सिद्धाश्रम एक अत्यंत उच्चकोटि की भावभूमि पर एक अत्यन्त सिद्ध आश्रम है जो कई वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इसके एक ओर कैलाश मानसरोवर है दूसरी ओर ब्रह्म सरोवर है और तीसरी ओर विष्णु तीर्थ है। इन तीनों पुण्य स्थलियों के बीच यह सिद्धाश्रम स्थित है। स्वयं विश्वकर्मा ने ब्रह्मादि के कहने पर इस आश्रम की रचना की।
परमहंस स्वामी सच्चिदानंद प्रभु जिनकी आयु हजारों-हजारों वर्षो की है और जो समस्त गुरुओं के गुरु हैं वे इस श्रेष्ठतम आश्रम के संस्थापक, संचालक एवं नियंता हैं। सच्चिदानंद जी के बारे में स्वयं ब्रह्मा ने कहा है कि वे साक्षात ब्रह्मा का मूर्तिमय पुंज है।
भगवान शिव ने उनको आत्म स्वरुप कहा है और सभी देवी-देवता उनकी एक झलक पाने को लालायित रहते हैं। सिद्धाश्रम में चारों ओर दिव्य स्फटिक शिलाएं देखने को मिलती हैं जिस पर हजारों वर्ष के योगी साधनारत एवं समाधिस्थ हैं। वहां जगह-जगह पर दिव्य कल्पवृक्ष देखने को मिलते हैं जिनका विभिन्न शास्त्रों में वर्णन है। इनके नीचे बैठकर व्यक्ति जो इच्छा करता है वह पूर्ण होती ही हैं।
सिद्धाश्रम की आयु अत्यधिक शीतल एवं संगीतयुक्त है। उसमें एक थिरकन है, एक गुनगुनाहट है, एक मधुरता है,अद्वितीयता है। वहां देव संगीत निरंतर गुंजरित होता रहता है एवं उसको सुनकर मन में एक तृष्टि का अहसास होता है। कहीं कहीं उच्च कोटि के योगी यज्ञ सम्पन्न करते दिखाई देते हैं और सारा वातावरण उस यज्ञ की पवित्र धूम से आप्लावित रहता है। वहां सभी अपनी-अपनी क्रिया में संलग्न रहते हैं। वास्तव में ही वहां पहुंचने पर शरीर एवं हृदय ऐसे आनंद से भर जाता है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
इस सिद्धाश्रम का सबसे अधिक आकर्षण का केन्द्र है यहां की सिद्धयोगा झील। कई कि०मी० विस्तार में फैली हुई यह अद्भूत झील कायाकल्प के गुणों से युक्त है। ८० साल का व्यक्ति भी यदि इसमें स्नान कर लेता है तो वह सौन्दर्य से परिपूर्ण कामदेव के समान हो जाता है। उसके सारे मानसिक एवं दैहिक क्लेश समाप्त हो जाते हैं और वह पूर्ण आरोग्य को प्राप्त करता है। इस झील में कई स्फटिक नौकाएं हैं जिसमें साधक जन एवं देवागंनाएं विहार करते दिखाई देते हैं।
वास्तव में ही सिद्धाश्रम काल से परे कालजयी आश्रम है। यहां पर न सुबह होती है न शाम होती है और न ऋतु परिवर्तन ही होता है। यहां पर सदैव वसंत ऋतु का ही मौसम रहता है एवं सदैव ही शीतल चॉदनी सा प्रकाश बिखरा रहता है। योगियों के शरीर से जो आभा प्रकाशित होती है उससे भी यहां प्रकाश फैला रहता है।
इस कालजयी आश्रम में किसी की मृत्यु नहीं होती है। हर कोई सौंदर्यवान, तरुण एवं रोग रहित रहता है। यहां पर उगी वनस्पति, पुष्प एवं कमल भी कभी मुरझाते नहीं है।
सतयुग, त्रेताकालीन, द्वापर कालीन अनेकानेक दिव्य विभूतियां इस दिव्य आश्रम में आज भी विद्यमान हैं। राम, बुद्ध, हनुमान, कृष्ण, महावीर, गोरख नाथ, सप्त ऋषिगण, जिनका नाम लेना ही इस पूरे जीवन को पवित्र और दिव्य बनाने के लिए काफी है। यहां पर सशरीर विद्यमान हैं।
परमहंस त्रिजटा जी महाराज, महावतार बाबा जी आदि इस दिव्य आश्रम की श्रेष्ठ विभूतियां हैं। जगह-जगह पर अनेकानेक योगी तांत्रिक इन महापुरुषों का सत्संग लाभ करते हुए देखे जा सकते हैं। अगर यह भूमि तप भूमि हैं, साधना या तपस्या भूमि हैं तो यह सही अर्थो में सौन्दर्य भूमि भी है। समस्त ब्रह्माण्ड का सौन्दर्य ही मानों इस आश्रम में समाया हुआ है।
सिद्धाश्रम देवताओं के लिए भी दुर्लभ एवं अन्यतम स्थान है, जिसे प्राप्त करने के लिए उच्च कोटि के योगी भी तरसते रहते हैं। प्रत्येक साधक अपने मन में यह आकांक्षा लिये रहता है कि उसे एक बार सिद्धाश्रम प्रवेश का अवसर मिल जाएं।
परमहंस सच्चिदानंद जी के प्रमुख शिष्य युगपुरुष परमहंस निखिलेश्वरानंद जी इस आश्रम के प्राण हैं। आज जो भी नवीनताएं एवं रोचक बदलाव इस आश्रम में हुए हैं वे सब उन्हीं के प्रयत्नों से संभव हो सका है।वास्तव में बिना निखिलेश्वरानंद जी के तो सिद्धाश्रम की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यही कारण है कि सिद्धाश्रम को निखिल भूमि के नाम से भी पुकारा जाता है।
पर इस आश्रम को स्थूल नेत्रों से नहीं देखा जा सकता पर सामान्य व्यक्ति भी सिद्धाश्रम जा सकता है। इसके लिए तीन कसौटियां हैं। प्रथम उसने दस महाविद्याओं में से दो महाविद्याएं सिद्ध की हो या उसने षटचक्र भेदन करके सहस्रार में कुण्डलिनी को अवस्थित कर लिया हो या फिर तीसरा मार्ग है किसी श्रेष्ठतम सद्गुरु की कृपा से सिद्धाश्रम जाना। पर हर कोई सन्यासी या हर कोई गुरु यह नहीं कर सकता।
हरिद्वार, इलाहाबाद, वाराणसी में बैठे संयासी किसी को सिद्धाश्रम नहीं ले जा सकते हैं। शिष्य को वे ही सद्गुरु सिद्धाश्रम ले जा सकते हैं जो स्वयं सिद्धाश्रम की परम्परा से जुड़े हैं, जो सिद्धाश्रम सशरीर गये हुए हैं और वहां से वापस भी आए हैं।
जिनका आवागमन हैं सिद्धाश्रम में, जिन्होंने दसों महाविद्यां सिद्ध की हैं एवं जिनका सहस्रार पूर्ण जागृत हैं,और जो ब्रह्माण्ड भेदन में पूर्ण सिद्धहस्त हैं केवल और केवल मात्र वे ही अपने शिष्य को प्रवेश लेने के बाद सिद्धाश्रम ले जा सकते हैं आप सबका भाग्योदय हो। आप में सिद्धाश्रम जाने की ललक उठे,आपको ऐसे गुरु प्राप्त हो आप उन्हें पहचान सकें एवं उनकी परीक्षाओं में सफल होते हुए सिद्धाश्रम जा सके, यही मेरी कामना है।
परम पूज्य योगीराज परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी महाराज का नाम अपने आप में ही देव गंगा की तरह पवित्र, उज्जवल एवं शीतलता का प्रतीक है। मात्र उनके संसर्ग, साहचर्य एवं सम्पर्क से ही जीवन की पूर्णता का आभास अनुभव होने लगता है।
पूज्य गुरुदेव डा० नारायण दत्त श्रीमाली जी परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी सही अर्थो में पूर्ण योगीश्वर हैं जिन्हें कई-कई हजार वर्षो की आयु का पूर्ण ज्ञान है।
एक ही जीवन जीते हुए उन्होंने प्रत्येक युग को देखा। द्वापर को, त्रेता को और इससे भी पहले वैदिक काल को। उन्हें वैदिक ऋचाएं ज्ञात हैं, द्वापर की एक-एक घटना स्मरण है, त्रेता के एक-एक क्षण के साक्षी रहे हैं।
उन्होंने जो साधनाएं सम्पन्न की है वे अपने आप में ही अद्वितीय हैं। अगम्य हजारों-हजार वर्ष के योगी भी उनके सामने नतमस्तक रहते हैं क्योंकि वे योगी उनके आभ्यतंरिक जीवन एवं भावनाओं से परिचित हैं। वे जानते हैं कि यह व्यक्तित्व अनूठा है, अद्वितीय है, इसके पास ज्ञान एवं साधनाओं का इतना विशाल भण्डार है कि वे योगी कई सौ वर्षो तक उनके साहचर्य में रहकर भी उसे पूरी तरह प्राप्त नहीं कर सकते। सम्पूर्ण वेद एवं शास्त्र उन्हें स्मरण हैं और जब वे बोलते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि स्वयं ब्रह्मा चारों मुख से वेद उच्चारित कर रहे हैं। मैंने उन्हें ब्रह्म स्वरुप को देखा है उनके विष्णु स्वरुप को देखा है, उनके रुद्र स्वरुप को देखा है। उनके रौद्र स्वरुप का भी साक्षी रहा हूं। मैंने उनके जीवन के हर क्षण को जिया है और यह अनुभव किया है कि वास्तव में ही योगीश्वर निखिलेश्वरानंद जी इस समस्त ब्रह्माण्ड की अद्वितीय विभूति हैं और इस बात का साक्षी मैं ही नहीं अपितु सैकडों योगी, ऋषि एवं मुनि रहे हैं।
सिद्धाश्रम का हर योगी इस बात को महसूस करता है कि निखिलेश्वरानंद जी नहीं हैं तो यह सिद्धाश्रम भी नहीं है। क्योंकि निखिलेश्वरानंद जी इस सिद्धाश्रम के कण-कण मैं व्याप्त हैं। वे किसी को दुलार देते हैं, किसी को सहलाते हैं। किसी को झिड़कते हैं तो केवल इसलिए कि वह कुछ सीख लें। केवल इसलिए कि वह कुछ समझ लें, केवल इसलिए कि वह जीवन में पूर्णतया प्राप्त कर लें और सभी ऋषिगण उनके पास बैठकर अत्यंत शीतलता का अनुभव करते हैं। ऐसा लगता है कि एक साथ ब्रह्मा, विष्णु, महेश के साथ बैठे हो।
वे अद्वितीय युग पुरुष हैं हो सकता है कि वर्तमान काल उनको समझ नहीं सके क्योंकि एक अनिर्वचनीय व्यक्तित्व को काल अपनी बाहों में बॉध नहीं सकता, समय उनकी गाथा नहीं गा सकता वह तो जो उनके साथ रहा है,जो साक्षी भूत रहा है वहीं समझ सकता हैक्योंकि उन्होंने तो कई रुपों में जन्म लिया शंकराचार्य के रुप में, बुद्ध के रुप में, महावीर के रुप में, योगियों के रुप में और सभी रुपों में वे अपने-आप में उच्चतम रहे।
कृष्ण ने गीता में अर्जुन को जिस प्रकार अपना विराट स्वरुप दिखाया, उससे भी उच्च एवं अद्धितीय विराट स्वरुप मेरे अलावा हजारों संयासियों ने उनका देखा है और अहसास किया है कि वास्तव में ही वे १०८ कला पूर्ण एवं अद्वितीय व्यक्तित्व हैं। एक युग पुरुष हैं जो एक विशेष उद्देश्य के लिए इस पृथ्वी ग्रह पर आए हैं।
वे सिद्धाश्रम के प्राण हैं। जब भी वे सिद्धाश्रम में आते हैं तो हजारों साल की आयु प्राप्त योगी-यति भी अपनी तपस्या बीच में ही भंग करके खड़े हो जाते हैं। उनके चरणों को स्पर्श करने के लिए होड़ मच जाती हैं। चाहे साधक-साधिकाओं हो,चाहे संयासी-संयासिनियां हो, चाहे योगी हो, चाहे ऋषिगण हो या अप्सराएं हो, सभी में एक ही ललक, एक ही इच्छा, आकांक्षा होती है कि स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के चरणों को स्पर्श किया जाए क्योंकि उनके चरणों को स्पर्श करना ही जीवन का सर्वोच्च भाग्य है। वे जिस रास्ते से गुजर जाते हैं जहां-जहां उनके चरण चिन्ह पड़ जाते हैं। वहां की धूलि उठाकर उच्च कोटि के योगी, संयासी अपने ललाट पर लगाते हैं।अप्सराएं उस माटी से अपनी मांग भरती हैं एवं साधक साधिकाएं उसको चंदन की भांति अपने शरीर पर लगाते हैं।
वास्तव में ही सिद्धाश्रम इस समस्त ब्रह्माण्ड का आध्यात्मिक चेतना बिन्दु है। ऋषि, योगी, मुनि एवं हजारों हजारों वर्ष की आयु प्राप्त तपस्वी भी मन में यह आस पाले रहते हैं कि जीवन में एक बार भी अगर सिद्धाश्रम के दर्शन हो जाए तो यह हजारों-हजारों वर्ष का जीवन धन्य हो जाए।
वास्तव में ही सिद्धाश्रम एवं निखिलेश्वरानंद जी एक दूसरे के पर्याय हैं।
निखिलेश्वरानंद जी के आने से पूर्ण सिद्धाश्रम एक ठूंठ के समान था यहां कोई हलचल एवं मस्ती नहीं थी। यहां के योगी, तपस्वी पूर्ण रुप से आत्मलीन एवं आत्मकेन्द्रित थे। यहां सभी अपनी-अपनी तपस्या में ही केन्द्रित थे। वहां शांति तो थी पर वह मरघट की शांति थी। निखिलेश्वरानंद जी ने यह सब बदल दिया। सिद्धयोगा झील में स्फटिक नौकाओं में विहार करने की आजादी दी।
सिद्धाश्रम के मुख्य महोत्सवों में किन्नरों से संगीत बजवाया, गंधर्वो का दिव्य गायन करवाया एवं अप्सराओं से नृत्य भी करवाया और सब ऐसा हुआ तो पूरा सिद्धाश्रम एक क्षण रुक सा गया क्योंकि इससे पहले वहां अप्सरादि का नृत्य नहीं हुआ था। इस सबको मर्यादा के विपरीत माना जाता था।आप तो सिद्धाश्रम में आमूल चूल परिवर्तन करना चाहते थे और यह परिवर्तन वहां स्थित ऋषियों एवं मुनियों को असह्य था और जब आपने उर्वशी से एक घंटे तक नृत्य करवाया तो सबकी आंखें परम पूज्यस्वामी सच्चिदानंद जी पर टिकी हुइ थी कि अब वे किसी भी समय कुछ भी कर सकते हैं।
मगर आपने उस दिन छोटे से सारगर्भित शब्दों में यह समझाया कि यदि आँख साफ है, यदि मन में विकार नहीं है तो फिर चाहे नृत्य हो या चाहे संगीत हो वह गलत नहीं है क्योंकि नृत्य एवं संगीत जीवन का एक आवश्यक अंग है। ठीक उसी तरह जिस तरह वेद मंत्र, साधनाएं एवं सिद्धियां हैं। गुरुदेव की आंखें आफ ऊपर टिकी हुई थी और आपने जब कहा- यह मेरी धृष्टता हो सकती है कि मैंने इस पारस्परिक कार्यक्रम में एक नया अध्याय जोड़ा है और अगर इसके लिए मुझे यहां से जाना भी पड़े तो मैं तैयार हूं। मगर मैं जहां तक समझता हूं मैंने शास्त्र एवं मर्यादा के खिलाफ कोई कार्य नहीं किया है, फिर भी गुरुदेव सर्वोपरि हैं और वे जो भी आज्ञा देगे, वह मुझे सहर्ष स्वीकार है।
उस समय अधिकतर ऋषि गुरुदेव स्वामी सच्चिदानंद जी को सुनने के लिए व्यग्र थे और जब उन्होंने कहा- निखिल ने जो कुछ भी परिवर्तन किया है वह शास्त्र मर्यादा के अनुसार किया है तो सभी आश्चर्य युक्त हर्ष से विभोर हो गये। वास्तव में ही उस दिन से सिद्धाश्रम का स्वरुप ही बदल गया। अब वह इन्द्र के नंदन कानन से भी श्रेष्ठ है और देवी-देवता भी वहां आने को तरसते हैं।
सिद्धाश्रम में वेदकालीन ऋषि जैसे वशिष्ठ,विश्वामित्र, गौतम, कणाद, भारद्वाज आज भी विद्यमान हैं, राम, कृष्ण, बुद्ध आदि भी वहां विचरण करते हुए दिखाई दे जाते हैं पर सभी इस बात को स्वीकार करते हैं कि युग पुरुष निखिलेश्वरानंद जी अपने आप में एक अन्यतम विभूति हैं और उन जैसी ऊंचाई प्राप्त करना असम्भव है। तभी तो आज सिद्धाश्रम में सबसे ज्यादा उन्हीं के शिष्य हैं स्वयं सिद्धाश्रम भी ऐसे अद्वितीय युग पुरुष को प्राप्त कर गौरवान्वित हुआ हैं।
नमामि सदगुरूदेवं निखिलं नमामि
जय निखिलेश्वेर