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संयुक्त परिवार का आनंद है।

मम्मी , मम्मी ! मैं उस बुढिया के साथ स्कूल नही जाऊंगा, ना ही उसके साथ वापस आउँगा, " दस वर्ष के बेटे ने गुस्से से अपना स्कूल बैग फेंकते हुए अपनी माँ से कहा तो ये सुन उसकी माँ बुरी तरह से चौंक गई।


यह क्या कह रहा है ? आखिर हुआ क्या ?

अपनी दादी को बुढिया क्यों कह रहा है?
कहाँ से सीख रहा है इतनी बदतमीजी?

माँ सोच ही रही थी कि बगल के कमरे से उसके चाचा बाहर निकले और पूछा-"क्या हुआ बेटा?"

उसने फिर कहा- "चाहे कुछ भी हो जाए मैं उस बुढिया के साथ कल से स्कूल नहीं जाउँगा। हमेशा डाँटती रहती है ,पूरा रास्ता किट किट करती रहती है और मेरे दोस्त भी मुझे चिढाते हैं।"

घर के सारे लोग उसकी बात पर चकित थे।

हालांकि घर मे बहुत सारे लोग थे , माँ और पिता ,दो चाचा और चाची , एक बुआ , दादाजी और नौकर भी , फिर भी बच्चे को स्कूल छोडने और लाने की जिम्मेदारी उसकी दादी की थी।

पैरों मे दर्द के साथ सुगर भी था पर पोते के प्रेम मे कभी शिकायत नही करती थी।बहुत प्यार करती थी उसको ,अपने जान से भी ज्यादा , क्योंकि घर का पहला पोता था।

पर आज अचानक बेटे के मुँह से उनके लिए ऐसे शब्द सुनकर सबको बहुत आश्चर्य हो रहा था।

शाम को खाने पर उसे बहुत समझाया गया पर वह अपनी जिद पर अडा रहा और पिता ने तो गुस्से मे उसे थप्पड़ भी मार दिया।

तब सबने तय किया कि कल से उसे स्कूल छोडने और लेने उसकी दादी नही जाएँगी।

अगले दिन से कोई और उसे लाने ले जाने लगा पर उसकी माँ का मन अब भी बहुत विचलित था कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया?

शाम का समय था, माँ ने दूध गर्म किया और बेटे को देने के लिए उसे ढुँढने लगी, जब वो उसे ढूँढ़ते ढूँढ़ते छत पर पहुँची तो बेटे के मुँह से उसके बारे मे बात करते सुन कर उसके पैर ठिठक गये।

माँ छुपकर उसकी बात सुनने लगी, वह अपनी दादी के गोद मे सर रख कर कह रहा था-"मैं जानता हूँ दादी कि मम्मी मुझसे नाराज है, पर मैं क्या करता? इतनी भीषण ज्यादा गर्मी मे भी वो आपको मुझे लेने भेज देती थे।
आपके पैरों मे दर्द भी तो रहता है, आपको चलने में कितनी तकलीफ़ होती है , मैने मम्मी से कहा तो उन्होंने कहा कि दादी अपनी मर्जी से जाती हैं ,मना करने पर भी नहीं सुनती है। दादी , मैंने झूँठ बोला, बहुत गलत किया पर आपको परेशानी से बचाने के लिये मुझे यही सुझा। आप मम्मी को बोल दो कि वो मुझे माफ कर दे।"

वह कहता जा रहा था ।उसकी बातें सुन माँ के पैर तथा मन सुन्न पड़ गये थे। माँ को अपने छोटे से बेटे के झुठ बोलने के पीछे के बड़प्पन को महसुस कर गर्व हो रहा था।

माँ ने दौड कर उसे अपने गले से लगा लिया और बोली- "नहीं , बेटे तुमने कुछ गलत नही किया। हम सभी पढे लिखे नासमझो को समझाने का यही तरीका था।धन्यवाद मेरे लाल।

उधर दादी ने अपनी आँखें नचाते हुए कहा... लेकिन सुन लो बहू ,गर्मी जब कम होगी तो मुन्ने को स्कूल छोड़ने औऱ लाने मैं ही जाऊंगी नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।

#यही संयुक्त परिवार का आनंद है जो केवल भाग्यवान लोगों को ही मिल पाता है।
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ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

जो परिस्थितियों से लड़ा वही जीता

       इस जीवन का एक-एक क्षण बहुत मूल्यवान् है। मनुष्य को चाहिए वह पुरुषार्थ के बल पर इसकी पूरी कीमत लेने का प्रयत्न करें।समुद्र की तरह जीवन-मन्थन करने से भी मनुष्य को सुख-शान्ति के असंख्यों रत्न मिलते हैं। जीवन-मन्थन का अर्थ है- सामने आए हुए संघर्षों तथा बाधाओं से अनवरत लड़ते रहना।जो प्रतिकूलताओं को देखकर डर जाता है, मैदान छोड़ देता है, वह जीवन की अनन्त उपलब्धियों में से एक कण भी नहीं पा सकता।मानव-जीवन एक दुर्लभ उपलब्धि है। एक अलौकिक अवसर है। यह बात ठीक-ठीक उन्हीं लोगों की समझ में आती है, जो इसका सदुपयोग करके इस लाभ को प्रत्यक्ष देख लेते हैं। मानव जीवन का क्या महत्व है? इसको केवल दो व्यक्ति ही बता सकते हैं, एक तो वे जिन्होंने इसके चमत्कारों को अपने अनुभवों में स्पष्ट देखा है, दूसरे वे जो इसे व्यर्थ में बर्बाद करके इसके अन्तिम बिन्दु पर पहुँचकर पछता रहे हैं।जीवन की बहुमूल्य विभूतियांँ पाने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए, अपने को पूरी तरह से दाँव पर लगा देना चाहिए। जो इसकी निधियाँ प्राप्त करने का संकल्प लेकर कार्य में जुटा रहता है, वह अवश्य सफल और सुखी होता है। मानव जीवन अमोल रत्नों का भण्डार है। अपरिमित विभूतियों का विधान है, किन्तु इसकी विभूतियांँ उसे ही प्राप्त होती है, जो उनके लिए प्रयत्न करता है, उनके लिए पसीना बहाता है। आलसी और स्थगनशील व्यक्ति इसकी एक छोटी सी सिद्धि भी नहीं पा सकता। जो साहसी है, सतर्क और सावधान है, मानव जीवन की अनन्त विभूतियांँ केवल वही पा सकता है, जीवन-रण में केवल वही विजय प्राप्त कर सकता है, जो किसी भी परिस्थिति में हिम्मत नहीं हारता। जीवन उसी का सफल होता है, जिसके यापन के पीछे कोई सदुद्देश्य अथवा कोई ऊंँचा लक्ष्य रहता है।

पं श्री राम शर्मा आचार्य

सूरदास जी कृत हरि और शिव की सुन्दर स्तुति ।।

हरिहर सङ्कर नमो नमो

श्रीहरि और श्रीशङ्कर एक ही स्वरूप (चैतन्य) से अवस्थित है। इन दोनों शङ्करों को मेरा (सूर का) प्रणाम है। 

अहिसायी अहि-अङ्ग-विभूषण, अमितदान, बलविषहारी ।

दोनों में बहुत साम्य है। भगवान् विष्णु शेषनाग की शैय्या बनाकर विश्राम करते हैं और भगवान शंकर नागो को अङ्गों पर भूषण बनाकर धारण करते हैं। भगवान् जगत् का पालन करते हुए सबको अनन्त दान करने वाले हैं तो भगवान शङ्कर ने प्रचण्ड विषपान कर सम्पूर्ण सृष्टि को प्राणदान किया। 

नीलकण्ठ, बर नीलकलेवर; प्रेम परस्पर, कृतहारी ।

श्रीकृष्ण का सारा शरीर नीले रङ्ग का है, उधर शङ्कर ने भीषण विषपान करके अपने को नीलकण्ठी बना रखा है। ये दोनों ही प्रभु एक दूसरे से समान प्रेम करते हैं, दोनों ही अशुभ कर्मों का नाश करने वाले हैं। 

चन्द्रचूड़, सिखि-चन्द्रसरोरुह; जमुनाप्रिय, गङ्गाधारी ।

ये दोनों समानधर्मी हैं। एक तो मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करते हैं तो दूसरे चन्द्रकला जैसे मोरपङ्खों को अपने मस्तक पर धारण किए रहते हैं। एक को यमुना प्रिय है तो दूसरे गङ्गाधारी हैं। एक गायें चराने जाते हैं तो उनका सम्पूर्ण शरीर गायों की रेणु से मण्डित है और दूसरे भस्म से विभूषित हैं। 

सुरभिरेनुतन, भस्मविभूति; वृषवाहन, वनवृषचारी ।

भगवान् शङ्कर बैल की सवारी करते हैं तो श्रीकृष्ण जङ्गल में बछड़े चराते हैं। ये दोनों एक जैसे हैं। अजन्मा, अनीह, कृपालु और एकरस। इन दोनों के कामों के कोई अन्तर नहीं है। 

अज अनीह अविरुद्ध एकरस, यहँ अधिक ये अवतारी ।
सूरदास सम-रूप-नाम-गुन, अन्तर अनुचर-अनुसारी ।।

किन्तु विष्णु में एक बात अधिक है, यह अवतारी हैं और शिव उनके अंश अवतार।
सूरदास कहते हैं - “रूप, नाम और गुण तीनों इन दोनों में समान हैं, केवल अन्तर यह है कि एक अनुचर हैं और दूसरा उसके स्वामी अनुसरण करवाने वाले ।

भोग लगाएं किसलिए ?

एक बार मैंने सुबह टीवी खोला तो जगत गुरु शंकराचार्य कांची कामकोटि जी से प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम चल रहा था। 

एक व्यक्ति ने प्रश्न किया कि हम भगवान को भोग क्यों लगाते हैं ? 

हम जो कुछ भी भगवान को चढ़ाते हैं 

उसमें से भगवान क्या खाते हैं?
क्या पीते हैं?
क्या हमारे चढ़ाए हुए पदार्थ के रुप रंग स्वाद या मात्रा में कोई परिवर्तन होता है?

यदि नहीं तो हम यह कर्म क्यों करते हैं। क्या यह पाखंड नहीं है? 

यदि यह पाखंड है तो हम भोग लगाने का पाखंड क्यों करें ? 

मेरी भी जिज्ञासा बढ़ गई थी कि शायद प्रश्नकर्ता ने आज जगद्गुरु शंकराचार्य जी को बुरी तरह घेर लिया है देखूं क्या उत्तर देते हैं। 

किंतु जगद्गुरु शंकराचार्य जी तनिक भी विचलित नहीं हुए । बड़े ही शांत चित्त से उन्होंने उत्तर देना शुरू किया। 

उन्होंने कहा यह समझने की बात है कि जब हम प्रभु को भोग लगाते हैं तो वह उसमें से क्या ग्रहण करते हैं। 

मान लीजिए कि आप लड्डू लेकर भगवान को भोग चढ़ाने मंदिर जा रहे हैं और रास्ते में आपका जानने वाला कोई मिलता है और पूछता है यह क्या है तब आप उसे बताते हैं कि यह लड्डू है। फिर वह पूछता है कि किसका है?

तब आप कहते हैं कि यह मेरा है। 

फिर जब आप वही मिष्ठान्न प्रभु के श्री चरणों में रख कर उन्हें समर्पित कर देते हैं और उसे लेकर घर को चलते हैं तब फिर आपको जानने वाला कोई दूसरा मिलता है और वह पूछता है कि यह क्या है ?

तब आप कहते हैं कि यह प्रसाद है फिर वह पूछता है कि किसका है तब आप कहते हैं कि यह हनुमान जी का है ।

अब समझने वाली बात यह है कि लड्डू वही है।

उसके रंग रूप स्वाद परिमाण में कोई अंतर नहीं पड़ता है तो प्रभु ने उसमें से क्या ग्रहण किया कि उसका नाम बदल गया । वास्तव में प्रभु ने मनुष्य के अहंकार को हर लिया । यह मेरा है का जो भाव था , अहंकार था प्रभु के चरणों में समर्पित करते ही उसका हरण हो गया ।

प्रभु को भोग लगाने से मनुष्य विनीत स्वभाव का बनता है शीलवान होता है । अहंकार रहित स्वच्छ और निर्मल चित्त मन का बनता है । 

इसलिए इसे पाखंड नहीं कहा जा सकता है । 

यह मनोविज्ञान है ।

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खंडित हो रहे परिवार, हमारी संस्कृति में गिरावट के प्रतीक।।

✒️ प्रियंका सौरभ

♦️💠परिवार, भारतीय समाज में, अपने आप में एक संस्था है और प्राचीन काल से ही भारत की सामूहिक संस्कृति का एक विशिष्ट प्रतीक है। संयुक्त परिवार प्रणाली या एक विस्तारित परिवार भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता रही है, जब तक कि शहरीकरण और पश्चिमी प्रभाव के मिश्रण ने उस संस्था को झटका देना शुरू नहीं किया। परिवार एक बुनियादी और महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था है जिसकी व्यक्तिगत और साथ ही सामूहिक नैतिकता को प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका है। परिवार सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों का पोषण और संरक्षण करता है। एक संस्था के रूप में परिवार का आज पतन देखें तो अर्थव्यवस्था के बढ़ते व्यावसायीकरण और आधुनिक राज्य के बुनियादी ढांचे के विकास ने 20 वीं शताब्दी में भारत में परिवार की संरचना में एक महत्वपूर्ण बदलाव किया है। विशेष रूप से, पिछले कुछ दशकों में पारिवारिक जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।

♦️💠गिरावट के प्रतीक के रूप में आज परिवार खंडित हो रहा है, वैवाहिक सम्बन्ध टूटने, आपसे भाईचारे में दुश्मनी एवं हर तरह के रिश्तों में कानूनी और सामाजिक झगड़ों में वृद्धि हुई है। आज सामूहिकता पर व्यक्तिवाद हावी हो गया है. इसके कारण भैतिक उन्मुख, प्रतिस्पर्धी और अत्यधिक आकांक्षा वाली पीढ़ी तथाकथित जटिल पारिवारिक संरचनाओं से संयम खो रही है। जिस तरह व्यक्तिवाद ने अधिकारों और विकल्पों की स्वतंत्रता का दावा किया है। उसने पीढ़ियों को केवल भौतिक समृद्धि के परिप्रेक्ष्य में जीवन में उपलब्धि की भावना देखने के लिए मजबूर कर दिया है।

♦️💠ये सभी परिवर्तन बढ़ते शहरीकरण के संदर्भ में हो रहे हैं, जो बच्चों को बड़ों से अलग कर रहा है और परिवार-आधारित सहायता प्रणालियों के विघटन में योगदान दे रहा है। परिवार व्यवस्था में गिरावट लोगों में मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों का सामना करने के मामले पैदा कर सकती है। संस्था के रूप में परिवार में गिरावट समाज में संरचनात्मक परिवर्तन लाएगी। पर्याप्त सामाजिक-आर्थिक विकास और कृषि से बदलाव के संयुक्त प्रभाव के कारण प्रजनन क्षमता में गिरावट आई है। बच्चों की संख्या के बजाय जीवन की गुणवत्ता पर जोर दिया गया, परिवार में एक नई अवधारणा जोड़ी गई। वाहक उन्मुख, प्रतिस्पर्धी और अत्यधिक आकांक्षात्मक पीढ़ियां तथाकथित जटिल पारिवारिक संरचनाओं से संयम बरत रही हैं। व्यक्तिवाद ने अधिकारों और विकल्पों की स्वतंत्रता पर जोर दिया। इसने पीढ़ियों को केवल भौतिक समृद्धि के नजरिए से जीवन में उपलब्धि की भावना को देखने के लिए मजबूर किया।

💠♦️दृष्टिकोण, व्यवहार और समझौता मूल्यों में प्रौद्योगिकी द्वारा संचालित परिवर्तन विवाह टूटने का प्रमुख कारण बनता जा रहा है। असामाजिक व्यवहार तेजी से परिवारों को नष्ट कर रहा है। उच्च आय और परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति कम जिम्मेदारी ने विस्तारित परिवारों को अलग होने के लिए आकर्षित किया है। आज के अधिकांश सामाजिक कार्य, जैसे बच्चे की परवरिश, शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, बुजुर्गों की देखभाल, आदि, बाहरी एजेंसियों, जैसे कि क्रेच, मीडिया, नर्सरी स्कूल, अस्पताल, व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र द्वारा अपने हाथ में ले लिए गए हैं। , धर्मशाला संस्थान, अंतिम संस्कार ठेकेदार, आदि। ये कार्य पहले विशेष रूप से परिवार द्वारा किए जाते थे।

“💠बड़े बात करते नहीं, छोटों को अधिकार !
चरण छोड़ घुटने छुए, कैसे ये संस्कार !!
कहाँ प्रेम की डोर अब, कहाँ मिलन का सार !
परिजन ही दुश्मन हुए, छुप-छुप करे प्रहार !! “

♦️💠परिवार संस्था के पतन ने हमारे भावनात्मक रिश्तों में बाधा पैदा कर दी है. एक परिवार में एकीकरण बंधन आपसी स्नेह और रक्त से संबंध हैं। एक परिवार एक बंद इकाई है जो हमें भावनात्मक संबंधों के कारण जोड़कर रखता है। नैतिक पतन परिवार के टूटने में अहम कारक है क्योंकि वे बच्चों को दूसरों के लिए आत्म सम्मान और सम्मान की भावना नहीं भर पाते हैं। पद-पैसों की अंधी दौड़ से आज सामाजिक-आर्थिक सहयोग और सहायता का सफाया हो गया है. परिवार अपने सदस्यों, विशेष रूप से शिशुओं और बच्चों के विकास और विकास के लिए आवश्यक वित्तीय और भौतिक सहायता तक सिमित हो गए हैं, हम आये दिन कहीं न कहीं बुजुर्गों सहित अन्य आश्रितों की देखभाल के लिए, अक्षम और दुर्बल परिवार प्रणाली की गिरावट की बातें सुनते और देखते हैं जब उन्हें अत्यधिक देखभाल और प्यार की आवश्यकता होती है।

♦️💠परिवार एक बहुत ही तरल सामाजिक संस्था है और निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया में है। समान-लिंग वाले जोड़ों (एलजीबीटी संबंध), सहवास या लिव-इन संबंधों, एकल-माता-पिता के घरों, अकेले या अपने बच्चों के साथ रहने वाले तलाकशुदा लोगों के एक बड़े हिस्से ने अब इस संस्था को कमजोर कर दिया है। इस प्रकार के परिवार अनिवार्य रूप से पारंपरिक नातेदारी समूह के रूप में कार्य नहीं कर सकते हैं और भविष्य में समाजीकरण के लिए संस्था साबित नहीं हो सकते। भौतिकवादी युग में एक-दूसरे की सुख-सुविधाओं की प्रतिस्पर्धा ने मन के रिश्तों को झुलसा दिया है.

♦️💠कच्चे से पक्के होते घरों की ऊँची दीवारों ने आपसी वार्तालाप को लुप्त कर दिया है. पत्थर होते हर आंगन में फ़ूट-कलह का नंगा नाच हो रहा है. आपसी मतभेदों ने गहरे मन भेद कर दिए है. बड़े-बुजुर्गों की अच्छी शिक्षाओं के अभाव में घरों में छोटे रिश्तों को ताक पर रखकर निर्णय लेने लगे है. फलस्वरूप आज परिजन ही अपनों को काटने पर तुले है. एक तरफ सुख में पडोसी हलवा चाट रहें है तो दुःख अकेले भोगने पड़ रहें है. हमें ये सोचना -समझना होगा कि अगर हम सार्थक जीवन जीना चाहते है तो हमें परिवार की महत्ता समझनी होगी और आपसी तकरारों को छोड़कर परिवार के साथ खड़ा होना होगा तभी हम बच पायंगे और ये समाज रहने लायक होगा।

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शास्त्रों में भोजन के नियम क्या हैं?


बल, आयु, रूप और गुण प्रदान करने वाला भोजन महज स्वाद के लिए खाई जाने वाली चीज नहीं है। इसलिए प्राचीन ग्रंथों में भोजन के नियम बताए गए हैं, जिनका आधार शरीर क्रिया विज्ञान, चिकित्सा और मनोविज्ञान हैं।

भोजन हमेशा एकांत में ही करना चाहिए। -वसिष्ठस्मृति, स्कंदपुराण

• दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख इन पांच अंगों को धोकर ही भोजन करना चाहिए। ऐसा करने वाला शतायु होता है।
~ पद्मपुराण, सुश्रुतसंहिता, महाभारत

भोजन करते समय मौन रहना चाहिए। -स्कंदपुराण

परोसे हुए भोजन की निंदा नहीं करनी चाहिए। वह स्वाद में जैसा भी हो, उसे प्रेम से ग्रहण करना चाहिए। -महाभारत, तैत्तिरीय उपनिषद्

• रात में भरपेट भोजन नहीं करना चाहिए।
~ स्कंदपुराण

सोने की जगह पर बैठकर खानपान न करें, हाथ में लेकर भी कुछ न खाएं अर्थात पात्र में लेकर ही खाएं।
~ मनुस्मृति, सुश्रुतसंहिता

• बहुत थके हुए हों तो आराम करने, के बाद ही कुछ खाएं-पिएं। अधिक थकावट की स्थिति में कुछ भी खाने से ज्वर या उलटी होने की आशंका रहती है। -नीतिवाक्यामृतम्

जूठा किसी को न दें और स्वयं .भी न खाएं, चाहे वह आपका छोड़ा हुआ अन्न ही क्यों न हो। भोजन के बाद जूठे मुंह कहीं न जाएं।
~ मनुस्मृति

• जो सेवक स्वयं भूख से पीड़ित हो

और उसे आपके लिए भोजन लाना पड़े तो ऐसां भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। जो आपके प्रति प्रेम-स्नेह नहीं रखता उसका अत्र भी नहीं। खाना चाहिए। -चरकसंहिता

• खाने की चीजों को गोद में रखकर नहीं खाना चाहिए।
~ बौधायनस्मृति, कूर्मपुराण

अंधेरे में, आकाश के नीचे, देवमंदिर में भोजन नहीं करना चाहिए। इसी तरह एक वस्त्र पहनकर, सवारी या बिस्तर पर बैठकर, जूते चप्पल पहने हुए और हंसते या रोते हुए भी कुछ नहीं खाना चाहिए।
~ कूर्मपुराण