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MUDRA PRACTICE ।।

Our body is a mini world made of five elements, Agni (Fire), Vayu (Air), Akasha (Aether), Bhumi (Earth) and Jala (Water); and when there is disturbance in these elements, it can lead to an imbalanced mind and cause our body to suffer from diseases. 

While it can be restored with the physical postures, drawn to bring awareness to the body and mind, there is more in all yoga styles that can help us balance all these elements within ourselves. Such is the case of the Mudras.

What is a Mudra?

To put it simply, a Mudra is a hand gesture that guides the energy flow to specific areas of the brain. There are many types of Mudras designed to bring different benefits, depending on what we specifically need. They are done in conjunction with breathing to increase the flow of Prana in the body. By practicing it, a connection is developed with the patterns in the brain that influences the unconscious reflexes in the different areas. The internal energy is, in turn, balanced and redirected, creating an impact on the sensory organs, tendons and glands veins.

Gyan Mudra (Mudra of Knowledge)

This Mudra gives rise to the root chakra reducing tension and depression. This pose is quite calming and spiritually awakening. It stimulates the air element in the body, which ultimately leads to an increase in the memory power, nervous system and pituitary gland production. It increases the level of concentration, builds mental power and sharpens the brain. If done regularly, your mental and psychological disorders such as anger, stress, anxiety depression and even insomnia can be improved considerably.

How to do it:

This pose is performed by touching the index finger with the thumb while keeping the other three fingers straight. It is best to perform this pose in the early morning for 30 to 40 minutes at a stretch.


दिशाशूल ।।

यात्रा एक ऐसा शब्द है जो कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में प्रयोग होता है. यात्रा कभी सुखदायी होती है तो कभी इतनी यातनाएं यात्रा में मिलती है कि व्यक्ति सोचता है कि यह यह यात्रा, यात्रा नहीं यातना थी. इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि हम कभी भी यात्रा में जाने से पहले शकुन और दिशा शूल का विचार नहीं करते, फलस्वरूप कभी सफल हो जाते है तो कभी हमें असफलता का मुंह देखना पडता है. शास्त्र और ऋषि मुनियों का अनुभव कहता है कि दिशा शूल के समय यात्रा करने से यात्रा सफल नहीं होती है. तथा यात्रा मार्ग में विभिन्न परेशानियों का सामना करना पडता है.दिशा शूल होने पर यात्रा यथासंभव स्थगित कर देनी चाहिए या उसका परिहार कर देना चाहिए।

सोमवार और शनिवार को पूर्व दिशा कि ओर यात्रा में दिशा शूल होता है।

मंगलवार और बुधवार को उत्तर दिशा कि ओर यात्रा में दिशा शूल होता है।

रविवार और शुक्रवार को पश्चिम दिशा कि ओर यात्रा में दिशा शूल होता है।

सोमवार और वृहस्पतिवार को आग्नेय (दक्षिण-पूर्व कोण) दिशा कि ओर यात्रा में दिशा शूल होता है।

बुधवार और शुक्रवार को ईशान (पूर्व-उत्तर कोण) दिशा कि ओर यात्रा में दिशा शूल होता है।

इसलिए उपरोक्त दिशा और उपदिशाओं में यात्रा नहीं करनी चाहिए. विस्तार के लिए निम्न तालिका पर ध्यान रखे।

पूर्व सोमवार, शनिवार,
ईशान (उत्तर-पूर्व) बुधवार, शुक्रवार,
उत्तर बुधवार, मंगलवार,
वायव्य (उत्तर-पश्चिम)
मंगलवार,
पश्चिम रविवार, शुक्रवार,
नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम)
रविवार,
शुक्रवार,
दक्षिण वृहस्पतिवार,
आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) सोमवार, वृहस्पतिवार,

शास्त्रानुसार दिशा शूल हमेशा पीठ का या बांया लेना श्रेष्ठ रहता है. सम्मुख और दाहिना कभी भी भूल कर भी ना लें.इसके बारे में लिखा गया है कि..

दिशा शूल ले जाओ बामे
राहू योगिनी पूठ,!
सन्मुख लेवें चंद्रमा
लावे लक्ष्मी लूट !!

यदि यात्रा करनी अति आवश्यक हो, और उस दिन दिशा शूल हो तो उन वस्तुओं को खा कर यात्रा करने से दिशा शूल का दोष का फल न्यून हो जाता है. और कार्य सिद्धि होने लगती है, जिस कार्य के लिए हम यात्रा पर निकले है वह कार्य बिना किसी बाधा के पूर्ण हो जाता है।

इसके लिए प्रत्येक वार की वस्तुएं निम्न है..

रविवार को पान खाकर यात्रा पर जाना चाहिए.

सोमवार को यात्रा पर जाने से पहले दर्पण देख कर ही घर से निकलना चाहिए.

मंगलवार को यात्रा से पूर्व धनिया खाए, तो यात्रा सुखपूर्वक होगी.

बुधवार को गुड़ खाएं.

वृहस्पतिवार को दही खा कर यात्रा पर निकलना चाहिए.

शुक्रवार को राई खा कर जाए.

शनिवार को बायविडिंग खा कर यात्रा करने से लाभ प्राप्त होता है।

यह तो मुख्य दिशाओं के दिशा शूल का परिहार था लेकिन उपदिशाओं में यात्रा करने के लिए भी शास्त्र में उपाय दिए है कि 
रविवार को चन्दन का तिलक, 
सोमवार को दही का तिलक, 
मंगलवार को मिट्टी का तिलक, 
बुधवार को घी का तिलक, 
वृहस्पतिवार को आटे का तिलक, 
शुक्रवार को तिल खा कर 
और शनिवार को खल खा कर यात्रा करने से उपदिशा का दिशा शूल नहीं लगता है।

दिशा शूल के निवारन के लिए लोकाचार के नियमों का पालन अवश्य करें. जो व्यक्ति प्रतिदिन अपनी नौकरी या व्यवसाय के लिए यात्रा करते है. वह भी इस बात का ध्यान रखे कि घर से निकलते समय नासिका (नाक) का जो स्वर चलता हो, उसी तरफ का पैर आगे रख कर यात्रा में निकलने से सभी दिशा शूल का दोष समाप्त हो जाता है. तथा प्रत्येक व्यक्ति जब भी यात्रा करनी हो उसू समय का नासिका का जो स्वर चल रहा हो और उसी तरफ का पैर आगे बढ़ा कर यात्रा में निकलता है तो दिशा शूल का प्रभाव मिट जाता है।


पवित्रता की शक्ति की अनिवार्यता ।।

      वास्तव में ब्रह्मचर्य से अभिप्राय मन्सा, वाचा, कर्मना पूर्णत्या पवित्र रहने से है। लेकिन फिर भी आज इस विसय का गहराई से स्पष्टीकरण करते हैं।_

          वास्तव में मनुष्य की पवित्रता से अभिप्राय उसकी रज शक्ति के क्षीण होने से रुक जाने से है। जब हम काम विकार का त्याग करते है तो रज क्षीण होने से रुक जाता है जिससे यही रज शक्ति रीढ़ की हड्डी के बीच में से जाने वाली सुषुम्ना नाड़ी तथा उसके दोनों ओर साथ साथ मस्तिष्क तक जाने वाली इडा और पिंगला नाड़ी को पोषित कर भिरकुटि से भी ऊपर मध्य मस्तिष्क तक पहुचती है। और जहाँ पर भी ये सूक्ष्म नाडिया आपस में भेदन करती है वही पर एक ऊर्जा चक्र का निर्माण करती है। हमारे शरीर में ऐसे 7 बड़े ऊर्जा केंद्र है। जो की पवित्रता(रज) की शक्ति को एकत्रित कर परमात्मा से योग लगाने से सहज ही जागृत हो जाते है। और हमारे शरीर की अवस्थाये और हमारे मन की अवस्थाये इन ऊर्जा चक्रों के द्वारा प्रभावित होती है। यदि चक्रों की ऊर्जा क्षीण हो जाती है तो भय, शोक, अनिंद्रा, डिप्रेशन, दुःख, मन की निक्रिस्टता, मनोबल की कमी आदि से व्यक्ति प्रभावित हो जाता है। यदि हम परमात्मा से योग लगाए और पवित्रता की शक्ति नही है तो इनको जागृत करना संभव नही। और यदि कुछ समय के लिए कोई अपनी शक्ति के ट्रान्सफर द्वारा आपके इन ऊर्जा चक्रों को जागृत कर भी दे तो कुछ ही दिन बाद ये फिर से डीएक्टिवेट हो जाएंगे। अर्थात इनके जागृत रहने के लिए पवित्रता की शक्ति परम आवयशक है। जब हम पवित्रता की शक्ति को धारण कर परमात्मा से योग लगाते है तो यह शक्ति ऊपर की ओर बढ़ती हुई मस्तिस्क के मध्य में ऊपर तक जाती है और एक ऊर्जा चक्र सहस्त्रार, यानि की हजार पंखुड़ियों के कमल के खिल जाने जैसा परम शान्ति का अनुभव कराती है । इसी चक्र के रास्ते परमात्मा से आने वाली कॉस्मिक पॉवर हमारे शरीर में प्रवेश कर हमको अनंत शक्तियो की प्राप्ति का अनुभव कराती है और शरीर के सारे रोग और कस्ट समाप्त होने लगते है। मस्तिस्क पूर्ण विकसित होने लगता है। आप अपने आपको पूर्व से कई गुना विकशित और एनर्जी से भरपूर अनुभव करते है। यदि आप यह पवित्रता नही अपनाते तो परमात्मा से आने वाली कॉस्मिक एनर्जी का कुछ % ही आप ग्रहण कर पाएंगे। जिससे की पूरा चार्ज न होने की वजह से रोग, नेगेटिव एनर्जी आपको घेर लेते है जिससे आप बहुत दुखी और अशांत अनुभव करते है। तो पवित्रता सर्व सुखो की खान है।_

           हम जानते हैं की मनुष्य शरीर अस्थि, मांस, मज्जा, रक्त और लसीका से मिल कर बना है। जब भी मनुष्य विकार में जाता है तो सुक्र कोष में इकट्ठा हुआ रज सुक्र नाड़ियो से बहता है। जो रज नाड़ियो में संचित रह जाता है और वापिस नही जा पाता वह रज, रक्त कोशिकाओं द्वारा सोख कर रक्त में मिलता है और रक्त का शोधन गुर्दे और पसीने के द्वारा ही होता है यही कारण है की विकारी मनुष्य का शरीर ज्यादा दुर्गंधयुक्त हो जाता है। क्योकि उसका रज पसीने के रास्ते ऊपरी त्वचा तक पहुचता है। इसी कारण से विकारी पतित के हाथ का बना भोजन खाने को परहेज बताया है।हमको सच्चा सच्चा रास्ता बताया है। तो आपका भी कर्त्वय बनता है की ऐसे निस्वार्थ श्रीमत का पालन करना।

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बच्चे का मुण्डन संस्कार क्यों कराया जाता है ?

मुण्डन संस्कार को चूड़ाकरण संस्कार या चौलकर्म भी कहते है जिसका अर्थ है—वह संस्कार जिसमें बालक को चूड़ा अर्थात् शिखा दी जाए ।

बच्चे का मुण्डन संस्कार कराने के पीछे हमारे ऋषि-मुनियों की बहुत गहरी सोच थी । माता के गर्भ से आए सिर के बाल अपवित्रमाने गये हैं । इनके मुण्डन का उद्देश्य बालक की अपवित्रता को दूर कर उसे अन्य संस्कारों (वेदारम्भ, यज्ञ आदि) के योग्य बनाना है क्योंकि मुण्डन करते हुए यह कहा जाता है कि इसका सिर पवित्र हो, यह दीर्घजीवी हो। 
 
दूसरी बात गर्भ के बाल झड़ते रहते हैं जिससे शिशु के तेज की वृद्धि नहीं हो पाती है । इन केशों को मुंडवा कर शिखा रखी जाती है । कहीं-कहीं पर पहले मुण्डन में नहीं वरन् दूसरी बार के मुण्डन में शिखा छोड़ते हैं । शिखा से आयु और तेज की वृद्धि होती है । मुण्डन बालिकाओं का भी होता है, किन्तु उनकी शिखा नहीं छोड़ी जाती है ।
उत्तम, मध्यम व अधम श्रेणी का मुण्डन संस्कार
शास्त्रों में जन्मकालीन बालों का बच्चे के प्रथम, तीसरे या पांचवे वर्ष में या कुल की परम्परानुसार शुभ मुहुर्त में मुण्डन करने का विधान है । जन्म से तीसरे वर्ष में मुण्डन संस्कार उत्तम माना गया है । पांचवे या सातवें वर्ष में मध्यम और दसवें व ग्यारहवें वर्ष में मुण्डन संस्कार करना निम्न श्रेणी का माना जाता है ।
बच्चे का मुण्डन शुभ मुहुर्त में किसी देवी-देवता या कुल देवता के स्थान पर या पवित्र नदी के तट पर कराया जाता है । अपने गोत्र की परम्परानुसार मुण्डन करके बालों को नदी के तट पर या गोशाला में गाड़ दिया जाता है । कहीं-कहीं कुल देवता को ये बाल समर्पित कर फिर उन्हें विसर्जित किया जाता है मुण्डन करने के बाद बच्चे के सिर पर दही-मक्खन, मलाई या चंदन लगाया जाता है।
 कुछ लोग मुण्डन के बाद बालक को स्नान कराकर सिर पर सतिया (स्वास्तिक) बना देते हैं । मुण्डन में अपने परिवार की परम्परा और रीतियों के अनुसार ही पूजा-पाठ और दान-पुण्य व अन्य मांगलिक कार्य किए जाते हैं ।

यजुर्वेद (३।६३) में मुण्डन संस्कार पर एक श्लोक है जिससे स्पष्ट होता है कि मुण्डन संस्कार से बच्चे को कितने लाभ हैं—

‘नि वर्त्तयाम्यायुषेऽन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय ।।’
 
अर्थात्—हे बालक ! मैं तेरे दीर्घायु के लिए, उत्पादन शक्ति प्राप्त करने के लिए,ऐश्वर्य वृद्धि के लिए, सुन्दर संतान के लिए, बल और पराक्रम प्राप्त करने के योग्य होने के लिए तेरा मुण्डन-संस्कार करता हूँ।

आचार्य चरक ने मुण्डन संस्कार का महत्व बताते हुए कहा है कि इससे बालक की आयु, पुष्टि, पवित्रता और सौन्दर्य में वृद्धि होती है ।

मुण्डन संस्कार के अनेक मन्त्रों का भी यही भाव है कि—‘सूर्य, इन्द्र, पवन आदि सभी देव तुझे दीर्घायु, बल और तेज प्रदान करें ।’
—मुण्डन संस्कार बालक के आयु, सौन्दर्य, तेज और कल्याण की वृद्धि के लिए किया जाता है । शुभ मुहूर्त में नाई से बच्चे का मुण्डन कराया जाता है और मर्मस्थान की सुरक्षा के लिए सिर के पिछले भाग में चोटी रखने का विधान है । बालक का मुण्डन कराने के बाद उसके सिर में मलाई या दही, मक्खन आदि की मालिश की जाती है जिससे मस्तिष्क के मज्जातन्तुओं को कोमलता, शीतलता और शक्ति प्राप्त होती है । आगे चलकर यही उसकी बुद्धि के विकास में सहायक होती है क्योंकि अच्छे स्वास्थ्य के लिए सिर ठण्डा होना चाहिए ।
—अधिकांशत: मुण्डन प्रथम या तीसरे वर्ष में किया जाता है । यह समय बच्चे के दांत निकलने का होता है । इसके कारण शरीर में कई तरह की परेशानियां होती हैं । बच्चे का शरीर निर्बल होकर उसके बाल झड़ने लगते हैं । हमारे शास्त्रकारो ने ऐसे समय में मुण्डन कराने का विधान बच्चे को अस्वस्थ होने से बचाने के लिए ही किया ।
—यह संस्कार त्वचा सम्बन्धी रोगों के लिए बहुत लाभकारी है। शिखा को छोड़कर शेष बालों को मूंड़ देने से शरीर का तापमान सामान्य हो जाता है और उस समय होने वाली फुंसी, दस्त आदि बीमारियों स्वयं कम हो जाती हैं । एक बार बाल मूंड़ देने के बाद बाल फिर झड़ते नहीं, वे बंध जाते हैं । इस प्रकार मुण्डन संस्कार का उद्देश्य बालक की स्वच्छता, पवित्रता, सौन्दर्य वृद्धि और पुष्टि है । मनुष्य की समस्त शारीरिक क्रियाओं का केन्द्र मस्तिष्क ही है । यदि मस्तिष्क स्वस्थ है तो मनुष्य सौ वर्ष तक दीर्घजीवी हो सकता है।

भारतीय सम्वत् अर्थात् नवसंवत्सर का ये है वैज्ञान‍िक पहलू ।।

अंग्रेजी कैलेण्डर सहित विश्व में अनेक कैलेण्डर (कालगणना) प्रचलित हैं जिसमें चीन, इजराइल और सऊदी अरब जैसे देशों का अपना अलग कैलेण्डर है लेकिन भारतीय कैलेण्डर (कालगणना) विश्व की एकमात्र कालगणना है, जिसका वैज्ञानिक आधार है। आज से लाखों वर्ष पहले हमारे ऋषि, मुनियों (उस समय के वैज्ञानिक) ने कालगणना के वैज्ञानिक आधार का इस प्रकार से अनुसंधान किया कि कोई भी आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सकता है।

--- वैसे तो भारतीय कालगणना लाखों वर्ष पुरानी है लेकिन वर्तमान में इसे सम्वत् के नाम से जाना जाता है, जिसका प्रारम्भ सम्राट विक्रमादित्य के समय से हुआ है। इसी कालगणना को युगाब्द के नाम से जाना जाता है, जिसका प्रारम्भ महाभारत के महाराज युधिष्ठिर के राज्याभिषेक से हुआ था। ‘इससे पूर्व इसी कालगणना को प्रभु श्री राम के नाम से जाना जाता रहा है जिसका प्रारम्भ प्रभु श्रीराम के राज्याभिषेक से हुआ था। इसी कालगणना को प्रभु श्रीराम से पूर्व उनके पूर्वज महाराज प्रथु के नाम से जाना जाता रहा है।’

--- ग्रह, नक्षत्र, उनकी गति और उनसे निकलने वाली तरंगों का पृथ्वी पर रहने वाले मानव और अन्य जीव जन्तुओं पर पड़ने वाले प्रभावों को आज का विज्ञान भी स्वीकार करता है। इन्हीं आधारों पर ही भारतीय कालगणना का निर्धारण किया गया है।

--- यह जानकर आज के वैज्ञानिक भी आश्चर्य में पड़ जाते हैं कि लाखों वर्ष पहले भारत के वैज्ञानिकों ने किस प्रकार से वर्तमान दूरबीन आदि जैसे यन्त्रों के न होते हुए भी सटीक खोजें की है जिसमें आज तक कोई संशोधन नहीं हुआ है, जबकि अंग्रेजी कलैण्डर में मात्र दो हजार वर्ष की अवधि के दौरान चार बार संशोधन हो चुका है। हैरानी की बात तो यह है कि विज्ञान में अपने आपको सर्वोच्च मानने वाला पश्चिमी जगत आज तक वैज्ञानिक आधार पर कोई कलैण्डर नहीं बना पाया है।

--- लाखों वर्ष पूर्व भारत के ऋषि, मुनियों (वैज्ञानिकों) द्वारा यह अविष्कार किया गया था कि सूर्य ग्रह और चन्द्र ग्रह ब्रहमाण्ड के ऐसे ग्रह हैं, जिनसे निकलने वाली किरणों का मानव जीवन पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। आज का विज्ञान इसको काॅस्मिक रेज के रूप में स्वीकार करने लगा है। लाखों वर्ष पहले भारत में ही यह खोज हुई थी कि सूर्य ग्रह किसी ग्रह की परिक्रमा नहीं लगाता है और पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा लगाती है। धुरी पर घूमते हुए पृथ्वी का जो हिस्सा सूर्य की ओर होता है, उस ओर प्रकाश होने के कारण दिन होता है और जो हिस्सा पीछे की ओर होता है, वहाँ अन्धकार होने के कारण रात्रि होती है। एक दिन और एक रात्रि को मिलाकर एक दिनमान कहा जाता है। लगभग 365 दिनमान में पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा पूरी कर लेती है। इसी को एक वर्ष कहा जाता है।

--- चन्द्रमा पृथ्वी का भ्रमण करता है। जिस अवधि में रात्रि में चन्द्रमा का प्रकाश पृथ्वी के जिस हिस्से पर पड़ता है उस अवधि को हमारे वैज्ञानिकों ने शुक्ल पक्ष कहा है और भ्रमण करते हुए पृथ्वी के जिस हिस्से पर चन्द्रमा की किरणे नहीं पड़ती है उस अवधि को हमारे वैज्ञानिकों ने कृष्ण पक्ष कहा है। कालगणना के अन्तर्गत इस प्रकार का अनुसंधान भारत की सनातनी संस्कृति के अलावा विश्व के किसी भी कोने में नहीं हुआ है।
--- भारत में लाखों वर्ष पूर्व से ही प्रत्येक वर्ष को बारह भागों में विभाजित किया गया है जिसे मास (महीना) कहा जाता है। चन्द्रमा एक वर्ष की अवधि में पृथ्वी के लगभग बारह चक्कर लगा लेता है और इसी आधार पर भारतीय कालगणना में मास का निर्धारण किया गया है। प्रत्येक मास का नाम उस नक्षत्र के नाम से है जिससे मास प्रारम्भ होता है जैसे चित्रा नक्षत्र से चैत्र मास, विशाखा नक्षत्र से वैशाख मास। इससे यह स्पष्ट है कि भारत में लाखों वर्ष पूर्व यह खोज की जा चुकी थी कि पृथ्वी को प्रभावित करने वाले मुख्यतः सत्ताईस नक्षत्र हैं।
---प्रत्येक मास में लगभग ढाई नक्षत्र का सम्बन्ध आता है, यानी उस समय ग्रहों तथा नक्षत्रों की चाल का भी अनुसंधान किया गया था जबकि यह हकीकत है कि अंग्रेजी कलैण्डर वर्ष में प्रारम्भ में मात्र दस महीने होते थे इसमें संशोधन करते हुए भारतीय कलैण्डर के आधार पर ही बारह माह निर्धारित किये गये। लैटिन शब्दावली के अनुसार सितम्बर को सातवाँ, अक्टूबर को आठवाँ, नवम्बर को नौवाँ व दिसम्बर को दसवाँ माना जाता है लेकिन अंग्रेजी कलैण्डर में सितम्बर से दिसम्बर तक को क्रमशः नौवाँ से बारहवाँ महीना माना जाता है। स्पष्ट है कि अंग्रेजी कलैण्डर विज्ञान व शब्दावली दोनों के आधार पर पूर्णतः अर्थहीन है।

--- भारतीय कैलेण्डर में पूर्णिमा और अमावस्या का भी महत्व होता है। आज का विज्ञान भी यह स्वीकार करता है कि मानव शरीर का 70 प्रतिशत भाग जल तत्व से सम्बन्धित है। हम सभी यह जानते हैं कि पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार भाटा आता है, कहने का आशय है कि चन्द्रमा की किरणें जब अपने पूर्ण रूप में होती हैं तो मानव शरीर का जल तत्व प्रभावित होता है जिसका सीधा प्रभाव मानव की गतिविधियों पर पड़ता है। भारतीय कालगणना में विचार करते हुए हमारे वैज्ञानिकों द्वारा यहाँ तक खोज की गयी कि मानव को अपने जीवन में किस कार्य को कब महत्व देना चाहिए।

--- भारतीय कालगणना में पल और क्षण तक की खोज की गयी और यहाँ तक खोज हुई है कि किस नक्षत्र व किस ग्रह का कितना अंश किस समय तक रहता है। सूर्य व चन्द्र ग्रह के अलावा अन्य ग्रहों की गति तथा उनके पड़ने वाले प्रभाव की खोज भी भारत की देन है जिसका समावेश भारतीय कलैण्डर में किया गया है। भारत में जितने भी त्यौहार हैं वे सभी ग्रहों व नक्षत्रों पर आधारित हैं और उस अवधि में ग्रहों तथा नक्षत्रों की तरंगें साधना और आराधना करने के लिए सहायक होती हैं जिससे मानव सुखी व आनन्दमय जीवन जी सके। आखिरकार कैलेण्डर बनाते समय हमारे वैज्ञानिकों के केन्द्र में मानव जीवन ही था।

--- अंग्रेजी कैलेण्डर का प्रथम दिन मौज मस्ती के रूप में मनाया जाता है जबकि भारत में नौ दिनों तक ईश्वर की आराधना करते हुए जीवन की साधना की जाती है। इन दिनों माँ दुर्गा का पूजन महिलाओं के प्रति सम्मान और सशक्तीकरण का एक ऐसा उदाहरण है जो दुनिया के किसी भी कोने में नहीं मिल सकता है।

--- भारतीय कैलेण्डर के प्रथम दिन को संस्कृत दिवस तथा ज्योतिष दिवस के नाम से भी जाना जाता है। भारतीय कालगणना ग्रहों तथा नक्षत्रों पर आधारित होने के कारण ज्योतिष से भी गहन रूप से सम्बन्धित है। भारतीय कालगणना का उल्लेख ऋगवेद और अथर्ववेद जैसे विश्व के प्राचीनतम ग्रन्थों में काल चक्र के रूप में मिलता है। अंग्रेजी नववर्ष चीन, इजराइल, सऊदी अरब जैसे देशों में नहीं मनाया जाता है, लेकिन दुर्भाग्य है कि गुलामी की मानसिकता में जी रहे भारतीयों के मन मस्तिष्क में अंग्रेजी कलैण्डर का जूनून आज भी हावी है।

--- भारतीय नव वर्ष के प्रथम दिन का अन्य कारणों से भी विशेष महत्व है। इसी दिन महान सन्त झूलेलाल जयन्ती, भारत के स्वाधीनता सेनानियों को प्रेरणा श्रोत आर्य समाज की स्थापना तथा विश्व के सर्वाधिक विराट स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक व प्रथम सरसंघचालक डा0 केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्मदिन भी है।

--- आज यक्ष प्रश्न तो यह है कि कब भारत के लोग अपनी इस अद्भुत वैज्ञानिक कालगणना पर गर्व करेंगे? और कब मानसिक गुलामी से अपने आपको मुक्त कर पायेंगे? वक्त को इन्तजार है भारत के लोगों का अपनी सनातनी संस्कृति की जड़ों की ओर लौटने का।