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संत दर्शन करते वक़्त निम्न बातों का ध्यान रखें !!

 बिना आज्ञा लिए किसी भी संत के पैर न छुएं उन्हें दूर से ही पंचांग प्रणाम करें !!

 किसी भी संत से किसी भी प्रकार की निन्दा अथवा बुराई ना करें !!

किसी भी संत के दर्शन करने जाएं तो कुछ फल, किसी मंदिर का प्रसाद या प्रसादी माला लेकर जाएं! मिठाई के डिब्बे, बिस्किट्स, चॉकलेट आदि ना ले जाएं !!

 किसी भी संत को यदि आप सेवा (धन रूप) में देना चाहते हैं तो आज्ञा लेकर संत के आस पास जो भी स्थान हो वहां रख दें, उनके हाथ में न दें !!

किसी भी संत की ऐसे सेवा करें जिससे उनके भजन में वृद्धि हो ! संतों को विलासिता (जैसे मोबाइल या चांदी का अगरबत्ती स्टैंड) की वस्तुएं आदि न दें !!

 यदि कोई संत सो रहे हों या प्रसाद पा रहे हों तो उन्हें प्रणाम नहीं करना चाहिए !!

संत से या वैष्णव से मिलते वक़्त उनसे अगली बार मिलने के लिए उपयुक्त समय ले लें !!

ध्यान रहे संत के सामने न तो सोयें न ही कुछ खायें न ही

 झूठन फैलायें !!

 संत के यहां जाने पर अपने झूठे बर्तन धोकर वापिस रखें !

विष्णु भगवान ने पृथ्वी को किस समुद्र से निकाला था, जबकि समुद्र पृथ्वी पर ही है?

बचपन से मेरे मन मे भी ये सवाल था कि आखिर कैसे पृथ्वी को समुद्र में छिपा दिया जबकि समुद पृथ्वी पर ही है। हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया था। फलस्वरूप भगवान बिष्णु ने सूकर का रूप धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया और पृथ्वी को पुनः उसके कच्छ में स्थापित कर दिया।
इस बात को आज के युग में एक दंतकथा के रूप में लिया जाता था। लोगों का ऐसा मानना था कि ये सरासर गलत और मनगढंत कहानी है। लेकिन नासा के एक खोज के अनुसार
खगोल विज्ञान की दो टीमों ने ब्रह्मांड में अब तक खोजे गए पानी के सबसे बड़े और सबसे दूर के जलाशय की खोज की है। उस जलाशय का पानी, हमारी पृथ्वी के समुद्र के 140 खरब गुना पानी के बराबर है। जो 12 बिलियन से अधिक प्रकाश-वर्ष दूर है। जाहिर सी बात है कि उस राक्षस ने पृथ्वी को इसी जलाशय में छुपाया होगा।
इसे आप "भवसागर" भी कह सकते हैं। क्योंकि हिन्दू शास्त्र में भवसागर का वर्णन किया गया है।
जब मैंने ये खबर पढ़ा तो मेरा भी भ्रम दूर हो गया। और अंत मे मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहुँगा की जो इस ब्रह्मांड का रचयिता है, जिसके मर्जी से ब्रह्मांड चलता है। उसकी शक्तियों की थाह लगाना एक तुच्छ मानव के वश की बात नही है। मानव तो अपनी आंखों से उनके विराट स्वरूप को भी नही देख सकता।
जिस किसी को इसका स्रोत जानना है वो यहाँ से देख सकते हैं
कुछ बेवकूफ जिन्हें ये लगता है कि हमारा देश और यहाँ की सभ्यता गवांर है। जिन्हें लगता है कि नासा ने कह दिया तो सही ही होगा। जिन्हें ये लगता है की भारत की सभ्यता भारत का धर्म और ज्ञान विज्ञान सबसे पीछे है। उनके लिये मैं बता दूं कि सभ्यता, ज्ञान, विज्ञान, धर्म, सम्मान भारत से ही शुरू हुआ है। अगर आपको इसपर भी सवाल करना है तो आप इतिहास खंगाल कर देखिये। जिन सभ्यताओं की मान कर आप अपने ही धर्म पर सवाल कर रहे हैं उनके देश मे जाकर देखिये। उनके भगवान तथा धर्म पर कोई सवाल नही करता बल्कि उन्होंने अपने धर्म का इतना प्रचार किया है कि मात्र 2000 साल में ही आज संसार मे सबसे ज्यादा ईसाई हैं। और आप जैसे बेवकूफों को धर्मपरिवर्तन कराते हैं। और आप बेवकूफ हैं जो खुद अपने ही देश और धर्म पर सवाल करते हैं। अगर उनकी तरह आपके भी पूर्वज बंदर थे तो आप का सवाल करना तथा ईश्वर पर तर्क करना सर्वदा उचित है।
     कौन होता है नासा जो हमे ये बताएगा कि आप सही हैं या गलत। हिन्दू धर्म कितना प्राचीन है इसका अनुमान भी नही लगा सकता नासा। जब इंग्लैंड में पहला स्कूल खुला था तब भारत में लाखों गुरुकुल थे। और लाखों साल पहले 4 वेद और 18 पुराण लिखे जा चुके थे। जब भारत मे प्राचीन राजप्रथा चल रही थी तब ये लोग कपड़े पहनना भी नही जानते थे। तुलसीदास जी ने तब सूर्य के दूरी के बारे में लिख दिया था जब दुनिया को दूरी के बारे में ज्ञान ही नही था। खगोलशास्त्र के सबसे बड़े वैज्ञानिक आर्यभट्ट जो भारत के थे। उन्होंने दुनिया को इस बात से अवगत कराया कि ब्रह्मांड क्या है, पृथ्वी का आकार और व्यास कितना है। और आज अगर कुछ मूर्ख विदेशी संस्कृति के आगे भारत को झूठा समझ रहे हैं तो उनसे बड़ा मूर्ख और द्रोही कोई नही हो सकता। ये अपडेट करना आवश्यक हो गया था। जिनके मन मे ईश्वर के प्रति शंका है। 

जो वेद और पुराणों को बस एक मनोरंजन का पुस्तक मानते हैं। उनके लिए शास्त्र कहता है:-
बिष्णु विमुख इसका अर्थ है भगवान विष्णु के प्रति प्रीति नहीं रखने वाला, अस्नेही या विरोधी। इसे ईश्‍वर विरोधी भी कहा गया है। ऐसे परमात्मा विरोधी व्यक्ति मृतक के समान है। ऐसे अज्ञानी लोग मानते हैं कि कोई परमतत्व है ही नहीं। जब परमतत्व है ही नहीं तो यह संसार स्वयं ही चलायमान है। हम ही हमारे भाग्य के निर्माता है। हम ही संचार चला रहे हैं। हम जो करते हैं, वही होता है। अविद्या से ग्रस्त ऐसे ईश्‍वर विरोधी लोग मृतक के समान है जो बगैर किसी आधार और तर्क के ईश्‍वर को नहीं मानते हैं। उन्होंने ईश्‍वर के नहीं होने के कई कुतर्क एकत्रित कर लिए हैं।

दिन और रात का सही समय पर होना। सही समय पर सूर्य अस्त और उदय होना। पेड़ पौधे, अणु परमाणु तथा मनुष्य की मस्तिष्क की कार्यशैली का ठीक ढंग से चलना ये अनायास ही नही हो रहा है। जीव के अंदर चेतना कहाँ से आता है, हर प्राणी अपने जैसा ही बीज कैसे उत्पन्न करता है, शरीर की बनावट उसके जरूरत के अनुसार ही कैसे होता है? बिना किसी निराकार शक्ति के ये अपने आप होना असंभव है। और अगर अब भी ईश्वर और वेद पुराण के प्रति तर्क करना है तो उसके जीवन का कोई महत्व नही है।


गुरु प्राणश्चेतना मंत्र ।।

   एक ऐसा मंत्र, एक ऐसी विद्या जिसके अभ्यास मात्र से साधक में गुरु तत्व का जागरण होने लगता है । गुरु की सत्ता से साधक की चेतना जुड़ने लग जाती है और वह गुरु से संबंधित उन तथ्यों और ज्ञान को प्राप्त करने लग जाता है जो किसी भी साधना से संभव है ही नहीं ।

मेरा अपना अनुभव ये रहा है कि अगर साधक इस मंत्र के मात्र 1008 पाठ संपन्न कर ले, तो साधक का चेतना स्तर इतना ऊपर उठ जाता है कि वह गुरु की सूक्ष्म उपस्थिति का भी आभास कर पाता है । जो श्रेष्ठ साधक हैं वह इस मंत्र का नित्य प्रतिदिन 11 या 21 बार तो अभ्यास करते ही हैं । इस मंत्र के प्रयोग से साधक को गुरु से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष मार्गदर्शन मिलता ही है ।

ये हमारे जीवन का सौभाग्य है कि गुरु प्रेरणा से इस अत्यंत दुर्लभ मंत्र को आज आप सबके लिए पोस्ट किया जा रहा है । ऋषियों के इस दुर्लभ और महत्वपूर्ण ज्ञान को हमें न सिर्फ अपने जीवन में स्थान देना चाहिये बल्कि अपने स्वजनों और बच्चों को भी इस मंत्रों का अभ्यास कराना चाहिए ।

 गुरु प्राणश्चेतना मंत्र

।। ॐ पूर्वाह सतां सः श्रियै दीर्घो येताः वदाम्यै स रुद्रः स ब्रह्मः स विष्णवै स चैतन्य आदित्याय रुद्रः वृषभो पूर्णाह समस्तेः मूलाधारे तु सहस्त्रारे, सहस्त्रारे तु मूलाधारे समस्त रोम प्रतिरोम चैतन्य जाग्रय उत्तिष्ठ प्राणतः दीर्घतः एत्तन्य दीर्घाम भूः लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, मह लोक, जन लोक, तप लोक, सत्यम लोक, मम शरीरे सप्त लोक जाग्रय उत्तिष्ठ चैतन्य कुण्डलिनी सहस्त्रार जाग्रय ब्रह्म स्वरूप दर्शय दर्शय जाग्रय जाग्रय चैतन्य चैतन्य त्वं ज्ञान दृष्टिः दिव्य दृष्टिः चैतन्य दृष्टिः पूर्ण दृष्टिः ब्रह्मांड दृष्टिः लोक दृष्टिः अभिर्विह्रदये दृष्टिः त्वं पूर्ण ब्रह्म दृष्टिः प्राप्त्यर्थम, सर्वलोक गमनार्थे, सर्व लोक दर्शय, सर्व ज्ञान स्थापय, सर्व चैतन्य स्थापय, सर्वप्राण, अपान, उत्थान, स्वपान, देहपान, जठराग्नि, दावाग्नि, वड वाग्नि, सत्याग्नि, प्रणवाग्नि, ब्रह्माग्नि, इन्द्राग्नि, अकस्माताग्नि, समस्तअग्निः, मम शरीरे, सर्व पाप रोग दुःख दारिद्रय कष्टः पीडा नाशय – नाशय सर्व सुख सौभाग्य चैतन्य जाग्रय, ब्रह्मस्वरूपं स्वामी परमहंस निखिलेश्वरानंद शिष्यत्वं, स-गौरव, स-प्राण, स-चैतन्य, स-व्याघ्रतः, स-दीप्यतः, स-चंन्द्रोम, स-आदित्याय, समस्त ब्रह्मांडे विचरणे जाग्रय, समस्त ब्रह्मांडे दर्शय जाग्रय, त्वं गुरूत्वं, त्वं ब्रह्मा, त्वं विष्णु, त्वं शिवोहं, त्वं सूर्य, त्वं इन्द्र, त्वं वरुण, त्वं यक्षः, त्वं यमः, त्वं ब्रह्मांडो, ब्रह्मांडोत्वं मम शरीरे पूर्णत्व चैतन्य जाग्रय उत्तिष्ठ उत्तिष्ठ पूर्णत्व जाग्रय पूर्णत्व जाग्रय पूर्णत्व जाग्रयामि ।।

चूंकि, मंत्र बड़ा है और अत्यंत ही प्रभावशाली है तो प्रतिदिन मात्र 11 या 21 बार इसका अभ्यास पर्याप्त रहता है । जो, साधक नये हैं उनको इसका 1, 3, 5 या 7 बार से प्रारंभ करना चाहिए।

किस माला के जाप का क्या फल मिलता है...?

भारतीय संस्कृति में किसी भी काम को करने से पहले पूजा-पाठ की जाती है जिससे कि आगे चल कर कोई समस्या उत्पन्न न हो। इसी साथ लोगों के मन में हर देवी-देवताओं के प्रति अपनी श्रृद्धा है जो अपने-अपने तरीके से व्यक्त करते है।

 इसी तरह पूजा-पाठ के साथ-साथ तंत्र-मंत्र का भी विशेष महत्व है। यह आप अच्छी तरह जानते है कि तंत्र-मंत्र के पिता भगवान शिव है।

 जिससे कि इन्हें हम लोग अपना आराध्य देव और उनके शक्ति स्वरूप मां दुर्गा को अपनी माता मानते हैं। भगवान शिव सभी की हर मनोकामना पूर्ण करते है। भगवान शिव ऐसे भगवान है जिसे प्रसन्न करना मुश्किल काम नही है। 

देवी-देवताओं की पूजा-पाठ करने के लिए विभिन्न प्रकार के मालाओं का इस्तेमाल करते है, लेकिन हमें किस माला का किस देवी-देवता का जाप करना है यह नही जानते जिससे कि हमारी मनोकामना पू्र्ण नही होती। जानिए किस माला से किस मनोकामना की पूर्ति होती है।

1 रुद्राक्ष जिसे भगवान शिव का अंश माना जाता है। इससे शिव का जाप कर आससानी से मनोकामनाएं पूर्ण हो सकती है। अगर आप शिव भगवान को प्रसन्न करना चाहते है तो रुद्राक्ष की माला से शिव के मंत्रों का जाप करे।

2 मां अम्बा की उपासना करने के लिए स्फटिक की माला से जप करना शुभ माना जाता है।
3 मां दुर्गा की उपासना लाल रंग के चंदन की माला, जिसे रक्त चंदन माला कहा जाता है, से करना चाहिए।
4 काली का आह्वान करने के लिए काली हल्दी या नील कमल की माला का प्रयोग करना है।
5 सूर्य के दोष और उन्हें प्रसन्न करने के लिए माणिक्य, गारनेट, बिल की लकड़ी की माला का उपयोग शुभ माना गया है।
6 मंगल ग्रह की शांति के लिए मंगल ग्रह के मंत्र के साथ मूंगे और लाल चंदन की माला से जाप करना चाहिए और वही बुध ग्रह के लिए पन्ने की बनी हुई की माला से जाप करना चाहिए।
7 बृहस्पति देव को प्रसन्न करने के लिए हल्दी या जीया पोताज और शुक्र के लिए स्फटिक की माला से जाप करें।
8 अगर आप बगलामुखी की साधना कर रहे हैं तो आपको पीली हल्दी या जीयापोता की माला का इस्तेमाल करना चाहिए।
9 लक्ष्मीमंत्र का जाप हमेशा कमलट्टे की माला से करना चाहिए। वहीं तुलसी और चंदन की माला से विष्णु भगवान के मंत्र का जाप करना चाहिए।
10 चंद्रमा की शांति के लिए आप जिस मंत्र का जाप कर रहे है उस मंत्र का जाप मोती की माला से करना चाहिए।
11 राहु के लिए गोमेद, चंदन और कच्चे कोयले की माला उपयोगी है, वहीं केतु के लिए लहसुनिया की माला शुभ माना जाता है।

12 अगर आप माता लक्ष्मी की उपासना धन प्राप्त करने के लिए उनकी लाल रंग के रेशमी धागे वाली 30 मनकों की माला से जाप करें,परंतु अगर आप अपनी कोई मनोकामना पूरी होते देखना चाहते हैं तो आपके लिए 27 रुद्राक्षों की माला उपयोगी है।

13 मोक्ष प्राप्ति या शांति के लिए किए जा रहे मंत्र जाप के लिए 108 रुद्राक्ष को सफेद धागें से पिरोंकर जाप करें। मनोकामना पूर्ण होगी।

उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों में से एक गंगोत्री धाम की कथा ।।

श्रद्धालु यहां गंगा स्नान करके मां के दर्शन और पव‌ित्र भाव से केदारनाथ को अर्प‌ित करने ल‌िए जल लेते हैं। गंगोत्री समुद्र तल से ९,९८० (३,१४० मी.) फीट की ऊंचाई पर स्थित है। गंगोत् से ही भागीरथी नदी निकलती है। गंगोत्री भारत के पवित्र और आध्‍यात्मिक रूप से महत्‍वपूर्ण नदी गंगा का उद्गगम स्‍थल भी है। 

गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा भागीरथ के नाम पर इस नदी का नाम भागीरथी रखा गया। कथाओं में यह भी कहा गया है कि राजा भागीरथ ने ही तपस्‍या करके गंगा को पृथ्‍वी पर लाए थे। गंगा नदी गोमुख से निकलती है।

पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि सूर्यवंशी राजा सागर ने अश्‍वमेध यज्ञ कराने का फैसला किया। इसमें इनका घोड़ा जहां-जहां गया उनके ६०,००० बेटों ने उन जगहों को अपने आधिपत्‍य में लेता गया। इससे देवताओं के राजा इंद्र चिंतित हो गए।

 ऐसे में उन्‍होंने इस घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। राजा सागर के बेटों ने मुनिवर का अनादर करते हुए घोड़े को छुड़ा ले गए। इससे कपिल मुनि को काफी दुख पहुंचा। उन्‍होंने राजा सागर के सभी बेटों को शाप दे दिया जिससे वे राख में तब्‍दील हो गए।

 राजा सागर के क्षमा याचना करने पर कपिल मुनि द्रवित हो गए और उन्‍होंने राजा सागर को कहा कि अगर स्‍वर्ग में प्रवाहित होने वाली नदी पृथ्‍वी पर आ जाए और उसके पावन जल का स्‍पर्श इस राख से हो जाए तो उनका पुत्र जीवित हो जाएगा। लेकिन राजा सागर गंगा को जमीन पर लाने में असफल रहे। बाद में राजा सागर के पुत्र भागीरथ ने गंगा को स्‍वर्ग से पृथ्‍वी पर लाने में सफलता प्राप्‍त की। 

गंगा के तेज प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए भागीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया। फलत: भगवान शिव ने गंगा को अपने जटा में लेकर उसके प्रवाह को नियंत्रित किया। इसके उपरांत गंगा जल के स्‍पर्श से राजा सागर के पुत्र जीवित हुए।

ऐसा माना जाता है कि १८वीं शताबादि में गोरखा कैप्‍टन अमर सिंह थापा ने आदि शंकराचार्य के सम्‍मान में गंगोत्री मंदिर का निर्माण किया था। यह मंदिर भागीरथी नदी के बाएं किनारे पर स्थित सफेद पत्‍थरों से निर्मित है। इसकी ऊंचाई लगभग २० फीट है। मंदिर बनने के बाद राजा माधोसिंह ने १९३५ में इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया।

 फलस्‍वरूप मंदिर की बनावट में राजस्‍थानी शैली की झलक मिल जाती है। मंदिर के समीप 'भागीरथ शिला' है जिसपर बैठकर उन्‍होंने गंगा को पृथ्‍वी पर लाने के लिए कठोर तपस्‍या की थी। इस मंदिर में देवी गंगा के अलावा यमुना, भगवान शिव, देवी सरस्‍वती, अन्‍नपुर्णा और महादुर्गा की भी पूजा की जाती है।

हिंदू धर्म में गंगोत्री को मोक्षप्रदायनी माना गया है। यही वजह है कि हिंदू धर्म के लोग चंद्र पंचांग के अनुसार अपने पुर्वजों का श्राद्ध और पिण्‍ड दान करते हैं। मंदिर में प्रार्थना और पूजा आदि करने के बाद श्रद्धालु भगीरथी नदी के किनारे बने घाटों पर स्‍नान आदि के लिए जाते हैं।

 तीर्थयात्री भागीरथी नदी के पवित्र जल को अपने साथ घर ले जाते हैं। इस जल को पवित्र माना जाता है तथा शुभ कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। गंगोत्री से लिया गया गंगा जल केदारनाथ और रामेश्‍वरम के मंदिरों में भी अर्पित की जाती है।

मंदिर का समय: सुबह 6.15 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 9.30 तक (गर्मियों में)। सुबह 6.45 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 7 बजे तक (सर्दियों में)।

मंदिर अक्षय तृतीया (मई) को खुलती है और यामा द्वितीया को बंद होती है। मंदिर की गतिविधि तड़के चार बजे से शुरू हो जाती है। सबसे पहले 'उठन' (जागना) और 'श्रृंगार' की विधि होती है जो आम लोगों के लिए खुला नहीं होता है। 

सुबह 6 बजे की मंगल आरती भी बंद दरवाजे में की जाती है। 9 बजे मंदिर के पट को 'राजभोग' के लिए 10 मिनट तक बंद रखा जाता है। सायं 6.30 बजे श्रृंगार हेतु पट को 10 मिनट के लिए एक बार फिर बंद कर दिया जाता है। इसके उपरांत शाम 8 बजे राजभोग के लिए मंदिर के द्वार को 5 मिनट तक बंद रखा जाता है।

 ऐसे तो संध्‍या आरती शाम को 7.45 बजे होती है लेकिन सर्दियों में 7 बजे ही आरती करा दी जाती है। तीर्थयात्रियों के लिए राजभोग, जो मीठे चावल से बना होता है, उपलब्‍ध रहता है (उपयुक्‍त शुल्‍क अदा करने के बाद)।

तीर्थयात्री प्राय: गनगनानी के रास्‍ते गंगोत्री जाते हैं। यह वही मार्ग है जिसपर पराशर मुनि का आश्रम था जहां वे गर्म पानी के सोते में स्‍नान करते थे। गंगा के पृथ्‍वी आगमन पर (गंगा सप्‍तमी) वैसाख (अप्रैल) में विशेष श्रृंगार का आयोजन किया जाता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार जिस दिन भगवान शिव ने भागिरथी नदी को भागीरथ को प्र‍स्‍तुत किया था उस दिन को (ज्‍येष्‍ठ, मई) गंगा दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। इसके अलावा जन्‍माष्‍टमि, विजयादशमी और दिपावली को भी गंगोत्री में विशेष रूप से मनाया जाता है।