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भक्ति की अग्निपरीक्षा ।।

एक बरहमन समूची दिल्ली में कुफ्र फैल रहा है, आने वाले ने तीखे स्वरों में और हिकारत भरे अंदाज में शाही दरबार में अपनी शिकायत दर्ज की।

कुफ्र? बादशाह के माथे पर बल पड़े।

शिकायत है जहाँपनाह! उस बरहमन की बातों में आकर कई इस्लाम के बन्दे भी बहक गये है, गुमराह हो गये है। दूसरे ने शिकायत का समर्थन किया।

कौन है वह गुस्ताख़? बादशाह ने जानना चाहा।

एक पागल है, बुतपरस्त है। हर वक्त वह बुत उसके साथ रहता है। शहर के आम जगहों में भी खुलेआम बुतपरस्ती में मशगूल रहता है।

किसी ने उसे रोका नहीं?

पागल समझकर लापरवाही की गई, लेकिन हुजूर-कुफ्र के साथ ही वह बगावत का जहर भी उड़ेलता है।

वह कैसे?

कहता है बरहमन किसी की हुकूमत में नहीं रहता, किसी का हुक्म नहीं मनाता, क्योंकि उसका बादशाह राम है-बरहमन उसी की बादशाहत में रहता है।

क्या बकते हो? मेरी ही सल्तनत में बादशाह भी पैदा हो गया?

जहाँपनाह! वह तो बुत्परास्तो का ही एक देव है। वही राम-रावण के किस्से वाला.........। इतना कहकर बादशाह कुछ सोचने लगा। बोला- वाकई पागल है, लेकिन फिर इस्लाम के बन्दों को उसने कैसे बहकाया?

शहर में अफवाह गरम है की वह बुत हर एक मुराद पूरी करता है। इस झूठ के शिकार बनकर कई मुसलमान औरतें और नौजवान भी बरहमन के मुकाम पर जाने लगे है, उस बुत को सिजदा करते हैं।

तोबा! तोबा! खास मेरी दारुल सल्तनत में यह गुनाह। बुतपरस्त को हम माफ कर सकते....।

आलीजाह! शाहीहुक्म के बमुजिब बुतपरस्ती पर सख्त पाबन्दी है, इसी कानून के खिलाफ वह अपने आँगन में एक जश्न करता है, तमाम हिंदुओं को इकठ्ठा करता है, उनके बीच बुत को संवारता है, सजाता है, फिर इबादत का दिखावा करता है। कई मुसलमान भी उस जलसे में नजर आये है।

उन मुसलमानों को भला यह क्या सूझी है?

गरीब परवर! बरहमन बहुत मक्कार है। बना हुआ पागल है। बुतपरस्ती के बाद वहाँ आये हुए मुसलमान मर्द, औरतों और बच्चों को भी बुत की जूठन बांटता है।

बुत की जूठन?

जूठन ही कहिये। काफ़िर उसे प्रसाद कहते हैं। उनका अकीदा है की बुत को जो चीज नजर करो, वह उसे मंजूर करता है, फिर जो बच रहा, वही जूठन उनके लिए प्रसाद होती है। आलिम ने अपनी जानकारी सबको बताने की कोशिश की।

कुफ्र! और दिल्ली में! जासूसों को हाजिर करो। जासूस बुलाये गये। ये लोग वेश बदलकर जनता की खबरें सुल्तान को पहुँचाया करते थे। जासूसों ने कोर्निश बजाई। सुल्तान ने पूछा-तुम लोगों को उस काफ़िर के कारनामे की कुछ भी खबर नहीं?

है जहाँपनाह!

बयान करो!

आलीजाह! उस बरहमन ने बुत की एक तस्वीर बने है। वह लकड़ी एक तख्ते पर कई रंग मिलकर बनाई गयी है। बुत बाहर नहीं निकालता, तस्वीर ही वह बाहर ले जाता है। बरहमन उसे साथ लिए घूमता है, जहाँ जाता है वही उसको सिजदा करता है, इबादत का ढोंग करता है। उस पर पानी-फूल चढ़ाता है।

तुम लोगों ने इसकी इत्तिला हाकिमो को क्यों नहीं की?

की थी हुजूरे आला! लेकिन उन्होंने कुछ तव्वजो नहीं की। फरमाया की किसी पागल के पीछे पड़ने से क्या फायदा?

पागल! कैसा पागल? बुतपरस्ती का दीवानगी नहीं, वह गुनाह है। कानूनन जुर्म है। हाकिमो से कहो, बुतपरस्त को गिरफ्तार करके बुत समेत हाजिर किया जाये।

जो हुक्म शहंशाह!

अब तक साँझ झुक आई थी। ब्राह्मण के घर थोड़ा ही आटा बचा था। ब्राह्मणी भूसी से प्रसाद बनाने का उपक्रम कर रही थी। इस घर में दो समय से अधिक संचय कभी रहा ही नहीं। ब्राह्मण कल की फिक्र नहीं करता था। बड़े मजे से वह इस वाक्य को जब-तब दुहरा लिया करता था। उसे किसी ने एक दिन चेतावनी दी- पंडित जी! फिरोजशाह तुगलक का जमाना है, मूर्तिपूजा पर रोक लगी है। क्यों संकट मोल लेते हो?

ब्राह्मण ने आनंद भरे मन से उत्तर दिया- भाई! इस शरीर का कुछ मोह नहीं। सुल्तान शरीर ही छीन सकता है, आत्मा तो राम की है, राम ही उसकी गति है। फिर कैसा भय?

एक दिन उसके पड़ोस के एक मुसलमान लड़के ने आकर उसका घड़ा छू लिया। कहने लगा- जनाब यह पानी तो बेकार हो गया। अब अपने खुदा को क्या पिलाओगे?

ब्राह्मण हा-हा करके हंसने लगा। बोला- बेटा! पानी तो सबको पवित्र करता है। वह तुम्हारे छूने से अपवित्र कैसे हो सकता है? राम की सब संतानें है, वह संसार का पिता है। तुम्हारे खेल-कूद से वह चिढ़ता थोड़े ही है।

मुसलमान लड़का उस निश्छल मुँह को ताकता रह गया। पूछने लगा धीरे से- पंडित जी अभी प्रसाद नहीं बनाया गया?

बन रहा है बेटा! आरती का समय आए, तब आना। प्रसाद ले जाना।

एक दिन दोपहरी में मैला-कुचैला एक डोम का लड़का आँगन में आ खड़ा हुआ डरा-सा। वह अपरिचित इस ओर कभी नहीं आया था? कहीं दूर का अनाथ बालक था। ब्राह्मण ने देखा, लड़का भयभीत है। कहा- आओ पुत्र! मेरे पास आओ। प्यार भारी आवाज़ से आकृष्ट हो, हिम्मत करके वह लड़का आगे बढ़ा। ब्राह्मण में उठ कर उसके हाथ-मुँह धोए। अपने अँगोछे से उसका मुँह पोंछा। अपने पास चौकी पर बिठाया। ब्रह्माणी से कहा- अरे, आओ देखो। तुम्हारे घर अतिथि भगवन् आयें हैं, बाल भगवान।

ब्राह्मणी उत्सुक हो दौड़ी आई। देखा एक किशोर लड़का पति के पास बैठा है।

पत्नी को देखते ही ब्राह्मण देवता बोल उठे- बड़े भाग्य! बाल-भगवान कृपा करके आए हैं। इनकी सेवा करो। जल्दी से कुछ बनाओ, इन्हें जिमाओ।

ब्राह्मणी ने जो कुछ रूखा-सूखा था, बनाया। बालक को अपनी गोद में बैठाकर भोजन कराया। कहा- भैया! रोज आया करो। अपने माता-पिता से कह देना की हम वहाँ जाते हैं। आओगे न? बालक ने प्रसन्नता से सिर हिलाकर विदा ली। ऐसी घटनाएँ उस आँगन में आए दिन होती रहती थीं। सबका आलय था वह आँगन और वह ब्राह्मण सचराचर जगत को राममय देखता था। पूरी दिल्ली में वही अकेला नागरिक था, हाथ उठा कर नितांत निर्भयता से कहा करता था- "मैं राम के राज्य में रहता हूँ, सुल्तान हमारा राजा नहीं। "

यह वाक्य सुनते-सुनते कुछ लोग उसे सनकी या पागल समझने लगे थे, तो क्या आश्चर्य! भीर भी आरती के समय उसका आँगन प्रायः भरा-भरा रहता था।

आज भी आरती का समय हो गया था। ब्राह्मणी प्रसाद बना लायी। ब्राह्मण रामलला को स्नान करने गया।दोनों समय स्नान-विधि होती थी, फिर एक स्वच्छ कपड़े से वह मूर्ति पोंछता। पश्चात नैवेद्य चढ़ाता था, जो भी घर में प्राप्त हो। आज जैसे ही आरती समाप्त हुई- सुल्तान के सिपाहियों ने घर घेर लिया। ब्राह्मण को गिरफ्तार कर लिया गया। उसकी मुश्कें कास दी गयीं। सिपाही मूर्ति भी उठाकर ले चले।

ब्राह्मण ज़रा भी घबड़ाया नहीं, रोया चिल्लाया नहीं। सब कुछ देखता रहा-सहता रहा। चलते समय पत्नी से कहा- देवी! धीरज रखना, मूर्ति लौटेगी नहीं, शायद मैं भी न लौट सकूँ... किन्तु मूर्ति के स्थान पर तुम आरती व प्रसाद का नियम भंग न करना, जब तक जीवन रहे। मूर्ति मिट्टी की भी बना सकती हो। मिट्टी माता है। सब खनिज उसी से उपजते हैं। ताँबा-पीतल न सही, माटी-मूरत सही। उसी में मोद मानो। राम के सेवक कैसे होते हैं, इसकी आन निभाना। ब्राह्मणी ने बहुत रोका, फिर भी दो आँसू की बूँदें नीचे ढुलक पड़ी, पति की अर्चना में। विदा वेला की अर्चना थी वह। इतने दिन साथ रहे, साथ जिए। राम की सेवा साथ-साथ की। दुःख को भी सुख माना। कभी कोई शिकायत नहीं की। अब कब मिलेंगे कुछ ठीक नहीं। कहते हैं- " राम के सेवक की आन निभाना। "

"निभाऊँगी-निभाऊँगी? अकेले भी निभाऊँगी।" रोते हुए हृदय से यही आश्वासन मुख पर मूर्त हो उठा- पति के संतोष के लिए। वे चले गए, बँधे हुए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ फिरोजशाह तुगलक का दरबार था।

मसनद के सहारे तलवार टिकाकर बैठा था सुल्तान। जिरह बख्तर से सज्जित सिपाही और सिपहसालार दोनों तरफ पंक्तिबद्ध खड़े थे। हृदय से यही आश्वासन मुख पर मूर्त हो उठा- पति के संतोष के लिए। वे चले गए, बँधे हुए और वहाँ जा पहुँचे जहाँ फिरोजशाह तुगलक का दरबार था।

मसनद के सहारे तलवार टिकाकर बैठा था सुल्तान। जिरह बख्तर से सज्जित सिपाही और सिपहसालार दोनों तरफ पंक्तिबद्ध खड़े थे।वजीर एक तरफ बैठा था। जहाँपनाह! पागल काफ़िर हाजिर है। सिपाहियों ने निवेदन किया।

सुल्तान ने दृष्टि किया, मुंह से कुछ बोला नहीं। दूसरे ही क्षण रस्सों से जकड़ा वह ब्राह्मण उपस्थित किया गया। उसकी मुश्कें बँधी थीं। सुल्तान की दृष्टि उस पर पड़ी। साथ शाही फरमान हुआ, इसकी मुश्कें खोल दी जाएँ। फिर कैदी से पूछा क्यों! यह किसकी सल्तनत है?

तमाम दुनिया का साम्राज्य उसी की लीला है। वही सबका सम्राट है?

वह कौन है?

जिसने जगत सिरजा।

खुदा की बात करते हो?

आप खुदा कह लें मैं राम कह लेता हूँ।

गलत! खुदा को कोई कैद नहीं कर सकता। तुम्हारा राम मेरे यहाँ कैदी बनकर हाजिर है।

झूठ यह मूर्ति राम की पहचान है। हजारों पहचानों में से एक। मूर्ति का कुछ भी करो राम की तुम धुल भी नहीं पा सकते। हाँ, यह सच है की राम की ही तरह उसकी पहचान भी पवित्र है, लेकिन उनके लिए जो इसे पहचाने, नहीं तो पत्थर है ......?

तुम्हारा यह अफसाना मैं नहीं समझ पाया।

समझना चाहें तो देर नहीं लगेगी। आपके अन्तः पुर में ही गुरु मिल जायेगा। कहीं खोजना नहीं होगा।
क्या मतलब? सुल्तान चौंका।

आप नाराज़ न हों, मेरा तात्पर्य श्रीमान की मातुश्री से था। मैं उन्हें जनता हूँ, वे राजपूत की बेटी हैं , राम और उनकी मूर्ति की महिमा आप उनसे भलीप्रकार समझ सकते हैं।

वदज़ुबान बरहमन! तिलमिला उठा सुल्तान। उसका चेहरा उतर गया।

मैंने कोई बदजुबानी नहीं की। हर एक की माँ मेरी भी माँ है। आप इसे गलत नहीं समझें।

तुम तो पागल नहीं लगते। फिर भी कानून तोड़ने की जुर्रत करते हो?

मैंने कोई कानून नहीं तोड़ा।

क्यों क्या तुम नहीं जानते, मेरी सल्तनत में बुतपरस्ती जुर्म है।

मैं इसे कानून नहीं मानता। जोर-जुल्म का नाम कानून नहीं है।

यह बगावत है और तुम जिसके राज्य में हो ..........।

कैदी ने बीच में टोककर कहा- ब्राह्मण किसी के राज्य में नहीं रहता। वह स्वतंत्र रहकर ही मृत्यु को प्राप्त होता है।

हूँ,काजी और उलेमा अपना फतवा दे की इस बागी काफ़िर को कौन -सी सजा दी जानी चाहिए।

काजियो ने अपनी पुरानी पोथियाँ उलटनी-पलटनी शुरू की। इसके बाद उलेमा आपस में कानाफूसी करके सजा तजवीज करने लगे। फिरोजशाह तुगलक दांतों से मूंछें कुतरता रहा। थोड़ी ही देर में उलेमाओ ने फ़तवा दे दिया -जहाँपनाह!इस काफ़िर को सजाए मौत से कम तो कोई सजा नहीं दी जा सकती।

शरिअत कहती है की काफ़िर की गर्दन उड़ा दी जाये। काजियो ने भी हामी भरी।

एक रास्ता है, जाँ बख्शी का,बशर्ते यह इस्लाम काबूल कर ले।

शर्म करो। मेरे शरीर के दो टुकड़े कर दो। इस्लाम की बात क्यों करते हो? मैं हिन्दू रहकर ही मरूँगा। ब्राह्मण की आवाज़ में बड़ा वजन था।

ठीक है। इसे जिन्दा जला दो। हुक्म देते हुए एक क्षण सुतन की निगाह राम की मूर्ति पर गयी, बोला यह बुत भी इसके साथ आग के हवाले कर दिया जाए।

जो,हुक्म,जल्लाद जो उसका कत्ल करने के लिए बुलाई गए थे,ब्राह्मण को ले चले। मूर्ति को भी उसके साथ ले जाया गया। ब्राह्मण का चेहरा अलौकिक तेज़ से उद्भासित हो उठा। प्रसन्न मन से बार बार घूमकर वह मूर्ति को देखता जा रहा था,मानो कह रहा हो-"ओ प्रभु!सेवक तुम्हारे साथ ही है "।


लकड़ियों का एक बड़ा सा पहाड़ खड़ा कर दिया गया। ब्राह्मण के हाथ पैर बांध कर उस पर डाल दिया गया। वह जोर लगा कर किसी तरह उठ कर बैठ गया?मूर्ति भी उसके साथ फेंक दी गयी। बंधे हाथों से उसने मूर्ति को जैसे-तैसे उठाकर अपने पास ही रखा। तभी जल्लाद ने आवाज़ दी-होशियार आखिरी वक्त आ गया, खुदा को याद कर ले।


ब्राह्मण ने सर उठाया। एक बार नीले आकाश को देखा।अहा! कितना स्वच्छ गगन है। सूर्य कैसे देदीप्यमान है। दूर पर हरियाली की साड़ी लिए क्षितिज किसकी प्रतीक्षा में खड़ा है। धरती किसकी वंदना में तनमुख बैठी है।

भावविभोर हो वह कहने लगा, मेरे मन में राम हैं, तुम सर्वत्र हो। आज मैं देह की इस तुच्छ दीवार को तोड़कर तुममें सामने आ रहा हूँ। प्रभु! तब तक आग लकड़ियों में तेजी से धधक उठी। अग्नि की उठती उभरती ज्वाला के साथ उसकी भक्ती भी प्रचंड और प्रखर होती गयी। ऐसी घटना को युग बीत गए, फिर भी भक्ती की अग्नि -परीक्षा की इस अनोखी दास्तान को कोई नहीं भुला सकता।

संक्षेप में गायत्री मंत्र लेखन के नियम निम्न प्रकार हैं -

१. गायत्री मंत्र लेखन करते समय गायत्री मंत्र के अर्थ का चिन्तन करना चाहिए।

२. मंत्र लेखन में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।

३. स्पष्ट व शुद्ध मंत्र लेखन करना चाहिए।

४. मंत्र लेखन पुस्तिका को स्वच्छता में रखना चाहिए। साथ ही उपयुक्त स्थान पर ही रखना चाहिए।

५. मंत्र लेखन किसी भी समय किसी भी स्थिति में व्यस्त एवं अस्वस्थ व्यक्ति भी कर सकते हैं। एकबार में कम से कम ३३ मंत्र लेखन से शुरू करते हुए बढाते जाइए।

गायत्री मंत्र लेखन से लाभ-

१. मंत्र् लेखन में हाथ, मन, आँख एवं मस्तिष्क रम जाते हैं। जिससे चित्त एकाग्र हो जाता है और एकाग्रता बढ़ती चली जाती है।

२. मंत्र लेखन में भाव चिन्तन से मन की तन्मयता पैदा होती है इससे मन की उच्छृंखलता समाप्त होकर उसे वशवर्ती बनाने की क्षमता बढ़ती है। इससे आध्यात्मिक एवं भौतिक कार्यों में व्यवस्था व सफलता की सम्भावना बढ़ती है।

३. मंत्र के माध्यम से ईश्वर के असंख्य आघात होने से मन पर चिर स्थाई आध्यात्मिक संस्कार जम जाते हैं जिनसे साधना में प्रगति व सफलता की सम्भावना सुनिश्चित होती जाती है।

४. जिस स्थान पर नियमित मंत्र लेखन किया जाता है उस स्थान पर साधक के श्रम और चिन्तन के समन्वय से उत्पन्न सूक्ष्म शक्ति के प्रभाव से एक दिव्य वातावरण पैदा हो जाता है जो साधना के क्षेत्र में सफलता का सेतु सिद्ध होता है।

५. मानसिक अशान्ति चिन्तायें मिट कर शान्ति का द्वार स्थायी रूप से खुलता है।

६. मंत्र योग का यह प्रकार मंत्र जप की अपेक्षा सुगम है। इससे मंत्र सिद्धि में अग्रसर होने में सफलता मिलती है।

७. इससे ध्यान करने का अभ्यास सुगम हो जाता है।

८. मंत्र लेखन का महत्त्व बहुत है। इसे जप की तुलना में दस गुना अधिक पुण्य फलदायक माना गया है।

साधारण कापी और साधारण कलम स्याही से गायत्री मंत्र लिखने का नियम उसी प्रकार बनाया जा सकता है जैसा कि दैनिक जप एवं अनुष्ठान का व्रत लिया जाता है। सरलता यह है कि नियत समय पर- नियत मात्रा में करने का उसमें बन्धन नहीं है और न यही नियम है कि इसे स्नान करने के उपरान्त ही किया जाय।


इन सरलताओं के कारण कोई भी व्यक्ति अत्यन्त सरलता पूर्वक इस साधना को करता रह सकता है।

हनुमान जी की पत्नी के साथ दुर्लभ फोटो ।।

कहा जाता है कि हनुमान जी के उनकी पत्नी के साथ दर्शन करने के बाद घर में चल रहे पति पत्नी के बीच के सारे तनाव खत्म हो जाते हैं।
आंध्रप्रदेश के खम्मम जिले में बना हनुमान जी का यह मंदिर काफी मायनों में खास है। यहां हनुमान जी अपने ब्रह्मचारी रूप में नहीं बल्कि गृहस्थ रूप में अपनी पत्नी सुवर्चला के साथ विराजमान है।
हनुमान जी के सभी भक्त यही मानते आए हैं की वे बाल ब्रह्मचारी थे और वाल्मीकि, कम्भ, सहित किसी भी रामायण और रामचरित मानस में बालाजी के इसी रूप का वर्णन मिलता है। लेकिन पराशर संहिता में हनुमान जी के विवाह का उल्लेख है। इसका सबूत है आंध्र प्रदेश के खम्मम ज़िले में बना एक खास मंदिर जो प्रमाण है हनुमान जी की शादी का।
यह मंदिर याद दिलाता है रामदूत के उस चरित्र का जब उन्हें विवाह के बंधन में बंधना पड़ा था। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि भगवान हनुमान जी बाल ब्रह्मचारी नहीं थे। पवनपुत्र का विवाह भी हुआ था और वो बाल ब्रह्मचारी भी थे।
कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण ही बजरंगबली को सुवर्चला के साथ विवाह बंधन में बंधना पड़ा। दरअसल हनुमान जी ने भगवान सूर्य को अपना गुरु बनाया था।
हनुमान, सूर्य से अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। सूर्य कहीं रुक नहीं सकते थे इसलिए हनुमान जी को सारा दिन भगवान सूर्य के रथ के साथ साथ उड़ना पड़ता और भगवान सूर्य उन्हें तरह-तरह की विद्याओं का ज्ञान देते। लेकिन हनुमान जी को ज्ञान देते समय सूर्य के सामने एक दिन धर्मसंकट खड़ा हो गया।
कुल 9 तरह की विद्या में से हनुमान जी को उनके गुरु ने पांच तरह की विद्या तो सिखा दी लेकिन बची चार तरह की विद्या और ज्ञान ऐसे थे जो केवल किसी विवाहित को ही सिखाए जा सकते थे।
हनुमान जी पूरी शिक्षा लेने का प्रण कर चुके थे और इससे कम पर वो मानने को राजी नहीं थे। इधर भगवान सूर्य के सामने संकट था कि वह धर्म के अनुशासन के कारण किसी अविवाहित को कुछ विशेष विद्याएं नहीं सिखला सकते थे।
ऐसी स्थिति में सूर्य देव ने हनुमान जी को विवाह की सलाह दी। और अपने प्रण को पूरा करने के लिए हनुमान जी भी विवाह सूत्र में बंधकर शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो गए। लेकिन हनुमान जी के लिए दुल्हन कौन हो और कहां से वह मिलेगी इसे लेकर सभी चिंतित थे।
सूर्य देव ने अपनी परम तपस्वी और तेजस्वी पुत्री सुवर्चला को हनुमान जी के साथ शादी के लिए तैयार कर लिया। इसके बाद हनुमान जी ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और सुवर्चला सदा के लिए अपनी तपस्या में रत हो गई।
इस तरह हनुमान जी भले ही शादी के बंधन में बंध गए हो लेकिन शारीरिक रूप से वे आज भी एक ब्रह्मचारी ही हैं।
पाराशर संहिता में तो लिखा गया है की खुद सूर्यदेव ने इस शादी पर यह कहा की – यह शादी ब्रह्मांड के कल्याण के लिए ही हुई है और इससे हनुमान जी का ब्रह्मचर्य भी प्रभावित नहीं हुआ।

🙏जय श्री बालाजी की🙏


दुर्गा जी के सोलह नामों की व्याख्या ।।

वेद की कौथुमी शाखा में :---

             दुर्गा,नारायणी,ईशाना,विष्णुमाया,शिवा (दुर्गा)।
 
              सती,नित्या,सत्या,भगवती,सर्वाणी,सर्वमंगला।

              अम्बिका,वैष्णवी,गौरी,पार्वती,सनातनी।

ये सोलह नाम बताये गये हैं,वे सबके लिये कल्याणदायक हैं।
भगवान विष्णु ने वेद में इन सोलह नामों का अर्थ किया है------

1- दुर्गा :----        
       शब्द का पदच्छेद यो है–-
                             दुर्ग+आ।
 ‘दुर्ग’ शब्द---
           दैत्य,महाविघ्न,भवबन्धन,कर्म,शोक,दुःख, नरक,यमदण्ड,जन्म,महान भय तथा अत्यन्त रोग के अर्थ में आता है। 
‘आ’ शब्द----
       ‘हन्ता’ का वाचक है।
      जो देवी इन दैत्य और महाविघ्न आदि का हनन करती है, उसे ‘दुर्गा’ कहा गया है।

 2- नारायणी :---
              यह दुर्गा यश,तेज,रूप और गुणों में नारायण के समान है तथा नारायण की ही शक्ति है। 
             इसलिये ‘नारायणी’ कही गयी है।

 3- ईशाना :---
             पदच्छेद इस प्रकार है--
                                  ईशान+आ।
 ‘ईशान’ शब्द----
           सम्पूर्ण सिद्धियों के अर्थ में प्रयुक्त होता है और 
‘आ’ शब्द----- 
            दाता का वाचक है।
               जो सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाली है,
               वह देवी ‘ईशाना’ कही गयी है।

4- विष्णु माया :----
              पूर्वकाल में सृष्टि के समय परमात्मा विष्णु ने माया की सृष्टि की थी और अपनी उस माया द्वारा सम्पूर्ण विश्व को मोहित किया। 
              वह मायादेवी विष्णु की ही शक्ति है।
               इसलिये ‘विष्णुमाया’ कही गयी है।

5- ‘शिवा’ : ---
          शब्द का पदच्छेद है---
                                 शिव+आ। 
‘शिव’ शब्द ----
          शिव एवं कल्याण अर्थ में प्रयुक्त होता है।
 ‘आ’ शब्द---
         प्रिय और दाता-अर्थ में। 
            वह देवी कल्याणस्वरूपा है।
            शिवदायिनी है और शिवप्रिया है।
             इसलिये ‘शिवा’ कही गयी है।

 6- सती :-----
          देवी दुर्गा सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी हैं।
           प्रत्येक युग में विद्यमान हैं।
            पतिव्रता एवंसुशीला हैं। 
             इसीलिये उन्हें ‘सती’ कहते हैं। 

7- नित्या :----
           जैसे भगवान नित्य हैं, उसी तरह भगवती भी ‘नित्या’ हैं।
             प्राकृत प्रलय के समय वे अपनी माया से परमात्मा श्रीकृष्ण में तिरोहित रहती हैं।

8- सत्या :-----
         ब्रह्मा से लेकर तृण अथवा कीटपर्यन्त सम्पूर्ण जगत कृत्रिम होने के कारण मिथ्या ही है।
परंतु दुर्गा सत्यस्वरूपा हैं। 
     जैसे भगवान सत्य हैं,उसी तरह प्रकृति देवी भी ‘सत्या’ हैं। 

9- भगवती :-----
           सिद्ध, ऐश्वर्य आदि के अर्थ में ‘भग’ शब्द का प्रयोग होता है, ऐसा समझना चाहिये।
   वह सम्पूर्ण सिद्ध,ऐश्वर्यादिरूप भग प्रत्येक युग में जिनके भीतर विद्यमान है, वे देवी दुर्गा ‘भगवती’ कही गयी हैं। 

10- सर्वाणी :----
            जो विश्व के सम्पूर्ण चराचर प्राणियों को जन्म, मृत्यु, जरा आदि की तथा मोक्ष की भी प्राप्ति कराती हैं।
वे देवी अपने इसी गुण के कारण ‘सर्वाणी’ कही गयी हैं। 

11- सर्वमंगला :-----
                 ‘मंगल’ शब्द मोक्ष का वाचक है।
                  ‘आ’ शब्द दाता का।
 जो सम्पूर्ण मोक्ष देती हैं,वे ही देवी ‘सर्वमंगला’ हैं।
 
‘मंगल’ शब्द---
             हर्ष सम्पत्ति और कल्याण के अर्थ में प्रयुक्त होता है।जो उन सबको देती हैं।
           वे ही देवी ‘सर्वमंगला’ नाम से विख्यात हैं। 

12- अम्बिका :----
           ‘अम्बा’ शब्द--
                        माता का वाचक है तथा वन्दन और पूजन-अर्थ में भी ‘अम्ब’ शब्द का प्रयोग होता है।
वे देवी सबके द्वारा पूजित और वन्दित हैं तथा तीनों लोकों की माता हैं।
इसलिये ‘अम्बिका’ कहलाती हैं। 

13- वैष्णवी :----
             देवी श्रीविष्णु की भक्ता, विष्णुरूपा तथा विष्णु की शक्ति हैं।
साथ ही सृष्टिकाल में विष्णु के द्वारा ही उनकी सृष्टि हुई है।
 इसलिये उनकी ‘वैष्णवी’ संज्ञा है।

14- गौरी :----
          ‘गौर’ शब्द---
                 पीले रंग, निर्लिप्त एवं निर्मल परब्रह्म परमात्मा के अर्थ में प्रयुक्त होता है।
 उन ‘गौर’ शब्द वाच्य परमात्मा की वे शक्ति हैं।
           इसलिये वे ‘गौरी’ कही गयी हैं। 

भगवान शिव सबके गुरु हैं और देवी उनकी सती-साध्वी प्रिया शक्ति हैं।
इसलिये ‘गौरी’ कही गयी हैं।
श्रीकृष्ण ही सबके गुरु हैं और देवी उनकी माया हैं। इसलिये भी उनको ‘गौरी’ कहा गया है।

15 - पार्वती :-----
            ‘पर्व’ शब्द---
                     तिथिभेद (पूर्णिमा),पर्वभेद,कल्पभेद तथा अन्यान्य भेद अर्थ में प्रयुक्त होता है।
            
             ‘ती’ शब्द---
                     ख्याति के अर्थ में आता है। 
                 उन पर्व आदि में विख्यात होने से उन देवी की ‘पार्वती’ संज्ञा है। 

‘पर्वन’ शब्द---
           महोत्सव-विशेष के अर्थ में आता है। 
उसकी अधिष्ठात्री देवी होने के नाते उन्हें ‘पार्वती’ कहा गया है। 
वे देवी पर्वत (गिरिराज हिमालय) की पुत्री हैं। 
पर्वत पर प्रकट हुई हैं तथा पर्वत की अधिष्ठात्री देवी हैं। इसलिये भी उन्हें ‘पार्वती’ कहते हैं।

 
16- सनातनी :----
                सना’ का अर्थ है--
                                        सर्वदा।
                ‘तनी’ का अर्थ है---
                                 विद्यमाना।

 सर्वत्र और सब काल में विद्यमान होने से वे देवी ‘सनातनी’ कही गयी हैं।

प्रातः स्मरणीय मंत्र एवं स्तोत्र ।।

ॐ गुं गुरूभ्यो नमः
ॐ गं गणपतये नमः 
 ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत्पुंडरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः॥

वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ।
निर्विघ्नं कुरू मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।। 

ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्।
द्वंद्वातीतं गगनसदृशं, तत्त्वमस्यादिलक्षम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधी: साक्षीभूतम्।
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरूं तं नमामि।।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर:।
गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवै नम:।। 

शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। 

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥
एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥
एतेशां दर्शनादेव पातकं नैव तिष्ठति।
कर्मक्षयो भवेत्तस्य यस्य तुष्टो महेश्वराः॥

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। 

भावार्थ:- 
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें।

ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःख नाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (पाप नाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करें) धियो (बुद्धि) यः (जो) नः (हमारी)प्रचोदयात (प्रेरित करें)।

अर्थात् - उस प्राण स्वरूप, दुखनाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति. चतुर्थकम्।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमंकालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना:।।

या कुन्देन्दु तुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्ड मण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा।।

जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें॥

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फटिक मालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥

शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत् में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान् बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ॥

सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके
शरण्ये त्र्यंबके गौरि नारायणि नमोsस्तुते।।

सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी, कल्याण करने वाली, सब के मनोरथ को पूरा करने वाली, तुम्हीं शरण ग्रहण करने योग्य हो, तीन नेत्रों वाली यानी भूत भविष्य वर्तमान को प्रत्यक्ष देखने वाली हो, तुम्ही शिव पत्नी, तुम्ही नारायण पत्नी अर्थात भगवान के सभी स्वरूपों के साथ तुम्हीं जुडी हो, आप को नमस्कार है।

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते।।
अहिल्या द्रौपदी सीता तारा मंदोदरी तथा।
पंचकन्या ना स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम्।। 

गीता गंगा च गायत्री सीता सत्या सरस्वती।
ब्रह्मविद्या ब्रह्मवल्ली त्रिसंध्या मुक्तगेहिनी।।

अर्धमात्रा चिदानन्दा भवघ्नी भयनाशिनी।
वेदत्रयी पराऽनन्ता तत्त्वार्थज्ञानमंजरी।।
इत्येतानि जपेन्नित्यं नरो निश्चलमानसः।
ज्ञानसिद्धिं लभेच्छीघ्रं तथान्ते परमं पदम्।।
                                     गीता, गंगा, गायत्री, सीता, सत्या, सरस्वती, ब्रह्मविद्या, ब्रह्मवल्ली, त्रिसंध्या, मुक्तगेहिनी, अर्धमात्रा, चिदानन्दा, भवघ्नी, भयनाशिनी, वेदत्रयी, परा, अनन्ता और तत्त्वार्थज्ञानमंजरी (तत्त्वरूपी अर्थ के ज्ञान का भंडार) इस प्रकार (गीता के) अठारह नामों का स्थिर मन से जो मनुष्य नित्य जप करता है वह शीघ्र ज्ञानसिद्धि और अंत में परम पद को प्राप्त होता है |

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमानश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविन:।।
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम ये सात महामानव चिरंजीवी हैं।

यदि इन सात महामानवों और आठवे ऋषि मार्कण्डेय का नित्य स्मरण किया जाए तो शरीर के सारे रोग समाप्त हो जाते है और 100 वर्ष की आयु प्राप्त होती है।

हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे॥
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम्।
दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम्।
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥

मनोजवं मारुत तुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम्I
वातात्मजं वानर यूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये।।, 

मैं मन के समान शीघ्रगामी एवं वायुके समान वेगवाले, इन्द्रियोंको जीतनेवाले, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ, वायुपुत्र, वानरसमूहके प्रमुख, श्रीरामदूत हनुमानजीकी शरण ग्रहण करता हूँ I

कर्पूर गौरम करुणावतारं,
संसार सारं भुजगेन्द्र हारं।
सदा वसंतं हृदयार विन्दे,
भवं भवानी सहितं नमामि।