तनमुख बैठी है।

भावविभोर हो वह कहने लगा, मेरे मन में राम हैं, तुम सर्वत्र हो। आज मैं देह की इस तुच्छ दीवार को तोड़कर तुममें सामने आ रहा हूँ। प्रभु! तब तक आग लकड़ियों में तेजी से धधक उठी। अग्नि की उठती उभरती ज्वाला के साथ उसकी भक्ती भी प्रचंड और प्रखर होती गयी। ऐसी घटना को युग बीत गए, फिर भी भक्ती की अग्नि -परीक्षा की इस अनोखी दास्तान को कोई नहीं भुला सकता।