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स्त्रियों को पति की आज्ञा में रहकर ही पूजा करनी चाहिए ऐसा शास्त्रों ने कहा है। तो अगर पति मना करे तो स्त्रियों का क्या कर्तव्य है?

शङ्का# :--स्त्रियों का परम ब्रत (धर्म) पति की सेवा है। अतः जिनसे पति की सेवा में बाधा होती हो उन्ही व्रत तप आदि को ही पतन कारक समझना चाहिए। जिनसे पतिसेवा रूप महाब्रत में बाधा न हो, तथा पति द्वारा अनुमोदित हों, वैसे जप आदि पतन के कारक नहीं होते, वल्कि उत्थान कारक ही होते हैं। जैसे कि ---
       #भर्तुश्छन्देन_नारीणां_तपो_वा_व्रततकानि_वा।
   #निष्फलं_खलु_यद्भर्तुरच्छन्देन_क्रियेत_हि।।(हरिवंश.पु.विष्णु

प..६६--५४)---पति की अनुज्ञा से नारी को तप व्रत आदि करना चाहिए। पति की अनुज्ञा(सम्मति) के विना ही जो विरोध करके करतीं हैं वह सब निष्फल होता है।।" इस प्रकार कहा गया है।
        
यहाँ यह बात विशेष रूपसे ध्यातव्य है कि--जो स्त्रियां पति की इच्छा के विरुद्ध नहीं हैं, किन्तु उनके #स्पष्ट_मना_करने_पर_भी उन्हें अर्थसंकट में डालकर भी शृङ्गार के चटकीले भड़कीले कीमती वस्त्राभूषण आदि ख़रीदतीं हैं, कामुक tv सिनेमा आदि देखतीं हैं, कामोद्दीपक अण्डा मद्य मांसादि खातीं हैं, परपुरुष से भी अनावश्यक गुह्यभाषण करतीं हैं , हरिदर्शन, हरिकीर्तन, भगवत्प्रसाद नहीं ग्रहण करतीं ,और कारण बतातीं हैं कि #मेरे_पतिदेव_मना_करते_हैं, ऐसी स्त्रियों का पतन ही नहीं #घोर_पतन होता है।

#समाधान 

पति की सेवा में बाधा न हो, फिर भी यदि पति नास्तिकता के कारण अश्रद्धा या दुष्टता के कारण पत्नी को जपादि करने को मना करता हो तो उसकी आज्ञा का अतिक्रमण करके गोपियों की तरह व्रत देवाराधन जप आदि करने पर स्त्रियों का पतन कदापि नहीं होता, #उत्थान ही होता है।
        
जपादि का निषेध उसी स्थिति में है कि पत्नी को पति के अनुकूल होकर ही घरमें भगवान् की सेवा पूजा करनी चाहिए। यदि पति अहङ्कार में मना करे तो उल्लंघन करे लेकिन यदि पति अनुकूल हो तो आज्ञा लेकर ही सेवा करनी चाहिए। यही शिष्टाचार है। 

     पति की ही भाँति सास ससुर माता पिता गुरु, आदि की यथायोग्य लोगों के आशीर्वाद और आज्ञा लेकर ही छोटो को सेवा पूजा करनी चाहिए। बड़ो की और सन्तों की आज्ञा में रहकर वर्तन करना ही शास्त्र की मर्यादा है और इसी से भगवान् प्रसन्न होते हैं।

 यदि बड़े भी नास्तिकता वश जप भजन आदि की आज्ञा न दें, तो उनकी भी आज्ञा का पालन न करने से भी कोई दोष नहीं होता। 

लेकिन बड़े होने के नाते उनकी आज्ञा एक बार लेनी चाहिए, न मानें तो साम दाम लगाकर प्रयास करना चाहिए। जब कोई उपाय न हो तो स्वयम् आज्ञा का उल्लंघन करें।।

इसीलिए गोस्वामी जी ने कहा है ---
   #जाके प्रिय न राम वैदेही।
ताजिय ताहि कोटि वैरी सम यद्यपि परम सनेही।
बलि गुरु त्यजेउ कन्त ब्रज वनितन्हि भये जग मंगल कारी।(विनय .१७४)।। 
सो सब करम धरम जरि जाऊ।।....

- आचार्य मण्डन मिश्र का लेख (थोडा मेरे द्वारा परिष्कृत)

सेहत मंत्र.......

1. फ्रिज का अत्यधिक ठंडा पानी पीने से बड़ी आँत सिकुड़ जाती है।

2. गर्म पानी से नहाने से शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता क्षीण होती है।

3. खड़े होकर मूत्रत्याग करने से रीढ़ की हड्डी कमजोर होती है।

4. चैत्र माह में नीम के पत्ते खाने से रक्त शुद्ध होता है।

5. अनार आँव, संग्रहणी, पुरानी खाँसी व हृदयरोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ औषधि है।

6. चोकर खाने से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है।

7. जल जाने पर आलू का रस, हल्दी, शहद या घृतकुमारी में से कुछ भी लगाने पर जलन ठीक हो जाती है और फफोले भी नहीं पड़ते।

8. पैर के अँगूठों के नाखूनों को सरसों के तेल से भिगोने से आँखों की खुजली, लाली और जलन ठीक हो जाती है।

9. चोट, सूजन, दर्द, घाव या फोड़ा होने पर उस पर 5 - 20 मिनट तक चुम्बक रखने से जल्दी ठीक होता है। हड्डी टूटने पर चुम्बक का प्रयोग करने से आधे से भी कम समय में चोट ठीक हो जाती है।

10. प्रातः का भोजन राजकुमार के समान, दोपहर का राजा और रात्रि का भिखारी के समान करना चाहिए।

11. गेहूँ के दाने के बराबर चूना गन्ने के रस में मिलाकर पिलाने से पीलिया बहुत जल्दी ठीक हो जाता है।

12. जीरा पेट दर्द में बहुत लाभदायक है। जीरे को तवे पर भून लें। 2-3 ग्राम की मात्रा गरम पानी के साथ दिन में 3-4 बार लें या वैसे ही चबाकर खायें, शीघ्र लाभ प्राप्त होता है।

13. जोर लगाकर छींकने से कानों को क्षति पहुँचती है।

14. अधिक झुककर पुस्तक पढ़ने से फेफड़ों को हानि पहुँचती है एवं टीबी होने का भय रहता है।

15. तुलसी के नित्य सेवन से कभी मलेरिया नहीं होता।

16. हृदय रोगियों के लिए अर्जुन की छाल, लौकी का रस, तुलसी, पुदीना, मौसम्मी, सेंधानमक, गुड़, चोकरयुक्त आटा और छिलकेयुक्त अनाज औषधियाँ हैं।

17. भोजन के पश्चात् पान, गुड़ या सौंफ खाने से पाचन अच्छा होता है।

18. मुँह से साँस लेने से आयु कम होती है।

19. भोजन पकाने के बाद उसमें नमक डालने से ब्लड प्रेशर बढ़ता है।

20. दूध के साथ नमक या नमकीन पदार्थ खाने से विभिन्नप्रकार के चर्मरोग होते हैं।

21. मुलेहटी चूसने से कफ बाहर आ जाता है और आवाज मधुर हो जाती है।

22. नीबू का सेवन गन्दा पानी पीने से होने वाले विभिन्न रोगों से बचाता है।

23. खाने के लिए सेन्धानमक सर्वश्रेष्ठ होता है। उसके बाद काले नमक का स्थान आता है। सफेद नमक जहर के समान होता है।

संयुक्त परिवार का आनंद है।

मम्मी , मम्मी ! मैं उस बुढिया के साथ स्कूल नही जाऊंगा, ना ही उसके साथ वापस आउँगा, " दस वर्ष के बेटे ने गुस्से से अपना स्कूल बैग फेंकते हुए अपनी माँ से कहा तो ये सुन उसकी माँ बुरी तरह से चौंक गई।


यह क्या कह रहा है ? आखिर हुआ क्या ?

अपनी दादी को बुढिया क्यों कह रहा है?
कहाँ से सीख रहा है इतनी बदतमीजी?

माँ सोच ही रही थी कि बगल के कमरे से उसके चाचा बाहर निकले और पूछा-"क्या हुआ बेटा?"

उसने फिर कहा- "चाहे कुछ भी हो जाए मैं उस बुढिया के साथ कल से स्कूल नहीं जाउँगा। हमेशा डाँटती रहती है ,पूरा रास्ता किट किट करती रहती है और मेरे दोस्त भी मुझे चिढाते हैं।"

घर के सारे लोग उसकी बात पर चकित थे।

हालांकि घर मे बहुत सारे लोग थे , माँ और पिता ,दो चाचा और चाची , एक बुआ , दादाजी और नौकर भी , फिर भी बच्चे को स्कूल छोडने और लाने की जिम्मेदारी उसकी दादी की थी।

पैरों मे दर्द के साथ सुगर भी था पर पोते के प्रेम मे कभी शिकायत नही करती थी।बहुत प्यार करती थी उसको ,अपने जान से भी ज्यादा , क्योंकि घर का पहला पोता था।

पर आज अचानक बेटे के मुँह से उनके लिए ऐसे शब्द सुनकर सबको बहुत आश्चर्य हो रहा था।

शाम को खाने पर उसे बहुत समझाया गया पर वह अपनी जिद पर अडा रहा और पिता ने तो गुस्से मे उसे थप्पड़ भी मार दिया।

तब सबने तय किया कि कल से उसे स्कूल छोडने और लेने उसकी दादी नही जाएँगी।

अगले दिन से कोई और उसे लाने ले जाने लगा पर उसकी माँ का मन अब भी बहुत विचलित था कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया?

शाम का समय था, माँ ने दूध गर्म किया और बेटे को देने के लिए उसे ढुँढने लगी, जब वो उसे ढूँढ़ते ढूँढ़ते छत पर पहुँची तो बेटे के मुँह से उसके बारे मे बात करते सुन कर उसके पैर ठिठक गये।

माँ छुपकर उसकी बात सुनने लगी, वह अपनी दादी के गोद मे सर रख कर कह रहा था-"मैं जानता हूँ दादी कि मम्मी मुझसे नाराज है, पर मैं क्या करता? इतनी भीषण ज्यादा गर्मी मे भी वो आपको मुझे लेने भेज देती थे।
आपके पैरों मे दर्द भी तो रहता है, आपको चलने में कितनी तकलीफ़ होती है , मैने मम्मी से कहा तो उन्होंने कहा कि दादी अपनी मर्जी से जाती हैं ,मना करने पर भी नहीं सुनती है। दादी , मैंने झूँठ बोला, बहुत गलत किया पर आपको परेशानी से बचाने के लिये मुझे यही सुझा। आप मम्मी को बोल दो कि वो मुझे माफ कर दे।"

वह कहता जा रहा था ।उसकी बातें सुन माँ के पैर तथा मन सुन्न पड़ गये थे। माँ को अपने छोटे से बेटे के झुठ बोलने के पीछे के बड़प्पन को महसुस कर गर्व हो रहा था।

माँ ने दौड कर उसे अपने गले से लगा लिया और बोली- "नहीं , बेटे तुमने कुछ गलत नही किया। हम सभी पढे लिखे नासमझो को समझाने का यही तरीका था।धन्यवाद मेरे लाल।

उधर दादी ने अपनी आँखें नचाते हुए कहा... लेकिन सुन लो बहू ,गर्मी जब कम होगी तो मुन्ने को स्कूल छोड़ने औऱ लाने मैं ही जाऊंगी नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।

#यही संयुक्त परिवार का आनंद है जो केवल भाग्यवान लोगों को ही मिल पाता है।
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ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

जो परिस्थितियों से लड़ा वही जीता

       इस जीवन का एक-एक क्षण बहुत मूल्यवान् है। मनुष्य को चाहिए वह पुरुषार्थ के बल पर इसकी पूरी कीमत लेने का प्रयत्न करें।समुद्र की तरह जीवन-मन्थन करने से भी मनुष्य को सुख-शान्ति के असंख्यों रत्न मिलते हैं। जीवन-मन्थन का अर्थ है- सामने आए हुए संघर्षों तथा बाधाओं से अनवरत लड़ते रहना।जो प्रतिकूलताओं को देखकर डर जाता है, मैदान छोड़ देता है, वह जीवन की अनन्त उपलब्धियों में से एक कण भी नहीं पा सकता।मानव-जीवन एक दुर्लभ उपलब्धि है। एक अलौकिक अवसर है। यह बात ठीक-ठीक उन्हीं लोगों की समझ में आती है, जो इसका सदुपयोग करके इस लाभ को प्रत्यक्ष देख लेते हैं। मानव जीवन का क्या महत्व है? इसको केवल दो व्यक्ति ही बता सकते हैं, एक तो वे जिन्होंने इसके चमत्कारों को अपने अनुभवों में स्पष्ट देखा है, दूसरे वे जो इसे व्यर्थ में बर्बाद करके इसके अन्तिम बिन्दु पर पहुँचकर पछता रहे हैं।जीवन की बहुमूल्य विभूतियांँ पाने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए, अपने को पूरी तरह से दाँव पर लगा देना चाहिए। जो इसकी निधियाँ प्राप्त करने का संकल्प लेकर कार्य में जुटा रहता है, वह अवश्य सफल और सुखी होता है। मानव जीवन अमोल रत्नों का भण्डार है। अपरिमित विभूतियों का विधान है, किन्तु इसकी विभूतियांँ उसे ही प्राप्त होती है, जो उनके लिए प्रयत्न करता है, उनके लिए पसीना बहाता है। आलसी और स्थगनशील व्यक्ति इसकी एक छोटी सी सिद्धि भी नहीं पा सकता। जो साहसी है, सतर्क और सावधान है, मानव जीवन की अनन्त विभूतियांँ केवल वही पा सकता है, जीवन-रण में केवल वही विजय प्राप्त कर सकता है, जो किसी भी परिस्थिति में हिम्मत नहीं हारता। जीवन उसी का सफल होता है, जिसके यापन के पीछे कोई सदुद्देश्य अथवा कोई ऊंँचा लक्ष्य रहता है।

पं श्री राम शर्मा आचार्य

सूरदास जी कृत हरि और शिव की सुन्दर स्तुति ।।

हरिहर सङ्कर नमो नमो

श्रीहरि और श्रीशङ्कर एक ही स्वरूप (चैतन्य) से अवस्थित है। इन दोनों शङ्करों को मेरा (सूर का) प्रणाम है। 

अहिसायी अहि-अङ्ग-विभूषण, अमितदान, बलविषहारी ।

दोनों में बहुत साम्य है। भगवान् विष्णु शेषनाग की शैय्या बनाकर विश्राम करते हैं और भगवान शंकर नागो को अङ्गों पर भूषण बनाकर धारण करते हैं। भगवान् जगत् का पालन करते हुए सबको अनन्त दान करने वाले हैं तो भगवान शङ्कर ने प्रचण्ड विषपान कर सम्पूर्ण सृष्टि को प्राणदान किया। 

नीलकण्ठ, बर नीलकलेवर; प्रेम परस्पर, कृतहारी ।

श्रीकृष्ण का सारा शरीर नीले रङ्ग का है, उधर शङ्कर ने भीषण विषपान करके अपने को नीलकण्ठी बना रखा है। ये दोनों ही प्रभु एक दूसरे से समान प्रेम करते हैं, दोनों ही अशुभ कर्मों का नाश करने वाले हैं। 

चन्द्रचूड़, सिखि-चन्द्रसरोरुह; जमुनाप्रिय, गङ्गाधारी ।

ये दोनों समानधर्मी हैं। एक तो मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करते हैं तो दूसरे चन्द्रकला जैसे मोरपङ्खों को अपने मस्तक पर धारण किए रहते हैं। एक को यमुना प्रिय है तो दूसरे गङ्गाधारी हैं। एक गायें चराने जाते हैं तो उनका सम्पूर्ण शरीर गायों की रेणु से मण्डित है और दूसरे भस्म से विभूषित हैं। 

सुरभिरेनुतन, भस्मविभूति; वृषवाहन, वनवृषचारी ।

भगवान् शङ्कर बैल की सवारी करते हैं तो श्रीकृष्ण जङ्गल में बछड़े चराते हैं। ये दोनों एक जैसे हैं। अजन्मा, अनीह, कृपालु और एकरस। इन दोनों के कामों के कोई अन्तर नहीं है। 

अज अनीह अविरुद्ध एकरस, यहँ अधिक ये अवतारी ।
सूरदास सम-रूप-नाम-गुन, अन्तर अनुचर-अनुसारी ।।

किन्तु विष्णु में एक बात अधिक है, यह अवतारी हैं और शिव उनके अंश अवतार।
सूरदास कहते हैं - “रूप, नाम और गुण तीनों इन दोनों में समान हैं, केवल अन्तर यह है कि एक अनुचर हैं और दूसरा उसके स्वामी अनुसरण करवाने वाले ।